श्रीमद् आद्य शंकराचार्य जी द्वारा विरचित गुर्वष्टकम् का हिन्दी पद्य भावानुवाद

श्रीमद् आद्य शंकराचार्य जी द्वारा विरचित गुर्वष्टकम् का हिन्दी पद्य भावानुवाद


गुरुपद विमुख हो तो सब नाशकारी

स्वयं हो मनोहर, सुरूपिणी नारी,

अमित द्रव्य सब ओर हो कीर्ति भारी ।

लगा ना यदि चित्त गुरु के चरण में,

तो निःसार ही है ये उपलब्धि सारी ।।1।।

सहित वित्त पुत्रादि पौत्र व नारी,

स्वजन संग रहने को ऊँची अटारी ।

हो प्रारब्ध से सब सुलभ इस जगत में,

है बेकार, गुरुपद-रति जो ना धारी ।।2 ।।

हो वेद और वेदांग कंठस्थ कारी,

सदा मुख बसे शास्त्र विद्या भी सारी ।

सम्पन्न कविकर्म गुण से सहज में,

गुरुपद विमुख है तो कब अर्थकारी ।।3।।

हो देश और विदेशों में सम्मान भारी,

अनन्य हो आचार और सदाचारी ।

अनासक्त जो मन गुरु के चरण में,

तो सब व्यर्थ ये गुण भी अवगुणकारी ।।4।।

जिन्हें पूजते नित्य राजाधिकारी,

वो सेवित-चरण जो सदा पुण्यकारी ।

नहीं ध्यान धर पाये गुरुपद-कमल में,

वो सद्भाग्य भी तो हुआ व्यर्थकारी ।।5।।

दिशाएँ यशस्वी जिन्हें कह पुकारी,

बने दानवृत्ति में बलि सम वो भारी ।

सुलभ हो जिन्हें सुख सभी गुरुकृपा से,

गुरुपद विमुख हो तो सब नाशकारी ।।6।।

न धन, योग न राज्य वा अश्व चारी1,

न विचलित करे है जिसे भोग, नारी ।

न रत रह सका जो महत् पद शरण में,

तो मन की अटलता भी है मिथ्याकारी ।।7।।

जिसे वन भवन ना ही सम्पत्ति प्यारी,

न निज देह रूपादि का भी पुजारी ।

अनुरक्त न रह सका गुरुचरण में,

तो मन की अनासक्ति भी भार सारी ।।8।।

अमूल्य मणि रत्न मुक्तादि धारी,

शयन में समालिंगिता साथ नारी ।

निरर्थक हैं ऐश्वर्य भोगादि सारे,

जो गुरुपद-कमल में ना श्रद्धा विचारी ।।9।।

जो राजा गृहस्थ यति ब्रह्मचारी,

गुरु अष्टकम् नित पढ़े पुण्यकारी ।

हो सम्प्राप्त इच्छित परम पद उसे भी,

जो गुरुवाक्य निष्ठा हृदय में उतारी ।।10।।

1 चारों

नी. शेखावत

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2020, पृष्ठ संख्या 10 अंक 330

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