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अपनी निष्ठा पक्की करनी चाहिए !


जो भी निष्ठा होती है उसकी अपनी एक प्रक्रिया होती है । उसमें साधन, स्थिति और फल क्या होता है – वह सब बिल्कुल पक्का होता है ।

भगवद्भक्त की निष्ठा

जिसके हृदय में ईश्वर भक्ति है उसका बल है ईश्वर-विश्वास । चाहे रोग आये, चाहे शोक आये, चाहे मोह, लोभ या विरोध आयें, चाहे मृत्यु आये…. हर हालत में उसका विश्वास बना रहना चाहिए कि ‘ईश्वर हमारी रक्षा करेगा ।’ सम्पूर्ण विपत्तियों को सहन करने के लिए ईश्वर पर विश्वास आत्मबल देता है ।

अद्वैतवादी की निष्ठा

जिसकी अद्वैतनिष्ठा है उसके जीवन में भी रोग आयेगा, शोक और मोह के अवसर आयेंगे । कभी पाँव फिलस भी जायेग और कभी ठीक आगे भी बढ़ेगा, कभी मृत्यु आयेगी । ऐसे में उसका बल यह है कि ‘मैं नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त ब्रह्म हूँ । इन परिस्थितियों से मेरा न तो कुछ बनता है और न बिगड़ता है । ये तो मृग मरीचिका हैं, मायामात्र हैं, अपने स्वरूप में कुछ नहीं हैं ।’ इस निष्ठा के बल के सिवाय यदि वह यह कहने लगे कि ‘ईश्वर ! हमको बचाओ ।’ तो उसकी निष्ठा कच्ची है ।

जापक की निष्ठा

कोई जप करता है तो अपने मंत्र पर उसका विश्वास है कि ‘मंत्र हमारी रक्षा करेगा ।’ पर कोई काम पड़ा, कोई रोग आया, कोई समस्या आयी अथवा मृत्यु का अवसर आया और वह अपना मंत्र छोड़कर भागा दूसरे मंत्र की शरण में तो वह अपनी निष्ठा से च्युत हो गया । बल हमेशा अपनी निष्ठा का होना चाहिए ।

योगी की निष्ठा

एक योगी, जो समाधि लगाने का अभ्यास करता है और उसके जीवन में कोई रोग, मोह, शोक का प्रसंग आता है तो वह यदि कहता है कि ‘हे ईश्वर ! बचाओ !’ अथवा ‘आत्मा तो नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त ।’ तो उसकी निष्ठा पक्की नहीं । उसको तो तुरंत अंतर्मुख हो जाना चाहिए । ऐसी शक्ति उसके अंदर होनी चाहिए कि तुरंत चित्त-वृत्ति का निरोध हो जाय – कहीं कुछ नहीं ।

ब्रह्मज्ञानी महापुरुष की निष्ठा

ब्रह्मज्ञानी महापुरुष के जीवन में जो कठिनाई आती है, उसको वे मंत्रजप करके, देवता के बल पर अथवा ईश्वर की प्रार्थना कर के पार नहीं करते । वे जानते हैं कि ‘अपने सच्चिदानंद स्वरूप में यह सब स्फुरणा-मात्र है । इसकी कोई कीमत ही नहीं है ।’

गुरुभक्तों की निष्ठा

गुरुभक्तों के लिए सद्गुरु से बढ़कर और कोई नहीं है । भगवान शिवजी कहते हैं- ‘गुरु जी देव है, गुरु ही धर्म हैं, गुरु में ही निष्ठा ही परम तप है । गुरु से अधिक और कुछ नहीं है यह मैं तीन बार कहता हूँ ।’ (श्री गुरुगीताः 152)

तब तक अपनी निष्ठा को पक्का नहीं समझना जब अपनी निष्ठा के अतिरिक्त और किसी का सहारा लेना पड़ता हो । अपने घर में जो बैठने का अभ्यास है, वह साधक की सिद्धि का लक्षण है और जो पराये घर में बैठकर आँधी-तूफान से बचते हैं, उनकी निष्ठा पक्की नहीं है । अपनी निष्ठा पक्की करनी चाहिए ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2021, पृष्ठ संख्या 2 अंक 340

