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गुरु आश्रय से वक्र भी वंदनीय


जो लोग अपने जीवन में ईश्वर के मार्ग में आगे बढ़ना चाहते हैं अथवा ईश्वर को प्राप्त करना चाहते हैं, उनके लिए प्रत्यक्ष भगवान की प्राप्ति यदि कहीं हो सकती है तो वह सद्गुरु के रूप में हो सकती है । सद्गुरु भगवान का रूप हैं । सद्गुरु साक्षात भगवान ही हैं । यह नहीं समझ लेना कि सद्गुरु जन्मने-मरने वाले हैं । वे तो नित्य हैं, ज्ञानस्वरूप हैं । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज श्री रामचरितमानस में गुरुकृपा का वर्णन करते हुए कहते हैं-क

वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शङ्कररूपिणम् ।

यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते ।।

‘ज्ञानमय, नित्य, शंकररूपी गुरु की मैं वन्दना करता हूँ, जिनके आश्रित होने से ही टेढ़ा चन्द्रमा भी सर्वत्र वन्दित होता है ।’

मन को वश करने की सरल युक्ति

यदि कहो कि गुरु का आश्रय लेने से लाभ क्या है ? तो सुनो ! गुरु का सहारा लेने से वक्र व्यक्ति भी वंदनीय हो जाता है । जब चन्द्रमा गुरु का आश्रय लेता है – शंकरजी के सिर पर आकर बैठ जाता है, तब जो लोग चन्द्रमा को प्रणाम नहीं करते हैं, केवल शंकर जी को प्रणाम करते हैं, वे भी गुरु आश्रित होने के कारण चन्द्रमा को प्रणाम करने लगते हैं ।

यदि गुरु और चन्द्रमा एक राशि पर हो जायें तब तो पूछना ही क्या है ? आध्यात्मिक दृष्टि से चन्द्रमा मन का देवता है । मन करने के लिए कभी अच्छी बात बताता है । आप अपने मन की ओर गौर करके देख लो । आप विचार करने पर पाओगे कि मन कभी गलत रास्ते में भी ले जाता है और कभी अच्छे रास्ते में भी ले जाता है । यदि मन के ऊपर गुरु रहें और वह गुरु के मार्गदर्शन अनुसार काम करे तो अच्छा-ही-अच्छा काम करेगा । मन चाहे कितना भी वक्र हो, टेढ़ा हो – उलटे रास्ते से घूम फिरकर भ्रम के मार्ग में ले जाय लेकिन जब वह गुरु के आश्रित हो जाता है तब उसका टेढ़ापन छूट जाता है । इसलिए गुरुकृपा का आश्रय लेने से वक्र भी वंदनीय हो जाता है । जैसी वन्दना गुरु की होती है वैसी शिष्य की भी होती है । शिष्य स्वयमेव गुरु हो जाता है । भला बताओ ! इससे बढ़कर भी कोई लाभ है ? गुरुकृपा-आश्रय लेने में लाभ-ही-लाभ है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2021, पृष्ठ संख्या 31 अंक 344

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आप कहाँ समय लगा रहे हैं ? – पूज्य बापू जी


व्यक्ति ज्यों छोटे विचारों को महत्त्व देता है त्यों धीरे-धीरे पतन की खाई में गिरता है और ज्यों-ज्यों वफादारी से सेवा को महत्त्व देता है त्यों-त्यों उन्नति के शिखर पर चढ़ता जाता है । अपनी योग्यता चाहे अभी न के बराबर हो लेकिन जो योग्यता है उसे ईश्वर की प्रीति के लिए, धर्म की सेवा-रक्षा के लिए ठीक ढंग से उपयोग में लाते हैं तो उस योग्यता का विकास हो जायेगा । अपने जो बच्चे-बच्चियाँ सेवा करते हैं उनके पास कौनसा प्रमाणपत्र है ? क्या उनके पास कोई पदवियाँ हैं इसलिए वो सेवा में सफल हो रहे हैं ? नहीं, तत्परता है तो सफल होते हैं । किसी में तत्परता नहीं है तो वह पड़ा रहेगा संस्था पर बोझा होकर । तत्परता नहीं तो बस, मुफ्त का खाना सत्यानाश जाना ! फिर बुद्धि ऐसी मारी जायेगी कि इधर-का-इधर, उधर-का-इधर… ऐसा-वैसा करके अशांत हो जायेगा । प्रशांत  आत्मा होना है । वैसा चला गया तो फिर कमा सकते हैं, स्वास्थ्य चला गया तो फिर ठीक हो सकता है, मित्र रूठ गया तो उसको मना सकते हैं, मकान छूट गया तो दूसरा ले सकते हैं, गाड़ी निकल गयी तो दूसरी गाड़ी में बैठ सकते हैं पर समय निकल गया, आयुष्य बीत गया तो वह वापस नहीं आयेगा । इसलिए समय को आप कहाँ लगा रहे हैं – कहाँ बरबाद कर रहे हैं इसका ध्यान रखना पड़ेगा । समय बड़ा कीमती है, व्यर्थ की गप्पें मारने में अथवा व्यर्थ की चेष्टाओं में समय बरबाद न करके उसका सदुपयोग करना चाहिए । भगवत्स्मरण, भगवद्गुणगान, भगवच्चिंतन और भगवत्सेवा-सत्कार्य में समय व्यतीत करना ही समय का सदुपयोग है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2021, पृष्ठ संख्या 17 अंक 344

