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…तो परमात्मा स्वयं बेपरदा होने को राजी हो जाते हैं – पूज्य बापू जी


यह पक्का कर लें कि हमारे पास जो कुछ योग्यता है वह किसी की दी हुई है, आपकी अपनी नहीं है । प्रकृति के द्वारा आयी है, परमात्मा के द्वारा आयी है, वातावरण के द्वारा आयी है । आपकी जो योग्यता है वह किसी की दी हुई है और किसी के लिए दी हुई है । वह ईश्वर की प्रसन्नतार्थ संसार की सेवा में लगाने के लिए दी हुई है । जब ईश्वर की दी हुई चीज अपने मानकर लगाते हो तो फिर नश्वर चीजें मिलती हैं । योग्यता को अपनी मान कर उसको अच्छे कामों में लगाते हो तो कई गुना हो के ऐहिक नश्वर चीजें मिलती हैं लेकिन ईश्वर की मान के, ईश्वर की समझ के ईश्वर की प्रसन्नता के लिए लगाते हैं तो ईश्वर स्वयं मिलता है । आप बेपरदे हो जाते हैं । आप निर्दुःख, निर्द्वन्द्व हो जाते हैं, निरहंकारी हो जाते हैं । जब आप किसी वस्तु का, किसी योग्यता का अहं करते हैं तो ईश्वर भीतर देखता है और ईश्वर की जो पराशक्ति है वह आपको दबाती है, थप्पड़ मारती है । जैसे पतिव्रता स्त्री का पुत्र अगर अपने पिता का अपमान करता है तो माँ उसको सबक सिखाती है, दंडित करती है । ऐसे ही मिली हुई योग्यताएँ पारमात्मिक योग्यताएँ हैं, परमात्मा की ओर से मिली हैं, जब जीव उनको अपनी मानता है तो प्रकृति उसको थप्पड़ मारती है, दबाती है किंतु मिली हुई योग्यता देने वाले की मानकर जीव उसकी प्रसन्नता के लिए उसका सदुपयोग करता है तो प्रकृति माता भी प्रसन्न होती है और परमात्मा स्वयं बेपरदा होने को राजी हो जाते हैं । संत कबीर जी ने कहाः

मेरो चिंत्यो होत नहिं, हरि को चिंत्यो होत ।

हरि को चिंत्यो हरि करे, मैं रहूँ निश्चिंत ।।

गुरु नानक जी ने कहा हैः

जो तुधु भावै साईं भली कार ।

तू सदा सलामति निरंकार ।।

(हे निराकार परमात्मा ! जो तुझे अच्छा लगे वही श्रेष्ठ है और वही हो । तू सदा शाश्वत है ।)

संत तुलसीदास जी ने रामायण में भगवान शिवजी से कहलवायाः

उमा दारु जोषित की नाईं । सबहि नचावत रामु गोसाईं ।।

‘हे उमा ! (सर्वव्यापक, रोम-रोम में रमने वाले) स्वामी श्रीराम सबको कठपुतली की तरह नचाते हैं ।’

भगवान श्रीकृष्ण ने कहाः

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।

अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ।।

‘कर्म सब प्रकार प्रकृति के गुणों द्वारा किये जा रहे हैं किंतु अहंकार से जिसका अंतःकरण अत्यंत मूढ़ है वह ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसा मानता है ।’ (गीताः 3.27)

ये गुण और कर्म सब प्रकृति में हो रहे हैं परंतु अहंकार से जो विमूढ़ हो गया, ठीक ढंग से बेवकूफ हो गया है वह बोलता हैः ‘मैंने किया, मैंने किया, मैंने किया… ।’ क्या अन्न पचाना तेरे हाथ की बात है ? क्या बालों को उगाना तेरी मेहनत है ? क्या श्वास चलाने का काम तूने किया ? क्या सब्जी और रोटी में रक्त, मन और बुद्धि बनाना तेरी प्रक्रिया है ? क्या किशोर में युवान तूने बनाया ? यह प्रकृति की और परमात्मा की लीला से हो रहा है । जन्म लेना तेरे हाथ की बात नहीं, मर जाना तेरे हाथ की बात नहीं, अमर रहना तेरे हाथ की बात नहीं । जब मुख्य काम उसके हाथ में हैं तो छोटे-छोटे काम अपने अहं के सिर पर रखकर क्यों बोझीला बनना ?

