हनुमान जी जब सीता जी की खोज में लंका जा रहे थे तो देवताओं ने उनकी परीक्षा करने हेतु सुरसा नामक सर्पों की माता को भेजा। सूक्ष्म बुद्धि के धनी हनुमान जी तुरंत समझ गये कि ‘यह स्वयं मेरा मार्ग रोकने नहीं आयी है अपितु देवताओं द्वारा भेजी गयी है।’ उन्होंने कहाः ”हे माता ! अभी मुझे जाने दो। श्री राम जी कार्य करके मैं लौट आऊँ तब मुझे खा लेना।”
हनुमान जी सोचते हैं कि ‘तू तो देवताओं की आज्ञा से आयी है और मैं तो राम जी की आज्ञा से आया हूँ। जिनकी आज्ञा से तू आयी है, मैं उनसे भी बड़े की आज्ञा से आया हूँ।’ हनुमान जी यहाँ आज्ञापालन में दृढ़ता का आदर्श उपस्थित कर रहे हैं कि सेवक को अपने स्वामी के आज्ञापालन में कितनी दृढ़ता रखनी चाहिए। विघ्न बाधाओं के बीच भी अपना मार्ग निकालकर स्वामी के सेवाकार्य में कैसे सफल होना चाहिए।
हनुमान जी ने अपने स्वामी श्रीरामजी को हृदय में रखकर लंका में प्रवेश किया। मानो, हनुमान जी ने सफलता की युक्ति बता दी कि कोई भी कार्य करें तो पहले अपने हृदय में गुरु का, इष्ट का सुमिरन, ध्यान करें। उनसे प्रेरणा लेकर कार्य करें। फिर हनुमान जी लंका में सीता जी को खोजना प्रारम्भ करते हैं। कैसे ? संत तुलसीदासजी लिखते हैं-
मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा।
उन्होंने एक-एक मंदिर में खोजा। रावण के महल के लिए भी मंदिर शब्द लिखा है – ‘गयउ दसानन मंदिर माहीं।’ हनुमान जी मानते थे कि ‘सीता माता मेरी इष्टदेवी है, वे लंका में हैं। अतः यहाँ का एक-एक घर मेरे लिए मंदिर है।’
हनुमान जी ने शिक्षा दी है कि हमारा भी ऐसा भाव हो कि ‘समस्त चर-अचर में परमात्म-तत्त्व, गुरु तत्त्व ही बस रहा है।’ जब हर हृदय में परमात्मा को निहारेंगे और उसी के नाते सबसे व्यवहार करेंगे तो हमारा हर कार्य पूजा हो जायेगा। और फिर नफरत किससे और द्वेष किससे होगा ? सब कुछ आनंदमय, भगवन्मय हो जायेगा।
हनुमानजी और सबके घर गये तो तुलसीदासजी ने ‘मंदिर’ लिखा पर विभीषण जी के यहाँ गये तो ‘भवन’ लिखा है।
भवन एक पुनि दीख सुहावा।
हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा।। (श्रीरामचरित. सुं.कां. 4.4)
हनुमान जी देखते हैं कि ‘यहाँ भगवान का मंदिर अलग बना हुआ है।’ और एक भक्त का घर दूसरे भक्त का घर होता है क्योंकि दोनों अपना-अपना घर तो मानते नहीं, भगवान का ही मानते हैं इसलिए विभीषण जी के घर के सामने जब हनुमान जी पहुँचे तब उसमें उनको मंदिरबुद्धि करने की जरूरत नहीं पड़ी। ऐसा लगा कि ‘हम तो अपने प्रभु के घर में आ गये।’
उसी समय विभीषण जी जागे तो उन्होंने राम नाम उच्चारण किया। उनके मुँह से भगवन्नाम सुनकर हनुमान जी बड़े प्रसन्न हुए। यह भक्त की पहचान है कि वह अपने इष्ट का नाम सुनकर भाव से भर जाता है।
हनुमान जी कहते हैं-
एहि रान हठि करिहउँ पहिचानी।
साधु ते होइ न कारज हानी।। (श्रीरामचरित. सुं.कां. 5.2)
‘इनसे यत्नपूर्वक परिचय करूँगा क्योंकि साधु से कार्य की हानि नहीं होती।’ हनुमान जी यहाँ सीख दे रहे हैं कि संत का संग प्रयत्नपूर्वक करना चाहिए। इससे हानि न होकर हमेशा लाभ ही होता है। हनुमान जी को विभीषण जी से बहुत सहयोग मिला।
माँ सीता को खोजने के लिए जब हनुमान जी निकले तो उनके मार्ग में अनेक बाधाएँ आयीं पर बुद्धि, विवेक व प्रभुकृपा का सम्बल लेकर उन्होंने हर परिस्थिति का सामना किया। हनुमान जी ने रावण के भाई (विभीषण जी) से ही सीता जी का पता लिया और सीता माता तक स्वामी का संदेश पहुँचाया। इस प्रकार सीता जी को खोजने का सेवाकार्य पूरा किया और आदर्श उपस्थित किया कि स्वामी की सेवा को कैसे कुशलता, दृढ़ता, तत्परता व सावधानी का अवलम्बन लेकर सुसम्पन्न करना चाहिए।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2017, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 293
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