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अभागे आलू से सावधान !


″आलू रद्दी से रद्दी कन्द है । इसका सेवन स्वास्थ्य के लिए हितकारी नहीं है । तले हुए आलू का सेवन तो बिल्कुल ही न करें । आलू का तेल व नमक के साथ संयोग विशेष हानिकारक है । जब अकाल पड़े, आपातकाल हो और खाने को कुछ न मिले तो आलू को आग में भून कर केवल प्राण बचाने के लिए खायें ।″ – पूज्य बापू जी ।

आचार्य चरक ने सभी कंदों में आलू को सबसे अधिक अहितकर बताया है । आलू को तेल में तलने से वह विषतुल्य काम करता है । आधुनिक अनुसंधानों के अनुसार उच्च तापमान पर या अधिक समय तक आलू को तेल में तलने से स्वाभाविक ही एक्रिलामाइड का स्तर बढ़ता है, जो कैंसर-उत्पादक तत्त्व सिद्ध हुआ है । कुछ शोधकर्ताओं ने तले हुए आलू के अधिक सेवन से मृत्यु दर में वृद्धि होती पायी । इसका सेवन मोटापा व मधुमेह का भी कारण बन सकता है ।

हाल में सूरत आश्रम के हमारे गुरुभाई रूपाभाई का देहावसान हुआ तब पूज्यश्री ने उनके लिए कहा कि ″वह कर्मयोगी, बहादुर एवं आखिरी साँस तक निभाने वाला था, उसने ऊँचे लोक की प्राप्ति की ।″ ऐसे हमारे समाज हितैषी गुरुभाई रूपाभाई तथा राजूभाई दिलखुश, राजूभाई गोगड़, अशोक जी जाट एवं और भी कई भक्तों को अभागे आलू की वानगियों ने हमारे बीच से छीन लिया ।

आलू का भूल कर भी सेवन न करें । पहले के खाये हुए आलू का शरीर पर कुप्रभाव पड़ा हो तो उसे निकालने के लिए रात को 3-4 ग्राम त्रिफला चूर्ण या 3-4 त्रिफला टेबलेट पानी से लेना हितकारी होगा ।

पूज्य बापू जी को पहले फालसीपेरम मलेरिया हुआ था जो एलोपैथिक दवाओं से मिटा लेकिन उन दवाओं से 5 साइड इफेक्ट्स हुए तब पूज्यश्री  ने भी त्रिफला रसायन बनवा के 40-40 दिन का प्रयोग किया था । इससे 5 में से 4 साइड इफेक्ट्स – आँखों का तिरछापन, कानों का बहरापन, यकृत (लिवर) व गुर्द (किडनी) की समस्या ये ठीक हुए । 20-22 साल पुराना ट्राइजेमिनल न्यूराल्जिया, जिसे ‘सुसाइड डिसीज़’ भी कहते हैं (इसकी भयंकर पीड़ा का विवरण इंटरनेट पर भी देख सकते हैं ), वह भी त्रिफला रसायन से नियंत्रण में है । पूज्यश्री अब भी कभी-कभी त्रिफला लेते रहते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2021, पृष्ठ संख्या 32, अंक 343

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सुखमय जीवन की अनमोल कुंजियाँ


समस्त रोगनाशक उपाय

स्वास्थ्यप्राप्ति हेतु सिर पर हाथ रख के या संकल्प कर इस मंत्र का 108 बार उच्चारण करें-

अच्युतानन्तगोविन्दनामोच्चारणभेषजात् ।

नश्यन्ति सकला रोगाः सत्यं सत्यं वदाम्यम् ।।

‘हे अच्युत ! हे अनंत ! हे गोविन्द ! – इस नामोच्चारणरूप औषध से समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं, यह मैं सत्य कहता हूँ…. सत्य कहता हूँ ।

ज्वरनाशक मंत्र

इस मंत्र के जप से ज्वर दूर होता हैः

ॐ भंस्मास्त्राय विद्महे । एकदंष्ट्राय धीमहि । तन्नो ज्वरः प्रचोदयात् ।।

बुखार दूर करने हेतु…

चरक संहिता के चिकित्सा स्थान में ज्वर (बुखार) की चिकित्सा का विस्तृत वर्णन करने के बाद अंत में आचार्य श्री चरक जी ने कहा हैः

विष्णुं सहस्रमूर्धानं चराचरपतिं विभुम् ।।

स्तुवन्नामसहस्रेण ज्वरान् सर्वानपोहति ।

‘हजार मस्तक वाले, चर-अचर के स्वामी, व्यापक भगवान की सहस्रनाम का पाठ करने से सब प्रकार के ज्वर छूट जाते हैं ।’

(पाठ रुग्ण स्वयं अथवा उसके कुटुम्बी करें । ‘श्रीविष्णुसहस्रनाम’ पुस्तक नजदीकी संत श्री आशाराम जी आश्रम में व समितियों के सेवाकेन्द्रों से प्राप्त हो सकती है ।)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2021, पृष्ठ संख्या 33 अंक 342

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नित्य उपासना की आवश्यकता क्यों ?


