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…ऐसों से नहीं ब्रह्मवेत्ता, महापुरुषों से ही मंगल होता है – पूज्य बापू जी


जो अपने को सुधारने से बचाना चाहता है वही जल्दी गुरु बनने का शौक रखता है । जो अपने को उपदेश देने से कतराता है वही उपदेशक बनने का शौक रखता है । अपने को उपदेश दो । दूसरों को उपदेश देने में, दूसरों को ठीक करने में मत लगो, अपने को ठीक करने में लगो फिर तुम जो बोलोगे वह उपदेश हो जायेगा । और तुम्हारी दृष्टि जिधर जायेगी उधर पवित्र वातावरण हो जायेगा ।

जो लोग उपदेश देने या सत्संग करने के बहाने गुरु या उपदेशक बनने की कोशिश करते हैं वे यदि सावधान नहीं रहे तो मुँह के बल गिरते हैं । मेरा एक गुरुभाई था, मुझे बेचकर चने खा जाय और मुझे पता भी न चले इतना होशियार था । बहुत सुंदर लेक्चर करता था । मैं सत्संग नहीं बोल रहा हूँ, ‘लेक्चर’ बोल रहा हूँ । मेरे को तू-तड़ाके की भाषा से संबोधित करता था फिर भी मैं उसको मान देता था ।

जगद्गुरु शंकराचार्य जैसे लोग उसका लेक्चर सुनने के लिए लालायित रहते थे ऐसा उपदेशक था लेकिन बाद में ऐसा मुँह के बल गिरा कि उसका अंत समय बहुत दयाजनक हो गया ।

लोगों ने वाहवाही की फिर किसी ने एक प्रश्न किया तो उसने जवाब दिया ।

लोगों ने कहाः ″लीलाशाहजी बापू तो इस बारे में ऐसा बोलते हैं ।″

वह बोलाः ″क्या करें, बापू जी (साँईं श्री लीलाशाह जी) ने उपनिषदें नहीं पढ़ीं, बापू जी शास्त्र नहीं जानते ।″

अब वह मूर्ख मेरे गुरु जी का शिष्य था और बोलने लगा कि ″बापू जी ने नहीं पढ़ा ।″

बापू जी पढ़ा तो नहीं था परंतु सारी पढ़ाई जहाँ से आती है, बापू जी तो वहाँ पहुँचे थे । मेरे गुरुदेव तो हस्ताक्षर करने में भी कुछ मिनट लगाते थे, इसका मतलब शायद ‘क ख ग…’ भी विद्यालय में जा के सीखे होंगे या नहीं ! फिर भी मेरे गुरुदेव बड़े-बड़े लोगों को ऐसा सिखाते थे कि लोग दंग रह जायें ! मेरे गुरुदेव जी उसके भी तो गुरु जी थे ।

भक्तों ने जा के साँईं जी (श्री लीलाशाह जी महाराज) को कहा तो वे नाराज हो गये । साँईं ने कहाः ″अच्छा, तू पढ़ा-लिखा है तो जा भटक ।″

गुरुजी के हृदय से वह उतर गया तो अंत में ऐसे भटक-भटक के मर गया ।

एक बार तो अहमदाबाद में भी भीख माँगने आया । मुझसे बोलाः ″मैं आश्रम बनाना चाहता हूँ, आप पैसे दो !″ किसी से 25 रुपये लेता, किसी से 50 रुपये लेता ।

बोलताः ″कोई 100 रुपये दे तो मैं अपने आश्रम में उनका नाम लिखूँगा ।″

कहाँ उपदेशक, धर्मगुरु और कहाँ 50-100 रुपये की भीख माँगे ! कितना गिर गया ! इसलिए जब तक सद्गुरु-तत्त्व का बोध नहीं होता तब तक उपदेशक बनना, गुरु बनना खतरे से खाली नहीं है । हाँ, और मजहबों में प्रचारक हैं, जैसे पादरी आदि ये पगार ले के अपना करते हैं, वह उनकी अपनी जगह है लेकिन सद्गुरुओं की ऊँचाई अपनी है ।

लाख पगारदार प्रचारक मिलकर भी हमारा उतना मंगल नहीं कर सकते हैं जितना एक ब्रह्मवेत्ता महापुरुष का अस्तित्वमात्र हमारा मंगल कर सकता है । उनको छूकर जो हवाएँ जाती हैं वे भी बहुत काम करती हैं फिर उनकी वाणी और दृष्टि का तो कहना ही क्या है !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 6, 10 अंक 347

