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शास्त्रों का जितना अधिक आदर, उतना अधिक लाभ ! – पूज्य बापू जी


ग्रंथ क्यों आदरणीय हैं ?

ग्रंथों में देखा जाय तो कागज और स्याही के सिवाय कोई तीसरी चीज नहीं होती । कागज और स्याही होती है और होते हैं वर्णमाला के अक्षर, जो तुम स्कूल में पढ़े हो, पढ़ाते हो । उन्हीं अक्षरों का मिश्रण होगा उसमें, और क्या होगा ? लेकिन फिर भी  वर्णमाला के वे अक्षर सत्सगं के द्वारा दुहराये जाते हैं और उस ढंग से छप जाते हैं तब उनसे बनी पुस्तक, पुस्तक नहीं बचती, वह स्याही और कागज नहीं बचता, वह शास्त्र हो जाता है और हम उसे शिरोधार्य करके, उसकी शोभायात्रा निकाल कर अपने को पुण्यात्मा बनाते हैं । जिन ग्रंथों में संतों की वाणी है, संतों का अनुभव है, उन ग्रंथों का आदर होना ही चाहिए । हमारे जीवन में ये सत्शास्त्र अत्यधिक उपयोगी हैं । उनका आदरसहित अध्ययन करके एवं उनके अनुसार आचरण करके हम अपने जीवन को उन्नत कर सकते हैं ।

स्वामी विवेकानन्द तो यहाँ तक कहते हैं कि “जिस घर में सत्साहित्य नहीं वह घर नहीं वरन् श्मशान है, भूतों का बसेरा है ।”

अतः अपने घर में तो सत्साहित्य रखें और पढ़ें ही, साथ ही औरों को भी सत्साहित्य पढ़ने की प्रेरणा देते रहें । इसमें आपका तो कल्याण होगा ही, औरों के कल्याण में आप सहभागी बन जायेंगे ।

तभी ज्ञान ठहरेगा

भगवान ने जो बोला है वह भी शास्त्र में ही है, भगवद्गीता शास्त्र है । शासनात् इति शास्त्रम । जो हमारे मन-बुद्धि को अनुशासित करके गिरने से बचाकर मुक्ति की तरफ ले चलें, उन ग्रंथों को ‘शास्त्र कहते हैं, फिर भले वह आश्रम का शास्त्र ‘ईश्वर की ओर’ हो, ‘दिव्य प्रेरणा प्रकाश’ हो या ‘ऋषि प्रसाद’ हो । शास्त्रों को जो जितना आदर-मान करके रखा जाता है उतना ही उनका ज्ञान ठहरता है । कई लोग मुँह से उँगलियओं में थूक लगाते हैं और किताब के पृष्ठ पलटते जाते हैं अथवा कोई बोलते हैं- ‘3 रूपये की पुस्तक पढ़’ और उसे उलटा रख देंगे । ऐ मूर्ख ! तू शास्त्र का अनादर करता है तो फिर तेरे को क्या ज्ञान ठहरेगा !

एक लड़का है, वह किताब पढ़ेगा न, तो ऐसे-वैसे रख देगा, जहाँ-तहाँ रख देगा । तो इतने साल हो गये, इतनी किताबें पढ़ लीं किन्तु रंग नहीं लगा उसको । शास्त्र का आदर नहीं करता न ! कपड़े को तो उसने रंग लिया हिम्मत करके लेकिन उसके दिल को रंग लगाने के लिए मेरे को हिम्मत करनी पड़ती है फिर भी मैं सफल नहीं हो  पा रहा हूँ क्योंकि वह जब सहयोग देगा तब मैं सफल होऊँगा उसको रँगने में । विद्यार्थी जब सहयोग देगा तब शिक्षक सफल होता है उसको पास करने में । तो आप लोग मेरे को सहयोग देना, समझ गये ! तब मैं सफल होऊँगा, नहीं तो नहीं हो सकता हूँ । तो आप सहयोग दोगे न ? (सब ‘हाँ’ बोलते हैं ।) ठीक है, शाबाश है ! धन्यवाद !

कैसे आदर करें ?

