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सर्व दुःखों की निवृत्ति व परमानंद की प्राप्ति कैसे हो ? – पूज्य बापू जी


आत्मसाक्षात्कार का अर्थ क्या होता है ? कि सब दुःखों से सदा के लिए मुक्ति और परमानंद की प्राप्ति । जिससे बढ़कर कोई आनंद नहीं, कोई ऊँचाई नहीं उसकी प्राप्ति को बोलते हैं आत्मसाक्षात्कार !

तो क्या इस उपलब्धि के बाद भूख नहीं लगेगी ? बुखार नहीं आयेगा ?

भूख या बुखार मिटाना आत्मानुभव का फल नहीं है, ‘भूख मुझे लगी है, बुखार मुझे आया है, मैं बूढ़ा हो गया हूँ, वाहवाही या निंदा मेरी होती है…’ इस प्रकार का अज्ञान मिटाने का नाम है आत्मानुभव । तुम आत्मसाक्षात्कार कर लो फिर भी शरीर के प्रारब्ध से, वातावरण से यह-वह… बाहर का प्रभाव होगा । अज्ञानी, जिसको ईश्वर की प्राप्ति नहीं हुई उसको और जिनको ईश्वर की प्राप्ति हुई है उन ज्ञानी को, दोनों को बाहर का प्रभाव तो बराबर होगा परंतु साधारण व्यक्ति बाहर के प्रभाव में बह जायेगा और ज्ञानी समझेंगे कि ‘यह शरीर को हुआ, मन को हुआ…’ अपने स्वरूप में उनको दुःख नहीं होता ।

खिन्नोऽपि न च खिद्यते ।

वे खिन्न होते हुए भी हृदय में शांत रह सकते हैं । क्रोध करते हुए भी पूर्ण शांति में विराजते हैं ।

‘हाय हाय ! मेरा बेटा मर गया, अब मेरा जीना मुश्किल है !’ ऐसा करके वसिष्ठ जी गंगा किनारे आत्महत्या (ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों के लिए तो सारा व्यवहार विनोदमात्र है किंतु जो तन-मन को मैं मानकर प्रकृति के राज्य में जीते हैं उनके लिए तो आत्महत्या महापाप है ।) करने जा रहे हैं, ज्यों कूदे त्यों गंगा जी का जल-स्तर नीचे हो गया फिर आगे चले और पत्थर बाँधने के कूदने गये तो गंगा जी प्रकट हो गयीं ।

बोलीं- ″महाराज ! आप जैसे आत्मसाक्षात्कारी, ज्ञानी पुरुष अगर पुत्र-शोक में आकर आत्महत्या करेंगे तो मुझे पाप लगेगा । आपके चरणों में हम तीर्थ मनुष्य का रूप लेकर सत्संग सुनने को आते हैं । अब आप आत्महत्या कर रहे हैं तो…″

वसिष्ठजी बोलेः ″अरे बच्ची ! तू क्या मेरे को उपदेश देती है ! मैं आत्महत्या करता हूँ ? आत्महत्या का भाव चित्त में आया, चित्त प्रकृति का है, मैं तो करोड़ों शरीरों में हूँ । मैं क्यों मरूँगा ?″

लो कैसी समझ है !

अन्तर्विकल्पशून्यस्य बहिः स्वच्छन्दचारिणः ।

भ्रान्तस्येव दशास्तास्तास्तादृशा एव जानते ।।

‘जो भीतर से तो विकल्प शून्य है और बाहर से भ्रांत-पुरुष के समान स्वच्छंद आचरण करता है, उसकी उन-उन अनिर्वचनीय अवस्थाओं को वैसे लोग (ब्रह्मवेत्ता महापुरुष) ही जानते हैं ।’

आत्मज्ञानी तुरीय अवस्था में पहुँच जाते हैं

जिन्होंने अपने को जान लिया है वे कभी देह से एकाकार होकर सामान्य जनों की नाईं व्यवहार करते भी हैं तो भी फिर तुरन्त अपने आत्मा में चले जाते हैं । जिन्होंने नहीं जाना है वे कहाँ जायेंगे ? घूम-फिर के देह में ही तो आयेंगे या तो रजोगुण में आयेंगे या तो तमोगुण में आयेंगे – बस 3 ही जगहें हैं उनके लिए । आत्मज्ञानी की चौथी अवस्था है – तुरीय अवस्था ।