‘ऋग्वेद’ (1.113.11) में कहा गया हैः

ईयुष्टे ये पूर्तवतरामपश्यन्व्युच्छन्तीमुषसं मर्त्यासः।

अस्माभिरू नु प्रतिचक्ष्याभूदो ते यन्ति ये अपरीषु पश्यान् ।।

‘जो मनुष्य ऊषा के पहले शयन से उठकर आवश्यक (नित्य) कर्म करके परमेश्वर का ध्यान करते हैं वे बुद्धिमान और धर्माचरण करने वाले होते हैं । जो स्त्री-पुरुष परमेश्वर का ध्यान करके प्रीति से आपस में बोलते-चलते हैं वे अनेक प्रकार के सुखों को प्राप्त होते हैं ।’

परमात्मा के नित्य पूजन, ध्यान, स्तुति के महत्त्व को महर्षि वेदव्यासजी ने महाभारत के अनुशासन पर्व (141.5-6) में बताया है कि ”उसी विनाशरहित पुरुष का सब समय भक्ति से युक्त होकर पूजन करने से उसी का ध्यान, स्तवन एवं उसे नमस्कार करने से पूजा करने वाला सब दुःखों से छूट जाता है । उस जन्म, मृत्यु आदि 6 भावविकारों से रहित, सर्वव्यापक, सम्पूर्ण लोकों के महेश्वर, लोकाध्यक्ष देव की निरंतर स्तुति करने से मनुष्य सब दुःखों से पार हो जाता है ।”

परमेश्वर की उपासना-अर्चना करने से आत्मिक शान्ति मिलती है । जाने अनजाने किये हुए पाप नष्ट होते हैं । देवत्व का भाव मन में पैदा होता है । आत्मविश्वास बढ़ता । सत्कार्यों में मन लगता है । अहंकाररहित होने की प्रेरणा मिलती है । बुराई से रक्षा होने लगती है । चिंता और तनाव से मन मुक्त होकर प्रसन्न रहता है । जीवन को शुद्ध, हितकारी, सुखकारी, आत्मा-परमात्मा में एकत्ववाली ऊँची सूझबूझ प्राप्त होती है । ऊँचे-में-ऊँचे ब्रह्मज्ञान की सूझबूझ से शोकरहित, मोहरहित, चिंतारहित, दुःखरहित, बदलने वाली परिस्थितियों में अबदल आत्मज्ञान का परम लाभ मिलता है ।

आत्मलाभात् परं लाभं न विद्यते ।

आत्मसुखात् परं सुखं न विद्यते ।

आत्मज्ञानात् परं ज्ञानं न विद्यते ।

पुण्यात्मा, धर्मात्मा, महानात्मा, दर्शनीय, चिंतनीय, मननीय, आदरणीय, सर्वहितकारी पूर्ण परोपकारी, पूर्णपुरुष, आत्मसाक्षात्कारी, ब्रह्मवेत्ता के लिए महर्षि वेदव्यास जी कहते हैं- “हे राम जी ! जैसे सूक्ष्म जीवाणुओं से कीड़ी बड़ी है । कीड़ी से कीड़ा मकोड़ा, कच्छ (कछुआ), बिल्ला, कुत्ता, गधा, घोड़ा आदि बड़े हैं पर सबसे बड़ा है हाथी । परंतु हे राम जी ! सुमेरु पर्वत के आगे हाथी का बड़प्पन क्या है ? ऐसे ही त्रिलोकी में एक से एक मान करने योग्य लोग हैं । देवताओं में मान योग्य एवं सुख सुविधाओं में सबसे बड़ा इऩ्द्र है । किंतु ज्ञानवान के आगे इन्द्र का ब़ड़प्पन क्या है ?”

संत तुलसी दास ने लिखा हैः

‘तीन टूक कौपीन की, भाजी बिना लूण ।

तुलसी हृदय रघुवीर बसे तो इन्द्र बापड़ो कूण ।।’

पीत्वा ब्रह्मरसं योगिनो भूत्वा उन्मतः ।

इन्द्रोऽपि रंकवत् भासते अन्यस्य का वार्ता ?

