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क्यूँ शिष्य गुरु के पास हाथ में समिधा लिए जाते है, क्या कारण है पढि़ये …


सत्य के साधक को मन एवं इंद्रियों पर संयम रखकर अपने आचार्य के घर रहना चाहिए और खूब श्रद्धा एवं आदरपूर्वक गुरु की निगरानी में शास्त्रों का अभ्यास करना चाहिए। शिष्य को चुस्तता से ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए और आचार्य की पूजा करनी चाहिए। शिष्य को चाहिए कि वह आचार्य को साक्षात ईश्वर के रूप में माने, मनुष्य के रूप में कदापि नहीं। शिष्य को सब सुख वैभव का विष की तरह त्याग कर देना चाहिए और अपना शरीर गुरु की सेवा में सौंप देना चाहिए।

शास्त्रों ने, ऋषियों ने शिष्य के लक्षण बताते हुए कहे कि ,

*अलुब्ध स्थिरग्रात्रश्च आज्ञाकारी जितेंद्रियः।*

पहला लक्षण आदर्श शिष्य का ‘अलुब्ध’ अर्थात आदर्श शिष्य वह है जो अलुब्ध हो,जो लोभी न हो, जिसको गुरु से कोई लोभ नहीं। गुरु मुक्ति प्रदान कर दे वह भी लोभ नहीं। गुरु भक्ति दे दे वह भी लोभ नहीं। ‘अलुब्ध’– किसी भी प्रकार का लोभ नहीं। गुरु के पास गये हुए शिष्य के मन में कोई लोभ न हो। केवल एक ही बात कि मेरे गुरु मुझे एकबार कह दे कि “बेटा ! तू मेरा है।” बस! हो गई बात और कुछ नहीं चाहिए।

गोस्वामी जी कहते हैं कि एक बार राघव मुझे कह दे कि तुलसीदास मेरो है। अलुब्ध! लोग आज गुरु के पास जाते हैं तो प्रतिष्ठा के लोभ से जाते हैं। अपनी सेवा दिखाने के लिए जाते हैं। लोग खुद को प्रदर्शित करने के लिए जाते हैं।

गुरु तो पारसमणी हैं, लोहे को कंचन बना देंगे। लेकिन जो लोहा है, वह यदि कवच पहनकर जायेगा तो पारसमणी क्या करेगा? लोहे को यदि कपड़े में बांधकर पारस के पास रखो तो कुछ ना होगा। संसार में बहुधा लोग गुरुजनों के पास ऐसे ही जाते हैं। कई लोग तो गुरुजनों के पास गुरु बनने के लिए जाते हैं। कई लोग तो गुरु के पास जाने के बाद समाज में प्रसिद्ध हो जाते हैं और फिर ऐसी चर्चा करने लगते हैं कि इन गुरु महाराज को हमने ऊपर उठाया तब दुनिया उनको जानने लगी। रावण यही काम करता था– कैलाश को उठाकर दुनिया को कहता कि ये शंकर कोई बड़े नही थे। वह तो मैंने कैलाश को उठाया और दुनिया ने देखा फिर प्रसिद्ध हुए।

‘अलुब्ध’–जिसको कोई लोभ नहीं। शिष्य की शरणागति तो मिट्टी की शरणागति की तरह है। कुम्हार ने मिट्टी खोदी तब मिट्टी ने कुछ नहीं कहा। गधे पर रखी वह कुछ ना बोली। कुम्हार अपने आँगन में मिट्टी को ले आया, पानी डालकर पैरों से रौंदने लगा मिट्टी कुछ ना बोली। पिंड बनाया, चाकपर चढ़ाया,उसे घुमाया परन्तु मिट्टी कुछ ना बोली। न कहा कि तू मुझे लोटा बना, घड़ा बना अथवा तो कुछ और बना …नहीं, मिट्टी कुछ ना बोली। जो कुम्हार ने चाहा वह बना दिया, कुम्हार की मौज! उसको चाक से उतार दिया, मिट्टी कुछ ना बोली। धूप में तपाया, सुखाने के लिए अग्नि में डालकर उसको पकाया मिट्टी कुछ ना बोली। घड़े को कुम्हार ने बाजार में डालकर निलाम कर दिया।

