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परिप्रश्नेन…


प्रश्नः मन वश क्यों नहीं होता ?

पूज्य बापू जीः मन में महत्त्व संसार का है और भगवान का भी उपयोग करते हैं जैसे नौकर का उपयोग करते हैं । भगवान तू यह कर दे, यह कर दे, यह कर दे…’ । महत्त्व है मिथ्या शरीर का और मिथ्या संसार का इसलिए मन वश नहीं होता । अगर भगवान का महत्व समझ में आ जाय और शरीर मरने वाला है, जो मिला वह छूटने वाला है… अहा ! शरीर दूसरा मिले कि न मिले इसमें संदेह है लेकिन जो मिला है वह छूटेगा कि नहीं छूटेगा इसमें संदेह नहीं है – ऐसा अगर दिमाग में ठीक से बैठ जाय तो धीरे-धीरे विषय-विकारों से मन उपराम होगा और भगवान में लगेगा । महत्त्व मिथ्या को देते हैं और भजन भगवान का करते हैं तो उसमें भगवान का भी उपयोग करते हैं । जो लोग भगवान से कुछ माँगते हैं, महात्मा से कुछ माँगते हैं उनके हृदय में महात्मा से और भगवान से भी उनकी माँगी हुई चीज का महत्त्व ज्यादा है ।

कई लोग कहते रहते हैं कि ‘हमारे को ऐसा कर दो… हमारा ऐसा हो जाय, ऐसा हो जाय… ।’

अरे ! क्या अक्ल मारी गयी ! ‘मैं तो सदा तुम्हारा सुमिरन करूँ, मैं ऐसा करूँ… ।’ अरे ! जो हो रहा है उसमें सम रहो । ऐसा करूँ… सा करूँ…’

सोचा । अब यदि वैसा होगा तो आसक्ति हो जायेगी, नहीं होगा तो रोओगे । तुम न आसक्ति में आओ, न रोने में आओ, सम रहो । जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा है अच्छा है, जो होगा वह भी अच्छा ही होगा ।

जो अपनी मन की चाह पूरी करता रहेगा, मनचाहा सुख लेता रहेगा उसके चाहे 10 हजार जन्म बीत जायें, ईश्वरप्राप्ति नहीं होगी । मन के चाहे में सुखी होगा और न चाहे में दुःखी होगा तो ईश्वरप्राप्ति नहीं होगी । मन तो जिंदा रहेगा, वासना तो बढ़ेगी इसलिए सच्चे भक्त बोलते हैं- ‘मेरी सो जल जाय, हरि की हो सो रह जाय ।’ तो कोई घाटा नहीं पड़ता । हरि की चाह बहुत ऊँची है और हितकारी है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2021, पृष्ठ संख्या 34 अंक 338

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यह अंत में तत्त्वज्ञान करा देगा


प्रत्येक धर्म (कर्तव्य, सत्कर्म) का इस ढंग से विचार करना चाहिए कि यह हमारे आत्मज्ञान और अविद्या-निवृत्ति में किस रीति से मददगार होता है ।

एक होता है अपनी वासना के अनुसार चलना और एक होता है दूसरी की आज्ञा के अनुसार चलना । जो व्यक्ति बड़ों की आज्ञा का उल्लंघन करता है उसके हृदय में तो अपनी वासना बड़ी प्रबल है । अपनी वासना के प्रबल होने का प्रमाण यही है कि वह शास्त्र की, गुरु की, बड़ों की, भगवान की बात न मानकर अपने मन में जो इच्छा-वासना उठती है उसी के अनुसार करता है  और बोलता है कि ‘हम स्वतन्त्र हैं’ । अरे ! वह स्वतंत्र नहीं, अतंत्र है, उच्छृंखल है । संयमी, श्रेष्ठ के काबू में तो तुम हो ही नहीं, अपने अहंकार, वासना के गुलाम – मन के गुलाम मत बनो । जब मन ने तुम्हें वासना, विकारों के गड्ढे में डाला तो गड्ढे में गिर गये । अगर आप गिरते रहते हैं तो उचित नहीं है । भयंकर भविष्य बन रहा है ऐसा समझ के सावधान हो जायें ।

जब मनुष्य अतंत्र हो जाता है तो धीरे-धीरे आदत बिगड़ जायेगी । फिर मन में होगा की ‘यह बात नहीं बोलनी चाहिए’ परंतु बोलोगे, मन में होगा कि ‘इस चीज को नहीं खाना चाहिए’ पर जब वह चीज सामने आयेगी तब खा लोगे । बुद्धि कहेगी कुछ, इन्द्रियों से करोगे कुछ । यह क्यों हुआ ? कि तुमने आज्ञापालन करना नहीं सीखा, मनमानी करना सीखा है । अब तुम अपनी इन्द्रियों के परतंत्र हो । जो गुरुजनों की आज्ञा मान करके चलता है उसका मन अपने अधीन हो जाता है और जो आज्ञापालन नहीं करता उसका मन अपने वश में नहीं रहता । अतः वासना की निवृत्ति के लिए, अंतःकरण की शुद्धि के लिए भगवान, शास्त्र, संत और हितैषियों की आज्ञा का पालन करना आवश्यक है ।

