मद्रास ( चेन्नई ) की घटना है । एक बच्चा था रंगु । एक दिन उसके पिता ने उसको पैसे दिये और कहाः ″जाओ बेटे ! फल-वल ले आओ, खायेंगे ।″
पैसे लेकर वह बबलू रंगु फल लेने गया । रास्ते में उसने देखा कि एक व्यक्ति कराह रहा है तो उसने पूछाः ″चाचा जी ! क्या हुआ, आप क्यों कराह रहे हैं ?″
व्यक्ति बोलाः ″बेटे ! बहुत भूखा हूँ ।″
तो फिर रंगु ने जो पैसे थे उनसे कुछ फल-वल, भोजन-फुलका, दाल-वाल आदि ले के उसको खिलाया और साथ ही कुछ चीज वस्तुएँ भी दे के वह खाली हाथ घर लौटा । हाथ तो खाली थे लेकिन हृदय बड़ा आनंद से, प्रसन्नता से भरा था, बड़ा अच्छा लग रहा था । बच्चा जब खाली हाथ घर आया तो पिता ने पूछाः ″रंगु बेटे ! फल-वल लाया ?″
″पिता जी ! फल तो लाया हूँ ।″
″कहाँ हैं ?″
″वे दिखेंगे नहीं ।″
″दिखेंगे नहीं, ऐसे फल कौन से हैं ?″
तो रंगु ने सारी बात सुना दी कि ″एक गरीब, भूखा-प्यासा था । उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा था । मेरा ध्यान गया । मैंने उसको भोजन कराया, फल आदि दे के आया । पैसे उसकी सेवा में लगा के आया । इससे मेरे अंतर का परमेश्वर संतुष्ट हुआ । पिता जी ! यह अमरफल लाया हूँ ।″
पिता ने रंगु को अपने हृदय से लगा लिया ।
पुत्र तुम्हारा जगत में, सदा रहेगा नाम ।
लोगों के तुमसे सदा, पूरण होंगे काम ।।
पिता ने इसी प्रकार का आशीर्वाद देते हुए कहाः ″मेरे लाल ! सचमुच तू अमर फल लेकर आया है । तेरे ये दिव्य गुण एक दिन तुझे जरूर महान बनायेंगे ।″
वही रंगु बच्चा आगे चल के संत रंगदास जी बन गये । दक्षिण भारत में उस महान संत को बहुत लोग जानते थे ।
कार्यदक्षता क्यों आवश्यक है ?
सुखं दुःखान्तमालस्यं दाक्ष्यं दुःखं सुखोदयम् ।
भूतिः श्रीर्ह्रीर्धृतिः कीर्तिर्दक्षे वसति नालसे ।। ( महाभारतः शांति पर्वः 27.31 )
आलस्य सुखरूप प्रतीत होता है पर उसका अंत दुःख है तथा कार्यदक्षता दुःखरूप प्रतीत होती है पर उससे शाश्वत आत्मसुख की यात्रा हो जाती है । ऐश्वर्य, लक्ष्मी, लज्जा, धृति और कीर्ति – ये कार्यदक्ष पुरुष में ही निवास करती हैं, आलसी में नहीं ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 18 अंक 347
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