खरीदने वाले टकोर मारकर ले जाते, मिट्टी कुछ ना बोली। कुम्हार ने 5 रुपयों में मिट्टी का घड़ा निलाम कर दिया, मिट्टी ने एक लब्ज तक नहीं उच्चारा।

जिसके घर घड़ा गया उस गृहिणी ने घड़े के गले में रस्सी का फंदा डाला, पनघट पर जाकर पानी भरने के लिए मिट्टी के घड़े को कुएँ में उतारा परन्तु मिट्टी कुछ ना बोली। इधर-उधर हिलाया, डुबोया, ऐसे किया और घड़े को बाहर लायी। कुएँ की दीवारों से टकराता-2 घड़ा बाहर आया, परन्तु फिर भी मिट्टी कुछ ना बोली। गृहिणी ने सिर पर रखा, पानी छलका न छलका घर ले आयी। एक-दो महीने में घड़ा फूट गया फिर भी मिट्टी कुछ ना बोली। कचरे में डाल दिया, फिर वह मिट्टी मिट्टी में मिल गई, परन्तु मिट्टी कुछ न बोली। ऐसी शरणागति शिष्य की होनी चाहिए।

*तदविज्ञानार्थं गुरुमेवा भिगच्छेत।*

*समित्पानि क्षोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम।।*

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि, हाथ में समिध लेकर शिष्य गुरु के पास जाता था। गुरु यज्ञ करते थे और शिष्य हाथ में लकड़ियाँ लेकर उनके पास जाता था। गुरु के पास पुष्प ले जाना अच्छी बात है, ले जाना चाहिए। प्रसाद ले जाना अच्छी बात है। लेकिन भारतवर्ष का सिद्धांत कहता है कि, शिष्य गुरु के पास हाथ में लकड़ियां ले जाता था। यह हमारी परंपरा है।

उपनिषद् के ऋषि के पास जब ज्ञान अर्जित करने के लिए शिष्य जाता है तो समिध लेकर जाता है, क्यो?…मानो वह गुरु को यह कहता है कि, गुरुदेव! जैसे यह समिध अग्नि में डालकर आप स्वाहा कर देते हैं, वैसे हमें भी स्वाहा कर दो। हमारे अहंकार को स्वाहा कर दो। हमारी वासनाभरी भीगी ही लकड़ी क्यों न हो, जो हैं आप अग्नि में डालकर उसे स्वाहा कर दो।

*समित्पानि क्षोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम।*

यह जो शरणागति का भाव है, वह शिष्य में होना चाहिए। कोई लोभ नहीं, कोई प्रलोभन नहीं। और ध्यान देना जिसको कुछ नहीं चाहिए उसको सबकुछ मिलता है और जिसको सबकुछ चाहिए उसको कुछ नहीं मिलता। इसलिए शिष्य का पहला लक्षण ‘अलुब्ध’ –अलोभी होना चाहिए।

आयुर्वेदाचार्य श्री वाग्भट्ट जी का यह जीवनप्रसंग सभी शिष्यों को सुनना चाहिए…


सच्चे शिष्य के लिए तो गुरुवचन माने कानून। गुरु का दास बनना माने ईश्वर का सेवक बनना। आयुर्वेद के जगत में श्री वागभट्टाचार्यजी का नाम बड़े ही आदर के साथ लिया जाता है।

वाग्भट्ट की तमन्ना साधना के उच्च शिखरों को छूने और अंतरजगत के अनंत प्रकाश में खो जाने की थी। अपनी इस तमन्ना को पूरा करने के लिए वाग्भट्ट ने गुरु महर्षि चरक की शरणागति प्राप्त की। लेकिन जहां दीक्षा के समय कक्ष में उपस्थित बाकी सभी साधकों को बहुत से अनुभव हुए, वहीं वाग्भट्ट को मुश्किल से हल्के से प्रकाश की एक झलक दिखी और झट ही वह लुप्त भी हो गई। दीक्षा कक्ष से बाहर आकर वाग्भट्ट संशय में घिर गये और अपनी मुश्किल का हल पाने के लिए उन्होंने श्री गुरुदेव का किवाड़ खटखटाया।

