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क्यों आते हैं कष्ट-मुसीबतें ? – पूज्य बापू जी


ईश्वरप्राप्ति के लिए जो भी सह लिया थोड़ा है । ईश्वर का इतना बड़प्पन है कि उसके लिए कुछ भी सहो, बहुत थोड़ा है । मीराबाई ने सहा, शबरी ने बहुत सहा फिर भी थोड़ा है ।

कोई बेवकूफ हो तो वह दुःख कहीं भी बना लेगा कि ‘हम तो दुःखी हैं ।’ उसका दुःख तो ब्रह्मा जी भी नहीं मिटा पायेंगे । जिसको फरियाद की आदत है उसका ईश्वर के रास्ते चलना सम्भव नहीं । फरियादी जीवन अपने-आपके लिए मुसीबत है और दूसरों के लिए भी ।

कष्ट तुम्हारी महिमा बताने को आते हैं कि ‘संसार की इच्छा करोगे तो लो यह हम (कष्ट) मिल रहे हैं पर हम फिर टिकते नहीं हैं, चले जाते हैं और तुम ज्यों-के-त्यों ! तुम कितने अमर हो, चेतन हो, ज्ञानस्वरूप हो किंतु हमको (कष्टों को) महत्त्व देते हो तो हमारा महत्त्व बढ़ जाता है और हमारी उपेक्षा करते हो तो फिर तुम मौज में रहते हो ।’

कष्ट तुम्हारा प्रभाव जगाने को आते हैं कि ‘भाई ! देखो, तुम कितने प्रभावशाली हो ! हमसे प्रभावित होते हो तो हम बड़े हो जाते हैं, नहीं तो हमारी उपेक्षा कर देते हो तो तुम ज्यों-के-त्यों !’

तो आप कष्टों के स्वामी हुए कि नहीं हुए ? फिर स्वामी होकर इनसे काहे को डरना, दबना अथवा अनुचित कर्म करना ?

आपके जीवन में जब कष्ट, विरोध-बाधाएँ आ जायें तो आप फरियाद मत करना कि ‘हम भगवान का भजन करते हैं और मुसीबत आ गयी ।’ मुसीबत आयी तो है लेकिन वह हर मुसीबत को कुचलने का सामर्थ्य जगाने के लिए आयी है, जन्म-मरण के चक्र को तोड़ने का सामर्थ्य जगाने के लिए आयी है – इस बात पर आप दृढ़ रहें । आप हिम्मत मत हारना, प्रह्लाद की नाईं अडिग रहना, मीराबाई की तरह अडिग रहना ।

ऐसा दुःख या परेशानी कोई नहीं है जिसमें हमारा कल्याण न छिपा हो । इसलिए कभी भी दुःख और परेशानी आयें तो समझ लेना विधाता का विधान है । ये हमारा कल्याण करने के लिए आये हैं, आसक्ति छुड़ाने को आये हैं, संसार से मोह-ममता छुड़ाने को आये हैं । ‘वाह प्रभु, वाह तेरी जय हो !’

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2021, पृष्ठ संख्या 2 अंक 338

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परिप्रश्नेन…


प्रश्नः मन वश क्यों नहीं होता ?

पूज्य बापू जीः मन में महत्त्व संसार का है और भगवान का भी उपयोग करते हैं जैसे नौकर का उपयोग करते हैं । भगवान तू यह कर दे, यह कर दे, यह कर दे…’ । महत्त्व है मिथ्या शरीर का और मिथ्या संसार का इसलिए मन वश नहीं होता । अगर भगवान का महत्व समझ में आ जाय और शरीर मरने वाला है, जो मिला वह छूटने वाला है… अहा ! शरीर दूसरा मिले कि न मिले इसमें संदेह है लेकिन जो मिला है वह छूटेगा कि नहीं छूटेगा इसमें संदेह नहीं है – ऐसा अगर दिमाग में ठीक से बैठ जाय तो धीरे-धीरे विषय-विकारों से मन उपराम होगा और भगवान में लगेगा । महत्त्व मिथ्या को देते हैं और भजन भगवान का करते हैं तो उसमें भगवान का भी उपयोग करते हैं । जो लोग भगवान से कुछ माँगते हैं, महात्मा से कुछ माँगते हैं उनके हृदय में महात्मा से और भगवान से भी उनकी माँगी हुई चीज का महत्त्व ज्यादा है ।

