बाल
संस्कार
अनुक्रम
संत
श्री आसारामजी
बापू का जीवन
परिचय
बाल
संस्कार
केन्द्र
माने क्या?
जानते
हो?
ध्यान-त्राटक-जप-मौन-संध्या तथा मंत्र-महिमा
शास्त्र
के अनुसार
श्लोकों का पाठ
भारतीय
संस्कृति की परम्पराओं
का महत्त्व
तिलकः
बुद्धिबल
व सत्त्वबलवर्द्धक
विद्यार्थी
छुट्टियाँ
कैसे मनायें?
दाँतो
और हड्डियों के दुश्मनः
बाजारू
शीतल पेय
आधुनिक
खान-पान से छोटे
हो रहे हैं
बच्चों
के जबड़े
सौन्दर्य-प्रसाधनों
में छिपी हैं अनेक प्राणियों
की मूक चीखें
और हत्या
बाजारू
आइसक्रीम-कितनी खतरनाक, कितनी
अखाद्य?
मांसाहारः
गंभीर बीमारियों
को आमंत्रण
आप चाकलेट खा रहे
हैं या निर्दोष
बछड़ों
का मांस?
अधिकांश
टूथपेस्टों
में पाया जाने वाला फ्लोराइड
कैंसर को आमंत्रण
देता है.......
दाँतों
की सुरक्षा पर ध्यान
दें
मौत
का दूसरा नाम गुटखा
पान मसाला
ब्रह्मनिष्ठ
संत श्री
आसाराम जी बापू का संदेश
यौवन
सुरक्षा
पुस्तक
नहीं, अपितु
एक शिक्षा ग्रंथ है
कदम अपना आगे
बढ़ाता चला जा......
किसी भी
देश की सच्ची
संपत्ति
संतजन ही होते
हैं। विश्व के
कल्याण हेतु
जिस समय जिस
धर्म की
आवश्यकता
होती है उसका
आदर्श
स्थापित करने
के लिए स्वयं
भगवान ही
तत्कालीन
संतों के रूप
में अवतार
लेकर प्रगट
होते हैं।
वर्तमान
युग में संत
श्री आसाराम
जी बापू एक ऐसे
ही संत हैं,
जिनकी
जीवनलीला
हमारे लिए
मार्गदर्शनरूप
है।
जन्मः विक्रम
संवत 1998, चैत्र
वद षष्ठी
(गुजराती माह
अनुसार),
(हिन्दी माह
अनुसार वैशाख
कृष्णपक्ष छः)।
जन्मस्थानः
सिंध
देश के नवाब
जिले का
बेराणी गाँव।
माताः महँगीबा।
पिताः थाउमल
जी।
बचपनः जन्म
से ही
चमत्कारिक
घटनाओं के साथ
तेजस्वी बालक
के रूप में
विद्यार्थी
जीवन।
युवावस्थाः
तीव्र
वैराग्य,
साधना और
विवाह-बंधन।
पत्नीः लक्ष्मीदेवी
जी।
साधनाकालः
गृहत्याग,
ईश्वरप्राप्ति
के लिए जंगल,
गिरि-गुफाओं
और अनेक
तीर्थों में
परिभ्रमण।
गुरूजीः परम
पूज्य श्री
लीलाशाहजी
महाराज।
साक्षात्कार
दिनः विक्रम
संवत 2021, आश्विन
शुक्ल
द्वितिया।
आसुमल में से
संत श्री
आसारामजी
महाराज बने।
लोक-कल्याण
के उद्देश्यः संसार
के लोगों को
पाप-ताप, रोग,
शोक, दुःख से
मु्क्तकर
उनमें आध्यात्मिक
प्रसाद
लुटाने
संसार-जीवन
में पुनरागमन।
पुत्रः श्री
नारायण
साँईँ।
पुत्रीः भारती
देवी।
प्रवृत्तियाँ:
कर्म,
ज्ञान और
भक्तियोग
द्वारा
परमात्म-प्रसाद
का अनुभव
कराने हेतु
देश-विदेशों
में करीब 130 से
अधिक आश्रम एवं
1100 श्री योग
वेदान्त सेवा
समितयों
द्वारा समाज
में रचनात्मक
एवं
आध्यात्मिक
सेवाकार्य।
प्रस्तावना
मनुष्य
के भावी जीवन
का आधार उसके
बाल्यकाल के
संस्कार एवं
चारित्र्यनिर्माण
पर निर्भर करता
है। बालक आगे
चलकर नेता जी
सुभाषचन्द्र बोस
जैसे वीरों,
एकनाथजी जैसे
संत-महापुरूषों
एवं श्रवण
कुमार जैसे
मातृ-पितृभक्तों
के जीवन का
अनुसरण करके
सर्वांगीण
उन्नति कर
सकें इस हेतु
बालकों में
उत्तम संस्कार
का सिंचन बहुत
आवश्यक है।
बचपन में देखे
हुए
हरिश्चन्द्र
नाटक की
महात्मा
गाँधी के
चित्त पर बहुत
अच्छी असर
पड़ी, यह
दुनिया जानती
है।
हँसते-खेलते
बालकों में
शुभ
संस्कारों का
सिंचन किया जा
सकता है।
नन्हा बालक
कोमल पौधे की
तरह होता है,
उसे जिस ओर
मोड़ना चाहें,
मोड़ सकते
हैं। बच्चों
में अगर बचपन
से ही शुभ
संस्कारों का
सिंचन किया
जाए तो आगे
चलकर वे बालक
विशाल
वटवृक्ष के
समान विकसित होकर
भारतीय
संस्कृति के
गौरव की रक्षा
करने में
समर्थ हो सकते
हैं।
विद्यार्थी
भारत का
भविष्य, विश्व
का गौरव एवं
अपने
माता-पिता की
शान है। उसके
अंदर सामर्थ्य
का असीम भंडार
छुपा हुआ है।
उसे प्रगट
करने हेतु
आवश्यक है
सुसंस्कारों
का सिंचन,
उत्तम चारित्र्य-निर्माण
और भारतीय
संस्कृति के
गौरव का
परिचय। पूज्यपाद
संत श्री
आसारामजी
महाराज
द्वारा समय-समय
पर इन्हीं
विषयों पर
प्रकाश डाला
गया है। उन्हीं
के आधार पर
सरल, सुबौध
शैली में
बालापयोगी
सामग्री का
संकलन करके
बाल संस्कार
नाम दिया गया
है। यह पुस्तक
प्रत्येक
माता-पिता एवं
बालकों के लिए
उपयोगी सिद्ध
होगी, ऐसी आशा
है।
विनीत
-
श्री योग
वेदान्त सेवा
समिति।
बाः बापू के
प्यारे बालक
जहाँ पढ़ते
हैं वह स्थान।
लः लक्ष्यभेदी
बनाने
वाला।
सं- संस्कृति
के रक्षक बनाने
वाला।
स्- स्वाध्यायी
और स्वाश्रयी
बनानेवाला।
काः कार्यकुशल
बनाने
वाला।
रः रचनात्मक
शैली द्वारा
मानव-रत्न
तराशनेवाला।
केः केसरी
सिंह के समान
निर्भय बनाने
वाला।
न्- न्यायप्रिय
बनाने
वाला।
द्रः हृदय को द्रवीभूत, और
जीवन को दृढ़
मनोबलवाला बनाने
की शिक्षा
देने वाला
स्थान।
गुरूर्ब्रह्मा
गुरूर्विष्णुः
गुरूर्देवो
महेश्वरः।
गुरूर्साक्षात
परब्रह्म
तस्मै श्री
गुरवे नमः।।
अर्थः गुरू
ही ब्रह्मा
हैं, गुरू ही
विष्णु हैं।
गुरूदेव ही
शिव हैं तथा
गुरूदेव ही
साक्षात् साकार
स्वरूप
आदिब्रह्म
हैं। मैं
उन्हीं गुरूदेव
के नमस्कार
करता हूँ।
ध्यानमूलं
गुरोर्मूर्तिः
पूजामलं
गुरोः पदम्।
मंत्रमूलं
गुरोर्वाक्यं
मोक्षमूलं
गुरोः कृपा।।
अर्थः ध्यान
का आधार गुरू
की मूरत है,
पूजा का आधार
गुरू के
श्रीचरण हैं,
गुरूदेव के
श्रीमुख से निकले
हुए वचन मंत्र
के आधार हैं
तथा गुरू की
कृपा ही मोक्ष
का द्वार है।
अखण्डमण्डलाकारं
व्याप्तं येन
चराचरम्।
तत्पदं
दर्शितं येन
तस्मै
श्रीगुरवे
नमः।।
अर्थः जो
सारे
ब्रह्माण्ड
में जड़ और
चेतन सबमें व्याप्त
हैं, उन परम
पिता के श्री
चरणों को देखकर
मैं उनको
नमस्कार करता
हूँ।
त्वमेव
माता च पिता
त्वमेव
त्वमेव
बन्धुश्च सखा
त्वमेव।
त्वमेव
विद्या
द्रविणं
त्वमेव
त्वमेव सर्वं
मम देव देव।।
अर्थः तुम
ही माता हो,
तुम ही पिता
हो, तुम ही
बन्धु हो, तुम
ही सखा हो, तुम
ही विद्या हो,
तुम ही धन हो।
हे देवताओं के
देव!
सदगुरूदेव!
तुम ही मेरा
सब कुछ हो।
ब्रह्मानन्दं
परमसुखदं
केवलं
ज्ञानमूर्तिं
द्वन्द्वातीतं
गगनसदृशं
तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम्।
एकं
नित्यं
विमलमचलं
सर्वधीसाक्षिभूतं
भावातीतं
त्रिगुणरहितं
सदगुरूं तं
नमामि।।
अर्थः जो
ब्रह्मानन्द
स्वरूप हैं,
परम सुख देने
वाले हैं, जो
केवल
ज्ञानस्वरूप
हैं, (सुख-दुःख,
शीत-उष्ण आदि)
द्वंद्वों से
रहित हैं,
आकाश के समान
सूक्ष्म और
सर्वव्यापक
हैं, तत्त्वमसि
आदि
महावाक्यों
के
लक्ष्यार्थ
हैं, एक हैं, नित्य
हैं, मलरहित
हैं, अचल हैं,
सर्व
बुद्धियों के
साक्षी हैं,
सत्त्व, रज, और
तम तीनों
गुणों के रहित
हैं – ऐसे श्री
सदगुरूदेव को
मैं नमस्कार
करता हूँ।
माँ
सरस्वती विद्या
की देवी है।
गुरूवंदना के
पश्चात बच्चों
को सरस्वती
वंदना करनी
चाहिए।
या
कुन्देन्दुतषारहारधवला
या
शुभ्रवस्त्रावृता
या
वीणावरदण्डमण्डितकरा
या
श्वेतपद्मासना।
या
ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभिर्देवैः
सदा वन्दिता
सा
मां पातु
सरस्वती
भगवती
निःशेषजाङयापहा।।
अर्थः जो
कुंद के फूल,
चन्द्रमा,
बर्फ और हार
के समान श्वेत
हैं, जो शुभ्र
वस्त्र पहनती
हैं, जिनके हाथ
उत्तम वीणा से
सुशोभित हैं,
जो श्वेत कमल के
आसन पर बैठती
हैं, ब्रह्मा,
विष्णु, महेश
आदि देव जिनकी
सदा स्तुति
करते हैं और
जो सब प्रकार
की जड़ता हर
लेती हैं, वे भगवती
सरस्वती मेरा
पालन करें।
शुक्लां
ब्रह्मविचारसारपरमामाद्यां
जगदव्यापिनीं
वीणापुस्तकधारिणीमभयदां
जाङयान्धकारापहाम्।
हस्ते
स्फाटिकमालिकां
च दधतीं
पद्मासने संस्थितां
वन्दे
तां
परमेश्वरीं
भगवती
बुद्धिप्रदां
शारदाम्।।
अर्थः जिनका
रूप श्वेत है,
जो
ब्रह्मविचार
की परमतत्त्व
हैं, जो सब
संसार में
व्याप्त रही
हैं, जो हाथों
में वीणा और
पुस्तक धारण
किये रहती
हैं, अभय देती
हैं,
मूर्खतारूपी
अंधकार को दूर
करती हैं, हाथ
में स्फटिक
मणि की माला लिये
रहती हैं, कमल
के आसन पर
विराजमान हैं
और बुद्धि
देनेवाली हैं,
उन आद्या परमेश्वरी
भगवती
सरस्वती की
मैं वंदना
करता हूँ।
श्री
रामचरितमानस
में आता हैः
गुरू
बिन भवनिधि
तरहिं न कोई।
जौं बिरंधि
संकर सम होई।।
भले ही
कोई भगवान
शंकर या
ब्रह्मा जी के
समान ही क्यों
न हो किन्तु
गुरू के बिना
भवसागर नहीं
तर सकता।
सदगुरू
का अर्थ शिक्षक
या आचार्य
नहीं है।
शिक्षक अथवा
आचार्य हमें
थोड़ा बहुत
एहिक ज्ञान
देते हैं
लेकिन सदगुरू
तो हमें
निजस्वरूप का
ज्ञान दे देते
हैं। जिस
ज्ञान की
प्राप्ति के
मोह पैदा न हो,
दुःख का
प्रभाव न पड़े
एवं परब्रह्म
की प्राप्ति
हो जाय ऐसा
ज्ञान
गुरूकृपा से
ही मिलता है।
उसे प्राप्त
करने की भूख
जगानी चाहिए।
इसीलिए कहा
गया हैः
गुरूगोविंद
दोनों खड़े, किसको
लागूँ पाय।
बलिहारी
गुरू आपकी, जो
गोविंद दियो
दिखाय।।
गुरू और
सदगुरू में भी
बड़ा अंतर है।
सदगुरू अर्थात्
जिनके दर्शन
और सान्निध्य
मात्र से हमें
भूले हुए
शिवस्वरूप परमात्मा
की याद आ जाय,
जिनकी आँखों
में हमें करूणा,
प्रेम एवं
निश्चिंतता
छलकती दिखे,
जिनकी वाणी
हमारे हृदय
में उतर जाय,
जिनकी
उपस्थिति में
हमारा जीवत्व
मिटने लगे और
हमारे भीतर सोई
हुई विराट
संभावना जग
उठे, जिनकी
शरण में जाकर
हम अपना अहं
मिटाने को
तैयार हो जायें,
ऐसे सदगुरू
हममें हिम्मत
और साहस भर
देते हैं,
आत्मविश्वास
जगा देते हैं
और फिर मार्ग बताते
हैं जिससे हम
उस मार्ग पर
चलने में सफल हो
जायें,
अंतर्मुख
होकर अनंत की
यात्रा करने चल
पड़ें और
शाश्वत शांति
के, परम
निर्भयता के
मालिक बन
जायें।
जिन
सदगुरू मिल
जाय, तिन
भगवान मिलो न
मिलो।
जिन
सदगरु की पूजा
कियो, तिन
औरों की पूजा
कियो न कियो।
जिन
सदगुरू की
सेवा कियो, तिन
तिरथ-व्रत
कियो न कियो।
जिन
सदगुरू को
प्यार कियो, तिन
प्रभु को
प्यार कियो न
कियो।
1.
बालकों को
प्रातः
सूर्योदय से
पहले ही उठ
जाना चाहिए।
उठकर भगवान को
मनोमन प्रणाम
करके दोनों
हाथों की हथेलियों
को देखकर इस
श्लोक का
उच्चारण करना
चाहिएः कराग्रे
वसते
लक्ष्मीः
करमध्यै
सरस्वती। करमूले
तु गोविन्दः
प्रभाते
करदर्शनम्।।
अर्थः
हाथ
के अग्रभाग
में लक्ष्मी
का निवास है,
मध्य भाग में
विद्यादेवी
सरस्वती का
निवास है एवं
मूल भाग में
भगवान
गोविन्द का
निवास है। अतः
प्रभात में
करदर्शन करना
चाहिए।
2.
शौच-स्नानादि
से निवृत्त
होकर
प्राणायाम,
जप, ध्यान,
त्राटक,
भगवदगीता का
पाठ करना
चाहिए।
3.
माता-पिता
एवं गुरूजनों
को प्रणाम
करना चाहिए।
4.
नियमित
रूप से योगासन
करना चाहिए।
5.
अध्ययन से
पहले थोड़ी
देर ध्यान में
बैठें। इससे
पढ़ा हुआ
सरलता से याद
रह जाएगा। जो
भी विषय पढ़ो
वह पूर्ण
एकाग्रता से
पढ़ो।
6.
भोजन करने
से पूर्व
हाथ-पैर धो
लें। भगवान के
नाम का इस
प्रकार स्मरण
करें- ब्रह्मार्पणं
ब्रह्म
हविब्रह्माग्नौ
ब्रह्मणा
हुतम्।
ब्रह्मैव तेन
गन्तव्यं
ब्रह्मकर्मसमाधिना।।
प्रसन्नचित्त
होकर भोजन
करना चाहिए।
बाजारू चीज़
नहीं खानी
चाहिए। भोजन
में हरी सब्जी
का उपयोग करना
चाहिए।
7.
बच्चों को
स्कूल में
नियमित रूप से
जाना चाहिए।
अभ्याम में
पूर्ण रूप से
ध्यान देना
चाहिए। स्कूल
में
रोज-का-रोज
कार्य कर लेना
चाहिए।
8.
शाम को
संध्या के समय
प्राणायाम,
जप, ध्यान एवं
सत्साहित्य
का पठन करना
चाहिए।
9.
रात्रि के
देर तक नहीं
जागना चाहिए।
पूर्व और दक्षिण
दिशा की ओर
सिर रखकर सोने
से आयु बढ़ती
है। भगवन्नाम
का स्मरण
करते-करते
सोना चाहिए।
प्रातः
सूर्योदय से पूर्व
उठकर, मुँह
धोये बिना,
मंजन या दातुन
करने से पूर्व
हर रोज करीब
सवा लीटर (चार
बड़े गिलास)
रात्रि का रखा
हुआ पानी
पीयें। उसके
बाद 45 मिनट तक
कुछ भी
खायें-पीयें
नहीं। पानी
पीने के बाद
मुँह धो सकते
हैं, दातुन कर
सकते हैं। जब यह
प्रयोग चलता
हो उन दिनों
में नाश्ता या
भोजन के दो
घण्टे के बाद
ही पानी पीयें।
प्रातः
पानी प्रयोग
करने से हृदय,
लीवर, पेट, आँत
के रोग एवं
सिरदर्द,
पथरी, मोटापा,
वात-पित्त-कफ
आदि अनेक रोग
दूर होते हैं।
मानसिक दुर्बलता
दूर होती है
और बुद्धि
तेजस्वी बनती
है। शरीर में
कांति एवं
स्फूर्ति बढ़ती
है।
नोटः बच्चे
एक-दो गिलास
पानी पी सकते
हैं।
बच्चों
की स्मरण
शक्ति बढ़ाने
के कई उपाय
हैं, उसमें
कुछ मुख्य
उपाय इस
प्रकार हैं-
1.
भ्रामरी
प्राणायामः
विधिः सर्वप्रथम
दोनों हाथों
की उँगलियों
को कन्धों के
पास ऊँचा ले
जायें। दोनों
हाथों की
उँगलियाँ कान
के पास रखें।
गहरा श्वास
लेकर तर्जनी
उँगली से
दोनों कानों
को इस प्रकार
बंद करें कि
बाहर का कुछ
सुनाई न दे। अब
होंठ बंद करके
भँवरे जैसा
गुंजन करें।
श्वास खाली
होने पर
उँगलियाँ
बाहर
निकालें।
लाभः वैज्ञानिकों
ने सिद्ध किया
है कि भ्रामरी
प्राणायाम
करते समय
भँवरे की तरह
गुंजन करने से
छोटे
मस्तिष्क में
स्पंदन पैदा
होते हैं। इससे
एसीटाईलकोलीन,
डोपामीन और
प्रोटीन के
बीच होने वाली
रासायनिक
प्रक्रिया को
उत्तेजना मिलती
है। इससे
स्मृतिशक्ति
का विकास होता
है। यह
प्राणायाम
करने से
मस्तिष्क के
रोग निर्मूल
होते हैं। अतः
हर रोज़ सुबह 8-10
प्राणायाम
करने चाहिए।
2.
सारस्वत्य
मंत्रदीक्षाः
समर्थ
सदगुरूदेव से
सारस्वत्यमंत्र
की दीक्षा
लेकर मंत्र का
नियमित रूप से
जप करने से और
उसका
अनुष्ठान
करने से बालक
की स्मरणशक्ति
चमत्कारिक
ढंग से बढ़ती
है।
3.
सूर्य
को अर्घ्यः सूर्योदय
के कुछ समय
बाद जल से भरा
ताँबे का कलश
हाथ में लेकर
सूर्य की ओर
मुख करके किसी
स्वच्छ स्थान
पर खड़े हों।
कलश को छाती
के समक्ष
बीचोबीच लाकर
कलश में भरे
जल की धारा
धीरे-धीरे
प्रवाहित
करें। इस समय
कलश के धारा
वाले किनारे
पर दृष्टिपात
करेंगे तो हमें
हमें सूर्य का
प्रतिबिम्ब
एक छोटे से
बिंदु के रूप
में दिखेगा।
उस बिंदु पर
दृष्टि एकाग्र
करने से हमें
सप्तरंगों का
वलय दिखेगा।
इस तरह सूर्य
के
प्रतिबिम्ब
(बिंदु) पर
दृष्टि एकाग्र
करें। सूर्य
बुद्धिशक्ति
के स्वामी हैं।
अतः सूर्योदय
के समय सूर्य
को अर्घ्य देने
से बुद्धि
तीव्र बनती
है।
4.
