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मृतक की सच्ची सेवा



एक माता जी ने स्वामी शरणानंद जी को बहुत दुःखी होकर कहाः
“महाराज जी ! कुछ समय पहले ही मेरे पति का अचानक देहावसान हो
गया है । ऐसा क्यों हुआ ? अब मैं क्या करूँ ?”
शरणानंदजी ने उन्हें जीवन का रहस्य बताया कि “हिन्दू धर्म के
अऩुसार स्थूल शरीर के न रहने पर भी सूक्ष्म तथा कारण शरीर उस
समय तक रहता है जब तक कि प्राणी देहाभिमान का अंत कर समस्त
वासनाओं से पूर्णतया मुक्त न हो जाय । ऐसी दशा में मृतक प्राणी के
प्रति जो कर्तव्य है, उस पर ध्यान देना चाहिए ।
स्वधर्मनिष्ठा पत्नी अपने पति की आत्मशांति के लिए बहुत कुछ
कर सकती है । वैधव्य धर्म सती धर्म से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है । सती
तो अपने शरीर को भौतिक अग्नि में दग्ध करती है और फिर पतिलोक
को प्राप्त करती है किंतु विधवा (ब्रह्मवेत्ता संत-महापुरुष के सत्संग
अनुसार जीवन-यापन कर) अपने सूक्ष्म कारण तथा कारण शरीर दोनों
को ज्ञानाग्नि में दग्ध करके जीवन में ही मृत्यु का अनुभव कर सकती
है, स्वयं जीवन्मुक्त होकर पति की आत्मा को भी मुक्त कर सकती है

देखो माँ ! पत्नी पति की अर्धांगिनी है । अतः पत्नी की साधना से
पति का कल्याण हो सकता है । इस समय आपका हृदय घोर दुःखी है
परंतु हमें दुःख से भी कुछ सीखना है । दुःख को व्यर्थ जाने देना या
उससे भयभीत हो जाना भूल है । दुःख हमें त्याग का पाठ पढ़ाने आता
है । अतः जब-जब पति देव के वियोग की वेदना उत्पन्न हो तब-तब
उऩकी आत्मा की शांति के लिए सर्वसमर्थ प्रभु से प्रार्थना करो । मृतक
प्राणी का चिंतन करने से उसे विशेष कष्ट होता है, कारण कि सूक्ष्म

शरीर कुछ काल तक उसी वायुमंडल में विचरता है जहाँ-जहाँ उसका
संबंध होता है । जब-जब वह अपने प्रियजनों को दुःखी देखता है तब-तब
उसे बहुत अधिक दुःख होता है । अतः आपका धर्म है कि आप उऩ्हें
दुःखी न करें । उनके कल्याणार्थ साधन अवश्य करें । पर मोहजनित
चिंतन न करें ।”
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2021, पृष्ठ संख्या 25 अंक 343
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आरती में कपूर का उपयोग क्यों ?



सनातन संस्कृति में पुरातन काल से आरती में कपूर (यह आश्रम में व समितियों के
सेवाकेन्द्रों से प्राप्त हो सकता है ।) जलाने की परम्परा है । आरती के बाद आरती के ऊपर हाथ
घुमाकर अपनी आँखों पर लगाते हैं, जिससे दृष्टि-इन्द्रिय सक्रिय हो जाती है । पूज्य बापू जी
के सत्संग-वचनामृत में आता हैः “आरती करते हैं तो कपूर जलाते हैं । कपूर वातावरण को शुद्ध
करता है, पवित्र वातावरण की आभा (Aura) पैदा करता है । घर में देव-दोष है, पितृ-दोष है,
वास्तु दोष है, भूत-पिशाच का दोष है या किसी को बुरे सपने आते हैं तो कपूर की ऊर्जा उन
दोषों को नष्ट कर देती है ।
बोलते हैं कि संध्या होती है तो दैत्य राक्षस हमला करते हैं इसलिए शंख, घंट बजाना
चाहिए, कपूर जलाना चाहिए, आरती पूजा करनी चाहिए अर्थात् संध्या के समय और सुबह के
समय वातावरण में विशिष्ट एवं विभिन्न प्रकार के जीवाणु होते हैं जो श्वासोच्छ्वास के द्वारा
हमारे शरीर में प्रवेश करके हमारी जीवनरक्षक कोशिकाओं से लड़ते हैं । तो देव-असुर संग्राम
होता है, देव माने सात्त्विक कण और असुर माने तामसी कण । कपूर की सुगंधी से हानिकारक
जीवाणु (बेक्टीरिया) एवं विषाणु (वायरस) रूपी राक्षस भाग जाते हैं ।
वातावरण में जो अशुद्ध आभा है उससे तामसी अथवा निगुरे लोग जरा-जरा बात में
खिन्न होते हैं, पीड़ित होते हैं लेकिन कपूर और आरती का उपयोग करने वाले घरों में ऐसे
कीटाणुओं का, ऐसी हल्की आभा का प्रभाव टिक नहीं सकता है ।
अतः घर में कभी-कभी कपूर जलाना चाहिए, गूगल का धूप करना चाहिए । कभी-कभी
कपूर की 1-2 गोली मसल के घर में छिटक देनी चाहिए । उसकी हवा से ऋणायन बनते हैं, जो
हितकारी हैं । वर्तमान के माहौल में घर में दीया जलाना अथवा कपूर की कभी-कभी आरती कर
लेना अच्छा है ।
अकाल मृत्यु से रक्षा हेतु
भगवान नारायण देवउठी (प्रबोधिनी) एकादशी को योगनिद्रा से उठते हैं । उस दिन कपूर
से आरती करने वाले को अकाल मृत्यु से सुरक्षित रहने का अवसर मिलता है ।”
कपूर का वैज्ञानिक महत्त्वः
कई शोधों के बाद विज्ञान ने कपूर की महत्ता को स्वीकारा है । कपूर अपने आसपास की
हवा को शुद्ध करता है, साथ ही शरीर को हानि पहुँचाने वाले संक्रामक जीवाणुओं को दूर रखने
में मददगार होता है । इसकी भाप या सुगंध सर्दी-खाँसी से राहत देती है तथा मिर्गी, दिमागी
झटके एवं स्थायी चिंता या घबराहट को कम करती है । कपूर की भाप या इसके तेल की उग्र
सुगंध से नासिका के द्वार खुल जाते हैं । यह सुगंध श्वसन मार्ग, स्वरतंत्र, ग्रसनी, नासिका
मार्ग तथा फुफ्फुस मार्ग हेतु तुरंत अवरोध-निवारक का काम करती है । इसीलिए कपूर का

