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सेवा का रहस्य – स्वामी अखंडानंदजी


अपने हितैषी के प्रति जो श्रद्धा, विश्वास अथवा सेवा है, वह उनका उपकार करने के लिए नहीं है । ‘मैं अपनी सेवा के द्वारा उनको उपकृत करता हूँ या सुख पहुँचाता हूँ’ – यह भावना भी अपने अहंकार को ही आभूषण पहनाती है । विश्वास या श्रद्धा दूसरे को अलंकृत करने के लिए नहीं होती, अपने अंतःकरण की शुद्धि के लिए होती है । सेवा जिसकी की जाती है उसकी तो हानि भी हो सकती है, लाभ उसको होता है जो सद्भाव से सेवा करता है । अतएव सेवा करते समय यह भाव होना चाहिए कि ‘सेवा के द्वारा हम अपना स्वभाव अच्छा बना रहे हैं अर्थात् अपने स्वभावगत आलस्य, प्रमाद, अकर्मण्यता आदि दोषों को दूर कर रहे हैं । यह सेवा हमारे लिए गंगाजल के समान निर्मल एवं उज्ज्वल बनाने वाली है ।

सेवा स्वयं में सर्वोत्तम फल है

वस्तुतः सेवा का फल कोई स्वर्गादि की प्राप्ति नहीं है और न धन-धान्य की । सेवा स्वयं में सर्वोत्तम फल है । जीवन का ऐसा निर्माण जो अपने में रहे, सेवा ही है । सेवा केवल उपाय नहीं है, स्वयं उपेय भी है । उपेय माने प्राप्तव्य । यदि आपकी निष्ठा सेवा हो गयी तो कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं रहा । जिनके मन में ‘सेवा का कोई फल नहीं मिला’ ऐसी कल्पना उठती है, वे सेवा का रहस्य नहीं जानते । उनकी दृष्टि अपने प्राप्त जीवन, शक्ति एवं प्रज्ञा के सदुपयोग पर नहीं है, किसी आगंतुक पदार्थ पर है ।

सेवा कभी अधिक भी नहीं हो सकती क्योंकि जब तक अपना सम्पूर्ण प्राण सेवा में समा नहीं गया तब तक वह पूर्ण ही नहीं हुई, अधिकता का तो प्रश्न ही क्या है ? सच कहा जाय तो सेवा ही जीवन का साधन है और वही साध्य भी है । विश्व को सेवा की जितनी आवश्यकता है उसकी तुलना में हमारी सेवा कितनी छोटी है । यदि विश्व की सेवा के क्षीरसागर के समान सेवाभाव की आवश्यकता है तो हमारी सेवा एक सीकर (बूँद) के बराबर भी नहीं है । सेवक के प्राण अपनी सेवा की अल्पता देख-देखकर व्याकुल होते हैं और उसकी वृद्धि के लिए अनवरत प्रयत्नशील रहते हैं । जिसको अपनी सेवा से आत्मतुष्टि हो जाती है वह सेवा-रस का पिपासु नहीं है । पिपासा अनंत रस में मग्न हुए बिना शांत नहीं हो सकती । वह रस ही सेवक का सत्य है । सेवा इसी सत्य से एक कर देती है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2021, पृष्ठ संख्या 17 अंक 337

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सुविचार आए तो पकड़ लेना चाहिए





जो ऊँचे विचार आते हैं वो दुनिया के और किसी उपाय से  नहीं आते । एक नीचा विचार करोडों आदमियों को परेशान कर देता हैं । रावण का एक छोटा विचार देखो पूरे लंका को परेशान कर दिया, वानरों को परेशान कर दिया…रावण का एक नीचा विचार! ऐसे ही सिकंदर का , हिटलर का एक नीचा विचार ‘मैं बड़ा दिखूँ’…कईं लोगों की बलि ले लिया , और वो चीजें तो ले नहीं गए! हिटलर का नीचा विचार, सिकंदर का तबाही मचा देता हैं।गाँधीजी ने हरिश्चंद्र की पिक्चर देखी और ऊँचा विचार किया-झूठ नहीं बोलेंगे, परहित करेंगे, तो फायदा भी ऐसा हुआ! मेरे गुरुदेव का ऊँचा विचार कि ‘उसको खोजेंगे’ ..परमात्मा को.. तो कितने लोंगो का भला हो गया!