सूर्योदय
के बाद तुलसी
के पाँच-सात
पत्ते चबा-चबाकर
खाने एवं एक
ग्लास पानी
पीने से भी
बच्चों की
स्मृतिशक्ति
बढती है।
तुलसी खाकर
तुरंत दूध न
पीयें। यदि
दूध पीना हो
तो तुलसी पत्ते
खाने के एक
घण्टे के बाद
पीय़ें।
5.
रात को
देर रात तक
पढ़ने के बजाय
सुबह जल्दी उठकर,
पाँच मिनट
ध्यान में
बैठने के बाद
पढ़ने से बालक
जो पढ़ता है
वह तुरंत याद
हो जाता है।
प्राणायाम
शब्द का अर्थ
हैः प्राण+आयाम।
प्राण
अर्थात्
जीवनशक्ति और
आयाम अर्थात
नियमन। श्वासोच्छ्वास
की प्रक्रिया
का नियमन करने
का कार्य़
प्राणायाम
करता है।
जिस
प्रकार
एलौपैथी में
बीमारियों का
कारण जीवाणु,
प्राकृतिक
चिकित्सा में
विजातीय तत्त्व
एवं आयुर्वेद
में आम रस
(आहार न पचने
पर नस-नाड़ियों
में जमा कच्चा
रस) माना गया
है उसी प्रकार
प्राण चिकित्सा
में रोगों का
कारण निर्बल
प्राण माना
गया है। प्राण
के निर्बल हो
जाने से शरीर
के अंग-प्रत्यंग
ढीले पड़ जाने
के कारण ठीक
से कार्य नहीं
कर पाते। शरीर
में रक्त का
संचार
प्राणों के
द्वारा ही
होता है। अतः
प्राण निर्बल
होने से रक्त
संचार मंद पड़
जाता है।
पर्याप्त
रक्त न मिलने
पर कोशिकाएँ
क्रमशः कमजोर
और मृत हो
जाती हैं तथा
रक्त ठीक तरह
से हृदय में न
पहुँचने के
कारण उसमें
विजातीय
द्रव्य अधिक
हो जाते हैं।
इन सबके
परिणामस्वरूप
विभिन्न रोग
उत्पन्न होते
हैं।
यह
व्यवहारिक
जगत में देखा
जाता है कि
उच्च प्राणबलवाले
व्यक्ति को
रोग उतना
परेशान नहीं
करते जितना
कमजोर प्राणबलवाले
को।
प्राणायाम के
द्वारा भारत के
योगी हजारों
वर्षों तक
निरोगी जीवन
जीते थे, यह
बात तो सनातन
धर्म के अनेक
ग्रन्थों में है।
योग चिकित्सा
में दवाओं को
बाहरी उपचार माना
गया है जबकि
प्राणायाम को
आन्तरिक उपचार
एवं मूल औषधि
बताया गया है।
जाबाल्योपनिषद्
में
प्राणायाम को
समस्त रोगों
का नाशकर्ता
बताया गया है।
शरीर के
किसी भाग में
प्राण
ज़्यादा होता
है तो किसी
भाग में कम।
जहाँ ज़्यादा
है वहाँ से प्राणों
को हटाकर जहाँ
उसका अभाव या
कमी है वहाँ
प्राण भर देने
से शरीर के
रोग दूर हो
जाते हैं।
सुषुप्त
शक्तियों को जगाकर
जीवनशक्ति के
विकास में
प्राणायाम का बड़ा
मह्त्त्व है।
प्राणायाम
के लाभः
1.
प्राणायाम
में गहरे
श्वास लेने से
फेफड़ों के
बंद छिद्र खुल
जाते हैं तथा
रोग
प्रतिकारक शक्ति
बढ़ती है।
इससे रक्त,
नाड़ियों एवं
मन भी शुद्ध
होता है।
2.
त्रिकाल
संध्या के समय
सतत चालीस दिन
तक 10-10 प्राणायाम
करने से
प्रसन्नता,
आरोग्यता
बढ़ती है एवं
स्मरणशक्ति
का भी विकास
होता है।
3.
प्राणायाम
करने से पाप
कटते हैं।
जैसे मेहनत करने
से कंगाली
नहीं रहती है,
ऐसे ही
प्राणायाम
करने से पाप
नहीं रहते
हैं।
प्राणायाम
में श्वास को
लेने का, अंदर
रोकने का,
छोड़ने का और
बाहर रोकने के
समय का प्रमाण
क्रमशः इस
प्रकार हैः 1-4-2-2
अर्थात यदि 5
सैकेण्ड श्वास
लेने में
लगायें तो 20
सैकेण्ड
रोकें और 10 सैकेण्ड
उसे छोड़ने
में लगाएं तथा
10 सैकेण्ड बाहर
रोकें यह
आदर्श अनुपात
है। धीरे-धीरे
नियमित
अभ्यास
द्वारा इस
स्थिति को
प्राप्त किया
जा सकता है।
प्राणायाम
के कुछ प्रमुख
अंगः
1. रेचकः
अर्थात
श्वास को बाहर
छोड़ना।
2. पूरकः
अर्थात
श्वास को भीतर
लेना।
3. कुंभकः
अर्थात
श्वास को
रोकना। श्वास
को भीतर रोकने
कि क्रिया को
आंतर कुंभक
तथा बाहर रोकने
की क्रिया को
बहिर्कुंभक
कहते हैं।
विद्यार्थियों
के लिए अन्य
उपयोगी
प्राणायाम
1. अनलोम-विलोम
प्राणायामः इस
प्राणायाम
में
सर्वप्रथम
दोनों नथुनों
से पूरा श्वास
बाहर निकाल
दें। इसके बाद
दाहिने हाथ के
अँगूठे से नाक
के दाहिने
नथुने को बन्द
करके बाँए
नथुने से सुखपूर्वक
दीर्घ श्वास
लें। अब
यथाशक्ति श्वास
को रोके रखें।
फिर बाँए
नथुने को
मध्यमा अँगुली
से बन्द करके
श्वास को
दाहिने नथुने
से धीरे-धीरे
छोड़ें। इस
प्रकार श्वास
के पूरा बाहर
निकाल दें और
फिर दोनों
नथुनों को
बन्द करके
श्वास को बाहर
ही सुखपूर्वक
कुछ देर तक रोके
रखें। अब पुनः
दाहिने नथुने
से श्वास लें
और फिर थोड़े
समय तक रोककर
बाँए नथुने से
श्वास
धीरे-धीरे
छोड़ें। पूरा
श्वास बाहर
निकल जाने के
बाद कुछ समय
तक रोके रखें।
यह एक प्राणायाम
हुआ।
2. ऊर्जायी
प्राणायामः इसको
करने से हमें
विशेष ऊर्जा
(शक्ति) मिलती है,
इसलिए इसे
ऊर्जायी
प्राणायाम
कहते हैं।
इसकी विधि हैः
पद्मासन
या सुखासन में
बैठ कर गुदा
का संकोचन करके
मूलबंध
लगाएं। फिर
नथुनों, कंठ
और छाती पर
श्वास लेने का
प्रभाव पड़े
उस रीति से
जल्दी श्वास
लें। अब
नथुनों को
खुला रखकर
संभव हो सके
उतने गहरे
श्वास लेकर
नाभि तक के
प्रदेश को
श्वास से भर
दें। इसके बाद
एकाध मिनट
कुंभक करके
बाँयें नथुने
से श्वास
धीरे-धीरे
छोड़ें। ऐसे
दस ऊर्जायी
प्राणायाम
करें। इससे
पेट का शूल,
वीर्यविकार,
स्वप्नदोष, प्रदर
रोग जैसे धातु
संबंधी रोग
मिटते हैं।
नास्ति
ध्यानसमं
तीर्थम्।
नास्ति
ध्यानसमं
दानम्।
नास्ति
ध्यानसमं
यज्ञम्।
नास्ति
ध्यानसमं
तपम्।
तस्मात्
ध्यानं
समाचरेत्।
ध्यान के
समान कोई
तीर्थ नहीं।
ध्यान के समान
कोई दान नहीं।
ध्यान के समान
कोई यज्ञ
नहीं। ध्यान
के समान कोई
तप नहीं। अतः
हर रोज़ ध्यान
करना चाहिए।
सुबह
सूर्योदय से
पहले उठकर,
नित्यकर्म
करके गरम कंबल
अथवा टाट का
आसन बिछाकर
पद्मासन में बैठें।
अपने सामने
भगवान अथवा
गुरूदेव का चित्र
रखें।
धूप-दीप-अगरबत्ती
जलायें। फिर
दोनों हाथों
को
ज्ञानमुद्रा
में घुटनों पर
रखें। थोड़ी
देर तक चित्र
को
देखते-देखते
त्राटक करें।
पहले खुली आँख
आज्ञाचक्र
में ध्यान
करें। फिर आँखें
बंद करके
ध्यान करें।
बाद में गहरा
श्वास लेकर
थोड़ी देर
अंदर रोक
रखें, फिर हरि
ॐ..... दीर्घ
उच्चारण करते
हुए श्वास को
धीरे-धीरे बाहर
छोड़ें।
श्वास को भीतर
लेते समय मन
में भावना करें-
मैं सदगुण,
भक्ति,
निरोगता,
माधुर्य, आनंद
को अपने भीतर
भर रहा हूँ।
और श्वास को
बाहर छोड़ते
समय ऐसी भावना
करें- मैं
दुःख, चिंता,
रोग, भय को
अपने भीतर से
बाहर निकाल
रहा हूँ। इस
प्रकार सात
बार
करें। ध्यान
करने के बाद पाँच-सात
मिनट शाँत भाव
से बैठे रहें।
लाभः इससे मन
शाँत रहता है,
एकाग्रता व
स्मरणशक्ति बढ़ती
है, बुद्धि
सूक्ष्म होती
है, शरीर
निरोग रहता
है, सभी दुःख
दूर होते हैं,
परम शाँति का
अनुभव होता है
और परमात्मा
के साथ संबंध
स्थापित किया
जा सकता है।
एकाग्रता
बढ़ाने के लिए
त्राटक बहुत
मदद करता है।
त्राटक
अर्थात
दृष्टि के
ज़रा सा भी
हिलाए बिना एक
ही स्थान पर
स्थित करना।
बच्चों की स्मृतिशक्ति
बढ़ाने में
त्राटक
उपयोगी है।
त्राटक की
विधि इस
प्रकार है।
एक फुट
के चौरस गत्ते
पर एक सफेद
कागज़ लगा दें।
उसके केन्द्र
में एक रूपये
का सिक्के के
बराबर का एक
गोलाकार
चिन्ह
बनायें। इस
गोलाकार
चिह्न के केंद्र
में एक तिलभर
बिन्दु
छोड़कर बाकी
के भाग में
काला कर दें।
बीचवाले
बिन्दु में
पीला रंग भर
दें। अब उस
गत्ते को
दीवार पर ऐसे
रखो कि गोलाकार
चिह्न आँखों
की सीधी रेखा
में रहे। नित्य
एक ही स्थान
में तथा एक
निश्चित समय में
गत्ते के
सामने बैठ
जायें। आँख और
गत्ते के बीच
का अंतर तीन
फीट का रखें।
पलकें गिराये
बिना अपनी
दृष्टि उस
गोलाकार
चिह्न के पील
केन्द्र पर
टिकायें।
पहले 5-10
मिनट तक
बैठें।
प्रारम्भ में
आँखें जलती
हुई मालूम
पड़ेंगी
लेकिन
घबरायें
नहीं। धीरे-धीरे
अभ्यास द्वारा
आधा घण्टा तक
बैठने से
एकाग्रता में
बहुत मदद
मिलती है। फिर
जो कुछ भी
पढ़ेंगे वह
याद रह जाएगा।
इसके अलावा
चन्द्रमा,
भगवान या गुरूदेव
जी के चित्र
पर, स्वस्तिक,
ॐ या
दीपक की ज्योत
पर भी त्राटक
कर सकते हैं।
इष्टदेव या
गुरूदेव के
चित्र पर
त्राटक करने से
विशेष लाभ
मिलता है।
भगवान
श्रीकृष्ण ने
गीता में कहा
है, यज्ञानाम्
जपयज्ञो
अस्मि। यज्ञों
में जपयज्ञ
मैं हूँ। श्री
राम चरित मानस
में भी आता
हैः
कलियुग
केवल नाम
आधारा, जपत नर
उतरे सिंधु
पारा।
इस कलयुग
में भगवान का
नाम ही आधार
है। जो लोग भगवान
के नाम का जप
करते हैं, वे
इस संसार सागर
से तर जाते
हैं।
जप अर्थात
क्या? ज = जन्म का
नाश, प = पापों
का नाश।
पापों का
नाश करके
जन्म-मरण करके
चक्कर से छुड़ा
दे उसे जप
कहते हैं।
परमात्मा के
साथ संबंध
जोड़ने की एक
कला का नाम है
जप। एक विचार
पूरा हुआ और
दूसरा अभी
उठने को है
उसके बीच के
अवकाश में परम
शांति का
अनुभव होता
है। ऐसी
स्थिति लाने
के लिए जप
बहुत उपयोगी
साधन है।
इसीलिए कहा
जाता हैः
अधिकम्
जपं अधिकं
फलम्।
मौन शब्द
की संधि
विच्छेद की
जाय तो म+उ+न होता
है। म = मन, उ =
उत्कृष्ट
और न = नकार। मन को
संसार की ओर
उत्कृष्ट न
होने देना और
परमात्मा के
स्वरूप में
लीन करना ही
वास्तविक अर्थ
में मौन कहा
जाता है।
वाणी के
संयम हेतु मौन
अनिवार्य
साधन है। मनु्ष्य
अन्य
इन्द्रियों
के उपयोग से
जैसे अपनी शक्ति
खर्च करता है
ऐसे ही बोलकर
भी वह अपनी शक्ति
का बहुत व्यय
करता है।
मनुष्य
वाणी के संयम
द्वारा अपनी
शक्तियों को
विकसित कर
सकता है। मौन
से आंतरिक
शक्तियों का
बहुत विकास
होता है। अपनी
शक्ति को अपने
भीतर संचित
करने के लिए
मौन धारण करने
की आवश्यकता
है। कहावत है
कि न
बोलने में नौ
गुण।
ये नौ गुण
इस प्रकार
हैं। 1. किसी की
निंदा नहीं
होगी। 2. असत्य
बोलने से बचेंगे।
3. किसी से वैर
नहीं होगा। 4.
किसी से क्षमा
नहीं माँगनी
पड़ेगी। 5. बाद
में आपको
पछताना नहीं
पड़ेगा। 6. समय
का दुरूपयोग
नहीं होगा। 7.
किसी कार्य का
बंधन नहीं
रहेगा। 8. अपने
वास्तविक ज्ञान
की रक्षा
होगी। अपना अज्ञान
मिटेगा। 9.
अंतःकरण की
शाँति भंग
नहीं होगी।
मौन
के विषय में
महापुरूष
कहते हैं।
सुषुप्त
शक्तियों को
विकसित करने
का अमोघ साधन
है मौन।
योग्यता
विकसित करने
के लिए मौन जैसा
सुगम साधन
मैंने दूसरा
कोई नहीं
देखा।
-
परम पूज्य
संत श्री
आसारामजी
बापू
ज्ञानियों
की सभा में
अज्ञानियों
का भूषण मौन
है। - भर्तृहरि
बोलना एक
सुंदर कला है।
मौन उससे भी
ऊँची कला है।
कभी-कभी मौन
कितने ही
अनर्थों को
रोकने का उपाय
बन जाता है।
क्रोध को
जीतने में मौन
जितना मददरूप
है उतना
मददरूप और कोई
उपाय नहीं। अतः
हो सके तब तक
मौन ही रहना
चाहिए।
-
महात्मा
गाँधी
प्रातः
सूर्योदय के 10
मिनट पहले से 10
मिनट बाद तक,
दोपहर के 12 बजे
से 10 मिनट पहले
से 10 मिनट बाद
तक एवं शाम को
सूर्यास्त के
10 मिनट पहले से 10
मिनट बाद तक
का समय
संधिकाल
कहलाता है।
इड़ा और पिंगला
नाड़ी के बीच
में जो सुषुम्ना
नाड़ी है, उसे
अध्यात्म की
नाड़ी भी कहा
जाता है। उसका
मुख संधिकाल
में
उर्ध्वगामी
होने से इस
समय
प्राणायाम,
जप, ध्यान
करने से सहज में
ज़्यादा लाभ
होता है।
अतः
सुबह, दोपहर
एवं सांय- इन
तीनों समय
संध्या करनी
चाहिए।
त्रिकाल
संध्या करने
वालों को अमिट
पुण्यपुंज
प्राप्त होता
है। त्रिकाल
संध्या में
प्राणायाम,
जप, ध्यान का
समावेश होता
है। इस समय महापुरूषों
के सत्संग की
कैसेट भी सुन
सकते हैं।
आध्यात्मिक
उन्नति के लिए
त्रिकाल
संध्या का
नियम बहुत
उपयोगी है।
त्रिकाल
संध्या करने
वाले को कभी
रोज़ी-रोटी की
चिंता नहीं करनी
पड़ती।
त्रिकाल
संध्या करने
से असाध्य रोग
भी मिट जाते
हैं। ओज़, तेज,
बुद्धि एवं
जीवनशक्ति का
विकास होता
है। हमारे
ऋषि-मुनि एवं
श्रीराम तथा
श्रीकृष्ण
आदि भी
त्रिकाल
संध्या करते
थे। इसलिए
हमें भी
त्रिकाल
संध्या करने का
नियम लेना
चाहिए।
मन की मनन
करने की शक्ति
अर्थात
एकाग्रता
प्रदान करके
जप द्वारा सभी
भयों का विनाश
करके, पूर्ण रूप
से रक्षा
करनेवाले
शब्दों को
मंत्र कहा जाता
है। ऐसे कुछ
मंत्र और उनकी
शक्ति निम्न
प्रकार हैः
1.
हरि ॐ
ह्रीं शब्द
बोलने से यकृत
पर गहरा
प्रभाव पड़ता
है और हरि के
साथ यदि ॐ मिला कर
उच्चारण किया
जाए तो हमारी
पाँचों ज्ञानेन्द्रियों
पर अच्छी असर
पड़ती है। सात
बार हरि ॐ का
गुंजन करने से
मूलाधार
केन्द्र पर
स्पंदन होते
हैं और कई
रोगों को
कीटाणु भाग
जाते हैं।
2.
रामः
रमन्ते
योगीनः
यस्मिन् स
रामः। जिसमें
योगी लोग रमण
करते हैं वह
है राम। रोम
रोम में जो
चैतन्य आत्मा
है वह है राम। ॐ राम... ॐ राम... का
हररोज एक
घण्टे तक जप
करने से रोग
प्रतिकारक
शक्ति बढ़ती
है, मन पवित्र
होता है, निराशा,
हताशा और
मानसिक
दुर्बलता दूर
होने से शारीरिक
स्वास्थ्य
प्राप्त होता
है।
3.
सूर्यमंत्रः
ॐ सूर्याय
नमः।
इस मँत्र
के जप से
स्वास्थ्य,
दीर्घायु,
वीर्य एवं ओज
की प्राप्ति
होती है। यह
मंत्र शरीर
एवं चक्षु के
सारे रोग दूर
करता है। इस
मंत्र के जप करने
से जापक के
शत्रु उसका
कुछ भी नहीं
बिगाड़ सकते।
4.
सारस्वत्य
मंत्रः ॐ सारस्वत्यै
नमः।
इस मंत्र
के जप से
ज्ञान और
तीव्र बुद्धि
प्राप्त होती
है।
5.
लक्ष्मी
मंत्रः ॐ श्री
महालक्ष्म्यै
नमः।
इस मंत्र
के जप से धन की
प्राप्ति
होती है और निर्धनता
का निवारण
होता है।
6.
गणेष
मंत्रः ॐ श्री
गणेषाय नमः। ॐ गं
गणपतये नमः।
इन
मंत्रों के जप
से कोई भी
कार्य पूर्ण
करने में आने
वाले विघ्नों
का नाश होता
है।
7.
हनुमान
मंत्रः ॐ श्री
हनुमते नमः।
इस मंत्र
के जप से विजय
और बल की
प्राप्ति होती
है।
8.
सुब्रह्मण्यमंत्रः
ॐ श्री
शरणभवाय नमः।
इस मंत्र
के जप से
कार्यों में
सफलता मिलती
है। यह मंत्र
प्रेतात्मा
के
दुष्प्रभाव
को दूर करता
है।
9. सगुण
मंत्रः ॐ श्री
रामाय नमः। ॐ नमो
भगवते
वासुदेवाय। ॐ नमः
शिवाय।
ये सगुण
मंत्र हैं, जो
कि पहले सगुण
साक्षातकार
कराते हैं और
अंत में
निर्गुण
साक्षात्कार।
10.
