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भारती देवी के पिता कौन?


कुछ साधक भाई ने भार+अति देवी के ऑफिशियल वेबसाइट देखने के बाद कुछ प्रश्न किए हैं कि

भार+अति देवी के गुरु कौन हैं?

भारती देवी उनके सत्संग कायर्क्रमों में लीलाशाहजी बापू के फोटो क्यों ?

भारती देवी के शिष्य उन्हें आत्मसाक्षात्कारी मानते हैं तो वे वास्तव में है कि नहीं और उन्हें  साक्षात्कार किस गुरू की कृपा से हुआ ? 

अगर किसी गुरु की कृपा के बिना हो गया तो उनके साक्षात्कार की सत्यता का प्रमाण

क्या?जो निगुरे स्वयं को ब्रह्मज्ञानी घोषित कर देते है वे प्रायः पाखंडी भ्रमज्ञानी ही होते है । 

भारती देवी के पिता जी कौन है यह सवाल भी उस साधक ने पूछा है । हालांकि भारती देवी के शिष्यों और अनुयायियों में ज्यादातर लोग तो पूज्य बापूजी के शिष्य ही है और वे तो जानते है कि उनके पिताजी संत आशारामजी बापू है पर जब वेब साईट पर कोई नए लोग उनका जीवन चरित्र पढेंगे तो उनको यह प्रश्न अवश्य  कि उनके माताजी का तो नाम है पर पिताजी का नाम नहीं है तो क्या उनका जन्म जैसे कुंती देवी ने कर्ण को दिया था वैसे हुआ होगा या जैसे सत्यकाम को जबाला ने जन्म दिया था वैसे हुआ होगा कि जबाला सत्यकाम के पिताजी का नाम जानती नहीं थी । इस तरह देवी के माताजी के चरित्र पर नए लोगों को संदेह अवश्य हो सकता है अतः प्रेत योनी से मुक्ति दिलाकर मनुष्य जन्म देनेवाले पिताश्री के प्रति कृतज्ञता  वयक्त करने के लिए उनका नाम न बताये तो यह उनके मर्जी की बात है पर उनकी और हम सबकी माताजी के चरित्र पर कोई संदेह न करे इसिलए भारती देवी को उनके पिताजी का नाम अपने परिचय में अवश्य डालना चाहिए। 

अगर बापूजी से वे अलग है तो उनके श्रोता और सेवक बापू जी के शिष्य ही क्यों ?

ऐसे कई सवाल जिनके जवाब इनकी संस्था की ओर से नहीं मिल पाते इसलिए हम गए इनके ऑफिशियल वेबसाइट पर( website screenshot) क्योंकि वे अगर स्वयं को संत मानते हैं तो हर संत की जीवनी में उनके माता पिता और गुरु का नाम जरूर होता है ।

कुछ अपवाद होते हैं यशू जैसे जिन्हे ईसाई लोग बताते हैं कि यीशु भगवान के बेटे है उनक माता मेरी जब कुंवारी थी तब वे पैदा हुए थे । तो इनकी वेबसाइट पर होम पेज और अन्य सभी सेक्शन छान डालें बारीकी से देख डाला किसी भी पेज उनके पिताजी का नाम कहीं भी नहीं मिला । क्या यीशु के भक्त उनको भगवान का बेटा सिद्ध करने के लिए उनके पिता का 

नाम नहीं बताते वैसा ही इनके भक्तो का प्रयास तो नहीं?  पशु पक्षी गाय कुत्तों सभी के साथ इनक फोटो है लेकिन बापू जी के साथ फोटो नहीं है। इससे दो संभावना लगती है या तो इनके वेबसाइट ऑपरट करने वाले को पता नहीं होगा परंतु अगर पता न हो तो इतने बड़े संत का परिचय देते समय उनको पूछना चाहिए कि उनके पिताजी कौन है?

