All posts by Guruseva

Sharad Poornima


 

Sharad Poornima, also known as Kojaagari Poornima, is celebrated on a full moon day of the Hindu lunar month of Ashwin (September-October). It is also known as Kaumudi (moonlight) celebration, as on this day, the Moon showers amrit or elixir of life on earth through its rays. The brightness of the full moon brings special joy and marks the changing season, the end of the monsoon. It was also on this night over 5,000 years ago that Lord Krishna and Radhaji revealed the Supreme Divine bliss to innumerable Gopis in Vrindavan.

Medical Significance:

It is considered that the Moon and the Earth are at a closer distance on Sharad Poornima night. Due to this, the rays of the moon have several curative properties. Keeping food under the moonlight nourishes both the body and the soul. Following are some health tips which we all can benefit from during Sharad Poornima.

For Happiness & Good Health All the Year round :

On Sharad Poonam, make kheer of Rice, Milk, Mishri in the evening. Put some gold or silver for sometime while making Kheer; then place it in the Moonlight for about 2-3 hours from about 8:30 PM onwards. Don’t cook any other food for that night, only eat Kheer. We should not take heavy diet in late night, hence eat Kheer accordingly. The Kheer which is placed in Sharad Poonam night can also be taken in next day break-fast after making it asPrasad by offering it to the Lord.

Tips for Improving Eyesight :

Do Tratak on Moon for 15-20 minutes in the night from Dussehra to Sharad Poornima. To look with a constant gaze without blinking the eye lids, is called Tratak.

To be free from Eye troubles & for eyes to work properly whole year, try to put thread in a needle in Sharad Poonam Moonlight. (No other light should be nearby).

Do Jaagran on Sharad Poonam Night :

Sharad Poonam Night is very beneficial for spiritual upliftment, hence one should try & do Jaagran on this night, i.e. as possible don’t sleep and do JapDhyan Kirtan on this holy night.

अपरोक्ष आनंद की अनुभूति : आत्मसाक्षात्कार


 

 

संत श्री आशारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

(आत्मसाक्षात्कार दिवस : 2 अक्टूबर)

जो सभीके दिलों को सत्ता, स्फूर्ति और चेतना देता है, सब तपों और यज्ञों के फल का दाता है, ईश्वरों का भी ईश्वर है उस आत्म-परमात्म देव के साथ एकाकार होने की अनुभूति का नाम है – साक्षात्कार । यह शुद्ध आनंद व शुद्ध ज्ञान की अनुभूति है । इस अनुभूति के होने के बाद अनुभूति करनेवाला नहीं बचता अर्थात् उसमें कर्तृत्व-भोक्तृत्व भाव नहीं रहता, वह स्वयं प्रकट ब्रह्मरूप हो जाता है ।

जैसे लोहे की पुतली का पारस से स्पर्श हुआ तो वह लोहे की पुतली नहीं रही सोने की हो गयी, ऐसे ही आपकी मति जब परब्रह्म परमात्मा में गोता मारती है तो ऋतंभरा प्रज्ञा हो जाती है । ऋतंभरा प्रज्ञा यानि सत्य में टिकी हुई बुद्धि । ऐसा प्रज्ञावान पुरुष जो बोलेगा वह सत्संग हो जायेगा ।

राजा परीक्षित ने सात दिन में साक्षात्कार करके दिखा दिया… किसीने चालीस दिन में करके दिखा दिया… मैं कहता हूँ कि चालीस साल में भी परमात्मा का साक्षात्कार हो जाय तो सौदा सस्ता है । वैसे भी करोड़ों जन्म ऐसे ही बीत गये साक्षात्कार के बिना ।

तुम इंद्र बन जाओगे तो भी वहाँ से पतन होगा, प्रधानमंत्री बन जाओगे तो भी कुर्सी से हटना पड़ेगा । एक बार साक्षात्कार हो जाय तो मृत्यु के समय भी आपको यह नहीं लगेगा : ‘मैं मर रहा हूँ ।’ बीमारी के समय भी नहीं लगेगा : ‘मैं बीमार हूँ ।’ लोग आपकी जय-जयकार करेंगे तब भी आपको नहीं लगेगा कि ‘मेरा नाम हो रहा है ।’ आप फूलोगे नहीं । निंदक आपकी निंदा करेंगे तब भी आपको नहीं लगेगा कि ‘मेरी निंदा हो रही है ।’ आप सिकुड़ोगे नहीं, बस हर हाल में मस्त ! देवता आपका दीदार करके अपना भाग्य बना लेंगे पर आपको अभिमान नहीं आयेगा, साक्षात्कार ऐसी उच्च अनुभूति है ।

साक्षात्कार को आप क्या समझते हो ? यह तो ऐसा है कि सब्जी मंडी में कोई हीरे-जवाहरात लेकर बैठा हो । लोग सब्जी लेकर और हीरे-जवाहरात देख के चलते जायेंगे । फिर वहाँ हीरे-जवाहरात खोलकर कोई कितनी देर बैठेगा – ऐसी बात है साक्षात्कार की । संसार चाहनेवालों के बीच साक्षात्कार की महिमा कौन जानेगा ? कौन सराहेगा ? कौन मनायेगा साक्षात्कार दिवस और कैसे मनायेगा ? इसीलिए जन्मदिन मनाने की तो बहुत रीतियाँ हैं परंतु साक्षात्कार दिवस मनाने की कोई रीति प्रचलित नहीं है । फिर भी सत्शिष्य अपने सद्गुरु का प्रसाद पाने के लिए उनके साक्षात्कार दिवस पर अपने ढंग से कुछ-न-कुछ कर लेते हैं ।

साक्षात्कार पूरी धरती पर किसी-किसीको होता है । साक्षात्कार धन से, सत्ता से, रिद्धि-सिद्धियों से भी बड़ा है । साक्षात्कारी महापुरुष कई धनवान, कई सत्तावान पैदा कर सकते हैं । कई ऐसे महापुरुष हैं जो लोहे से सोना बना दें । ऐसे भी महापुरुष मैंने देखे जो हवा पीकर जीते हैं, उनके पास अदृश्य होने की भी शक्ति है । ऐसे भी संत मेरे मित्र हैं जिनके आगे गायत्री देवी प्रकट हुईं, हनुमानजी प्रकट हुए, सूक्ष्म शरीर से हनुमानजी उनको घुमाकर भी ले आये परंतु इन सभी अनुभवों के बाद भी जब तक इस जीवात्मा को परमात्मा का साक्षात्कार नहीं होता तब तक वह चाहे स्वर्ग में चला जाय, वैकुंठ में चला जाय, पाताल में चला जाय, सारे ब्रह्मांड में भटक ले पर ‘निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा ।’ आत्मसाक्षात्कार के बिना पूर्ण तृप्ति, शाश्वत संतोष नहीं होगा ।

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के मित्र थे और सारथी बनकर उसका रथ चला रहे थे, तब भी अर्जुन को साक्षात्कार करना बाकी था । उस आत्मसुख की प्राप्ति अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण के सत्संग से हुई, हनुमानजी को रामजी के सत्संग से हुई । राजा जनक को अष्टावक्र मुनि की कृपा से वह पद मिला और आसुमल को पूज्य लीलाशाह बापूजी की कृपा से आज (आश्विन शुक्ल द्वितीया) के दिन वह आत्मसुख मिला था ।

पूर्ण गुरु किरपा मिली, पूर्ण गुरु का ज्ञान । आसुमल से हो गये, साँईं आसाराम ।।

इंद्रपद बहुत ऊँचा है लेकिन आत्मसाक्षात्कार के आगे वह भी मायने नहीं रखता । साक्षात्कार के आनंद से त्रिलोकी को पाने का आनंद भी बहुत तुच्छ है । इसीलिए

‘अष्टावक्र गीता’ में कहा गया है :

यत्पदं प्रेप्सवो दीनाः शक्राद्याः सर्वदेवताः ।

अहो तत्र स्थितो योगी न हर्षमुपगच्छति ।।

‘जिस पद को पाये बिना इंद्र आदि सब देवता भी अपनेको कंगाल मानते हैं, उस पद में स्थित हुआ योगी, ज्ञानी हर्ष को प्राप्त नहीं होता, आश्चर्य है ।’ (अष्टावक्र गीता : 4.2)

आत्मसाक्षात्कारी महापुरुष को इस बात का अहंकार नहीं होता कि ‘मैं ब्रह्मज्ञानी हूँ… मैं साक्षात्कारी हूँ… इस दुनिया में दूसरा कोई मेरी बराबरी का नहीं है… मैंने सर्वोपरि पद पाया है…’

उस परमात्म-सुख को, परमात्म-पद को पाये बिना, निर्वासनिक नारायण में विश्रांति पाये बिना हृदय की तपन, राग-द्वेष, भय-शोक-मोह व चिंताएँ नहीं मिटतीं । अगर इनसे छुटकारा पाना है तो यत्नपूर्वक आत्मसाक्षात्कारी महापुरुषों का संग करें, मौन रखें, सत्शास्त्रों का पठन-मनन एवं जप-ध्यान करें । निर्वासनिक नारायण तत्त्व में विश्रांति पाने में ये सब सहायक साधन हैं ।

ऐसा नहीं है कि परमात्मा का साक्षात्कार कर लिया तो कोई आपकी निंदा नहीं करेगा, आपके सब दिन सुखद हो जायेंगे । नहीं… परमात्म-साक्षात्कार हो जाय फिर भी दुःख तो आयेंगे ही । भगवान राम को भी चौदह वर्ष का वनवास मिला था । महात्मा बुद्ध हों या महावीर स्वामी, संत कबीरजी हों या नानकदेव, श्री रमण महर्षि हों या श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी रामतीर्थ हों या पूज्य लीलाशाहजी बापू विघ्न-बाधाएँ तो सभी देहधारियों के जीवन में आती ही हैं लेकिन इनका प्रभाव जहाँ पहुँच नहीं सकता उस आत्मसुख में वे महापुरुष सराबोर होते हैं ।

जैसे जंगल में आग लगने पर सयाने पशु सरोवर में खड़े हो जाते हैं तो आग उन्हें जला नहीं सकती, ऐसे ही जो महापुरुष आत्मसरोवर में आने की कला जान लेते हैं वे संसार की तपन के समय अपने आत्मसुख का विचार कर तपन के प्रभाव से परे हो जाते हैं ।

(ऋषि प्रसाद : सितम्बर 2006)

उपासना का महत्त्व


 

सनातन धर्म में निर्गुण निराकार परब्रह्म परमात्मा को पाने की योग्यता बढ़ाने के लिए अनेक प्रकार की उपासनाएँ चलती हैं | उपासना माने उस परमात्म-तत्व के निकट आने का साधन |ऐसे उपासना करनेवाले लोगों में विष्णुजी के साकार रूप का ध्यान-भजन, पूजन-अर्जन करनेवाले लोगों को वैष्णव कहा जाता है और शक्ति की उपासना करनेवाले लोगों को शाक्त कहा जाता है | बंगाल में कलकत्ता की और शक्ति की उपासना करनेवाले शाक्त लोग अधिक संख्या में हैं |

‘श्रीमद देवी भगवत’ शक्ति के उपासकों का मुख्य ग्रन्थ है | उसमें जगदम्बा की महिमा है | शक्ति के उपस्क नवरात्रि में विशेष रूप से शक्ति की आराधना करते हैं | इन दिनों में पूजन-अर्जन, कीर्तन, व्रत-उपवास, मौन, जागरण आदि का विशेष महत्त्व होता है |

नवरात्रि को तीन हिस्सों में बाँटा जा सकता है | उसमें पहले तीन दिन तमस को जीतने की आराधना के हैं | दुसरे तीन दिन रजस को और तीसरे दिन सत्त्व को जीतने की आराधना के हैं | आखरी दिन दशहरा है | वह सात्विक, रजस और तमस तीनों गुणों को यानि महिषासुर को मारकर जीव को माया की  जाल से छुड़ाकर शिव से मिलाने का दिन है |

जिस दिन महामाया ब्रह्मविद्या   आसुरी वृतियों को मारकर जीव के ब्रह्मभाव को प्रकट करती हैं, उसी दिन जीव की विजय होती है इसलिए उसका नाम ‘विजयादशमी’ है | हज़ारों-लाखों जन्मों से जीव त्रिगुणमयी माया के चक्कर में फँसा था, आसुरी वृतियों के फँदे में पड़ा था | जब महामाया जगदम्बा की अर्चना-उपासना-आराधना की तब वह जीव विजेता हो गया | माया के चक्कर से, अविद्या के फँदे से मुक्त हो गया, वह ब्रह्म हो गया |

विजेता होने के लिए बल चाहिए | बल बढ़ाने के लिए उपासना करनी चाहिए | उपासना में तप, संयम और एकाग्रता आदि जरूरी है |

जगत में शक्ति के बिना कोई काम सफल नही होता है | चाहे आपका सिद्धांत कितना भी अच्छा हो, आपके विचार कितने भी सुंदर और उच्च हों लेकिन अगर आप शक्तिहीन हैं तो आपके विचारो का कोई मूल्य नही होगा | विचार अच्छा है, सिद्धांत अच्छा है, इसलिए सर्वमान्य हो जाता है ऐसा नही है | सिद्धांत या विचार चाहे कैसा भी हो, उसके पीछे शक्ति जितनी ज्यादा लगते हो उतना वः सर्वसामान्य होता है | चुनाव में भी देखो तो हार-जीत होती रहती है | ऐसा नही है कि यह आदमी अच्छा है इसलिए चुनाव में जीत गया और वह आदमी बुरा है इसलिए चुनाव में हार गया | आदमी अच्छा हो या बुरा, चुनाव में जीतने के लिए जिसने ज्यादा शक्ति लगायी वह जीत जायेगा | हकीकत में जिस किसी विषय में जो ज्यादा शक्ति लगाता है वह जीतता है | वकील लोगों को भी पता होगा, कई बार ऐसा होता है कि असील चाहे इमानदार हो चाहे बेईमान परन्तु जिस वकील के तर्क जोरदार-जानदार होते हैं वह मुकदमा जीत जाता है |

ऐसे ही जीवन में विचारो को, सिद्धांतो को प्रतिष्ठित करने के लिए शक्ति चाहिए, बल चाहिए, ढृढ़ निश्चय चाहिए |

साधको के लिए उपासना अत्यंत आवश्यक है | जीवन में कदम-कदम पर कैसी-कैसी मुश्किलें, कैसी-कैसी समस्याएँ आती हैं ! उनसे लड़ने के लिए, सामना करने के लिए भी  बल चाहिए | वह बल उपासना-आराधना से मिलता है |

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामजी ने मानो इसका प्रतिनिधित्व किया है  | सेतुबंध के समय शिव की उपासना करने  के लिए श्रीरामचन्द्रजी ने रामेश्वर में शिवलिंग की स्थापना की थी, युद्ध के पहले नौ दिन चंडी की उपासना की थी, भगवान श्रीकृष्ण ने भी सूर्य की उपासना की थी |

इन अवतारों ने हमे बताया है की अगर आप मुक्ति पाना चाहते हो तो उपासना को अपने जीवन का एक अंग बना लो | बिना उपासना के विकास नही होता है |

अगर मनुष्य अपने मन को नियन्त्रण में रख सके और जिस समय जैसी घटना घटे उसे उचित समझकर अपने चित्त को सम रख सके तो इससे बल बढ़ता है | मन को नियंत्रित करने के लिए हि अलग-अलग दैवो की उपासना की जाती है | दूर शकी की उप कक शाक्त लो अपने चित्त को शांत और एकाग्र करते हैं | शैवपंथी शिव की और वैष्णव लोग विष्णु की उपासना करके चित्त को शांत और एकाग्र करते हैं | कई लोग भगवन सूर्य कई उपासना करके अपने जीवन को तेजस्वी बना लेते हैं तो कई ‘गणपति बापा मोरिया’ करके चित्त को प्रसन्नता और आनंद से भर देते हैं |

उपासना से चित्त शांत और प्रसन्न होता है, उसका बल बढ़ता है, और तभी आत्मज्ञान के वचन सुनने का और पचाने का अधिकारी बनता है | ऐसा अधिकारी चित्त ब्रह्म्वेता महापुरुषों के अनुभव को अपना अनुभव बना लेता है |