मोक्षमंत्रः ॐ, सोsहम्, शिवोsहम्, अहं
ब्रह्मास्मि।
ये मोक्ष
मंत्र हैं, जो
आत्म-साक्षात्कार
में मदद करते
हैं।
महत्त्वः
हमारे
ऋषियों ने
मंत्र और
व्यायामसहित
एक ऐसी
प्रणाली
विकसित की है
जिसमें
सूर्योपासना का
समन्वय हो
जाता है। इसे
सूर्यनमस्कार
कहते हैं।
इसमें कुल 10
आसनों का
समावेश है।
हमारी शारीरिक
शक्ति की
उत्पत्ति,
स्थिति एव
वृद्धि सूर्य
पर आधारित है।
जो लोग सूर्यस्नान
करते हैं,
सूर्योपासना
करते हैं वे
सदैव स्वस्थ
रहते हैं।
सूर्यनमस्कार
से शरीर की रक्तसंचरण
प्रणाली,
श्वास-प्रश्वास
की कार्यप्रणाली
और
पाचन-प्रणाली
आदि पर
असरकारक प्रभाव
पड़ता है। यह
अनेक प्रकार
के रोगों के
कारणों को दूर
करने में मदद
करता है।
सूर्यनमस्कार
के नियमित
अभ्यास के
शारीरिक एवं
मानसिक स्फूर्ति
के साथ
विचारशक्ति
और
स्मरणशक्ति तीव्र
होती है।
पश्चिमी
वैज्ञानिक
गार्डनर रॉनी
ने कहाः सूर्य
श्रैष्ठ औषध
है। उससे
सर्दी, खाँसी,
न्युमोनिया
और कोढ़ जैसे
रोग भी दूर हो
जाते हैं।
डॉक्टर
सोले ने कहाः
सूर्य में
जितनी
रोगनाशक
शक्ति है उतनी
संसार की अन्य
किसी चीज़ में
नहीं।
प्रातःकाल
शौच स्नानादि
से निवृत होकर
कंबल या टाट
(कंतान) का आसन
बिछाकर
पूर्वाभिमुख
खड़े हो
जायें। चित्र
के अनुसार सिद्ध
स्थिति में
हाथ जोड़ कर,
आँखें बन्द
करके, हृदय
में भक्तिभाव
भरकर भगवान
आदिनारायण का
ध्यान करें-
ध्येयः
सदा
सवितृमण्डलमध्यवर्ती
नारायणः सरसिजासनसन्निविष्टः।
केयूरवान्
मकरकुण्डलवान्
किरीटी हारी
हिरण्मयवपर्धृतशंखचक्रः।।
सवितृमण्डल
के भीतर रहने
वाले, पद्मासन
में बैठे हुए,
केयूर, मकर
कुण्डल
किरीटधारी
तथा हार पहने
हुए,
शंख-चक्रधारी,
स्वर्ण के
सदृश
देदीप्यमान
शरीर वाले
भगवान नारायण
का सदा ध्यान
करना चाहिए। - (आदित्य
हृदयः 938)
आदिदेव
नमस्तुभ्यं
प्रसीद मम
भास्कर। दिवाकर
नमस्तुभ्यं
प्रभाकर नमोsस्तु
ते।।
हे
आदिदेव
सूर्यनारायण!
मैं आपको
नमस्कार करता
हूँ। हे
प्रकाश
प्रदान करने
वाले देव! आप
मुझ पर
प्रसन्न हों।
हे दिवाकर
देव! मैं आपको
नमस्कार करता
हूँ। हे
तेजोमय देव!
आपको मेरा
नमस्कार है।
यह
प्रार्थना
करने के बाद
सूर्य के तेरह
मंत्रों में
से प्रथम
मंत्र ॐ मित्राय
नमः। के स्पष्ट
उच्चारण के
साथ हाथ जोड़
कर, सिर झुका
कर सूर्य को
नमस्कार
करें। फिर
चित्रों कें
निर्दिष्ट 10
स्थितियों का
क्रमशः
आवर्तन करें।
यह एक सूर्य
नमस्कार हुआ।
इस मंत्र
द्वारा
प्रार्थना
करने के बाद
निम्नांकित
मंत्र में से
एक-एक मंत्र
का स्पष्ट उच्चारण
करते हुए
सूर्यनमस्कार
की दसों स्थितियों
का क्रमबद्ध
अनुसरण करें।
1. ॐ मित्राय
नमः।
2. ॐ रवये
नमः।
3. ॐ सूर्याय
नमः।
4. ॐ भानवे
नमः।
5. ॐ खगाय
नमः।
6. ॐ पूष्णे
नमः।
7. ॐ हिरण्यगर्भाय
नमः।
8. ॐ मरीचये
नमः।
9. ॐ आदित्याय
नमः।
10. ॐ सवित्रे
नमः।
11. ॐ अकीय
नमः।
12. ॐ भास्कराय
नमः।
13. ॐ श्रीसवितृ-सूर्यनारायणाय
नमः।
सिद्ध
स्थितिः
सिद्ध
स्थिति |
दोनों
पैरों की
एडियों और
अंगूठे
परस्पर
लगे हुए,संपूर्ण
शरीर तना हुआ,
दृष्टि
नासिकाग्र,
दोनोंहथेलियाँ
नमस्कार
की मुद्रा
में,
अंगूठे
सीने से लगे
हुए।
पहली
स्थितिः
पहलीस्थिति |
नमस्कार
की स्थिति में
ही दोनों
भुजाएँ सिर
के ऊपर,
हाथ सीधे,
कोहनियाँ तनी
हुईं, सिर
और कमर
से ऊपर का
शरीर पीछे की
झुका
हुआ,
दृष्टि करमूल
में, पैर सीधे,
घुटने तने
दूसरी
स्थिति |
हुए, इस
स्थिति में
आते हुए श्वास
भीतर भरें।
दूसरी
स्थितिः हाथ को
कोहनियों से न
मोड़ते
हुए
सामने से नीचे
की ओर झुकें,
दोनों हाथ-पैर
सीधे, दोनों घुटनेऔर
कोहनियाँतनी
हुईं, दोनों
हथेलियाँ दोनों
पैरों के पास जमीन के
पासलगी
हुईं,ललाट
घुटनों से लगा
हुआ, ठोड़ी
उरोस्थि से लगी हुई,
इस स्थितिमें
श्वास को बाहर
छोड़ें।
तीसरी
स्थिति |
तीसरी
स्थितिः बायाँ
पैर पीछे,
उसका पंजा और घुटना
धरतीसे लगा
हुआ, दायाँ
घुटना मुड़ा
हुआ, दोनों हथेलियाँ
पूर्ववत्,
भुजाएँ
सीधी-कोहनियाँ
तनी हुईं,
कन्धे और
मस्तक पीछे
खींचेहुए,
दृष्टि ऊपर,
बाएँ पैर को
पीछे ले जाते
समय श्वास को भीतर
खींचे।
चौथी
स्थिति |
चौथी
स्थितिः दाहिना
पैर पीछे लेकर
बाएँ पैर के
पास, दोनों
हाथ
पैर
सीधे, एड़ियाँ
जमीन से लगी
हुईं, दोनों
घुटने और
कोहनियाँ
तनी
हुईं, कमर ऊपर
उठी हुई, सिर
घुटनों की ओर
खींचा हुआ,
ठोड़ी
छाती से लगी
हुई, कटि और
कलाईयाँ
इनमें त्रिकोण,
दृष्टि
घुटनों
की ओर, कमर को
ऊपर उठाते समय
श्वास को छोड़ें।
पाँचवीं
स्थिति |
पाँचवीं
स्थितिः साष्टांग
नमस्कार,
ललाट, छाती,
दोनों
हथेलियाँ, दोनों
घुटने, दोनों
पैरों के
पंजे, ये आठ
अंग धरती पर
टिके हुए, कमर
ऊपर उठाई हुई,
कोहनियाँ एक
दूसरे की ओर
खींची हुईं,
चौथी स्थिति
में श्वास
बाहर ही छोड़
कर रखें।
छठी
स्थिति |
छठी
स्थितिः घुटने
और जाँघे धरती
से सटी हुईं,
हाथ
सीधे,
कोहनियाँ तनी
हुईं, शरीर
कमर से ऊपर
उठा हुआ
मस्तक
पीछे की ओर
झुका हुआ,
दृष्टि ऊपर,
कमर
हथेलियों
की ओर खींची
हुई, पैरों के
पंजे स्थिर,
मेरूदंड
धनुषाकार,
शरीर को ऊपर
उठाते समय
श्वास भीतर लें।
सातवीं
स्थिति |
सातवीं
स्थितिः यह
स्थिति चौथी
स्थिति की
पुनरावृत्ति
है।
कमर ऊपर
उठाई हुई,
दोनों हाथ पैर
सीधे, दोनों घुटने
और
कोहनियाँ तनी
हुईं, दोनों
एड़ियाँ धरती
पर टिकी हुईं,
मस्तक
घुटनों की ओर
खींचा हुआ,
ठोड़ी
उरोस्थि से
लगी
हुई,
एड़ियाँ, कटि
और कलाईयाँ –
इनमें
त्रिकोण,
श्वास
को बाहर
छोड़ें।
आठवीं
स्थिति |
आठवीं
स्थितिः बायाँ
पैर आगे लाकर
पैर का पंजा
दोनों
हथेलियों
के बीच पूर्व
स्थान पर,
दाहिने पैर का
पंजा और
घुटना
धरती पर टिका
हुआ, दृष्टि
ऊपर की ओर, इस स्थिति
में आते
समय श्वास
भीतर को लें।
(तीसरी और आठवीं
स्थिति
मे पीछे-आगे
जाने वाला पैर
प्रत्येक सूर्यनमस्कार
में
बदलें।)
नौवीं
स्थिति |
नौवीं
स्थितिः यह
स्थिति दूसरी
की
पुनरावृत्ति
है, दाहिना
पैर आगे
लाकर बाएँ के
पास पूर्व
स्थान पर रखें,
दोनों
हथेलियाँ
दोनों पैरों
के पास धरती
पर टिकी हुईं,
ललाट
घुटनों
से लगा हुआ,
ठोड़ी
उरोस्थि से
लगी हुई, दोनों
हाथ
पैर
सीधे, दोनों
घुटने और
कोहनियाँ तनी
हुईं, इस
स्थिति में
आते समय श्वास
को बाहर
छोड़ें।
दसवीं
स्थिति |
दसवीं
स्थितिः प्रारम्भिक
सिद्ध स्थिति
के अनुसार
समपूर्ण
शरीर तना
हुआ, दोनों
पैरों की
एड़ियाँ और
अँगूठे
परस्पर
लगे हुए,
दृष्टि
नासिकाग्र, दोनों
हथेलियाँ
नमस्कार की
मुद्रा
में,
अँगूठे छाती
से लगे हुए,
श्वास को भीतर
भरें, इस
प्रकार
दस
स्थितयों में
एक
सूर्यनमस्कार
पूर्ण होता
है। (यह दसवीं
स्थिति
ही आगामी
सूर्यनमस्कार
की सिद्ध स्थिति
बनती
है।)
चक्रः चक्र
आध्यात्मिक
शक्तियों के
केन्द्र हैं।
स्थूल शरीर
में ये चक्र
चर्मचक्षुओं
से नहीं दिखते
हैं। क्योंकि
ये चक्र हमारे
सूक्ष्म शरीर
में होते हैं।
फिर भी स्थूल
शरीर के ज्ञानतंतुओं-स्नायुकेन्द्रों
के साथ समानता
स्थापित करके
उनका निर्देश
किया जाता है।
हमारे
शरीर में सात
चक्र हैं और
उनके स्थान निम्नांकित
हैं-
1. मूलाधार
चक्रः गुदा के
नज़दीक
मेरूदण्ड के
आखिरी बिन्दु
के पास यह
चक्र होता है।
2.
स्वाधिष्ठान
चक्रः नाभि से
नीचे के भाग
में यह चक्र
होता है।
3.
मणिपुर चक्रः यह
चक्र नाभि
केन्द्र पर
स्थित होता है।
4. अनाहत
चक्रः इस चक्र
का स्थान हृदय
मे होता है।
5.
विशुद्धाख्य
चक्रः कंठकूप
में होता है।
6.
आज्ञाचक्रः यह
चक्र दोनों
भौहों (भवों)
के बीच में
होता है।
7.
सहस्रार
चक्रः सिर के
ऊपर के भाग
में जहाँ शिखा
रखी जाती है वहाँ
यह चक्र होता
है।
प्रातः
स्नान आदि के
बाद आसन बिछा
कर हो सके तो
पद्मासन में
अथवा सुखासन
में बैठें।
पाँच-दस गहरे
साँस लें और
धीरे-धीरे
छोड़ें। उसके
बाद
शांतचित्त
होकर निम्न
मुद्राओं को
दोनों हाथों
से करें।
विशेष
परिस्थिति
में इन्हें कभी
भी कर सकते
हैं।
लिंग
मुद्रा |
लिंग
मुद्राः दोनों
हाथों की
उँगलियाँ
परस्पर
भींचकर
अन्दर की ओर
रहते हुए
अँगूठे को
ऊपर की
ओर सीधा खड़ा
करें।
लाभः शरीर
में ऊष्णता
बढ़ती है,
खाँसी मिटती
है और कफ
का नाश करती
है।
शून्य
मुद्राः सबसे
लम्बी उँगली
(मध्यमा) को
शून्य
मुद्रा |
अंदपर की
ओर मोड़कर
उसके नख के
ऊपर वाले
भाग पर अँगूठे
का गद्दीवाला
भाग स्पर्श
करायें। शेष
तीनों उँगलियाँ
सीधी रहें।
लाभः कान
का दर्द मिट
जाता है। कान
में से पस
निकलता
हो अथवा
बहरापन हो तो यह
मुद्रा 4 से 5
मिनट तक
करनी चाहिए।
पृथ्वी
मुद्रा |
पृथ्वी
मुद्राः कनिष्ठिका
यानि सबसे
छोटी उँगली को
अँगूठे
के नुकीले भाग
से स्पर्श
करायें। शेष तीनों
उँगलियाँ
सीधी रहें।
लाभः शारीरिक
दुर्बलता दूर
करने के लिए,
ताजगी
व
स्फूर्ति के
लिए यह मुद्रा
अत्यंत
लाभदायक है।
इससे तेज
बढ़ता है।
सूर्यमुद्रा |
सूर्यमुद्राः
अनामिका
अर्थात सबसे
छोटी उँगली के
पास वाली
उँगली को
मोड़कर उसके
नख के ऊपर
वाले भाग
को अँगूठे से
स्पर्श
करायें। शेष तीनों
उँगलियाँ
सीधी रहें।
लाभः शरीर
में एकत्रित
अनावश्यक
चर्बी एवं
स्थूलता
को दूर
करने के लिए
यह एक उत्तम
मुद्रा है।
ज्ञान
मुद्रा |
ज्ञान
मुद्राः तर्जनी
अर्थात प्रथम
उँगली को
अँगूठे के
नुकीले
भाग से स्पर्श
करायें। शेष
तीनों
उँगलियाँ
सीधी
रहें।
लाभः मानसिक
रोग जैसे कि
अनिद्रा अथवा
अति
निद्रा,
कमजोर
यादशक्ति,
क्रोधी
स्वभाव आदि हो
तो
यह
मुद्रा
अत्यंत
लाभदायक
सिद्ध होगी।
यह मुद्रा
करने से
पूजा पाठ,
ध्यान-भजन में
मन लगता है।
वरुण
मुद्रा |
इस
मुद्रा का
प्रतिदिन 30
मिनठ तक
अभ्यास करना चाहिए।
वरुण
मुद्राः मध्यमा
अर्थात सबसे
बड़ी उँगली के
मोड़ कर
उसके
नुकीले भाग को
अँगूठे के
नुकीले भाग पर
स्पर्श
करायें। शेष
तीनों
उँगलियाँ
सीधी रहें।
लाभः यह
मुद्रा करने
से जल तत्त्व
की कमी के
कारण होने
वाले रोग
जैसे कि
रक्तविकार और
उसके फलस्वरूप
होने
वाले
चर्मरोग व
पाण्डुरोग
(एनीमिया) आदि
दूर होते है।
प्राण
मुद्राः कनिष्ठिका,
अनामिका और
अँगूठे के
ऊपरी भाग
प्राण
मुद्राः |
को
परस्पर एक साथ
स्पर्श करायें।
शेष दो
उँगलियाँ
सीधी रहें।
लाभः यह
मुद्रा प्राण
शक्ति का
केंद्र है।
इससे शरीर
निरोगी रहता
है। आँखों के
रोग मिटाने के
लिए व चश्मे
का नंबर घटाने
के लिए यह
मुद्रा
अत्यंत
लाभदायक है।
वायु
मुद्राः तर्जनी
अर्थात प्रथम
उँगली को
मोड़कर
ऊपर से
उसके प्रथम
पोर पर अँगूठे
की गद्दी
वायु
मुद्राः |
स्पर्श
कराओ। शेष
तीनों
उँगलियाँ
सीधी रहें।
लाभः हाथ-पैर
के जोड़ों में
दर्द, लकवा,
पक्षाघात,
हिस्टीरिया
आदि रोगों में
लाभ होता है।
इस मुद्रा
के साथ
प्राण मुद्रा
करने से शीघ्र
लाभ मिलता है।
अपानवायु
मुद्राः अँगूठे
के पास वाली
पहली उँगली
को
अँगूठे के मूल
में लगाकर
अँगूठे के
अग्रभाग की
बीच की
दोनों
उँगलियों के
अग्रभाग के
साथ मिलाकर
सबसे
छोटी उँगली
(कनिष्ठिका)
को अलग से
सीधी
रखें। इस
स्थिति को
अपानवायु
मुद्रा कहते
हैं। अगर
अपानवायु
मुद्रा |
किसी को
हृदयघात आये
या हृदय में
अचानक
पीड़ा
होने लगे तब
तुरन्त ही यह
मुद्रा करने से
हृदयघात
को भी रोका जा
सकता है।
लाभः हृदयरोगों
जैसे कि हृदय
की घबराहट,
हृदय की
तीव्र या मंद
गति, हृदय का
धीरे-धीरे
बैठ जाना
आदि में थोड़े
समय में लाभ
होता है।
पेट की
गैस, मेद की
वृद्धि एवं
हृदय तथा पूरे
शरीर की
बेचैनी इस
मुद्रा के
अभ्यास से दूर
होती है।
आवश्यकतानुसार
हर रोज़ 20 से 30
मिनट तक इस
मुद्रा का
अभ्यास किया
जा सकता है।
योगासन
के नियमित
अभ्यास से
शरीर
तंदरूस्त और
मन प्रसन्न
रहता है। कुछ
प्रमुख आसन इस
प्रकार हैं-
पद्मासन |
1
पद्मासनः इस
आसन से पैरों
का आकार पद्म
अर्थात
कमल जैसा बनने
से इसको
पद्मासन या
कमलासन
कहा जाता है।
पद्मासन के
अभ्यास
से
उत्साह में
वृद्धि होती
है, स्वभाव
में प्रसन्नता
बढ़ती
है, मुख
तेजस्वी बनता
है, बुद्धि का
अलौकिक
विकास
होता है तथा
स्थूलता घटती
है।
उग्रासन
(पादपश्चिमोत्तानासन) |
2.
उग्रासन (पादपश्चिमोत्तानासन)-
सब
आसनों में यह
सर्वश्रेष्ठ
है। इस आसन से
शरीर का कद
बढ़ता है।
शरीर में
अधिक स्थूलता
हो तो कम होती
है।
दुर्बलता
दूर होती है,
शरीर के सब
तंत्र बराबर
कार्यशील
होते हैं और
रोगों का नाश
होता है।
इस आसन
से
ब्रह्मचर्य
की रक्षा होती
है।
3. सर्वांगासनः
भूमि
पर सोकर समस्त
शरीर
सर्वांगासन |
को ऊपर
उठाया जाता है
इसलिए इसे
सर्वांगासन
कहते हैं।
सर्वांगासन
के नित्य अभ्यास
से
जठराग्नि तेज
होती है। शरीर
की त्वचा ढीली
नहीं
होती। बाल
सफेद होकर
गिरते नहीं
हैं।
मेधाशक्ति
बढ़ती है।
नेत्र और
मस्तक के रोग
दूर होते
हैं।
हलासन |
4.
हलासनः इस
आसन में शरीर
का आकार हल
जैसा
बनता है इसलिए
इसको हलासन
कहा जाता
है। इस
आसन से लीवर
ठीक हो जाता
है। छाती
का विकास
होता है।
श्वसनक्रिया
तेज होकर अधिक
आक्सीजन
मिलने से रक्त
शुद्ध बनता
है। गले के
दर्द,
पेट की
बीमारी,
संधिवात आदि
दूर होते
हैं।पेट की
चर्बी कम होती
है। सिरदर्द
दूर होता है। रीढ़
लचीली बनती
है।
5.
