जो गुरुमुखी जीवन जीते हैं, ब्रह्मवेत्ता संत-सद्गुरु के सिद्धान्त के अनुकूल
अपना जीवन बनाते हैं, उनकी आज्ञा में चलते हैं उनको गुरुमुखता का क्या फल मिलता है
और जो संत-सद्गुरु से विमुख व मनमुख हो के जीते हैं उनकी क्या गति होती है, जानते
हैं इतिहास के कुछ दृष्टान्तों से ।
गुरुमुखता का फल
बन गये भगवान के गुरु
सांदीपनि तीव्र बुद्धदिवाले विद्यार्थी नहीं थे पर गुरुआज्ञा-पालन में उनकी
बड़ी निष्ठा थी । एक बार उन्हें गुरुदेव की आज्ञा हुई कि ‘गुरुपुत्र को
कुएँ में फेंक दो… ।’ सांदीपनी ने तत्क्षण पालन किया । अन्य शिष्यों ने
गुरुपुत्र को बाहर निकाला और सांदीपनी की खूब पिटाई की, धिक्कारा कि ‘हत्यारा है ! गुरुद्रोही
है… !’
कुछ दिनों बाद गुरुदेव ने कहाः ″बेटे ! जल्दी कर, मेरी झोंपड़ी में आग लगा दे ।″ तो सांदीपनी ने तत्क्षण लगा दी आग । शिष्यगण आये, आग
बुझायी और सांदीपनी को मारने और ताड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी ।
गुरुजी ने जब देहत्याग का निश्चय किया तब शिष्यों को
अलग-अलग वस्तुएँ स्मृतिचिह्न के रूप में दीं । गुरुदेव ने सांदीपनी से पूछाः ″तूने दास होकर मेरी सेवा की है, मैं तुझे क्या दूँ ? जा, विश्व का स्वामी तेरा दास बनेगा ।″
भगवान श्रीकृष्ण उन्हीं सांदीपनी के शिष्य हुए ।
पूरा किया अधूरा ग्रंथ
संत एकनाथ जी के आश्रम में गावबा नामक एक भक्त था ।
पूरणपूड़ी खाने का वह ऐसा तो शौकीन था कि उसका नाम ही ‘पूरणपोड़ा’ पड़ गया । एक दिन एकनाथ जी
ने उसे मंत्रदीक्षा देने हेतु बुलाया तो पता चला कि वह पहले से ही जप करता है ।
एकनाथ जी ने पूछा कि ″क्या जप करते हो ?″ तो उसने बड़ी निर्दोषता से
कहाः ″मैं एक ही जप करता हूँ – नाथ केवल एक है, एकनाथ सत्य है ।
नाथ केवल एक है…. ।″
एकनाथ जी ने देखा कि इसकी तो रग-रग में एकनिष्ठा, गुरुभक्ति
समायी हुई है । उनका हृदय छलक पड़ा । पूरणपोड़ा गुरुदेव को रिझाने में, गुरुकृपा
को पचाने में सफल हो गया । एकनाथ जी की महासमाधि के बाद उनका अधूरा ग्रंथ ‘भावार्थ रामायण’ जिसे उनका पुत्र
हरि पंडित पूरा नहीं कर पाया उसे इन्हीं एकनिष्ठ गुरुभक्त ने पूरा किया ।
गुरु
रीझे, हुआ आत्मसाक्षात्कार
गुजरात
में रामू नामक गुरुभक्त हो गये । एक बार गुरु जी ने उन्हें कहा कि ″भोजन का आमंत्रण है,
घोड़ागाड़ी ले आओ । तो वे घोड़ागाड़ी ले आये । गुरु ने अलग-अलग कारणों से फटकारते
हुए 10 बार तांगा मँगाया और लोटाया पर
रामू के हृदय में फरियाद नहीं हुई । आखिर गुरु शिष्य आमंत्रण पर गये ।
लौटते
समय गुरुजी ने तांगेवाले से ताँगा खरीद लिया व उसकी जगह रामू को बैठा दिया । गाड़ी
तप गयी तो गुरु जी बोले कि ″इसे
बुखार हो गया है ।″ रामू ने पानी छिड़का तो बोले कि ″गाड़ी मर गयी, इसकी अत्येष्टि करो ।″ रामू ने गाड़ी