यह अभी जाग्रत अवस्था है, फिर रात को स्वप्न अवस्था होती है, गहरी नींद सुषुप्ति होती है । सुषुप्ति बाद फिर जाग्रत अवस्था होती है लेकिन आत्मज्ञानी तुरीय अवस्था में पहुँच जाते हैं ।

यत्स्वप्नजागरसुषुप्तिमवैति नित्यं ।

तद्ब्रह्मा निष्कलमहं न च भूतसङ्घः ।।

जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति आदि आते हैं, चले जाते हैं परंतु जो उन सबमें रहता है वही अमर आत्मा है, ज्ञानस्वरूप है, उसका कभी जन्म नहीं होता इसलिए उसकी मृत्यु भी नहीं है । वृत्ति-ज्ञान उत्पन्न होता है, नष्ट होता है परंतु शुद्ध ज्ञान जो है – आत्मा, वह ज्यों का त्यों रहता है । इतना सरल है !

आत्मसाक्षात्कार 2 प्रकार से

सम समुच्चय और क्रम समुच्चय… क्रम से अंतःकरण की शुद्धि, यह-वह आदि साधन करके आत्मसाक्षात्कार यह क्रम समुच्चय है और कोई तत्त्वज्ञानी महापुरुष मिल गये, उनके सत्संग-सान्निध्य में आते-आते सब साधनों का अभ्यास एक साथ करते हुए आत्मसाक्षात्कार को उपलब्ध हो जाना – यह सम समुच्चय है । ऐसा शास्त्रों में और कुछ दृष्टांत भी है । अष्टावक्र जी को, वामदेव जी को माता के गर्भ में आत्मानुभव हो गया था लेकिन पूर्वजन्म में न जाने कितना साधन किया था !

परमात्मप्राप्ति के 3 मार्ग

परमात्मप्राप्ति के 3 मार्ग बताये गये हैं- भक्ति मार्ग, योग मार्ग और ज्ञान मार्ग ।

  1. भक्ति मार्गः यह मार्ग सुरक्षित तो है पर बहुत लम्बा है ।
  2. योग मार्गः इसमें विभूतियाँ आती हैं, सत्यसंकल्प-सामर्थ्य आता है, शक्तियाँ आती हैं । इनसे व्यक्ति की वाहवाही होती है, फिर वह उसी वाहवाही में खप जाता है, कच्चा रह जाता है ।
  3. ज्ञान मार्गः व्यक्ति अगर संयमी है, उसमें वैराग्य है और सद्गुरु की आज्ञा में चलता है तो ज्ञान मार्ग एकदम विहंगम मार्ग है ।

भक्ति मार्ग – जैसे चींटी है तो एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर जाने के लिए पहले पेड़ से कब उतरेगी, कब दूसरे पेड़ पर पहुँचेगी ! योगमार्ग है बंदर की नाईं छलाँग मार दी । पर ज्ञान मार्ग है गरुड़ की नाईं, बस !

ज्ञान मार्ग में सावधानी

जितना तीव्र साधन है उतनी सावधानी की जरूरत है । चलते-चलते गिर गये तो ज्यादा चोट और मोटरसाइकिल से गिरे तो और ज्यादा एवं हवाई जहाज से गिरे तो हड्डियाँ भी खोजना मुश्किल हो जायेगा ।

तो ऐसा है ज्ञान मार्ग ! इसमें बड़ी सावधानी रखनी पड़ती है । संयम, नियम, सद्गुरु की देखरेख जरूरी है, नहीं तो मन वासना की ढाल बनाकर बोलेगा कि ‘सब ब्रह्म है, सब परमात्मा है तो जरा सुलफा फूँक लिया तो क्या है, जरा तम्बाकू खा लिया तो क्या है !’ ऐसा करते-करते घर का रहा न घाट का…

कुछ श्रद्धा कुछ दुष्टता, कुछ संशय कुछ ज्ञान ।

घर का रहा न घाट का, ज्यों धोबी का श्वान ।।

आत्मसाक्षात्कार के पूर्व तीन सोपान

अब प्रश्न उठता है कि आत्मसाक्षात्कार कैसे करें ?