चक्रासनः इस
आसन में शरीर
की स्थिति
चक्रासन |
चक्र
जैसी बनती है
इसलिए इसे
चक्रासन कहते
हैं।
मेरूदण्ड तथा
शरीर की समस्त
नाड़ियों का
शुद्धिकरण
होकर यौगिक
चक्र जाग्रत
होते हैं।
लकवा तथा
शरीर की
कमजोरियाँ
दूर होती हैं।
इस आसन
से मस्तक,
गर्दन, पेट,
कमर, हाथ,
पैर,
घुटने आदि सब
अंग बनते हैं।
संधिस्थानोंमें
दर्द नहीं
होता। पाचन
शक्ति बढ़ती
है। पेट
कीअनावश्यक
चर्बी दूर
होती है। शरीर
सीधा बना
रहता है।
मत्स्यासन |
6.
मत्स्यासनः मत्सय
का अर्थ है
मछली। इस
आसन में
शरीर का आकार
मछली जैसा
बनता
है। अतः
मत्स्यासन
कहलाता है।
प्लाविनी
प्राणायाम
के साथ इस आसन
की स्थिति में
लम्बे
समय तक पानी
में तैर सकते
हैं। मत्स्यासनसे
पूरा शरीर
मजबूत बनता
है। गला, छाती,
पेट की तमाम
बीमारियाँ
दूर होती हैं।
आँखों की रोशनी बढ़ती
है। पेट के
रोग नहीं
होते। दमा और
खाँसी दूर होती
है। पेट की
चर्बी कम होती
है।
7.
पवनमुक्तासनः
यह
आसन करने से
शरीर में
स्थित
पवनमुक्तासन |
पवन
(वायु) मुक्त
होता है। इससे
इसे पवन मुक्तासन
कहा जाता
है।
पवनमुक्तासन
के नियमित
अभ्यास से
पेट की
चर्बी कम हो
जाती है। पेट
की वायु नष्ट होकर
पेट
विकार रहित
बनता है। कब्ज
दूर होती है।
इस
आसन से
स्मरणशक्ति
बढ़ती है।
बौद्धिक कार्य
करने वाले
डॉक्टर, वकील,
साहित्यकार,
विद्यार्थी तथा बैठकर
प्रवृत्ति
करने वाले
मुनीम,
व्यापारी, क्लर्क
आदि
लोगों को
नियमित
पवनमुक्तासन
अवश्य करना चाहिए।
वज्रासन |
8. वज्रासनः
वज्रासन
का अर्थ है
बलवान
स्थिति। पाचनशक्ति,
वीर्य शक्ति
तथा
स्नायुशक्ति
देने वाला
होने के कारण
यह आसन
वज्रासन
कहलाता है।
भोजन के बाद
इस आसन
में
बैठने से
पाचनशक्ति
तेज होती है।
भोजन जल्दी
हज्म
होता है।
कब्जी दूर
होकर पेट के
तमाम रोग
नष्ट
होते हैं। कमर
और पैर का
वायुरोग दूर
होता है।
स्मरणशक्ति
में वृद्धि
होती है।
वज्रनाड़ी
अर्थात वीर्यधारा
मजबूत
होती है।
धनुरासन |
9. धनुरासनः
इस
आसन में शरीर
की आकृति
खींचे
हुए धनुष
जैसी बनती है,
अतः इसको
धनुरासन कहा
जाता है।
धनुरासन से
छाती का दर्द
दूर होता है। हृदय
मजबूत
बनता है। गले
के तमाम रोग
नष्ट होते हैं।
आवाज़
मधुर बनती है।
मुखाकृति
सुन्दर बनती है।
आँखों की
रोशनी बढ़ती
है। पाचन
शक्ति बढ़ती है।
भूख खुलती है।
पेट की चर्बी
कम होती है।
10.
शवासनः शवासन
की
पूर्णावस्था
में शरीर के
शवासन |
तमाम अंग
एवं मस्तिषक
पूर्णतया
चेष्टारहित किए
जाते
हैं। यह
अवस्था शव
(मुर्दे) के
समान होने से
इस आसन
को शवासन कहा
जाता है। अन्य
आसन करने के
बाद अंगों में
जो तनाव पैदा
होता है उसको दूर
करने के लिए
अंत में 3 से 5
मिनट तक शवासन करना
चाहिए। इस आसन
से
रक्तवाहिनियों
में, शिराओं में
रक्तप्रवाह
तीव्र होने से
सारी थकान उतर
जाती है। नाड़ीतंत्र
को बल मिलता
है। मानसिक
शक्ति में
वृद्धि होती
है।
शशांकासन |
11.
शशांकासनः शशांकआसन
श्रोणी
प्रदेश की
पेशियों
के लिए
अत्यन्त
लाभदायक है।
सायटिका की
तंत्रिका
तथा
एड्रिनल
ग्रन्थी के
कार्य नियमित
होते हैं,
कोष्ठ-
बद्धता
और सायटिका से
राहत मिलती है
तथा क्रोध
पर
नियन्त्रण
आता है, बस्ति
प्रदेश का
स्वस्थ विकास होता
है तथा यौन
समस्याएँ दूर
होती हैं।
12
ताड़ासनः वीर्यस्राव
क्यों होता है? जब
पेट में दबाव ( Intro-abdominal
Pressure) बढ़ता है तब
वीर्यस्राव
होता है। इस
प्रेशर के
बढ़ने के कारण
इस प्रकार
हैं- 1.
ठूँस-ठूँस कर
खाना 2. बार-बार
खाना 3.
कब्जियत 4. गैस
होने पर (वायु करे
ऐसी आलू, गवार
फली, भींडी,
तली हुई चीजों
ताड़ासन |
का सेवन
एवं अधिक भोजन
करने के कारण) 5.
सैक्स
सम्बन्धी
विचार,
चलचित्र एवं
पत्रिकाओं
से।
इस
प्रेशर के
बढ़ने से
प्राण नीचे के
केन्द्रों
में, नाभि
से नीचे
मूलाधार
केन्द्र में आ
जाता है जिसकी
वजह से
वीर्यस्राव
हो जाता है।
इस प्रकार के
प्रेशर
के कारण
हर्निया की
बीमारी भी हो
जाती है।
ताड़ासन
करने से प्राण
ऊपर के
केन्द्रों
में चले जाते
हैं
जिससे
तुरंत ही
पुरूषों के
वीर्यस्राव व
स्त्रियों के
प्रदर रोग की
तकलीफ में लाभ
होता है।
(आसन तथा
प्राणायाम की
विस्तृत
जानकारी के लिए
आश्रम द्वारा
प्रकाशित
योगासन
पुस्तक को
अवश्य पढ़ें।)
बच्चों
के जीवन में
सुषुप्त
अवस्था में
छुपे हुए
उत्साह, तत्परता, निर्भयता
और
प्राणशक्ति
को जगाने के
लिए उपयोगी
प्राणवान
सूक्तियाँ
जहाजों
से जो टकराये,
उसे तूफान
कहते हैं।
तूफानों
से जो टकराये,
उसे इन्सान
कहते हैं।।1।।
हमें
रोक सके, ये
ज़माने में दम
नहीं।
हमसे
है ज़माना,
ज़माने से हम
नहीं।।2।।
जिन्दगी
के बोझ को,
हँसकर उठाना
चाहिए।
राह
की
दुश्वारियों
पे,
मुस्कुराना
चाहिए।।3।।
बाधाएँ
कब रोक सकी
हैं, आगे
बढ़ने वालों
को।
विपदाएँ
कब रोक सकी
हैं, पथ पे
बढ़ने वालों
को।।4।।
मैं
छुई मुई का
पौधा नहीं, जो
छूने से मुरझा
जाऊँ।
मैं
वो माई का लाल
नहीं, जो हौवा
से डर
जाऊँ।।5।।
जो
बीत गयी सो
बीत गयी,
तकदीर का
शिकवा कौन करे।
जो
तीर कमान से
निकल गयी, उस
तीर का पीछा
कौन करे।।6।।
अपने
दुःख में रोने
वाले, मुस्कुराना
सीख ले।
दूसरों
के दुःख दर्द
में आँसू
बहाना सीख
ले।।7।।
जो
खिलाने में
मज़ा, वो आप
खाने में
नहीं।
जिन्दगी
में तू किसी
के, काम आना
सीख ले।।8।।
खून
पसीना बहाता
जा, तान के
चादर सोता जा।
यह
नाव तो हिलती
जाएगी, तू
हँसता जा या
रोता जा।।9।।
खुदी
को कर बुलन्द
इतना कि हर
तकदीर से
पहले।
खुदा
बन्दे से यह
पूछे बता तेरी
रज़ा क्या है।।10।।
एक
से दस की
गिनती सब याद
रखना आप,
जीवन
में उतरना, तो
महान बनेंगे
आप।।
1.
एक, परमात्मा
है एकः जैसे
सोने के आभूषण
अलग-अलग होते
हैं, फिर भी मूल
में सोना तो
एक ही है। इसी
तरह परमात्मा
का नाम और रूप
अलग-अलग है।
जैसे राम,
श्याम, शिव
परन्तु तत्त्वरूप
में तो एक ही
परमात्मा है
और वह अपना
आत्मा है। ऐसा
एक
हमें समझाता
है।
2. दो
मन के प्रकार
हैं दोः मन दो
प्रकार का हैः
1 शुद्ध मन 2.
अशुद्ध मन।
शुद्ध मन के
विचार हैं
सुबह जल्दी
उठना,
जप-ध्यान-कीर्तन
करना, हमेशा
सच बोलना,
चोरी न करना
आदि जबकि
अशुद्ध मन के
विचार हैं देर
से उठना, झूठ
बोलना, बड़ों का
अपमान करना
आदि। बच्चों
को सदा शुद्ध
मन के विचारों
को ही अमल में
लाना चाहिए।
ऐसा दो हमें
कहता है।
3. तीन, संध्या
करनी तीनः हररोज़
तीन संध्या
अर्थात सुबह,
दोपहर और शाम तीनों
समय संध्या
करनी चाहिए।
संध्या में हरि
ॐ का
उच्चारण,
प्राणायाम,
जप, ध्यान आदि
किया जाता है।
भगवान राम तथा
श्री कृष्ण भी
संध्या करते
थें। बच्चों
को रोज़
संध्या करनी
चाहिए। ऐसा तीन हमें
समझाता है।
4. चार, योग
के लिए हो जाओ
तैयारः 84 से भी
अधिक आसन हैं,
परन्तु उन में
से थोड़े आसनों
को भी जो
नियमित रूप से
करता है तो
उसको शारीरिक
एवं मानसिक
स्वास्थ्य के
लिए खूब लाभदायी
होता है।
योगासन करने
से डॉक्टर की
गुलामी नहीं
करनी पड़ती
है। इसलिए
हररोज़
योगासन करना
चाहिए। ऐसा चार हमें
समझाता है।
5. पाँच, प्रकृति
के तत्त्व हैं
पाँचः हमारा यह
शरीर प्रकृति
का है जो पाँच
तत्त्वों
आकाश, तेज,
वायु, जल और
पृथ्वी का बना
हुआ है। जब
मृत्यु होती
है, तब यह शरीर
पाँच
तत्त्वों में
मिल जाता है,
तब भी इसमें
रहने वाला
आत्मा कभी
मरता नहीं है।
वस्तुतः हम
चैतन्य आत्मा
हैं शरीर नहीं
है। ऐसा पाँच
हमें याद
दिलाता है।
6. छः बनो
निर्भयः निर्भयता
ही जीवन है,
भयभीत होना
मृत्यु है। बच्चों
को हमेशा
निर्भय बनना
चाहिए।
भूत-प्रेत से,
अंधेरे से,
मौत से डरना
नहीं चाहिए।
निर्भय बनने
के लिए रोज़
सुबह ॐ शब्द का
दीर्घ स्वर से
जप करना
चाहिए। डराने
वाले सपने आते
हों तो
श्रद्धापूर्वक
भगवदगीता का
पाठ करके
उसमें मोर का
एक पंख रख
सिरहाने के
नीचे रखकर सो
जाने से लाभ
होगा। ऐसा
हमें छः कहता
है।
7. सात, दुर्गुणों
को मारो लातः बच्चों
को अपने जीवन
में से
दुर्गुणों को
जैसे कि झूठ
बोलना, चोरी
करना, निंदा
करना,
पान-मसाला खाना,
अपनी बुद्धि
बिगाड़े ऐसी
फिल्में
टी.वी. सीरियल
देखना तथा
उन्हें देखकर,
उसके विज्ञापन
देखकर फैशन का
कचरा घर में
लाना आदि
दुर्गुणों को
जीवन में से
दूर करना
चाहिए। ऐसा सात हमें
कहता है।
8. आठ, रोज
करो गीता-पाठः
हिंदूधर्म
का पवित्र
ग्रंथ
श्रीमदभगवदगीता
का बच्चों को
रोज़ पाठ करना
चाहिए
क्योंकि भगवदगीता
भगवान के
श्रीमुख से
निकली हुई
ज्ञानगंगा
है। उसे पढ़ने
से
आत्मविश्वास
बढ़ता है।
हमारे पाप नाश
होते हैं।
जीवन के
प्रश्नों के
सभी जवाब हमें
गीता से मिल
जाते हैं। इसलिए
भगवदगीता का
पाठ रोज़ करना
चाहिए। ऐसा आठ हमें
समझाता है।
9. नौ, करो
आत्मानुभवः हम अपने
जीवन में
सुख-दुःख,
मान-अपमान,
लाभ-हानि आदि
बहुत से अनुभव
करते हैं,
परन्तु
मनुष्य-जन्म
का उद्देश्य
सार्थक करने
के लिए मैं
शरीर नहीं
परन्तु
चैतन्य आत्मा
हूँ, ऐसा
अनुभव कर लो।
यही सार है।
ऐसा नौ हमें
याद दिलाता
है।
10. दस, रहो
आत्मानंद में
मस्तः भगवान
आनंदस्वरूप
हैं, दुःख,
चिंता या
ग्लानिस्वरूप
नहीं। इसलिए
सदा आनंद में
रहना चाहिए। सदा सम और
प्रसन्न रहना
ईश्वर की
सर्वोपरि भक्ति
है- पूज्य
बापू के इस
उपदेश के
अनुसार कैसी
भी विकट
परिस्थिति या
दुःख आ पड़े
तो भी हृदय की
शांति या
आनन्द गँवाना
(खोना) नहीं
चाहिए परंतु
समचित्त और
प्रसन्न रहना
चाहिए। ऐसा दस का
अंक हमें
समझाता है।
बच्चा
सहज, सरल,
निर्दोष और
भगवान का
प्यारा होता
है। बच्चों
में महान होने
के कितने ही गुण
बचपन में ही
नज़र आते हैं।
जिससे बच्चे
को आदर्श बालक
कहा जा सकता
है। ये गुण
निम्नलिखित
हैं-
1. वह शांत
स्वभाव होता
हैः जब सारी
बातें उसके
प्रतिकूल हो
जाती हैं या सभी
निर्णय उसके
विपक्ष में हो
जाते हैं, तब
भी वह क्रोधित
नहीं होता।
2. वह
उत्साही होता
हैः जो कुछ वह
करता है, उसे
अपनी योग्यता
के अनुसार
उत्तम से
उत्तम रूप में
करता है।
असफलता का भय
उसे नहीं
सताता।
3. वह
सत्यनिष्ठ
होता हैः सत्य
बोलने में वह
कभी भय नहीं
करता।
उदारतावश कटु
व अप्रिय सत्य
भी नहीं कहता।
4. वह
धैर्यशील
होता हैः वह अपने
सतकर्म में दृढ़
रहता है। अपने
सतकर्मों का
फल देखने के लिए
भले उसे लम्बे
समय तक
प्रतीक्षा
करनी पड़े,
फिर भी वह
धैर्य नहीं
छोड़ता,
निरूत्साहित
नहीं होता है।
अपने कर्म में
डटा रहता है।
5. वह
सहनशील होता
हैः सहन करे वह
संत इस कहावत
के अनुसार वह
सभी दुःखों को
सहन करता है।
परंतु कभी इस
विषय में
शिकायत नहीं
करता है।
6. वह
अध्यवसायी
होता हैः वह अपने
कार्य में कभी
लापरवाही
नहीं करता। इस
कारण उसको वह
कार्य भले ही
लम्बे समय तक
जारी रखना
पड़े तो भी वह
पीछे नहीं
हटता।
7. वह
समचित्त होता
हैः वह सफलता और
विफलता दोनों
अवस्थाओं में
समता बनाये
रखता है।
8. वह
साहसी होता
हैः सन्मार्ग पर
चलने में,
लोक-कल्याण के
कार्य करने
में, धर्म का
अनुसरण व पालन
करने में,
माता-पिता व
गुरूजनों की
सेवा करने व
आज्ञा मानने
में कितनी भी
विघ्न-बाधाएँ
क्यों न आयें,
वह जरा-सा भी
हताश नहीं
होता, वरन्
दृढ़ता व साहस
से आगे बढ़ता
है।
9. वह
आनन्दी होता
हैः वह
अनुकूल-प्रतिकूल
परिस्थितियों
में प्रसन्न
रहता है।
10. वह
विनयी होता
हैः वह अपनी
शारीरिक-मानसिक
श्रेष्ठता
एवं किसी प्रकार
की उत्कृष्ट
सफलता पर कभी
गर्व नहीं करता
और न दूसरों
को अपने से
हीन या तुच्छ
समझता है। विद्या
ददाति
विनयम्।
11. वह
स्वाध्यायी
होता हैः वह संयम,
सेवा, सदाचार
व ज्ञान
प्रदान करने
वाले
उत्कृष्ट
सदग्रन्थों
तथा अपनी
कक्षा के पाठ्यपुस्तकों
का अध्ययन
करने में ही
रूचि रखता है
और उसी में
अपना उचित समय
लगाता है, न कि
व्यर्थ की
पुस्तकों में
जो कि उसे इन
सदगुणों से
हीन करने वाले
हों।
12. वह
उदार होता हैः
वह
दूसरों के
गुणों की
प्रशंसा करता
है, दूसरों को
सफलता
प्राप्त करने
में यथाशक्ति
सहायता देने
के लिए बराबर
तत्पर रहता है
तथा उनकी सफलता
में खुशियाँ
मनाता है। वह
दूसरों की कमियों
को नज़रंदाज
करता है।
13. वह
गुणग्राही
होता हैः वह
मधुमक्खी की
तरह मधुसंचय
की
वृत्तिवाला होता
है। जैसे
मधुमक्खी
विभिन्न
प्रकार के फूलों
के रस को लेकर
अमृततुल्य
शहद का
निर्माण करती
है, वैसे ही
आदर्श बालक
श्रेष्ठ
पुरुषों, श्रेष्ठ
ग्रन्थों व
अच्छे
मित्रों से
उनके अच्छे
गुणों को चुरा
लेता है और
उनके दोषों को
छोड़ देता है।
14. वह
ईमानदार और
आज्ञाकारी
होता हैः वह
जानता है कि
ईमानदारी ही
सर्वोत्तम
नीति है।
माता-पिता और
गुरू के
स्व-परकल्याणकारी
उपदेशों को वह
मानता है। वह
जानता है कि
बड़ों के
आज्ञापालन से
आशीर्वाद
मिलता है और
आशीर्वाद से
जीवन में बल
मिलता है। ध्यान
रहेः दूसरों
के आशीर्वाद व
शुभकामनाएँ
सदैव हमारे
साथ रहते हैं।
15. वह एक
सच्चा मित्र
होता हैः वह
विश्वसनीय,
स्वार्थरहित
प्रेम
देनेवाला, अपने
मित्रों को
सही रास्ता
दिखाने वाला
तथा मुश्किलों
में मित्रों
का पूरा साथ
देने वाला मित्र
होता है।
कपटी
मित्र न कीजिए, पेट
पैठि बुधि
लेत।
आगे
राह दिखाय के, पीछे
धक्का देत।।
गुरू
संग कपट, मित्र
संग चोरी।
या हो
निर्धन, या हो
कोढ़ी।।
जीवना
का समझ लो सार - व्यसन
से करो नहीं
प्यार।
हरिनाम
की ले लो
घुट्टी - गुटके
को दे दो
छुट्टी।।
सत्संग
की मिठास
न्यारी - किसलिए
लें तम्बाकू
सुपारी।
पान-मसाले
से संबंध
छोड़ो -
हरिनाम से
संबंध जोड़ो।।
निम्नलिखित
श्लोकों को
जीवन में
चरितार्थ करने
से
मनुष्य-जीवन
का लक्ष्य
प्राप्त कर
सकते हैं।
इसलिए बच्चों
को इन श्लोकों
को कंठस्थ
करके जीवन में
चरितार्थ
करना चाहिए।
गीतायां
श्लोकपाठेन
गोविंदस्मृति
कीर्तनात्।
साधुदर्शनमात्रेण
तीर्थकोटिफलं
लभेत्।।
भावार्थः
गीता
के श्लोक के
पाठ से, भगवान
श्री कृष्ण के
स्मरण करने
से, कीर्तन से
और संतों के
दर्शनमात्र
से करोड़ों
तीर्थों का फल
प्राप्त होता
है।
उद्यमः
साहसं धैर्यं
बुद्धिः
शक्तिः पराक्रमः।
षडेतै
यत्र
वर्तन्ते
तत्र देव
सहायकृत्।।
भावार्थः
उद्यम,
साहस, धीरज,
बुद्धि, शक्ति
और पराक्रम ये
छः गुण जिस
व्यक्ति के
जीवन में हैं
उन्हें देवता
(परब्रह्म
परमात्मा)
सहायता करते
हैं
धन्या
माता पिता
धन्यो गोत्रं
धन्यं
कुलोदभवः।
धन्या
च वसुधा देवि
यत्र स्याद्
गुरूभक्तता।।
भावार्थः
जिसके
अन्दर
गुरूभक्ति है
उसकी माता
धन्य है, उसके
पिता धन्य
हैं, उसका
गोत्र धन्य
है, उसके वंश
में जन्म लेने
वाले धन्य हैं
और समग्र धरती
माता धन्य है।
अज्ञानमूलहरणं
जन्मकर्मनिवारकम्।
ज्ञानवैराग्य
सिद् ध्यर्थं
गुरूपादोदकं
पिबेत्।।
भावार्थः
अज्ञान
के मूल को
हरने वाले,
अनेक जन्मों
के कर्मों का
निवारण करने
वाले, ज्ञान
और वैराग्य को
सिद्ध करने
वाले
गुरूचरणामृत
का पान करना चाहिए।
अभयं
सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।
दानं
दमश्च
स्वाध्यायस्तप
आर्जवम्।।
भावार्थः
निर्भयता,
अंतःकरण की
शुद्धि, ज्ञान
और योग में
निष्ठा, दान,
इन्द्रियों
पर काबू, यज्ञ
और स्वाध्याय,
तप, अंतःकरण
की सरलता का
भाव ये दैवी
सम्पत्ति वाले
मनुष्य के
लक्ष्ण हैं।
अभिवादनशीलस्य
नित्यं
वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि
तस्य
वर्धन्ते आयुर्विद्या
यशो बलम्।।
भावार्थः
नित्य
बड़ों की सेवा
और प्रणाम
करने वाले पुरुष
की आयु,
विद्या, यश और
बल ये चार
बढ़ते हैं।
बच्चों
को जीवन में
सदगुणों का
संचार करने के
लिए उपयोगी
साखियाँ-
हाथ
जोड़ वन्दन
करूँ, धरूँ
चरण में शीश।
ज्ञान
भक्ति मोहे
दीजिए, परम
पुरूष
जगदीश।।
मैं
बालक तेरा
प्रभु, जानूँ
योग न ध्यान।
गुरूकृपा
मिलती रहे, दे
दो यह वरदान।।
भयनाशन
दुर्मति हरण,
कलि में हरि
का नाम।
निशदिन
नानक जो जपे,
सफल होवहिं सब
काम।।
आलस
कबहुँ न
कीजिए, आलस
अरि सम जानि।
आलस से
विद्या घटे,
बल बुद्धि की
हानि।।
तुलसी साथी
विपत्ति के,
विद्या विनय
विवेक।
साहस,
सुकृत,
सत्यव्रत, राम
भरोसो एक।।
धैर्य
धरो आगे बढ़ो,
पूरन हो सब
काम।
उसी दिन
ही फलते नहीं,
जिस दिन बोते
आम।।
सांच
बराबर तप
नहीं, झूठ
बराबर पाप।
जाके
हृदय सांच है,
ताके हृदय
आप।।
बहुत
पसारा मत करो,
कर थोड़े की
आस।
बहुत
पसारा जिन
किया, वे भी
गये निराश।।
यह तन
विष की बेलरी,
गुरू अमृत की
खान।
सिर
दीजे सदगुरू
मिले, तो भी
सस्ता जान।।
तुलसी
जग में यूँ
रहो, ज्यों
रसना मुख
माँही।
खाती घी
और तेल नित, तो
भी चिकनी
नाँही।।
जब आए हम
जगत में, जग
हँसा हम रोए।
ऐसी
करनी कर चलो,
हम हँसे जग
रोए।।
मेरी
चाही मत करो,
मैं मूरख
अनजान।
तेरी
चाही में
प्रभु, है
मेरा
कल्याण।।
तुलसी
मीठे वचन से,
सुख उपजत चहुँ
ओर।
वशीकरण
यह मंत्र है,
तज दे वचन
कठोर।।
गोधन,
गजधन, वाजि धन,
और रतन धन
खान।
जब आवे
सन्तोष धन, सभ
धन धूरि
समान।।
लक्ष्य
न ओझल होने
पाय, कदम मिलाकर
चल।
सफलता
तेरे चरण
चूमेगी, आज
नहीं तो कल।।
किसी भी
देश की
संस्कृति
उसकी आत्मा
होती है। भारतीय
संस्कृति की
गरिमा अपार
है। इस संस्कृति
में आदिकाल से
ऐसी
परम्पराएँ
चली आ रही हैं,
जिनके पीछे
तात्त्विक
महत्त्व एवं वैज्ञानिक
रहस्य छिपा
हुआ है। उनमें
से मुख्य
निम्न प्रकार
हैं-
नमस्कारः
दिव्य जीवन का
प्रवेशद्वार
हे
विद्यार्थी!