जलाकर उसका क्रियाकर्म किया ।
गुरुजी रामू को पैदल काशी विश्वनाथ जी के दर्शन करने के लिए
बोले । रामू यात्रा कर आये तो गुरुजी ने गंगा-स्नान व मठ-मंदिरों के बारे में पूछा
तो रामू ने कहाः ″मैं तो केवल गुरुआज्ञा पालन करके आया हूँ, मेरे लिए गुरुवचन
ही गंगा है और गुरुशरण ही मठ-मंदिर है ।″
गुरुजी रीझ गये, बोलेः ″तेरा काम हो गया । तू मैं है, मैं तू हूँ….″ रामू को
आत्मसाक्षात्कार हो गया ।
एकनिष्ठ गुरुभक्त हुई ब्रह्मवेत्ता
शिष्य के लिए सद्गुरु परमात्मा से भी बढ़कर होते हैं
क्योंकि उनकी कृपा व मार्गदर्शन के बिना वह परमात्मप्राप्ति कर ही नहीं सकता । ऐसी
ही सद्गुरु-निष्ठा का ज्वलंत उदाहरण थीं संत चरणदास जी की सत्शिष्या सहजोभाई । वे
कहती हैं-
राम तजूँ पै गुरु न बिसारूँ ।
गुरु के सम हरि कूँ न निहारूँ ।।
हरि ने जन्म दियो जग माहीं ।
गुरु ने आवागवन छुटाहीं ।।…
चरनदास पर तन मन वारूँ ।
गुरु न तजूँ हरि कूँ तजि डारूँ ।।
ऐसी ब्रह्मनिष्ठा के कारण वे ब्रह्मवेत्ता हो गयीं ।
इसी प्रकार ब्रह्मा जी के पुत्र अथर्वा, बृहस्पति जी के
पुत्र कच जैसे अनेक गुरुमुखी परमात्मज्ञानरूपी महत् फल को उपलब्ध हो गये हैं ।
मनमुखता का फल
आमेर बना खँडहर
अकबर ने अपने नवरत्नों में एक मानसिंह को आमेर का राजा
बनाया था । उसी राज्य में महान संत दादू दयाल जी रहते थे । विरोधियों ने उन पर कई
लांछन लगाकर मानसिंह को भड़काया तो राजा ने खुद जाँच की पर दादू जी निर्दोष पाये
गये ।
मानसिंह ने संत-विरोधियों पर कोई कार्यवाही नहीं की, जिससे
वे सक्रिय ही रहे और फिर पनपे कि ‘राजा निष्पक्ष नहीं है ।’ यह खबर अकबर को प्रभावित न करे इसलिए मानसिंह ने दादू जी पर ही व्यंग्य कसा
कि ‘संत तो बहते पानी की तरह होते हैं !’ निर्दोष दादू जी शिष्यों के साथ निकल पड़े ।
ईश्वर को संत का अपमान कब मंजूर है ! राजा को प्रातः दुःस्वप्न हुआ कि उसका राज्य उजड़ गया है । अतः दादू जी को
खोजकर उसने उनसे क्षमायाचना की और पुनः राज्य लौटने की विनती की । दादू जी ने उसे
आश्वासन देकर लौटाया पर खुद नहीं लौटे । दादू जी की प्रार्थना पर आमेर कुछ वर्षों
तक सुरक्षित रहा, बाद में खँडहर हो गया ।
पति का शरीर छूटा, दूर हुए भगवान
राम जी को राज्य के बदले 14 वर्ष का वनवास मिले और भरत का
राज्य हो’ – यह वरदान माँगने वाली कैकेयी का भविष्य क्या
हुआ ? राम-वियोग में पति दशरथ जी चल बसे और पुत्र भरत
ने उस माँ का त्याग किया, कैकेयी नाम कलंकित हो गया । राम जी को इतना स्नेह करने
वाली कैकेयी में ऐसी कुटिल बुद्धि क्यों आयी ? क्योंकि उसने महर्षि वसिष्ठजी द्वारा श्री योगवासिष्ठ माध्यम से दिया गया ‘एको ब्रह्म द्वितियो नास्ति’ का मंत्र त्याग दिया और मंथरा का रिश्तेदारी