गुरुदेव ने उसे समझाया कि अवश्य ही उसका कोई ऐसा भारी कर्मसंस्कार आगे आ गया है। जिस वजह से प्रकट प्रकाश भी उसे लुप्त सा प्रतीत हो रहा है। इसलिए उसे हताशा छोड़कर साधना में डट जाना चाहिए और उस अदृश्य प्रकाश को प्रकट करना चाहिए।

गुरु का निर्देश पाकर वाग्भट्ट साधना में जुट गये, परन्तु तब भी उनके हृदय में प्रकाश की एक किरण तक ना फूटी। अब तो वह घोर निराशा में आ गये और गुरु पर से उनका ऐसा विश्वास उठा कि एक दिन शाम को जब सभी साधक व गुरुदेव अपने-2 कक्षों में साधना में लीन थे, वह आश्रम छोड़कर चले गये। रास्ते में उनकी भेंट एक बड़े तांत्रिक से हो गई। जिसके बारे में विख्यात था कि वह समस्त रिद्धि-सिद्धियों का मालिक है। सिद्धियां पाने के लालच से वाग्भट्ट उस तांत्रिक का शिष्य बन गया। तांत्रिक ने वाग्भट्ट को एक ऐसा मंत्र दिया जिसे साधना बेहद कठिन था।

तांत्रिक ने कहा– तंत्रसाधना कोई बच्चों का खेल नहीं! घण्टो-2 एक मंत्र को जपना पड़ता है। शक्तियां हासिल करने में कई वर्ष तो क्या कई युग भी बीत जाया करते हैं। परन्तु मंत्र मिलते ही वाग्भट्ट ने एक गुफा में आसन लगाया और मंत्र का जप करना आरंभ कर दिया।

मंत्र जाप करते हुए वाग्भट्ट को अभी कुछ ही महीने बीते थे कि एक रात उसको एक विचित्र सी अनुभूति हुई। उसे लगा कि उसके पीछे कोई खड़ा है। इससे पहले की वह मुड़कर देखता पीछे से आवाज आई, “वाग्भट्ट! वरदान मांगो! हम तुमपर प्रसन्न हुए! मांगो जो मांगना है।”

वाग्भट्ट हैरान हुआ और उसने पूछा कि वे कौन है?

वे बोले कि हम सिद्धियां, हम सिद्धी की देवियां हैं। तुम्हें सिद्धियां प्रदान करने के लिए प्रकट हुई हैं।

वाग्भट्ट संशय में पड़ गए, क्योंकि उसे मंत्रसिद्ध का जो निश्चित समय बताया गया था, अभी तो उसका पांच टका भी नहीं बीता था। लेकिन यह मंत्र सिद्ध होने में तो वर्षों लगते हैं। आप सब इतनी जल्दी कैसे प्रसन्न हो गई?

देवियों ने कहा, निःसंदेह! तुम्हारी जगह कोई और होता तो वर्षों में भी शायद यह मंत्र सिद्ध न होता। लेकिन तुम्हारे तेज के कारण यह मंत्र शीघ्र ही सिद्ध हो गया है।

वाग्भट्ट सोच में पड़ गए कि महर्षि चरक तो कह रहे थे कि मेरे बुरे कर्मों का गठ्ठल भारी है और इन देवियों को मुझमें देवत्व दिखाई पड़ रहा है। जरा पूछूं तो आखिर इन्हें मुझमें ऐसा क्या दिखा?…और जब पूछा तो उसकी हैरानी और बढ़ गई…क्योंकि वे देवियां बोली कि, हे देवपुरुष! आपमें तो पहले से ही इतनी शक्ति है कि इस मंत्र से प्राप्त होनेवाली शक्तियां तो इस शक्ति के आगे अत्यंत गौण है।

वाग्भट्ट ने यह सुना,तो उसे लगा कि ये देवियां अवश्य ही झूठ बोल रही है और उनकी तपस्या भंग करने आई है। अब वाग्भट्ट जरा कठोर वाणी में बोले,”यदि आप मुझे वरदान देने आई हो, तो पीठ-पीछे क्यों खड़ी हो? सामने क्यों नहीं आती?”

