शास्त्रों में वर्णित स्त्री धर्म

शास्त्रों में वर्णित स्त्री धर्म


 स्त्रियों के लिए तो किसी न किसी के नियंत्रण में रहने का आदेश शास्त्रों ने दिया है। छोटे व्यक्ति गुरु के शिष्यों के करोड़ों रुपये लूटकर उन का शोषण करते हो, उनकी श्रद्धा हिलाकर अपने शिष्य बनाते हो ऐसे छोटे व्यक्तियों को साथ लेकर चलने का अर्थ यह तो नहीं होता कि उनको ऐसे दुष्कर्म करने देना चाहिए। अगर बड़े व्यक्ति उनके परिवार के छोटे व्यक्ति को ऐसे दुष्कर्म त्याग ने की सिख देते हो तो उनका पालन छोटे व्यक्ति को अवश्य करना चाहिए। उसके बदले अगर छोटे व्यक्ति बड़े को ही उपदेश देने लगे तो उनकी बुद्धि भ्रष्ट हो चुकी है यही सिद्ध होता है। किसी भी ब्रह्मज्ञानी महापुरुष को क्या करना चाहिए ऐसा उपदेश किसी शास्त्र ने नहीं दिया, और यह दो पैसे की छोरी अपने ब्रह्मज्ञानी पिता को उपदेश देने लगी है।

आजकल धर्म का उपदेश देनेवाले किसको क्या करना चाहिए यह तो सिखाते है लेकिन खुद को क्या करना चाहिए यह उनके परम हितैषी गुरु और पिता के द्वारा बताये जानेपर भी उनकी अवहेलना करके उनको उपदेश देने लगते है। धर्म का उपदेश देनेवाली छोरी को अपने जीवन में धर्म का कितना पालन किया यह भी देखना चाहिए। पुत्रिधर्म उन्होंने कितना निभाया उसपर थोड़ा विचार करे तो मालूम पडेगा कि उनके जीवन में धर्म के स्थान पर अधर्म का आचरण है, पितृभक्ति के स्थान पर पित्रुद्रोह है और इमानदारी के स्थान पर चोरी और बेईमानी है। स्त्रियों को हमेशा किसी न किसी के नियंत्रण में ही रहना चाहिए ऐसा शास्त्रों का आदेश है। धर्म का उपदेश देनेवाले के जीवन में तो शास्त्रोक्त धर्म का आचरण होना ही चाहिए । अगर धर्मोपदेशक के जीवन में धर्माचरण नहीं है तो कहना पड़ेगा “दिया तले अँधेरा” शास्त्र कहता है:

पिता रक्षति कौमारे, भर्ता रक्षति यौवने ।,

रक्षन्ति स्थाविरे पुत्रा, न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हती ।।  (मनु स्मृति ९.३)

“स्त्री की कुमारावस्था में पिता रक्षा करता है, युवावस्था में पति रक्षा करता है, और वृद्धावास्था में पुत्र रक्षा करते है; उसे कभी स्वाधीन नहीं रहना चाहिए।“ 

स्त्रियों के स्वतंत्र और अरक्षित रहने पर नाना प्रकार के दोष उत्पन्न हो जाते है, और उनकी रक्षा करने से अपनी और धर्म की रक्षा होती है, इसलिए शास्त्रों में स्त्रियों के लिए स्वतंत्रता का विरोध किया गया है। शास्त्रकार ऋषि, महर्षि, त्रिकालदर्शी, स्वार्थ त्यागी, समदर्शी, अनुभवी, पूर्वापर को गहराई से सोचनेवाले, और संसार के परम हितैषी थे, अतः उनकी बातों पर विशेष ध्यान देकर स्त्रियों की सब प्रकार से रक्षा करनी चाहिए।

छोरी इस समय एक त्यक्ता महिला है इसलिए उसको पिता के आदेश में चलना चाहिए पर वह स्वच्छंद होकर पिता के सिद्धांत के विरुद्ध आचरण करती है और अपने को श्री जी या प्रभुजी कहलाती है और पूजवाती है जो धर्म के सिद्धांत से विपरीत आचरण है इसलिए उसको श्री जी या प्रभुजी कहना ठीक नहीं है। उसको छोरी कहना ठीक लगता है। छोरी दूसरों को धर्म का उपदेश देने के बदले अपने जीवन में धर्म का पालन करेगी तो उसका कल्याण होगा अन्यथा उसका भयंकर पतन होगा और ऐसी छोरी के अनुयायिओं को भी भयानक नारकीय यातनाएं भोगनी पड़ेगी।

भगवान् श्री कृष्ण गीता के १६ वें अध्याय के अंतिम दो श्लोकों में कहते है

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः I

न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परा गतिं। II २३ II

तस्मात् शास्त्रं प्रमाणं कार्याकार्यो व्यवस्थितौ I

ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि II २४ II

“जो पुरुष शास्त्रविधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धिको प्राप्त होता है, और न परम गति को और न सुख को ही।

इस से तेरे लिए इस कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है, ऐसा जानकार तू शास्त्रविधि से नियत कर्म ही करने योग्य है।”

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