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इस पर कभी आपने सोचा है ?


स्वामी अखंडानंद जी मधुसूदन सरस्वती जी का एक प्रसंग बताते हैं कि ‘अद्वैतसिद्धि’ लिख लेने के बाद मधुसूदन सरस्वती जी एकांत में बैठे शास्त्रचिंतन कर रहे थे उस समय एक अवधूत उनकी कुटिया में घुस गये और आसन पर ऊँचे बैठ गये । मधुसूदन जी देखने लगे, ‘यह कौन है जो हमारी कुटिया में आकर हमसे ऊँचे बैठ गया ?’

अभी नीचे-ऊँचे कौन बैठते हैं ? यह ब्रह्म नीचे-ऊँचे बैठता है ?

मधुसूदन जी ने पूछाः “महाराज ! आप कौन हैं ?”

अवधूत बोलेः “मधुसूदन ! मैं तुमसे एक सवाल पूछने के लिए आया हूँ । तुम यह बताओ कि जब तुम कभी किसी बड़े पंडित को हरा देते हो शास्त्रार्थ में, तब तुम्हें ‘मुझे बड़ा सुख मिला’ – यह प्रसन्नता होती है कि नहीं ? और जब कोई तगड़े पंडित से काम पड़ता है और मालूम पड़ता है कि देखो, आगे युक्ति फुरती है कि नहीं फुरती, तो युक्ति का स्फुरण न होने से तुम्हारी तबीयत घबरा जाती है कि नहीं ? तुम अपने में व्याकुलता का अनुभव करते हो कि नहीं ? शरीर की व्याकुलता जाने दो, मन की व्याकुलता जाने दो, आभास से तुम्हारी एकता होती है कि नहीं ? प्रश्न देह से एकता का नहीं है, इन्द्रिय से एकता का भी नहीं है, मन से एकता का भी नहीं है, आभास चेतना से एकता का प्रश्न है ।”

तुम्हारे मन में बुरा काम होने पर ग्लानि, हारने का अवसर आने पर घबराहट, जीत होने पर प्रसन्नता, यह होता है कि नहीं ?

यह सुख-दुःख जो है, यह ‘यह सुख है’, ‘यह दुःख है’ इस ढंग से सुख और दुःख की वृत्ति नहीं होती । ‘मैं सुखी’, मैं दःखी’ ऐसी ही वृत्ति होती है । ‘यह हमारे मन में दुःख बहा जा रहा है’ – ऐसे सुख-दुःख की प्रतीति नहीं होती । ‘मैं सुखी’, ‘मैं दुःखी’ करके आभास बैठता है । तुम उसके साक्षी हो । सुखी-दुःखी बना हुआ आभास तुम्हारा दृश्य है, तुम उससे पृथक हो । इसी को तो बोलते हैं कि शोक की निवृत्ति जो होती है वह भी आभास में ही होती है । अपार हर्ष और शोक की निवृत्ति भी आभास में ही होती है । ब्रह्म में शोक कभी होता ही नहीं तो उसमें निवृत्ति कहाँ से ?

मधुसूदन जी ने कहाः “महाराज ! आप बात तो सच्ची कहते हैं । होता है सुख, होता है दुःख ।”

अवधूत बोलेः “फिर थोड़ा और विचार करो । और विचार करने की गुंजाइश है अभी ।” और अवधूत वहाँ से अदृश्य हो गये उनसे बातचीत करके ।

या तो आप देह को मानते हैं या ब्रह्म को मानते हैं और बीच-बीच में यह पापीपने और पुण्यात्मापने से सुखीपने-दुःखीपने का अभिमान होता रहता है, इस पर कभी आपने सोचा है ? उसी का अर्थ आध्यात्मिक विचार है । आध्यात्मिक विचार माने शरीर के भीतर मन की मनोवृत्तियाँ जो हैं, वे किस प्रक्रिया से काम करती हैं, किस ढंग से काम करती हैं इस बात को समझना । आँख बंद कर लेने से काम नहीं चलता है, आँख को खोलकर प्रत्येक वस्तु को देखना पड़ता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2020, पृष्ठ संख्या 7 अंक 335

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परमात्मा की प्रतिष्ठा नहीं करनी है


वन में एक विशाल और सुंदर शिव-मंदिर था । उस निर्जन मंदिर में बहुत से जंगली कबूतर बसेरा लेते थे । उन कबूतरों की बीट धीरे-धीरे इतनी वहाँ भर गयी कि उस बीट से मंदिर में स्थापित शिवलिंग ढककर छिप गया । घूमते हुए एक महात्मा उधर से निकले । उतना विशाल और सुंदर मंदिर किंतु मूर्ति उसमें दिखती नहीं थी । महात्मा के मन में आया कि ‘इसमें शिवलिंग स्थापित करवा दूँ ।’ जब वे इसका उद्योग करने लगे तो किसी वनवासी ने बतायाः “मंदिर में शिवलिंग तो पहले से स्थापित है । वह कबूतरों की बीट से ढक गया है । बीट हटाकर स्वच्छ करवा दीजिये ।”

