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हरिनाम का उच्चारण क्यों ? – पूज्य बापू जी


‘हरि ॐ, हरि ॐ…’ जब की बड़ी भारी महिमा है । सबसे प्राचीन और महान ग्रंथ वेद है । वेदपाठ पुण्यदायी, पवित्र माना जाता है और वातावरण को पवित्र करता है । ऐसे वेदपाठ के आरम्भ में ‘हरि ॐ… का उच्चारण करते हैं-

हरिः ॐ… यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।… (यजुर्वेदः अध्याय 31, मंत्र 16)

और वेदपाठ पूर्ण होने के बाद भी ‘हरि ॐ…’ उच्चारण द्वारा भगवान के नाम का घोष किया जाता है, क्यों ? वेदपाठ निर्विघ्न पूरा हो इसलिए पहले ‘हरि ॐ’ का उच्चारण किया जाता है और वेदपाठ में उच्चारण कहीं गलती रह गयी तो त्रुटि की क्षम्यता और पाठ की पूर्णता हो इसलिए आखिर में ‘हरि ॐ’ का उच्चारण किया जाता है । वेद तो उत्तम है किंतु भगवान का नाम परम उत्तम है । जो हमारे पाप-ताप, दुःख-दरिद्रता को हर ले और शांति, माधुर्य व अपना स्वभाव भर दे वही हरि का नाम है ।

हरति पातकानि दुःखानि शोकानि इति श्रीहरिः ।

वेदपाठ जैसा पवित्र कार्य करने में भी हरिॐ मंत्र का सहयोग इतनी मदद करता है तो अपने जो सत्संग हैं उनमें भी आरम्भ में ‘हरि ॐ…’ का उच्चारण किया जाता है तो विघ्न बाधा दूर रहते हैं, साथ ही जो सत्संग सुनते हैं उनको पूर्ण शांति, पूर्ण सूझबूझ और पूर्ण प्रभु की कृपा का अनुभव होने में भी हरिनाम का बड़ा योगदान रहता है ।

शुक्राचार्य जी भगवान श्रीहरि से कहते हैं-

मन्त्रतस्तन्त्रतश्छिद्रं देशकालार्हवस्तुतः ।

सर्वं करोति निश्छिद्रं नामसङ्कीर्तनं तव ।।

‘मंत्रों की, अनुष्ठान पद्धति की, देश (स्थान), काल, पात्र और वस्तु की सारी भूलें आपके नाम-संकीर्तन मात्र से सुधर जाती हैं । आपका नाम सारी त्रुटियों को पूर्ण कर देता है ।’ (श्रीमद्भागवतः 8.23.16)

अब विज्ञान भी गा रहा है महिमा

डॉ. डायमंड, डॉ. लिवर लिजेरिया, मिसेस वॉटस ह्यूजेस, मैडम फिनलैंग तथा अन्य वैज्ञानिक बोलते हैं कि हरि ॐ आदि मंत्रों के उच्चारण से शरीर के विभिन्न भागों पर भिन्न-भिन्न असर पड़ता है । भारत का मंत्र विज्ञान बड़ा प्रभावशाली है और इससे रोग भी मिटाये जा सकते हैं ।

डॉ. लिवर लिजेरिया ने तो 17 वर्षों के अन्वेषण के अनुभव के पश्चात यह खोज निकाला कि ‘हरि’ के साथ ‘ॐ’ शब्द को मिलाकर उच्चारण किया जाय तो पाँच ज्ञानेन्द्रियों पर उसका अच्छा प्रभाव पड़ता है एवं निःसंतान व्यक्ति को मंत्र के बल से संतान दी जाती सकती है जबकि हमारे भारत के ऋषि-मुनियों ने इससे भी अधिक जानकारी हजारों लाखों वर्ष पहले शास्त्रं में वर्णित कर दी है । हजारों वर्ष पूर्व हमारे साधु संत जो कर सकते थे उस बात पर विज्ञान अभी कुछ-कुछ खोज कर रहा है ।