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पाँच प्रकार के गुरुभक्त – पूज्य बापू जी


गुरुभक्ति की महिमा गाते हुए भगवान शंकर माता पार्वती जी से कहते हैं-

आकल्पजन्मकोटिनां यज्ञव्रततपः क्रियाः ।

ताः सर्वाः सफला देवि गुरुसन्तोषमात्रतः ।।

‘हे देवि ! कल्पपर्यंत के करोड़ों जन्मों के यज्ञ, व्रत, तप ओर शास्त्रोक्त क्रियाएँ – ये सब गुरुदेव के संतोषमात्र से सफल हो जाते हैं । (श्री गुरु गीता)

आत्मवेत्ता सद्गुरुदेव के अंतःकरण के संतोष में ही सारी साधनाओं का, सारे यज्ञ, तप, व्रतों का साफल्य है । ऐसे सद्गुरुओं या महापुरुषों के पास आने वाले भक्त पाँच प्रकार के होते हैं-क

पहले प्रकार के भक्त वे होते हैं जो गुरु या भगवान के रास्ते यह इच्छा लेकर चलते हैं कि ‘हमें इहलोक में भी सुख मिले और परलोक में भी लाभ हो ।’ वे सोचते हैं कि ‘चलो, संत के द्वार जायें । वहाँ जाने से पुण्य होगा ।’ इसके अतिरिक्त संतों-महापुरुषों से उन्हें कुछ लेना-देना नहीं होता । ये आरम्भिक भक्त कहलाते हैं । जो नास्तिक हैं और संतों के द्वार नहीं आते उनसे तो ये आरम्भिक भक्त उत्तम हैं ।

दूसरे वे भक्त होते हैं जो सद्गुरु या भगवान के प्रति अपनत्व रखते हैं कि ‘भगवान हमारे हैं, सद्गुरु हमारे हैं ।’ अपनत्व रखने से उनको पुण्य व ज्ञान मिलता है । पहले वालों से ये कुछ ऊँचे दर्जे के हैं लेकिन वे अपने आराम व सुख-सुविधाओं को साथ में रखकर गुरुभक्ति, भगवद्भक्ति के मार्ग पर चलना चाहते हैं ।

तीसरे प्रकार के भक्त वे होते हैं जो अपनी आवश्यकताओं के साथ-साथ गुरु और उनकी संस्था की भी आवश्यकता का ख्याल रखकर चलते हैं । वे सोचते हैं कि ‘संत के दैवीकार्य में हमारा भी कुछ योगदान हो जाय ।’ ये तीसरे प्रकार के भक्त सद्गुरु या भगवान की थोड़ी बहुत सेवा खोज लेते हैं । सेवा करने से उनको आंतरिक आनंद उभरता है व हृदय पवित्र होने लगता है ।

चौथे प्रकार के भक्त वे होते हैं जो गुरु की सेवा करते हुए अपने सुख-दुःख, लाभ-हानि, मान-अपमान की परवाह नहीं करते । उनकी पुकार और अनुभूति होती है कि

गुरु जी तुम तसल्ली न दो,

सिर्फ बैठे ही रहो ।

महफिल का रंग बदल जायेगा,

गिरता हुआ दिल भी सँभल जायेगा ।।

इन प्रेमी भक्तों का प्रेम कुछ निराला ही होता है । भक्त नरसिंह मेहता ने ऐसे भक्तों के लिए कहा हैः

भोंय सुवाडुं भूखे मारूं, ऊपरथी मारूं मार ।

एटलुं करतां हरि भजे तो करी नाखुं निहाल ।।

अर्थात्

भूमि पर सुलाऊँ, भूखा मारूँ तिस पर मारूँ मार ।

इसके बाद भी हरि भजे तो कर डालूँ निहाल ।।

प्रेमाभक्ति में बहुत ताकत होती है ।

पंचम प्रकार के भक्तों को सूफीवादी में बोलते हैं ‘मुरीदे फिदाई’ । माने गुरु पर, इष्ट पर बस फिदा हो गये । जैसे पतंगा दीये पर फिदा हो जाता है, चकोर चाँद पर फिदा हो जाता है, सीप स्वाति नक्षत्र की बूँद पर फिदा हो जाती है, वैसे ही वे अपने गुरु पर, इष्ट पर फिदा हो जाते हैं ।

जोगी हम तो लुट गये तेरे प्यार में, जाने ना तुझको खबर कब होगी ?… – यह फरियाद पंचम श्रेणी वाला भक्त नहीं करता । ऐसे भक्तों के लिए देवर्षि नारदजी ने कहा हैः यथा व्रजगोपिकानाम् ।

गोपियाँ भगवान श्रीकृष्ण में कोई दोष नहीं देखतीं । वे सोचती हैं- ‘मक्खन चोरी करते हैं, तब भी श्रीकृष्ण हमारे हैं, युद्ध में कइयों को ठिकाने लगवा रहे हैं तब भी हमारे हैं । चाहे कोई कुछ भी कहता रहे, बस श्रीकृष्ण हमारे हैं ।’ कितना विशुद्ध प्रेम था गोपियों का ! उन्होंने तो अपने आपको भगवान श्रीकृष्ण के प्रति पूर्णतया समर्पित कर दिया था ।

श्रीरामकृष्ण परमहंस ऐसे सच्चे भक्त या शिष्य की निष्ठा को इन शब्दों में अभिव्यक्त करते थेः ″यद्यपि मेरे गुरु कलालखाने (शराबखाने) में जाते हों तो भी मेरे गुरु नित्यानंद राय हैं ।″ (संदर्भः श्री रामकृष्णदेव की ‘अमृतवाणी’ )

यदि प्रेम में फरियाद नहीं होती, कोई आडम्बर नहीं होता तो यह प्रेम की पराकाष्ठा है । ऐसे भक्तों को फिर अन्य किसी जप, तप, यज्ञ, अनुष्ठान या साधना की जरूरत नहीं पड़ती, वे तो प्रेमाभक्ति से ही तर जाते हैं ।

प्रेम न खेतों ऊपजे प्रेम न हाट बिकाय ।

राजा चहो प्रजा चहो शीश दिये ले जाय ।।

अहं दिये ले जाय ।।

अमीर खुसरो एक ऐसे ही प्रेमी भक्त थे । अपने गुरु निजामुद्दीन औलिया को कहते थेः ″हे मेरे प्यारे गुरुदेव ! मैं आप हुआ, आप मैं हुए । मैं देह हुआ, आप प्राण हुए । अब कोई यह न कह सके कि मैं और हूँ, आप और हैं ।″

देखने में तो गुरु और शिष्य अलग-अलग दिखते हैं लेकिन जब गुरु के प्रति शिष्य का प्रेम ऐहिक स्वार्थरहित होता है तो गुरु का आत्मा व शिष्य का आत्मा एक हो जाता है । जैसे एक कमरे में दो दीये जगमगाते हैं हों किस दीये का कौन-सा प्रकाश है यह नहीं बता सकते, दो तालाबों के बीच की दीवार टूट गयी हो तो किस तालाब का कौन-सा पानी है यह नहीं बता सकते, ऐसी ही बात इधर भी है ।

ईश्वरो गुरुरात्मेति मूर्तिभेदविभागिने ।

व्योमवत् व्याप्तदेहाय तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।

फिर शिष्य चाहे घर में हो या दफ्तर में, देश में हो या विदेश में, उसके लिए स्थान और दूरी का कोई महत्त्व नहीं होता । वह जहाँ कहीं भी होगा, गुरु के साथ एकाकारता का अनुभव कर लेगा ।

दिल-ए-तस्वीर है यार !

जब भी गर्दन झुका ली, मुलाकात कर ली ।

वे थे न मुझसे दूर, न मैं उनसे दूर था ।

आता न था नजर तो नजर का कसूर था।।

वेदांती विवेक, वैराग्य, षट्सम्पत्ति, मुमुक्षुत्व का अवलम्बन लेते-लेते जिस तत्त्व में स्थिति पाता है, प्रेमी भक्त अपने प्रेमास्पद का चिंतन करते-करते सहज में ही उस तत्त्व में स्थिति पा लेता है । प्रेमाभक्ति प्रेमी भक्त को प्रेमास्पद के अनुभव के साथ, प्रेमास्पद के स्वरूप के साथ एकाकार कर देती है ।

हमने भी पहले मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्रीराम, प्रेममूर्ति भगवान श्रीकृष्ण, शक्तिरूपा माँ महाकाली आदि की उपासना की और बाद में भगवान शिव को इष्ट मान कर अनुष्ठान किया परंतु जब अपने गुरुदेव (साँईँ श्री लीलाशाह जी महाराज ) की छत्रछाया में आये तो ऐसे अनुपम आनंद का खजाना हाथ लगा कि जिसके आगे चौदह भुवनों के सुख भी तुच्छ है । इसलिए हे मानव ! जीवन के वास्तविक उद्देश्य को समझ ले भैया ! जीवन की कीमत मत आँक । तेरा निष्काम प्रेम और सेवा ही तुझे गुरु-तत्त्व का खजाना प्राप्त करवा देंगे ।

मकसदे जिंदगी समझ, कीमते जिंदगी न देख ।

इश्क ही खुद है बंदगी, इश्क में बंदगी न देख ।।

यह प्रेमाभक्ति ही पराभक्ति है, पूर्णता, सहजावस्था या जीवन्मुक्ति को पाने का उत्तम मार्ग है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 4,5, 10 अंक 347 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

अनेक में एक और एक में अनेक का साक्षात्कार – पूज्य बापू जी


एक खास बात है । जो अपने को एक व्यक्ति मानेगा, एक सिद्धान्त वाला मानेगा वह दूसरों से शत्रुता करे बिना नहीं रहेगा लेकिन जो सबमें बसा जो आत्मा-परमात्मा है उसके नाते सबको अपना मानेगा वह स्वयं सुखी और आनंदित रहेगा और दूसरों को भी करेगा  । ‘मैं यह (शरीर) हूँ और इतना मेरा है’ यह मानता है तो बाकी वालों का तू शोषण करेगा । तू रावण के रास्ते है । ‘नहीं, मैं यह पंचभौतिक शरीर नहीं हूँ, यह प्रकृति का है । जो सबका आत्मा है वह मैं हूँ तो सभी के मंगल में मेरा मंगल, सभी की प्रसन्नता में मेरी प्रसन्नता, सभी की उन्नति में मेरी उन्नति है ।’ ऐसा मानेगा तो स्वयं भी परमात्मरस में तृप्त रहेगा और दूसरों को भी उससे पोषित करेगा ।

जो एक में अनेक दिखाये वह ‘ऐहिक ज्ञान’ है और जो अनेक का उपयोग करने की युक्ति दे वह ‘ऐहिक विज्ञान’ है । लेकिन जो अनेक में एक दिखाये वह ‘आध्यात्मिक ज्ञान’ है और वह एक ही अनेक रूप बना है ऐसा जो साक्षात्कार कराये वह ‘आध्यात्मिक विज्ञान’ है ।

ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः ।…. गीताः 6.8)

ज्ञान माने ‘अनेक में एक का ज्ञान’ और वह एक ही अनेक रूप बना है । जैसे एक ही चैतन्य रात को स्वप्न में अनेक रूप बन जाता है न, ऐसे ही एक ही चैतन्य प्रकृति में 5 भूत हो गया और 5 भूतों की ये अनेक भौतिक चीजें हो गयीं लेकिन मूल धातु सबकी एक । गुलाब है, गेंदा है, और फूल भी हैं, सब अलग-अलग हैं लेकिन सबमें पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश – 5 भूत एक-के-एक । ऐसे ही चेहरे, नाम अनेक लेकिन सबमें हाड़-मांस, यह, वह… सब सामग्री एक-की-एक, चैतन्य एक-का-एक ! तो अनेक में एक है कि नहीं है ? अनेक घड़ों में एक आकाश, अनेक घड़ों में एक पानी, अनेक शरीरों में एक ही वायु, अनेक तरंगों में एक ही पानी नहीं है क्या ? कुल मिला के सब 5 भूत ही हैं और 5 भूत हैं प्रकृति में और प्रकृति है परमात्मा में । जैसे पुरुष और पुरुष की शक्ति अभिन्न है, दूध और दूध की सफेदी अभिन्न है, ऐसे ही परमात्मा और परमात्मा की प्रकृति अभिन्न है । वास्तव में परमात्मा ही है, उसी में प्रकृति भासित होती है ।

‘चन्द्र बन के औषधियों को पुष्ट मैं करता हूँ, सूर्य बनकर मैं प्रकाश करता हूँ, जल में स्वाद मेरा है, पृथ्वी में गंध मेरा है, वायु में स्पर्श मेरा है, आकाश में शब्द मेरा है । ॐ… ॐ… ॐ… ‘ ऐसा विशाल भाव, ज्ञान और व्यापक दृष्टि – इनकी एकता होती है तो लड़ाने-भिड़ाने की, शोषण करने की वृत्ति गायब हो जाती है और ‘सबका मंगल सबका भला’ भावना जागृत होती जाती है, अनेक में एक और एक में अनेक का साक्षात्कार हो जाता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 2 अंक 347

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