नमस्कार
भारतीय़
संस्कृति का अनमोल
रत्न है। नमस्कार
अर्थात नमन,
वंदन या
प्रणाम।
भारतीय संस्कृति में
नमस्कार का
अपना एक अलग
ही स्थान और
महत्त्व है। जिस
प्रकार
पश्चिम की
संस्कृति में
शेकहैण्ड (हाथ
मिलाना) किया
जाता है, वैसे
भारतीय
संस्कृति में
दो हाथ
जोड़कर,सिर
झुका कर
प्रणाम करने
का प्राचीन रिवाज़
है। नमस्कार के
अलग-अलग भाव
और अर्थ हैं।
नमस्कार
एक श्रेष्ठ
संस्कार है।
जब तुम किसी बुजुर्ग,
माता-पिता, संत-ज्ञानी-महापुरूष
के समक्ष हाथ
जोड़कर मस्तक
झुकाते हो तब
तुम्हारा
अहंकार
पिघलता है और
अंतःकरण
निर्मल होता
है। तुम्हारा
आडम्बर मिट
जाता है और
तुम सरल एवं
सात्त्विक हो
जाते हो। साथ
ही साथ
नमस्कार
द्वारा योग
मुद्रा भी हो
जाती है।
तुम
दोनों हाथ
जोड़कर
उँगलियों को
ललाट पर रखते
हो। आँखें
अर्धोन्मिलित
रहती हैं,
दोनों हाथ
जुड़े रहते
हैं एवं हृदय
पर रहते हैं।
यह मुद्रा
तुम्हारे
विचारों पर संयम,
वृत्तियों पर
अंकुश एवं
अभिमान पर
नियन्त्रण
लाती है। तुम
अपने
व्यक्तित्व
एवं अस्तित्व
को विश्वास के
आश्रय पर छोड़
देते हो और
विश्वास पाते
भी हो।
नमस्कार की
मुद्रा के
द्वारा
एकाग्रता एवं
तदाकारता का
अनुभव होता
है। सब
द्वंद्व मिट
जाते हैं।
विनयी
पुरूष सभी को
प्रिय होता
है। वंदन तो
चंदन के समान
शीतल होता है।
वंदन द्वारा
दोनों व्यक्ति
को शांति, सुख
एवं संतोष
प्राप्त होता है।
वायु से भी
पतले एवं हवा
से भी हलके
होने पर ही
श्रेष्ठता के
सम्मुख
पहुँचा जा
सकता है और यह
अनुभव मानों,
नमस्कार की
मुद्रा के
द्वारा सिद्ध
होता है।
जब
नमस्कार
द्वारा अपना
अहं किसी
योग्य के सामने
झुक जाता है,
तब शरणागति
एवं
समर्पण-भाव भी
प्रगट होता
है।
सभी
धर्मों में
नमस्कार को
स्वीकार किया
गया है।
खिस्ती लोग
छाती पर हाथ
रखकर शीश
झुकाते हैं।
बौद्ध भी
मस्तक झुकाते
हैं। जैन धर्म
में भी मस्तक
नवा कर वंदना
की जाती है
परन्तु अपने
वैदिक धर्म की
नमस्कार करने
की यह पद्धति
अति उत्तम है।
दोनों हाथों
को जोड़ने से
एक संकुल बनता
है, जिससे
जीवनशक्ति
एवं तेजोवलय
का क्षय रोकने
वाला एक चक्र
बन जाता है।
इस प्रकार का
प्रणाम विशेष
लाभकारी है
जबकि एक-दूसरे
से हाथ मिलाने
में
जीवनशक्ति का
ह्रास होता है
तथा एक के
संक्रमित
रोगी होने की
दशा में दूसरे
को भी उस रोग
का संक्रमण हो
सकता है।
ललाट पर
दो भौहों के
बीच
विचारशक्ति
का केन्द्र है
जिसे योगी लोग
आज्ञाशक्ति
का केन्द्र कहते
हैं। इसे
शिवने अर्थात
कल्याणकारी
विचारों का
केंद्र भी
कहते हैं।
वहाँ पर चन्दन
का तिलक या
सिंदूर आदि का
तिलक
विचारशक्ति
को, आज्ञाशक्ति
को विकसित
करता है।
इसलिए हिंदू
धर्म में कोई
भी शुभ कर्म
करते समय ललाट
पर तिलक किया
जाता है।
पूज्यपाद संत
श्री
आसारामजी
बापू को चंदन
का तिलक लगाकर
सत्संग करते
हुए लाखों
करोड़ों लोगों
ने देखा है।
ऋषियों ने भाव
प्रधान, श्रद्धा-प्रधान
केन्द्रों
में रहने वाली
महिलाओं की
समझदारी
बढ़ाने के
उद्देश्य से
तिलक की
परंपरा शुरू
की। अधिकांश
महिलाओं का मन
स्वाधिष्ठान
और मणिपुर
केंद्र में
रहता है। इन केन्द्रों
में भय, भाव और
कल्पनाओं की
अधिकता रहती
है। इन
भावनाओं तथा
कल्पनाओं में
महिलाएँ बह न
जाएँ, उनका
शिवनेत्र,
विचारशक्ति का
केंद्र
विकसित हो इस
उद्देश्य से
ऋषियों ने महिलाओं
के लिए सतत
तिलक करने की
व्यवस्था की है
जिससे उनको ये
लाभ मिलें।
गार्गी,
शाण्डिली,
अनसूया तथा और
भी कई महान
नारियाँ इस
हिन्दूधर्म में
प्रकट हुईं।
महान वीरों
को, महान
पुरूषों को
महान
विचारकों को
तथा परमात्मा का
दर्शन करवाने
का सामर्थ्य
रखने वाले
संतों को जन्म
देने वाली
मातृशक्ति को
आज हिन्दुस्तान
के कुछ
स्कूलों में
तिलक करने पर
टोका जाता है।
इस प्रकार के
जुल्म
हिन्दुस्तानी
कब तक सहते
रहेंगे? इस प्रकार
के षडयंत्रों
के शिकार
हिन्दुस्तानी
कब तक बनते
रहेंगे?
मनुष्य
के जीवन में
चिह्नों और
संकेतों का बहुत
उपयोग है।
भारतीय
संस्कृति में
मिट्टी के दिये
में
प्रज्जवलित
ज्योत का बहुत
महत्त्व है।
दीपक
हमें अज्ञान
को दूर करके
पूर्ण ज्ञान
प्राप्त करने
का संदेश देता
है। दीपक
अंधकार दूर
करता है।
मिट्टी का
दीया मिट्टी
से बने हुए
मनुष्य शरीर
का प्रतीक है
और उसमें रहने
वाला तेल अपनी
जीवनशक्ति का
प्रतीक है।
मनुष्य अपनी जीवनशक्ति
से मेहनत करके
संसार से
अंधकार दूर
करके ज्ञान का
प्रकाश
फैलाये ऐसा
संदेश दीपक
हमें देता है।
मंदिर में
आरती करते समय
दीया जलाने के
पीछे यही भाव
रहा है कि
भगवान हमारे
मन से अज्ञान
रूपी अंधकार
दूर करके
ज्ञानरूप
प्रकाश
फैलायें।
गहरे अंधकार
से प्रभु! परम
प्रकाश की ओर
ले चल।
दीपावली
के पर्व के
निमित्त
लक्ष्मीपूजन
में अमावस्या
की अन्धेरी
रात में दीपक
जलाने के पीछे
भी यही
उद्देश्य
छिपा हुआ है।
घर में तुलसी
के क्यारे के
पास भी दीपक
जलाये जाते
हैं। किसी भी
नयें कार्य की
शुरूआत भी
दीपक जलाने से
ही होती है।
अच्छे
संस्कारी
पुत्र को भी
कुल-दीपक कहा
जाता है। अपने
वेद और
शास्त्र भी
हमें यही
शिक्षा देते
हैं- हे
परमात्मा!
अंधकार से प्रकाश
की ओर, मृत्यु
से अमरता की
ओर हमें ले
चलो। ज्योत से
ज्योत जगाओ इस
आरती के पीछे
भी यही भाव
रहा है। यह है
भारतीय
संस्कृति की
गरिमा।
भारतीय
संस्कृति की
प्रत्येक
प्रणाली और प्रतीक
के पीछे
कोई-ना-कोई
रहस्य छिपा
हुआ है, जो मनुष्य
जीवन के लिए
लाभदायक होता
है।
ऐसा ही
प्रतीक है
कलश। विवाह और
शुभ प्रसंगों
पर उत्सवों
में घर में
कलश अथवा घड़े
वगैरह पर आम
के पत्ते
रखकर उसके ऊपर
नारियल रखा
जाता है। यह कलश
कभी खाली नहीं
होता बल्कि
दूध, घी, पानी अथवा
अनाज से भरा
हुआ होता है।
पूजा में भी
भरा हुआ कलश
ही रखने में
आता है। कलश
की पूजा भी की जाती
है।
कलश अपना
संस्कृति का
महत्त्वपूर्ण
प्रतीक है। अपना
शरीर भी
मिट्टी के कलश
अथवा घड़े के
जैसा ही है।
इसमें जीवन
होता है। जीवन
का अर्थ जल भी
होता है। जिस
शरीर में जीवन
न हो तो
मुर्दा शरीर
अशुभ माना
जाता है। इसी
तरह खाली कलश
भी अशुभ है।
शरीर में
मात्र श्वास
चलते हैं,
उसका नाम जीवन
नहीं है,
परन्तु जीवन
में ज्ञान,
प्रेम,
उत्साह,
त्याग, उद्यम,
उच्च चरित्र,
साहस आदि हो
तो ही जीवन
सच्चा जीवन
कहलाता है। इसी
तरह कलश भी
अगर दूध, पानी,
घी अथवा अनाज
से भरा हुआ हो
तो ही वह
कल्याणकारी
कहलाता है।
भरा हुआ कलश
मांगलिकता का
प्रतीक है।
भारतीय
संस्कृति
ज्ञान, प्रेम,
उत्साह,
शक्ति, त्याग,
ईश्वरभक्ति,
देशप्रेम आदि
से जीवन को भरने
का संदेश देने
के लिए कलश को
मंगलकारी प्रतीक
मानती है।
भारतीय नारी
की मंगलमय
भावना का
मूर्तिमंत
प्रतीक यानि
स्वस्तिक।
स्वस्तिक
शब्द मूलभूत
सु+अस
धातु से बना
हुआ है।
सु का
अर्थ है
अच्छा,
कल्याणकारी,
मंगलमय और अस
का अर्थ है
अस्तित्व,
सत्ता अर्थात
कल्याण की
सत्ता और उसका
प्रतीक है
स्वस्तिक।
किसी भी मंगलकार्य
के प्रारम्भ
में
स्वस्तिमंत्र
बोलकर कार्य
की शुभ शुरूआत
की जाती है।
स्वस्ति
न इंद्रो
वृद्धश्रवा:
स्वस्ति नः
पूषा
विश्ववेदा:।
स्वस्ति
नस्तार्क्ष्यो
अरिष्टनेमिः
स्वस्ति नो
बृहस्पतिर्दधातु।।
महान
कीर्ति वाले
इन्द्र हमारा
कल्याण करो, विश्व
के
ज्ञानस्वरूप
पूषादेव
हमारा कल्याण करो।
जिसका हथियार
अटूट है ऐसे
गरूड़ भगवान हमारा
मंगल करो।
बृहस्पति
हमारा मंगल
करो।
यह आकृति
हमारे
ऋषि-मुनियों
ने हजारों
वर्ष पूर्व
निर्मित की
है। एकमेव और
अद्वितीय
ब्रह्म विश्वरूप
में फैला, यह
बात स्वस्तिक
की खड़ी और
आड़ी रेखा
स्पष्ट रूप से
समझाती हैं।
स्वस्तिक की
खड़ी रेखा
ज्योतिर्लिंग
का सूचन करती है
और आड़ी रेखा
विश्व का
विस्तार
बताती है।
स्वस्तिक की
चार भुजाएँ
यानि भगवान
विष्णु के चार
हाथ। भगवान
श्रीविष्णु
अपने चारों हाथों
से दिशाओं का
पालन करते
हैं।
स्वस्तिक
अपना प्राचीन
धर्मप्रतीक
है। देवताओं
की शक्ति और
मनुष्य की
मंगलमय
कामनाएँ इन
दोनों के
संयुक्त
सामर्थ्य का
प्रतीक यानि स्वस्तिक।
स्वस्तिक यह
सर्वांगी
मंगलमय भावना
का प्रतीक है।
जर्मनी
में हिटलर की
नाजी पार्टी
का निशान स्वस्तिक
था। क्रूर
हिटलर ने
लाखों
यहूदियों को
मार डाला। वह
जब हार गया तब
जिन यहूदियों
की हत्या की
जाने वाली थी
वे सब मुक्त
हो गये। तमाम
यहूदियों का
दिल हिटलर और
उसकी नाजी
पार्टी के लिए
तीव्र घृणा से
युक्त रहे यह
स्वाभाविक
है। उन
दुष्टों का
निशान देखते
ही उनकी
क्रूरता के
दृश्य हृदय को
कुरेदने लगे
यह स्वाभाविक
है। स्वस्तिक
को देखते ही
भय के कारण
यहूदी की
जीवनशक्ति
क्षीण होनी
चाहिए। इस मनोवैज्ञानिक
तथ्य के
बावजूद भी
डायमण्ड के
प्रयोगों ने
बता दिया कि
स्वस्तिक का
दर्शन यहूदी
की भी
जीवनशक्ति को
बढ़ाता है।
स्वस्तिक का
शक्तिवर्धक
प्रभाव इतना
प्रगाढ़ है।
अपनी
भारतीय
संस्कृति की
परम्परा के
अनुसार विवाह-प्रसंगों,
नवजात शिशु की
छठ्ठी के दिन, दीपावली
के दिन,
पुस्तक-पूजन
में, घर के
प्रवेश-द्वार
पर, मंदिरों
के
प्रवेशद्बार
पर तथा अच्छे
शुभ प्रसंगों
में स्वस्तिक
का चिह्न कुमकुस
से बनाया जाता
है एवं
भावपूर्वक
ईश्वर से
प्रार्थना की
जाती है कि हे
प्रभु! मेरा
कार्य
निर्विघ्न
सफल हो और
हमारे घर में
जो अन्न, वस्त्र,
वैभव आदि आयें
वह पवित्र
बनें।
शंख दो
प्रकार के
होते हैं-
दक्षिणावर्त
और वामवर्त।
दक्षिणावर्त
शंख दैवयोग से
ही मिलता है।
यह जिसके पास
होता है उसके
पास
लक्ष्मीजी निवास
करती हैं।
यह
त्रिदोषनाशक,
शुद्ध और
नवनिधियों
में एक है।
ग्रह और गरीबी
की पीड़ा,
क्षय, विष,
कृशता और
नेत्ररोग का
नाश करता है।
जो शंख श्वेत
चंद्रकांत
मणि जैसा होता
है वह उत्तम
माना जाता है।
अशुद्ध शंख गुणकारी नहीं
है। उसे शुद्ध
करके ही दवा
के उपयोग मे लाया
जा सकता है।
भारत के
महान
वैज्ञानिक
श्री
जगदीशचन्द्र
बसु ने सिद्ध
करके दिखाया
कि शंख बजाने
से जहाँ तक
उसकी ध्वनि
पहुँचती है
वहाँ तक रोग
उत्पन्न करने
वाले हानिकारक
जीवाणु
(बैक्टीरिया)
नष्ट हो जाते
हैं। इसी कारण
अनादि काल से
प्रातःकाल और
संध्या के समय
मंदिरों में
शंख बजाने का
रिवाज चला आ
रहा है।
संध्या
के समय शंख
बजाने से
भूत-प्रेत-राक्षस
आदि भाग जाते
हैं। संध्या
के समय हानिकारक
जीवाणु प्रकट
होकर रोग
उत्पन्न करते
हैं। उस समय
शंख बजाना
आरोग्य के लिए
फायदेमंद है।
गूँगेपन
में शंख बजाने
से एवं
तुतलेपन, मुख
की कांति के
लिए, बल के लिए,
पाचनशक्ति के
लिए और भूख
बढ़ाने के
लिए,
श्वास-खाँसी,
जीर्णज्वर और हिचकी
में शंखभस्म
का औषधि की तरह
उपयोग करने से
लाभ होता है।
ॐ कार का
अर्थ एवं
महत्त्व
ॐ = अ+उ+म+(ँ) अर्ध
तन्मात्रा। ॐ का अ कार
स्थूल जगत का
आधार है। उ
कार सूक्ष्म जगत
का आधार है। म
कार कारण जगत
का आधार है।
अर्ध
तन्मात्रा (ँ)
जो इन तीनों
जगत से
प्रभावित नहीं
होता बल्कि
तीनों जगत
जिससे सत्ता-स्फूर्ति
लेते हैं फिर
भी जिसमें
तिलभर भी फर्क
नहीं पड़ता,
उस परमात्मा
का द्योतक है।
ॐ आत्मिक
बल देता है। ॐ के
उच्चारण से जीवनशक्ति
उर्ध्वगामी
होती है। इसके
सात बार के उच्चारण
से शरीर के
रोग को कीटाणु
दूर होने लगते
हैं एवं चित्त
से
हताशा-निराशा
भी दूर होतीहै।
यही कारण है
कि
ऋषि-मुनियों
ने सभी मंत्रों
के आगे ॐ जोड़ा है।
शास्त्रों
में भी ॐ की बड़ी
भारी महिमा
गायी गयी है। भगवान
शंकर का मंत्र
हो तो ॐ नमः
शिवाय । भगवान
गणपति का
मंत्र हो तो ॐ गणेषाय
नमः। भगवान राम का
मंत्र हो तो ॐ रामाय
नमः। श्री कृष्ण
मंत्र हो तो ॐ नमो
भगवते
वासुदेवाय। माँ
गायत्री का
मंत्र हो तो ॐ भूर्भुवः
स्वः।
तत्सवितुर्वरेण्यं
भर्गोदेवस्य
धीमहि धियो यो
नः
प्रचोदयात्। इस
प्रकार सब
मंत्रों के
आगे ॐ तो जुड़ा
ही है।
पतंजलि
महाराज ने कहा
हैः तस्य
वाचकः
प्रणवः। ॐ (प्रणव)
परमात्मा का
वाचक है, उसकी
स्वाभाविक
ध्वनि है।
ॐ के रहस्य
को जानने के
लिए कुछ
प्रयोग करने
के बाद रूस के
वैज्ञानिक भी
आश्चर्यचकित
हो उठे।
उन्होंने
प्रयोग करके
देखा कि जब
व्यक्ति बाहर
एक शब्द बोले
एवं अपने भीतर
दूसरे शब्द का
विचार करे तब
उनकी सूक्ष्म
मशीन में
दोनों शब्द
अंकित हो जाते
थे।
उदाहरणार्थ,
बाहर के क कहा
गया हो एवं
भीतर से विचार
ग का किया गया
हो तो क और ग
दोनों छप जाते
थे। यदि बाहर
कोई शब्द न
बोले, केवल
भीतर विचार
करे तो विचारा
गया शब्द भी
अंकित हो जाता
था।
किन्तु
एकमात्र ॐ ही ऐसा
शब्द था कि
व्यक्ति केवल
बाहर से ॐ बोले और
अंदर दूसरा
कोई भी शब्द
विचारे फिर भी
दोनों ओर का ॐ ही अंकित
होता था। अथवा
अंदर ॐ का
विचार करे और
बाहर कुछ भी
बोले तब भी
अंदर-बाहर का ॐ ही छपता
था।
समस्त
नामों में ॐ का प्रथम
स्थान है।
मुसलमान लोग
भी अल्ला
होssssss अकबर........
