महापुरुषों के दर्शन, सत्संग, चिंतन से शांति मिलती है, पाप, पाप-वासनाएँ पलायन और पुण्य, पुण्य-प्रवृत्तियाँ शुरु होने लगती हैं । उनके संग (सत्संग-सान्निध्य) से उनके अनेक गुण-सरलता, शांति, आनंद, समता, ज्ञान, वैराग्य, उपरामता आदि स्वतः ही हमारे में आ जाते हैं । जिसमें जितनी श्रद्धा होगी वह उनता ही महापुरुषों के गुणों को ग्रहण करने की योग्यता का अधिकारी होता है ।
जहाँ
महापुरुष विराजमान होते हैं वहाँ उनके ज्ञान का प्रभाव पड़ता है । वहाँ यदि पापी
पुरुष बैठा होगा तो उस समय उनकी पापबुद्धि नष्ट होकर दैवी सम्पदा का विकास होगा ।
दो परस्पर वैरी बैठे होंगे तो वे भी वहाँ जब तक बैठे हैं, वैर भूल जायेंगे । यह
महापुरुषों की महिमा है ।
महापुरुषों
में स्वभावतः उदारता रहती है । उनकी प्रत्येक क्रिया आनंद देने वाली होती है ।
उनके सोने, बैठने, चलने, फिरने में आनंद रहता है । उनमें श्रद्धा करने में जो लाभ
होता है, उतना ही लाभ, वही सिद्धि महापुरुष के मिलने में होती है । महापुरुषों में
श्रद्धा हो जाय तो कल्याण हो जाय परंतु ऐसे महापुरुष संसार में मिलते नहीं, मिलें
तो पहचान नहीं पाते, पहचान जायें तो श्रद्धा डाँवाडोल रहती है, इसलिए पूरा लाभ
नहीं होता ।
परमात्मा
को प्राप्त महापुरुष बालक की भाँति हमारे में भगवत्प्रीति का संस्कार पैदा कर देते
हैं । पारस के लिए आप अपना सर्वस्व त्यागने को क्यों तैयार हो जाते हैं ? इसलिए कि उसमें सोना
बनाने की बड़ी शक्ति है । शरीर की पीड़ा पारस नहीं मिटाता, राजाओं की राज्य-पीड़ा
पारस नहीं मिटाता किंतु महापुरुष इस जन्म की तो पीड़ा मिटाते हैं, साथ ही 84 लाख
जन्मों की पीड़ा का चक्र ही चूर-चूर करा देते हैं ।
जन्म मृत्यु मेरा धर्म नहीं है, पाप पुण्य कछु कर्म नहीं है ।
मैं अज निर्लेपी रूप…..
सत्-चित्-आनंदरूप
में जगा देते हैं । ऐसे महापुरुषों की श्रद्धापूर्वक सेवा, आज्ञापालन और नमस्कार
करके मनुष्य मुक्ति पा सकता है । महापुरुषों में श्रद्धा जितनी अधिक होती है उतना
ही अधिक लाभ होता है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2021, पृष्ठ संख्या 2 अंक 341
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