Yearly Archives: 2021

श्राद्धकर्म व उसके पीछे के सूक्ष्म रहस्य – पूज्य बापूजी


जिन पूर्वजों ने हमें अपना सर्वस्व देकर विदाई ली, उनकी सद्गति हो ऐसा सत्सुमिरन करने का अवसर यानी ‘श्राद्धपक्ष’ ।

श्राद्ध पक्ष का लम्बा पर्व मनुष्य को याद दिलाता है कि ‘यहाँ चाहे जितनी विजय प्राप्त हो, प्रसिद्धि प्राप्त हो परंतु परदादा के दादा, दादा के दादा, उनके दादा चल बसे, अपने दादा भी चल बसे और अपने पिता जी भी गये या जाने की तैयारी में  हैं तो हमें भी जाना है ।’

श्राद्ध हेतु आवश्यक बातें

जिनका श्राद्ध करना है, सुबह उनका मानसिक आवाहन करना चाहिए । और जिस ब्राह्मण को श्राद्ध का भोजन कराना है उसको एक दिन पहले न्योता दे आना चाहिए ताकि वह श्राद्ध के पूर्व दिन संयम से रहे, पति-पत्नी के विकारी व्यवहार से अपने को बचा ले । फिर श्राद्ध का भोजन खिलाते समय-

देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च ।

नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव नमो नमः ।। (अग्नि पुराणः 117.22)

यह श्लोक बोलकर देवताओं को, पितरों को, महायोगियों को तथा स्वधा और स्वाहा देवियों को नमस्कार किया जाता है और प्रार्थना की जाती है कि ‘मेरे पिता को, माता को…. (जिनका भी श्राद्ध करते हैं उनको) मेरे श्राद्ध का सत्त्व पहुँचे, वे सुखी व प्रसन्न रहें ।’

श्राद्ध के निमित्त गीता के 7वें अध्याय का माहात्म्य  पढ़कर पाठ कर लें और उसका पुण्य जिनका श्राद्ध करते हैं उनको अर्पण कर दें, इससे भी श्राद्धकर्म सुखदायी और साफल्यदायी होता है ।

श्राद्ध करने से क्या लाभ होता है ?

आप श्राद्ध करते हो तो-

  1. आपको भी पक्का होता है कि ‘हम मरेंगे तब हमारा भी कोई श्राद्ध करेगा परंतु हम वास्तव में मरते नहीं, हमारा शरीर छूटता है ।’ तो आत्मा की अमरता का, शरीर के मरने के बाद भी हमारा अस्तित्व रहता है इसका आपको पुष्टीकरण होता है ।
  2. देवताओं, पितरों, योगियों और स्वधा-स्वाहा देवियों के लिए सद्भाव होता है ।
  3. भगवद्गीता का माहात्म्य पढ़ते हैं, जिससे पता चलता है कि पुत्रों द्वारा पिता के लिए किया हुआ सत्कर्म पिता की उन्नति करता है और पिता की शुभकामना से पुत्र-परिवार में अच्छी आत्माएँ आती हैं ।

ब्रह्मा जी ने सृष्टि करने के बाद देखा कि ‘जीव को सुख-सुविधाएँ दीं फिर भी वह दुःखी है’ तो उन्होंने यह विधान किया कि एक-दूसरे का पोषण करो । आप देवताओं-पितरों का पोषण करो, देवता-पितर आपका पोषण करेंगे । आप सूर्य को अर्घ्य देते हैं, आपके अर्घ्य के सद्भाव से सूर्यदेव पुष्ट होते हैं और यह पुष्टि विरोधियों, असुरों के आगे सूर्य को विजेता बनाती है । जैसे राम जी को विजेता बनाने में बंदर, गिलहरी भी काम आये ऐसे ही सूर्य को अर्घ्य देते हैं तो सूर्य विजयपूर्वक अपना दैवी कार्य करते हैं, आप पर प्रसन्न होते हैं और अपनी तरफ से आपको भी पुष्ट करते हैं ।

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयतन्तु वः ।

परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ।।

‘तुम इस यज्ञ  (ईश्वरप्राप्ति के लिए किये जाने वाले कर्मों) के द्वारा देवताओं को तृप्त करो और (उनसे तृप्त हुए ) वे देवगण तुम्हें तृप्त करें । इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से एक-दूसरे को तृप्त या उन्नत करते हुए तुम परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे ।’ (गीताः 3.11)

देवताओं का हम पोषण करें तो वे सबल होते हैं और सबल देवता वर्षा करने, प्रेरणा देने, हमारी इन्द्रियों को पुष्ट करने में लगते हैं । इससे सबका मंगल होता है ।

(श्राद्ध से सम्बंधित विस्तृत जानकारी हेतु पढ़ें आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘श्राद्ध-महिमा )

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 32,33 अंक 345

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

दो प्रकार का शासन – पूज्य बापू जी


संयम या शासन दो तरह का होता हैः

  1. दूसरों पर शासन करना ।
  2. अपने पर शासन करना ।

दूसरों पर शासन करके शोषण करना यह अहंकारी राजाओं और नेताओं का काम है, यह स्वार्थपूर्ण होने से सद्गति नहीं देता । लेकिन दूसरों को भय से बचाकर उनकी भलाई चाहना, दूसरों के दोष मिटाने के लिए उन पर शासन करना, जैसे माँ, गुरु, भगवान करते हैं – यह उत्तम व सात्त्विक शासन है । और अपनी मन-इन्द्रियों पर शासन करके विकारों से बचना यह उत्तम शासन है ।

