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लोक – परलोक सँवारनेवाली गीता की १२ विद्याएँ


पूज्य बापूजी

गीता का ज्ञान मनुष्यमात्र का मंगल करने की सत्प्रेरणा देता है, सद्ज्ञान देता है | गीता की १२ विद्याएँ हैं | गीता सिखाती है कि भोजन कैसा करना चाहिए जिससे आपका तन तंदुरुस्त रहे, व्यवहार कैसा करना चाहिए जिससे आपका मन तंदुरुस्त रहे और ज्ञान कैसा सुनना – समझना चाहिए जिससे आपकी बुद्धि में ज्ञान – ध्यान का प्रकाश हो जाय | जीवन कैसा जीना चाहिए कि मरने के पहले मौत के सिर पर पैर रख के आप अमर परमात्मा की यात्रा करने में सफल हो जायें, ऐसा गीता का दिव्य ज्ञान है | इसकी १२ विद्याएँ समझ लो :

१] शोक-निवृत्ति की विद्या : गीता आशा का ग्रंथ है, उत्साह का ग्रन्ध है | मरा कौन है ? जिसकी आशा, उत्साह मर गये वह जीते – जी मरा हुआ है | सफल कौन होता है ? जिसके पास बहुत लोग हैं, बहुत धन होता है, वही वास्तव में जिंदा है | गीता जिंदादिली देनेवाला सदग्रंथ है | गीता का सत्संग सुननेवाला बीते हुए का शोक नहीं करता है, भविष्य की कल्पनाओं से भयभीत नहीं होता, वर्तमान के व्यवहार को अपने सिर पर हावी नहीं होने देता और चिंता का शिकार नहीं बनता | गीता का सत्संग सुननेवाला कर्म – कौशल्य पा लेता है |

२] कर्तव्य – कर्म करने की विद्या : कर्तव्य – कर्म कुशलता से करें | लापरवाही, द्वेष, फल की लिप्सा से कर्मों को गंदा न होने दें | आप कर्तव्य – कर्म करें और फल ईश्वर के हवाले कर दें | फल की लोलुपता से कर्म करोगे तो आपकी योग्यता नपी – तुली हो जायेगी | कर्म को ‘कर्मयोग’ बना दें |

३] त्याग की विद्या : चित्त से तृष्णाओं का, कर्तापन का, बेवकूफी का त्याग करना |

    …. त्यागाच्छान्तिरनन्तरम | (गीता : १२.१२)

त्याग से आपके ह्रदय में निरंतर परमात्म – शान्ति रहेगी |

४] भोजन करने की विद्या : युद्ध के मैदान में भी भगवान स्वास्थ्य की बात नहीं भूलते हैं | भोजन ऐसा करें कि आपको बिमारी स्पर्श न करे और बीमारी आयी तो भोजन ऐसे बदल जाय कि बीमारी टिके नहीं |

युक्ताहारविहारस्य…. (गीता :६.१७)

५] पाप न लगने की विद्या : युद्ध जैसा घोर कर्म करते हुए अर्जुन को पाप नहीं लगे, ऐसी विद्या है गीता में | कर्तृत्वभाव से, फल की इच्छा से तुम कर्म करते हो तो पाप लगता है लेकिन कर्तृत्व के अहंकार से नहीं, फल की इच्छा से नहीं, मंगल भावना से भरकर करते हो तो आपको पाप नहीं लगता |

यस्य नाहंकृतो भावो…. (गीता:१८.१७)

यह सनातन धर्म की कैसी महान विद्या है ! जरा – जरा बात में झूठ बोलने का लाइसेंस (अनुज्ञापत्र ) नहीं मिल रहा है लेकिन जिससे सामनेवाले का हित होता हो और आपका स्वार्थ नहीं है तो आपको ऐसा कर्म बंधनकारी नहीं होता, पाप नहीं लगता |

६] विषय – सेवन की विद्या : आप ऐसे रहें, ऐसे खायें – पियें कि आप संसार का उपयोग करें, उपभोग करके संसार में डूब न मरें | जैसे मुर्ख मक्खी चाशनी में डूब मरती है, सयानी मक्खी किनारे से अपना काम निकालकर चली जाती है, ऐसे आप संसार में पहले थे नहीं, बाद में रहोगे नहीं तो संसार से अपनी जीविकाभर की गाडी चला के बाकी का समय बचाकर अपनी आत्मिक उन्नति करें | इस प्रकार संसार की वस्तु का उपयोग करने की, विषय – सेवन की विद्या भी गीता ने बतायी |