नहीं देवपुरुष! हम आपके सामने नहीं आ सकती। आपके तेज के सामने हम टिक नहीं पायेंगी।

वाग्भट्ट झल्लाकर बोले, “हे भगवान! यह आप कैसी -2 बातें कर रही हो? कभी आपको मुझमें तेज दिखाई देता है, कभी अपार शक्ति! मुझे बताओ तो कि आखिर किस कारण मैं आपको देवतुल्य भासित हो रहा हूँ।”

देवियों ने कहा, “आपके पूर्ण सद्गुरु के कारण।”

क्या? पूर्ण सद्गुरु के कारण! वह गुरु जिसे मैं छोड़ आया हूँ।

हाँ, वाग्भट्ट! वहीं।

क्यों परिहास करती हो देवियों? वो गुरु मुझे क्या शक्ति देंगे, जिनमें खुद इतनी शक्ति नहीं की अपने शरणागत को प्रभु दर्शन करा दे। वो गुरु मुझे क्या तेज देंगे, जिनके ज्ञान में प्रभु के तेज को दिखाने तक का सामर्थ्य नही।

बचपन से ही मुझे ईश्वर दर्शन की चाह थी। मैंने शास्त्रों का अध्ययन किया और एक सार जो मेरी समझ में आया वह था कि ईश्वर दर्शन के लिए पूर्ण गुरु की आवश्यकता है। ब्रह्मज्ञानी, तत्ववेत्ता गुरु ही यह अलौकिक दर्शन करा सकते हैं। बस, इसी बात को पकड़ मैंने पूर्ण गुरु की खोज आरंभ की। काफी भटकने पर मुझे महर्षी चरक का पता चला। पूरी भावना के साथ मैंने उनके सामने ज्ञान के लिए झोली फैलाई। परन्तु विडंबना! मुझे ज्ञान तो मिला परन्तु आत्मप्रकाश नहीं, ईश्वर दर्शन नहीं।

देवियों ने कहा कि वाग्भट्ट! मिथ्या कथन क्यों करते हो? क्या आपको ज्ञान दीक्षा के समय ईश्वरीय आनंद की अनुभूति नहीं हुई?

हुई थी, परंतु क्षण भर के लिए हुई थी। इससे पहले कि मैं उसका आनंद उठा पाता वह आनंदाअनुभूति लुप्त हो गई। काफी वर्षों तक साधना-सुमिरन करने से भी कोई फायदा नहीं हुआ।

फायदा नहीं हुआ? आपने इतने वर्षों जो सद्गुरू के आश्रम में रहकर उनकी सेवा और साधना की, उसीसे आपमे यह अतुलनीय तेज व शक्ति प्रकट हो गयी है और इसीसे यह मंत्र इतने शीघ्र सिद्ध हो गया।

लेकिन मुझे तो कभी नहीं लगा कि मुझमे शक्तियां है।

यही तो सद्गुरु की महानता हुआ करती है वाग्भट्ट! शक्तियों के धान से आपमें अहंकार आ जाता तो आप मार्ग से भटक सकते थे।

यह क्या सिद्धांत हुआ? अरे! अगर शक्तियां दी है तो प्रयोग करने का अधिकार भी तो देना चाहिए ना।

देते हैं! गुरु यह अधिकार भी देते हैं। लेकिन उसका उचित अवसर भी तो आना चाहिए वाग्भट्ट! जैसे श्री हनुमानजी जन्म से ही दिव्य शक्तियों से संपन्न थे, परन्तु शक्तियों का दुरुपयोग होने के कारण ऋषियों ने उन्हें श्राप दे डाला – “जाओ! अपनी समस्त शक्तियों को भूल जाओ। ये तभी तुम्हें स्मरण आयेगी जब कोई संत स्मरण कराये और तब तुम उन शक्तियों का परमार्थ के लिए ही प्रयोग करना।”

इस प्रकार हे देवपुरुष! शायद आपमें विद्यमान शक्तियों के प्रयोग का उचित समय अभी न आया हो, इसलिए गुरु ने आपको नहीं बताया इनके बारे में।

चलो मान लेता हूँ कि शक्तियों के प्रयोग का उचित समय नहीं आया था, इसलिए गुरुदेव ने वे प्रकट नहीं किये। लेकिन ईश्वर दर्शन का तो मेरा अधिकार था ना फिर वह मुझे क्यूँ नहीं प्राप्त हुआ। क्या इसका आप कोई ठोस कारण बता सकती हैं?…जिससे मुझे सन्तुष्टी हो जाय।