सिद्धार्थ ने दिल किसीको बूढ़ा.. बूढों को तो रोज देखते हैं लोग.. बीमार और मुर्दे को देखा…सिद्धार्थ को ऊँचा विचार आया कि जहाँ मौत नहीं हैं, जहाँ बुढापा नहीं हैं, जहाँ बीमारी नहीं हैं वो कौनसी  चीज हैं?एक ऊँचे विचार ने सिद्धार्थ को भगवान बुद्ध बना दिया, लग गए बस! ऊँचे विचार को पकड़ के लग जाना चाहिए! नीच लोग नीचे विचार को पकड़ के लग जाते हैं। ऊँचे लोग ऊँचे विचार को पकड़ के फिर छोड़ देते हैं! उसमें महत्व बुद्धि नहीं रखते! ऊँचे विचारों में सबसे सर्वोपरि ऊँचा विचार हैं आत्मा परमात्मा को पाने का।उससे कोई और ऊँचा नहीं! परमात्मा को पाने का विचार हो तो अपनी औकात के अनुसार साधन करें।अपनी योग्यता के अनुसार साधन आदमी को पहुँचा देता हैं।


ज्ञानात ध्यानं विशिष्यते…ब्रह्म परमात्मा का ज्ञान ..उससे भी ब्रह्म परमात्मा का ध्यान ऊँचा है ।  

ज्ञानात ध्यानं विशिष्यते ध्यानात कर्म फल त्याग…ध्यान से भी कर्म का फल त्याग करके उस परमात्मा की प्रसन्नता के लिए जो प्रवृत्ति होती है… ध्यान, लगे तब आनंद आए ..लेकिन सेवा कार्य में तो – ‘ए! जरा बिछा दे, ए! ठीकसे बाँट!’ …हल्ला गुल्ला करते हुए भी आनंद! …’ ला भाई-ले भाई, ले ये खा ले, ले यह प्रसाद ले’.. ये  तू पुस्‍तक पढ़ना… तो हैं तो विक्षेप ! हैं तो खुली आँख, हैं तो बोलचाल-हिलचाल! मन तो स्थिर नहीं हैं! फिर भी सेवा कर रहें हैं न भगवान के-गुरू के दैवी कार्य की, तो उसमें आनंद आने लगता हैं। तो जो भक्ति में, साधना में, समाधि में सुख मिले वोही सुखस्वरूप ईश्वर व्यवहार में उसकी झलकियाँ आती हैं।


कैंब्रिज विश्व विद्यालय हो गया । कैंब्रिज विश्व विद्यालय के एक अब्दुल विद्यार्थी को हलकट विचार आया कि हिंदुस्तान का कुछ हिस्सा पाकिस्तान बनाया जाए। एक छोरे को विचार आया…एक छोरे के विचार ने एक करोड़ आदमियों को बेघर कर दिया! अब्दुल कॉलेज का विद्यार्थी था , उसको ये विचार आया पाकिस्तान बनावे..

एक हल्के विचार ने एक करोड़ लोगों को तो बेघर कर दिया, लाखों महिलाओं की इज्जत लूटी गई, हजारों बच्चे मारे गये, जीतू जैसे बबलु मार दिये गये । गटरों में फेंक दिए गये, पानियों में डुबा दिए गए…एक छोरे का विचार..धीरे धीरे धीरे धीरे दूसरे का, तीसरे का .. एक अब्दुल्ला के विचार से भारत  का कुछ हिस्सा पाकिस्तान बन गया। ऐसे ही गाँधी जी के विचार से ‘ अंग्रेज भारत छोड़ो’ इसी विचार ने रंग लाया तो अंग्रेजों को भगा दिया, भारत आजाद हो गया! 