७] भगवद् – अर्पण करने की विद्या : शरीर, वाणी तथा मन से आप जो कुछ करें, उसे भगवान को अर्पित कर दें | आपका हाथ उठने में स्वतंत्र नहीं है | आपके मन, जीभ और बुद्धि कुछ भी करने में स्वतंत्र नहीं हैं | आप डॉक्टर या अधिकारी बन गये तो क्या आप अकेले अपने पुरुषार्थ से बने ? नहीं, कई पुस्तकों के लेखकों की, शिक्षकों की, माता – पिता की और समाज के न जाने कितने सारे अंगों की सहायता से आप कुछ बन पाये | और उसमें परम सहायता परमात्मा की चेतना की है तो इसमें आपके अहं का है क्या ? जब आपके अहं का नहीं है तो फिर जिस ईश्वर की सत्ता से अआप कर्म करते हो तो उसको भगवद् – अर्पण बुद्धि से कर्म अर्पण करोगे तो अहं रावण जैसा नहीं होगा, राम की नाई अहं अपने आत्मा में आराम पायेगा |

८] दान देने की विद्या : नजर चीजें छोड़कर ही मरना है तो इनका सदुपयोग, दान – पुण्य करते जाइये | दातव्यमिति यद्दानं ….. (गीता : १७.२०) आपके पास विशेष बुद्धि या बल है तो दूसरों के हित में उसका दान करो | धनवान हो तो आपके पास जो धन है उसका पाँचवाँ अथवा दसवाँ हिस्सा सत्कर्म में लगाना ही चाहिए |

९] यज्ञ – विद्या : गीता (१७.११ ) में आता है कि फलेच्छारहित होकर शास्त्र – विधि से नियत यज्ञ करना ही कर्तव्य है – ऐसा जान के जो यज्ञ किया जाता है, वह सात्त्विक होता है | यज्ञ – याग आदि करने से बुद्धि पवित्र होती है और पवित्र बुद्धि में शोक, दुःख एवं व्यर्थ की चेष्टा नहीं होती |

आहुति डालने से वातावरण शुद्ध होता है एवं संकल्प दूर तक फैलता है लेकिन केवल यही यज्ञ नहीं है | भूखे को भोजन देना, प्यासे को पानी देना, अनजान व्यक्ति को रास्ता बताना भी यज्ञ हैं |

१०] पूजन – विद्या : देवता का पूजन, पितरों का पूजन, श्रेष्ठ जनों का पूजन करने की विद्या गीता में है | पूजन करनेवाले को यश, बल, आयु और विद्या प्राप्त होते हैं |

लेकिन जर्रे – जर्रे में रामजी हैं, ठाकुरजी हैं, प्रभुजी हैं – वासुदेव: सर्वम्…. यह व्यापक पूजन – विद्या भी ‘गीता’ में हैं |

११] समता लाने की विद्या : यह ईश्वर बनानेवाली विद्या है, जिसे कहा गया समत्वयोग | अपने जीवन में समता का सद्गुण लाइये | दुःख आये तो पक्का समझिये कि आया है तो जायेगा | इससे दबें नहीं | दुःख आने का रस लीजिये | सुख आये तो सुख आने का रस लीजिये कि ‘तू जानेवाला है | तेरे से चिपकेंगे नहीं जी सकते लेकिन विकारी रस में आप जियेंगे तो जन्म-मरण के चक्कर में जा गिरेंगे और यदि आप निर्विकारी रस की तरफ आते हैं तो आप शाश्वत, रसस्वरूप ईश्वर को पाते हैं |

१२] कर्मों को सत् बनाने की विद्या :  आप कर्मो को सत बना लीजिये | वे कर्म आपको सतस्वरूप की तरफ ले जायेंगे | आप कभी यह न सोचिये कि ‘मेरे १० मकान हैं, मेरे पास इतने रुपये हैं…..’ इनकी अहंता मत लाइये, आप अपना गला घोंटने का पाप न करिये | ‘मकान हमारे हैं, रूपये मेरे हैं …..’ तो आपने असत को मूल्य दिया, आप तुच्छ हो गये | आपने कर्मों को इतना महत्त्व दिया कि आपको असत् कर्म दबा रहे हैं |