कहकर
नमाज पढ़ते
हैं जिसमें ॐ की ध्वनि
का हिस्सा है।
सिख धर्म
में भी एको
ओंकार
सतिनामु...... कहकर
उसका लाभ
उठाया जाता
है। सिख धर्म
का पहला
ग्रन्थ है,
जपुजी और
जपुजी का पहला
वचन हैः
एको
ओंकार
सतिनामु.........
अपना
राष्ठ्रीय
झंडा
राष्ट्रीय
एकता-अखंडता
और गौरव का
प्रतीक है।
भारत के लोग
इस झंडे को
प्राणों से भी
ज़्यादा
चाहते हैं। इस
झंडे के मान
और गौरव की
रक्षा के लिए
व कोई भी
बलिदान दे
सकते हैं। यह झंडा
त्याग, बलिदान
और उत्साह का
इतिहास है।
अपने
राष्ट्रीय
ध्वज में तीन
रंग हैं। सबसे
ऊपर का रंग
केसरी है जो
साहस, त्याग
और बलिदान का प्रतीक
है। यह रंग
हमें इस बात
की प्रेरणा
देता है कि हम
भी अपने जीवन
में साहस,
त्याग और बलिदान
की भावना को
लाएँ। बीच का
रंग सफेद है,
जो निष्कामता,
सत्य और
पवित्रता का
प्रतीक है। यह
रंग हमें
सच्चा तथा
साहसी बनने और
अशुभ से लोहा
लेने की
प्रेरणा देता
है। सबसे नीचे
हरा रंग है, जो
देश की
समृद्धि और
जीवन का प्रतीक
है। यह रंग
हमें खेती और
उद्योग-धंधे का
विकास करके
देश से गरीबी
हटाने की
प्रेरणा देता
है।
जैसे-जैसे
परीक्षाएँ
नज़दीक आने
लगती हैं, वैसे-वैसे
विद्यार्थी
चिंतित व
तनावग्रस्त
होते जाते
हैं, लेकिन
विद्यार्थियों
को कभी भी चिंतित
नहीं होना
चाहिए। अपनी
मेहनत व
भगवत्कृपा पर
पूर्ण
विश्वास रखकर
प्रसन्नचित्त
से परीक्षा की
तैयारी करनी
चाहिए। सफलता
अवश्य मिलेगी,
ऐसा दृढ़
विश्वास रखना
चाहिए।
1.
विद्यार्थी-जीवन
में
विद्यार्थियों
को अपने
अध्ययन के
साथ-साथ
नियमित
जप-ध्यान का
अभ्यास करना
चाहिए।
परीक्षा के
दिनों में तो
दृढ़
आत्मविश्वास
के साथ
सतर्कता से
जप-ध्यान करना
चाहिए।
2.
परीक्षा
के दिनों में
प्रसन्नचित्त
होकर पढ़ें, न
कि चिंतित
रहकर।
3.
रोज सुबह
सूर्योदय के
समय खाली पेट
तुलसी के 5-7 पत्ते
चबाकर एक गिलास
पानी पीने से
यादशक्ति
बढ़ती है।
4.
सूर्यदेव
को मंत्रसहित
अर्घ्य देने
से यादशक्ति
बढ़ती है।
5.
परीक्षा
में
प्रश्वपत्र
(पेपर) हल करने
से पूर्व
विद्यार्थी
को अपने
इष्टदेव,
भगवान या गुरूदेव
का स्मरण
अवश्य कर लेना
चाहिए।
6.
सर्वप्रथम
पूरे
प्रश्नपत्र
को
एकाग्रचित्त होकर
पढ़ना चाहिए।
7.
फिर सबसे
पहले सरल
प्रश्नों का
उत्तर लिखना चाहिए।
8.
प्रश्नों
के उत्तर
सुंदर व
स्पष्ट
अक्षरों में
लिखने चाहिए।
9.
यदि किसी
प्रश्न का
उत्तर न आये
तो घबराए बिना
शांतचित्त
होकर प्रभु से
गुरूदेव से
प्रार्थना
करें व अंदर
दृढ विश्वास
रखें कि मुझे
इस प्रश्न का
उत्तर भी आ
जाएगा। अंदर
से निर्भय रहें
एवं
भगवदस्मरण
करके एकाध
मिनट शांत हो
जाएं। फिर
लिखना शुरू
करें।
धीरे-धीरे उन
प्रश्नों के
उत्तर भी आ
जाएंगे।
10.
देर रात
तक न पढ़ें।
सुबह जल्दी
उठकर, स्नान करके
ध्यान करने के
पश्चात पढ़ने
से जल्दी याद
होगा।
11.
सारस्वत्य
मंत्र का
नियमित जप
करने से
यादशक्ति में
चमत्कारिक
लाभ होता है।
12.
भ्रामरी
प्राणायाम
तथा त्राटक
करने से भी एकाग्रता
और यादशक्ति
बढ़ती है।
भ्रामरी प्राणायाम
एवं
सारस्वत्य
मंत्र के लिए
विद्यार्थीयों
को आश्रम के
द्वारा
आयोजित
विद्यार्थी
तेजस्वी
तालीम शिविर
में शामिल
होना चाहिए।
एक वर्ष
की कड़ी मेहनत
के बाद
विद्यार्थियों
को डेढ़ माह की
छुट्टियों का
समय मिलता है
जिसमें कुछ
करने व
सोचने-समझने
का अच्छा-खासा
अवसर मिल जाता
है। लेकिन
प्रायः ऐसा
देखा गया है
कि विद्यार्थी
इस कीमती समय
को टी.वी.,
सिनेमा आदि
देखने में तथा
गन्दी व फालतू
पुस्तकें पढ़ने
में बरबाद कर
देते हैं। जो
अपने समय को
बरबाद करता है
उसका जीवन
बरबाद हो जाता
है। जो अपने
समय का
सदुपयोग करता
है उसका जीवन
आबाद हो जाता है।
अतः मिली हुई
योग्यता एवं
मिले हुए समय
का सदुपयोग
उत्तम-से-उत्तम
कार्यों के
संपादन में
करना चाहिए।
बड़े धनभागी
होते हैं वे
विद्यार्थी
जो समय का
सदुपयोग कर
अपने जीवन को
उन्नत बना
लेते हैं।
1.
अपने से
छोटी कक्षा
वाले
विद्यार्थियों
को पढ़ाना
चाहिए।
बालकों को
अच्छी-अच्छी
शिक्षाप्रद
कहानियाँ
सुनानी
चाहिए।
बालकों को श्रीमदभागवत
में वर्णित
भक्त ध्रुव की
कथा व दासीपुत्र
नारद के
पूर्वजन्म की
कथा एवं
प्रह्लाद की
कथा अपने
साथी-मित्रों
के साथ सुनने
व सुनाने से
परमात्मप्राप्ति
में मदद मिलती
है। सा
विद्या या
विमुक्तये। असली
विद्या वही है
जो मुक्ति
प्रदान करे।
2.
अपने
साथियों के
साथ अपने
गली-मोहल्ले
में सफाई
अभियान चलाना
चाहिए।
3.
पिछड़े
हुए क्षेत्रों
में जाकर वहाँ
के लोगों को
शिक्षा देना
तथा संतों के
प्रति जागरूक
करना चाहिए।
4.
अस्पतालों
में जाकर
मरीजों की
सेवा करनी चाहिए।
करो सेवा, मिले
मेवा।
5.
अपने से
अधिक योग्यता
व शिक्षावाले
विद्यार्थियों
के साथ रहकर
विनोद शिक्षा
सम्बंधी चर्चा
करनी चाहिए।
6.
अपनी
दिव्य सनातन
संस्कृति के
विकास हेतु
भरपूर प्रयास करना
चाहिए।
7.
प्राचीन
ऐतिहासिक
धार्मिक
स्थलों में
जाकर अपने
विवेक-विचार
को बढ़ाना
चाहिए।
8.
अपनी
पढ़ाई को
छुट्टी के
दौरान एकदम
नहीं छोड़ना
चाहिए। रोज़
थोड़ा-थोड़ा
अध्ययन करते
ही रहना
चाहिए।
बच्चों को
अपना जन्मदिन
मनाने का बड़ा
शौक होता है
और उनमें उस
दिन बड़ा
उत्साह होता
है लेकिन अपनी
परतंत्र
मानसिकता के
कारण हम उस
दिन भी बच्चे के
दिमाग पर
अंग्रजियत की
छाप छोड़कर
अपने साथ,
उनके साथ व
देश तथा
संस्कृति के
साथ बड़ा अन्याय
कर रहे हैं.
बच्चों
के जन्मदिन पर
हम केक बनवाते
हैं तथा बच्चे
को जितने वर्ष
हुए हों उतनी
मोमबत्तियाँ
केक पर लगवाते
हैं। उनको
जलाकर फिर
फूँक मारकर
बुझा देते
हैं।
ज़रा
विचार तो
कीजिए के हम
कैसी उल्टी
गंगा बहा रहे
हैं! जहाँ
दीये जलाने
चाहिए वहाँ
बुझा रहे हैं।
जहाँ शुद्ध
चीज़ खानी
चाहिए वहीं
फूँक मारकर
उड़े हुए थूक
से जूठे बने
हुए केक को हम
बड़े चाव से
खाते हैं!
जहाँ हमें
गरीबों को
अन्न खिलाना
चाहिए वहीं हम
बड़ी
पार्टियों का
आयोजन कर
व्यर्थ पैसा
उड़ा रहे हैं!
कैसा विचित्र
है आज का
हमारा समाज?
हमें
चाहिए कि हम
बच्चों को
उनके जन्मदिन
पर भारतीय संस्कार
व पद्धति के
अनुसार ही
कार्य करना सिखाएँ
ताकि इन मासूम
को हम अंग्रेज
न बनाकर सम्माननीय
भारतीय
नागरिक
बनायें।
1.
मान लो,
किसी बच्चे का
11 वाँ जन्मदिन
है तो थोड़े-से
अक्षत् (चावल)
लेकर उन्हें
हल्दी,
कुंकुम, गुलाल,
सिंदूर आदि
मांगलिक
द्रव्यों से
रंग ले एवं
उनसे
स्वस्तिक बना
लें। उस
स्वस्तिक पर 11
छोटे-छोटे
दीये रख दें
और 12 वें वर्ष
की शुरूआत के प्रतीकरूप
एक बड़ा दीया
रख दें। फिर
घर के बड़े
सदस्यों से सब
दीये जलवायें
एवं बड़ों को
प्रणाम करके
उनका
आशीर्वाद
ग्रहण करें।
2.
पार्टियों
में फालतू का
खर्च करने के
बजाए बच्चों
के हाथों से
गरीबों में,
अनाथालयों में
भोजन,
वस्त्रादि का
वितरण करवाकर
अपने धन को
सत्कर्म में
लगाने के
सुसंस्कार
सुदृढ़ करें।
3.
लोगों के
पास से
चीज-वस्तुएँ
लेने के बजाए
हम अपने
बच्चों के
हाथों दान
करवाना
सिखाएँ ताकि
उनमें लेने की
वृत्ति नहीं
अपितु देने की
वृत्ति को बल
मिले।
4.
हमें
बच्चों से नये
कार्य करवाकर
उनमें देशहित
की भावना का
संचार करना
चाहिए। जैसे,
पेड़-पौधे
लगवाना
इत्यादि।
5.
बच्चों को
इस दिन अपने
गत वर्ष का
हिसाब करना चाहिए
यानि कि
उन्होंने
वर्ष भर में
क्या-क्या
अच्छे काम
किये?
क्या-क्या
बुरे काम किये? जो
अच्छे कार्य
किये उन्हें
भगवान के
चरणों में
अर्पण करना
चाहिए एवं जो
बुरे कार्य
हुए उनको
भूलकर आगे उसे
न दोहराने व
सन्मार्ग पर
चलने का
संकल्प करना
चाहिए।
6.
उनसे
संकल्प
करवाना चाहिए
कि वे नए वर्ष
में पढ़ाई,
साधना,
सत्कर्म,
सच्चाई तथा
ईमानदारी में
आगे बढ़कर
अपने
माता-पिता व
देश के गौरव
को बढ़ायेंगे।
उपरोक्त
सिद्धान्तों
के अनुसार अगर
हम बच्चों के
जन्मदिन को
मनाते हैं तो
जरूर समझ लें
कि हम कदाचित्
उन्हें भौतिक
रूप से भले ही
कुछ न दे
पायें लेकिन
इन संस्कारों
से ही हम
उन्हें महान
बना सकते हैं।
उन्हें ऐसे
महकते फूल बना
सकते हैं कि
अपनी सुवास से
वे केवल अपना
घर, पड़ोस, शहर,
राज्य व देश
ही नहीं बल्कि
पूरे विश्व को
सुवासित कर
सकेंगे।
अपने
ऋषि-मुनियों
ने मनुष्य
जीवन में
धर्म-दर्शन और
मनोविज्ञान
के आधार पर
शिष्टाचार के कई
नियम बनाये
हैं। इन
नियमों के
पालन से मनुष्य
का जीवन
उज्जवल बनता
है। इसलिए इन
नियमों का
पालन करना यह
प्रत्येक
बालक का
कर्त्तवय बनता
है।
1.
अपने से
उम्र में बड़े
व्यक्ति को आप
कहकर तथा अपने
बराबर तथा
अपने से छोटी
उम्र के
व्यक्ति को
तुम कहकर
बोलना चाहिए।
2.
हमारे
शास्त्रों
में उल्लेख है
कि गुरूजनों
को नित्य
प्रणाम करने
से तथा उनकी
सेवा करने से
आयु, बल,
विद्या और यश
की वृद्धि
होती है।
इसलिए दोनों
हाथ जोड़कर,
मस्तक झुका कर
इन्हें
प्रणाम करना
चाहिए। भोजन,
स्नान, शौच,
दातुन आदि
करते समय एवं
शव ले जाते
समय नमस्कार
नहीं करना
चाहिए। स्वयं
इन स्थितियों
में हो तो प्रणाम
न करें और
जिनको प्रणाम
करना है वे इन
स्थितियों
में हों तो भी
प्रणाम न
करें। इसके अतिरिक्त
साष्टांग
दण्डवत
प्रणाम करना
यह अभिवादन की
सर्वश्रेष्ठ
पद्धति है।
3.
अपने से
बड़ों के आने
पर खड़े होकर
प्रणाम करके
उन्हें मान
देना चाहिए।
उनके बैठ जाने
पर ही स्वयं बैठना
चाहिए।
4.
परिस्थितिवश
अगर माता-पिता
आपकी कोई
वस्तु की माँग
पूरी न कर
सकें तो उस
वस्तु के लिए
या उस बात के
लिए हठ नहीं
करना चाहिए।
उनके सामने कभी
भी उलटकर
उत्तर न दें।
सदगुण |
फायदे |
1.प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त
में शुभ
चिन्तन तथा
शुभ संकल्प
करने से ..... |
हम जैसा
सोचते हैं,
वैसा होने
लगता है। |
2. प्रार्थना
करने से .... |
हृदय पवित्र
बनता है,
परोपकार की
भावना का विकास
होता है। |
3. ॐ कार का
दीर्घ
उच्चारण
करने से... |
चंचल मन शांत
रहता है और
आत्मबल
बढ़ता है। |
4. ध्यान करने
से..... |
एकाग्रता की
शक्ति की
बढ़ती है। |
5. भ्रामरी
प्राणायाम
करने से..... |
स्मरणशक्ति
बढ़ती है। |
6. मौन रखने से.... |
आंतरिक
शक्तियों का
विकास होता
है और मनोबल मजबूत
होता है। |
7.
बाल-संस्कार
केन्द्र में
नियमित जाने
से..... |
अनेक
दोष-दुर्गुण
दूर होकर
व्यक्तित्व
का विकास
होता है। |
1.
जहाँ रहते
हो उस स्थान
को तथा आस-पास
की जगह को साफ
रखो।
2.
हाथ पैर
के नाखून
बढ़ने पर
काटते रहो। नख
बढ़े हुए एवं
मैल भरे हुए
मत रखो।
3.
अपने
कल्याण के
इच्छुक
व्यक्ति को
बुधवार व शुक्रवार
के अतिरिक्त
अन्य दिनों
में बाल नहीं
कटवाना
चाहिए।
सोमवार को बाल
कटवाने से
शिवभक्ति की
हानि होती है।
पुत्रवान को
इस दिन बाल
नहीं कटवाना
चाहिए।
मंगलवार को
बाल कटवाना
सर्वथा
अनुपयुक्त है,
मृत्यु का
कारण भी हो
सकता है।
बुधवार धन की
प्राप्ति
कराने वाला
है। गुरूवार
को बाल कटवाने
से लक्ष्मी और
मान की हानि
होती है।
शुक्रवार लाभ
और यश की
प्राप्ति
कराने वाला
है। शनिवार
मृत्यु का
कारण होता है।
रविवार तो
सूर्यदेव का
दिन है। इस
दिन क्षौर
कराने से धन,
बुद्धि और
धर्म की क्षति
होती है।
4.
सोमवार,
बुधवार और
शनिवार शरीर
में तेल लगाने
हेतु उत्तम
दिन हैं। यदि
तुम्हें
ग्रहों के
अनिष्टकर प्रभाव
से बचना है तो
इन्हीं दिनों
में तेल लगाना
चाहिए।
5.
शरीर में
तेल लगाते समय
पहले नाभि एवं
हाथ-पैर की
उँगलियों के
नखों में भली
प्रकार तेल
लगा देना
चाहिए।
6.
