आपने आगे लिखा है “आश्रम वाले जितना राग द्वेष करते है इतना तो संसारी लोग भी नही करते।“
अगर आश्रम के साधक राग द्वेष के संस्कारों से रहित ही होते और अहंकार से मुक्त होते तो वे गुरुदेव की शरण क्यों जाते? और गुरुदेव उनको आश्रम में क्यों रखते?
उनके राग द्वेष निकल रहे है तब तो आपको दीखते है. अगर वे राग द्वेष को दबाकर रखते तो आपको लगता कि वे राग द्वेष रहित है पर उनके भीतर राग द्वेष बने रहते. जैसे किसी गंभीर रोग से पीड़ित व्यक्ति को किसी अस्पताल में भर्ती कर दे और वह वहां अन्य मरीजों के शरीर से निकलते हुए मवाद, वमन, खून, आदि को देखकर ये सोचे कि यहाँ तो सब गंदे लोग है, मेरी बिमारी यहाँ के डॉक्टर से नहीं मिटेगी तो क्या किसी उद्यान या बगीचे के माली से उसकी बिमारी मिटेगी? वहां अन्य मरीजों के शरीर से निकलते हुए मवाद, वमन, खून, आदि को देखकर उसे ये सोचना चाहिए कि यहाँ इन बीमारों का इलाज हो रहा है, उनके शरीर की गन्दगी मवाद, वमन आदि के रूप में निकल रही है और वे स्वस्थ होगे जब उनका पूर्ण शुद्धिकरण हो जाएगा. अतः मेरा शुद्धिकरण भी यहीं हो सकेगा और मैं भी यहाँ स्वस्थ हो सकूँगा. तब तो वह रोग मुक्त हो सकेगा. और भागकर किसी बगीचे में जाएगा तो उसकी बिमारी वहां नहीं मिटेगी. अगर किसी संस्था में राग द्वेष नहीं दीखते उसका अर्थ यह नहीं कि वहां सब राग द्वेष से मुक्त हो गए है. वे राग द्वेष को दबा रहे है. और दबा हुआ राग द्वेष कालांतर में भारी हानि करता है. संसारी लोग राग द्वेष को दबाते है इसलिए वे दीखते नहीं है. जैसे नासूर को न काटा हो तो बदबू नहीं आती. उसका अर्थ यह नहीं कि भीतर मवाद नहीं है. वह मवाद कालान्तर में मृत्यु का शिकार बना देगा. और नासूर को काटने पर बहुत बदबू आती है उसका अर्थ यह है कि रोग को मिटाने की सही प्रक्रिया हो रही है. कालान्तर में स्वस्थ जीवन की प्राप्ति होगी.
दूसरी बात जब हम इश्वर के रास्ते चलते है तब हमें अपने राग द्वेष मिटाने पर ध्यान देना है. दूसरों के राग द्वेष मिटाने का ठेका हमें नहीं लेना है. उनके राग द्वेष मिटाने का काम गुरुदेव का है. अगर आश्रम के साधक राग द्वेष नहीं मिटायेंगे तो उनको कष्ट होगा हमें तो उनके कर्म भोगने नहीं पड़ेंगे. फिर चिंता क्यों करना.