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तुम्हारे जीवन की संक्रान्ति का भी यही लक्ष्य होना चाहिए – पूज्य बापू जी


प्राचीन खगोलशास्त्रीयों ने विज्ञानियों ने सूर्य की रश्मियों का अध्ययन करते हुए सूर्यनारायण के मार्ग के 12 भाग किये । प्रत्येक भाग को राशि कहा गया । सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करना संक्रान्ति कहलाता है । हर महीने संक्रान्ति होती है परंतु प्राकृतिक पर्वों में यह उत्तरायण महत्त्वपूर्ण पर्व है । इस दिन से सूर्य मकर राशि में प्रविष्ट होता है इसीलिए इसको मकर संक्रान्ति कहते हैं ।

संक्रान्ति का आध्यात्मिक रहस्य

जीवन में क्रान्ति तो बहुत लोग कर लेते हैं लेकिन उस क्रान्ति के बाद भी उनका जन्म-मृत्यु तो चालू ही रह जाता है । मकर संक्रान्ति सम्यक् प्रकार की क्रान्ति का संकेत देती है । अगर मनः अथवा चित्त कल्पित क्रांति होगी तो उसमें ईर्ष्या, घृणा, भय, चिंता होगी और सफल हो गये तो अहंकार होगा किंतु सम्यक् क्रांति हुई तो महाराज ! कोई अहंकार नहीं, संतोष का भी अहंकार नहीं । मुनि अष्टावक्रजी कहते हैं-

अकर्तृत्वमभोक्तृत्वं स्वात्मनो मन्यते यदा । (अष्टावक्र गीताः 18.51)

जब व्यक्ति अपने अकर्ता और अभोक्ता तत्त्व को समझता है, अपने उस तत्त्व को ‘मैं’ मानता है तब उसके जीवन में संक्रांति होती है । जिनकी संक्रांति हो गयी है उन बुद्धपुरुषों को, ज्ञानवानों को, आत्मवेत्ताओं को हम हृदय से प्यार करते हैं । जैसे सूर्य का रथ दक्षिण से उत्तर को चला, ऐसे ही आप अपनी अधोगामी चित्त-वृत्तियाँ बदलकर ऊर्ध्वगामी करें । इस दिन यह संकल्प करें कि ‘हमारे जीवन का रथ उत्तर की तरफ चले । हम उम्दा विचार करेंगे, भय और चिंता के विचारों को आत्मविचार से हटा देंगे । संतोष-असंतोष के विचारों को चित्त का खेल समझेंगे, सफलता-असफलता के भावों को सपना समझेंगे ।’

जिसे तुम सफलताएँ, उपलब्धियाँ व क्रांतियाँ समझते हो वह संसार का एक विकट, विचित्र, भयानक और आश्चर्यकारक स्वप्न से स्वप्नांतर है ।

‘दुकान हो गयी, यह हो गया… लड़का हो गया,  लड़के का मुंडन हो गया…. आ हा हा !’ लेकिन ये एक संसारभ्रम के रूपांतर हैं । आपकी जो ‘आहा-ऊहू’ हैं वे महापुरुषों की, श्रीकृष्ण, श्रीरामजी की दृष्टि से केवल बालचेष्टाएँ हैं । तो कृपानाथ ! अपने ऊपर कृपा करिये, आपके जीवन के रथ की सम्यक् प्रकार से क्रांति अर्थात् संक्रांति कीजिए । क्रांति नहीं, क्रांति में तो लड़ाई-झगड़ा, हिंसा, भय होता है, सफल हो गये तो अहंकार होता है किंतु संक्रांति में सफलता का अहंकार नहीं, विफलता का विषाद नहीं होता है, हिंसा को स्थान नहीं है और भय की गुंजाइश नहीं है ।

तिल-गुड़ का रहस्य

पौराणिक ढंग से इस उत्सव को भारत में लोग भिन्न-भिन्न ढंग से मनाते हैं । लोग एक-दूसरे को तिल-गुड़ देते हैं । तिल में स्निग्धता है गुड़ में मिठास है तो तुम्हारे जीवन में, मन में स्निग्धता हो, रूखापन न हो और मिठास भी तुम्हारी ऐसी हो कि जैसे गुड़ या शक्कर एक-एक तिल को जोड़कर एक पक्का लड्डू बना देती है, अनेक को एक में जोड़ देती है ऐसे ही तुम्हारी अनेक प्रकार की स्निग्ध वृत्तियों में आत्मज्ञान की, परहितपरायणता की मिठास मिला दो । एक तो हवा की फूँक से उड़ जायेगा पर लड्डू जहाँ मारो वहाँ ठीक निशाना लगता है, ऐसे ही तुम्हारी वृत्तियों को उस आत्मज्ञानरूपी गुड़ के रस से भरकर फिर तुम जो भी काम करो संसार में, वहाँ तुम्हारी सफलता होती है ।

