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हमारे साधक गुमराह होने वाले नहीं हैं – पूज्य बापू जी


 

(सन् 2004 व 2008 के सत्संगों से)
महापुरुषों का संग आदरपूर्वक, प्रयत्नपूर्वक करना चाहिए और उनकी बात को आत्मसात् करना चाहिए। इसी में हमारा कल्याण है। बाकी तो सत्पुरुष धरती पर आते हैं तो उनके प्रवचनों को, उनके व्यवहार को अथवा उनकी बातों को तोड़-मरोड़ के विकृत करके पेश कर कुप्रचार करने वाले लोग भी होते हैं। वसिष्ठ जी महाराज का कुप्रचार ऐसा हुआ कि उन्हें कहना पड़ाः “हे राम जी ! मैं हाथ जोड़कर प्रार्थना करता हूँ कि जो कुछ मैं तुमको उपदेश करता हूँ, उसमें ऐसी आस्तिक भावना कीजियेगा कि इन वचनों से मेरा कल्याण होगा।”

कितने ऊँचे महापुरुष ! सीतासहित भगवान रामचन्द्रजी थाल में उनके चरण धोकर चरणामृत लेते थे और श्रद्धा डिगे ऐसे राम जी नहीं थे यह वसिष्ठजी जानते हैं लेकिन इस निमित्त, जो शास्त्र और संत का फायदा लेकर आम आदमी उऩ्नत होंगे, उन बेचारों को पतन कराने वाले लोग गिरा न दें इसलिए वे महापुरुष हाथ जोड़ रहे हैं।
धर्मांतरण करने वालों ने देखा कि बापू जी लोगों को सावधान करते हैं तो उनको एक अभियान चला लिया है। ऐसा एक दो बार नहीं, कई बार हुआ है। दो पाँच आदमी मिल गये, कुछ मीडियावाले मिल गये और कुप्रचार करते रहे। हम बोलते थे, ‘ठीक है, करने दो। होने दो जो होता है।’ हम तो सह लेते हैं। लेकिन हमारे साधकों का अनुभव है कि ‘हमारे बापू ऐसे नहीं हैं। तुम्हारा कुप्रचार एक तरफ है और हमारा लाखों-अरबों रूपयों से भी कीमती जीवन, हमारा अनुभव हमारे पास है। बापू के दर्शन-सत्संग से हमारे जीवन में परिवर्तन आये हैं, हम जानते हैं।’ कोई पैसे देकर हमारे लिए (बापू जी के लिए) कुछ चलवा दे तो हमारे साधक गुमराह होने वाले नहीं हैं।

उन चैनलवालों को धन्यवाद है जो…………

कितना भी अच्छा काम करो फिर भी किसी की कुछ खुशामद न करो तो कुछ का कुछ मीडिया में दिखायेंगे, अखबारों में लिखवा देंगे, ऐसी ईर्ष्यावाले लोग भी हैं। हम तो कहते हैं कि

जिसने दिया दर्द-दिल, उसका खुदा भला करे….

सैंकड़ों जगहों पर जपयज्ञ चल रहे हैं, उन सज्जनों को यह दिखाने के समय नहीं मिलता। जो मोहताज हैं, गरीब, लाचार, बेरोजगार हैं, ऐसे लोग आश्रमों में, आश्रम की समितियों के केन्द्रों पर सुबह 9 से 10 बजे तक इकट्ठे हो जाते हैं और 12 बजे तक कीर्तन भजन करते हैं, फिर भोजन मिलता है, थोड़ा आराम करके भजन करते हैं और शाम को 50 रूपये लेकर जाते हैं। ओड़िशा, महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश तथा और भी कई राज्यों में ऐसे जपयज्ञ चलते हैं और अहमदाबाद आश्रम की तरफ से उनको धनराशि भेजते हैं, अपने पास रिकार्ड है।

प्रसार-माध्यमों का यह नैतिक कर्तव्य है कि यह समाज को दिखाये। जैसे कुछ चैनलवाले हैं, उनको धन्यवाद है कि सत्संग और ये अच्छाइयाँ दिखाने का सौभाग्य है उनका, तो उऩके लिए लोगों में इज्जत भी बढ़ जाती है, उऩ चैनलों के लिए सम्मान भी हो जाता है।

