मैकाले कहा करता थाः “यदि इस देश को हमेशा के लिए गुलाम बनाना चाहते हो तो हिन्दुस्तान की स्वदेशी शिक्षा पद्धति को समाप्त कर उसके स्थान पर अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति लाओ।
फिर इस देश में शरीर से तो हिन्दुस्तानी लेकिन दिमाग से अंग्रेज पैदा होंगे। जब वे लोग इस इस देश के विश्वविद्यालय से निकल कर शासन करेंगे तो वह शासन हमारे हित में होगा।ʹ यह मैकाले का सपना था। आश्चर्य है कि मैकाले शिक्षा पद्धति से प्रभावित भारतीय युवान आज खुद ही अपने को गुलामी, अनैतिकता, अशांति देने वाले के सपनों को साकार करने में लगा है।
अंग्रेजी शिक्षा पद्धति के बढ़ते कुप्रभावों से गांधी जी की यह बात प्रत्यक्ष हो रही है कि “विदेशी भाषा ने बच्चों को रट्टू और नकलची बना दिया है तथा मौलिक कार्यों और विचारों के लिए सर्वथा अयोग्य बना दिया है।” अंग्रेजी भाषा और मैकाले शिक्षा-पद्धति की गुलामी का ही परिणाम है कि आज के विद्यार्थियों में उच्छृंखलता, अधीरता व मानसिक तनाव जैसी समस्याएँ बढ़ रही हैं।
ऐसी अंग्रेजी शिक्षा से प्रभावित श्री अरविंदजी के विद्यार्थी राजाराम पाटकर को अपनी स्वतंत्र भाषा छोड़कर अंग्रेजी भाषा पर प्रभुत्व पाने का शौक हुआ। एक दिन मौका देखकर उसने श्री अरविंद जी से पूछाः “सर ! मुझे अपनी अंग्रेजी सुधारनी है, अतः मैं मैकाले पढूँ ?”
श्री अरविंदजी देशभक्त तो थे ही, साथ ही भारत की सांस्कृतिक ज्ञान धरोहर की महिमा का अनुभव किये हुए योगी भी थे। भारत में रहकर जिस थाली में खाया उसी में छेद करने वाले अंग्रेजों की कूटनीति को वो जानते थे। जिनका एकमात्र उद्देश्य भारतीय जनता को प्रलोभन देकर बंदर की तरह जिंदगीभर अपने इशारों पर नचाना था, ऐसे अंग्रेजों की नकल करके विद्यार्थी करें यह श्री अरविंद को बिल्कुल पसंद नहीं था। उन्होंने स्वयं भी अंग्रेजों की अफसरशाही नौकरी से बचने के लिए आई.सी.एस. जैसी पदवी के लिए लैटिन और ग्रीक भाषा में सर्वोच्च अंक प्राप्त करने पर भी घुड़सवारी की परीक्षा तक नहीं दी थी।
श्री अरविंद का मानना था कि हर व्यक्ति को अपनी सुषुप्त शक्तियों को जगाना ही चाहिए। उन्होंने कड़क शब्दों में कहाः”किसी के गुलाम मत बनो। तुम स्वयं अपने स्वामी बनो।”
उसकी सोयी चेतना जाग उठी। अपने सच्चे हितैषी के मार्गदर्शन को शिरोधार्य कर राजाराम ने मैकाले का अनुसरण नहीं किया। यही कारण था कि वह अपनी मौलिक प्रतिभा को विकसित कर पाया। यदि मैकाले का अनुसरण करता तो शायद वह मात्र एक नकलची रह जाता।
मैकाले पद्धति से ऊँची शिक्षा प्राप्त करके भी अपने जीवन को संतृप्त न जानकर गांधी जी ने भारतीय शास्त्रों व विवेकानंद जी ने सदगुरु की शरण लेकर अंग्रेजों की इस पद्धति को निरर्थक साबित कर दिया।
भारत के युवानों को गर्व होना चाहिए कि वे ऐसी भारत माँ की सौभाग्यशाली संतान हैं, जहाँ शास्त्रों एवं सदगुरुओं का मार्गदर्शन सहज-सुलभ है। आज ही प्रण कर लो कि हम अंग्रेजों की गुलामी नहीं करेंगे, भारतीय शिक्षा पद्धति ही अपनायेंगे। अपने ऋषियों-महापुरुषों द्वारा चलायी गयी सर्वोत्कृष्ट गुरुकुल शिक्षा-पद्धति अपनाकर जीवन को महान और तेजस्वी बनायेंगे, समग्र विश्व में अपनी संस्कृति की सुवास फैलायेंगे।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2013, पृष्ठ संख्या 14, अंक 244
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