सम्यक् क्रांति का संकेत

उत्तरायण तुम्हें हिटलर होने के लिए, क्रांति करने के लिए संकेत नहीं कर रहा है बल्कि प्रेम से सम्यक् क्रांति करने का संकेत दे रहा है । और आप यह न समझें कि तलवार या डंडे के बल के आपकी जीत होती है । यह बिल्कुल झूठी मान्यता है । तलवार या डंडे के बल से थोड़ी देर के लिए जीत होती है लेकिन फिर वह सामने वाला तुम्हें हानि पहुँचाने की योजना बनाता है अथवा तुम पर वार करने की ताक में रहता है । आप प्रेम की बाढ़ इतनी बहायें कि सामने वाले के दूषित विचार भी बदलकर आपके अनुकल विचार हो जायें तो आपने ठीक से उसको जीत लिया ।

एक सम्यक् क्रांति किये हुए सेठ जी नाव में बैठकर जा रहे थे । वहाँ उऩ्हें कुछ कम्युनिस्ट विचारों के लोग मिले, बोले कि ‘भगवान का नाम लेकर सेठों ने सम्पत्ति बढ़ा ली…..’ कुछ-का-कुछ बोलने लगे । वे सेठ देखने भर को सेठ थे पर वे किसी सदगुरु के सत्शिष्य थे । जब उनका घोर अपमान हो रहा था तो उन्हें गुरु के वचन याद रहे थे कि ‘सबको बीतने दो । आखिर यह भी कब तक ? जब मान, अभिवादन के वचन पसार हो जाते हैं तो अपमान के वचन कब तक ?’ यह सूत्र उऩकी दीवालों और दिल पर लिखा था ।

सेठ के जीवन में संक्रांति घटी थी, वे ज्यों-के-त्यों थे, संतुष्ट थे । आकाशवाणी हुई कि ‘इनका जो मुखिया है उसको दरिया में डाल दो ।’ उन सेठरूपी संत ने कहाः “भगवान ! इतने कठोर तुम कब से हुए ? इन्होंने तो केवल दो शब्द ही तो बोले और तुम इनको पूरे-का-पूरा स्वाहा क्यों करते हो ?”

“तुम कह दो इनको सबक सिखा दूँ !”

“भगवान ! अगर सबक ही सिखाना है तो इनकी बुद्धि बदल दो बस ! वह काफी हो जायेगा ।”

भगवान ने मुखिया की बुद्धि बदल दी । जब मुखिया की बुद्धि बदल गयी तो उसके पीछे चलने वालों की भी बुद्धि बदल गयी, सबने सेठ से माफी ली । उनके जीवन में भी क्रांति की जगह पर संक्रांति का प्रवेश हुआ ।

जीवन की संक्रांति का लक्ष्य

दक्षिणायन में मृत्यु योगी लोग पसंद नहीं करते हैं इसलिए उत्तरायण काल के इंतजार में भीष्म पितामह 58 दिन तक बाणों की शय्या पर लेटे रहे और उसके बाद अपने प्राणों का त्याग किया ताकि दुबारा इस संसार में आना न पड़े ।

तो तुम्हारे जीवन की संक्रांति का लक्ष्य यह होना चाहिए कि दुबारा जन्म न मिले बस ! मृत्यु से डरने की जरूरत नहीं है, मृत्यु से डरने से कोई मृत्यु से बच नहीं गया । परंतु दुबारा जन्म ही न हो ऐसा प्रयास करने की जरूरत है ताकि फिर दुबारा मौत भी नहीं आये ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2020, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 336

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वह पार पहुँच जाता है – पूज्य बापू जी


सत्संगी हो चाहे कुसंगी हो, अच्छा व्यक्ति हो चाहे बुरा व्यक्ति हो, चढ़ाव उतार के दिन तो सबके आते ही हैं । श्रीराम जी के भी आते हैं और रावण के भी आते हैं । उतार के दिन आते हैं तब भी श्रीराम हृदय से पवित्र, सुखी रहते हैं और चढ़ाव के दिन आते हैं तब भी निरहंकारी रहते हैं जबकि पापी व्यक्ति के चढ़ाव के दिन आते हैं तो वह घमंड में मरता है और उतार के दिन आते हैं तो विषाद में कुचला जाता है ।