सत्शास्त्रों में सत्पुरुषों की वाणी होती है अतः मुँह से उँगली गीली करके उनके पन्ने नहीं पलटने चाहिए । पवित्रता और आदर से संतों की वाणी को पढ़ने वाला ज्यादा लाभ पाता है । सामान्य पुस्तकों की तरह सत्संग की पुस्तक पढ़कर इधर-उधर नहीं रख देनी चाहिए । जिसमें परमात्मा की, ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों की अनुभूति है, जो परमात्मशांति देने वाली है वह पुस्तक नहीं, शास्त्र है । उसका जितना अधिक आदर, उतना अधिक लाभ !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2021 पृष्ठ संख्या 17 अंक 339

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जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण है मितव्ययिता – पूज्य बापू जी


प्रसिद्ध उद्योगपति घनश्याम बिरला का लड़का, जिसकी मँगनी हो चुकी थी, दीवाली के दिन उसका ससुर आया था । वह लड़का मोमबत्ती जला रहा था तो हवा में एक तीली बुझ गयी तो उसने दूसरी जलायी, दूसरी भी बुझ गयी । मोमबत्ती को सँभाल के तीसरी तीली जलायी, हवा जोरों की थी, वह भी बुझ गयी । जब चौथी तीली जलाने गया तो घनश्याम बिरला ने थप्पड़ मार दिया मँगनी किये हुए बेटे को । जिसरी लड़की के साथ मँगनी हुई थी वह वहीं खड़ा था । अपने जमाई को थप्पड़ लगा तो उसने कहाः “आप क्यों अपने जवान बेटे को दीवाली के दिन मारते हो ?”

घनश्याम बोलेः “3-3 तीली बिगाड़ दीं । गधा है, लड़का है क्या !”

“आप तो घनश्याम बिरला है, आपके पास अरबों-खरबों रुपये की सम्पत्ति है । 3 तीली क्या, 3 माचिस भी बिगड़ जायें तो आपको क्या फर्क पड़ता है ?”

“जो 3 तीली का मितव्ययिता से सदुपयोग नहीं करता है वह दूसरी चीज कैसे सँभाल सकता है ! चीज छोटी हो चाहे बड़ी हो, जो दुरुपयोग करता है, बिगाड़ करता है वह दुष्ट है ।”

कोई आधा गिलास पानी भी गिरा देता तो गाँधी जी उसे टोक देते । उनके पास जो पत्र आते उनका कोरा भाग वे काटकर रख लेते और उसी पर चिट्ठियाँ लिखते थे । मितव्ययिता होनी चाहिए । मेरे गुरु जी भी मितव्ययिता से रहते थे । मेरे जो चेले हैं उनके नौकर लोग भी जहाज में महँगा टिकट लेकर बिजनेस क्लास में बैठते हैं लेकिन मैं जहाजों में यात्रा करता हूँ तो इकोनॉमी क्लास में ही बैठता हूँ सस्ता टिकट लेकर । हम 2100 में बैठते हैं और वे 5-6 हजार में बैठते हैं और एक ही समय पर उतरते हैं । बिगाड़ क्यों करना ? बचा पैसा किसी के काम आये ।

तो भारतीय संस्कृति परहित से भरपूर है और इस संस्कृति का उद्देश्य है कि तुम इस शरीर में सदा के लिए नहीं हो, यह शरीर छोड़कर मरना पड़ेगा तो मरने के पहले अपनी अमरता का आनंद ले लो, अपनी अमरता का साक्षात्कार कर लो, अपनी महानता का अनुभव कर लो ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2021, पृष्ठ संख्या 10 अंक 339

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तो आप न चाहो तो भी भगवान मिल जायेंगे – पूज्य बापू जी


संसार की वासना छोड़ना कठिन है तो क्या वह पूरी करना आसान है ? नहीं, संसार को पाना कठिन है । मैं तो कहता हूँ कि भगवान को पाना कठिन लगता है लेकिन संसार को पाना असम्भव है । लगता है कि पा लिया, पा लिया, पा लिया…. पर आ-आ के चला जाता है, ठहरेगा नहीं । भगवान को छोड़ना असम्भव है । जिसको छोड़ना असम्भव है उससे प्रीति करके उसको ठीक से पहचानो और जिसको पाना असम्भव है उससे ममता हटाकर उसका सदुपयोग करो, बस हो गया काम । तो जहाँ से मन को हटाना चाहते हैं उसको नापसंद कर दो और जहाँ लगाना चाहते हैं उसको पसंद कर लो – एक बात । दूसरी बात – अपने में जो कमियाँ दिखती हैं ‘वे अपने में हैं’ ऐसा मानने की गलती न करो, मन में है, बुद्धि में है, शरीर में है.. उनको निकालने के लिए सत्संग का आश्रय लो, सत्प्रवृत्ति का आश्रय लो । सत्संग और सत्प्रवृत्ति में लगेंगे तो कुसंग और कुप्रवृत्ति से जो गलतियाँ हो रही हैं उनसे बचाव हो जायेगा ।

