मानुषी चमत्कार
मुगल दरबार में विशेष हलचल मची हुई थी । संधि-वार्ता हेतु सिखों के सम्माननीय गुरु गोविंदसिंहजी आमंत्रण पर पधारे थे। उनकी 'गुरु' उपाधि से एक मौलवी के मन में बड़ा रोष था। वह सोचता था कि 'संतों, सदगुरुओं को तो सादे वस्त्र ही पहनने चाहिए, ऐसे-ऐसे रहना चाहिए, ऐसा-ऐसा करना चाहिए... । सेना-संचालन, युध्द आदि के कार्यों से गुरु का क्या संबंध ?'
उसने उनके आध्यात्मिक स्तर पर चोट करने के विचार से प्रश्न किया : ''महाराज ! आप गुरु हैं । अपने नाम की सार्थकता के उपयुक्त कुछ चमत्कार दिखलायें ।''
गुरु गोविंदसिंहजी हँसे । बोले : 'मौलवीजी ! चमत्कार तथा आध्यात्मिकता का कोई संबंध नहीं है । गुरु का काम चमत्कार दिखाना नहीं, शिष्यों का सही मार्गदर्शन करना होता है । गुरु सर्वसमर्थ होते हुए भी प्रकृति के नियमों में प्रयत्नपूर्वक छेड़छाड़ नहीं करते । जब वे किसीकी पीड़ा देखकर द्रवित होते हैं या किसीकी भगवान में श्रद्धा बढ़ाना चाहते हैं तब उनके द्वारा लीला हो जाती है ।''
परंतु मौलवी कुछ अड़ियल स्वभाव का था । उसने पुनः
आग्रह किया : ''कोई चमत्कार तो दिखायें ही ।''
गुरु गोविंदसिंहजी ने
कहा : ''चमत्कार ही देखना है तो ऑंखें खोलकर देख लो, ईश्वर ने चारों ओर बिखेर रखे हैं । यह पृथ्वी, आकाश, तारे, वायु सभी चमत्कार हैं ।''
पर मौलवी का आग्रह था मानुषी चमत्कार दिखाने हेतु ।
गोविंदसिंहजी ने सौम्य वाणी में पुनः समाधान किया : ''अपने शहंशाह का चमत्कार देख लो न ! किस प्रकार एक व्यक्ति की शक्ति पूरे राज्य में काम करती है !''
पुनः आग्रह हुआ : ''वह नहीं, अपनी सीमा में कुछ चमत्कार दिखायें ।''
अब गुरु गोविंदसिंहजी उठ खड़े हुए, म्यान से तलवार निकालकर वीरता भरी वाणी में बोले : ''मेरे हाथ का चमत्कार देखने की शक्ति यदि तुझमें है तो
देख
! अभी एक हाथ से तेरा सिर अलग हो रहा है ।''
मौलवी को पसीना छूट गया । यदि शहंशाह स्वयं गुरु गोविंदसिंहजी को नम्रतापूर्वक रोककर हाथ पकड़ के अपनी बगल में न बिठाते तो मौलवी साहब मानुषी चमत्कार देखते-देखते दोजख के दरबार में पहुँच चुके होते ।
संत सताये तीनों जायें, तेज बल और वंश ।
ऐड़ा-ऐड़ा कई गया, रावण कौरव केरो कंस ॥
इस सिध्दांत से मौलवी का क्या हाल होता
?
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सबमें गुरु का ही स्वरूप नजर आता है
गुरु गोविन्दसिंह का शिष्य कन्हैया युध्द के मैदान में पानी की प्याऊ लगाकर सभी सैनिकों को पानी पिलाता था । कभी-कभी मुगलों के सैनिक भी आ जाते थे पानी पीने के लिए ।
यह देखकर सिक्खों ने जाकर गुरु गोविन्दसिंह से कहा : ''गुरुजी ! यह कन्हैया अपने सैनिकों को तो जल पिलाता ही है किन्तु दुश्मन सैनिकों को भी पिलाता है। दुश्मनों को तो तड़पने देना चाहिए न ?''
गुरु गोविन्दसिंह ने कन्हैया को बुलाकर पूछाः ''क्यों भाई ! दुश्मनों को भी पानी पिलाता है? अपनी ही फौज को पानी पिलाना चाहिए न ?''
कन्हैया : ''गुरुजी ! जबसे आपकी कृपा हुई है तबसे मुझे तो सबमें आपका ही स्वरूप दिखता है । अपने-पराये सबमें मुझे तो मेरे गुरुदेव ही लीला करते नजर आते हैं । मैं अपने गुरुदेव को देखकर कैसे इन्कार करूँ ?''