तो यहां  दूसरी संभावना ही स्पष्ट होती है कि भरती देवी ने ही मना किया है क्योंकि इसके प्रमाण पहले से देत हैं कि हम अलग और बापू अलग। बापूजी की पहचान अपने नाम से छुपाते है(video)

वेबसाइट पर मैया जी तो है परंतु पिताजी नहीं है तो क्या प्रभु जी भगवान की बेटी है जैसे यशु है ऐसा बताने के लिए इसाई उनके पिताजी का नाम नहीं बताते । देखा जाए तो इनकी दुकान बापूजी के नाम से ही चलती है ।

प्रह्लाद के पिता हिरण्यकश्यपु असुर थे फिर भी उनका नाम पिता जी के रूप में लिया जाता है तो क्या भारती देवी उनके पिताजी को हिरण्यकश्यपु से भी गए बीते मानते हैं कि उनका नाम अपनी जीवनी में नहीं बताया?


भारती देवी के शिष्य उन्हें आत्मसाक्षात्कारी मानते हैं तो वे वास्तव में है कि नहीं और उन्हें  साक्षात्कार किस गुरू की कृपा से हुआ ? 

अगर किसी गुरु की कृपा के बिना हो गया तो उनके साक्षात्कार की सत्यता का प्रमाण

क्या?जो निगुरे स्वयं को ब्रह्मज्ञानी घोषित कर देते है वे प्रायः पाखंडी भ्रमज्ञानी ही होते है । 

सत्शिष्य को सीख


जगत में सर्वाधिक पाप काटने और आध्यात्मिक तौर पर ऊँचा उठाने वाला कोई साधन है तो वह है ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों की डाँट, मार व मर्मभेदी शब्द । शिष्यों के विशेष पापों की सफाई के लिए अथवा सद्गुरु द्वारा उन्हें ऊँचा उठाने के लिए दी जाने वाली डाँट-मार के पीछे शिष्य की गलती निमित्तमात्र होती है । मूल कारण तो सर्वत्र व्याप्त गुरुतत्त्व द्वारा बनाया गया माहौल होता है ।

जब भी किसी ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु द्वारा किसी शिष्य को दी जाने वाली डाँट-मार अथवा मर्मभेदी शब्दों से शिष्य को मृत्युतुल्य कष्ट हो और सद्गुरु का सान्निध्य छोड़कर घऱ भाग जाने के विचार आयें तो उसे भागना नहीं चाहिए लेकिन समझना चाहिए कि इस मनस्ताप से अपने कई जन्मों के पाप भस्म हो रहे हैं ।

सच्चे सद्गुरु तो तुम्हारे स्वरचित सपनों की धज्जियाँ उड़ा देंगे, सपनों को तोड़ेंगे । अपने मर्मभेदी शब्दों से तुम्हारे अंतःकरण को झकझोर देंगे । वज्र की तरह वे गिरेंगे तुम्हारे ऊपर । तुमको नया रूप देना है, नयी मूर्ति बनाना है, नया जन्म देना है न ! वे तरह-तरह की चोट पहुँचायेंगे, तुम्हें तरह-तरह से काटेंगे तभी तो तुम पूजनीय मूर्ति बनोगे । अन्यथा तो निरे पत्थर रह जाओगे । तुम पत्थर न रह जाओ इसीलिए तो तुम्हारे अहंकार को तोड़ना है, भ्रांतियों के जाल को काटना है । तुम्हें नये जन्म के लिए नौ माह का गर्भवास और प्रसव-पीड़ा तो सहनी पड़ेगी न ! बीज से वृक्ष बनने के लिए बीज के पिछले रूप को तो सड़ना-गलना पड़ेगा न ! शिष्य के लिए सद्गुरु की कृपापूर्ण क्रिया एक शल्यक्रिया के समान है । सद्गुरु के चरणों में रहना है तो एक बात मत भूलनाः चोट लगेगी । छाती फट जायेगी गुरु के शब्द बाणों से । खून भी बहेगा । घाव भी होंगे । पीड़ा भी होगी । उस पीड़ा से लाखों जन्मों की पीड़ा मिटती है । पीडोद्भवा सिद्धयः । सिद्धियाँ पीड़ा से प्राप्त होती हैं । जो हमारे आत्मा के आत्म हैं, जो सब कुछ हैं उऩ्हीं की प्राप्तिरूप सिद्धि मिलेगी । …..लेकिन भैया ! याद रखनाः अपने बिना किसी स्वार्थ के अपनी शल्यक्रिया द्वारा शिष्यों को दुश्मन की तरह दिखने  वाले साहसी महापुरुष कभी-कभी आते हैं इस धरा पर । उन्हीं के द्वारा लोगों का कल्याण होता है बड़ी भारी संख्या में । कई जन्मों के संचित पुण्यों का उदय होने प भाग्य से अगर इतने करुणावान महापुरुष मिल जायें तो हे मित्र ! प्राण जायें तो जायें पर भागना मत ।

