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ब्रह्मवेत्ता संत ने क्यों किये 3 कुटियाओं को प्रणाम ?


एक राजकुमार ने संसारी सुखों की पोल जान ली कि ‘यह जवानी है दीवानी । भोग भोगे लेकिन अंत में, बुढ़ापे में तो कुछ नहीं…. और जिस शरीर से भोग भोगे वह तो जल जायेगा ।’ उस बुद्धिमान राजकुमार ने साधुताई की दीक्षा ले ली । फिर वह अपने गुरु के साथ यात्रा कर रहा था, पैदल का जमाना था । यात्रा करते-करते उसने देखा कि गुरु जी एक जीर्ण-शीर्ण कुटिया की प्रदक्षिणा कर उसे नमन कर रहे हैं ।

राजकुमार को हुआ कि ‘मेरे गुरु इतने ऊँचे उठे हुए हैं फिर भी इस कुटिया को प्रणाम कर रहे हैं ! कुटिया में तो भगवान की कोई मूर्ति नहीं, यह कोई उपासना-स्थली भी नहीं…..।’

यात्रा चलती रही, चलती रही…. मन में शंका थी, फिर शंका को और पुष्टि मिली । रास्ते में दूसरी कुटिया मिली, उसमें कोई व्यक्ति बैठा था । गुरु जी ने उस कुटिया की भी प्रदक्षिणा की और नमन किया ।

राजकुमार यह देख के दंग रह गया किंतु सोचा, मौका पाकर गुरु जी से पूछेंगे ।’ आगे चले तो राजकुमार ने देखा कि एक नयी कुटिया है, गुरुजी उसको भी नमन कर रहे हैं । अब उससे रहा नहीं गया, बोलाः “गुरुजी ! आपने जीर्ण-शीर्ण कुटिया को नमन किया, फिर आगे चलकर जिस कुटिया में एक व्यक्ति बैठा था उस कुटिया को नमन किया और अभी नयी कुटिया को प्रणाम कर रहे हैं ! इसका रहस्य मैं समझ नहीं पा रहा हूँ । जो जीर्ण-शीर्ण कुटिया थी उसमें मंदिर तो नहीं था फिर आपने वहाँ मत्था क्यों टेका ? गुरुजी ! मंदिर में मनुष्य की बनायी मूर्ति रखी जाती है । आप मूर्तिपूजा से आगे निकले हुए हैं और वहाँ तो मूर्ति भी नहीं थी !”

“हाँ, वहाँ मूर्ति तो नहीं थी किंतु पूर्वकाल में अमूर्त आत्मा जिस पुरुष के हृदय में अठखेलियाँ करके प्रकट हुआ था ऐसे ब्रह्मज्ञानी महापुरुष उस कुटिया में रह चुके थे इसलिए मैंने उसको नमन किया ।”

“गुरु जी ! दूसरी कुटिया में तो एक व्यक्ति बैठा था । वह न तो संन्यासी था और न जटाधारी था । बिल्कुल ऐसे आलसी जैसा बैठा था ।”

“उनकी चित्तवृत्तियाँ शाँत हो गयी थीं । वे विश्रांति पाये हुए थे । कर्ता-भोक्तापन से पार अपने आत्मा में आराम पा रहे थे । वे हृदय-मंदिर में प्रवेश पाकर वहाँ आराम कर रहे थे । भले उनकी वेश-भूषा से संन्यास की खबरें नहीं आती थीं किंतु वे भीतर संन्यास को उपलब्ध हो गये थे । इसलिए मैंने उनकी कुटिया को प्रणाम किया ।”

“गुरुजी ! ये दो बातें समझ में आ गयीं लेकिन यह तो नयी कुटिया है….”