महात्मा ने मंदिर स्वच्छ कराया । बीट हटाते ही बड़ा सुंदर शिवलिंग प्रकट हो गया । इसी प्रकार तुम्हारे अंतःकरण में जो अविद्या-कल्पित मल है, उसके कारण वहाँ पहले से ही विद्यमान ‘स्व’ (अपने आत्मशिव) का दर्शन नहीं होता है । उस परमात्मा की प्रतिष्ठा नहीं करनी है । कहीं से उसे लाना नहीं है । केवल अंतःकरण में जो कूड़ा-मल भरा है, उसे स्वच्छ करना है ।

पूज्य बापू जी कहते हैं- “सत्संग के साथ-साथ यदि साधक के जीवन में सेवा का समन्वय हो तो फिर ज्यादा परिश्रम की आवश्यकता भी नहीं होती । सेवा से अंतःकरण शुद्ध होता है और शुद्ध अंतःकरण में परमात्मा का प्रकाश शीघ्र होता है ।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2020, पृष्ठ संख्या 6 अंक 335

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चंचल मन से कैसे पायें अचल पद ? – पूज्य बापू जी


संसार का रस टिकता नहीं और मनुष्य की नीरसता मिटती नहीं, खुद मिटकर मर जाता है, बोलो! अब क्या करें? तो जहाँ सच्चा, शाश्वत रस है वहाँ मन को लगाना चाहिए। लेकिन मन चंचल है। तो केवल मन चंचल है? पृथ्वी भी चंचल है, घूमती रहती है, १ मिनट में करीब २८ किलोमीटर घूमती है। सूरज भी चंचल है, घूमता रहता है। चाँद भी चंचल है, वायु भी चंचल है, बुद्धि भी परिवर्तनशील है, श्रीराम भी चंचल हैं, श्रीकृष्ण भी चंचल हैं – ठुमक-ठुमक नाचते हैं। कौन चंचल नहीं है? तो मन चंचल है, मन चंचल है… कह के काहे को परेशान होते हो! जब इतने सारे चंचल हैं तो मन भी चंचल है। लेकिन यह अकेला चंचल नहीं है, प्रमाथी भी है, मथ डालता है। किसी बहू-बेटी को बुरी दृष्टि से देखा तो शरीर में ऐसा मथ देता है कि करा-कराया, खाया-खवाया सब नाली से बाहर – स्वप्नदोष कर देवे रात को बुरी नीयतवाले का। फिल्म की अभिनेत्री तो अभी क्या पता जिंदी है कि मर गयी लेकिन उसका नाच-गान और हँसी देखकर कई लोग विकारी वासनाओं – कल्पनाओं में अपने स्वास्थ्य की तबाही कर लेते हैं। ऐसा मथ देता है मन!

तो क्या करें? अरे! फिक्र न करो बेटे! मन चंचल है और मथ देता है लेकिन इन दोनों को सत्ता देने वाला तुम्हारा चैतन्य आत्मा तुम हो। मन की वासना को बुद्धि समर्थन न दे और शरीर साथ न दे तो वासना आकर चली जायेगी।

चलती चक्की देख के दिया कबीरा रोय।

दो पाटन के बीच में साबित बचा न कोय।।

चक्की चले तो चालन दे तू काहे को रोय।

लगा रहे जो कील से तो बाल न बाँका होय।।

तू कीलस्वरूप अपने आत्मदेव की स्मृति में लगा रह तो बाल भी बाँका नहीं होगा लेकिन अभ्यास की जरूरत है। करोड़ों वर्ष का मन की गुलामी का अभ्यास है इसिलिए उस हलके अभ्यास को मिटाने के लिए ध्यान का, जप का, सेवा का अभ्यास और भगवान को अपना मानकर भगवत्प्रेम करने का अभ्यास बढ़ा दे, मौज हो जायेगी!

‘मंन चंचल है, चंचल है….’ फरियाद मत करो भैया ! जल भी चंचल है, सूर्य की किरणें भी चंचल हैं और अग्नि की लपटें भी तो चंचल हैं ! बिजली तारों में भागती जा रही है… वह भी तो चंचल है, कहाँ ठहरती है ? माया भी चंचल है और माया का ओढ़ना लेकर भगवान साकार हो के आते हैं तो वे भी चंचलता की लीला करते हैं । तो तेरा मन चंचल है इसकी तू फरियाद मत कर । मन केवल चंचल और प्रमाथी ही नहीं है, वह तुम्हारा मित्र भी है और शत्रु भी है । अगर इसकी चंचलता और प्रमाथीपने में मिलते गये तो तुम्हारा शत्रु है, तुम्हें तबाह करके छोड़ेगा लेकिन तुमने शरीर से सहयोग नहीं दिया और बुद्धि से समर्थन नहीं दिया तो यह मन तुम्हारा हितैषी भी हो जायेगा । मन जैसा मित्र नहीं, ईश्वर से मिलाने वाला भी तो मन है !