हिन्दुस्तान के लगभग सभी संत-महापुरुषों का आजकल खूब जमकर कुप्रचार हो रहा है परन्तु सच्चा संत भारत की शान-बान को सँभालने के लिए तैयार रहता है। किसी संत के प्रति कोई आरोप-प्रत्यारोप लगाना आजकल फैशन हो गया है। कुछ ऐसी विदेशी ताकतें हैं जो हिन्दुस्तान के संतों को बदनाम करने में भी खूब धन का उपयोग करती हैं। हिन्दू संस्कृति को मिटाओगे तो मानवता ही मिट जायेगी भैया !
परन्तु हमें विश्वास है कि कैसा भी युग आ जाय, कलियुग या कलियुग का बाप आ जाय, फिर भी सतयुग का अंश रहता है, सज्जनों का सत्व रहता है और अच्छे सज्जन लोग थोड़े बहुत संगठित रहते हैं, तभी ऐसे कलियुग के तूफान भरे कुप्रचारों से समाज की रक्षा हो सकती है। विकृति फैलाना, भ्रामक प्रचार करना यह कोई कठिन काम नहीं है, सुख-शांति और समत्वयोग लाना यह बहादुरी का काम है। लड़ते झगड़ते समाज में स्नेह का रस दान करना यह बड़ी बात है।

‘विश्व धर्म संसद’ में मैंने कहा था……..

शिकागो की विश्व धर्म संसद में (भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए) मैंने बार-बार इस बात पर ध्यान दिलाया था कि ‘जातिवाद, वर्गवाद, फलानावाद… यह करके मनुष्य-मनुष्य को एक दूसरे की नजरों से गिराना और भिड़ाना-इससे मानवता की सेवा नहीं होती, मानवता के साथ विश्वासघात होता है। मानवता की सेवा है कि मानव मानव के हित में लगे, मंगल में लगे, एक दूसरे को समझे और आत्मीयता बढ़ाये। मेरी सभी से यह प्रार्थना है कि भले कोई किसी मजहब या धर्म को मानता है, किसी गुरु को मानता है लेकिन कुल मिलाकर हो तो धरती का मनुष्य ! मनुष्य मनुष्य के हित में काम करे।’
तुम तैयार रहो !

मैं कभी किसी मजहब अथवा किसी धर्म को या किसी गुरु को मानने वाले की आलोचना करने में विश्वास नहीं रखता। मेरे सत्संग में ऐसा नहीं है कि केवल मेरे शिष्य ही आते हैं बल्कि कई सम्प्रदायों के, कई मजहबों के लोग आते हैं। मेरे कई मुसलमान भक्त है, ईसाई भक्त हैं। मेरे मन में ऐसा नहीं होता कि कोई पराया है। सब तुम्हारे तुम सभी के, फासले दिल से हटा दो।

वसिष्ठजी और राम जी के जमाने में भी ऐसा वैसा बोलने वाले और अफवाहें फैलाने वाले लोग थे तो अभी मेरे कहने से सब चुप हो जायेंगे, सब शांत हो जायेंगे, ऐसा मैं कोई आग्रह नहीं रखता हूँ। फिर भी जो अच्छे हैं वे अच्छी बात मानकर स्वीकार कर लें तो उऩकी मौज है, न मानें तो उनकी मौज है।

साधकों को यह भ्रामक प्रचार सुनकर घबराना नहीं चाहिए। जब प्रचार भ्रामक है तो उससे डरना काहे को ? घबराना काहे को ?

देव-दानव युद्ध अनादिकाल से चला आ रहा है। दैवी विचार व आसुरी विचार यह तो चलता रहता है। यह तो ससांर है। महात्मा बुद्ध, महावीर स्वामी, संत कबीर जी, गुरु नानक जी, भगवान राम जी और राम जी के गुरुदेव वसिष्ठजी पर ये भ्रामक प्रचार के तूफान और बादल आये तो तुम्हारे पर भी आ गये तो क्या बड़ी बात है ! तुम तैयार रहो।

उठत बैठत ओई उटाने, कहत कबीर हम उसी ठिकाने।

‘शरीर मैं हूँ, यश-अपशय मेरा है’ – यह मोह यानी अज्ञान है। मैं सच्चिदानन्द ब्रह्म हूँ, सृष्टि के आदि में जो था और प्रलय के बाद भी जो रहेगा वही मैं हूँ।’ – यह सत्य, वेदांतिक ज्ञान है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2015, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 266
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संतों की अनोखी युक्ति


पूज्य बापू जी

(ऋषि दयानन्द जयंतीः 4 मार्च 2016)