देवियों ने कहा कि गुरु किसीका अधिकार नहीं रखते। यदि आप उसके अधिकारी हो गए होते तो आपको जरूर दर्शन होते। शायद आप भूल गए कि आपके गुरुदेव ने आपको बताया था कि आपकी कर्मसंस्कारों का गठ्ठर इतना भारी है कि उसे दूर किये बिना उस अलौकिक अग्नि का प्रज्वलित रूप देख पाना कठिन है। परन्तु आपको तो प्रमाण चाहिए, ताकि आपको सन्तुष्टी हो जाय। तो ठीक है! आप अपनी भृकुटी पर ध्यान लगाओ और गुरुमंत्र का जप शुरू करो। आपको अभी प्रमाण मिल जायेगा।

वाग्भट्ट ने ऐसे ही किया। उसने देखा कि 5 बड़े-बड़े पहाड़ हैं। अचानक वे सभी जलने लगे। देखते ही देखते उनमें से 4 पहाड़ पूरी तरह जल गये। राख का ढेर बन गये। लेकिन 5 वा अभी बाकी था। इससे पहले की वाग्भट्ट कुछ समझ पाते, उन देवियों की वाणी गूँजी – हे वाग्भट्ट! ये पांचों आपके जन्मजन्मांतरो से इकठ्ठे हुये कर्मों के पहाड़ थे। इन्हीं के चलते आपको प्रकाश की अनुभूति नहीं हो पा रही थी। परन्तु जब गुरुज्ञान की अग्नि भीतर प्रकट हुई और आपने साधना द्वारा उसे प्रबल किया तो ये पहाड़ जलने लगे। आपकी साधना के ईंधन से 4 पहाड़ पूरी तरह जल चुके थे। बस मात्र 1 बचा था, लेकिन दुर्भाग्य आप उसके जलने से पहले ही अधीर , व्याकुल हो गये। आपने आपके गुरु का सान्निध्य त्याग दिया और यह पहाड़ बीच में ही रह गया।

देवियों की बात सुनकर वाग्भट्ट पश्चाताप से भर गये।

देवियों ने आगे कहा– वाग्भट्ट! मांगो, जो भी वरदान मांगना है मांग लो ताकि हम जा सके।

वाग्भट्ट अश्रु बहाते हुये बोले कि, हे देवीयों! अब आपसे और क्या वरदान मांगना? क्या यह अपने आप में वरदान से कम है कि आज मेरा अपने गुरु के श्रीचरणों में विश्वास पुनः लौट आया। मेरे श्रीगुरुदेव तोउ ब्रह्मांड के नायक हैं। जो कृपा कर मुझ पापी का उद्धार कर रहे थे। लेकिन मैं ही बेसब्रा होकर उन्हें त्याग बैठा और देखो ! उन्होंने मुझे फिर भी नहीं त्यागा। तभी तो मुझे मार्ग दिखाने के लिए आप तीनों को मेरे पास भेज दिया। अब मुझे आपसे कुछ नहीं चाहिए। आप जा सकती हो। मैं तो पुनः अब अपने गुरु के श्रीचरणों में जाऊँगा। अब मैं और पागलपन नहीं करनेवाला। अखिल ब्रह्मांड के सूर्य को छोड़कर किसी जुगनू के पीछे नहीं भागनेवाला।

वाग्भट्ट ने फिर आव देखा न ताव। आसन से उठा, गुफा से बाहर निकला और चल पड़ा सीधा गुरु के आश्रम की ओर। मीलों का सफर तय किया बिना रुके, बिना थमे। अब थमा तो सीधा गुरु के चरणों में पहुँचकर। गुरुदेव भी तो जैसे उसी के इंतजार में पलकें बिछाये अपने प्यार लुटाने को आतुर बैठे थे।

मुझे क्षमा कर दो गुरुदेव! क्षमा कर दो। मैं आपको पहचानने में धोखा खा गया। मुझे पुनः अपनी शरण में ले लो। हे दाता! मैं रास्ता भटक गया था।

गुरुदेव मुस्कुराये और अपने दिव्य हस्तकमलों का आसरा देकर वाग्भट्ट को उठाया, आशीर्वाद देते हुए उसका सिर सहलाया।

समय बीतता गया। वाग्भट्ट ने कड़ी साधना व सेवा कर कर्म का वह आखिरी पहाड़ तो जलाया ही अपितु गुरुदेव की असीम कृपा व प्रसन्नता को भी पाया।

गुरुदेव ने एक दिन वाग्भट्ट के पास जाकर उससे पूछा, “क्यों वाग्भट्ट! साधना ठीक तो चल रही है ना?”