कई लोग कहते रहते हैं कि ‘हमारे को ऐसा कर दो… हमारा ऐसा हो जाय, ऐसा हो जाय… ।’

अरे ! क्या अक्ल मारी गयी ! ‘मैं तो सदा तुम्हारा सुमिरन करूँ, मैं ऐसा करूँ… ।’ अरे ! जो हो रहा है उसमें सम रहो । ऐसा करूँ… सा करूँ…’

सोचा । अब यदि वैसा होगा तो आसक्ति हो जायेगी, नहीं होगा तो रोओगे । तुम न आसक्ति में आओ, न रोने में आओ, सम रहो । जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा है अच्छा है, जो होगा वह भी अच्छा ही होगा ।

जो अपनी मन की चाह पूरी करता रहेगा, मनचाहा सुख लेता रहेगा उसके चाहे 10 हजार जन्म बीत जायें, ईश्वरप्राप्ति नहीं होगी । मन के चाहे में सुखी होगा और न चाहे में दुःखी होगा तो ईश्वरप्राप्ति नहीं होगी । मन तो जिंदा रहेगा, वासना तो बढ़ेगी इसलिए सच्चे भक्त बोलते हैं- ‘मेरी सो जल जाय, हरि की हो सो रह जाय ।’ तो कोई घाटा नहीं पड़ता । हरि की चाह बहुत ऊँची है और हितकारी है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2021, पृष्ठ संख्या 34 अंक 338

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यह अंत में तत्त्वज्ञान करा देगा


प्रत्येक धर्म (कर्तव्य, सत्कर्म) का इस ढंग से विचार करना चाहिए कि यह हमारे आत्मज्ञान और अविद्या-निवृत्ति में किस रीति से मददगार होता है ।

एक होता है अपनी वासना के अनुसार चलना और एक होता है दूसरी की आज्ञा के अनुसार चलना । जो व्यक्ति बड़ों की आज्ञा का उल्लंघन करता है उसके हृदय में तो अपनी वासना बड़ी प्रबल है । अपनी वासना के प्रबल होने का प्रमाण यही है कि वह शास्त्र की, गुरु की, बड़ों की, भगवान की बात न मानकर अपने मन में जो इच्छा-वासना उठती है उसी के अनुसार करता है  और बोलता है कि ‘हम स्वतन्त्र हैं’ । अरे ! वह स्वतंत्र नहीं, अतंत्र है, उच्छृंखल है । संयमी, श्रेष्ठ के काबू में तो तुम हो ही नहीं, अपने अहंकार, वासना के गुलाम – मन के गुलाम मत बनो । जब मन ने तुम्हें वासना, विकारों के गड्ढे में डाला तो गड्ढे में गिर गये । अगर आप गिरते रहते हैं तो उचित नहीं है । भयंकर भविष्य बन रहा है ऐसा समझ के सावधान हो जायें ।

जब मनुष्य अतंत्र हो जाता है तो धीरे-धीरे आदत बिगड़ जायेगी । फिर मन में होगा की ‘यह बात नहीं बोलनी चाहिए’ परंतु बोलोगे, मन में होगा कि ‘इस चीज को नहीं खाना चाहिए’ पर जब वह चीज सामने आयेगी तब खा लोगे । बुद्धि कहेगी कुछ, इन्द्रियों से करोगे कुछ । यह क्यों हुआ ? कि तुमने आज्ञापालन करना नहीं सीखा, मनमानी करना सीखा है । अब तुम अपनी इन्द्रियों के परतंत्र हो । जो गुरुजनों की आज्ञा मान करके चलता है उसका मन अपने अधीन हो जाता है और जो आज्ञापालन नहीं करता उसका मन अपने वश में नहीं रहता । अतः वासना की निवृत्ति के लिए, अंतःकरण की शुद्धि के लिए भगवान, शास्त्र, संत और हितैषियों की आज्ञा का पालन करना आवश्यक है ।

यह जो आज्ञापालन है, वही अंत में तत्त्वज्ञान करा देगा । कैसे ? कि एक दिन वेद की आज्ञा से और गुरु की आज्ञा से तुम्हारी आज्ञाकारिणी बुद्धि तत्त्व को ग्रहण कर लेगी । तुमने यह आज्ञापालनरूप अखंड सम्पत्ति अर्जित की हुई है । आज्ञापालन भी मनुष्य को तत्त्व के द्वार पर पहुँचा देता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2021, पृष्ठ संख्या 32 अंक 338

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