तो विचारों में कितनी शक्ति हैं! गाड़ी से, मोटर से, जहाज से, एटम बम से भी विचार की शक्ति ज्यादा हैं! विचारों से अटम बम फोड़े जाते हैं और रोके जाते हैं, बनाए जाते हैं और खोजे जाते हैं। तो विचार जहाँ से उठते हैं उसके गहराई में आत्मा है, परमात्मा हैं! इसलिए विचारों का महत्व हैं! विचार में जितना भगवान का आश्रय होगा , भगवान को पाने का विचार होगा तो वो सुखदाई होगा । द्वेष का विचार अपना और दूसरे की तबाही करता हैं। राग का विचार अपने को  और दूसरे को भोगी बनाता हैं। तो राग और द्वेष से प्रेरित होकर जो भी कर्म करते हैं वे तो कुत्तों की नाई लड़-लड़ के मर जाते हैं।


राग और द्वेष से प्रेरित होकर जो भी कर्म करते हैं वो कुत्तों की नाई लड़-लड़ के एक दूसरे की निंदा , एक दूसरे के वीक पॉइंट खोज-खोज के दिमाग खाली करके अकाल मृत्यू की गोद में सो जाते हैं।   हिटलर, सिकंदर और भी कईं जो हैं राग-द्वेष से.. मुसोलिनी, कई कम्युनिस्ट…

राग भी बाँधता हैं, द्वेष भी बाँधता हैं। ईश्वर प्रीति अर्थ करने से राग और द्वेष शिथिल हो जाते हैं । जो लोग उपासना नहीं करते उनका राग-द्वेष मिटता नहीं। ‘मेरे को द्वेष नहीं हैं, शिवशंकर साक्षी हैं।’ फिर भी द्वेष रहता हैं पता ही नहीं चलता! लेकिन भगवान रक्षा करें  सबकी ।


विचारों की कैसी बलिहारी हैं! एक विचार मित्रता बना देता है, एक विचार शत्रुता और कलह बना देता हैं। एक विचार साधक को गिराकर संसारी बना देता हैं, एक विचार संसारी को संयमी बनाकर भगवान बना देता हैं। सिद्धार्थ के विचार ने उनको संयमी बनाकर भगवान बना दिया। इसलिए सुविचार की बलिहारी हैं और सुविचार आए तो पकड़ रखना चाहिए।

उदयपुर का राजा सत्संग सुनता और धीरे से चुपके से खिसक जाता।उदयपुर के राणा को ऐसा करते महाराज ने देख लिया और एक दिन पूछा उनसे कि तुम सत्संग में तो श्रद्धा से बैठते हो राणा चतुरसिंग । चतुर भी हो फिर भी सत्‍संग में से खिसक जाते हो । बोले- बापजी! मेरे को कोई बढ़िया विचार मिलता हैं न सत्संग में तो फिर वो चला न जाये कहीं तो उठ जाता हूँ और उधर वो पक्का करता हूँ जाके। घर पर जाकर उसी विचार का मनन करके उसको पक्का करता हूँ।

जिन लोगों को सत्संग की कदर हैं उनका तो भला हो जाएगा , जिनको सत्संग की कदर नहीं हैं और सुविचार की जगह पर कुविचार को ही पकड़के बैठे रहते हैं, वे अपना दूसरों का बहुत अहित करते हैं। तो सत्संग कराने का एक सुविचार हजारों लाखों आदमियों को सुख शांति दे देता हैं। झगड़े करने का कुविचार अशांति पैदा कर देता हैं, हड़ताल पैदा कर देता हैं। अलगसे फ़ौज, अलगसे मिसाइले, अलगसे जहाज लड़ाई से एक ही हिंदुस्तान में द्वेष हो के लड़ के अपनी शक्ति का ह्रास हो रहा हैं न!कितने अरबों खरबों रुपये चट हो गए और लाखों करोड़ों आदमी बेघर हुए… सिर्फ एक विचार!

सनकादि ऋषियों के ब्रह्मज्ञान के विचार ने तो नारदजी को श्रीमद्भागवत की तरफ प्रेरित कर दिया। वो भागवत का एक विचार शुकदेवजी का राजा परीक्षित का कल्याण करने के निमित्त करोडों लोगों का भला किया भागवत ने!और अब्दुल के विचार ने करोड़ो लोगों की तबाही की तो शुकदेव और व्यासजी के विचार ने करोड़ों लोगों को भला किया। तुलसीदास के विचार ने करोड़ों लोगों को शांति दी, रामायण के रस से आनंदित कर  दिया। रामानंद सागर के विचार ने घर बैठे लोगों को रामायण दी..