उपयोग सर्दी-खाँसी की कई दवाओं (बाम आदि) में किया जाता है । कपूर भाप की सुगन्ध
बलगमयुक्त गले की सफाई करके श्वसन-संस्थान के मार्ग खुले करने में मदद करती है । कपूर
मसलकर शरीर पर लगाने से यह रक्त प्रवाह बढ़ाता है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2021, पृष्ठ संख्या 22, अंक 343
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इसी का नाम मोक्ष है



हिमालय की तराई में एक ब्रह्मनिष्ठ संत रहते थे । वहाँ का एक
पहाड़ी राजा जो धर्मात्मा, नीतिवान और मुमुक्षु था, उनका शिष्य हो
गया और संत के पास आकर उनसे वेदांत-श्रवण किया करता था । एक
बार उसके मन में एक शंका उत्पन्न हुई । उसने संत से कहाः “गुरुदेव !
माया अनादि है तो उसका नाश होना किस प्रकार सम्भावित है ? और
माया का नाश न होगा तो जीव का मोक्ष किस प्रकार होगा ?”
संत ने कहाः “तेरा प्रश्न गम्भीर है ।” राजा अपने प्रश्न का उत्तर
पाने को उत्सुक था ।
वहाँ के पहाड़ में एक बहुत पुरानी, कुदरती बड़ी पुरानी गुफा थी ।
उसके समीप एक मंदिर था । पहाड़ी लोग उस मंदिर में पूजा और
मनौती आदि किया करते थे । पत्थर की चट्टानों से स्वाभाविक ही बने
होने से वह स्थान विकट और अंधकारमय था एवं अत्यंत भयंकर मालूम
पड़ता था ।
संत ने मजदूर लगवा कर उस गुफा को सुरंग लगवा के खुदवाना
आरम्भ किया । जब चट्टानों का आवरण हट गया तब सूर्य का प्रकाश
स्वाभाविक रीति से उस स्थान में पहुँचने लगा ।
संत ने राजा को कहाः “बता यह गुफा कब की थी ?”
राजाः “गुरुदेव ! बहुत प्राचीन थी, लोग इसको अनादि गुफा कहा
करते थे ।”
“तू इसको अनादि मानता था या नहीं ?”
“हाँ, अऩादि थी ।”
“अब रही या नहीं रही ?”
“अब नहीं रही ।”

“क्यों ?”
“जिन चट्टानों से वह घिरी थी उनके टूट जाने से गुफा न रही ।”
“गुफा का अंधकार भी तो अनादि था, वह क्यों न रहा ?”
राजाः “आड़ निकल जाने से सूर्य का प्रकाश जाने लगा और इससे
अंधकार भी न रहा ।”
संतः “तब तेरे प्रश्न का ठीक उत्तर मिल गया । माया अनादि है,
अंधकारस्वरूप है किंतु जिस आवरण से अँधेरे वाली है उस आवरण के
टूट जाने से वह नहीं रहती ।
जिस प्रकार अनादि कल्पित अँधेरा कुदरती गुफा में था उसी प्रकार
कल्पित अज्ञान जीव में है । जीवभाव अनादि होते हुए भी अज्ञान से है
। अज्ञान आवरण रूप में है इसलिए अलुप्त परमात्मा का प्रकाश होते
हुए भी उसमें नहीं पहुँचता है ।”
जब राजा गुरु-उपदेश द्वारा उस अज्ञानरूपी आवरण को हटाने को
तैयार हुआ और उसने अपने माने हुए भ्रांतिरूप बंधन को खको के
वैराग्य धारण कर अज्ञान को मूलसहित नष्ट कर दिया, तब ज्ञानस्वरूप
का प्रकाश यथार्थ रीति से होने लगा, यही गुफारूपी जीवभाव का मोक्ष
हुआ ।
माया अनादि होने पर भी कल्पित है इसलिए कल्पित भ्राँति का
बाध (मिथ्याज्ञान का निश्चय) होने से अज्ञान नहीं रह सकता जब
अज्ञान नहीं रहता तब अनादि अज्ञान में फँसे हुए जीवभाव का मोक्ष हो
जाता है । अनादि कल्पित अज्ञान का छूट जाना और अपने वास्तविक
स्वरूप-आत्मस्वरूप में स्थित होना इसका नाम मोक्ष है । चेतन,
चिदाभास और अविद्या इन तीनो के मिश्रण का नाम जीव है । तीनों में
चिदाभास और अविद्या कल्पित, मिथ्या हैं, इन दोनों (चिदाभास और

अविद्या) का बाध होकर मुख्य अद्वितीय निर्विशेष शुद्ध चेतन मात्र
रहना मोक्ष है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2021, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 343
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