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इच्छा बदलने से भगवत्प्राप्ति-साँईँ श्री लीलाशाहजी महाराज


दुनिया के व्यवसायों, धन इकट्ठा करने, सम्मान प्राप्त करने आदि के लिए आप क्या-क्या नहीं करते ! जान की बाजी लगाने से भी नहीं चूकते । जबकि यह स्पष्ट जानते हैं कि यह सब हमारे साथ नहीं चलेगा, अंत में काम नहीं आयेगा । यदि आप चाहें तो भगवत्प्राप्ति भी कर सकते हैं, जो इस शरीर के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होगी । शर्त यह है कि जो उद्यम आप धन आदि पदार्थों को पाने में लगाते हैं वह भगवत्प्राप्ति हेतु लगायें । केवल इच्छा को बदलना पड़ेगा ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2021, पृष्ठ संख्या 5 अंक 342

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सद्गुरु के शब्दमात्र से उद्धार होता है – संत दादू दयालजी


सद्गुरु के चरणों में सिर नवाकर अर्थात् उनकी शरण में रहने एवं भगवन्नाम का उच्चारण व जप करते रहने से प्राणी दुस्तर संसार से  पार हो जाता है । वह अनायास ही अष्टसिद्धि, नवनिधि और अमर-अभय पद को प्राप्त कर लेता है । उसे भक्ति-मुक्ति सहज में ही प्राप्त हो कर वह वैकुंठ को (यहाँ वैकुंठ अर्थात् अंकुठित मतिवाला अवस्था को) प्राप्त हो जाता है और अमरलोक की प्राप्ति (जीवन्मुक्ति) के फल को उपलब्ध हो जाता है ।

उसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – ये चारों मंगलमय पुरुषार्थ हस्तगत हो जाते हैं क्योंकि प्रभु के तो सभी वस्तुओं के भंडार भरे हैं फिर उनके भक्त को क्या नहीं मिलेगा ? जो तेजस्वरूप हैं, जिनकी स्वरूप-ज्योति अपार है उन्हीं सृष्टिकर्ता प्रभु के स्वरूप में, सद्गुरु-चरणों में मस्तक रखकर तथा भगवन्नाम-चिंतन करके ही हम अनुरक्त हुए हैं ।

जो सद्गुरु-शब्दों में मन लगाकर रहा है उसका हृदय सद्गुरु-शब्दों से वेधा गया है और जो उन शब्दों के द्वारा एक परमात्मा के भजन में लगता है वही जन अहंकारादि वक्रता को त्याग के सरल-स्वभाव बनता है । उसके हृदय पर शब्द की ऐसी मार्मिक चोट लगती है कि वह अपने तन-मन आदि सभी को भूल जाता है और अपने आत्मा के मूल परब्रह्म को अभेदरूप से जान के जीवन्मुक्त हो के जीते जी मृतकवत (अर्थात् संसार के राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि से उदासीन) होकर रहता है । वह अति मधुर चेतनरूप महारस को चित्त से कभी नहीं भूलता । इस प्रकार जिसने निरंजनस्वरूप के बोधक सद्गुरु-शब्दों को ग्रहण किया है उसने परब्रह्म का साक्षात्कार किया है । सद्गुरु के एक शब्द से जिज्ञासु-जन का उद्धार हो जाता है । जिन्होंने एकाग्र मन से सद्गुरु शब्द सुने हैं वे अनायास ही अज्ञान-निद्रा से जगह हैं । जब भी जो श्रद्धासहित गुरु के सम्मुख बैठ के सुनते हैं तब कान के द्वारा गुरुशब्द-बाण जाकर हृदय में लगता है और वे निरंतर अपनी वृत्ति को भीतर एक परब्रह्म में ही अनुरक्त करके रहते हैं । जो सद्गुरु-शब्दों में लगकर परमात्मा के सम्मुख रहते हैं वे संसार-दशा से आगे बढ़कर वर्तमान शरीर में ही देखते-देखते अविनाशी ब्रह्म में अभेदरूप से संलग्न हो के मुक्त हो गये हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2021, पृष्ठ संख्या 5 अंक 342

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परिप्रश्नेन


साधिकाः बापू जी ! हमें पता है कि संसार नश्वर है, जो कुछ हमें भास रहा है वह नष्ट होने वाला है फिर भी मन इसी की ओर बार-बार क्यों दौड़ता है ?

