Monthly Archives: August 2022

मुरझा गयी क्यों जीवन-बगिया ? – पूज्य बापू जी
(सर्वगुणनाशक अहंकार)



एक सम्राट ने सुंदर बग़ीचा लगवाया । वह दूर-दराज से पौधे
मँगवाकर लगवाता रहता था तो बगीचे में विभिन्न प्रकार के रंग बिरंगे
फूल खिलते थे । प्रायः सम्राट बगीचे में सैर करने जाता । कभी कोई
मेहमान आता, पड़ोसी राजा आता तो उसे खास तौर पर बगीचे में ले
जाता । बगीचे में एक पौधा तेजी से बढ़ा जा रहा था । देखते-देखते वह
वृक्ष के रूप में बदल गया और उसकी गंदी बू एवं छाया के कारण
तमाम खुशबूदार फूल व पौधे भी मुरझाते चले गये । सम्राट को लगा
कि ‘यह क्या हो गया पूरे बगीचे को !’
चिंतित होकर उसने अपने गुरु जी को पधारने हेतु निवेदन किया,
उनको परिस्थिति बतायी तो उन्होंने कहाः “बेटा ! ये भिन्न-भिन्न फूलों
के पौधे खिले हैं किंतु एक अऩुपयोगी, अनर्थकारी पौधा पेड़ हो गया है,
इसी कारण सुंदर बगीचे का यह हाल हुआ है ।
बगीचे की तरह तेरे जीवन की भी स्थिति है । तेरा क्षमा का गुण
रूपी फूल खिला है, प्रसन्नता के फूल खिले हैं, न्यायप्रियता के, स्वास्थ्य
के तेरे फूल खिले हैं, यह सब तो हैं लेकिन अहंकार का पौधा पेड़ हो
गया है । इस अहंकार के कारण यह तेरी सारी खुशबू दब गयी है और
लोगों को तू चुभता है । जैसे यह पेड़ पौधों को चुभता है ऐसे ही तेरा
अहंकार दूसरों को चुभता है, उस अहंकार को भगवान की शरण में रख

धन यौवन का करे गुमान सो मूरख मंद अज्ञान ।
रूप-लावण्य का करे अभिमान सो मूरख मंद अज्ञान ।।

अतः अपने से कर्तव्यदक्षता में, भगवद्ज्ञान में, ध्यान में,
ईश्वरप्राप्ति के रास्ते में जो आगे हैं उनके पास जाओ ताकि अहंकार
नियंत्रित रहे । इससे भी और अच्छा है सीधे नश्वर धन-रूप, सत्ता पद
के अहंकार को छोड़कर शास्त्रों और महापुरुषों के बताये मार्ग पर चल के
उनसे आत्मज्ञान का शाश्वत धन पाना । इसी में मनुष्य जन्म की
सार्थकता है ।”
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2022, पृष्ठ संख्या 18 अंक 356
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भय को कुचल डालो – पूज्य बापू जी



किसी भी परिस्थिति में तुम भयभीत न होना । निर्भयता से ही
सारी सफलताएँ मिलती हैं, भय को कुचल डालो । हिम्मत रखो, ईश्वर
तुम्हारे साथ है । भय को दूर भगाकर प्रतिदिन निर्भयस्वरूप परमात्मा
का ध्यान करो । ‘ॐ… ॐ… मैं निर्भय नारायण परमात्म-चेतना के साथ
एक हो रहा हूँ । ॐ…ॐ… जो सदा है, अमर है उसी निर्भय पद में मैं
शांत व आनंदित हो रहा हूँ । ॐ…ॐ…
इन छः तीखी तलवारों को फेंक दीजिये – पूज्य बापू जी

  1. अत्यंत अभिमान में आकर बोलना ।
  2. अंदर से द्रोह रखना ।
  3. आसक्ति रखना, त्याग का अभाव ।
  4. अश्लील बोलना ।
  5. क्रोधपूर्ण व्यवहार ।
  6. अपना ही पेटपालू बन जाना, परिवार का, पड़ोस का या दूसरों
    का ख्याल न करना ।
    इन छः तीखी तलवारों को निकाल के फेंक दीजिये ।
    इन्हें फेंक देंगे तो आपका जीवन उन्नत होगा, सबके प्रति सद्भाव
    व आत्मीयता के रस से परिपूर्ण होने लगेगा और जो लोग आपको
    दुत्कारते थे, कोसते थे वे भी आपको स्नेह करने लगेंगे । तो आप ये
    सद्गुण अपने जीवन में उतारना, सँजोना लेकिन दूसरे आपको स्नेह करें
    यह अपेक्षा रख के नहीं अपितु संत का प्रसाद है ऐसा समझकर करना ।
    प्रयत्नपूर्वक करें वीर्य की रक्षा
    भगवान श्रीकृष्ण कहते है-
    आत्मा हि शुक्रमुद्दिषअटं दैवतं परमं महत् ।