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सर्वरोगहारी निम्ब (नीम) सप्तमी


(निम्ब सप्तमीः 19 मई 2021)

भविष्य पुराण के ब्राह्म पर्व में मुनि सुमंतु जी राजा शतानीक को निम्ब सप्तमी (वैशाख शुक्ल सप्तमी) की महिमा बताते हुए कहते हैं- “इस दिन निम्ब-पत्र का सेवन किया जाता है । यह सप्तमी सभी तरह से व्याधियों को हरने  वाली है । इस दिन भगवान सूर्य का ध्यान कर उनकी पूजा करनी चाहिए । सूर्यदेव की प्रसन्नता के लिए नैवेद्य के रूप में गुड़ोदक (गुड़-मिश्रित जल) समर्पित करे फिर निम्न मंत्र द्वारा निम्ब की प्रार्थना करे व भगवान सूर्य को निवेदित करके 10-15 कोमल पत्ते प्राशन (ग्रहण) करेः

त्वं निम्ब कटुकात्मासि आदित्यनिलयस्तथा ।

सर्वरोगहरः शान्तो भव मे प्राशनं सदा ।।

‘निम्ब ! तुम भगवान सूर्य के आश्रय स्थान हो । तुम कटु स्वभाव वाले हो । तुम्हारे भक्षण करने से मेरे सभी रोग सदा के लिए नष्ट हो जायें और तुम मेरे लिए शांतस्वरूप हो जाओ ।’

इस मंत्र से निम्ब का प्राशन करके भगवान सूर्य के समक्ष पृथ्वी पर आसन बिछाकर बैठ के सूर्यमंत्र का जप करे । भगवान सूर्य का मूल मंत्र है  ‘ॐ खखोल्काय नमः ।’ सूर्य का गायत्री मंत्र हैः ‘ॐ आदित्याय विद्महे विश्वभागाय धीमहि । तन्नः सूर्यः प्रचोदयात् ।’

इसके बाद मौन रहकर बिना नमक का मधुर भोजन करे ।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2021, पृष्ठ संख्या 33 अंक 340

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ऐसी सेवा स्वामी को वश में कर देती है – पूज्य बापू जी


(श्री राम नवमीः 21 अप्रैल 2021, श्री हनुमान जयंतीः 27 अप्रैल 2021)

उत्साही शिष्य सद्गुरु की सेवा करने का, अपने स्वामी को रिझाने का साधन खोज लेता है । भले उसको कोई सेवा बताओ नहीं, कोई सेवा दो भी नहीं, तब भी जिसको उत्साह है वह सेवा खोज लेगा । रामराज्य के बाद एक बार लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न ने सीता माता का सहयोग लेकर प्रभु की सुबह से ले के रात्रि के शयन तक की सारी सेवाओं की सेवा-तालिका बनायी और कौन क्या-क्या सेवा करेगा इस पर राम जी से हस्ताक्षर करवा लिये ।

दूसरे दिन आये हनुमान जी, उठाया पंखा तो भरत कहते हैं- “यह मेरी सेवा है ।”

और कुछ सेवा करने गये तो सीता जी कहती हैं- “यह मेरी सेवा है ।” लखन भैया कहते हैं- “यह मेरी सेवा है ।” शत्रुघ्न ने कहाः “यह मेरे अधिकार में है ।” जिस सेवा को हनुमानजी छुएँ उसमें किसी-न-किसी का अधिकार हो । हनुमान जी व्याकुल हो गयेः “प्रभु जी ! मैं सेवा के बिना कैसे रहूँगा !”