“इसमें कोई ब्रह्मवेत्ता आयेंगे इसलिए मैं पहले से प्रणाम कर देता हूँ ।”

अवर्णनीय है ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों की महिमा ! 56 प्रकार के भोग उनके सामने रख दो, उन्हें खाते हुए उन्हें हर्ष नहीं होता और भीख माँगकर रूखा-सूखा खाने को मिले तब भी उन्हें शोक नहीं होता । जीवमात्र का मंगल चाहने वाले, मानवजाति के लिए वरदानस्वरूप ऐसे महापुरुष संसार में बड़े पुण्यों से प्राप्त होते हैं ।

पहले के महापुरुष जहाँ-जहाँ रहे, वे जगहें अब भी पूजी जा रही हैं । जिन पत्थरों पर बैठे वे पत्थर भी पूजे जा रहे हैं । उनके लगाये बरगद-पीपल भी लोगों की मनोकामनाएँ पूरी करते हैं तो उनकी स्वयं की अनुभूति कैसी होती होगी !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2020 पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 333

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परमात्मा की कृपा और प्रसन्नता कैसे पायें ? – साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज


यह अभिमान न आना चाहिए कि ‘मैंने दूसरों का कोई उपकार किया है । ‘ ऐसा समझना चाहिए कि जो कुछ उन्हें दिया जाता है वह उनके लिए ही प्राप्त हुआ है । जैसे कोई डाकिया डाकघर से प्राप्त की गयी वस्तुएँ, पार्सल आदि लिखे पते पर लोगों को पहुँचाता है परंतु इसलिए उन पर कोई उपकार नहीं करता । हाँ, वह यह बात अनुभव करता है कि ‘मैं अपने कर्तव्य का पूरा पालन करके सरकार की प्रसन्नता प्राप्त कर सकूँगा ।’ इस प्रकार हम भी विश्वनियंता परमात्मा की प्रसन्नता के लिए आचरण करेंगे तो हम पर उसकी कृपा और प्रसन्नता होगी ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2020, पृष्ठ संख्या 17 अंक 333

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कर्म करते हुए भी हम पास सकते हैं वही खजाना


प्राचीन काल की बात है । कुंदनपुर नगर का राजा बड़ा धार्मिक, सज्जन था । प्रजा का जीवन कर्म, उपासना और ज्ञान से ओतप्रोत हो जाये ऐसी उसकी राज व्यवस्था थी । उस राज्य से 3 प्रकार के आश्रमों की सेवा होती थी । पहला त्यागियों का आश्रम था । वहाँ नीरव शांति छायी रहती थी । वेद की ऋचाओं का पाठ, होम हवन होता था । दूसरा कवियों का आश्रम था । उसमें उपासना की पद्धतियों पर चर्चा होती थी । और तीसरा विरक्तों का आश्रम था । उसमें आत्मा-परमात्मा, जीव-ब्रह्म, ईश्वर-माया, जगत विषयक चर्चा होती थी, जिसे सुनते-सुनते व्यक्ति अपने आत्मविश्रांति स्वभाव में पहुँच जाता था । जब कोई पर्व होता तो कुंदनपुर और आसपास के लोग उन आश्रमों में उमड़ पड़ते थे । जो जैसा अधिकारी होता था उसको उनमें से वैसे आश्रमों में ज्यादा आनंद आता था । अपने अधिकार के अनुसार व्यक्ति को साधन में रुचि होती है ।

कुंदनपुर से थोड़ी दूर गंगा किनारे स्थित एक विरक्त आश्रम में ब्रह्मानंद में, आत्मानंद में तृप्त ब्रह्मवेत्ता, आत्मज्ञानी संत नित्यानंद स्वामी रहते थे । उन महापुरुष की एक जिज्ञासु युवक पर बार-बार दृष्टि रहती थी कि ‘कई लोग सत्संग सुनते हैं लेकिन सत्संग सुनते-सुनते इसके द्वारा कुछ अंदर की खबरें आती हैं ।’

कोई व्यक्ति पानी का प्याला पिलाता है तब भी अभिवादन करना पड़ता है, नहीं तो कृतघ्नता का पाप लगता है । तो सत्संग पूरा होता तब लोग संत को प्रणाम करके जाते । जब वह जिज्ञासु युव नित्यानंद स्वामी को वंदन करके रवाना होता था तो वे सोचते थे कि ‘इससे बात करें ।’ एक दिन उन्होंने उससे पूछाः “भाई ! तू कहाँ रहता है ? क्या करता है ?”

