प्रश्नः हमें बार-बार भगवान की महिमा सुनने को मिलती है, बार-बार सत्संग सुनते हैं फिर भी ईश्वरप्राप्ति का लक्ष्य अभी निर्धारित नहीं हो पाया, निश्चय नहीं कर पाया, इसका क्या कारण है ?
पूज्य बापू जीः ʹईश्वर के सिवाय कहीं भी मन लगाया तो अंत में रोना ही पड़ेगा।ʹ – मन को समझाया करो। ʹईश्वर की ओर पुस्तकʹ पढ़ा करो। ʹश्री योग वाशिष्ठ महारामायणʹ पढ़ने को मिल जाये तो अपने-आप लक्ष्य निर्धारित हो जायेगा। लक्ष्य निर्धारित किये बिना उन्नति का रास्ता नहीं खुलता। कभी-कभी श्मशान में जाओ और अपने मन को बताओ कि ʹआखिर यहीं आना है।ʹ मैं ऐसे ही करता था। मेरे पिता जी का शरीर छूट गया था न, मैं लगभग दस साल का था। कंधा देकर श्मशान में ले गया, फिर अपने मन को समझाया कि ʹइतने बड़े होकर, बूढ़े हो के मरेंगे तो ऐसे…. और अभी मर जायें तो ?” उसने बच्चों का श्मशान दिखाया कि यहाँ दफना देते हैं उनको। तो फिर जो बच्चों का श्मशान था, उधर जाकर बैठता था। अपने मन को बोलता था, ʹअभी मरेगा तो इधर, बाद में मरेगा तो जहाँ पिता जी जलाये गये….ʹ – आखिर यह है संसार !
तो संसार की नश्वरता और आत्मा की अमरता को याद करके अपना ईश्वरप्राप्ति का लक्ष्य बना लेना चाहिए, मजबूत कर लेना चाहिए। संतों का जीवन-चरित्र पढ़ने को मिले, श्मशान में जाने को मिले तो अच्छा है। माइयाँ तो नहीं जायें, अपशकुन होता है। आप ईश्वर की ओर पुस्तक पढ़ो तो उसमें श्मशान यात्रा का वर्णन है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2013, पृष्ठ संख्या 12, अंक 248
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