इसके पूर्व तीन सोपान हैं, श्रवण, मनन और निदिध्यासन ।

ब्रह्मवेत्ता संतों का उपदेश सुनना श्रवण हैं । यह आत्मसाक्षात्कार का प्रथम सोपान है । शास्त्रों तथा ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों के सत्संग के साहित्य का पठन भी एक प्रकार से श्रवण ही है । पठन एवं श्रवण किये हुए सत्संग का नित्य मनन करते रहना यह द्वितीय सोपान है । ब्रह्ममुहूर्त में उठकर, एकांत में बैठ के ब्रह्मज्ञानी गुरु के द्वारा निर्दिष्ट युक्तियों से ब्रह्मज्ञान के उपदेश का निरंतर मनन करते रहना चाहिए । मनन के सतत अभ्यास से साधक तीसरे सोपान निदिध्यासन में पहुँच जाता है ।

इन तीनों सोपानों के पथप्रदर्शक भगवत्प्राप्त ज्ञानी महापुरुष की शरण ले लें तो मार्ग एकदम सरल हो जाता है । आत्मसाक्षात्कार की गुरुचाबी (Master Key) केवल ब्रह्मज्ञानी गुरु के पास होती है  ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 12-14 अंक 345

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लग जाओ बस ! अपने-आप सब सरल हो जाता है – पूज्य बापू जी


लोग बोलते हैं कि ‘आत्मसाक्षात्कार का कोई सरल उपाय बताइये, सरल उपाय बताइये ।’ तो आत्मसाक्षात्कार करके बाद में क्या चाय पीने जाना है, देर होती है क्या ? ‘जल्दी है और सरल उपाय बता दो ।’ तो कोई रेलगाड़ी पकड़नी है क्या ? हजारों जन्मों की यात्रा, हजारों जन्मों कर्मों-बन्धनों का अन्त करके परमात्मा को पाना है… उसमें सरल-सरल… जल्दबाजी नहीं… प्रीति करो, तड़प बढ़ाओ । भई, शुरु-शुरु में बच्चा कहे कि ”पढ़ने का सरल उपाय बता दो ।″ तो उसको A, B, C, D  सिखायें । बोलेः ″नहीं, नहीं… सरल बता दो ।″ ‘1,2…’ लिख के बतायें । बोलेः ″नहीं, यह नहीं, सरल बता दो ।″ तो क्या खाक पढ़ेगा ! जो बताया है वह करेगा तभी पढ़ेगा और तभी सब सरल होगा ।

‘क, ख, ग….’ बताया तो बोलेः ″यह तो कठिन है, सरल बता दो ।″ तो कोई नयी वर्णमाला खोजनी पड़ेगी, नये आँकड़े बनाने पड़ेंगे… फिर वह भी उसे कठिन लगेगा । जब नया-नया होता है तो सरल भी कठिन लगता है और अभ्यास बढ़ जाता है तो कठिन ‘कठिन’ नहीं रहता, सब सरल हो जाता है । ईश्वरप्राप्ति का कोई सरल मार्ग बता दो ।’ तो कोई नया कल्पित मार्ग सरल नहीं होता, जो मार्ग है सो है । जिस मार्ग से कइयों को मिला है, मिल रहा है और मिलता रहेगा वह ही मार्ग सरल है ।

एक लड़का था, उसका नाम था शेरसिंह ।

किसी ने बोलाः ″अरे, तेरा शेरसिंह नाम है ?″

बोलाः ″हाँ, मैं शेरसिंह हूँ ।″

″शेरसिंह है तो शेर को तो पूँछ होती है, तेरे को पूँछ कहाँ है ? तेरे को पूँछ नहीं तो कम-से-कम अपने हाथ पर ही शेर छपवा के आ जा, गोदना गुदवा कर के आ जा ।″

वह गोदना गोदने वाले के पास गया । गोदने वाले ने ज्यों ही मशीन उठायी और सुई गड़ायी, त्यों ही ‘एं-एं-एं !’ करते हुए बोलाः ″क्या कर रहे हो ?″

″शेर की पूँछ बना रहा हूँ ।″

″बिना पूँछ का शेर बना दो । पूँछ की क्या जरूरत है ? शेर की पूँछ तो पतली होती है, नहीं के बराबर… नहीं रहेगी तो क्या फर्क पड़ता है ?″

