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प्रसन्नता और समता बनाये रखने का सरल उपाय – पूज्य बापू जी


प्रसन्नता बनाये रखने और उसे बढ़ाने का एक सरल उपाय यह है कि सुबह अपने कमरे में बैठकर जोर-से हँसो । आज तक जो सुख-दुःख आया वह बीत गया और जो आयेगा वह बीत जायेगा । जो होगा, देखा जायेगा । आज तो मौज में रहो । भले झूठमूठ में हँसो । ऐसा करते-करते सच्ची हँसी भी आ जायेगी । उससे शरीर में रक्त-संचारण ठीक से होगा । शरीर तंदुरुस्त रहेगा । बीमारियाँ नहीं सतायेंगी और दिनभर खुश रहोगे तो सम्सयाएँ भी भाग जायेंगी या तो आसानी से हल हो जायेंगी ।

व्यवहार में चाहे कैसे भी सुख-दुःख, हानि-लाभ, मान-अपमान के प्रसंग आयें पर आप उनसे विचलित हुए बिना चित्त की समता बनाये रखोगे तो आपको अपने आनंदप्रद स्वभाव को जगाने में देर नहीं लगेगी क्योंकि चित्त की विश्रांति परमात्म-प्रसाद की जननी है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2021, पृष्ठ संख्या 21 अंक 337

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नारी और नर में एकत्व


प्रश्नः महात्माओं की दृष्टि में नारी क्या है ?

स्वामी अखंडानंद जीः जो नर है । अभिप्राय यह है कि महात्माओं की दृष्टि में नारी और नर का भेद नहीं होता । जो ज्ञानमार्ग द्वारा सिद्ध हैं उनकी दृष्टि में ब्रह्म के सिवा और सब नाम-रूप-क्रियात्मक प्रपंच मिथ्या है अर्थात् केव ब्रह्म ही, प्रत्यगात्मा (अंतरात्मा) ही एक तत्त्व है । श्रीमद्भागवत (1.4.5) में एक संकेत है । स्नान करते समय अवधूत शुकदेव जी को देख के देवियों ने वस्त्र धारण नहीं किया, व्यास जी के आते ही दौड़ के धारण कर लिया । यह आश्चर्यचर्या देख व्यास जी ने पूछाः “ऐसा क्यों ?” देवियों ने उत्तर दियाः “आपकी दृष्टि में स्त्री  पुरुष का भेद बना हुआ है परंतु आपके पुत्र की एकांत और निर्मल दृष्टि में वह नहीं है । तवास्ति स्त्रीपुम्भिदा न तु सुतस्य विविक्तदृष्टेः ।।

जो भक्तिमार्ग द्वारा सिद्ध हैं उनकी दृष्टि में प्रभु के सिवा और कुछ नहीं है । वे श्रुति भगवती के शब्दों में कहते रहते हैं- त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी । ‘तुम स्त्री हो, तुम पुरुष हो, तुम कुमार हो या कुमारी हो ।’ (अथर्ववेदः कांड 10, सूक्त 7, मंत्र 27)

महात्माओं की दृष्टि में नारी और नर का साम्य नहीं – एकत्व है, नारी-नर का ही नहीं, सम्पूर्ण ।

प्रश्नः क्या नारी को प्रकृति और नर को पुरुष समझना उचित है ?

उत्तरः नितांत अनुचित । जीव चाहे नर के शरीर में हो अथवा नारी के, वह चेतन पुरुष ही है । शरीर नारी का हो अथवा नर का, वह प्रकृति ही है । इसलिए नारी को प्रकृति मानकर जो उसे भोग्य समझते हैं उनकी दृष्टि अविवेकपूर्ण है । भगवान श्रीकृष्ण ने शरीर को क्षेत्र और जीव को क्षेत्रज्ञ – चेतन कहा है, भले ही वह किसी भी योनि में हो । (क्रमशः)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2021, पृष्ठ संख्या 21, अंक 337

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कहीं तुम्हारे वैसे दिन न आयें – पूज्य बापू जी