झेलम (अखंड भारत के पंजाब प्रांत का शहर) में एक दिन ऋषि दयानंद जी का सत्संग सम्पन्न हुआ। अमीचन्द ने भजन गाया। दयानंद जी ने उसकी प्रशंसा की। वह जब चला गया तो लोगों ने दयानंद जी से बोलाः “यह तो तहसीलदार है परंतु चरित्रहीन है। अपनी पत्नी को मारता है, उसे घर से निकाल दिया है। शराब पीता है, मांस खाता है…..” इस प्रकार बहुत निंदा की।

दूसरे दिन वह आया। ऋषि दयानंद जी ने उसको फिर से भजन गाने को कहा। उसने भजन गाया और उन्होंने फिर प्रशंसा कीः “तू भजन तो ऐसा गाता है कि मेरा हृदय भर गया। मैं तो कल भी, आज भी भावविभोर हो गया लेकिन देख यार ! सफेद चादर पर एक गंदा दाग लगा है। तू द्वेष करता है, अपनी पत्नी पर हाथ उठाता है। अपनी पत्नी के द्वेष बुद्धि छोड़ दे। अपनी बुराइयाँ व अहंकार छोड़ दे तो तू हीरा होकर चमकेगा। अरे, हीरा भी कुछ नहीं होता। हीरों का हीरा तो तेरा आत्मा है।….” और वह तहसीलदार बदल गया। उसने सारी बुरी आदतें छोड़ दीं और आगे चलकर संगीतकार महता अमीचंद के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

किसी की बुराई देखकर संत उसको ठुकराते नहीं हैं लेकिन उसकी अच्छाई को प्रोत्साहित करके उसकी बुराई उखाड़ के फेंक देते हैं। इसलिए संत का सान्निध्य भगवान के सान्निध्य से भी बढ़कर माना गया है। भगवान तो माया बनाते हैं, बंधन भी बनाते हैं। संत माया नहीं बनाते, बंधन नहीं बनाते, बंधन काट के मुक्त कर देते हैं, इसलिए भगवान और संत को खूब स्नेह से सुनें और उनकी बात मानें।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2016, पृष्ठ संख्या 23 अंक 278

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सब लोग किसे चाहते हैं ?


जो व्यक्ति अच्छा व्यवहार करता है, ईमानदार है, सच्चा है तो उसे सब पसंद करते हैं। उसके पास बैठने में, उससे बात करने में हमें आनंद मिलता है। नम्रता, सहनशीलता, साहस, कार्य में लगन, आत्मविश्वास, विश्वासपात्रता, दयालुता, ईमानदारी, दृढ़ निश्चय, तत्परता, सत्यनिष्ठा इत्यादि अनेक उत्तम गुण हैं, जिनके मेल से मनुष्य का चरित्र बनता है। चरित्र का धन कोई साधारण धन नहीं है। इनमें से कुछ गुणों को भी पूरी तरह धारण करने से मनुष्य का जीवन सफल हो जाता है।

चरित्र –निर्माण कब और कैसे ?

चरित्र-निर्माण का सबसे अच्छा समय है बचपन। उस समय अच्छी आदतें सीखना आसान होता है। ये आदतें जीवनभर काम आती हैं। बालकों को जो बातें बतायी या सिखायी जाती हैं, वे उनके मन पर पक्की हो जाती हैं। गुरुजनों का, सदगुरु का सम्मान करने से और उनकी आज्ञा मानने से विद्या प्राप्त होती है। अर्जुन ने इसी प्रकार गुरु से धनुर्विद्या प्राप्त की थी। भगवान श्रीरामचन्द्र जी ने गुरु वसिष्ठजी के आज्ञापालन से ही आत्मविद्या पायी थी।

मनुष्य के जीवन की नींव है चरित्र। शब्दों में नहीं बल्कि व्यवहार में प्रकट होते हैं चरित्र के गुण। दिखावट-बनावट से मनुष्य कुछ समय के लिए भले ही किसी को धोखे में रख ले परंतु ज्यादा समय तक धोखे में नहीं रख सकता। लोग चरित्रवान व्यक्ति की बात का विश्वास करते हैं। उसे उपयोगी तथा हितकारी मानते हैं। चरित्रवान दूसरों को धोखा नहीं देता, किसी को नीचे गिराने की कोशिश नहीं करता। वह ऐसी बात का प्रण नहीं करता, जिसे वह पूरा न कर सके।

उत्तम चरित्र क्या है ?