उसने फिर दूसरी जगह पर सूई रखी । तो वह लड़का फिर बोलाः ″अरे ! क्या कर रहे हो… क्या कर रहे हो… ?″

″शेर की कमर बना रहा हूँ ।″

″शेर की तो पतली कमर होती है, नहीं के बराबर । जब पूँछ नहीं है तो कमर की क्या जरूरत है ? आप केवल शेर ही छाप दो ।″ फिर दूसरी जगह पर गोल बनाने जा रहा था तो लड़का बोलाः ″क्या कर रहे हो….?″

″शेर का मुख तो बनाने दे !″

″जब पूँछ नहीं, कमर नहीं तो मुख बनाने की क्या जरूरत है ? ऐसे ही शेर छाप दो ।″

गोदने वाले ने अपना औजार रख दिया और (थोड़ी दूर खड़े युवक की ओर इशारा करते हुए) बोलाः ″जा ! तू उसके जैसा है । उस युवक को किसी ने पूछा थाः ″ऐं ! क्या नाम है ?″

बोलाः ″शेरसिंह ।″

″कहाँ रहता है ?″

″शेरोंवाली गली में ।″

″तेरे बाप का नाम क्या है ?″

″शमशेर सिंह ।″

″तो इधर क्यों खड़ा है ?″

बोलाः ″कुत्ता खड़ा है, डर लग रहा है ।″

″नाम शेरसिंह, बाप शेरसिंह, रहता शेरों वाली गली में है और कुत्ते का पिल्ला खड़ा है उससे डर रहा है । तो काहे का तू शेरसिंह हुआ ?″

ऐसे ही तू शेर का गोदना गुदवा नहीं सकता तो बड़ा आया शेरसिंह !″

वैसे ही जो बोलता है कि ‘सरल उपाय बता दो’, तो तू भक्त काहे का ! मीरा कैसे लग गयी ! शांडिली कैसे लग गयी ! बालक ध्रुव, प्रह्लाद कैसे लग गये ! एकनाथ जी, मिलारेपा, वीर शिवाजी, साँईं श्रीलीलाशाह जी महाराज कैसे लग गये और हम कैसे लग गये और पा लिया ! तो आप भी लग जाओ ! ‘सरल उपाय बताओ, सरल उपाय बताओ…’ जो ऐसा पूछता है समझो वह आत्मसाक्षात्कार करना ही नहीं चाहता ।

विद्यालय में लड़का गया, बोलाः ″सरल उपाय बताओ ।″

बोलेः ″भर्ती हो जाओ और अभ्यास करो ।″

बोलाः ″नहीं, नहीं… सरल उपाय बता दो ।″

दूसरे विद्यालय में जाय, तीसरे विद्यालय में जाय… तो कौन-से सरल उपाय के विद्यालय में भर्ती होएगा ? पढ़ नहीं पायेगा । लग जाओ बस ! अपने-आप सब सरल होता जायेगा । टॉर्च का प्रकाश 10 मीटर तक जाता है तो डरो मत ! चलो, 10 मीटर तो क्या 10 किलोमीटर भी चल जाओगे । ऐसे ही साधन करते-करते अपने-आप रस आता है, अपने-आप सब सरल होता जाता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 345

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गुरुकृपा से स्वराज्य प्राप्ति – श्रीमद् आद्य शंकराचार्य जी


मैं सबका आत्मा, सर्वरूप, सबसे परे और अद्वितीय हूँ तथा केवल अखंड ज्ञानस्वरूप और निरंतर आनंदरूप हूँ । हे गुरो ! आपकी कृपा और महिमा के प्रसाद से मुझे यह स्वराज्य-साम्राज्य की विभूति प्राप्त हुई है । आप महात्मा को मेरा बारम्बार नमस्कार हो ।

मैं माया से प्रतीत होने वाले जन्म, जरा और मृत्यु के कारण अत्यंत भयानक महास्वपन में भटकता हुआ दिन-दिन नाना प्रकार के तापों से संतप्त हो रहा था, हे गुरो ! अहंकाररूपी व्याघ्र से अत्यंत व्यथित मुझ दीन को निद्रा से जगाकर आपने मेरी बहुत बड़ी रक्षा की है ।

(विवेक चूड़ामणिः 517-519)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 5, अंक 345

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