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जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण है मितव्ययिता – पूज्य बापू जी


प्रसिद्ध उद्योगपति घनश्याम बिरला का लड़का, जिसकी मँगनी हो चुकी थी, दीवाली के दिन उसका ससुर आया था । वह लड़का मोमबत्ती जला रहा था तो हवा में एक तीली बुझ गयी तो उसने दूसरी जलायी, दूसरी भी बुझ गयी । मोमबत्ती को सँभाल के तीसरी तीली जलायी, हवा जोरों की थी, वह भी बुझ गयी । जब चौथी तीली जलाने गया तो घनश्याम बिरला ने थप्पड़ मार दिया मँगनी किये हुए बेटे को । जिसरी लड़की के साथ मँगनी हुई थी वह वहीं खड़ा था । अपने जमाई को थप्पड़ लगा तो उसने कहाः “आप क्यों अपने जवान बेटे को दीवाली के दिन मारते हो ?”

घनश्याम बोलेः “3-3 तीली बिगाड़ दीं । गधा है, लड़का है क्या !”

“आप तो घनश्याम बिरला है, आपके पास अरबों-खरबों रुपये की सम्पत्ति है । 3 तीली क्या, 3 माचिस भी बिगड़ जायें तो आपको क्या फर्क पड़ता है ?”

“जो 3 तीली का मितव्ययिता से सदुपयोग नहीं करता है वह दूसरी चीज कैसे सँभाल सकता है ! चीज छोटी हो चाहे बड़ी हो, जो दुरुपयोग करता है, बिगाड़ करता है वह दुष्ट है ।”

कोई आधा गिलास पानी भी गिरा देता तो गाँधी जी उसे टोक देते । उनके पास जो पत्र आते उनका कोरा भाग वे काटकर रख लेते और उसी पर चिट्ठियाँ लिखते थे । मितव्ययिता होनी चाहिए । मेरे गुरु जी भी मितव्ययिता से रहते थे । मेरे जो चेले हैं उनके नौकर लोग भी जहाज में महँगा टिकट लेकर बिजनेस क्लास में बैठते हैं लेकिन मैं जहाजों में यात्रा करता हूँ तो इकोनॉमी क्लास में ही बैठता हूँ सस्ता टिकट लेकर । हम 2100 में बैठते हैं और वे 5-6 हजार में बैठते हैं और एक ही समय पर उतरते हैं । बिगाड़ क्यों करना ? बचा पैसा किसी के काम आये ।

तो भारतीय संस्कृति परहित से भरपूर है और इस संस्कृति का उद्देश्य है कि तुम इस शरीर में सदा के लिए नहीं हो, यह शरीर छोड़कर मरना पड़ेगा तो मरने के पहले अपनी अमरता का आनंद ले लो, अपनी अमरता का साक्षात्कार कर लो, अपनी महानता का अनुभव कर लो ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2021, पृष्ठ संख्या 10 अंक 339

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तो आप न चाहो तो भी भगवान मिल जायेंगे – पूज्य बापू जी


संसार की वासना छोड़ना कठिन है तो क्या वह पूरी करना आसान है ? नहीं, संसार को पाना कठिन है । मैं तो कहता हूँ कि भगवान को पाना कठिन लगता है लेकिन संसार को पाना असम्भव है । लगता है कि पा लिया, पा लिया, पा लिया…. पर आ-आ के चला जाता है, ठहरेगा नहीं । भगवान को छोड़ना असम्भव है । जिसको छोड़ना असम्भव है उससे प्रीति करके उसको ठीक से पहचानो और जिसको पाना असम्भव है उससे ममता हटाकर उसका सदुपयोग करो, बस हो गया काम । तो जहाँ से मन को हटाना चाहते हैं उसको नापसंद कर दो और जहाँ लगाना चाहते हैं उसको पसंद कर लो – एक बात । दूसरी बात – अपने में जो कमियाँ दिखती हैं ‘वे अपने में हैं’ ऐसा मानने की गलती न करो, मन में है, बुद्धि में है, शरीर में है.. उनको निकालने के लिए सत्संग का आश्रय लो, सत्प्रवृत्ति का आश्रय लो । सत्संग और सत्प्रवृत्ति में लगेंगे तो कुसंग और कुप्रवृत्ति से जो गलतियाँ हो रही हैं उनसे बचाव हो जायेगा ।

जो नहीं कर सकते हैं अथवा जिसको किये बिना चल सकता है उससे अपने को बचा लो । और जहाँ ममता फँसी है – पैसे में, पत्नी में, शरीर में…. वहाँ से उसे ऐसे नहीं मिटा सकते, ममता से ममता हटेगी । तो भगवान में ममता रख दो – ‘जो चेतन है वह मेरा है, जो ज्ञानस्वरूप है वह मेरा है, जो सुखस्वरूप है, साक्षीस्वरूप है, अविनाशी है, अमर है वह मेरा है, जो नित्य है, जो चिद्घन चैतन्य है वह मेरा है, जो कभी न बदले वह मेरा है, जो आनंदस्वरूप है, प्रेमस्वरूप है वह मेरा है, कीट-पतंग के अंदर जिसकी चेतना खिलवाड़ कर रही है वह मेरा है । ॐ’….’