सच्चरित्रवान बनने के लिए मन, वाणी तथा शरीर से किसी को कष्ट मत दो। सच बात को भी प्रिय शब्दों में कहो। किसी की चीज न चुराओ, निंदा न करो। मान की लालसा मत करो। स्नान से शरीर की तथा ईर्ष्या-द्वेष, वैर-विरोध छोड़ने से मन की शुद्धि होती है। सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख सहते हुए अपने कर्तव्य को करो। सत्साहित्य का अध्ययन करते रहो। इन्द्रियों और मन को वश में रखकर अपने स्वभाव को सरल बनाओ। दुःखियों की सेवा करो। पूज्य बापू जी कहते हैं- “परमात्मा से दूर ले जाने वाली जो दुष्ट वासनाएँ हैं, वे दुश्चरित्र होते हैं। सच्चरित्रता से पुण्य होते हैं और पुण्य से हमको सत्संग, संत के दर्शन और परमात्मा में रुचि होती है।

पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता। (संत तुलसी दास जी)

चरित्रवान के लक्षण

चरित्रवान मनुष्य बहुत अधिक चतुर बनने का प्रयत्न नहीं करता। सीधा-सच्चा व्यक्ति लोगों को अधिक प्रिय होता है। चरित्रवान अपने कार्यों की बड़ाई करके दूसरों को नीचा दिखाने का प्रयत्न नहीं करता। वह धैर्यवान तथा सहनशील होता है। वह दूसरों के मत को ध्यान एवं धैर्य से सुनता है चाहे उसे दूसरे का मत ठीक न लगता हो फिर भी सुनने का धैर्य उसमें होता है। यदि वह किसी को उसकी भूल बताता है तो बड़ी नरमी से, तरीके से और उसके सुधार के लिए बताता है। चरित्रवान किसी का उत्साह भंग नहीं करता, वह किसी का दिल नहीं तोड़ता, वह सभी को नेक काम करने की सलाह देता है एवं उत्साहित करता है। वह स्वयं भी हिम्मत नहीं हारता। चरित्रवान मनुष्य सुख और दुःख में सम रहता है। विपत्ति के समय में वह सगे-संबंधियों या मित्रों को धोखा नहीं देता। ऐसी ही मित्रता श्रीकृष्ण ने सुदामा के प्रति निभायी थी। मित्रता निभाना भी सच्चरित्रता की निशानी है।

चरित्रः मानव की एक श्रेष्ठ सम्पत्ति

जो अपना कल्याण चाहता है उसे चरित्रवान बनना चाहिए। यदि हम चरित्रवान हैं, सत्कृत्य करते हैं तो हमारी बुद्धि सही निर्णय लेती है, हमें सन्मार्ग पर प्रेरित करती है। सन्मार्ग पर चलकर हम परमात्मप्राप्ति के लक्ष्य को आसानी से पा सकते हैं।

चरित्र मानव की श्रेष्ठ सम्पत्ति है, दुनिया की समस्त सम्पदाओं में महान सम्पदा है। मानव-शरीर के पंचभूतों में विलीन होने के बाद भी जिसका अस्तित्व बना रहता है, वह है उसका चरित्र। चरित्रवान व्यक्ति ही समाज, राष्ट्र व विश्व-समुदाय का सही नेतृत्व और मार्गदर्शन कर सकता है। अपने सच्चारित्र्य व सत्कर्मों से ही मानव चिरआदरणीय हो जाता है। जब हमारे जीवन का मुख्य उद्देश्य सत्स्वरूप ईश्वर होता है तो सच्चरित्रता में हम दृढ़ होते जाते हैं। सच्चरित्रवान बनने के लिए अपना आदर्श ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों को बनाना चाहिए।

जिसके पास सच्चरित्र नहीं है वह बाहर से भले बड़ा आदमी कहा जाय परंतु उसे अंदर की शांति नहीं मिलेगी एवं उसका भविष्य उज्जवल नहीं होगा। जिसके पास धन, सत्ता कम है परंतु सच्चारित्र्य बल है, उसे अभी चाहे कोई जानता, पहचानता या मानता न हो परंतु उसके हृदय में जो शांति रहेगी, आनंद रहेगा, ज्ञान रहेगा वह अदभुत होगा और उसका भविष्य परब्रह्म-परमात्मा के साक्षात्कार से उज्जवल होगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2016, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 278

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