जी गुरुदेव! आपकी अनन्य कृपा है।

फिर ठीक है। हमें तो चिंता हो गई थी कि कही तुम फिर से हमें छोड़कर न चले जाओ।

वाग्भट्ट गुरुचरणों से लिपट गया। सिसकियां भरते हुए बोला, “गुरुदेव! ऐसा दिन आने से पहले आप मुझे अब मृत्यु दे देना। मैं भूत तो नहीं बदल सकता, परन्तु भविष्य में ऐसी सोच भी कभी न आये इसके लिए हरपल आपसे प्रार्थना करता हूँ। यदि मुझसे कही भूल हो गई है…भूल तो हुई है… कृपा कर आप मुझे क्षमा करें।”

अरे वाग्भट्ट! हम तो तुमसे ठिठोली कर रहे थे। हम तो तुमसे बेहद प्रसन्न है। बोलो तुम्हें क्या चाहिए?

गुरुदेव आज तक मैंने स्वार्थभरी मांग ही की है। परन्तु अब, अब नहीं। गुरुदेव! अब तो बस यही कामना है कि मेरे हाथों से समाज कल्याण हेतू कुछ सेवाकार्य हो जाये। लेकिन मुझे इसका श्रेय नहीं चाहिए। मैं नहीं चाहता कि कोई मेरी प्रशंसा करें।

गुरुदेव ने कहा, यह तो असंभव है। नेक कार्यों के पीछे प्रशंसा तो छाया की तरह आती है।

तो ठीक है गुरुदेव! फिर वह पीछे ही रहे। मेरे समक्ष कभी ना आये। मतलब कि मेरे कार्य मेरे जीते जी प्रकट न हो बल्कि मेरे देह त्यागने के बाद ही समाज उन्हें जाने।

जैसी तुम्हारी इच्छा। तब श्रीगुरुदेवजी की आज्ञा से वाग्भट्ट वृंदावन में गये। वहां कुछ काल तक गहन साधना की गुरु के निर्देशानुसार। ऐसा करने पर गुरुदेव की अनंत कृपा से उसमें एक अद्भुत शक्ति का उदय हुआ। अब वह जिस भी पेड़-पौधे के पास जाकर बैठते, वह वनस्पति स्वयं ही अपने औषधीय गुणों का बखान करने लगती और वाग्भट्ट उन्हें काग़जपर लिखते जाते।

इसप्रकार उन्होंने आयुर्वेद के अनेक ग्रंथ रच डाले। परन्तु ये सभी प्रकाश में उनके देहत्याग के बाद ही आये। इनमें से ‘अष्टांग संग्रह ‘ व ‘अष्टांग हृदयम’ तो आयुर्वेद की अमूल्य निधि मानी जाती है। यह सब गुरु की कृपा का ही फल था।

शिष्य के भाव को जान समर्थ गुरु वही प्रकट हुए फिर क्या हुआ?……


जैसे पानी को दूध में डाला जाय तो वह दूध में मिल जाता है और अपना व्यक्तित्व गवा देता है वैसे ही सच्चे शिष्य को चाहिए कि वह अपने आपको सम्पूर्णतः गुरु को सौंप दे उनके साथ एक रूप हो जाये। जैसे छोटे-छोटे झरने एवं नदिया महान पवित्र नदी गंगा से मिल जाने के कारण खुद भी पवित्र होकर पूजे जाते है और अंतिम लक्ष्य समुद्र को प्राप्त होते है उसी प्रकार सच्चा शिष्य गुरु के पवित्र चरणों का आश्रय लेकर गुरु के साथ एकरूप बनकर शाश्वत सुख को प्राप्त होता है।