डॉ. लिवर लिजेरिया ने मंत्र के प्रभाव की खोज केवल भौतिक या स्थूल शरीर तक ही की है जबकि हमारे ऋषियों ने आज से लाखों वर्ष पूर्व केवल स्थूल शरीर तक ही मंत्र के प्रभाव को नहीं खोजा वरन् इससे भी आगे कहा है कि यह भौतिक शरीर अन्नमय कोष कहलाता है, इसके अंदर 4 शरीर (कोष) और भी हैं- 1. प्राणमय 2. मनोमय 3. विज्ञानमय 4 आनंदमय । इन सबको चेतना देने वाला चैतन्यस्वरूप है । तो उस चैतन्यस्वरूप की भी खोज कर ली है ।

भगवन्नाम (‘हरि ॐ’ आदि) के जप से पाँचों कोषों, समस्त नाड़ियों एवं सातों केन्द्रों पर बड़ा सात्त्विक प्रभाव पड़ता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2021, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 338

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…तो जो भी काम तुम करोगे उसमें सफलता मिलेगी


एक टिटिहरी ने अपने अंडे दे रखे थे समुद्र के किनारे । एक दिन समुद्र की लहर आयी और उसके अंडों को बहाकर ले गयी । अंडे जब बह गये तो उसने तुरंत काम शुरु कर दिया । क्या काम शुरु किया ? अपनी चोंच में समुद्र का पानी भर के दूर ले जाकर सूखी जमीन पर डाले । ऐसा नहीं कि टिटिहरी बैठ के रोवे और अन्य पक्षी मातम-पुर्सी करने (सांत्वना देने) को आवें तो सबसे बात करे । वह माने ही नहीं, बिल्कुल दृढ़ निश्चय कर चुकी है कि हम समुद्र को सुखा देंगे !

अब आप सोचो कि नन्हा सा पक्षी समुद्र को भला कैसे सुखा सकता है ? लेकिन उसके मन में इतना उत्साह, इतनी दृढ़ता भर गयी थी, इतना पौरूष, इतना प्रयत्न भर गया था उसके रोम-रोम में कि वह किसी के कहने से, किसी के समझाने से बिल्कुल मानती ही नहीं थी । वह तो बस समुद्र का पानी उठावे और ले जाकर बाहर फेंक दे । अब तो देश-देश के पक्षी आने लग गये कि हमारा एक भाई-बंधु इस संकल्प से समुद्र के साथ युद्ध कर रहा है कि ‘समुद्र को सुखा दें !’ वे सब भी चोंच में पानी भर के बाहर फेंकने लगे । इतना बड़ा संकल्प, एक चिड़िया के मन में और इतना बड़ा उत्साह, इतनी दृढ़ता ! यह समाचार पहुँचा गरूड़ जी के पास, पक्षियों के राजा गरुड़ । तो उन्होंने कहाः “लाखों-करोड़ों पक्षी लगे हैं समुद्र को सुखाने में । चलो, मैं देखता हूँ ।”

इसका अर्थ यह है कि मनुष्य जब अपने काम में दृढ़ता के साथ लग जाता है तो उसके सहायक भी मिल जाते हैं, उसको युक्ति भी मिल जाती है, उसको बुद्धि भी मिल जाती है । मनुष्य को दृढ़ता से अपने काम में लगने भर की देर है । बुद्धि बताने वाले आ जाते हैं, मदद करने वाले आ जाते हैं । गरुड़ जी आये । उन्होंने सब बात सुनी और बोलेः “अच्छा ! हे समुद्र ! हमारी इतनी प्रजा, इतने पक्षी संलग्न होकर तुम्हें सुखाना चाहते हैं और तुम इनको तुच्छ समझते हो कि ‘ये हमारा क्या करेंगे ?’ सो देखो, हम तुम्हें बताते हैं ।” और समुद्र के ऊपर उन्होंने दो-चार बार अपने पंख को मारा तो समुद्र उद्विग्न हो गया । टिटिहरी के जो अंडे थे उनको ले करके वह सामने उपस्थित हुआ । टिटिहरी के अंडे वापस आ गये ।