कबीर जी कहते हैं-

शीश दिये सद्गुरु मिलें, तो भी सस्ता जान ।

अतः कायरता मत दिखाना । भागना मत । भगोड़े मत हो जाना । अन्यथा तो क्या होगा कि पुनः पुनः आना पड़ेगा । पूछोगेः

“कहाँ ?” ….तो जवाब हैः यहीं…. इस धरा पर घोड़ा गधा, कुत्ता, वृक्षादि बनकर… पता नहीं क्या-क्या बनकर आना पड़ेगा । अब तुम्हीं निर्णय कर लो ।

बहुत से साधकों को सद्गुरु के सान्निध्य में तब तक रहना अच्छा लगता है जब तक  वे प्रेम देते हैं । परन्तु जब वे उन्के उत्थानार्थ सद्गुरु उनका तिरस्कार करते हैं, फटकारते हैं, उनका देहाध्यास तोड़ने के लिए उन्हें विभिन्न कसौटियों में कसते हैं तब साधक कहता हैः “मैं सद्गुरु के सान्निध्य में रहना तो चाहता हूँ पर क्या करूँ ? बड़ी परेशानी है । इतना कठोर नियंत्रण !”

भैया ! घबरा मत । एक तेरे लिए सद्गुरु अपने नियम नहीं बदलेंगे । उन्हें लाखों का कल्याण करना है । उनकी लड़ाई तेरे से नहीं, तेरी मलिन कल्पनाओं से है । तेरे मन को, तेरे अहंकार को मिटाना है, तेरे मन के ऊपर गाज गिरानी है… तभी तो तू ब्रह्मस्वरूप में जागेगा । तेरे अहं का अस्तित्व मिटेगा तभी तो तेरा कल्याण होगा ।

अभी तो मन तुझे दगा दे रहा है । मन के द्वारा माँगी जाने वाली यह स्वतन्त्रता तो आत्मज्ञान में । आत्मज्ञान के रास्ते जल्दी आगे बढ़ाने के लिए ही सद्गुरु साधक को कंचन की तरह तपाना शुरु करते हैं परंतु साधक में यदि विवेक जागृत न हो तो उसका मन उसे ऐसे खड्डे में पटकता है कि जहाँ से उठने में उसे वर्षों नहीं, जन्मों लग जाते हैं । फिर तो वह…

घर का रहा न घाट का, ज्यों धोबी का श्वान ।

याद रखोः जब भी तुम्हें सद्गुरु की गढ़ाई का सामना करना पड़े, अपनी दिनचर्या को झोंक लो, अपनी गलतियों को निहार लो । निश्चित ही तुमसे कोई गलती हुई है, कोई पाप हुआ है आगे-पीछे अथवा कोई पकड़ हो गयी है । तात्कालिक गलती तो निमित्तमात्र है । सद्गुरु तो तुम्हारे एक-एक पाप की सफाई करके तुम्हें आगे बढ़ाना चाहते हैं । सबके भाग्य में नहीं होती सद्गुरु की गढ़ाई । तुम भाग्यशाली हो कि सद्गुरु ने तुम्हें गढ़ने के योग्य समझा है । तुम अपनी सहनशक्ति का परिचय देते हुए उन्हें सहयोग दो और जरा सोचो कि तुमसे उन्हें कुछ पाना नहीं है, उनका किसी प्रकार का स्वार्थ नहीं है । केवल एवं केवल तुम्हारे कल्याण के लिए ही वे अपना ब्रह्मभाव छोड़कर ऐसा क्रोधपूर्ण बीभत्स रूप धारण करते हैं । अरे, रो ले एकान्त में बैठकर… रो ले भैया ! इतना जानकर भी सद्गुरु के प्रति तुम्हारे अंतःकरण में द्वेष उत्पन्न हो रहा है तो फट नहीं छाती तेरी ?