ॐ ॐ शांति… ॐ ॐ प्रभु जी ! ॐ ॐ प्यारे जी ! ॐ ॐ मेरे जी ! ॐ ॐ मधुर शांति… हरि शरणम्…. हरि शरणम्… हरि शरणम्… ॐ शांति शांति शांति… कुछ समय मधुमय शांति में, माधुर्य में मस्त…. ॐ शांति…

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 21 अंक 345

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ऐसा चिंतन करे बुद्धि का विकास ! – पूज्य बापू जी


अपने मन पर लगाम तो होनी चाहिए न ! गाड़ी कितनी भी अच्छी हो परंतु उसमें यदि ब्रेक और स्टीयरिंग नहीं है तो वह गिरा देगी तुम्हारे को । अतः संयम भी होना चाहिए ।

सुबह नींद में से उठे तो थोड़ी देर चुप बैठे । फिर ऐसा चिंतन करें – आज मैं कभी भी फरियाद का चिंतन नहीं करूँगा, अपने मन को दृढ़ रखूँगा क्योंकि मेरे मन की गहराई में मेरे भगवान हैं । भगवान सदा एकरस हैं, दृढ़ हैं तो मन दृढ़ होगा तो उसमें भगवान की सत्ता आयेगी । मेरी बुद्धि को दृढ़ करूँगा, बुरी संगति नहीं करूँगा, बुरे विचारों में नहीं गिरूँगा । मैं भगवान का हूँ, भगवान मेरे हैं । प्रभु ! आप मेरे हैं न ! आप चेतनास्वरूप हैं, ज्ञानस्वरूप हैं, आनंदस्वरूप हैं, आप शांत आत्मा हैं ।’ इस प्रकार का चिंतन करने से बुद्धि बढ़ेगी । ‘क्या करूँ, कैसे करूँ, मेरा ऐसा हो गया है ….।’ ऐसी चिंता करेगा तो बुद्धिनाश होगा ।… फिर जो पढ़ा है अथवा जो पढ़ना है उसका थोड़ा चिंतन करो । चिंतन से बुद्धि का विकास होता है और चिंता से बुद्धि का विनाश होता है । सूर्यनारायण को अर्घ्य देना, भगवन्नाम का जप करना, भगवान को एकटक देखते-देखते फिर उनको आज्ञाचक्र में देखना । इससे बुद्धि का विकास होता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 19 अंक 345

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सेवा खोल देती है सफलता का राजमार्ग – पूज्य बापू जी


वे ही लोग संसार में विफल होते हैं जो ज्यादा स्वार्थी होते हैं, जिन्होंने दूसरों की भलाई की नहीं । ऐसा नहीं कि डिग्री नहीं है तो विफल हैं । डिग्री के अभाव का विफलता से कोई लेना-देना नहीं । आप तन से, मन से, मति से अगर दूसरे के कष्ट निवारण में लगते हैं, दूसरे के काम आने में लगते हैं तो डिग्री न होने पर भी विफल होने का सवाल ही नहीं है । अगर अक्ल, होशियारी से, डिग्री से दूसरे का शोषण करके सुखी होना चाहते हैं तो डिग्री होने पर भी विफल होना स्वाभाविक है । प्रकृति का नियम है – जो देता है वह पाता है । जो अपने लिए ही सोचता है वह सब खोता है । ये फूल सुगंधित और पीले-पीले क्यों हैं ? कि पीला रंग इन्होंने लौटाया है, दिया है तो पीला ही रंग इनके पास रह गया ।

गुलाब गुलाबी क्यों है ? कि सप्तरंगों में से गुलाबी रंग परावर्तित किया है, जो दिया है तो गुलाबी उसके पास रह गया । आप जो देते हैं वही आपके पास रह जाता है और जो रखते हैं वह व्यर्थ हो जाता है । डॉक्टर की डॉक्टरी को धिक्कार है अगर मरीजों की सेवा में नहीं लगती है । मास्टर की मास्टरी को धिक्कार है अगर विद्यार्थियों की पढ़ाई में ईमानदारी से नहीं लगती है । इंजीनियर की इंजीनियरिंग को धिक्कार है अगर लोगों के काम नहीं आती । आपके पास जो योग्यता है वह आपने अकेले ने ही नहीं बनायी है । आपके विद्वान होने में कॉपी, पेन, मेज बनाने वाले और विद्यालय की इमारत बनाने वाले का भी सहयोग है । कइयों के सहयोग से आप स्नातक हुए हैं या पढ़े-लिखे हैं । जो भी आपके पास सूझबूझ है उसमें कइयों का योगदान है तो यदि आपकी सूझबूझ और योग्यता कइयों के काम नहीं आती तो उस सूझबूझ व योग्यता को धिक्कार है ! धिक्कार है !!

जो विफल होते हैं वे सेवा खोज लें । विफलता को भगाना है तो परहित का काम करो, सेवा में लग जाओ । सेवा से ही सेवा फलेगी । बिना सेवा के किसी का विकास हुआ हो ऐसा आज तक हमने देखा-सुना नहीं । जिसको भी सफल होना हो वह उसके पास जो योग्यता है उसे दूसरों के काम में लगा दे और उसका ढिंढोरा न पीटे । ‘मैंने यह सेवा की… मैंने दो अनुष्ठान किये, मैंने फलाना किया….।’ ऐसी रट न लगाये । जो भी करते हो ईश्वर की प्रसन्नता के लिए करो, अंतर्यामी परमात्मा देख रहा है ।

नेकी कर कुएँ में डाल ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 17 अंक 345 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