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अमर विद्या पा लो


संत पथिक जी कहते हैं – “विद्या वही है जिससे सत्य क्या है, असत्य क्या है – यह ज्ञान प्राप्त हो । विद्या वही है जिससे विषयों के बंधन और तज्जनित दुःखों से मुक्ति हो, अज्ञान की निवृत्ति हो और परम शांति की प्राप्ति हो ।”

विष्णु पुराण (1.19.41) में भगवद्भक्त प्रह्लाद जी अपने पिता हिरण्यकशिपु को कहते हैं –

तत्कर्म यन्न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये ।

आयासायापरं कर्म विद्यान्या शिल्पनैपुणम् ।।

‘कर्म वही है जो बन्धन का कारण न हो और विद्या भी वही है जो मुक्ति की साधिका हो । इसके अतिरिक्त और कर्म तो परिश्रमरूप तथा अऩ्य विद्याएँ कला-कौशलमात्र ही हैं ।’

पूज्य बापू जी के सत्संग में आता हैः “हमने सुना है कि अष्टावक्र मुनि पूर्वजन्म के योगी थे, मीरा भगवान श्रीकृष्ण की गोपियों में से एक, भगवान की भक्त थीं । पूर्वजन्म के योगियों और भक्तों के बारे में तो बहुत सुना है पर यह कभी सुनने में नहीं आया कि यह पूर्वजन्म का चिकित्सक पी.एच.डी. है । नये जन्म में सभी को क, ख, ग, घ…. से ही लौकिक विद्या की शुरुआत करनी पड़ती है किंतु आत्मविद्या में ऐसा नहीं है । जिन्होंने आत्मतत्त्व का साक्षात्कार कर लिया वे मुक्त हो गये लेकिन जिनकी साधऩा अधूरी रह गयी है उऩकी साधना अगले जन्म में वहीं से शुरु होगी जहाँ से छूटी थी । इस पर मौत का भी प्रभाव नहीं पड़ता । यह विद्या दूसरे जन्म में भी हमारे काम आती है इसीलिए इसे  अमर विद्या भी कहते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2020, पृष्ठ संख्या 19 अंक

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तुम भी बन सकते हो अपनी 21 पीढ़ियों के उद्धारक


प्राचीन काल की बात है । नर्मदा नदी जहाँ से निकलती है वहाँ अमरकंटक क्षेत्र में सोमशर्मा नामक एक ब्राह्मण रहता था । उसकी पत्नी का नाम था सुमना । सुमना के पुत्र का नाम था सुव्रत । सुव्रत जिस गुरुकुल में पढ़ता था वहाँ के कुछ शिक्षक, आचार्य ऐसे पवित्रात्मा थे कि वे उसे ऐहिक विद्या पढ़ाने के साथ योगविद्या और भगवान की बातें भी सुनाते थे । सुव्रत अपने पड़ोस के बच्चों के साथ खेलता तो किसी का नाम ‘गोविन्द’ रख देता, किसी  का ‘मोहन’, किसी का ‘मुरलीधर’, किसी का ‘गुरुमुख’ तो किसी का ‘गुरुचरण’ या ‘हरिचरण’ – ऐसे नाम रख देता । तो ये अच्छे-अच्छे नाम रखकर वह बच्चों के साथ खेलता । थोड़ी देर खेलता फिर कहता कि ‘यह खेल खेलकर तो शरीर को थोड़ी कसरत मिली, अब असली खेल खेलो जिससे मन-बुद्धि को भी कसरत मिले, परमात्मा की शक्ति मिले । चलो, लम्बा श्वास लो और भगवान के नाम का उच्चारण करो ।”

5-10 मिनट उच्चारण करता फिर बोलता कि “चलो, बैठ जाओ । जो श्वास भीतर जाता है उसको देखो, जो बाहर आता है उसको गिनो….” ऐसा करते-करते भगवान का ध्यान का उसने बच्चों को चस्का लगा दिया । तो सुव्रत के सम्पर्क में आने वाले पड़ोस के बच्चे, जो अलग-अलग गुरुकुलों में पढ़ते थे, उनका मन भी प्रसन्न होने लगा, उनके माँ-बाप भी सुव्रत को प्रेम करने लगे ।

सुव्रत ने यह बात समझ ली कि 3 प्रकार की विद्या होती है । एक तो विद्यालय में पढ़ते हैं वह ऐहिक विद्या, दूसरी योगविद्या और तीसरी आत्मविद्या । ‘मैंने विद्यालय की विद्या तो पढ़ ली, अब मेरे को योगविद्या सीखनी है, आत्मविद्या में आगे बढ़ना है ।’ ऐसा सोचकर भगवान को पाने का दृढ़ संकल्प कर लिया सुव्रत ने । माँ-बाप को बोला कि “मैंने संसार की विद्या, गुरुकुल की विद्या तो पा ली लेकिन अब मुझे योगविद्या और आत्मविद्या पानी है ।”

