अदम्य साहस व समर्पण की अद्भुत कथा (भाग-1)

अदम्य साहस व समर्पण की अद्भुत कथा (भाग-1)


जो उच्चतर ज्ञान चित्त में से निस्पन होता है वह विचारों के रूप में नहीं । अपितु शक्ति के रुप मे होता है ।वह ज्ञान गुरु –

शिष्य के प्रति सीधे सीधे संक्रमित करते हैं ।ऐसे गुरु चित्त शक्ति के साथ एक रुप होते हैं ।ईश्वर साक्षात्कार केवल स्व प्रयत्न से ही नहीं हो सकता ।उसके लिए गुरु कृपा अत्यंत आवश्यक है ।गुरु श्रद्धा पर्वतों को हिला सकती है ।गुरु कृपा चमत्कार कर सकती है ।हे वीर !! निःसंशय होके आगे बढ़ो ।

यूँ तो श्रावस्ती नगरी पर सदैव ही प्रकृति माँ की करुणा और दया बनी रहती थी । धन-धान्य खेत खलियानों से वह हमेशा सजी धजी रहती थी परंतु न जाने क्यू कुछ महीनों से प्रकृति माता इस नगरी से रुष्ट हो गई थी । श्रावस्ती भयंकर अकाल से ग्रस्त थी ।सूर्यदेव अपने प्रचंड आग से सबकुछ झुलसा देने को आतुर थे ।ऐसे में राहत देनेवाले काले मेघों को तो जैसे इस नगरी की सुध ही नहीं रही ।हरे भरे पेड़ों की जगह शुष्म ठूठ नज़र आने लगी ।धरती असंख्य दरारों से टूट गयी । नगर वासी आकुल व्याकुल होकर अन्न के दाने दाने को तरसने लगे ।भूख मरी के साये ने नगर को अपने पॉश मे समेट लिया ।

लोगों के पेट रीढ़ की हड्डी को छू गए और आँखे गहरे गड्ढे में जा फसी ।हर ओर हाहाकार मचने लगा परंतु इसी नगर में एक वर्ग ऐसे धन कुबेरों का भी था जिनपर आज भी अन्नपूर्णा की असीम कृपा बरस रही थी ।उनके कोष अन्न धन से भरे पड़े थे ।दोनों हाथों से महीनों तक लुटाये तब भी समाप्त न हो परंतु अफसोस ! श्रीमंतो के जितने कोष भरे थे उतने ही उनके हृदय रिक्त थे । अपने नगर के लोगों की ऐसी हालत देखकर और सुनकर भी इन श्रीमंतों ने अपने हृदयों पर बड़े बड़े ताले जड़े हुए थे ।भूखमरी के कारण रोज नगर में किसी ना किसी के घर का चिराग आँखे मूंद रहा था । और वहाँ से हृदयं विदारक चित्कारक सुनायी देती थी परंतु ये श्रीमंत तो कुछ ऐसे हृदय हीन हुए थे कि ये करुण क्रुन्दन भी उनके हृदय को नहीं भेद पा रहे थे ।धीरे धीरे श्रावस्ती नगरी धन जन से पूर्ण समृद्ध शाली नगरी सुनसान मरघट मे परिणीत होने लगी परंतु श्रावस्ती के वासियों का सौभाग्य या यूं कहें अहोभाग्य इस अंधेरी कालिमा मे भी अचानक से पूर्णिमा का चाँद उतर आया ।

महात्मा बुद्ध अपने शिष्य मंडली के साथ विहार करते करते श्रावस्ती आ पहुंचे ।और वही जेतवन के विहार में निवास करने लगे । एक दिन विहार के प्रवेश द्वार पर एक बालक का मुतृक शरीर महात्मा बुद्ध का शिष्य, आनंद का हृदय धक सा बह गया यह देखकर ।हे प्रभु !! जिस द्वार से आज तक लाखों लोगों को जीवन समेट कर लौटते देखा है आज उसी द्वार पर नन्हे से बालक का जीवन छीन गया ।यह कैसी लीला ?? अपने कंधे पर पड़ा चिवर उतार कर आनंद ने मृतक बालक के शरीर पर डाल दिया ।और फिर बोझील सासों और भारी कदमों से महात्मा बुद्ध की ओर चल पड़े ।

