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सेवा-अमृत


(पूज्य बाप जी के सत्संग से संकलित)

भलाई करके ईश्वर को अर्पण करोगे तो ईश्वरप्रीति मिलेगी, ईश्वरप्रीति मिलेगी तो बुद्धि ईश्वर-विषयिणी हो जायेगी ।

जितना हो सके भलाई करो, किसी भी प्रकार से बुराई न करो तो ईश्वर को प्रकट होना ही है ।

जो जबरन परोपकार करता है उसके हृदय में ज्ञान प्रकट नहीं होता, जो समझकर परोपकार करता है उसके हृदय में ज्ञान प्रकट होता है ।

तटस्थ विचारों के अभाव के कारण व्यक्ति कर्मों के जाल में बँधता है ।

गुरुसेवा सब तपों का तप है, सब जपों का जप है, सब ज्ञानों का ज्ञान है ।

ईमानादारी से जो गुरुसेवा करते हैं उनमें गुरुतत्त्व का बल, बुद्धि, प्रसन्नता आ जाते हैं ।

गुरुसेवा से दुर्मति दूर होती है ।

देश के लिए,  विश्व के लिए मानव-जाति के लिए वे लोग बहुत बड़ा काम करते हैं, बहुत उत्तम काम करते हैं जो संत और समाज के बीच मे सेतु बनने की कोशिस करते हैं और वे लोग बड़ा खतरा पैदा कर रहे हैं जो संतों और समाज के बीच में अश्रद्धा की खाई खोद रहे हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2021, पृष्ठ संख्या 17 अंक 341

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शास्त्रानुकूल आचरण का फल क्या ? – पूज्य बापू जी


शास्त्रानुकूल आचरण, धर्म-अनुष्ठान का फल यह है कि ससांर से उबान आ जाय, वैराग्य आ जाय । अगर वैराग्य नहीं आता तो जीवन में धर्म नहीं किया तुमने, शास्त्रों का पूरा अर्थ नहीं समझा । सत्संग का, शास्त्र अध्ययन का, धर्म का फल यही हैः

धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना । ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना ।। (श्रीरामचरित. अर. कां. 15.1)

धर्म का अनुष्ठान (धर्म का आचरण) करने से विरक्ति और योग का अनुष्ठान करने से ज्ञान होता है । ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है, निर्वाण हो जाता है । जैसे दीया निर्वाण हो जाता है, बुझ जाता है ऐसे ही ज्ञान से जन्म-मरण की परम्परा टूट जाती है, खत्म हो जाती है, तभी तो उसने मनुष्य जन्म का फल पाया, नहीं तो मजूरी कीः ‘हईशो-हईशो-हईशो….।’ खिला-पिला के शरीर बनाया, उसको भी जला दिया । क्या किया ?

मृत्यु आकर अपने को संसार से ले जाय उसके पहले अपने ढंग से ही भगवान की तरफ चल लेना ठीक है । मौत आकर घसीट के मकान से बाहर निकाल दे उसके पहले मकान की ममता छोड़ दी जाय । शरीर मुर्दा बन जाय और कुटुम्बी या साधक लोग चीजें दूसरों का बाँटें उसके पहले अपने हाथ से क्यों न बाँट देना ? ईश्वर के सिवाय किसी भी वस्तु, व्यक्ति, अवस्था में मन लगाना यह अपने से धोखा करना है । धर्म तें बिरति….

कितने धार्मिक हैं हम ?

हमारे हृदय में धर्म हुआ है कि नहीं ? धर्म होगा तो वैराग्य भड़केगा । जितना धर्म का रंग गाढ़ा होगा, उतनी वैराग्य की खुमारी अधिक रहेगी और जितना पापाचरण होगा उतनी विषय भोगने में रुचि रहेगी । फिर देखेगा नहीं कि मैं कौन-सी चीज का उपभोग कर रहा हूँ, क्या कर रहा हूँ । वासना व्यक्ति को अंधा कर देती है । वासना अंधा करे उसके पहले ज्ञान की आँख खुल जाय । मौत मार दे उसके पहले अमरता का रस आ जाय । कुटुम्बी घर से बाहर निकालें अर्थी पर, उसके पहले ही हम अपने मन को ही कुटुम्ब स बाहर निकाल के परमात्मा में लगा दें । ॐॐॐ…

वे लोग स्वयं से ही धोखा करते हैं

ईश्वर के रास्ते चलने वालों को जो भोगों में गिराते हैं, संसार में आकर्षित करते हैं वे लोग बहुत पाप कमाते हैं । जो लोग भोग-वासना के संकल्प करते हैं, भोग की तृप्ति चाहते हैं, ईश्वर के मार्ग पर जाने वाले व्यक्तियों से संसार का उल्लू सीधा कराना चाहते हैं, वे लोग अपने-आपसे धोखा करते हैं । किसी का वस्त्र या धन छीन लेना इतना पाप नहीं है, किसी की दुकान या मकान छीन लेना इतना पाप नहीं है जितना पाप भगवान का रास्ता छीन लेने से होता है । किसी साधक का या किसी संत का समय छीन लेने से बहुत पाप  होता है । संत तो क्षमाशील होते हैं, वे तो कुछ नहीं करेंगे लेकिन संत का समय लेने वाले लोग अगर ईश्वर के रास्ते नहीं चले तो उन्हें बहुत बदला चुकाना पड़ेगा । ईश्वर के रास्ते चलने के नाते अगर संत का समय लिया तो ठीक है किंतु यदि नहीं चले और संत का समय व्यर्थ में नष्ट किया तो उसका बदला चुकाना पड़ता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2021, पृष्ठ संख्या 4 अंक 341