वैडूर्य पर्वत पर सिद्धेश्वर नामक स्थान के पास एक कुटिया में जाकर उसने साधना की । उस साधना से उसके मन में जो थोड़ी सी कमी बाकी बची थी वह भी दूर हो गयी और उसका ध्यान दृढ़ हो गया । ध्यान दृढ़ होने से उसकी बुद्धि में परमात्मा के ज्ञान का प्रकाश हुआ और ईश्वर के दर्शन करके भगवान नारायण से वरदान लिया कि ‘मेरे माता-पिता को भगवद्धाम की प्राप्ति हो । मुझे श्रीहरि के सगुण रूप के दर्शन और निर्गुण स्वरूप का अनुभव हो और मैं संसार में रहते हुए भी किसी चीज को सच्ची न समझूँ, सब छोड़ के जाना है, सच्चे तो एक परमात्मा तुम ही हो – ऐसा मेरा ज्ञान दृढ रहे ।’

भगवान सुव्रत के इन पवित्र वरदानों से बड़े प्रसन्न हुए । दादा-दादी, नाना-नानी आदि की कुल 21 पीढ़ियों का उद्धार करने वाले सुव्रत ने अपना तो उद्धार किया, अपने माता-पिता का भी बेड़ा पार किया और अन्य बच्चों के लिए वह भगवत्प्राप्ति का प्रेरक बन गया । तुममें से भी कोई सुव्रत बन जाय, कोई स्वामी विवेकानंद बन जाय, कोई शिवाजी महाराज बन जाय, कोई स्वामी रामतीर्थ बन जाय, कोई सदगुरु लीलाशाह बन जाय, कोई कुछ बन जाय… बच्चों के अन्दर असीम शक्तियाँ छुपी हैं ।

दूसरे का अपकार न करें

इच्छेत्परापकारं यः स तस्यैव भवेद् ध्रुवम् ।

इति मत्वापकारं नौ कुर्यादन्यस्य पूरूषः ।।

‘जो दूसरे का अपकार करना चाहता है, निश्चय ही पहले उसी का अपकार हो जाता ऐसा समझकर कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे का अपकार न करे ।’ (शिव पुराणः रूद्र संहिता, सती खंडः 19.16)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2020, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 336

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बोझा अपने सिर पर क्यों रखना ! – पूज्य बापू जी


तुम निष्फिक्र परमात्मा की ओर आते हो तो बाकी का सब गौण हो जाता है और प्रकृति सहयोगी हो जाती है । अपने को बोझा नहीं उठाना पडता है । अपने को कर्तृत्व का अभिमान होता है तभी बोझा लगता है । कर्तृत्व का अभिमान नहीं है, देहाध्यास गल जाय, परमात्म-तत्त्व का साक्षात्कार हो जाय तो फिर तो तुम्हारे लिए सब खेल है विनोद है ।

विनोदमात्र व्यवहार जेनो ब्रह्मनिष्ठ प्रमाण ।

तुम्हारा व्यवहार विनोद जैसा हो जाय । व्यवहार को इतना महत्त्व नहीं दो कि बस, सिर पर चढ़ बैठे, हृदय का कब्जा ले ले कि ‘अब क्या होगा, अब क्या होगा ?….’ क्या होगा ? ज्यादा-से-ज्यादा तो…. हो-हो के क्या होगा !

हमारे गुरुजी (भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाहजी महाराज) विनोदी बात कहा करते थे कि “हमारे गाँव में पुरसुमल ब्राह्मण थे । गाँव में जब बारिश देर से होती तो हमारे बुजुर्ग पुरसुमल ब्राह्मण के पास जाते तो मैं भी साथ में जाता । सब गाँव वाले पूछते कि “भूदेव ! आप बताओ, बरसात होगी कि नहीं होगी ?”

तो ब्राह्मण बोलतेः “भई देखो, अब मैं बुढ़ापे में दो बातें नहीं बताऊँगा, बात एक ही बताऊँगा । सच बताऊँ कि झूठ ?”

बोलेः “सब बताओ ।”

“देखो, आखिरी बात बता दूँ कि दो-चार बताऊँ ?”

बोलेः “एक ही बात बताओ ।”

सब हाथ जोड़ के बैठते और पुरसुमल ब्राह्मण खूब शांत हो के बोलते थे कि “भई, एक ही बात बताता हूँ, सच्ची बात बताता हूँ, विश्वास करना । सुन लेना, बरसात पड़ेगी या तो नहीं पड़ेगी ।”

“यह तो हम भी जानते हैं ।”

“हमसे झूठ मत बुलवाओ । या तो पड़ेगी या तो नहीं पड़ेगी, मैं बोल देता हूँ ।”

ॐ ॐ ॐ….. ऐसे ही संसार का हाल है । या तो अनुकूलता आयेगी या प्रतिकूलता आयेगी । तीसरा तो कुछ है नहीं ! है ? या तो यश आयेगा या तो अपयश आयेगा और क्या होगा ! तीसरा तो कुछ है नहीं । परमात्मा तो अपना स्वरूप है । परमात्मा तो आयेगा नहीं, जायेगा नहीं । और जो भी आयेगा वह जरूर जायेगा । तुम भी जाओगे । जाओगे कि नहीं जाओगे ?

तो सब जाने वाला ही है तो उसका बोझा अपने पर क्यों रखना !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2020, पृष्ठ संख्या 7 अंक 336

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