आप कर्म करो, कर्म तो असत् हैं, नश्वर हैं लेकिन कर्म करने की कुशलता आ जाय तो आप सत में पहुँच जायेंगे | आप परमात्मा के लिए कर्म करें तो कर्मों के द्वारा आप सत् का संग कर लेंगे |

कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते |

‘उस परमात्मा के लिए किया हुआ कर्म निश्चयपूर्वक सत्  – ऐसे कहा जाता है |’  (गीता : १७.२७)

स्त्रोत – ऋषि प्रसाद दिसम्बर २०१५ से (निरंतर अंक -२७६ )

जीवन का दृष्टिकोण उन्नत बनाती है ‘गीता’


 

(श्रीमद् भगवद्गीता जयंती : १० दिसम्बर )

पूज्य बापूजी की सारगर्भित अमृतवाणी

‘यह मेरा ह्रदय है’ – ऐसा अगर किसी ग्रंथ के लिए भगवान ने कहा हो तो वह गीता का ग्रंथ है | गीता में ह्रदयं पार्थ | ‘गीता मेरा ह्रदय है |’ अन्य किसी ग्रंथ के लिए भगवान ने यह नहीं कहा है कि ‘यह मेरा ह्रदय है |’

भगवान आदिनारायण की नाभि से हाथों में वेद धारण किये ब्रह्माजी प्रकटे, ऐसी पौराणिक कथाएँ आपने – हमने सुनी, कहीं हैं | लेकिन नाभि की अपेक्षा ह्रदय व्यक्ति के और भी निकट होता है | भगवान ने ब्रह्माजी को तो प्रकट किया नाभि से लेकिन गीता के लिए कहते हैं :

गीता में ह्रदयं पार्थ |गीता मेरा ह्रदय है |’

परम्परा तो यह है कि यज्ञशाला में, मन्दिर में, धर्मस्थान पर धर्म – कर्म की प्राप्ति होती है लेकिन गीता ने गजब कर दिया – धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे…. युद्ध के मैदान को धर्मक्षेत्र बना दिया | पद्धति तो यह थी कि एकांत अरण्य में, गिरि ० गुफा में धारणा, ध्यान, समाधि करने पर योग प्रकट हो लेकिन युद्ध के मैदान में गीता ने योग प्रकटाया | परम्परा तो यह है कि शिष्य नीचे बैठे और गुरु ऊपर बैठे | शिष्य शांत हो और गुरु अपने – आपमें तृप्त हो तब तत्त्वज्ञान होता है लेकिन गीता ने कमाल कर दिया है | हाथी चिंघाड़ रहे हैं, घोड़े हिनहिना रहे हैं, दोनों सेनाओं के योद्धा प्रतिशोध की आग में तप रहे हैं | किंकर्तव्यविमूढ़ता से आक्रांत मतिवाला अर्जुन ऊपर बैठा है और गीताकार भगवान नीचे बैठे हैं | अर्जुन रथी है और गीताकार सारथी हैं | कितनी करुणा छलकी होगी उस ईश्वर को, उस नारायण को अपने सखा अर्जुन व मानव – जाति के लिए ! केवल घोड़ागाड़ी ही चलाने को तैयार नहीं अपितु आज्ञा मानने को भी तैयार ! नर कहता है कि ;दोनों सेनाओं के बीच मेरे रथ को ले चलो |’ रथ को चलाकर दोंन सेनाओं के बीच लाया है | कौन ? नारायण ! नर का सेवक बनकर नारायण रथ चला रहा है और उसी नारायण ने अपने वचनों में कहा :

गीता में ह्रदयं पार्थ |

पौराणिक कथाओं में मैंने पढ़ा है, संतों के मुख से मैंने सुना है, भगवान कहते हैं : ‘मुझे वैकुण्ठ इतना प्रिय नहीं, मुझे लक्ष्मी इतनी प्रिय नहीं, जितना मेरी गीता का ज्ञान कहनेवाला मुझे प्यारा लगता है |’ कैसा होगा उस गीतकार का गीता के प्रति प्रेम !