तब गुरु गोविंदसिंह ने कहा : ''सैनिकों ! कन्हैया ने जितना मुझे समझा है, इतना तुममें से किसीने नहीं समझा । कन्हैया को अपना काम करने दो ।''
जिन्हें परमात्मतत्त्व का, गुरुतत्त्व का बोध हो जाता है, उनके चित्त से शत्रुता, घृणा, ग्लानि, भय, शोक, प्रलोभन, लोलुपता, अपना-पराया आदि की सत्यता, ये सब विदा हो जाते हैं ।
गुरुगोविंदसिंह की समता
गुरु गोविंदसिंह अपने प्यारे सिख सैनिकों के साथ कहीं जा रहे थे । मार्ग में वही गाँव आया जहाँ उनके दो सपूत दीवार में चुन दिये गये थे । सिख सैनिकों के खून में उबाल आ गया और उन्होंने सोचा कि इस गाँव को घेरकर जला दें । इसी गाँव में गुरुजी के दो सपूत दीवार में चुने गये थे ।
बात
गुरु गोविंदसिंहजी के कानों तक पहुँची । गुरु गोविंदसिंहजी ने कहा :
''सिखों ! तुम्हें जोश आये वह स्वाभाविक ही है लेकिन हमारा उद्देश्य अधर्म के साथ लड़ना है । अनीति, अन्याय और शोषण के साथ लड़ना है । व्यक्ति के साथ हमारी कोई दुश्मनी नहीं है । अभी भी हमारे कहलानेवाले शत्रु अधर्म छोड़ दें तो हम उन्हें क्षमा कर सकते हैं । जिन्होंने हमारे बेटों को दीवार में चुनवाया वे अभी यहाँ नहीं हैं और दूसरे निर्दोष लोगों के घरों में आग लगाना - यह अपना धर्म नहीं सिखाता है । गुनाह किया किसी शासक ने और हम पूरा गाँव जला दें ? नहीं नहीं । भगवान करे इनको सदबुद्धि मिले ।''
कैसी ऊँचाई थी उन महापुरुष में ! शत्रुओं को लोहे के चने चबवाने का सामर्थ्य था उनमें लेकिन उनके पुत्रों को जिन्होंने दीवार में चुन दिया उनको अधर्म छोड़ने पर क्षमा करने के लिए भी तैयार थे !
औरंगजेब और उसके आश्रित मुसलमान राजाओं ने जब हिंदुओं पर जुल्म करना
शुरू किया तो गुरु गोविंदसिंह ने सिखों में गज़ब की प्राणशक्ति फूँक दी, पँच प्यारे तैयार किये और ऐसा धावा बोला कि औरंगजेब चिंतित हो गया । उसने गुरु गोविंदसिंह को चिट्ठी लिखी :
'गुरु
गोविंदसिंहजी ! मुझे भगवान ने पैदा किया है और तख्तनशीन किया है । आपको भी भगवान ने पैदा किया है । आप अपनी गुरुगादी सँभालें और धर्मोपदेश दें । हमारी राजनीति में आप क्यों हाथ डालते हैं ? आप फौज
क्यों बनाते हैं ? आप मुझे राज करने दें । जहाँ-तहाँ आपके सिख हमें परेशान कर देते हैं । राजा का काम भगवान ने हमको सौंपा है
।'
गुरु गोविंदसिंहजी ने बहुत सुंदर उत्तर दिया :
'आपको
भगवान ने पैदा किया है और तख्त दिया है । आपकी जिम्मेदारी है कि भगवान के सभी लोगों को इंसाफ दो । सभी की देखभाल करो । आपको तख्त और ताज दिया है इंसाफ की हुकुमत के लिए ।
मुझे भी भगवान ने पैदा किया है और हिंदुओं को भी भगवान ने पैदा किया है । फिर भी आप हिंदुओं के पूजास्थल तोड़ते हैं और उनकी बुरी हालत करते हैं, उनसे अन्याय करते हैं । भगवान ने मुझे प्रेरणा दी है कि आपके जुल्म से हिंदुओं को बचाकर आपको सबक सिखाऊँ ।
आपको भगवान ने भेजा है तख्त और ताज के लिए तो मुझे भेजा है आप पर लगाम डालने के लिए ।'
कैसी ऊँची समझ रही है सनातन धर्म के संतों की । संसार की कोई भी परिस्थिति उन्हें कभी दबा नहीं पायी वरन् परिस्थितियों से टक्कर लेते हुए वे सदैव सनातन धर्म और संस्कृति की रक्षा करते रहे...