Yearly Archives: 2021

डॉ प्रेमजी के पत्र के जवाब का खंडन -5


आपने लिखा हैऔर श्री चंद ने गुरु गद्दी मांगी थी लेकिन प्रभुजी ने बापूजी से कोई गुरु गद्दी नही मांगी है”

जब आपके प्रभुजी मेरे गुरुदेव के शिष्य ही नहीं है तो उनको गुरु गद्दी मांगने का अधिकार ही नहीं है. गुरु गद्दी कोई पैतृक संपत्ति नहीं है कि पिता के संतान उस में अपना हिस्सा मांग सके.

मैंने लिखा था “गुरु नानक ने उनके बाद गुरु गद्दी अंगद देव को दी थी, उनके पुत्र श्रीचंद ने अपना अलग उदासीन सम्प्रदाय चलाया. फिर भी गुरु नानक के शिष्य अंगद देव को ही गुरु मानते थे, ऐसा नहीं सोचते थे कि श्रीचंद भी गुरु परिवार में है.” इस का तात्पर्य यह है कि गुरुद्वारा जिसको अधिकार दिया जाए उसे सिख धर्म के अनुयायी गुरु मानते थे, गुरु परिवार को नहीं. याने गुरु गद्दी मांगी नहीं जाती. अधिकारी को दी जाती है. फिर भी आप तात्पर्य को न समझकर कहते हो कि श्रीचंद ने गुरु गद्दी मांगी थी. प्रभुजी ने नहीं मांगी.

डॉ प्रेमजी के पत्र के जवाब का खंडन -4


आपने लिखा हैआपके आश्रम में दिन भर सत्संग चलता है तो कोन सुधरा है” 

यहाँ तो आपने सत्संग की निंदा करने का पाप किया है. आश्रम के साधकों को सुधारने का आपने ठेका लिया है क्या? सब की अपनी अपनी योग्यता होती है, सब अपने अपने ढंग से आगे बढ़ते है, और सब को लाभ होता है इसलिए सब रहते है. स्वामी विवेकानंद कहते थे जो सत्संग करता है वह ५० गलतियां कर सकता है पर सत्संग नहीं करता तो वह ५०० गलतियां करता. इसलिए सब आपकी मान्यता के अनुसार न भी सुधरे हो तो उसमें सत्संग का दोष नहीं है. प्रभुजी का प्रवचन सुननेवाले सब सुधर गए हो तो उन सबको बधाई हो. लेकिन वास्तव में सुधरा हुआ कभी किसीमें दोष दर्शन नहीं करता. अगर किसीको अपने और अपनेवालो के गुण दीखते हो और दूसरों के दोष दीखते हो तो वह सुधरा हुआ नहीं है, बहुत बिगड़ा हुआ है.  कौन सुधरा और कौन नहीं सुधरा उसकी आप क्यों चिंता करते हो? आप अपना सुधार कर लो तो काफी है.

डॉ प्रेमजी के पत्र के जवाब का खंडन -3


आपने लिखा है “यह ऋषिप्रसाद नही द्वेष प्रसाद है।

इस से तो यह स्पष्ट हो गया कि प्रभुजी ऋषि प्रसाद के सदस्य बनाने की सेवा करनेवाले मेरे गुरुदेव के सेवकों से उसे बंद करके अपने मेगेजिन की सदस्यता की सेवा में क्यों लगाते थे. वी सिर्फ अपने मेगेजिन की सदस्यता बढ़ाना ही चाहते हो ऐसा बात नहीं है, वे ऋषि प्रसाद की सदस्यता को भी कम करना चाहते थे क्योंकि उनको ऋषि प्रसाद द्वेष प्रसाद लगता है. इसलिए मेरे जो भी गुरुभाई प्रभुजी के कहने से ऋषि प्रसाद की सेवा छोड़कर दुसरे मेगेजिन की सदस्यता बढाने में लगे हो उनको फिर से अपने गुरुदेव की सेवा में लग जाना चाहिए. गुरु परिवार के किसी सदस्य ने अगर कुछ आदेश दिया हो तो उसे गुरु का आदेश मानना नहीं चाहिए, और गुरुसेवा से विरुद्ध आदेश हो तब तो मानना ही नहीं चाहिए. अगर वह आदेश धर्म और निति के अनुकूल हो तो उनकी सेवा करना चाहिए. देवगुरु बृहस्पति के पुत्र कच ने अनेक कष्टों और यातनाओं को सहकर भी असुर गुरु शुक्राचार्य से मृत संजीवनी विद्या सीखी. लौटते समय शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी ने उनके साथ विवाह करने की इच्छा व्यक्त की पर कच ने इनकार कर दिया तब देवयानी ने शाप दिया कि उनकी सीखी हुई विद्या निष्फल हो जायेगी. तब कच ने भी देवयानी को शाप दिया कि इसका विवाह देवलोक के किसी निवासी से नहीं होगा. कच ने ये नहीं सोचा कि गुरु और गुरु परिवार एक ही है इसलिए गुरु पुत्री की आज्ञा भी गुरु आज्ञा ही है. गुरु ने भी कच को ऐसा नहीं कहा कि तुम मेरी पुत्री की आज्ञा क्यों नहीं मानते. हमारा अव्यवहार शास्त्रों के नियमों के अनुसार होना चाहिए.