गीता पढकर १९८५ – ८६ में गीताकार की भूमि को प्रणाम करने के  लिए कनाडा के प्रधानमंत्री मि. पीअर टुडो भारत आये थे | जीवन की शाम हो जाय और देह को दफनाया जाय उससे पहले अज्ञानता को दफनाने के लिए उन्होंने अपने प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया और एकांत में चले गये | वे अपने शारीरिक पोषण के लिए एक दुधारू गाय और आध्यात्मिक पोषण के लिए उपनिषद् और गीता साथ में ले गये | टुडो ने कहा है : ‘मैंने बाइबिल पढ़ी, एंजिल पढ़ी और अन्य धर्मग्रन्थ पढ़े | सब ग्रंथ अपने – अपने स्थान पर ठीक है किंतु हिन्दुओं का यह ‘श्रीमद् भगवद्गीता’ ग्रंथ तो अद्भुत है | इसमें किसी मत-मजहब, पंथ या सम्प्रदाय की निंदा – स्तुति नहीं है वरन् इसमें तो मनुष्यमात्र के विकास की बातें हैं | गीता मात्र हिन्दुओं का ही धर्मग्रन्थ नहीं हैं, बल्कि मानवमात्र का धर्मग्रन्थ है |’

गीता ने किसी मत, पंथ की सराहना या निंदा नहीं की अपितु मनुष्यमात्र की उन्नति की बात कहीं | और उन्नति कैसी ? एकांगी नहीं, द्विअंगी नहीं, त्रिअंगी नहीं सर्वागीण उन्नति | कुटुम्ब का बड़ा जब पुरे कुटुम्ब की भलाई का सोचता है तब ही उसके बडप्पन की शोभा है | और कुटुम्ब का बड़ा तो राग –द्वेष का शिकार हो सकता है लेकिन भगवान में राग – द्वेष कहाँ ! विश्व का बड़ा पुरे विश्व की भलाई सोचता है और ऐसा सोचकर वह जो बोलता है वही गीता का ग्रंथ बनता है |

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु |

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ||

‘दु:खों का नाश करनेवाला योग तो यथायोग्य आहार – विहार करनेवाले का, कर्मो में यथायोग्य चेष्टा करनेवाले का और यथायोग्य सोने तथा जागनेवाले का ही सिद्ध होता है |’ (गीता :६.१७ )

केवल शरीर का स्वास्थ्य नहीं, मन का स्वास्थ्य भी कहा है |

सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मत: |

सुखद स्थिति आ जाय चाहे दुःखद स्थिति आ जाय, दोनों में विचलित न हों | दुःख पैरों तले कुचलने की चीज है और सुख बाँटने की चीज है | दृष्टि दिव्य बन जाय, फिर आपके सभी कार्य दिव्य हो जायेंगे | छोटे – से – छोटे व्यक्ति को अगर सही ज्ञान मिल गया और उसने स्वीकार कर लिया तो वह महान बन के ही रहेगा | और महान – से – महान दिखता हुआ व्यक्ति भी अगर गीता के ज्ञान के विपरीत चलता है तो देखते – देखते उसकी तुच्छता दिखाई देने लगेगी | रावण और कंस ऊँचाइयों को तो प्राप्त थे लेकिन दृष्टिकोण नीचा था तो अति नीचता में जा गिरे | शुकदेवजी, विश्वामित्रजी साधारण झोपड़े में रहते हैं, खाने-पीने का ठिकाना नहीं लेकिन दृष्टिकोण ऊँचा था तो राम-लखन दोनों भाई विश्वामित्र की पगचम्पी करते हैं |

गुरु तेन पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान |  (श्री रामचरित, बा.कां.:२२६ )

विश्वामित्रजी जगें उसके पहले जगपति जागते हैं क्योंकि विश्वामित्रजी के पास उच्च विचार है, उच्च दृष्टिकोण है | ऊँची दृष्टि का जितना आदर किया जाय उतना कम है | और ऊँची दृष्टि मिलती कहा से है ? गीता जैसे ऊँचे सद्ग्रंथो से, सत्शास्त्रों से और जिन्होंने ऊँचा जीवन जिया है, ऐसे महापुरुषों से | बड़े – बड़े दार्शनिकों के दर्शनशास्त्र हम पढ़ते हैं, हमारी बुद्धि पर उनका थोडा – सा असर होता है लेकिन वह लम्बा समय नहीं टिकता | लेकिन जो आत्मनिष्ठ धर्माचार्य हैं, उनका जीवन ही ऐसा ऊँचा होता है कि उनकी हाजिरीमात्र से लाखों लोगों का जीवन बदल जाता है | वे धर्माचार्य चले जाते हैं तब भी उनके उपदेश से धर्मग्रंथ बनता है और लोग पढ़ते – पढ़ते आचरण में लाकर धर्मात्मा होते चले जाते हैं |