बोलेः “स्वामी जी ! आपके उपदेश से तो पता चल गया कि ‘मैं सब जगह रहता हूँ और सब कुछ करता हूँ और फिर भी मैं कुछ नहीं करता हूँ – हकीकत में तो यह बात है’ किंतु व्यवहार-दृष्टि से आप पूछते हैं तो मैं फलाने जमींदार की जमीन से आधा भाग लेकर उसे जोतता हूँ ।”

“तेरे चित्त में बड़ी शांति प्रतीत होती है और तुम्हें कुछ दिव्य समझ प्राप्त हो गयी है ऐसा लगता है ।”

“स्वामी जी ! जब मैं छोटा था तब हमारे गाँव में कोई संत आये थे । हम शाम को बाबा जी के पास जाते थे । वे हमें गीता का पाठ कराते थे और प्रसाद भी देते थे । स्वामी जी ! हमको गीता थोड़ी कंठस्थ हो गयी थी । समय पाकर गीता तो भूल गये लेकिन गीता का एक श्लोक हमें बहुत प्यारा लगाः

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।

सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ।।

जो अपना ही दृष्टांत रखकर (अपनी भाँति) समस्त प्राणियों के सुख या दुःख को समानरूप से देखता है, उससे प्रभावित नहीं होता वह परम योगी माना गया है ।

सुख आ जाय चाहे दुःख आ जाय, जो बुद्धिमान है वह दोनों में सम रहता है ।

महाराज ! घर में तो कुछ-न-कुछ होता रहता है, कभी जमींदार कुछ कह देता है, कभी बारिश से कुछ हो जाता है तो कभी आँधी से कुछ हो जाता है किंतु वह गीता के श्लोकवाली बात मुझे बार-बार याद आती है तो मैं सम रहने की कोशिश करता हूँ । सम रहने की कोशिश के कारण और आप संतों की कृपा से मेरी विज्ञानमय कोष और आनंदमय कोष में स्थिति हो गयी है । इसीलिए तत्त्वज्ञान की बात सुनने में अच्छी लगती है और जरा आपकी कृपा से स्वामी जी !…. अब क्या वर्णन करूँ ?”

“भाई ! तू जमींदार के यहाँ नौकरी करता है और हम  विरक्त हो के – बाबा जी हो के बैठे हैं लेकिन हम जहाँ कि खबरें पा रहे हैं वहाँ की ही खबर तेरे दिल से भी आ रही है । जहाँ कि खबरें, जहाँ कि विश्रांति, जहाँ का खजाना हम पा रहे हैं वहीं के खजाने पर तू भी पहुँचा है ऐसा लग रहा है ।”

बोलेः “महाराज ! ये सब बचपन के जो संस्कार हैं न, वे काम करते हैं । मैंने आप जैसे संतों से वेदांत सुना है । वेदांत का श्रवण और फिर एकांतवास…. खेत में कुछ काम करने के पहले थोड़ा अपने स्वरूप का चिंतन कर लेता हूँ, काम निपटाने के बाद स्वरूप का चिंतन कर लेता हूँ और काम करते हुए भी कहता हूँ कि ‘काम तो ये मेरे करण (साधन) कर रहे हैं, इन्द्रियाँ कर रही हैं, मन कर रहा है, बुद्धि से निर्णय हो रहा है लेकिन मैं इन सबसे परे हूँ । मैं असंग हूँ । हरि ॐ शांति…. सोऽहम्… शिवोऽहम्….’ ऐसा करके मैं श्रद्धा से भगवद्-तत्त्व में डुबकी मारता हूँ, जिसकी भगवान प्रशंसा करते हैं – योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मान ।

जो अंतरात्म-भाव से मुझे भजता है वह सब योगियों में मुझे विशेष मान्य है । तो कार्य के समय मैं बीच-बीच में अंतरतम आत्मा में गोता मारा करता हूँ और सुबह उठकर अंतर्यामी परमात्मा के ध्यान में मग्न होता हूँ ।”

जो स्थिति ज्ञानयोग, भक्तियोग, ध्यानयोग से प्राप्त की जाती है, वही कर्मयोग से भी प्राप्त की जाती है । ज्ञानयोग में विवेक, वैराग्य तथा भक्तियोग व ध्यानयोग में प्रेम और कर्मयोग में समता की विशेष महत्ता है ।

यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।

एकं साङ्ख्यं योगं च यः पश्यति स पश्यति ।।

‘ज्ञानयोगियों द्वारा जो परम धाम प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियों द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है । इसलिए जो पुरुष ज्ञानयोग और कर्मयोग को फलरूप में एक देखता है, वही यथार्थ देखता है ।’ (गीताः 5.5)

स्रोतः ऋषि प्रसाद सितम्बर 2020, पृष्ठ संख्या 16, 17 अंक 333

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