‘क्या करें समय ऐसा है, हमारे सामने कोई देखता नहीं…’ – तुम देखते हो कि बूढ़े लोग कैसे फरियाद से जीते हैं । कहीं तुम्हारे वैसे दिन न आयें ।
लाचारी
से, हृदय में फरियाद लेकर शरीर व संसार से विदा होना पड़े ऐसे दिन न आ जायें ।
लाचार होकर अस्पताल में पड़े रहे, घर में बीमार हो के पड़े रहे और बुरी हालत में
मरना पड़े…. नहीं-नहीं, मौत आने के पहले, जहाँ मौत की दाल नहीं गलती उस परमेश्वर
में आओ बेटे ! तुम्हारी पदवियों की ऐसी-तैसी, तुम्हारे रूपये-पैसों की
ऐसी-तैसी, पदों की ऐसी-तैसी । पदवियाँ साथ नहीं चलेंगी, पद साथ नहीं चलेंगे, जिनसे
बकबक करते हो उनमें से कोई भी तुम्हारा साथ नहीं देगा । अकेले जाना पड़ेगा, भटक
जाओगे बुरी तरह ।
जिसने अनुराग का दान दिया,
उससे कण माँग लजाता नहीं !
जिसने
प्रेम-रस देने की योग्यता दी उससे संसार की तुच्छ चीजें माँगने में तुझे लज्जा
नहीं आती ! मिट जाने वाली चीजें माँगता है, मिट जाने वाली चीजों के लिए
सोचता है, मिट जाने वाली चीजों के लिए लगा रहता है, तुझे शर्म नहीं आती !
माया
किसी साड़ी पहनी हुई महिला का नाम नहीं है, ‘मा…..या….’ जो दिखे और टिके
नहीं, जो दिखे और वास्तव में हो नहीं, उसका नाम ‘माया’ है । जैसे केले का
स्तम्भ दिखता है और पर्तें हटाओ तो कुछ नहीं, प्याज ठोस दिखता है किंतु पर्तें
हटाओ तो कुछ नहीं, ऐसे ही ये सब हैं । ‘मेरा-तेरा’, ‘यह-‘वह’ सब देखो तो सपना ।
बचपन में देखो कैसा सब ठोस लगता था, जवानी में कितनी बड़ी-बड़ी तरंगों पर नाचे थे
– ‘यह बनूँगा, ऐसा बनूँगा, ऐसा पाऊँगा….’ फिर क्या झख मार ली ! ‘डॉक्टर बनूँगा, वकील
बनूँगा, इंजीनियर बनूँगा, चीफ इंजीनियर बनूँगा, फलाना बनूँगा….’ बन-बन के क्या झख मार
ली ! बुढ़ापे में रोते-रोते मर गये, क्या मिला ? अरे ! जिससे बना जाता है
उसको तो पहचान ! फिर बनना हो तो बन । जो बनेगा वह बिगड़ेगा, जो वास्तव में है
उसको जान ले । यह शरीर नहीं था, उसके पहले तू कहाँ था, कौन था और मरने के बाद तू
कौन रहेगा इसको जान ले और यह कठिन नहीं है । ईश्वर को पाना कठिन नहीं है, कठिन
होता तो राजा जनक को राजकाज करते-करते कैसे मिलता ? जनक समय निकालते थे,
बकबक नहीं करते थे । जनक राज व्यवहार
चलाते थे और उन्होंने संयम करके आत्मसाक्षात्कार कर लिया । हे भगवान ! हे वासुदेव ! तेरी प्रीति दे दे,
तुझमें विश्रांति दे दे । तू हमारा आत्मा है और हम अभागे आज तक तुझसे मिले नहीं ।
स्वामी रामतीर्थ अपने को उलाहने देते-देते रोते और रोते-रोते सो जाते थे, उनका
तकिया भीग जाता था ऐसी तड़प थी तो उन्हें एक साल के अंदर आत्मसाक्षात्कार हो गया ।
जो ईश्वर के लिए तड़पता है, ईश्वर उसके हृदय में प्रकट होता है । धन्य तो वे हैं
जिन्होंने परमात्मा को अपना माना, उससे प्रीति करके प्रेम रस जगाया, ज्ञान के
प्रकाश में जिये, परहित की पूर्णता में प्रवेश किया ।
स्रोतः
ऋषि प्रसाद, जनवरी 2021, पृष्ठ संख्या 20 अंक 337
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