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परिप्रश्नेन



प्रश्नः भगवत्कृपा, संतकृपा और गुरुकृपा क्या है ?
पूज्य बापू जीः भगवत्कृपा है कि तुम्हें संसार फीका लगने लगे
और भगवद्-शांति, भगवद्-ज्ञान, भगवद्-रस में सार दिखने लगे । कैसी
भी मुसीबत या कठिनाई आ जाय, आर्तभाव से भगवान को पुकारो तो वे
मुसीबत में से निकालने का रास्ता देते हैं ।
भगवान कहते हैं-
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।
जो मुझे जिस भाव से, जैसा भजता है मैं उसको उसी भाव से फल
देता हूँ । यह भगवत्कृपा है पर संतकृपा इससे कुछ विलक्षण है ।
भगवान को तो जिस भाव से भजो, जितना भजो उस भाव से उतनी
कृपा देंगे परंतु संत को भजो चाहे न भजो, उनकी दृष्टि में आ जाओ
और तुम्हारे को जो जरूरत, तुम जो माँगो वह तो ठीक है लेकिन तुम्हारे
को धीरे-धीरे फुसला के, पटा के, रेलगाड़ी चलाकर, प्रसाद फेंके के… कैसे
भी करके संत तुमको चिन्मय सुख की तरफ ले जायेंगे । जिससे
भगवान भगवद्-रस में तृप्त हैं, तुमको उस रसस्वरूप में पहुँचा देंगे ।
पिता की कृपा में अनुशासन होता है, माता की कृपा में ममता होती है
किंतु माँ दया, कृपा करती है तो ममता से करती है, पिता कृपा करता है
तो अनुशासन करके अपने काम-धंधे के योग्य बनाने की कृपा करता है
और भगवान की कृपा में जो जैसा भजता है उसको वैसा ही फल मिलता
है परंतु संत व सद्गुरु की कृपा में ऐसा होता है कि आप कृपा न चाहो
तो भी वह बरसती रहती है । जितना भी ले सकता है ले और नहीं लेता
है तो लेने योग्य भी बनाते जाते है ।

संत की कृपा में प्रेम होता है, उदारता होती है क्योंकि संत
भुक्तभोगी होते हैं – जहाँ तुम रहते हो वहीं से संत आये हैं तो संसार के
दुःखों को, आपाधापी को, संसार में कैसा पचना होता है, कैसी बेवकूफी
होती है, कैसा आकर्षण होता है, कैसी फिसलाहट होती है – इन सबको
वे जानते है । इसलिए कैसा भी साधक हो…. चलो, चलो, चलो –
डाँटकर, प्यार करके, कुछ पुचकार के, न जाने क्या-क्या करके उठाते हैं
और पहुँचा भी देते हैं । अब तुम जैसा भजो वैसा फल देने को संत नहीं
तौलेंगे । ‘तुम कैसे भी हो, हमको जो मिला है वह तुमको कैसे मिले’
इस प्रयोजन से सारा आयोजन करेंगे, करायेंगे । यह संतकृपा ऐसी ऊँची
होती है । मैंने कभी सोचा नहीं था कि मेरे गुरु जी मेरे को इतना ऊँचा
पहुँचायेंगे ।
गुरुकृपा ही केवलं शिष्यस्य परं मङ्गलम् ।
मैं गुरु जी के पास गया तो मैं आशाराम बनूँ या मुझे
ब्रह्मसाक्षात्कार हो ऐसा तो सोचा ही नहीं था । बचपन से भगवान की
तड़प तो थी लेकिन समझता था कि ‘शिवजी आयेंगे, दर्शन देंगे और
बोलेंगेः ‘क्या चाहिए ? मैं बोलूँगाः ‘कुछ नहीं चाहिए ।’ तो शिवजी
प्रसन्न हो जायेंगे । हम समझते थे कि इसी को बोलते हैं भगवत्प्राप्ति
। बाद में पता चला कि ‘अरे, यह तो कुछ भी नहीं । इतनी मेहनत करो
और भगवान आये, दिखे फिर चले गये तो अपन वैसे-के-वैसे ।’ गुरु जी
ने ऐसी कृपा की कि पता चला शिवजी जिससे शिवजी हैं, विष्णुजी
जिससे विष्णुजी हैं, ब्रह्मा जी जिससे ब्रह्माजी हैं और दुनिया जिससे
चेतना पाती है वही मेरा आत्मदेव है, यह सब मेरे आत्मदेव का ही
विस्तार है । ‘मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था ऐसी ऊँची अवस्था में
गुरु जी ने रख दिया । यह है गुरुकृपा !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2021, पृष्ठ संख्या 34 अंक 344
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