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शरीर की अपवित्रता और भावों की पवित्रता


सभी शास्त्रों ने, आत्मानुभवी महापुरुषों ने इस नश्वर शरीर को अपवित्र बताया है और यह भी कहा है कि इस अपवित्र शरीर में यदि भाव शुद्ध हों तो इसी शरीर से परम पवित्र, शाश्वत आत्मा-परमात्मा का अनुभव भी हो सकता है । इस संदर्भ  शिव पुराण में सनत्कुमारजी भगवान वेदव्यास जी से कहते हैं- “हे महाबुद्धे ! सुनिये, मैं शरीर की अपवित्रता तथा स्वभाव के महत्त्व का संक्षिप्तरूप से वर्णन कर रहा हूँ ।

शरीर अपवित्र कैसे ?

देह शुक्र और रक्त के मेल से बनती है और यह विष्ठा तथा मूत्र से सदा भरी रहती है इसलिए इसे अपवित्र कहा गया है । जिस प्रकार भीतर विष्ठा से परिपूर्ण घट बाहर से शुद्ध होता हुआ भी अपवित्र ही होता है उसी प्रकार शुद्ध किया हुआ यह शरीर भी अपवित्र कहा गया है । अत्यंत पवित्र पंचगव्य एवं हविर्द्रव्य (घी, जौ, तिल आदि हवनीय सामग्री) आदि भी जिस शरीर में जाने पर क्षणभर में अपवित्र हो जाते हैं, उस शरीर से अधिक अपवित्र और क्या हो सकता है ? अत्यंत सुगंधित एवं मनोहर अन्न-पान भी जिसे प्राप्त कर तत्क्षण ही अपवित्र हो जाते है, उससे अपवित्र और क्या हो सकता है ? हे मनुष्यो ! क्या तुम लोग नहीं देखते हो कि इस शरीर से प्रतिदिन दुर्गन्धित मल-मूत्र बाहर निकलता है, फिर उसका आधार (यह शरीर) किस प्रकार शुद्ध हो सकता है ? पंचगव्य एवं कुशोदक से भलीभाँति शुद्ध की जाती हुई यह देह भी माँजे जाते हुए कोयले के समान कभी निर्मल नहीं हो सकती है । पर्वत से निकले हुए झरने के समान जिससे कफ, मूत्र, विष्ठा आदि निरंतर निकलते रहते हैं, वह शरीर भला शुद्ध किस प्रकार हो सकता है ? विष्ठा-मूत्र की थैली की भाँति सब प्रकार की अपवित्रता के भंडाररूप इस शरीर का कोई एक भी स्थान पवित्र नहीं है । अपनी देह के स्रोतों से मल निकालकर जल और मिट्टी के द्वारा हाथ शुद्ध किया जाता है किंतु सर्वथा अशुद्धिपूर्ण इस शरीररूपी पात्र का अवयव होने से हाथ किस प्रकार पवित्र रह सकता है ? यत्नपूर्वक उत्तम गंध, धूप आदि से भलीभाँति सुसंस्कृत भी यह शरीर कुत्ते की पूँछ की तरह अपना स्वभाव नहीं छोड़ता है । जिस प्रकार स्वभाव से काली अपने उपाय करने पर भी उज्जवल नहीं हो सकती, उसी प्रकार यह काया भी भलीभाँति शुद्ध करने पर भी निर्मल नहीं हो सकती है । अपनी दुर्गंध को सूँघता हुआ, अपने मल को देखता हुआ भी यह संसार इससे विरक्त नहीं होता है ।

अहो, महामोह की क्या महिमा है, जिसने इस संसार को आच्छादित कर रखा है ! शरीर के अपने दोष को देखते हुए भी मनुष्य शीघ्र विरक्त नहीं होता है । जो मनुष्य अपने शरीर की दुर्गन्ध से विरक्त नहीं होता, उसे वैराग्य का कौन-सा कारण बताया जा सकता है ? इस जगत में सभी का शरीर अपवित्र है क्योंकि उससे मलिन अवयवों के स्पर्श से पवित्र वस्तु भी अपवित्र हो जाती है ।”

(इस अपवित्र शरीर में रहते हुए भी मनुष्य इस भयंकर संसार-सागर से कैसे पार हो सकता है यह जानने के लिए प्रतीक्षा कीजिये अगले अंक की ।)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2021, पृष्ठ संख्या 20 अंक 341

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