विचारों की बड़ी भारी महत्ता हैं। जिसमें द्वेष विचार आ जाता हैं तो उसके दुर्गुण ही दिखते हैं। राग विचार आया तो सद्गुण दिखेंगे लेकिन श्रद्धा का विचार आया तो उसमें परमात्मा दिखेगा! नामदेव को भूत में परमात्मा दिखा। हमको गुरू में भी परमात्मा नहीं दिखता कैसे हम लोगों के विचार हैं! भूत ने भयंकर रूप दिखाया… नामदेव कहते हैं-

धरती पर चरण आकाश में माथ

भले पधारो लंबकनाथ ,

योजन भर के लंबे हाथ
भले पधारो लंबकनाथ
सुर सनकादि गीत तुम्हारे गाए
नामदेव को करो सनाथ
भले पधारो लंबकनाथ!
नारायण… नारायण… नारायण… नारायण…

द्वेष से प्रेरित होकर कोई किसीसे व्यवहार करता हैं तो वो मंदिर में होते हुए भी अपने लिए नरक बना रहा हैं, आश्रम में होते हुए भी अपने लिए नरक बना रहा हैं, अपने लिए अशांति और नालते पैदा करवा रहा हैं, द्वेष से प्रेरित जो  भी व्यवहार करेगा। ऐसे ही राग से प्रेरित होकर भी जो भी व्यवहार करता हैं वो अपने  लिए मुसीबत का कुँआ खोद रहा हैं। राग नहीं द्वेष नहीं , ईश्वर प्रीत्‍यर्थ तटस्थ कर्म करने वाला अपने विचार को ब्रह्ममय बनाएगा ।  नारायण… नारायण… नारायण… नारायण… लेकिन राग-द्वेष से युक्त हैं तो सियार हैं सियार… बुद्धिमान भी हैं, शास्त्र का ज्ञाता भी हैं लेकिन राग-द्वेष से भरा हैं तो सियार हैं सियार! रामजी को वसिष्ठजी बोल रहे हैं! देखो विचारों की बलिहारी हैं।

सतशिष्य के लक्षण


जो सतशिष्य है वह मान और मत्सर से रहित अपने कार्य में दक्ष,ममता रहित , गुरू में दृढ़ प्रीतिवाला, निश्चल चित्त और परमार्थ का जिज्ञासु, ईर्ष्या से रहित और सत्यवादी होता है। इस प्रकार के नौ सद्गुणों से सुसज्जित जो होता है वो सतशिष्य सद्गुरु के थोड़े उपदेश मात्र से साक्षात्कार करके जीवनमुक्त पद में आरुढ़ हो जाता है।
गुरू के लक्षण बताए शास्त्रों में.. जो प्राणीमात्र का हित चाहता हो , ‘सर्वभूत हितेरता’  जिसकी बुद्धि हो,जो अपने स्वरूप में जगा हो, जिसको जगत मिथ्या भासता हो , स्वप्नतुल्य लगता हो अथवा त्रिकाल में जगत की उत्पत्ति ही न दिखती हो, इस प्रकार की जिनकी दृढ़ अनुभूति है, जो अपनी वृत्तियों से और अपने स्वरूप में ही जगे है ..इस प्रकार के कई ज्ञानवान महापुरुषों के लक्षण कहे गए है। उनमें मुख्य लक्षण ये है कि जिनके चरणों में बैठने से हमारे चित्त में शांति आती हो , वो बढिया से बढिया ज्ञानियों का लक्षण है।
ज्ञानवान के चरणों में बैठने से शांति का एहसास होता हो तो ये बढिया से बढिया उनका लक्षण है।कुछ ऐसे लक्षण होते है स्व संवेद्य और कुछ पर संवेद्य होते है। यज्ञ करना, तप करना, तीर्थ करना, कीर्तन करना, होम करना, हवन करना ये ‘स्व’ – करनेवाले को भी पता होता है और दूसरे लोग भी देखते है। ये पर संवेद्य भी है। लेकिन आत्मज्ञान पर संवेद्य नहीं वो स्व संवेद्य है। वो दूसरों को नहीं दिखेगा। आत्मज्ञान तुम्हें हो जाए तो तुम्हारे ज्ञान का अनुभव दूसरों को नहीं दिखेगा। दूसरों को तुम्हारा बाह्य व्यवहार दिखेगा लेकिन तुम अपने स्वरूप में जगे हो वो तो तुम्हें ही अनुभव होगा! इसलिए ज्ञान का अनुभव स्वसंवेद्य है।