दूसरों पर सात्त्विक शासन करना और ‘स्व’ पर स्वाभाविक शासन होना – ये दोनों सद्गुण भगवान और भगवान को पाये हुए महापुरुषों से स्वतः सिद्ध होते हैं, साधकों को इनका यत्न करना पड़ता है । और मूर्ख लोग शासनहीन होने से नीच गतियों में, पशु-योनियों में परेशान होते हैं । तो अच्छी बातों को स्वीकार कर लो, बुरी बातों से बचने के लिए अपने मन व इन्द्रियों पर थोड़ा शासन करो और शासन करने में भगवान व भगवत्प्राप्त महापुरुषों का आश्रय और प्राणायाम – दोनों मदद करेंगे ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 29 अंक 345

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

ज्ञानी का कर्तव्य नहीं स्वनिर्मित विनोद होता है – पूज्य बापू जी


एक श्रद्धालु माई मिठाई बना के लायी और मेरे को दे के बोलीः ″कुछ भी करके साँईं (पूज्य बापू जी के सद्गुरुदेव साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज) खायें ऐसा करो, हमारी मिठाई पहुँचती नहीं वहाँ ।″

मैंने ले ली । डीसा में साँईं आये थे । सुबह-सुबह सत्संग  हुआ तो कुछ गिने-गिनाये साधकों के बीच था । तो साँईं ने पूछाः ″क्या हुआ ?″

मैंने उसकी मिठाई और प्रार्थना श्रीचरणों में निवेदित की ।

साँईं बोलेः ″अब ले आओ भाई ! जो भाग्य है, भोग के छूटेंगे और क्या है ! लाओ, थोड़ा खा लें ।″

अब खा रहे हैं, ‘बढ़िया है ।’ बोल भी रहे हैं लेकिन कोई वासना नहीं है । खा रहे हैं परेच्छा-प्रारब्ध से (परेच्छा = पर इच्छा, दूसरों की इच्छा), मिल लिया परेच्छा से । अपने जो भी सत्संग-कार्यक्रम होते हैं, मैं उनके बारे में खोज-खोज के थक जाता हूँ कि ‘मेरी इच्छा से तो कोई कार्यक्रम तो नहीं कर रहा हूँ ?’  नहीं, लोग आते हैं – जाते हैं, उनकी बहुत इच्छा होती है तब परेच्छा-प्रारब्ध से कार्यक्रम दिये जाते हैं । आज तक के सभी कार्यक्रमों पर दृष्टि डाल के देख लो, कोई भी कार्यक्रम मैंने अपनी इच्छा से दिया हो तो बताओ । विद्यार्थियों के लिए होता है कि चलो, सुसंस्कार बँट जायें’ वह भी इसलिए कि उनकी इच्छाएँ होती हैं, उनके संकल्प होते हैं । या जो ध्यानयोग शिविर देता हूँ और मेरी सहमति होती है तो शिविर के लोगों की भी पात्रता होती है, उनका पुण्य मेरे द्वारा यह करवा लेता है । मैं ऐसा नहीं सोचता कि ‘चलो, शिविर करें, लोग आ जायें, अपने को कुछ मिल जाये, अपना यह हो जाय… या ‘चलो, सारा संसार पच रहा है, इस बहाने लोगों को थोड़ा बाहर निकालें ।’ ऐसा नहीं होता मेरे को ।

संत लोग कहते हैं कि ‘लोकोपकार, लोक-संग्रह यह ज्ञानी (आत्मज्ञानी) का कर्तव्य नहीं है, स्वनिर्मित विनोद है ।’ ऐसा नहीं कि संतों का कर्तव्य है कि समाज को ऊपर उठायें । कर्तव्य तो उसका है जिसको कुछ वासना है, कुछ पाना है । जो अपने-आप में तृप्त है उनका कोई कर्तव्य नहीं है । शुद्ध ज्ञान नहीं हुआ तब तक कर्तव्य है । जब तक शुद्ध ज्ञान नहीं हुआ, अपने ‘मैं’ का ज्ञान नहीं हुआ, तब तक वह अज्ञानी माना जाता है । तो

जा लगी माने कर्तव्यता ता लगी है अज्ञान ।

जब तक कर्तव्यता दिखती है तब तक अज्ञान मौजूद है, ईश्वर के तात्त्विक स्वरूप का ज्ञान (निर्विशेष ज्ञान) नहीं हुआ । ईश्वर का दर्शन भी हो जाय तब भी यदि निर्विशेष ज्ञान नहीं हुआ तो कर्तव्य मौजूद रहेगा । ईश्वर के दर्शन – कृष्ण जी, राम जी, शिवजी के दर्शन के बाद भी निर्विशेष शुद्ध ज्ञान – तत्त्व ज्ञान की प्राप्ति की जरूरत पड़ती है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 25 अंक 345

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