जो वाहवाही का गुलाम होकर धर्म का काम करेगा उसकी वाहवाही कम होगी या डाँट पड़ेगी तो वह विरोधी हो जायेगा लेकिन जिसको वाहवाही की परवाह ही नहीं है, भगवान के लिए, भगवान भगवान का, गुरु के लिए गुरु का काम करता है, समाज को ऊपर उठाने के लिए सत्कर्म करता है तो उसको हजार फटकार पड़े तो भी वह गुरु का द्वार, हरि का द्वार, संतों का द्वार नहीं छोड़ेगा ।

शबरी भीलन, एकनाथ जी, बाला-मरदाना को पता था क्या कि लोग हमें याद करेंगे ? नहीं, वे तो लग गये गुरु जी की सेवा में बस !

तीन प्रकार के लोग होते हैं । तामसिक श्रद्धावाला देखेगा कि ‘इतना दूँ और फटाक से फायदा हो जाय ।’ अगर फायदा हुआ तो और दाँव लगायेगा । तो तामसी लोग ऐसा धंधा करते हैं और आपस में झगड़ मरते हैं ।

राजसी व्यक्ति की श्रद्धा टिकेगी लेकिन कभी-कभी डिगेगी भी, कभी टिकेगी, कभी डिगेगी, कभी टिकेगी, कभी डिगेगी ।

अगर राजसी श्रद्धा टिकते-टिकाते पुण्य बढ गया, सात्विक श्रद्धा हो गयी तो हजार विघ्न बाधाएँ, मुश्किलें आ जायें फिर भी उसकी श्रद्धा नहीं डिगती और वह पार पहुँच जाता है । इसीलिए सात्त्तिवक लोग बार-बार प्रार्थना करते हैं- ‘हे नियति ! तू यदि धोखा देना चाहती है तो मेरे दो जोड़ी कपड़े, गहने-गाँठे कम कर देना, रूपये पैसे कम कर देना लेकिन भगवान और संत के श्रीचरणों के प्रति मेरी श्रद्धा मत छीनना ।’

श्रद्धा बढ़ती-घटती, कटती-पिटती रहती है लेकिन उन उतार-चढ़ावों के बीच से जो निकल आता है वह निहाल हो जाता है ! उसका जीवन धन्य हो जाता है !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2020, पृष्ठ संख्या 2 अंक 336

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सुकन्या का सुकन्यापन


अज्ञातरूप से भी यदि संत का अपराध जाता है तो उससे दोष की उत्पत्ति होती है । राजा शर्याति अपनी कन्या सुकन्या को लेकर जंगल में गये हुए थे और वहाँ उनकी बेटी से अनजाने में एक संत का अपराध हो गया । एक बाँबी में च्यवन ऋषि तपस्या कर रहे थे । कुतूहलवश सुकन्या ने उस बाँबी में देखा तो उसे कुछ चमकता दिखाई दिया और उसने जैसे ही बाँबी के भीतर कुश डाला तो च्यवन ऋषि की आँखों में जाकर चुभा और खून बहने लगा । उसी समय राजा शर्याति के सैनिकों का मलमूत्र रुक गया । जब शर्याति को वास्तविकता का पता चला कि मेरी बेटी से अपराध हुआ है, भले ही वह अनजाने में हुआ है, उसने ऋषि से क्षमायाचना की ।

अपनी गलती मालूम होने पर उसको स्वीकार कर लेना – यह पुरुष का लक्षण है । यह मानव-धर्म है । अब शर्याति ने सुकन्या से कहा कि “इन्हीं महात्मा के साथ तेरा विवाह कर देते हैं ।” वह मान गयी ।

तो इसमें सुकन्यापन क्या है ? विवाह होता है वासना की निवृत्ति व संयम के लिए, धर्मनिष्ठा के लिए । आजकल कुएँ में भाँग पड़ गयी है । लोग समझते हैं कि विवाह केवल भोग के लिए होता है । वासना की उच्छृंखल प्रकृति को रोककर एक स्त्री को एक पुरुष में और एक पुरुष को एक स्त्री में बाँध देना – यह विवाह वासना को मिटाने का उपाय है कि वासना को बढ़ाने का उपाय है ? तो विवाह संस्कार तो वासना को मिटाने का उपाय है । लक्ष्य में भेद हो गया । भोग तो स्वाभाविक है । भोग की वासना तो विकृति है । धर्म-द्रष्टा राजा शर्याति की पुत्री की सुकन्यापन क्या है ? उसने कहा कि “हमको जीवनभर सेवा करनी है, कोई वासनापूर्ति थोड़े ही करनी है ! चलो, इन्हीं की सेवा सही ।” और पिता ने जो निर्णय किया, उसको सुकन्या ने मान लिया ।