तस्तामत् सर्वप्रयत्नेन निरुन्ध्याच्छुक्रमात्मनः ।।
आयुस्तेजो बलं वीर्यं प्रज्ञा श्रीश्च महद् यशः ।
पुण्यं च मत्प्रियत्वं च लभते ब्रह्मचर्यया ।।
‘वीर्य को आत्मा बताया गया है । वह सबसे श्रेष्ठ देवता है ।
इसलिए सब प्रकार का प्रयत्न करके अपने वीर्य की रक्षा करनी चाहिए ।
मनुष्य ब्रह्मचर्य के पालन से आयु, तेज, बल, वीर्य, बुद्धि, लक्ष्मी,
महान यश, पुण्य और मेरी प्रीति को प्राप्त करता है ।’ (महाभारत,
आश्वमेधिक पर्वः अध्याय 92)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2022, पृष्ठ संख्या 19 अंक 356
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जीवन में गुरु की अनिवार्यता – रमण महर्षि



आत्मानुभ के लिए प्रयत्नशील साधकों के लिए गुरु आवश्यक हैं
लेकिन पूरे मनोयोग से प्रयत्न न करने वालों में गुरु आत्मानुभव
उत्पन्न नहीं कर सकते । यदि साधक आत्मदर्शन के लिए गम्भीर
प्रयत्न करता है तो गुरु की अनुग्रहशक्ति अपने-आप प्रवाहित होने
लगती है । यदि प्रयास न किया जाय तो गुरु असहाय हैं ।
गुरु अनिवार्य हैं । उपनिषद कहती है कि ‘मन से तथा इन्द्रियों से
दिखने वाले दृश्यों के जंगल से मनुष्य को गुरु के बिना और कोई
निकाल नहीं सकता । गुरु अवश्य होने चाहिए ।
आत्मसाक्षात्कार के लिए गुरु अऩिवार्य
जब तक आप आत्मसाक्षात्कार करना चाहते हैं, गुरु आवश्यक हैं
(भाव यह है कि किसी को संसार-सागर में सुख-दुःख के थपेड़े खाना
स्वीकार हो जाय तो उसके लिए गुरु की आवश्यकता नहीं है, वह भले
निगुरा होकर दुःख, शोक, भय, चिंता की ठोकरें खाता रहे) । जब तक
आप में द्वैत भाव है, गुरु आवश्यक हैं । चूँकि आप स्वयं को शरीर से
एकरूप मानते हैं, आप सोचते हैं कि ‘गुरु भी एक शरीर हैं’ परंतु आप
शरीर नहीं हैं, न ही गुरु शरीर हैं’ परंतु आप शरीर नहीं हैं, न ही गुरु
शरीर हैं । आप आत्मा हैं और गुरु भी आत्मा हैं । जिसे आप
आत्मसाक्षात्कार कहते हैं उससे यह ज्ञान प्राप्त होता है ।
गुरु के पास जाकर श्रद्धा से उनकी सेवा करके मनुष्य उनकी कृपा
से अपने जन्म तथा अन्य दुःखों का कारण जानना चाहिए । यह
जानकर कि ये सब आत्मा से च्युत होने की वजह से उत्पन्न हुए हैं,
दृढ़तापूर्वक आत्मनिष्ठ हो के रहना श्रेष्ठ है ।

हालाँकि जिन लोगों ने मोक्षमार्ग को अंगीकार किया है और
दृढ़तापूर्वक उसका अनुसरण करते हैं वे कभी-कभी या तो विस्मृति के
कारण या किसी अन्य कारण से वैदिक पथ से एकाएक भटक सकते हैं
। उनको गुरु के वचनों से विरुद्ध कभी भी नहीं जाना चाहिए । ऋषियों
के वचन से यह जाना गया है कि यदि मनुष्य ईश्वर का अपराध करता
है तो गुरु उसे दोष से मुक्त करते हैं किंतु गुरु के प्रति किये गये
अपराध से स्वयं ईश्वर भी मुक्त नहीं करता ।
सभी लोग जिसकी कामना करते हैं वह शांति किसी के द्वारा
किसी भी तरह किसी भी देश या काल में प्राप्त नहीं हो सकती जब तक
मनुष्य सद्गुरु की कृपा से मन कि निश्चलता प्राप्त नहीं करता ।
इसलिए हमेशा एकाग्रतापूर्वक अऩुग्रह पाने की साधना में लगे रहिये ।
आत्मा पर त्रुटिपूर्ण सीमा का स्व-आरोपण अज्ञान का कारण है ।
भजन करने पर ईश्वर स्थिर भक्ति देते हैं, जो आत्मसमर्पण में परिणत
होती हैं । भक्त के आत्मसमर्पण करने पर ईश्वर गुरुरूप में प्रकट होकर
दया करते हैं । गुरु, जो कि ईश्वर हैं, यह कहकर भक्त का मार्गदर्शन
करते हैं कि ‘ईश्वर अंदर है और आत्मा से भिन्न नहीं है ।’ इससे मन
की अन्तर्मुखता सिद्ध होती है जो अंत में आत्मानुभव में परिणत होती
है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2022, पृष्ठ संख्या 16 अंक 356
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