मनीषीजन कहते है कि- सद्गुरु दया के दरिया होते है परन्तु सद्गुरु के दया के लिए यह विशेषण भी छोटा लगता है क्योंकि दरिया भी सीमित है उसकी भी एक सीमा है वह भी कही न कही जाकर दायरों में बंध ही जाता है परन्तु गुरुदेव की दया सागर से भी अनंत-अनंत गुना विशाल होती है, उनकी दया असीम है जिसकी कोई सीमा नही। कहते है कि अनंत माताओं का हॄदय मिलाकर एक हुआ होगा तब कहि जाकर सद्गुरु का हॄदय बना होगा और ऐसे सद्गुरु से पूछा जाए कि आप क्या चाहते है?? तो मानो सद्गुरु यही कहेगे कि हे मेरे प्यारो! मुझे तुम्हारा मन चाहिए ताकि जिससे मैं तुम्हे मन हीन अवस्था तक पहुंचा सकू। मुझे तुम्हारे मन मंदिर में स्मरण की खुशबू चाहिए, हे मेरे प्यारो! मुझे तुम्हारे मन मे बैठने के लिए भावना का आसन चाहिए।

अष्टावक्र जी ने राजा जनक को ज्ञान प्रदान करने के उपरांत कहा कि- हे राजन! मुझे तुम्हारा मन चाहिए क्योंकि तेरा मन ही समस्त समस्याओं का मूल है फिर उसके बाद उसे ब्रम्हज्ञान की दीक्षा प्रदान की। कहते है कि सौदागर है जो विषयो का, माया का जो व्यापारी है जिसके मन को, चित्त को केवल धन दौलत ही प्यारी है उस हॄदय की तंग गलियों में प्रभु सत्ता समा सकती नही और मन अर्पित किए बिना गुरु कृपा पाई जा सकती नही।

नरेंद्र की सबसे बड़ी विशेषता यही थी कि उन्होंने अपने गुरुदेव श्री रामकृष्ण परमहंस जी को अपनी यादों की पटल पर पूरा का पूरा उकेर लिया था। मठ से जब घर जाते तो ठाकुर की इतनी याद आती कि फिर दौड़े-दौड़े मठ को चले आते। भरे बाजारों से गुजरते तो मन ही मन ठाकुर से बाते किया चलते, किताबे तो पढ़ते तर्को और विद्वता से पूर्ण परन्तु तब भी मन मे वही अपने गुरुदेव का स्मरण ही चलता। धुरंधर विद्वानों से शास्त्रार्थ करते तब भी ऐसा कभी नही हुआ कि उनके मुख पर उन विद्वानों के समक्ष उनके गुरुदेव का नाम न आया हो। गुरु की ऐसी अलौकिक रौशनी को हर शिष्य शायद हासिल नही कर पाता गुरु की पावन आकृति में जो प्रेरणा छिपी है उस तक हर साधक नही पहुंच पाता, गुरु की प्रेम वर्षा में शायद हर कोई अपने को भिगो नही पाता परन्तु जब साधक भावो की अंजली लेकर गुरु को अर्पित करता है तब सद्गुरु उसके हॄदय में दृढ़ता से प्रतिष्ठित होते जाते है तब कुदरत की जड़ता चैतन्यता में बदल जाती है। धरती आकाश, चन्द्रमा,सूर्य वनस्पति,मिट्टी का कण-कण और प्रकृति का रोम- रोम भी उन लम्हो का साक्षी बनकर धन्य धन्य हो जाता है जैसे जिस समय एक सच्चा प्यासा पानी की तलाश में निकलता है, पानी के सिवाय किसी और विकल्प को स्वीकार नही करता तो ऐसे प्यासो के लिए मानो नदी में भी ऊंची-ऊंची लहरे उठती है, उफान आ जाता है वह जल राशि भी उस संतप्त हॄदय की प्यास से व्याकुल जीव की प्यास को शांत करने के लिए व्याकुल हो जाती है ऐसे ही जब साधक व्याकुल हो तड़पकर अपने सद्गुरु देव को पुकारता है तो मानो हॄदय में प्रतिष्ठित सद्गुरु रूपी सागर ही साधक के आंखों से खारा आंसू बनकर बहते है परन्तु ये याद के आंसू साधक के जीवन मे मिठास भरती जाती है।

नरेंद्र को एकबार किसी विद्यालय में पहुंचना था रास्ता बहुत लंबा था और पैदल ही जाना था साथ मे उनके दो मित्र भी थे यही सोचकर नरेंद्र विकल हो गए इसलिए नही की दूरी बहुत है अपितु इसलिए कि साथ में दो बतंगड़ मित्र भी थे, साथ होंगे तो इधर-उधर की बाते भी होंगी फिर केन्द्रबीन्दु ठाकुर मेरे गुरुदेव मेरी यादों से छूट जाएंगे। ठाकुर की याद का रस पिये बिना दो पल भी गुजारना नरेंद्र को गवारा न था इसलिए उन्होंने कहा कि- मित्रो आपलोग इस रास्ते से चलो मैं उस रास्ते से विद्यालय पर पहुंचता हु।

मित्रो ने कहा- क्यों नरेंद्र वह तो और भी लम्बा रास्ता है?