बुद्ध उस समय अपने भक्तों के सामने आसान पर शोभयमान है परंतु आनंद को तो जैसे कुछ दिखा ही नहीं ।वह सीधा बुद्ध के चरणों में गिरकर रोने लगा ।बुद्ध ने अपनी दयामयी दृष्टि आनंद पर डाली तो उनके मुख पर मधुर मुस्कान फैली ।वह अपने शिष्य के मनोभावों को भली-भांति पड़ चुके थे । आज उनका शिष्य का हृदय समाज के विफल हुआ था फिर भी महात्मा बुद्ध ने अपनी करुणा मयी वाणी से पूछा , भंते क्या हुआ ?? वह कौन सा कारण है जो तुम्हें इतना अशांत कर रहा है ?? आनंद ने आंसू पोछते हुए अपना मुख उठाया हाथ जोड़कर कहने लगा, भगवन !आज श्रावस्ती मे अन्न के बिना लोग तड़प तड़पकर अपने प्राण त्याग रहे हैं ।क्या ऐसी दशा में भिक्षुक संग का कोई कर्तव्य नही है ।बताइये गुरुदेव हमे क्या करना चाहिए ??

महात्मा बुद्ध ने आनंद से नज़रे उठाकर अपने भक्तों पर गाढ दी । जिसमें अनेक धन कुबेर भी उपस्थित थे । प्रभु उन्हें संबोधित करते हुए अपने दिव्य वाणी में कहा , आप मे से बहुत सारे लोग धन धान्य से सम्पन्न है ।आप की नजरों के सामने आप के ही नगर वासी भूख के कारण भयंकर ज्वाला से तड़प तड़पकर प्राण त्याग रहे हैं ।आप चाहे तो आसानी से उन लोगों को मृत्यु के मुँह मे जाने से बचा सकते है । बताइये आप मे से कौन कौन तैयार है ।

महात्मा बुद्ध ने यह आह्वान कर मानो उन्हें खुला निमंत्रण दे डाला कि आज जो कोई भी मेरी आज्ञा को शिरोधैर्य कर अपने भंडार मे से कुछ ठिकरे भी निकालेगा उसके लिए मैं अपनी करुणा और दया के कोश के सारे द्वार खोल दूँगा । बुद्ध की ममतामयी किन्तु अड़िग वाणी साफ साफ समझा रही थी कि आज जो भी मेरी आज्ञा मे उठेगा उसे कभी फिर संसार में गिरने नही दूंगा ।जो भी आगे कदम बढ़ाएगा फिर कभी पिछे मुडना न पड़ेगा ।जो भी आज अपना धन कोष लुटाने के लिए तैयार होगा उसपर मै अपना सर्वस्व लुटा दूंगा ।

किन्तु ईश्वर की कृपा को समेट पाना , गुरु की कृपा को समेट पाना सब की किस्मत में कहाँ??6 आज ये श्रीमंत भी बुद्ध की कृपा को नज़र अंदाज कर बबूले की भांति अपनी गर्दने सिकुड़ते दिखे ।हर कोई एक दुसरे के पिछे छिपने की कोशिश कर रहा था । कहीं बुद्ध की दृष्टी हम पर न पड़ जाए । कहीं वे हमें ही कुछ न कह बैठे ।उनमें से कुछ ऐसे भी थे जो बुद्ध के आगे ही बहाने बना बैठे ।

एक ने कहा प्रभू हमारे खलियान तो खुद ही अन्न से खाली है ।दूसरा भी झट बोला , प्रभु श्रावस्ती जैसे विशाल नगरी में इतने अधिक वासियों तक अन्न जल पहुँचाना एक मनुष्य के बुते के बाहर की बात है परंतु महात्मा बुद्ध तो कुछ और ही सुनना चाहते थे ।उन्होंने फिर उपस्थित मंडली की ओर अपनी नज़रे दौड़ायी और कहा , क्या इस सभा में ऐसा कोई नहीं है जो इस भयंकर दुर्भिक्ष से अपने बंधुओ की रक्षा कर सके । बुद्ध के शब्दों में ऐसी गुरुता थी कि हर ओर स्तब्धता छा गई ।सन्नाटे ने विहार को चारों ओर से घेर लिया ।

तभी एक छोटी सी बालिका अपने स्थान से उठी और दृढ़ता से बोली भगवन आप की यह सेविका आप की आज्ञा का पालन करने के लिए प्रस्तुत है ।जन सेवा में यदि प्राण भी न्योछावर करने पड़े तो आप की कृपा से पिछे नही हटूंगी ।यह तो मेरे लिए परम सौभाग्य की बात होगी ।मुझे आज्ञा दीजिये गुरुदेव ।गुरुदेव !! मुझे आज्ञा दीजिये ।

कल की पोस्ट में हम जानेंगे कि यह छोटी सी बालिका कौन है और किस प्रकार गुरु कृपा से नगर वासियों की पीड़ा दूर कर पाती है ?

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