‘क्या करें समय ऐसा है, हमारे सामने कोई देखता नहीं…’ – तुम देखते हो कि बूढ़े लोग कैसे फरियाद से जीते हैं । कहीं तुम्हारे वैसे दिन न आयें ।

लाचारी से, हृदय में फरियाद लेकर शरीर व संसार से विदा होना पड़े ऐसे दिन न आ जायें । लाचार होकर अस्पताल में पड़े रहे, घर में बीमार हो के पड़े रहे और बुरी हालत में मरना पड़े…. नहीं-नहीं, मौत आने के पहले, जहाँ मौत की दाल नहीं गलती उस परमेश्वर में आओ बेटे ! तुम्हारी पदवियों की ऐसी-तैसी, तुम्हारे रूपये-पैसों की ऐसी-तैसी, पदों की ऐसी-तैसी । पदवियाँ साथ नहीं चलेंगी, पद साथ नहीं चलेंगे, जिनसे बकबक करते हो उनमें से कोई भी तुम्हारा साथ नहीं देगा । अकेले जाना पड़ेगा, भटक जाओगे बुरी तरह ।

जिसने अनुराग का दान दिया,

उससे कण माँग लजाता नहीं !

जिसने प्रेम-रस देने की योग्यता दी उससे संसार की तुच्छ चीजें माँगने में तुझे लज्जा नहीं आती ! मिट जाने वाली चीजें माँगता है, मिट जाने वाली चीजों के लिए सोचता है, मिट जाने वाली चीजों के लिए लगा रहता है, तुझे शर्म नहीं आती !

माया किसी साड़ी पहनी हुई महिला का नाम नहीं है, ‘मा…..या….’ जो दिखे और टिके नहीं, जो दिखे और वास्तव में हो नहीं, उसका नाम ‘माया’ है । जैसे केले का स्तम्भ दिखता है और पर्तें हटाओ तो कुछ नहीं, प्याज ठोस दिखता है किंतु पर्तें हटाओ तो कुछ नहीं, ऐसे ही ये सब हैं । ‘मेरा-तेरा’, ‘यह-‘वह’ सब देखो तो सपना । बचपन में देखो कैसा सब ठोस लगता था, जवानी में कितनी बड़ी-बड़ी तरंगों पर नाचे थे – ‘यह बनूँगा, ऐसा बनूँगा, ऐसा पाऊँगा….’ फिर क्या झख मार ली ! ‘डॉक्टर बनूँगा, वकील बनूँगा, इंजीनियर बनूँगा, चीफ इंजीनियर बनूँगा, फलाना बनूँगा….’ बन-बन के क्या झख मार ली ! बुढ़ापे में रोते-रोते मर गये, क्या मिला ? अरे ! जिससे बना जाता है उसको तो पहचान ! फिर बनना हो तो बन । जो बनेगा वह बिगड़ेगा, जो वास्तव में है उसको जान ले । यह शरीर नहीं था, उसके पहले तू कहाँ था, कौन था और मरने के बाद तू कौन रहेगा इसको जान ले और यह कठिन नहीं है । ईश्वर को पाना कठिन नहीं है, कठिन होता तो राजा जनक को राजकाज करते-करते कैसे मिलता ? जनक समय निकालते थे, बकबक नहीं करते थे । जनक  राज व्यवहार चलाते थे और उन्होंने संयम करके आत्मसाक्षात्कार कर लिया । हे भगवान ! हे वासुदेव ! तेरी प्रीति दे दे, तुझमें विश्रांति दे दे । तू हमारा आत्मा है और हम अभागे आज तक तुझसे मिले नहीं । स्वामी रामतीर्थ अपने को उलाहने देते-देते रोते और रोते-रोते सो जाते थे, उनका तकिया भीग जाता था ऐसी तड़प थी तो उन्हें एक साल के अंदर आत्मसाक्षात्कार हो गया । जो ईश्वर के लिए तड़पता है, ईश्वर उसके हृदय में प्रकट होता है । धन्य तो वे हैं जिन्होंने परमात्मा को अपना माना, उससे प्रीति करके प्रेम रस जगाया, ज्ञान के प्रकाश में जिये, परहित की पूर्णता में प्रवेश किया ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2021, पृष्ठ संख्या 20 अंक 337

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