वैसे ऑपरेशन के समय सद्गुरु इतनी माया फैलाकर रखते हैं कि गढ़ाई से उत्पन्न विचारों का पोषण करने की शिष्य की औकात नहीं क्योंकि…. अंतर हाथ सहारि दे, बाहर मारे चोट ।

फिर भी चित्त सद्गुरु का अपमान करता है, अहंकारवश ज्यादा हठ करता है तो सद्गुरु से दूर हो सकता है । अतः हे साधक ! सावधान !

दुर्जन की करुणा बुरी, भलो साँईं को त्रास ।

सूरज जब गर्मी करे, तब बरसन की आस ।।

स्रोतः पंचामृत पुस्तक, पृष्ठ संख्या 144-147

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ढोंगी ठगों से सावधान बनो – साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज



संत असंत पहचानो । ढोंगी लोग क्या करते हैं कि ‘कन्या-मन्या
कुर्र… तू मेरा चेला, मैं तेरा गुर्र… रूपये की थैली इधर धर, तू चाहे तर
चाहे मर ।’ आज यह हाल है । उन ढोंगी लुटेरों से बचो । गुरु अर्थात्
पिता, गुरु होना हँसी की बात है क्या ? अतः ठगों से सावधान बनो ।
सत्पुरुष बिल्कुल थोड़े हैं । वह सवार ही नहीं जिसने घोड़े से धक्का न
खाया हो, ऐसे ही वह गुरु न होगा जो शिष्य न बना हो ।
कन्या मन्या कुर्र… तू मेरा चेला मैं तेरा गुर्र… – पूज्य बापू जी
अति परिचयात् अवज्ञा । देखो, आजकल कुछ लोग ऐसे हैं जिनको
(दूसरों के) गुरुमंत्र बदलने और गुरु बनने का शौक है । खुद गुरु बनने
का प्रयास करते हैं । मेरे गुरु जी सत्संग में कहते थेः कन्या-मन्या
कुर्र… तू मेरा चेला मैं तेरा गुर्र… (ठग महिला गुरु बन बैठी हो तो ऐसा
कहना पड़ेगाः ‘कन्या मन्या कुर्र… तू मेरा चेला मैं तेरा गुर्र…) हम भी
बार-बार बोलते हैं ।
मेरे गुरुदेव हँसी-हँसी में कह देते कि
गोपो वीझी टोपो गिस्की वेठो गादीअ ते..
गोपा गुरुपद का टोपा डाल के गद्दी पर बैठ गया कि मैं भी गुरु हूँ
लेकिन गुरुओं की कमाई तो करनी पड़ती है । गुरु-तत्त्व, परमेश्वर को
पाना होता है न, हम तो रात्रियाँ जगह हैं । गुरुओं के उपदेश को राम
जी सुनते और रात भर विचार करते । प्रभात को फिर संध्या करते और
सत्संग में पहुँचते थे । भगवान भी गुरुपद के आगे शिष्य बन जाते हैं ।
ऐसा गुरुपद कोई मजाक की बात नहीं है । लेकिन आजकल कुछ लोग
हमारे चेलों को अपने चेले बना लेते हैं । हमने किसी शिष्य को ‘ॐ गुरु’

मंत्र दिया, यह वैदिक मंत्र है । वे उसके गुरु बन के बोलते हैं- ‘गुरु ॐ –
यह मंत्र जपो ।”
गुरुत्यागाद् भवेन्मृत्युर्मन्तत्रत्यागाद्दरिद्रता ।
गुरुमंत्रपरित्यागी रौरवं नरकं व्रजेत ।।
गुरु का त्याग करने से (सूझबूझ , अपनी अमरता के ज्ञान की,
स्वास्थ्य सुख-शांति की) मृत्यु होती है (और जीवत्व बना रहकर जन्म
मृत्यु होते रहते हैं) । मंत्र को छोड़ने से दरिद्रता आती है और गुरु एवं
मंत्र दोनों का त्याग करने से रौरव नरक मिलता है (वर्तमान जीवन में
भी नारकीय दुःख, अशांति प्रवेश करते है) ।
वह तन-मन-धन से दरिद्र हो जाता है । न घर का न घाट का ।…
उनकी गति दयनीय होती है । खैर हमें कोई फर्क नहीं पड़ता । सबका
मंगल, सबका भला हो । साधना में लग जाओ ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2021, पृष्ठ संख्या 20 अंक 346
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