मनु स्मृति के दुसरे अध्याय के श्लोक क्रमांक २०९ को अवश्य पढ़ना चाहिए. मनु महाराज कहते है: “शरीर मलना, नहलाना, उच्छिष्ट भोजन करना और पैर धोना इतनी सेवा गुरुपुत्र की न करे. (अर्थात ये गुरु की ही करनी चाहिए).”      

अगर कोई मानता है कि ऋषि प्रसाद द्वेष प्रसाद है तो वह अपनी द्वेष दृष्टि का ही परिचय देता है. जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि. जिसकी दृष्टि में द्वेष है, जिसका चित्त द्वेशाक्रांत हो, उसे संत महात्मा और ऋषियों का प्रसाद द्वेष प्रसाद दिखेगा. उल्लू को दिन में सूर्य नहीं दिखता और वह कहता है कि सूर्य अन्धकार रूप है तो उस से सूर्य की तेजस्विता नष्ट नहीं हो जाती. दुसरे अनेक प्राणी सूर्य की रौशनी का लाभ लेकर कृतार्थ होते है. वैसे लाखों लोग ऋषि प्रसाद रुपी ज्ञान सूर्य का लाभ लाकर अपना जीवन उन्नत करते है.

आपने लिखा है “फिर कह आश्रम वाले सब क्या क्या खाते है राबड़ी पूड़ी और आज जो भी केस का परिणाम है वो प्रभुजी की अवज्ञा के कारण है। प्रभुजी के एक इशारे से केस कहा चला जाये आप अनुमान नही लगा सकते हो।“

 आश्रमवाले क्या खाते है उस से आपको क्या लेना देना? राबड़ी पूड़ी खाए या समोसा, बर्फी खाए उसका फल वे भोगेंगे और उसका खर्च आश्रम भोगता है फिर आप क्यों अपना दिल जलाते हो? प्रभुजी के हम शिष्य नहीं है, इसलिए हमें उनके एक इशारे की जरूरत नहीं है. प्रभुजी में इतनी योग्यता होती तो मेरे गुरुदेव ने उनको ही यह केस सौंप दिया होता. फिर भी प्रभुजी को ऐसा लगता है कि वे कुछ कर सकते है तो मेरे गुरुदेव से मिलकर उनकी अनुमति लेकर आ जाए. आप प्रभुजी के शिष्य हो तो उनकी प्रमाणरहित, आधारहीन, बेतुकी बात को भी मानते हो और मेरी प्रमाणभूत, युक्तियुक्त बात को भी नहीं मानते हो तो आश्रम वाले भी तो उनके गुरु की बात मानेंगे, प्रभुजी की बात क्यों मानेंगे? मेरे गुरुदेव आपके प्रभुजी के बाप लगते है. वे उनकी योग्यता को आपसे ज्यादा जानते है. मानों प्रभुजी में ऐसी योग्यता हो तो भी उनकी उस योग्यता का उपयोग करना या न करना उस में मेरे गुरुदेव स्वतन्त्र है. महाभारत के युद्ध में बर्बरीक के पास वह योग्यता थी कि सिर्फ दो तीर मारकर वह सम्पूर्ण कौरव सेना का संहार का सकता था. यह बात जानकर भी भगवान् श्री कृष्ण ने उनका सर मांग लिया, और युद्ध जैसे होना था वैसे ही होने दिया. इसलिए प्रभुजी को अपनी औकात में रहना चाहिए, महापुरुषों से स्पर्धा नहीं करना चाहिए.

माताजी का हाल पूछने की मेरे गुरुदेव ने मना कर रखी है. इस मॉस के लोक कल्याण सेतु के अंक में वह लेख पढ़ लेना. आश्रम में जो गुरुदेव के द्वारा स्थापित मर्यादा है उसका पालन आश्रम के साधक करते है. उसके अनुसार महिला आश्रम और पुरुषों के आश्रम के मेनेजमेंट अलग अलग है और दोनों को अपने अपने आश्रम के साधकों या साधिकाओं के स्वास्थ्य आदि का ख्याल रखने का प्रबंध किया गया है. पुरुषों के आश्रम में मैं ३७ साल से रहता हूँ. कई साधक कई बार बीमार पड़े तब माताजी या प्रभुजी कितनी बार उनका हाल पूछने गए यह मैं जानता हूँ फिर भी साधक तो फ़रियाद नहीं करते कि हमारा हाल पूछने नहीं आई माताजी. साधक चाहते भी नहीं कि महिला आश्रम वाले उनके हालचाल पूछने आये. फिर प्रभुजी क्यों ऐसा मर्यादा विरुद्ध और गुरु आज्ञा विरुद्ध दुराग्रह रखते है? उनको पुरुषों के आश्रम के मेनेजमेंट में हस्तक्षेप करने का किसने अधिकार दिया है ? मेनेजमेंट को गुरु आज्ञा के विरुद्ध कार्य करना चाहिए ऐसा वे क्यों चाहते है?