इसका अभिप्राय यह है कि बड़े-से-बड़ा काम करने का भी संकल्प करो और शक्तिभर उसके लिए प्रयास करो, तुम्हारे मददगार आवेंगे, तुम्हें बुद्धि मिलेगी, जो भी तुम काम करोगे उसमें तुम्हें सफलता मिलेगी । केवल उत्साह भंग नहीं होना चाहिए ।

इसलिए भगवान कहते हैं- “औ मेरे प्यारे बुद्धिशाली पुरुषो ! तुम उठो, जागो और अपने जीवन में अग्नि प्रज्वलित करो । तेजस्वी बनो, प्रकाशमान बनो । अपने को किसी भी अवस्था में निरुत्साह मत करो । आगे बढ़ो, आगे बढ़ो !”

बड़े-से-बड़ा काम है अपने जीवन के वास्तविक लक्ष्य को पाना अर्थात् अपने आत्मदेव का साक्षात्कार करना । इसमें तत्परता से लग जाना चाहिए और रुकना नहीं चाहिए । पूज्य बापू जी के सत्संगामृत में आता हैः “हे मानव ! जो तेरा आत्मदेव है उसको पाये बिना तू कहीं रुक मत ! चरैवेति… चरैवेति… आगे बढ़, आगे बढ़….. ॐ….ॐ….ॐ…..

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2021, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 338

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ऐसे गुरु का ध्यान परमात्मप्राप्ति का कारण बनता है


मनुष्य-जीवन में सुख-दुःख का कारण स्वस्वरूपविस्मरण है । इसका ही नाम अज्ञान, अविद्या या माया है, जिसके कारण मनुष्य को नाना प्रकार के कष्ट भोगने पड़ते हैं । इससे छूटने का उपाय है आत्मदर्शन । आत्मदर्शन याने आत्मज्ञान अंतःशक्ति जागने से होता है । इसके लिए ऐसे गुरु की शरण जाकर उनके कृपापात्र बनना चाहिए जो शिष्य से संसार का नहीं बल्कि जीवत्व का त्याग कराते हैं, उसके वित्त और द्रव्य को नहीं बल्कि उसकी चिंता और पाप को हर लेते हैं, घर में ही गुहा (गुफा) की शांति और एकांत का अनुभव ला देते हैं और प्रपंच में ही परमार्थ दिखाते हैं ।

गुरु परम दैवत (देवता) हैं । गुरु मंत्र चैतन्यकारक हैं । गुरु ‘पारमेश्वरी अनुग्राहिका शक्ति’ है, गुरु नव-नव उन्मेषशालिनी (नये-नये ढंग से अपने-आपको व्यक्त करने वाली) प्रतिभा है, गुरु स्वयं पराशक्ति चिति याने माँ कुण्डलिनी हैं । ऐसे सिद्ध गुरुजन से दीक्षा पाना परम सौभाग्य है । वह पाने के लिए गुरुध्यान सर्वश्रेष्ठ साधन है । गुरु ने मंत्र दिया, अंतःशक्ति जगायी, जप का विधान बताया फिर उन्हीं गुरु का ध्यान चरमप्राप्ति का कारण बनता है । श्रीगुरुदेव ने गुरुध्यान की अपूर्व विधि भी बतलायी है । उल्लसित गुरुचिंतन सिद्धयोग का प्राण है, शक्तिपात की साधना है, परमप्राप्ति का रहस्य है । गुरु के पुण्यस्मरण से श्रीगुरु चितिमय शक्तिरूप से शिष्य में अंतर-कार्य करने लगते हैं, उसके अंतर-मल को धोकर उसे शुद्ध बनाते हैं, जीव को शिव बनाते हैं । इसलिए शिष्य का कर्तव्य है – गुरुसंगत, गुरुसेवा, गुरु-आज्ञापालन । यही है सिद्धमार्ग या सिद्धयोग ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2021, पृष्ठ संख्या 10 अंक 338

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