एक सम्राट ने सुंदर बग़ीचा लगवाया । वह दूर-दराज से पौधे
मँगवाकर लगवाता रहता था तो बगीचे में विभिन्न प्रकार के रंग बिरंगे
फूल खिलते थे । प्रायः सम्राट बगीचे में सैर करने जाता । कभी कोई
मेहमान आता, पड़ोसी राजा आता तो उसे खास तौर पर बगीचे में ले
जाता । बगीचे में एक पौधा तेजी से बढ़ा जा रहा था । देखते-देखते वह
वृक्ष के रूप में बदल गया और उसकी गंदी बू एवं छाया के कारण
तमाम खुशबूदार फूल व पौधे भी मुरझाते चले गये । सम्राट को लगा
कि ‘यह क्या हो गया पूरे बगीचे को !’
चिंतित होकर उसने अपने गुरु जी को पधारने हेतु निवेदन किया,
उनको परिस्थिति बतायी तो उन्होंने कहाः “बेटा ! ये भिन्न-भिन्न फूलों
के पौधे खिले हैं किंतु एक अऩुपयोगी, अनर्थकारी पौधा पेड़ हो गया है,
इसी कारण सुंदर बगीचे का यह हाल हुआ है ।
बगीचे की तरह तेरे जीवन की भी स्थिति है । तेरा क्षमा का गुण
रूपी फूल खिला है, प्रसन्नता के फूल खिले हैं, न्यायप्रियता के, स्वास्थ्य
के तेरे फूल खिले हैं, यह सब तो हैं लेकिन अहंकार का पौधा पेड़ हो
गया है । इस अहंकार के कारण यह तेरी सारी खुशबू दब गयी है और
लोगों को तू चुभता है । जैसे यह पेड़ पौधों को चुभता है ऐसे ही तेरा
अहंकार दूसरों को चुभता है, उस अहंकार को भगवान की शरण में रख
।
धन यौवन का करे गुमान सो मूरख मंद अज्ञान ।
रूप-लावण्य का करे अभिमान सो मूरख मंद अज्ञान ।।
अतः अपने से कर्तव्यदक्षता में, भगवद्ज्ञान में, ध्यान में,
ईश्वरप्राप्ति के रास्ते में जो आगे हैं उनके पास जाओ ताकि अहंकार
नियंत्रित रहे । इससे भी और अच्छा है सीधे नश्वर धन-रूप, सत्ता पद
के अहंकार को छोड़कर शास्त्रों और महापुरुषों के बताये मार्ग पर चल के
उनसे आत्मज्ञान का शाश्वत धन पाना । इसी में मनुष्य जन्म की
सार्थकता है ।”
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2022, पृष्ठ संख्या 18 अंक 356
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