मनुष्यमात्र अपने जीवन की शक्ति का एकाग्र हिस्सा खानपान, रहन-सहन में लगाता ई और दो – तिहाई अपने इर्द-गिर्द के माहौल पर प्रभाव डालने की कोशिश में ही खर्च करता है | चाहे चपरासी हो चाहे क्लर्क हो, चाहे तहसीलदार हो चाहे मंत्री हो, प्रधानमंत्री हो, चाहे बहु हो चाहे सास हो, चाहे सेल्समैन हो चाहे ग्राहक हो, सब यही कर रहे हैं | फिर भी आम आदमी का प्रभाव वही जल में पैदा हुए बुलबुले की तरह बनता रहता है और मिटता रहता है | लेकिन जिन्होंने स्थायी तत्त्व में विश्रांति पायी है, उन आचार्यों का, उन ब्रह्मज्ञानियों का, उन कृष्ण का प्रभाव अब भी चमकता – दमकता दिखाई दे रहा है |

ऋषि प्रसाद अंक – २१५, नवम्बर – २०१० से

भीष्मपञ्चक-व्रत


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भीष्मपञ्चक व्रत – 10 नवम्बर से 14 नवम्बर तक 

अग्निदेव कहते है – अब मैं सब कुछ देनेवाले व्रतराज ‘भीष्मपञ्चक’ विषय में कहता हूँ | कार्तिक के शुक्ल पक्ष की एकादशी को यह व्रत ग्रहण करें | पाँच दिनोंतक तीनों समय स्नान करके पाँच तिल और यवों के द्वारा देवता तथा पितरों का तर्पण करे | फिर मौन रहकर भगवान् श्रीहरि का पूजन करे | देवाधिदेव श्रीविष्णु को पंचगव्य और पंचामृत से स्नान करावे और उनके श्री अंगों में चंदन आदि सुंगधित द्रव्यों का आलेपन करके उनके सम्मुख घृतयुक्त गुग्गुल जलावे ||१-३||

प्रात:काल और रात्रि के समय भगवान् श्रीविष्णु को दीपदान करे और उत्तम भोज्य-पदार्थ का नैवेद्ध समर्पित करे | व्रती पुरुष ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ इस द्वादशाक्षर मन्त्र का एक सौ आठ बार (१०८) जप करे | तदनंतर घृतसिक्त तिल और जौ का अंत में ‘स्वाहा’ से संयुक्त ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ – इस द्वादशाक्षर मन्त्र से हवन करे | पहले दिन भगवान् के चरणों का कमल के पुष्पों से, दुसरे दिन घुटनों और सक्थिभाग (दोनों ऊराओं) का बिल्वपत्रों से, तीसरे दिन नाभिका भृंगराज से, चौथे दिन बाणपुष्प, बिल्बपत्र और जपापुष्पोंद्वारा एवं पाँचवे दिन मालती पुष्पों से सर्वांग का पूजन करे | व्रत करनेवाले को भूमिपर शयन करना चाहिये |

एकादशी को गोमय, द्वादशी को गोमूत्र, त्रयोदशी को दधि, चतुर्दशी को दुग्ध और अंतिम दिन पंचगव्य आहार करे | पौर्णमासी को ‘नक्तव्रत’ करना चाहिये | इसप्रकार व्रत करनेवाला भोग और मोक्ष – दोनों का प्राप्त कर लेता है |

भीष्मपितामह इसी व्रत का अनुष्ठान करके भगवान् श्रीहरि को प्राप्त हुए थे, इसीसे यह ‘भीष्मपञ्चक’ के नाम से प्रसिद्ध है |

ब्रह्माजी ने भी इस व्रत का अनुष्ठान करके श्रीहरि का पूजन किया था | इसलिये यह व्रत पाँच उपवास आदिसे युक्त हैं ||४-९||

स्त्रोत – अग्निपुराण – अध्याय २०५ से

-ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –