प्रश्नः महात्माओं की दृष्टि में नारी क्या है ?
स्वामी अखंडानंद जीः जो नर है । अभिप्राय यह है कि महात्माओं की दृष्टि में नारी और नर का भेद नहीं होता । जो ज्ञानमार्ग द्वारा सिद्ध हैं उनकी दृष्टि में ब्रह्म के सिवा और सब नाम-रूप-क्रियात्मक प्रपंच मिथ्या है अर्थात् केव ब्रह्म ही, प्रत्यगात्मा (अंतरात्मा) ही एक तत्त्व है । श्रीमद्भागवत (1.4.5) में एक संकेत है । स्नान करते समय अवधूत शुकदेव जी को देख के देवियों ने वस्त्र धारण नहीं किया, व्यास जी के आते ही दौड़ के धारण कर लिया । यह आश्चर्यचर्या देख व्यास जी ने पूछाः “ऐसा क्यों ?” देवियों ने उत्तर दियाः “आपकी दृष्टि में स्त्री पुरुष का भेद बना हुआ है परंतु आपके पुत्र की एकांत और निर्मल दृष्टि में वह नहीं है । तवास्ति स्त्रीपुम्भिदा न तु सुतस्य विविक्तदृष्टेः ।।
जो भक्तिमार्ग द्वारा सिद्ध हैं उनकी दृष्टि में प्रभु के सिवा और कुछ नहीं है । वे श्रुति भगवती के शब्दों में कहते रहते हैं- त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी । ‘तुम स्त्री हो, तुम पुरुष हो, तुम कुमार हो या कुमारी हो ।’ (अथर्ववेदः कांड 10, सूक्त 7, मंत्र 27)
महात्माओं की दृष्टि में नारी और नर का साम्य नहीं – एकत्व है, नारी-नर का ही नहीं, सम्पूर्ण ।
प्रश्नः क्या नारी को प्रकृति और नर को पुरुष समझना उचित है ?
उत्तरः नितांत अनुचित । जीव चाहे नर के शरीर में हो अथवा नारी के, वह चेतन पुरुष ही है । शरीर नारी का हो अथवा नर का, वह प्रकृति ही है । इसलिए नारी को प्रकृति मानकर जो उसे भोग्य समझते हैं उनकी दृष्टि अविवेकपूर्ण है । भगवान श्रीकृष्ण ने शरीर को क्षेत्र और जीव को क्षेत्रज्ञ – चेतन कहा है, भले ही वह किसी भी योनि में हो । (क्रमशः)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2021, पृष्ठ संख्या 21, अंक 337
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