पैरों को
यथासंभव खुला
रखो।
प्रातःकाल
कुछ समय तक
हरी घास पर नंगे
पैर टहलो।
गर्मियों में
मोजे आदि से
पैरों को मत
ढँको।
7.
ऊँची एड़ी
के या तंग
पंजों के जूते
स्वास्थ्य को
हानि
पहुँचाते
हैं।
8.
पाउडर,
स्नो आदि
त्वचा के
स्वाभाविक
सौंदर्य को
नष्ट करके उसे
रूखा एवं
कुरूप बना
देते हैं।
9.
बहुत कसे
हुए एवं
नायलोन आदि
कृत्रिम
तंतुओं से बने
हुए कपड़े एवं
चटकीले
भड़कीले गहरे
रंग से कपड़े
तन-मन के
स्वास्थ्य के
हानिकारक होते
हैं। तंग
कपड़ों से
रोमकूपों को
शुद्ध हवा नहीं
मिल पाती तथा
रक्त-संचरण
में भी बाधा
पड़ती है।
बैल्ट से कमर
को ज़्यादा
कसने से पेट में
गैस बनने लगती
है। ढीले-ढाले
सूती वस्त्र
स्वास्थ्य के
लिए अति उत्तम
होते हैं।
10. कहीं
से चलकर आने
पर तुरंत जल
मत पियो, हाथ
पैर मत धोओ और
न ही स्नान
करो। इससे
बड़ी हानि होती
है। पसीना सूख
जाने दो।
कम-से-कम 15 मिनट
विश्राम कर
लो। फिर
हाथ-पैर धोकर,
कुल्ला करके
पानी पीयो।
तेज गर्मी में
थोड़ा गुड़ या
मिश्री खाकर
पानी पीयो
ताकि लू न लग
सके।
11. अश्लील
पुस्तक आदि न
पढ़कर
ज्ञानवर्ध
पुस्तकों का
अध्ययन करना
चाहिए।
12. चोरी
कभी न करो।
13. किसी
की भी वस्तु
लें तो उसे
सँभाल कर रखो।
कार्य पूरा हो
फिर तुरन्त ही
वापिस दे दो।
14. समय
का महत्त्व
समझो। व्यर्थ
बातें, व्यर्थ
काम में समय न
गँवाओ।
नियमित तथा
समय पर काम
करो।
15. स्वावलंबी
बनो। इससे
मनोबल बढ़ता
है।
16. हमेशा
सच बोलो। किसी
की लालच या
धमकी में आकर झूठ
का आश्रय न
लो।
17. अपने
से छोटे
दुर्बल
बालकों को
अथवा किसी को
भी कभी सताओ
मत। हो सके
उतनी सबकी मदद
करो।
18. अपने
मन के गुलाम
नहीं परन्तु मन
के स्वामी
बनो। तुच्छ
इच्छाओं की
पूर्ति के लिए
कभी स्वार्थी
न बनो।
19. किसी
का तिरस्कार,
उपेक्षा,
हँसी-मजाक कभी
न करो। किसी
की निंदा न
करो और न
सुनो।
20. किसी
भी व्यक्ति,
परिस्थिति या
मुश्किल से कभी
न डरो परन्तु
हिम्मत से
उसका सामना
करो।
21. समाज
में बातचीत के
अतिरिक्त
वस्त्र का
बड़ा महत्त्व
है। शौकीनी
तथा फैशन के
वस्त्र, तीव्र
सुगंध के तेल
या सेंट का उपयोग
करने वालों को
सदा सजे-धजे
फैशन रहने वालों
को सज्जन लोग
आवारा या
लम्पट आदि
समझते हैं।
अतः तुम्हें
अपना रहन सहन,
वेश-भूषा
सादगी से
युक्त रखना
चाहिए।
वस्त्र
स्वच्छ और
सादे होने
चाहिए।
सिनेमा की
अभिनेत्रियों
तथा
अभिनेताओं के
चित्र छपे हुए
अथवा उनके नाम
के वस्त्र को
कभी मत पहनो।
इससे बुरे
संस्कारों से
बचोगे।
22. फटे
हुए वस्त्र
सिल कर भी
उपयोग में
लाये जा सकते
हैं, पर वे
स्वच्छ अवश्य
होने चाहिए।
23. तुम
जैसे लोगों के
साथ उठना-बैठना,
घूमना-फिरना
आदि रखोगे,
लोग तुम्हें
भी वैसा ही
समझेंगे। अतः
बुरे लोगों का
साथ सदा के
लिए छोड़कर
अच्छे लोगों
के साथ ही
रहो। जो लोग
बुरे कहे जाते
हैं, उनमें
तुम्हे दोष न
भी दिखें, तो
भी उनका साथ
मत करो।
24. प्रत्येक
काम पूरी
सावधानी से
करो। किसी भी
काम को छोटा
समझकर उसकी
उपेक्षा न
करो।
प्रत्येक काम
ठीक समय पर
करो। आगे के
काम को छोड़कर
दूसरे काम में
सत लगो। नियत
समय पर काम
करने का
स्वभाव हो
जाने पर कठिन
काम भी सरल बन
जाएँगे।
पढ़ने में मन
लगाओ। केवल
परीक्षा में
उत्तीर्ण होने
के लिए नहीं,
अपितु
ज्ञानवृद्धि
के लिए पूरी
पढ़ाई करो।
उत्तम भारतीय
सदग्रंथों का
नित्य पाठ
करो। जो कुछ
पढ़ो, उसे
समझने की चेष्टा
करो। जो तुमसे
श्रेष्ठ है,
उनसे पूछने में
संकोच मत करो।
25. अंधे,
काने-कुबड़े,
लूले-लँगड़े
आदि को कभी चिढ़ाओ
मत, बल्कि
उनके साथ और
ज़्यादा
सहानुभूतिपूर्वक
बर्ताव करो।
26. भटके
हुए राही को,
यदि जानते हो
तो, उचित
मार्ग बतला
देना चाहिए।
27. किसी
के नाम आया
हुआ पत्र मत
पढ़ो।
28. किसी
के घर जाओ तो
उसकी वस्तुओं
को मत छुओ। यदि
आवश्यक हो तो
पूछकर ही छुओ।
काम हो जाने
पर उस वस्तु
को फिर
यथास्थान रख
दो।
29. बस
में रेल के
डिब्बे में,
धर्मशाला व
मंदिर में तथा
सार्वजनिक
भवनों में
अथवा स्थलों में
न तो थूको, न
लघुशंका आदि
करो और न वहाँ
फलों के छिलके
या कागज आदि
डालो। वहाँ
किसी भी प्रकार
की गंदगी मत
करो। वहाँ के
नियमों का
पूरा पालन
करो।
30. हमेशा
सड़क की बायीं
ओर से चलो।
मार्ग में चलते
समय अपने
दाहिनी ओर मत
थूको, बाईं ओर
थूको। मार्ग
में खड़े होकर
बातें मत करो।
बात करना हो
तो एक किनारे
हो जाएं। एक दूसरे
के कंधे पर
हाथ रखकर मत
चलो। सामने से
.या पीछे से
अपने से
बड़े-बुजुर्गों
के आने पर बगल
हो जाओ। मार्ग
में काँटें,
काँच के
टुकड़े या
कंकड़ पड़े
हों तो उन्हें
हटा दो।
31. दीन-हीन
तथा असहायों व
ज़रूरतमंदों
की जैसी भी
सहायता व सेवा
कर सकते हो,
उसे अवश्य
करो, पर दूसरों
से तब तक कोई
सेवा न लो जब
तक तुम सक्षम
हो। किसी की
उपेक्षा मत
करो।
32. किसी
भी देश या
जाति के झंडे,
राष्ट्रगीत,
धर्मग्रन्थ
तथा
महापुरूषों
का अपमान कभी
मत करो। उनके
प्रति आदर
रखो। किसी
धर्म पर
आक्षेप मत करो।
33. कोई
अपना परिचित,
पड़ोसी, मित्र
आदि बीमार हो अथवा
किसी मुसीबत
में पड़ा हो
तो उसके पास
कई बार जाना
चाहिए और
यथाशक्ति
उसकी सहायता
करनी चाहिए
एवं तसल्ली
देनी चाहिए।
34. यदि
किसी के यहाँ
अतिथि बनो तो
उस घर के
लोगों को तुम्हारे
लिए कोई विशेष
प्रबन्ध न
करना पड़े, ऐसा
ध्यान रखो।
उनके यहाँ जो
भोजनादि मिले,
उसे प्रशंसा
करके खाओ।
35. पानी
व्यर्थ में मत
गिराओ। पानी
का नल और बिजली
की रोशनी
अनावश्यक
खुला मत रहने
दो।
36. चाकू
से मेज मत
खरोंचो।
पेन्सिल या
पेन से इधर-उधर
दाग मत करो।
दीवार पर मत
लिखो।
37. पुस्तकें
खुली छोड़कर
मत जाओ।
पुस्तकों पर पैर
मत रखो और न
उनसे तकिए का
काम लो।
धर्मग्रन्थों
को विशेष आदर
करते हुए
स्वयं शुद्ध,
पवित्र व
स्वच्छ होने
पर ही उन्हें
स्पर्श करना
चाहिए। उँगली
में थूक लगा
कर पुस्तकों
के पृष्ठ मत
पलटो।
38. हाथ-पैर
से भूमि कुरेदना,
तिनके तोड़ना,
बार-बार सिर
पर हाथ फेरना,
बटन टटोलते
रहना, वस्त्र
के छोर उमेठते
रहना, झूमना,
उँगलियाँ
चटखाते रहना-
ये बुरे
स्वभाव के
चिह्न हैं।
अतः ये सर्वथा
त्याज्य हैं।
39. मुख
में उँगली,
पेन्सिल,
चाकू, पिन, सुई,
चाबी या वस्त्र
का छोर देना,
नाक में उँगली
डालना, हाथ से
या दाँत से
तिनके नोचते
रहना, दाँत से
नख काटना,
भौंहों को
नोचते रहना-
ये गंदी आदते
हैं। इन्हें
यथाशीघ्र
छोड़ देना
चाहिए।
40. पीने
के पानी या
दूध आदि में
उँगली मत
डुबाओ।
41. अपने
से श्रेष्ठ,
अपने से नीचे
व्यक्तियों
की शय्या-आसन
पर न बैठो।
42. देवता,
वेद, द्विज,
साधु, सच्चे
महात्मा,
गुरू,
पतिव्रता, यज्ञकर्त्ता,
तपस्वी आदि की
निंदा-परिहास
न करो और न
सुनो।
43. अशुभ
वेश न धारण
करो और न ही
मुख से
अमांगलिक वचन
बोलो।
44. कोई
बात बिना समझे
मत बोलो। जब
तुम्हें किसी
बात की सच्चाई
का पूरा पता
हो, तभी उसे
करो। अपनी बात
के पक्के रहो।
जिसे जो वचन
दो, उसे पूरा
करो। किसी से
जिस समय मिलने
का या जो कुछ
काम करने का
वादा किया हो
वह वादा समय
पर पूरा करो।
उसमें विलंब
मत करो।
45. नियमित
रूप से भगवान
की प्रार्थना
करो। प्रार्थना
से जितना
मनोबल
प्राप्त होता
है उतना और
किसी उपाय से
नहीं होता।
46. सदा
संतुष्ट और
प्रसन्न रहो।
दूसरों की
वस्तुओं को
देखकर ललचाओ
मत।
47. नेत्रों
की रक्षा के
लिए न बहुत
तेज प्रकाश में
पढ़ो, न बहुत
मंद प्रकाश
में। दोनों
हानिकारक
हैं। इस
प्रकार भी
नहीं पढ़ना
चाहिए कि प्रकाश
सीधे पुस्तक
के पृष्ठों पर
पड़े। लेटकर,
झुककर या
पुस्तक को
नेत्रों के
बहुत नज़दीक
लाकर नहीं
पढ़ना चाहिए।
जलनेति से
चश्मा नहीं
लगता और यदि
चश्मा हो तो
उतर जाता है।
48. जितना
सादा भोजन,
सादा रहन-सहन
रखोगे, उतने
ही स्वस्थ
रहोगे। फैशन
की वस्तुओं का
जितना उपयोग
करोगे या
जिह्वा के
स्वाद में
जितना फँसोगे,
स्वास्थ्य
उतना ही दुर्बल
होता जाएगा।
यदि
विद्यार्थी
उचित
दिनचर्या एवं
उपरोक्त नियमों
के अनुसार
जीवन जियेगा
तो निश्चय ही
महान बनता
जाएगा।
श्रीमद्आद्यशंकराचार्यजी
जब काशी में
निवास करते
थे, तब
प्रतिदिन
प्रातःकाल
गंगा किनारे
घूमने जाते थे।
एक सुबह गंगा
के दूसरे
किनारे से
किसी युवक ने
देखा कि कोई
सन्यासी
सामने वाले
किनारे से जा
रहे हैं। उसने
वहीं से
शंकराचार्य
जी को प्रणाम
किया। युवक को
देखकर
शंकराचार्य
जी ने इशारे
से कहा कि इस
तरफ आ जा। इस
युवक ने विचार
किया कि मैंने
साधु को
प्रणाम किया
है, इसलिए मैं
इनका शिष्य हो
गया हूँ। मेरे
अब वहाँ जाना
गुरू आज्ञा
पालन है
परन्तु यहाँ
कोई नाव नहीं
और मुझे तैरना
भी नहीं आता
तो मुझे क्या
करना चाहिए? तभी
उसके मन में
विचार आया कि
ऐसे भी हजार
बार मर चुका
हूँ, एक बार
गुरु के दर्शन
के लिए जाते-जाते
मर जाऊँ तो भी
क्या बात है? मेरे
लिए गुरू
आज्ञापालन ही
कर्त्तव्य
है। ऐसा सोचकर
वह युवक तो
गंगाजी में
कूद पड़ा परन्तु
गुरू जी की
अपार करूणा और
शिष्य की
गुरूआज्ञापालन
की दृढ़ता ने
चमत्कार
सर्जन कर
दिया। वह युवक
जहाँ पैर रखता
वहाँ कमल खिल
जाता और ऐसा
करते-करते वह
युवक गंगा के
पार जहाँ गुरू
शंकराचार्य
खड़े थे पहुँच
गया।
गुरू-आज्ञापालन
की दृढ़ता के
कारण इस युवक
का नाम
पद्मपादाचार्य
पड़ गया।
इस कहानी
से शिक्षा
मिलती है कि
शिष्य अगर दृढ़ता,
तत्परता और
ईमानदारी से
गुरूआज्ञापालन
में लग जाए तो
प्रकृति भी
उसके लिए
अनुकूल बन
जाती है,
इसलिए बच्चों
को माता-पिता
और गुरूजनों
की आज्ञा का
पालन करना
चाहिए।
एक बार
स्वामी
विवेकानंदजी
मेरठ आये।
उनको पढ़ने का
खूब शौक था।
इसलिए वे अपने
शिष्य अखंडानंद
द्वारा
पुस्तकालय
में से
पुस्तकें पढ़ने
के लिए
मँगवाते थे।
केवल एक ही
दिन में
पुस्तक पढ़कर
दूसरे दिन
वापस करने के
कारण ग्रन्थपाल
क्रोधित हो
गया। उसने कहा
कि रोज-रोज पुस्तकें
बदलने में
मुझे बहुत
तकलीफ होती है।
आप ये
पुस्तकें
पढ़ते हैं कि
केवल पन्ने ही
बदलते हैं?
अखंडानंद ने
यह बात स्वामी
विवेकानंद जी
को बताई तो वे
स्वयं
पुस्तकालय में
गये और
ग्रंथपाल से
कहाः
ये सब
पुस्तकें
मैंने मँगवाई
थीं, ये सब
पुस्तकें
मैंने पढ़ीं
हैं। आप मुझसे
इन पुस्तकों में
के कोई भी
प्रश्न पूछ
सकते हैं।
ग्रंथपाल को
शंका थी कि
पुस्तकें
पढ़ने के लिए,
समझने के लिए
तो समय चाहिए,
इसलिए अपनी
शंका के
समाधान के लिए
स्वामी
विवेकानंद जी
से बहुत सारे
प्रश्न पूछे। विवेकानंद
जी ने
प्रत्येक
प्रश्न का
जवाब तो ठीक
दिया ही, पर ये
प्रश्न
पुस्तक के कौन
से पन्ने पर
हैं, वह भी
तुरन्त बता
दिया। तब
विवेकानंदजी
की मेधावी
स्मरणशक्ति
देखकर
ग्रंथपाल
आश्चर्यचकित
हो गया और ऐसी
स्मरणशक्ति
का रहस्य
पूछा।
स्वामी
विवेकानंद ने
कहाः पढ़ने के
लिए ज़रुरी है
एकाग्रता और
एकाग्रता के
लिए ज़रूरी है
ध्यान,
इन्द्रियों
का संयम।
बच्चों को
किसी भी
क्षेत्र में
आगे बढ़ने के
लिए रोज ध्यान
और त्राटक का
अभ्यास करना
चाहिये।
Nothing is impossible. Everything is possible. असंभव
कुछ भी नहीं
है- यह वाक्य
है फ्राँस के
नेपोलियन
बोनापार्ट का,
जो एक गरीब
कुटुंब में जन्मा
था, परन्तु
प्रबल
पुरूषार्थ और
दृढ़ संकल्प
के कारण एक
सैनिक की
नौकरी में से
फ्राँस का
शहंशाह बन
गया। ऐसी ही
संकल्पशक्ति
का दूसरा
उदाहरण है संत
विनोबा भावे।
बचपन में
विनोबा गली
में सब बच्चों
के साथ खेल
रहे थे। वहाँ
बातें चली कि
अपनी पीढ़ी
में कौन-कौन
संत बन गये।
प्रत्येक
बालक ने अपनी
पीढ़ी में
किसी न किसी
पूर्वज का नाम
संत के रूप में
बताया। अंत
में विनोबा जी
की बारी आयी।
विनोबा ने तब
तक कुछ नहीं
कहा परन्तु
उन्होंने
मन-ही-मन दृढ़
संकल्प करके
जाहिर किया
कि, अगर मेरी
पीढ़ी में कोई
संत नहीं बना
तो मैं स्वयं
संत बनकर
दिखाऊँगा।
अपने इस
संकल्प की
सिद्धि के लिए
उन्होंने प्रखर
पुरूषार्थ
शुरु कर दिया।
लग गये इसकी सिद्धि
में और अंत
में, एक महान
संत के रूप
में प्रसिद्ध
हुए।
यह है
दृढ़संकल्पशक्ति
और प्रबल
पुरूथार्थ का
परिणाम।
इसलिए दुर्बल
नकारात्मक
विचार छोड़कर
उच्च संकल्प
करके प्रबल
पुरूषार्थ में
लग जाओ,
सामर्थ्य का
खजाना
तुम्हारे पास
ही है। सफलता
अवश्य
तुम्हारे कदम
चूमेगी।
हमारे
देश में भगवान
श्री राम के
हजारों मंदिर
हैं। उन भगवान
श्री राम का
बाल्यकाल
कैसा था, यह
जानते हो?
बालक
श्री राम के
पिता का नाम
राजा दशरथ तथा
माता का नाम
कौशल्या था।
राम जी के
भाइयों के नाम
लक्ष्मण, भरत
और शत्रुघ्न
था। बालक
श्रीराम बचपन
से ही शांत,
धीर, गंभीर
स्वभाव के और
तेजस्वी थे।
वे हर-रोज़
माता-पिता को
प्रणाम करते
थे। माता-पिता
की आज्ञा का
उल्लंघन कभी
भी नहीं करते
थे। बचपन से
ही गुरू
वशिष्ठ के
आश्रम में
सेवा करते थे।
श्रीराम तथा
लक्ष्मण गुरू
जी के पास
आत्मज्ञान का
सत्संग सुनते
थे। गुरूजी की
आज्ञा का पालन
करके नियमित
त्रिकाल
संध्या करते
थे। संध्या
में प्राणायाम,
जप-ध्यान आदि
नियमित रीति
से करते थे। गुरू
जी की आज्ञा
में रहने से,
उनकी सेवा
करने से श्री
वशिष्ठजी खूब
प्रसन्न रहते
थे। इसलिए गुरू
जी ने
आत्मज्ञान,
ब्रह्मज्ञानरूपी
सत्संग अमृत
का पान उन्हें
कराया था।
गुरू वशिष्ठ
और बालक
श्रीराम का जो
संवाद-सत्संग
हुआ था, वह आज
भी विश्व में
महान ग्रंथ की
तरह पूजनीय
माना जाता है।
उस महान ग्रंथ
का नाम है,
श्री योगवाशिष्ठ
महारामायण।
बचपन से
ही
ब्रह्मज्ञानरूपी
सत्संग का
अमृतपान करने
के कारण बालक
श्रीराम
निर्भय रहते थे।
इसी कारण महर्षि
विश्वामित्र
श्रीराम तथा
लक्ष्मण को छोटी
उम्र होने पर
भी अपने साथ
ले गये। ये
दोनों वीर
बालक
ऋषि-मुनियों
के परेशान
करने वाले बड़े-बड़े
राक्षसों का
वध करके
ऋषियों-मुनियों
की रक्षा
करते। श्री
राम
आज्ञापालन
में पक्के थे।
एक बार
पिताश्री की
आज्ञा मिलते
ही आज्ञानुसार
राजगद्दी
छोड़कर 14 वर्ष
वनवास में रहे
थे। इसीलिए तो
कहा जाता है। रघुकुल
रीत सदा चली
आई। प्राण जाई
पर वचन न जाई।
श्री राम
भगवान की तरह
पूजे जा रहे
हैं क्योंकि
उनमें
बाल्यकाल में
ऐसे सदगुण थे
और गुरू जी की
कृपा उनके साथ
थी।
राजा
उत्तानपाद की
दो रानियाँ
थीं। प्रिय
रानी का नाम
सुऱूची और
अप्रिय रानी
का नाम सुमति
था। दोनों
रानियों को
एक-एक पुत्र
था। एक बार
रानी सुमति का
पुत्र ध्रुव
खेलता-खेलता
अपने पिता की
गोद में बैठ
गया। रानी ने
तुरंत ही उसे
पिता की गोद
से नीचे उतार
कर कहाः
पिता की
गोद में बैठने
के लिए पहले
मेरी कोख से
जन्म ले।
ध्रुव रोता-रोता
अपना माँ के
पास गया और सब
बात माँ से
कही। माँ ने
ध्रुव को
समझायाः बेटा!