जो नहीं कर सकते हैं अथवा जिसको किये बिना चल सकता है उससे अपने को बचा लो । और जहाँ ममता फँसी है – पैसे में, पत्नी में, शरीर में…. वहाँ से उसे ऐसे नहीं मिटा सकते, ममता से ममता हटेगी । तो भगवान में ममता रख दो – ‘जो चेतन है वह मेरा है, जो ज्ञानस्वरूप है वह मेरा है, जो सुखस्वरूप है, साक्षीस्वरूप है, अविनाशी है, अमर है वह मेरा है, जो नित्य है, जो चिद्घन चैतन्य है वह मेरा है, जो कभी न बदले वह मेरा है, जो आनंदस्वरूप है, प्रेमस्वरूप है वह मेरा है, कीट-पतंग के अंदर जिसकी चेतना खिलवाड़ कर रही है वह मेरा है । ॐ’….’

‘घर मेरा है, बेटा मेरा है, 10-20 मेरे हैं…’ ऐसी सीमित ममता क्यों, यहाँ तो करोड़ों मेरे हैं, ऐसा कर ले न भाई ! ममता का विस्तार कर ले । अपना जहाँ मिलता है वहाँ मजा आता है – अपना बेटा मिल गया, अपना परिचित मिल गया – पति, पत्नी, मित्र पैसा या अपनी चाही वस्तु मिल गयी तो आनंद आता है ।

तो अपना तो वही परमात्मा है और जब वह जहाँ-तहाँ मिलने लग जायेगा यानी सभी को गहराई में जब अपने प्रिय परमात्मा को देखने की दृष्टि बन जायेगी तो आपका अविकम्प योग हो जायेगा । जब ध्यान में बैठोगे तो मन एकाग्र और ध्यान खुला तो अभी जैसा बताया वैसा भगवद्-चिंतन…. बड़ा आसान तरीका है, बड़ा सरल तरीका है ! नदी बह रही है, उधर ही नदी के पानी के साथ चलते-चलते जाओ, आप न चाहो तो भी समुद्र आ जायेगा । ऐसे ही आप ऐसा चिंतन करो तो तो आप न चाहो तो भी भगवान मिल जायेंगे ।

चित्त चेतन को ध्यावे तो चेतनरूप भयो है ।

शत्रु का चिंतन करने से मन गंवा होता है, अशुभ का चिंतन करने से अशुभ होता है, शुभ का चिंतन करने से शुभ होता है और भगवान का चिंतन करने से मन भगवन्मय हो जाता है । अभद्र में भद्र का चिंतन करो, अशुभ में भी शुभ की गहराई देखो, अमंगल में भी मंगल को देखो । क्या जरा-जरा बात में फरियाद ! क्या जरा-जरा बात में दुःखी होना ! क्या जरा-जरा बात में इच्छा का गुलाम बनना ! ‘ठीक है, इसका बढ़िया मकान है तो उस बढ़िया मकान में जो रह रहा है वहाँ भी वही रह रहा है, यहाँ भी वही रह रहा है । ॐ….’ खुशी मनाओ, आनंद लो । अपना मकान बन जाय तो बन जाय लेकिन दूसरे का बढ़िया मकान देखकर ईर्ष्या न करो, वासना न करो । प्रारब्ध में होगा, थोड़ा पुरुषार्थ होगा… हो गया तो हो गया बस !

चिंतन की धारा ऊँची कर दो, उद्देश्य ऊँचा कर लो, संग ऊँचा कर लो, प्राप्ति ऊँची हो जायेगी आप न चाहो तो भी ! परमात्म-चिंतन, परमात्म-अनुभव का उद्देश्य और उद्देश्य के अनुकूल संग कर लो तो न चाहने पर भी परमात्म-अनुभव हो जायेगा ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2021, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 338

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