फिर भी शास्त्रकारों ने बड़ा साहस किया । स्वसंवेद्य अनुभव होते हुए भी साधक को कैसे पता चले ? जिनके नजरों में, जिनके वातावरण में आनेसे शांति आती हो..क्योंकि ज्ञानी की परम शांति का अनुभव ज्ञानी का स्वसंवेद्य अनुभव होता है। वो क्रिया कलाप व्यवहार करते हुए भी अपने ह्रदय में परम शांत अवस्था का अनुभव करता है। और परम् शांत अवस्था से बढ़कर व  शांति के अनुभव से बढ़कर और कोई जगत में श्रेष्ठ अनुभव नहीं माना गया। देवी- देवताओं का दर्शन या रिद्धि सिद्धियों की उपलब्धि  उसका बुद्धिमानों ने इतना महत्व नहीं गिना जितना शांति का महत्व है। और वह शांति आत्मज्ञान से होती है- लब्धवा ज्ञानं परां शान्तिम…श्रीकृष्ण ने देखा कि अर्जुन रथ तो लेकर आया है युद्ध करने के लिए और अब पलायनवादी की बात कर रहा है कि ‘मैं सन्यासी हो जाऊँगा, भिक्षा माँगकर खाऊँगा, इन स्व हृदयों को, मित्रों को कैसे मारूं? पृथ्वी का राज्य मुझे नहीं चाहिए, मैं साधु हो जाऊँगा।’… तो अंदर में तो भोग की वासना है, इर्ष्‍या है, लालच है और अब बाहर से पलायनवाद करता हैं। इसलिए अर्जुन जाएगा तो भी ठीकसे संन्यासी के धर्म  को नहीं निभा सकेगा । इसलिए भगवान ने उनको निष्काम कर्म मार्ग का उपदेश दिया, योग का उपदेश दिया और अगर तू उसमें नहीं आ सकता तो सब कर्म मुझे अर्पण करके तू साक्षी मात्र होकर चलता रहे ! ऐसा करके श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपने स्वभाव में, अपने आत्म स्वभाव में जगाया। ‘मैं क्षत्रिय हूँ’ उस स्वभाव को त्यागने का उपदेश दिया।

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।

‘मैं क्षत्रिय हूँ’, मेरा ये कर्तव्य है, मेरा वो कर्तव्य है, ये सबकुछ छोड़कर तू मेरी शरण आ जा । ‘मेरी शरण आ जा’ माना ये सारे भाव जहाँ से उठते है उस भाव के आधार में तू आ जा तो तुझे बोध हो जाएगा, फिर तुझे कर्म बाँध नहीं सकेंगे।

तो बोध होने के लिए ब्रह्मवेत्ता का सानिध्य नितांत जरूरी है। लेकिन ब्रह्मवेत्ता का सानिध्य मिले, हममें बोध पाने के यह नौ गुण न हो तो ब्रह्मवेत्ता के सानिध्य से छोटा-मोटा ऐहिक लाभ होगा लेकिन आत्मसाक्षात्कार के लाभ से हम वंचित हो जाएँगे । तो आत्मसाक्षात्कार का लाभ हो इसलिए आज के इस श्लोक को हम अच्छी तरह से समझेंगे कि जो सतशिष्य है मान और मत्सर से रहित होता है। जैसे धनवान के पीछे कोई गठिये पड़े तो धनवान कैसे संभल जाता है  अथवा धनवान के पीछे  इनकम टैक्स की इन्क्वायरी निकले तो वो कैसा अपना सेटिंग कर लेता है …जय रामजी की…ऐसे ही जिसमें सद्गुण है उसकी वाहवाह होने लगती है तो वाहवाह की जगह से अपने को बचाकर निर्मान की जगह पर जाता है। और यही कारण था कि राजे महाराजे जब गुरुओं के द्वार पर जाते थे तो भिक्षा पात्र लेकर मधुकरी करने जाते। राजा बनके गुरूजी को एक महल में  रखकर ब्रह्मविद्या ले सकते थे लेकिन वो ब्रह्मविद्या पचती नहीं।

‘मैं राजा हूँ ‘  और  ‘मैं राजगुरू हूँ ‘ …उनको भी  ‘मैं राजगुरू हूँ ‘ और उनको भी लगे ‘मैं राजा हूँ ‘ …तो वो पंडित हो सकते है लेकिन ब्रह्मवेत्ता नहीं।

उपनिषदों के ज्ञान में जो महापुरुष सन्यासियों को पढ़ाने का संकल्प करते थे तो फिर उनको कणाद आदि मुनि‍ की कथा सुना देते थे।

कणाद मुनि‍ हो गए दर्शन शास्त्र के अच्छे विचारक। वे एकांत अरण्य में रहते थे और अपनी आजीविका खेतों में जो कण गिर जाते थे उसको चुन कर उसीसे गुजारा करते थे और छठा भाग राज्य को कर में दे देते थे । उनकी बुद्धि इतनी शुद्ध थी कि तत्वज्ञान का, उपनिषदों का दर्शन शास्त्र के जो उनके विचार थे उन विचारों को पढ़कर दूर दूर से अच्छे अच्छे विद्वान संत उनका दर्शन करने आते थे। आखिर राजा को पता चला कि कणाद मुनि इतने पवित्र है कि उनके जो दर्शन शास्त्र के सिद्धांत और अनुभव के वचन है उनसे बड़े अच्छे अच्छे बुद्धिमान लोग आकर्षित होकर आ रहे है। जाँच करो वो क्या खाते है, कैसे रहते है ? मेरे राज्य में रहते है और मैंने उस साधू पुरूष का दर्शन नहीं किया, उनकी सेवा नहीं की।

पता चला कि वो मुनि तो कण ढूँढ के खाते है। वे शर्मिंदा हुए, पश्चाताप से भर गए। गये मुनीश्वर की कुटिया पर और अपना ताज-वाज उतारकर लंबे दंडवत प्रणाम किये कि ‘हे मुनीश्वर ! मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ। आप मेरे राज्य के अरण्य में रहते है और राजा का फर्ज है कि साधु , ब्राह्मण, अपंग आदि उन लोगों की संभाल रखें और आप जैसे महान विद्वानों की मैंने सेवा नहीं की और आपको कण ढूँढकर गुजारा करना पड़ा। मैंने आपकी सेवा नहीं की, मैंने खबर तक नहीं ली आपकी, इसलिए मैं बड़ा शर्मिंदा हूँ । आप मुझे क्षमा करें, अभयदान दें । मुझ अभागे का नाम फ़लाना-फ़लाना है और मैं यहाँ इस नगर की व्यवस्था करता हूँ, मुझे राजा कहते है लोग… मैं राजा हूँ, ऐसा नहीं कहा.. मुझे लोग राजा कहते है ।

बोले- ‘ठीक है, सुखी भव,निर्भय रहो।’


बोले- ‘महाराज! अब इस दास की प्रार्थना स्वीकार करो कि आप ये कुटिया-वुटिया छोड़ो। आप चलो मेरे महल में । आपको महल का एक खंड पूरे का पूरा अर्पण कर देता हूँ । सेवक होंगे, नौकर होंगे, दास होंगे, दासियाँ होंगी। कोई पैर चंपी करेगा तो कोई बादाम का रोगन घिसेगा ताकि आप ठीक-से बुद्धिमत्ता का और कोई तत्व-चिंतन कर सकें  और खाने-पीने के लिए केसर-कस्तुरी, पिस्ता-बादाम डले हुए , बासुंदी, खीर होगी। महाराज ! आपकी पूरी सेवा होगी ताकि आप पूरा तत्व-चिंतन करके और बढ़िया दर्शन, शास्त्र लिख सकें ।’


महाराज ने कहा- सीधा चला जा और मुड़कर दुबारा इधर मत आना ! जय रामजी की!
कणाद मुनि ने कहा दुबारा नहीं आना । अगर तेरे महल में रहूँगा तो राज्य का अन्न कैसा होता है? उस राज्य के अन्न को खाकर मैं तत्व-चिंतन करूँगा कि तेरी सेवा लेकर तेरे गुण-गान लिखूंगा? जैसा अन्न होता है वैसा मन हो जाता है ।

तो उपनिषदों का ज्ञान उस वक्त प्रचलित था जो लोग अपनी बुद्धि को दूषित होने से बचाते थे। परिश्रम सहकर, परिश्रम करके जीवन को सुदृढ़ करते थे और बुद्धि का विकास करते थे। शारीरिक और मानसिक जब विकास था ठीक-से, उस समय उपनिषदों का प्रचार-प्रसार हुआ होगा।