ब्रह्मवेत्ता के आगे इन्द्र भी रंकवत् भासता है । इन्द्र को सुख के लिए अप्सराओं का नृत्य, साजवालों के साज, और भी बहुत सारी सामग्री की आवश्यकता पड़ती है जैसे पृथ्वी के बड़े लोगों को सुख के लिए बहुत सारी सामग्री और लोगों की आवश्यकता पड़ती है लेकिन आत्मज्ञानी आत्मसुख में, आत्मानुभव में परितृप्त होते हैं । तीन टूक लँगोटी पहनकर और बिना नमक की सब्जी खा के भी आत्मज्ञानी आत्मदेव में परम तृप्त होते हैं ।

स तृप्तो भवति । स अमृतो भवति ।

स तरति लोकांस्तारयति । (नारदभक्तिसूत्रः 4 व 50)

तस्य तुलना केन जायते । (अष्टावक्र गीताः 18.81)

उस आत्मज्ञान के सुख में सुखी महापुरुष के दर्शन से साधक, सज्जन, धर्मात्मा उन्नत होते हैं, परितृप्त होते हैं और उन महापुरुष को मानने वाले गुरुभक्त देर-सवेर सफल हो जाते हैं । भगवान शिवजी ने कहा हैः

धन्या माता पिता धन्यो गोत्रें धन्यं कुलोद्भवः ।

धन्या च वसुधा देवि यत्र स्याद् गुरुभक्तता ।।

‘जिसके अऩ्दर गुरुभक्ति हो उसकी माता धन्य है, उसका पिता धन्य है, उसका वंश धन्य है, उसके वंश में जन्म लेने वाले धन्य हैं, समग्र धरती धन्य है !’

उपासना से इन सब लाभों की प्राप्ति तभी हो सकती जब सच्चे मन, श्रद्धा एवं भावना से उपासना की जाय । जैसे जमीन की गहराई में जाने से बहुमूल्य पदार्थों की प्राप्ति होती है, ठीक वैसे ही श्रद्धापूर्वक ईश्वरोपासना द्वारा अंतर्मन में उतरने से दैवी सम्पदा प्राप्त होती है ।

उपासना की मूल भावना यही है कि जल की तरह निर्मलता, विनम्रता, शीतलता, फूल की तरह प्रसन्न एवं महकता जीवन, अक्षत की तरह अटूट निष्ठा, नैवेद्य की तरह मिठास-मधुरता से युक्त चिंतन व व्यवहार, दीपक की तरह स्वयं व दूसरों के जीवन में प्रकाश, ज्ञान फैलाने का पुरुषार्थ अपनाया जाय । भगवान श्रीकृष्ण गीता (18.46) में कहते हैं-

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ।।

‘उस परमेश्वर की अपने कर्मों से पूजा करके मनुष्य सिद्धि (स्वतः अपने आत्मस्वरूप में स्थिति) प्राप्त करता है ।’

पूज्य बापू जी कहते हैं- “पूजा-अभिषेक में 40 किलो दूध चढ़ाओ या 40 ग्राम, पर पूजा करते-करते तुम मिटते जाते हो कि बनते जाते हो, ईश्वर में खोते जाते हो कि अहंकार में जगते जाते हो – इसका ख्याल करो तो बेड़ा पार हो जायेगा । शिवजी तुम्हारे चार पैसे के दूध के भूखे हैं क्या ? तुम्हारे घी और शक्कर के भूखे हैं क्या ? नहीं…. वे तुम्हारे प्यार के उन्नति के भूखे हैं । प्यार करते-करते तुम खो जाओ और तुम्हारे हृदय में शिव-तत्त्व प्रकट हो जाय । यह है पूजा का रहस्य !”

एक बार चैतन्य महाप्रभु से एक श्रद्धालु ने पूछाः “गुरुदेव ! भगवान सम्पन्न लोगों की पूजा से संतुष्ट नहीं हुए और गोपियों की छाछ व विदुर के शाक उन्हें पसन्द आये । लगता है पूजा के पदार्थों से उनकी प्रसन्नता का संबंध नहीं है ।”

चैतन्य महाप्रभुः “ठीक समझे वत्स ! प्रभु के ही बनाये हुए सभी पदार्थ हैं फिर उन्हें किस बात की कमी ? वास्तव में पूजा तो साधक भाव-जागरण की पद्धति है । वस्तुएँ तो प्रतीकमात्र हैं, उनके पीछे छिपा हुआ भाव भगवान ग्रहण करते हैं । भावग्राही जनार्दनः । पूजा में जो-जो वस्तुएँ भगवान को चढ़ायी जाती हैं, वे इस बात का भी प्रतीक हैं कि उन पूजा-सामग्रियों को निमित्त बनाकर हम अपने पंचतत्त्वों से बने तन, तीन, गुणों में रमण करने वाले मन, बुद्धि, अहं, इन्द्रिय-व्यवहार को किस प्रकार उन्हें अर्पण कर अपने अकर्ता-अभोक्ता स्वभाव में जग जायें ।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2021, पृष्ठ संख्या 28,29 अंक 342

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