पूज्य बापू जीः यह आपने सुना है, अभी ठीक से जाना नहीं है, ठीक से माना नहीं है । जैसे साँप आ जाय और कोई कहे कि ‘रुके रहो’ तो भी आप भाग जाते हैं क्योंकि आप ठीक से मानते हैं कि साँप काटेगा तो हानि होगी । ऐसे ही यह अभी सुना हैकि ‘संसार नश्वर है, मिथ्या है’ किन्तु पुरानी वासनाएँ हैं, आकर्षण है इसलिए बार-बार मन उधर जाता है । ‘क्यों जाता है, कैसे जाता है ?’ इस पचड़े में मत पड़ो । जहाँ भी जाय, ‘सब मिथ्या है ।’ ऐसा दृढ़ता से मान लो । संसार में यथायोग्य व्यवहार करो । आप बेटी हो तो माँ के साथ निभाओ, पत्नी हो तो पति के साथ निभाओ, बहन हो तो बहन के साथ निभाओ । इनके साथ कम-से-कम समय में निभा के जीवात्मा हो तो परमात्मा के साथ निभा के एकाकार हो जाओ, इसमें क्या चिंता की बात है ? जिससे बिछुड़ नहीं सकते उसी में शांत, आनंदित….. ‘ऐसा क्यों, वैसा क्यों ?…’ इस पचड़े में मत पड़ो, चलने दो । जिसको संसार सच्चा लगता है उसके लिए संसार महानरक है, दुःखालय है, अशाश्वत है, अनित्य है किंतु जिनको परमात्मा सत्य लगता है उनके लिए संसार वासुदेवमय है । तो संसार को भोगी की दृष्टि से देखो तो वह तुम्हें तुच्छ बना देता है इसलिए बड़ा तुच्छ है और भक्त व तत्त्ववेत्ता की दृष्टि से देखो तो सब वासुदेव की लीला है ।

साधकः गुरु जी ! सत्संग में सुना है कि ‘मैं चैतन्य आत्मा हूँ, मुक्तात्मा हूँ’ फिर भी प्रतिकूलता आती है तो दुःख होता है और अनुकूलता आती है तो सुख होता है – ऐसा क्यों होता है ?

पूज्य बापू जीः ‘यह मेरे को होता है’ ऐसा सोचो ही नहीं बल्कि ऐसा सोचो कि ‘अनुकूलता का सुख इन्द्रियों को होता है, मन को होता है । प्रतिकूलता का दुःख भी इन्द्रियों और मन को होता है और इन इन्द्रियों और मन में मैं हूँ आभासमान, परमात्मरूप से मैं हूँ सत् । इन्द्रियों और मन के बहकावे में आना मेरी पुरानी आदत है । इस आदत के कारण सुख-दुःख होता है तो होता है लेकिन वह हो-हो के चला जाता है । दुःख भी नहीं टिकता और सुख भी नहीं टिकता पर जो टिकता है वह मेरा परमात्मा और मैं ज्यों-के-त्यों हैं, फिक्र किस बात की !

चिंतन कणिकाएँ-पूज्य बापू जी

नश्वर चीजें जितनी भी मिलती हैं उतनी गुलामी और बढ़ा देती हैं लेकिन परमात्मा घड़ीभर के लिए भी मिलता है तो सदा-सदा के लिए बेड़ा पार कर देता है ।

दुनिया का धन-वैभव जहाँ काम नहीं देता वहाँ आत्मवैभव, आत्मप्रसाद परलोक में भी जीव की रक्षा करता है ।

विषयों की आसक्ति, जगत में सत्यबुद्धि यह बंधन का कारण है और विषयों मैं वैराग्यवृत्ति, परमात्मा में सत्यबुद्धि यह मुक्ति का कारण है ।

सच पूछो तो परमात्मा से या आनंद से, परम सुख से तुम रत्ती भर भी दूर नहीं हो ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2021, पृष्ठ संख्या 4 अंक 342

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