‘घर मेरा है, बेटा मेरा है, 10-20 मेरे हैं…’ ऐसी सीमित ममता क्यों, यहाँ तो करोड़ों मेरे हैं, ऐसा कर ले न भाई ! ममता का विस्तार कर ले । अपना जहाँ मिलता है वहाँ मजा आता है – अपना बेटा मिल गया, अपना परिचित मिल गया – पति, पत्नी, मित्र पैसा या अपनी चाही वस्तु मिल गयी तो आनंद आता है ।

तो अपना तो वही परमात्मा है और जब वह जहाँ-तहाँ मिलने लग जायेगा यानी सभी को गहराई में जब अपने प्रिय परमात्मा को देखने की दृष्टि बन जायेगी तो आपका अविकम्प योग हो जायेगा । जब ध्यान में बैठोगे तो मन एकाग्र और ध्यान खुला तो अभी जैसा बताया वैसा भगवद्-चिंतन…. बड़ा आसान तरीका है, बड़ा सरल तरीका है ! नदी बह रही है, उधर ही नदी के पानी के साथ चलते-चलते जाओ, आप न चाहो तो भी समुद्र आ जायेगा । ऐसे ही आप ऐसा चिंतन करो तो तो आप न चाहो तो भी भगवान मिल जायेंगे ।

चित्त चेतन को ध्यावे तो चेतनरूप भयो है ।

शत्रु का चिंतन करने से मन गंवा होता है, अशुभ का चिंतन करने से अशुभ होता है, शुभ का चिंतन करने से शुभ होता है और भगवान का चिंतन करने से मन भगवन्मय हो जाता है । अभद्र में भद्र का चिंतन करो, अशुभ में भी शुभ की गहराई देखो, अमंगल में भी मंगल को देखो । क्या जरा-जरा बात में फरियाद ! क्या जरा-जरा बात में दुःखी होना ! क्या जरा-जरा बात में इच्छा का गुलाम बनना ! ‘ठीक है, इसका बढ़िया मकान है तो उस बढ़िया मकान में जो रह रहा है वहाँ भी वही रह रहा है, यहाँ भी वही रह रहा है । ॐ….’ खुशी मनाओ, आनंद लो । अपना मकान बन जाय तो बन जाय लेकिन दूसरे का बढ़िया मकान देखकर ईर्ष्या न करो, वासना न करो । प्रारब्ध में होगा, थोड़ा पुरुषार्थ होगा… हो गया तो हो गया बस !

चिंतन की धारा ऊँची कर दो, उद्देश्य ऊँचा कर लो, संग ऊँचा कर लो, प्राप्ति ऊँची हो जायेगी आप न चाहो तो भी ! परमात्म-चिंतन, परमात्म-अनुभव का उद्देश्य और उद्देश्य के अनुकूल संग कर लो तो न चाहने पर भी परमात्म-अनुभव हो जायेगा ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2021, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 338

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क्यों आते हैं कष्ट-मुसीबतें ? – पूज्य बापू जी


ईश्वरप्राप्ति के लिए जो भी सह लिया थोड़ा है । ईश्वर का इतना बड़प्पन है कि उसके लिए कुछ भी सहो, बहुत थोड़ा है । मीराबाई ने सहा, शबरी ने बहुत सहा फिर भी थोड़ा है ।

कोई बेवकूफ हो तो वह दुःख कहीं भी बना लेगा कि ‘हम तो दुःखी हैं ।’ उसका दुःख तो ब्रह्मा जी भी नहीं मिटा पायेंगे । जिसको फरियाद की आदत है उसका ईश्वर के रास्ते चलना सम्भव नहीं । फरियादी जीवन अपने-आपके लिए मुसीबत है और दूसरों के लिए भी ।

कष्ट तुम्हारी महिमा बताने को आते हैं कि ‘संसार की इच्छा करोगे तो लो यह हम (कष्ट) मिल रहे हैं पर हम फिर टिकते नहीं हैं, चले जाते हैं और तुम ज्यों-के-त्यों ! तुम कितने अमर हो, चेतन हो, ज्ञानस्वरूप हो किंतु हमको (कष्टों को) महत्त्व देते हो तो हमारा महत्त्व बढ़ जाता है और हमारी उपेक्षा करते हो तो फिर तुम मौज में रहते हो ।’

कष्ट तुम्हारा प्रभाव जगाने को आते हैं कि ‘भाई ! देखो, तुम कितने प्रभावशाली हो ! हमसे प्रभावित होते हो तो हम बड़े हो जाते हैं, नहीं तो हमारी उपेक्षा कर देते हो तो तुम ज्यों-के-त्यों !’

तो आप कष्टों के स्वामी हुए कि नहीं हुए ? फिर स्वामी होकर इनसे काहे को डरना, दबना अथवा अनुचित कर्म करना ?

आपके जीवन में जब कष्ट, विरोध-बाधाएँ आ जायें तो आप फरियाद मत करना कि ‘हम भगवान का भजन करते हैं और मुसीबत आ गयी ।’ मुसीबत आयी तो है लेकिन वह हर मुसीबत को कुचलने का सामर्थ्य जगाने के लिए आयी है, जन्म-मरण के चक्र को तोड़ने का सामर्थ्य जगाने के लिए आयी है – इस बात पर आप दृढ़ रहें । आप हिम्मत मत हारना, प्रह्लाद की नाईं अडिग रहना, मीराबाई की तरह अडिग रहना ।

ऐसा दुःख या परेशानी कोई नहीं है जिसमें हमारा कल्याण न छिपा हो । इसलिए कभी भी दुःख और परेशानी आयें तो समझ लेना विधाता का विधान है । ये हमारा कल्याण करने के लिए आये हैं, आसक्ति छुड़ाने को आये हैं, संसार से मोह-ममता छुड़ाने को आये हैं । ‘वाह प्रभु, वाह तेरी जय हो !’

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2021, पृष्ठ संख्या 2 अंक 338

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