इसका फल क्या हुआ ? तपस्या से सुख मिलता है । जो बड़े-से-बड़े दुःख की कल्पना करके उसको भोगने के लिए तैयार रहता है, उसके जीवन में कितना भी दुःख आवे, उसे वह हलका मालूम पड़ता है और सुखरूप लगता है । तो अच्छे से अच्छे के लिए प्रयत्न करो और बुरे-से-बुरे के लिए तैयार रहो – यह कर्म का नियम है ।

अब सुकन्या ने एक ओर तो पिता की आज्ञा का पालन किया और दूसरी ओर पति की सेवा करने लगी । उसके अंदर संयम आया, धर्म आया, तपस्या, सहिष्णुता व सुशीलता आयी । सारे सदगुण उसके अंदर आ गये । अश्विनी कुमारों ने देखा कि यह युवा कन्या और इस वृद्ध ऋषि की सेवा में है । वे प्रसन्न होकर प्रकट हो गये । देवता का अनुग्रह हुआ । उन्होंने च्यवन ऋषि को जवान बना दिया । यह धर्म का फल है ।

अश्विनी कुमारों ने एक बार सुकन्या के पातिव्रत की परीक्षा की । दोनों अश्विनीकुमार और च्यवन एक जैसे हो गये । लेकिन सुकन्या तो हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी, बोलीः “आप दो देवता हैं और एक मेरे पति हैं । मैं आपसे प्रार्थना करती हूँ कि आप कृपा करके मेरे धर्म की रक्षा कीजिये । मेरे पति की पहचान बता दीजिये कि कौन है । मैं तो नहीं पहचानती हूँ ।”

दोनों देवता प्रसन्न होकर अलग हो गये और उसको च्यवन मिल गये । यह पातिव्रत धर्म की महिमा है । मानव-धर्म के अंदर यह सुकन्या का धर्म है । (स्वामी अखंडानंद जी के प्रवचन एवं श्रीमद्भागवत से संकलित )

सर्वसस्तस्तु दुर्गाणि..

श्रीमद्भागवत में आगे प्रसंग आता हैः कुछ समय के बाद यज्ञ करने की इच्छा से राजा शर्याति च्यवन मुनि के आश्रम आये । सुकन्या ने चरणों की वंदना की । सुकन्या के पास एक तेजस्वी पुरुष बैठा हुआ देखकर राजा अप्रसन्न हुए और आशीर्वाद नहीं दिया । सुकन्या ने अपने पिता से महर्षि च्यवन के यौवन और सौंदर्य की प्राप्ति का सारा वृत्तांत कह सुनाया । राजा शर्याति ने विस्मित होकर बड़े प्रेम से अपनी पुत्री को गले से लगा लिया ।

महर्षि च्यवन ने वीर शर्याति से सोमयज्ञ का अनुष्ठान करवाया और सोमपान के अधिकारी न होने पर भी अपने प्रभाव से अश्विनी कुमारों को सोमपान कराया । इन्द्र से यह सहा न गया । उन्होंने चिढ़कर शर्याति को मारने के लिए वज्र उठाया । महर्षि च्यवन ने वज्र के साथ उनके हाथ को वहीं स्तम्भित कर दिया । तब सब देवताओं ने अश्विनीकुमारों को सोम का भाग देना स्वीकार कर लिया ।

भारतीय संस्कृति कहती हैः सर्वस्तस्तु दुर्गाणि…. अर्थात् एक दूसरे को उन्नत करते हुए सभी संकीर्ण मान्यताओं रूपी दुर्ग को पार कर जायें । ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ भगवान अर्जुन को बताते हैं कि सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी ने सृष्टि रचना करने के बाद प्राणिमात्र को बड़ा हितकारी संदेश दियाः

परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ।।

‘तुम लोग निःस्वार्थ भाव से एक दूसरे को उन्नत करो । ऐसा करते हुए तुम परम कल्याण (परमात्म-साक्षात्कार) को प्राप्त हो जाओगे ।’ (गीताः 3.11)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2020, पृष्ठ संख्या 21,22 अंक 335

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