यह जो आज्ञापालन है, वही अंत में तत्त्वज्ञान करा देगा । कैसे ? कि एक दिन वेद की आज्ञा से और गुरु की आज्ञा से तुम्हारी आज्ञाकारिणी बुद्धि तत्त्व को ग्रहण कर लेगी । तुमने यह आज्ञापालनरूप अखंड सम्पत्ति अर्जित की हुई है । आज्ञापालन भी मनुष्य को तत्त्व के द्वार पर पहुँचा देता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2021, पृष्ठ संख्या 32 अंक 338

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हरिनाम का उच्चारण क्यों ? – पूज्य बापू जी


‘हरि ॐ, हरि ॐ…’ जब की बड़ी भारी महिमा है । सबसे प्राचीन और महान ग्रंथ वेद है । वेदपाठ पुण्यदायी, पवित्र माना जाता है और वातावरण को पवित्र करता है । ऐसे वेदपाठ के आरम्भ में ‘हरि ॐ… का उच्चारण करते हैं-

हरिः ॐ… यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।… (यजुर्वेदः अध्याय 31, मंत्र 16)

और वेदपाठ पूर्ण होने के बाद भी ‘हरि ॐ…’ उच्चारण द्वारा भगवान के नाम का घोष किया जाता है, क्यों ? वेदपाठ निर्विघ्न पूरा हो इसलिए पहले ‘हरि ॐ’ का उच्चारण किया जाता है और वेदपाठ में उच्चारण कहीं गलती रह गयी तो त्रुटि की क्षम्यता और पाठ की पूर्णता हो इसलिए आखिर में ‘हरि ॐ’ का उच्चारण किया जाता है । वेद तो उत्तम है किंतु भगवान का नाम परम उत्तम है । जो हमारे पाप-ताप, दुःख-दरिद्रता को हर ले और शांति, माधुर्य व अपना स्वभाव भर दे वही हरि का नाम है ।

हरति पातकानि दुःखानि शोकानि इति श्रीहरिः ।

वेदपाठ जैसा पवित्र कार्य करने में भी हरिॐ मंत्र का सहयोग इतनी मदद करता है तो अपने जो सत्संग हैं उनमें भी आरम्भ में ‘हरि ॐ…’ का उच्चारण किया जाता है तो विघ्न बाधा दूर रहते हैं, साथ ही जो सत्संग सुनते हैं उनको पूर्ण शांति, पूर्ण सूझबूझ और पूर्ण प्रभु की कृपा का अनुभव होने में भी हरिनाम का बड़ा योगदान रहता है ।

शुक्राचार्य जी भगवान श्रीहरि से कहते हैं-

मन्त्रतस्तन्त्रतश्छिद्रं देशकालार्हवस्तुतः ।

सर्वं करोति निश्छिद्रं नामसङ्कीर्तनं तव ।।

‘मंत्रों की, अनुष्ठान पद्धति की, देश (स्थान), काल, पात्र और वस्तु की सारी भूलें आपके नाम-संकीर्तन मात्र से सुधर जाती हैं । आपका नाम सारी त्रुटियों को पूर्ण कर देता है ।’ (श्रीमद्भागवतः 8.23.16)

अब विज्ञान भी गा रहा है महिमा

डॉ. डायमंड, डॉ. लिवर लिजेरिया, मिसेस वॉटस ह्यूजेस, मैडम फिनलैंग तथा अन्य वैज्ञानिक बोलते हैं कि हरि ॐ आदि मंत्रों के उच्चारण से शरीर के विभिन्न भागों पर भिन्न-भिन्न असर पड़ता है । भारत का मंत्र विज्ञान बड़ा प्रभावशाली है और इससे रोग भी मिटाये जा सकते हैं ।

डॉ. लिवर लिजेरिया ने तो 17 वर्षों के अन्वेषण के अनुभव के पश्चात यह खोज निकाला कि ‘हरि’ के साथ ‘ॐ’ शब्द को मिलाकर उच्चारण किया जाय तो पाँच ज्ञानेन्द्रियों पर उसका अच्छा प्रभाव पड़ता है एवं निःसंतान व्यक्ति को मंत्र के बल से संतान दी जाती सकती है जबकि हमारे भारत के ऋषि-मुनियों ने इससे भी अधिक जानकारी हजारों लाखों वर्ष पहले शास्त्रं में वर्णित कर दी है । हजारों वर्ष पूर्व हमारे साधु संत जो कर सकते थे उस बात पर विज्ञान अभी कुछ-कुछ खोज कर रहा है ।

डॉ. लिवर लिजेरिया ने मंत्र के प्रभाव की खोज केवल भौतिक या स्थूल शरीर तक ही की है जबकि हमारे ऋषियों ने आज से लाखों वर्ष पूर्व केवल स्थूल शरीर तक ही मंत्र के प्रभाव को नहीं खोजा वरन् इससे भी आगे कहा है कि यह भौतिक शरीर अन्नमय कोष कहलाता है, इसके अंदर 4 शरीर (कोष) और भी हैं- 1. प्राणमय 2. मनोमय 3. विज्ञानमय 4 आनंदमय । इन सबको चेतना देने वाला चैतन्यस्वरूप है । तो उस चैतन्यस्वरूप की भी खोज कर ली है ।

भगवन्नाम (‘हरि ॐ’ आदि) के जप से पाँचों कोषों, समस्त नाड़ियों एवं सातों केन्द्रों पर बड़ा सात्त्विक प्रभाव पड़ता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2021, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 338

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