एवं धन, पद, सत्ता के स्वार्थ से सना द्वैतयुक्त मंत्र जी भर के जपा, उसका मनन भी
किया । परिणाम क्या हुआ सर्वविदित है – अद्वैतनिष्ठ सत्शिष्य राम जी का कुछ बिगड़ा
नहीं और द्वैत से कलंकित मंथरा व कैकेयी के जीवन में सुख-शांति बची नहीं ।
ब्रह्मजिज्ञासा बिना कात्यायनी संसारी ही रही
बृहदारण्यक उपनिषद् के मैत्रेयी ब्राह्मण में आता है कि
याज्ञवल्क्य ऋषि ब्रह्मवेत्ता थे जो वानप्रस्थ आश्रम में अपनी दो पत्नियों –
मैत्रेयी और कात्यायनी के साथ रहते थे ।
मैत्रेयी की ब्रह्मवेत्ता पति में सच्ची निष्ठा थी, वह धन व
मान-पूजा की भूखी नहीं थी जबकि कात्यायनी ब्रह्मवेत्ता भारद्वाज जी की पुत्री होकर
भी धन, सांसारिक साज-श्रृंगार आदि की भूखी थी ।
याज्ञवल्क्य जी ने जब संन्यास का संकल्प लिया और दोनों
पत्नियों को आधी-आधी सम्पत्ति देनी चाही तो कात्यायनी ने मौन स्वीकृति दी पर
मैत्रेयी ने पूछा कि ″क्या यह सम्पत्ति मुझे अमृतत्त्व प्राप्त करायेगी ?″
याज्ञवल्क्यजी बोलेः ″नहीं, तुम्हारा जीवन वैभवपूर्ण हो जायेगा ।″
मैत्रेयीः ″ऐसी वस्तु लेकर मैं क्या करूँगी ? आप सारी सम्पत्ति कात्यायनी को दे दीजिये और आपकी निजी सम्पत्ति ‘ज्ञान’ (ब्रह्मज्ञान)
मुझे दीजिये ।″
प्रसन्न होकर याज्ञवल्क्य जी ने मैत्रेयी को ब्रह्मविद्या
का दान दिया, जिससे उन्होंने शाश्वत साम्राज्य (ब्रह्मपद) पा लिया लेकिन
ब्रह्मजिज्ञासा के अभाव में कात्यायनी नश्वर धन से संतुष्ट हो याज्ञवल्क्य जी की
शाश्वत सम्पदा से वंचित ही रही ।
भूल गया सीखी हुई विद्या
महारथी कर्ण तो वीर योद्धा था पर वह अर्जुन से युद्ध में
मारा गया, क्यों ? क्योंकि उसने गुरु परशुराम जी के सामने स्वयं
को ब्राह्मण बताकर उनसे शिक्षा ग्रहण की थी पर जब परशुराम जी को यह पता चला तब
उन्होंने श्राप दिया, जिसके कारण जब कर्ण को सीखी हुई विद्या की सर्वाधिक आवश्यकता
थी तब वह उसे भूल गया और उसकी मृत्यु हुई । उसे गुरु से छल करने का फल मिला ।
कर्ण, रावण, हिरण्यकशिपु, भगवान श्रीकृष्ण के वंशज आदि की
तरह अपनी मनमुखता से सत्पुरुषों से धोखा करने वालों अथवा उनके प्रति नकारात्मक
सोचने या दोष-दर्शन करने वालों का अंत बहुत बुरा होता है, दयनीय अंत होता है ।
महर्षि वसिष्ठजी कहते हैं- ″हे राम जी ! चांडाल के घर की भिक्षा एक समय ठीकरे में मिलती
हो और आत्मज्ञानी का सत्संग मिलता हो तो वह अन्य ऐश्वर्यों से बहुत बड़ा है ।″
आत्मज्ञानात् परं ज्ञानं न विद्यते ।
आत्मज्ञान से बढ़कर कोई ज्ञान नहीं ।
आत्मसुखात् परं सुखं न विद्यते ।
आत्मसुख से बड़ा कोई सुख नहीं ।
आत्मलाभात् परं लाभं न विद्यते ।
आत्मलाभ से बड़ा कोई लाभ नहीं ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2021, पृष्ठ संख्या 6-8 अंक 346
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