राम जीः “हनुमान ! जो सेवा इनके ध्यान में न रही हो वह तुम ढूँढ लो ।”

हनुमान जी तो बहुत बुद्धिमान थे । भगवान को प्रेम करते-करते उन बुद्धियोगी को याद आया कि ‘और तो सारी सेवाएँ इनके अधिकार में हैं किंतु प्रभु जी को जब जम्हाई आयेगी उस समय चुटकी बजाने की सेवा इनके ध्यान में नहीं आयी । जम्हाई तो कभी भी आ सकती है तो अब सतत दर्शन होंगे ।’

हनुमान जी सामने बैठ गये । रामजी ने पूछाः “हनुमान ! क्या चाहिए बेटे ?”

“प्रभु ! कुछ नहीं चाहिए । मैं सेवा में हूँ ।”

क्या सेवा कर रहे हो ?”

“प्रभु जी को कभी भी जम्हाई आ सकती है तो मैंने चुटकी बजाने की सेवा ले ली ।” राम जी अंदर-अंदर खुश हुए कि ‘देखो ! सेवक फरियाद नहीं करता और सेवा खोज लेता है ।’

अब कहीं भी प्रभु जी जायें तो हनुमान जी हाजरा-हुजूर मिलें । रात हुई तो माँ सीता चरणचम्पी करने गयीं । हनुमान जी ने सोचा कि ‘पति-पत्नी के बीच मुझ इतने बड़े बेटे का उपस्थित रहना यह तो अमर्यादा होगी । परंतु प्रभु को दिन में जितनी जम्हाइयाँ आयीं उससे भी ज्यादा रात को शयन करते समय आ सकती हैं ।’ हनुमान जी खिसक गये कूद के छत पर और वहाँ चुटकी बजाना चालू किया । तो राम जी ने जम्हाई  ली और उनका मुँह खुला रह गया । सीता जी कहती हैं- “प्रभु ! क्या हुआ, क्या हुआ ?”

मुँह बंद हो तब तो बोलें ! सीता जी घबरायीं । कौसल्या जी आयीं, सुमित्रा, कैकेयी आयीं, मंत्री सुमंत्र आये । सुमंत्र ने वैद्यराज को बुलाया ।

दवा कान थींदी मुहिंजे दर्द जी,

हकीमनि खे कहिड़ी खबर मर्ज पी ।

‘मेरे दर्द की दवा नहीं हो सकती, हकीमों को क्या पता मेरे रोग का !’

आखिर मध्यरात्रि को सुमंत्र और उनके साथी को भेजा गया कि ‘गुरु वसिष्ठजी के चरणों में जाओ ।’ गुरु वसिष्ठ जी आये । वसिष्ठजी बुद्धियोगियों में शिरोमणि थे । उन्होंने देखा कि ‘सुमंत्र, कौसल्या, सीता, लक्ष्मण, भरत… सब हैं और राम जी का मुँह खुला रह गया तो क्या बात है ?’ एक क्षण के लिए शांत हुए-न-हुए, वसिष्ठ जी को प्रकाश हुआ, ‘अरे, हनुमानजी दिखाई नहीं देते !’

बाहर निकलेः “नभचर सुन लें, भूचर सुन लें, हवाएँ सुन लें, दिशाएँ सुन लें ! पवनसुत हनुमान जहाँ भी हों आ जायें – मैं वसिष्ठ ब्राह्मण बोल रहा हूँ !”

वे छत पर थे, आ गयेः “जय श्री राम !”

‘जय श्री राम’ करते ही चुटकी बजाना बंद हुआ और वहाँ प्रभु जी का मुँह बंद हो गया । राम जी से पूछा कि “क्या बात है ?”

राम जी बोलेः “हनुमान ने चुटकी बजाना चालू रखा तो मैंने अपनी जम्हाई चालू रखी ।”

सीताजी, लक्ष्मण जी हनुमान जी को कहते हैं- “भैया ! कुछ-न-कुछ हमारी सेवा ले लो पर ऐसा दुबारा मत करना ।”

सेवा स्वामी को वश में कर देती है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2021, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 340

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