नरेंद्र ने कहा-मैं जानता हूं लेकिन मुझे उस रास्ते पर किसीसे मिलना है वहा मेरी कोई राह देख रहा होगा।

नरेंद्र अपने अलग रास्ते पर डग भरने लगे जितनी गति से कदम उठा रहे थे उससे ज्यादा गति से उसका मन ठाकुर की ओर उनकी गुरुदेव की ओर बढ़े जा रहा था। भावो की भाषा मे कहा जाय तो गुरुवर से बातचित का सिलसिला शुरू हो चुका था। कुछ दूर आगे जाते ही नरेंद्र ने देखा कि सुनसान मोड़ पर ठाकुर खड़े है नरेंद्र जैसे ही उनके करीब आया ठाकुर ने उन्हें अपने गले से लगाया अपने दर्शन देकर कृतार्थ किया और फिर अदृश्य हो गए।

हम सोचे कि हम न जाने अपना मन किन-किन चिंताओं और मान्यताओं से भरा रखते है। रिश्तों की चिंताएं, रिश्तों की मान्यताएं, कर्मो की चिंताएं, कर्मो की मान्यताएं। यदि सद्गुरु का चिंतन सुमिरण होगा तो यह चिंता और मान्यताएं नही रह पाएगी इसलिए सद्गुरु के प्रति भावना ही सबसे बड़ी उपासना है और सबसे बड़ी साधना है। *सद्गुरु की याद है तो हमारी साधकता भी आबाद है।* सद्गुरु की यादों की कैसी महिमा है कि सद्गुरु की याद है तो हर स्वांस ध्यान और सुमिरन बन जाता है, सद्गुरु की याद है तो मन का हर विचार सत्संग बन जाता है। सद्गुरु की याद है तो हर कर्म सेवा का रूप ले लेती है। सद्गुरु की याद है तो उनका श्रीमुख आंखों के सामने से कभी ओझल नही होता मानो सद्गुरु का अखण्ड दर्शन होता है। इसीको भगवान शिव जी कहते है कि-

यस्य श्रवण मात्रेण

ज्ञान उत्पत्ये स्वयं यस्य

मनसः स्यात प्रसन्नतः।

इसलिए सद्गुरु का स्मरण ही साधना के समर में सबसे बड़ा शस्त्र है। इतिहास के विजयवीर शिष्यो ने हमेशा इसी अस्त्र का सहारा लिया था। इसलिए हे गुरु प्रेमियों! बांधो अपने मन को गुरुवर की यादों के बंधन में, उनकी सुमिरन की डोर में हर स्वांस को गूथ लो तब मुक्ति ही मुक्ति है। जब हम एक कदम एक कोष चलते है तो हमारा मन 100 कोष दौड़ता है। साधना के पथ पर एक कदम और संसार की तरफ मन का 100 कोष दौड़ना। मन की रफ्तार तेज है, क्यों नही हम अपने सद्गुरु की यादों की जहाज पर बैठकर उनके स्मरण की जहाज पर बैठकर मन के इस रफ्तार का लाभ उठा ले और उन्ही की यादों से अपने को धन्य बना ले।

गुरुवर तुमसे यह अर्ज है,

कुछ ऐसा मेरा प्यार हो।

हर पल तेरी याद हो,

हर पल तेरा दीदार हो।

तेरे ध्यान में मन सदा रहे,

रग-रग में तू बसा रहे।

अनुराग का वो नशा रहे,

दिन रात का न खुमार हो।

निकले प्राण तन से जो ऊबकर,

एहसान ये मुझ पर खून करना।

तेरे प्रेम सिंधु में डूबकर,

नय्या मेरी पर हो,

नय्या मेरी पर हो…….