मन में एक बड़ा सदगुण है, इसको एक बार जिसका चस्का आ जाता है उधर ही चल पड़ता है । शराबी शराब के चस्के में तो जुआरी जुए के चस्के में तबाह हो जाता है । प्रेमी-प्रेमिका प्रेम विवाह के चस्के में खत्म हो जाते हैं । किंतु मन को भगवान पाने का चस्का लगा तो वह भगवान से मिला देगा, ऐसा मित्र भी तो है न ! भगवत्प्राप्त महापुरुषों का संग बड़ी मदद करता है । भगवन्नाम-सुमिरन, भगवद् कथा व वार्ता, कीर्तन, उत्सव – यह सब मन की मित्रतावाला रास्ता है औऱ विकारों से सुख खोजना यह मन से शत्रुता करने वाला रास्ता है ।

भगवान कहते हैं-

आत्मैव ह्यत्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ।।

बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।

अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ।।

‘(सद्गुरु और शास्त्र के अनुसार चलने पर) आत्मा (मन) ही आत्मा (जीव) का बंधु है और (अशुभ कार्य करने पर) आत्मा (मन) ही आत्मा (जीव) का शत्रु है । जिसने आत्मा को  (विवेकयुक्त मन) से आत्मा (देह और इन्द्रियों को जीत लिया है वह आत्मा (मन), आत्मा (जीव) का बंधु है और देह-इन्द्रियादि अनात्म पदार्थों में प्रेम हो जाने पर उनके अनुसार चलने वाला आत्मा (मन) शत्रु के समान शत्रुभाव में बरतता है ।’ (गीता – 6.5-6)

जो अनात्म चीजें हैं – विषय-विकार, भोग, उनमें अगर मन को जाने दिया सुख खोजने के लिए तो यह आपको शत्रुता का काम देगा और उधर से घुमा-घुमा के ईश्वर में, भगवत्प्रीति में, ध्यान, सत्संग, सत्कर्म, सेवा में लगाया तो तो आपको ईश्वर से मिला देगा । सत्कर्म, सेवा से औदार्य सुख मिलता है । दूसरे को सुख देने से अपने सुख की वासना मिटती है और अंदर से अपना औदार्य सुख प्रकट होता है ।

मन चंचल है, बुद्धि परिवर्तनशील है, शरीर चंचल है, शरीर में रक्त घूम रहा है वह भी चंचल है, काम चंचल है, क्रोध चंचल है, लोभ-मोह ये सब चंचल, चंचल करने वाले हैं फिर भी इन चंचलताओं के बीच भी एक अचल है । सब चंचल-ही-चंचल हैं फिर भी एक खुशी की बात है कि इनकी चंचलता देखने वाला अचल है…. वह मेरा, मैं उसका ! कितना शुभ समाचार है, कितनी ऊँची बात है !

जरा विचार करें, ‘काम आया, हम कामी हो गये, काम चला गया, हम वही रह गये । लोभ आया, चंचल हुए, लोभ चला गया, हम अचल हो गये । इन चंचलों में भी अचल है न हमारा स्वामी ! हम उसी के बालक हैं । महाराज ! हम तेरे हैं । तू अचल है तो हम तेरे बच्चे हैं, जैसा बाप वैसा बेटा, जैसे गुरु वैसा चेला, संसार चलाचली का मेला । लेकिन तू अचल है और मैं तेरा बालक भी अचल हूँ, मैंने भी शरीर की अवस्थाएँ जानीं । तूने सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय देखा  तो मैंने शरीर का बाल्यकाल, जवानी, बुढ़ापा सब देखा । मैं तेरा और तू मेरा प्यारे !…. मेरे इष्टदेव !’ युक्ति से मुक्ति होती है । ईश्वर को पाने का इरादा कर लो फिर संतों की युक्तियों से आप संसार के दुःखों से तर जाओगे । बाकी डॉलर मिलने से दुःख मिटता है यह बेवकूफी की बात हम नहीं मानते धन मिलने से दुःख नहीं मिटता है, यदि मिटता तो धनवाले निर्दुःख होने चाहिए । घर मिलने से, पत्नी मिलने से भी दुःख नहीं मिटता है, बोलो ! प्रेमिका मिलने से भी दुःख नहीं मिटता है बल्कि और ज्यादा दुःखी होता है । प्रेमी मिलने से भी दुःख नहीं मिटता है बल्कि और ज्यादा दुःखी होती है । जो कभी बिछड़े नहीं उसका सत्संग, उसकी प्रीति, उसका ज्ञान और उसमें विश्रांति सारे दुःख मिटाकर परमात्मा को प्रकट कर देने वाले हैं ।

भगवान कहते हैं-

अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ।। (गीताः 9,33)

ये अनित्य हैं चंचल सब, असुखरूप हैं, इन्हें पाकर तू मेरा भजन कर और मुझे पा ले । मैं अचल हूँ ।

तो भजन कर मतलब भगवद्-रस ले । किं लक्षणं भजनम् ? रसनं लक्षणं भजनम् । भगवद्-चिंतन, भगवद्-ज्ञान का रस लेते-लेते उस ‘रसो वै सः’ में टिक जा ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2020, पृष्ठ संख्या 4-6, अंक 335

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