श्रीराम नवमीः 8 अप्रैल
संत श्री एकनाथ जी महाराज ने ‘भावार्थ रामायण’ के द्वारा तात्त्विक ज्ञान की दृष्टि से भगवान श्रीराम के जीवन-चरित्र का निरूपण किया है, जो अध्यात्म के जिज्ञासुओं तथा आत्मकल्याण के इच्छुकों के लिए बहुत ही उपयोगी है।
भक्त की आत्मानंद में लीन हो जाने की स्थिति का वर्णन करते हुए संत एकनाथ जी महाराज कहते हैं- “जो त्रिभुवन में नहीं समा पाते वे ब्रह्म स्वरूप श्रीराम महारानी कौसल्या के गर्भ में स्थित थे। जो ब्रह्म त्रिभुवन में नहीं समा पाता, वह स्वयं श्रद्धाभाव में समा जाता है। साधक के मन में विशुद्ध भक्ति उत्पन्न होने पर उसे अनुभव होता है कि हृदयरूपी आकाश में सम्पूर्ण ब्रह्म (व्याप्त हो गया) है। श्रीरघुनंदन राम के रूप में पूर्ण ब्रह्म पूर्ण रूप से कौसल्या के गर्भ में आने पर वे अऩ्यान्य बातों के प्रति आत्मीयता का त्याग करके प्रेम से एकांत में रहने लगीं। उनमें देह के प्रति अनासक्त होने के लक्षण दिखाई दे रहे थे। यही अत्यधिक दृढ़ वैराग्य का लक्षण होता है। उन्होंने अपनी कल्पना का दमन करके निर्विकल्प कल्पतरू जैसे राम का आश्रय ग्रहण किया था, अतः निर्विकल्प समाधि-अवस्था को वे प्राप्त हुई थीं।
उनकी प्रवृत्ति सांसारिक बातों से विमुख होकर परमार्थ की ओर हो गयी थीं। वे सृष्टि को आत्मवत् देखने लगी थीं। जैसे किसी योगी को उन्मनी अवस्था प्राप्त हुई हो, इस प्रकार बैठी हुई अपनी धर्मपत्नी को देखकर राजा दशरथ आनंदित हुए। वे बोलेः “मन में जो दोहद (इच्छाएँ) हों, बता दो।” फिर भी उन्होंने उनके अस्तित्त्व को नहीं देखा। उनकी मनोवृत्ति रामस्वरूप में लवलीन थी। इसलिए वे व्यक्त तथा अव्यक्त को नहीं देख रही थीं। उनके उदर में निराकार ब्रह्म गर्भरूप में उदित था। इसलिए उऩ्हें देह के विषय में कोई स्मृति नहीं हो रही थी। वे स्तब्ध होकर श्रीराम को देख रही थीं। यह देखकर राजा ने कहाः “हाय ! यह सुंदरी किस प्रकार भूत-पिशाच की पकड़ में आकर बहक गयी है ! पुत्रप्राप्ति की मेरी कामना किस प्रकार सिद्ध होगी ? पुरुषोत्तम आत्माराम रघुवीर इसे किस प्रकार सिद्धि को प्राप्त करा देंगे ?”
रामनाम सुनते ही कौसल्या ने आँखें खोलीं तो सृष्टि को राममय देखा। उनका सृष्टि से संबंध टूट गया था। देह में विदेह राम व्याप्त थे। जब उऩ्होंने दसों दिशाओं की ओर देखा, तब उनमें रामरूप की मुद्रा अंकित हुई दिखाई। उनके श्वासोच्छ्वास में राम व्याप्त थे। वृक्ष, लताएँ और मंडप सबको वे रामरूप देख रही थीं। जो उदर में उत्पन्न हुए थे, वही समस्त अंगों में छलक रहे थे। उनके लिए समस्त संसार ब्रह्मरूप हो गया था।”
श्री एकनाथ जी महाराज परम अवस्था में पहुँचे साधक के बारे में कहते हैं- “जब साधक को ज्ञान प्राप्त हो जाता है तो उसे अऩुभव हो जाता है कि ब्रह्मत्व, ब्रह्मांड तथा ब्रह्म से उत्पन्न पंच महाभूत तथा जीव-अजीव की परम्परा ब्रह्म से भिन्न नहीं है। तब वह अऩुभव करता है कि मैं ब्रह्म हूँ, मेरा शत्रु भी ब्रह्म है, मेरे सन्मित्र, बंधुजन ब्रह्म ही हैं।”
ब्रह्म को धारण करने से सर्वत्र ब्रह्मदर्शन की जो दृष्टि, ज्ञानमयी समाधि की जो स्थिति कौसल्या जी की हुई थी, आनंदमयी माँ, रानी मदालसा या साँईं लीलाशाह जी महाराज, कबीर जी, नानक जी व अन्य सत्पुरुषों की हुई थी, वही आपकी भी हो सकती है।
आप भी अपने भीतर आत्माराम को धारण करो। अंतर्मुख होकर तो माई-भाई, रोगी-निरोगी, बाल-वृद्ध, सभी लोग आत्मराम को पा सकते हैं। मनुष्यमात्र आत्मप्राप्ति का अधिकारी है। राजा दशरथ के घर में भगवान राम ने अवतार लिया था पर राम केवल इतने ही नहीं हैं बल्कि जो सदा, सर्वकाल और सर्वदेश में व्याप्त हैं और अपना आत्मा बनकर भी बैठे हैं वही राम हैं।
एक राम घट-घट में बोले, दूजो राम दशरथ घऱ डोले।
तीजो राम का सकल पसारा, ब्रह्म राम है सबसे न्यारा।।
जितना हम राम को दिव्य समझकर उनकी उपासना करेंगे, उतने ही हम दिव्यता की ओर बढ़ते जायेंगे। हम राम को जितना व्यापक मानेंगे उतने हम भी व्यापक होते जायेंगे और व्यापक होते-होते एक ऐसी वेला आयेगी जब सारी सीमाएँ, संकीर्णताएँ ध्वस्त होकर असीम रामतत्त्व का, अपने अद्वैत निजस्वरूप का ज्ञान हो जायेगा।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2014, पृष्ठ संख्या 20, अंक 255
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