चीन में आज से तीन हजार वर्ष पहले कंफ्यूशियस जा रहे थे । एकाएक वो चकित हुए कि एक किसान अपने बेटे के साथ कुएँ में से पानी खींच रहे है। खेत को पिला रहे है। चमड़े के कोट को खींच रहे हैं । कंफ्यूशियस को हुआ कि इन बेचारों को अभी तक पता नहीं चला कि बैल की खोज हुई है, बैल के द्वारा कुएँ में से पानी खींचा जाता है। इतना मैन पावर खर्च रहे है! जहाँ बैल पॉवर की जरूरत है या मोटर की । एक-दो हार्सपावर मोटर की जरूरत है वहाँ मैन पॉवर बेचारे बिगाड़ रहे है! मैन पॉवर की रक्षा करने को इनको सीखाऊँ, जरा उपदेश दूँ । जय श्रीकृष्ण!


कंफ्यूशियस रूके और उस बूढ़े के कंधे पर हाथ रखके कहा -‘हे किसान! तुम्हें पता है?
बैल की खोज हुई है, बैल के द्वारा कुँए में से निकाला जाता है और खेत में  सींचा जाता है ।

बूढ़े ने कहा चुप रहो मेरा लड़का सुन लेगा। बाद में बात करते हैं ।

अकेले में जाकर कंफ्यूशियस से उसने बात की । मुझे पता  है, बैल के द्वारा कुएँ में से पानी खींचा जाता है लेकिन मैं क्यों खींच रहा हूँ अपने बेटे के साथ? कि वो स्वावलम्बी हो और कुछ शरीर से  परिश्रम होगा । परिश्रम होगा तब उसका मन खिलेगा, बुद्धि का विकास होगा । जो शरीर से परिश्रम नहीं करते है, मैनपावर बचा-बचाकर शरीर को लाड़ लड़ाते है वे बेचारे थोड़ी तितिक्षा नहीं सह सकेंगे। तो आप कृपा करके आपका उपदेश और किसी जगह पर आजमाना, मेरा लड़का कहीं आलसी न हो जाए। जय..जय…

मि. सोलन से पूछा गया कि आप इतने बुद्धिमान और इतना उच्च, भारी उपदेश देते है और शरीर का बाँधा भी बढ़ि‍या है, क्या कारण है? जहाँ बुद्धि-अकल होती है वहाँ शरीर लथड़ा हुआ होता है और जहां शरीर पाड़े जैसा होता है वहां उपला मात्र नहीं होता लेकिन आपका शरीर का बाँधा भी बढ़िया है और बुद्धि का भी विकास इतना है। इसका कारण क्या है ?

सोलन ने कहा कि कुछ न कुछ परिश्रम मैं खोज लेता हुँ इसलिए शरीर का बाँधा मजबूत है। और मैं संसार मे विद्यार्थी होकर रहता हूँ, कुछ-न-कुछ नया विचारता रहता हूँ, खोजता रहता हूँ । इसलिए बुद्धि‍ का भी विकास है।

तो बुद्धि‍ का विकास और शरीर का बाँधा मजबूत, ऐसा जो जमाना था उस जमाने में उपनिषदों का ज्ञान का प्रचार-प्रसार अच्छी तरह से हुआ । आज क्या है कि अंदर में वासना है 20 वीं सदी की, और ज्ञान लेना चाहते है, ईसवी सन पूर्व, तीन हजार वर्ष पहले का! इसलिए क्या होता है कि ज्ञान का ओढ़ना ओढ़कर, भक्ति का, कथाकार का ओढ़ना ओढ़कर काम वही करते है जो 20 वी सदी के लोग करते है, जेबकतरे लोग । जय श्री कृष्‍ण…  

तो बुद्धि को शुद्ध करे और बुद्धि किन साधनों से शुद्ध होती है? कि अमानित्व ! मान की इच्छा से आदमी कुछ का कुछ करने लगता है । मान की इच्छा ही छोड़ दो तो तमाम प्रपंच से आदमी बच जाता है । अदंभित्व, इर्ष्या का अभाव, मत्सर का अभाव,  ये अगर सदगुण आने लग जाते हैं तो आदमी तमाम-तमाम दोषों से बच जाता है और तमाम तमाम व्यर्थ के परिश्रमों से बच जाता है तो उसका तन और मन जो है आत्म विश्रांति के काबिल होता है।