यह राजगद्दी
तो नश्वर है
परंतु तू
भगवान का
दर्शन करके
शाश्वत गद्दी
प्राप्त कर।
ध्रुव को माँ
की सीख बहुत
अच्छी लगी। और
तुरंत ही दृढ़
निश्चय करके
तप करने के
लिए जंगल में
चला गया।
रास्ते में
हिंसक पशु
मिले फिर भी
भयभीत नहीं
हुआ। इतने में
उसे देवर्षि
नारद मिले।
ऐसे घनघोर
जंगल में
मात्र 5 वर्ष
को बालक को
देखकर नारद जी
ने वहाँ आने
का कारण पूछा।
ध्रुव ने घर में
हुई सब बातें
नारद जी को
बता दीं और
भगवान को पाने
की तीव्र
इच्छा प्रकट
की।
नारद जी
ने ध्रुव को
समझायाः “तू
इतना छोटा है
और भयानक जंगल
में
ठण्डी-गर्मी
सहन करके
तपस्या नहीं
कर सकता इसलिए
तू घर वापस
चला जा।“ परन्तु
ध्रुव
दृढ़निश्चयी
था। उसकी
दृढ़निष्ठा
और भगवान को
पाने की तीव्र
इच्छा देखकर
नारदजी ने
ध्रुव को ॐ
नमो
भगवते
वासुदेवाय ’ का
मंत्र देकर
आशीर्वाद
दियाः “ बेटा! तू
श्रद्धा से इस
मंत्र का जप
करना। भगवान
ज़रूर तुझ पर
प्रसन्न
होंगे।“ ध्रुव तो
कठोर तपस्या
में लग गया।
एक पैर पर खड़े
होकर,
ठंडी-गर्मी,
बरसात सब सहन
करते-करते नारदजी
के द्वारा दिए
हुए मंत्र का
जप करने लगा।
उसकी
निर्भयता,
दृढ़ता और
कठोर तपस्या
से भगवान
नारायण स्वयं
प्रकठ हो गये।
भगवान ने ध्रुव
से कहाः “ कुछ माँग,
माँग बेटा!
तुझे क्या
चाहिए। मैं तेरी
तपस्या से
प्रसन्न हुआ
हूँ। तुझे जो
चाहिए वर माँग
ले।“ ध्रुव
भगवान को
देखकर आनंदविभोर
हो गया। भगवान
को प्रणाम
करके कहाः “हे
भगवन्! मुझे
दूसरा कुछ भी
नहीं चाहिए।
मुझे अपनी
दृढ़ भक्ति
दो।“ भगवान और
अधिक प्रसन्न
हो गए और
बोलेः तथास्तु।
मेरी भक्ति
के साथ-साथ
तुझे एक वरदान
और भी देता
हूँ कि आकाश
में एक तारा ‘ध्रुव’ तारा
के नाम से
जाना जाएगा और
दुनिया दृढ़
निश्चय के लिए
तुझे सदा याद
करेगी।“ आज भी
आकाश में हमें
यह तारा देखने
को मिलता है।
ऐसा था बालक
ध्रुव, ऐसी थी
भक्ति में
उसकी दृढ़
निष्ठा। पाँच
वर्ष के ध्रुव
को भगवान मिल सकते
हैं तो हमें
भी क्यों नहीं
मिल सकते?
ज़रूरत है
भक्ति में
निष्ठा की और
दृढ़ विश्वास
की। इसलिए
बच्चों को हर
रोज निष्ठापूर्वक
प्रेम से
मंत्र का जप
करना चाहिए।
फतेह
सिंह तथा
जोरावर सिंह
सिख धर्म के
दसवें गुरू
गोविंदसिंह
जी के सुपुत्र
थे। आनंदपुर के
युद्ध में
गुरू जी का
परिवार बिखर
गया था। उनके
दो पुत्र
अजीतसिंह एवं
जुझारसिंह की
तो उनसे भेंट
हो गयी,
परन्तु दो
छोटे पुत्र
गुरूगोविंद
सिहं की माता
गुजरीदेवी के
साथ अन्यत्र
बिछुड़ गये।
आनंदपुर
छोड़ने के बाद
फतेह सिंह एवं
जोरावर सिंह
अपनी दादी के
साथ जंगलों,
पहाड़ों को
पार करके एक
नगर में
पहुँचे। उस
समय जोरावरसिंह
की उम्र मात्र
सात वर्ष
ग्यारह माह एवं
फतेहसिंह की
उम्र पाँच
वर्ष दस माह
थी।
इस नगर
में उन्हें
गंगू नामक
ब्राह्मण
मिला, जो बीस
वर्षों तक
गुरूगोविंद
सिंह के पास
रसोईये का काम
करता था। उसकी
जब माता
गुजरीदेवी से
भेंट हुई तो
उसने उन्हें
अपने घर ले
जाने का आग्रह
किया। पुराना
सेवक होने के
नाते माता जी
दोनों नन्हें
बालकों के साथ
गंगू ब्राह्मण
के घर चलने को
तैयार हो गयी।
माता
गुजरीदेवी के
सामान में कुछ
सोने की मुहरें
थी जिसे देखकर
गंगू लोभवश
अपना ईमान बेच
बैठा। उसने
रात्रि को
मुहरें चुरा
लीं परन्तु लालच
बड़ी बुरी बला
होती है।
वासना का पेट
कभी नहीं भरता
अपितु वह तो
बढ़ती ही रहती
है। गंगू
ब्राह्मण की
वासना और अधिक
भड़क उठी। वह
ईनाम पाने के लालच
में मुरिंज
थाना पहुँचा
और वहाँ के
कोतवाल को बता
दिया कि
गुरूगोविंद
सिंह के दो
पुत्र एवं
माता उसके घर
में छिपी हैं।
कोतवाल
ने गंगू के
साथ
सिपाहियों को
भेजा तथा दोनों
बालकों सहित
माता
गुजरीदेवी को
बंदी बना लिया।
एक रात उन्हें
मुरिंडा की
जेल में रखकर
दूसरे दिन
सरहिंद के
नवाब के पास
ले जाया गया। इस
बीच माता
गुजरीदेवी
दोनों बालकों
को उनके दादा
गुरू तेग
बहादुर एवं
पिता
गुरुगोविंदसिंह
की
वीरतापूर्ण
कथाएँ सुनाती
रहीं।
सरहिंद
पहुँचने पर
उन्हें किले
के एक हवादार बुर्ज
में भूखा
प्यासा रखा
गया। माता
गुजरीदेवी
उन्हें रात भर
वीरता एवं
अपने धर्म में
अडिग रहने के
लिए प्रेरित
करती रहीं। वे
जानती थीं कि
मुगल
सर्वप्रथम
बच्चों से
धर्मपरिवर्तन
करने के लिए
कहेंगे।
दोनों बालकों
ने अपनी दादी
को भरोसा
दिलाया कि वे
अपने पिता एवं
कुल की शान पर
दाग नहीं लगने
देंगे तथा
अपने धर्म में
अडिग रहेंगे।
सुबह
सैनिक बच्चों
को लेने पहुँच
गये। दोनों बालकों
ने दादी के
चरणस्पर्श
किये एवं
सफलता का
आशीर्वाद
लेकर चले गए।
दोनों बालक
नवाब वजीरखान
के सामने
पहुँचे तथा
सिंह की तरह
गर्जना करते
बोलेः “वाहे गुरु
जी का खालसा,
वाहे गुरू जी
की फतेह।“
चारों ओर
से शत्रुओं से
घिरे होने पर
भी इन नन्हें
शेरों की
निर्भीकता को
देखकर सभी
दरबारी दाँतो
तले उँगली
दबाने लगे।
शरीर पर केसरी
वस्त्र एवं
पगड़ी तथा
कृपाण धारण
किए इन नन्हें
योद्धाओं को
देखकर एक बार
तो नवाब का भी
हृदय भी पिघल
गया।
उसने
बच्चों से
कहाः “इन्शाह
अल्लाह! तुम
बड़े सुन्दर
दिखाई दे रहे हो।
तुम्हें सजा
देने की इच्छा
नहीं होती। बच्चों!
हम तु्म्हें
नवाबों के
बच्चों की तरह
रखना चाहते
हैं। एक छोटी
सी शर्त है कि
तुम अपना धर्म
छोड़कर
मुसलमान बन
जाओ।“
नवाब ने
लालच एवं
प्रलोभन देकर
अपना पहला पाँसा
फैंका। वह
समझता था कि
इन बच्चों को
मनाना ज़्यादा
कठिन नहीं है
परन्तु वह यह
भूल बैठा था
कि भले ही वे
बालक हैं
परन्तु कोई
साधारण नहीं
अपित गुरू
गोविंदसिंह
के सपूत हैं।
वह भूल बैठा
था कि इनकी
रगों में उस
वीर महापुरूष
का रक्त दौड़
रहा है जिसने
अपने पिता को
धर्म के लिए
शहीद होने की
प्रेरणा दी
तथा अपना
समस्त जीवन
धर्म की रक्षा
में लगा दिया
था।
नवाब की
बात सुनकर
दोनों भाई
निर्भीकतापूर्वक
बोलेः “हमें अपना
धर्म प्राणों
से भी प्यारा
है। जिस धर्म के
लिए हमारे
पूर्वजों ने
अपने प्राणों
की बलि दे दी
उसे हम
तुम्हारी
लालचभरी
बातों में आकर
छोड़ दें, यह
कभी नहीं हो
सकता।“
नवाब की
पहली चाल
बेकार गयी।
बच्चे नवाब की
मीठी बातों
एवं लालच में
नहीं फँसे। अब
उसने दूसरी चाल
खेली। नवाब ने
सोचा ये दोनों
बच्चे ही तो हैं,
इन्हें डराया
धमकाया जाय तो
अपना काम बन सकता
है।
उसने
बच्चों से
कहाः “तुमने
हमारे दरबार
का अपमान किया
है। हम चाहें
तो तुम्हें
कड़ी सजा दे
सकते हैं
परन्तु तु्म्हे
एक अवसर फिर
से देते हैं।
अभी भी समय है
यदि ज़िंदगी
चाहते हो तो
मुसलमान बन
जाओ वर्ना....”
नवाब
अपनी बात पूरी
करे इससे पहले
ही ये नन्हें
वीर गरज कर
बोल उठेः “नवाब!
हम उन
गुरूतेगबहादुरजी
के पोते हैं
जो धर्म की
रक्षा के लिए
कुर्बान हो
गये। हम उन गुरूगोविंदसिंह
जी के पुत्र
हैं जिनका
नारा हैः चिड़ियों
से मैं बाज
लड़ाऊँ, सवा
लाख से एक
लड़ाऊँ। जिनका
एक-एक सिपाही
तेरे सवा लाख
गुलामों को धूल
चटा देता है,
जिनका नाम
सुनते ही तेरी
सल्तनत थर-थर
काँपने लगती
है। तू हमें
मृत्यु का भय
दिखाता है। हम
फिर से कहते
हैं कि हमारा
धर्म हमें
प्राणों से भी
प्यारा है। हम
प्राम त्याग
सकते हैं
परन्तु अपना
धर्म नहीं
त्याग सकते।“
इतने में
दीवान
सुच्चानंद ने
बालकों से
पूछाः “अच्छा!
यदि हम तुम्हे
छोड़ दें तो
तुम क्या करोगे?”
बालक
जोरावर सिंह
ने कहाः “हम सेना
इकट्ठी
करेंगे और
अत्याचारी
मुगलों को इस
देश से
खदेड़ने के
लिए युद्ध
करेंगे।“
दीवानः “यदि
तुम हार गये
तो?”
जोरावर
सिंहः
(दृढ़तापूर्वक)
“हार
शब्द हमारे
जीवन में नहीं
है। हम
हारेंगे नहीं।
या तो विजयी
होंगे या शहीद
होंगे।“
बालकों
की
वीरतापूर्ण
बातें सुनकर
नवाब आग बबूला
हो उठा। उसने
काजी से कहाः “इन
बच्चों ने
हमारे दरबार
का अपमान किया
है तथा भविष्य
में मुगल शासन
के विरूद्ध
विद्रोह की
घोषणा की है।
अतः इनके लिए
क्या दण्ड
निश्चित किया
जाये?”
काजीः “ये
बालक मुगल
शासन के
दुश्मन हैं और
इस्लाम को
स्वीकार करने
को भी तैयार
नहीं हैं।
अतः, इन्हें
जिन्दा दीवार
में चुनवा
दिया जाये।“
शैतान
नवाब तथा काजी
के क्रूर
फैसले के बाद
दोनों बालकों
को उनकी दादी
के पास भेज
दिया गया।
बालकों ने
उत्साहपूर्वक
दादी को पूरी
घटना सुनाई।
बालकों की वीरता
को देखकर दादी
गदगद हो उठी
और उन्हें
हृदय से लगाकर
बोलीः “मेरे
बच्चों! तुमने
अपने पिता की
लाज रख ली।“
दूसरे
दिन दोनों वीर
बालकों को
दिल्ली के
सरकारी
जल्लाद शिशाल
बेग और विशाल
बेग को
सुपुर्द कर
दिया गया।
बालकों को
निश्चित
स्थान पर ले
जाकर उनके
चारों ओर दीवार
बननी
प्रारम्भ हो
गयी।
धीरे-धीरे
दीवार उनके
कानों तक ऊँची
उठ गयी। इतने
में बड़े भाई
जोरावरसिंह
ने अंतिम बार
अपने छोटे भाई
फतेहसिंह की
ओर देखा और
उसकी आँखों से
आँसू छलक उठे।
जोरावर
सिंह की इस
अवस्था को
देखकर वहाँ
खड़ा काजी
बड़ा प्रसन्न
हुआ। उसने
समझा कि ये
बच्चे मृत्यु
को सामने
देखकर डर गये
हैं। उसने अच्छा
मौका देखकर
जोरावरसिंह
से कहाः “बच्चों!
अभी भी समय
है। यदि तुम
मुसलमान बन
जाओ तो
तुम्हारी सजा
माफ कर दी
जाएगी।“
जोरावर
सिंह ने गरजकर
कहाः “मूर्ख
काजी! मैं मौत
से नहीं डर
रहा हूँ। मेरा
भाई मेरे बाद
इस संसार में
आया परन्तु
मुझसे पहले
धर्म के लिए
शहीद हो रहा
है। मुझे बड़ा
भाई होने पर
भी यह सौभाग्य
नहीं मिला,
इसलिए मुझे
रोना आता है।“
सात वर्ष
के इस नन्हें
से बालक के
मुख से ऐसी बात
सुनकर सभी दंग
रह गये। थोड़ी
देर में दीवार
पूरी हुई और
वे दोनों
नन्हें
धर्मवीर
उसमें समा
गये।
कुछ समय
पश्चात दीवार
को गिरा दिया
गया। दोनों
बालक बेहोश
पड़े थे,
परन्तु
अत्याचारियों
ने उसी स्थिति
में उनकी हत्या
कर दी।
विश्व के
किसी भी अन्य
देश के इतिहास
में इस प्रकार
की घटना नहीं
है, जिसमें
सात एवं पाँच
वर्ष के दो
नन्हें
सिंहों की अमर
वीरगाथा का वर्णन
हो।
जोरावर
सिंह एवं
फतेहसिंह
पिता से
बिछुड़ कर शत्रओं
की कैद में
पहुँच चुके
थे। छोटी सी
उम्र में ही
उन्हें इतने
बड़े संकट का
सामना करना
पड़ा। धर्म
छोड़ने के लिए
पहले लालच और
कठोर यातनाएँ
दी गईँ परन्तु
ये दोनों वीर
अपने धर्म पर
अडिग रहे।
धन्य हैं ऐसे
धर्मनिष्ठ
बालक!
प्रत्येक
मनुष्य को
अपने धर्म के
प्रति श्रद्धा
एवं आदर होना
चाहिए। भगवान
श्री कृष्ण ने
कहा हैः
श्रेयान्स्वधर्मो
विगुणः
परधर्मात्स्वनुष्टितात्।
स्वधर्मे
निधनं श्रेयः
भयावहः।।
“अच्छी
प्रकार आचरण
किये हुए
दूसरे के धर्म
से पराजित
गुणरहित भी
अपना धर्म अति
उत्तम है। अपने
धर्म में तो
मरना भी
कल्याणकारक
है और दूसरे
का धर्म भय को
देने वाला है।“ (गीताः
3.35)
जब भारत
पर शाहजहाँ का
शासन था, तब की
यह घटना घटित
हैः
तेरह
वर्षीय हकीकत
राय स्यालकोट
के एक छोटे से
मदरसे में
पढ़ता था। एक
दिन कुछ
बच्चों ने मिल
कर हकीकत राय
को गालियाँ
दीं। पहले तो
वह चुप रहा।
वैसे भी
सहनशीलता हो
हिन्दुओं का
गुण है ही....
किन्तु जब उन
उद्दण्ड
बच्चों ने
हिंदुओं के नाम
की और
देवी-देवताओं
के नाम की
गालियाँ देनी
शुरु की तब उस
वीर बालक से
अपने धर्म का
अपमान सहा
नहीं गया।
हकीकत
राय ने कहाः “अब तो
हद हो गयी!
अपने लिये तो
मैंने
सहनशक्ति का
उपयोग किया
लेकिन मेरे
धर्म, गुरू और
भगवान के लिए
एक भी शब्द
बोलोगे ते यह
मेरी सहनशक्ति
से बाहर की
बात है। मेरे
पास भी जुबान
है। मैं भी
तुम्हें बोल
सकता हूँ।“
उद्दण्ड
बच्चों ने
कहाः “बोलकर तो
दिखा! हम तेरी
खबर लेंगे।‘
हकीकत
राय ने भी
उनको दो-चार
कटु शब्द सुना
दिये। बस,
उन्हीं दो-चार
शब्दों को सुनकर
मुल्ला-मौलवियों
का खून उबल
पड़ा। वे हकीकत
राय को ठीक
करने का मौका
ढूँढने लगे।
सब लोग एक तरफ
और हकीकत राय
अकेला दूसरी
तरफ। उस समय
मुगलों का
शासन था।
इसलिए हकीकत
राय को जेल
में कैद कर
दिया गया।
मुगल
शासकों की ओर
से हकीकत राय
को यह फरमान भेजा
गयाः “अगर तुम
कलमा पढ़ लो
और मुसलमान बन
जाओ तो
तुम्हें अभी
माफ कर दिया
जाएगा और यदि
तुम मुसलमान
नहीं बनोगे तो
तु्म्हारा
सिर धड़ से
अलग कर दिया जायेगा।“
हकीकत
राय के
माता-पिता जेल
के बाहर आँसू
बहा रहे थेः “बेटा!
तू मुसलमान बन
जा। कम से कम
हम तुझे जीवित
तो देख
सकेंगे! “… लेकिन उस
वीर हकीकत राय
ने कहाः
“ क्या
मुसलमान बन
जाने का बाद
मेरी मृत्यु
नहीं होगी ? ”
माता-पिताः
“मृ्त्यु
तो होगी।“
हकीकत
रायः ”तो फिर
मैं अपने धर्म
में ही मरना
पसन्द करूँगा।
मैं जीते-जी
दूसरों के
धर्म में नहीं
जाऊँगा।“
क्रूर
शासकों ने
हकीकत राय की
दृढ़ता देखकर
अनेकों
धमकियाँ दीं
लेकिन उस बहादुर
किशोर पर उनकी
धमकियों का
जोर न चल सका।
उसके दृढ़
निश्चय को
पूरा
राज्य-शासन भी
न डिगा सका।
अंत में
मुगल शासक ने
प्रलोभन देकर
अपनी ओर खींचना
चाहा लेकिन वह
बुद्धिमान व
वीर किशोर प्रलोभनों
में भी नहीं
फँसा।
आखिर क्रूर
मुसलमान
शासकों ने
आदेश दियाः “अमुक
दिन बीच मैदान
में हकीकत राय
का शिरोच्छेद
किया जाएगा।“
वह तेरह
वर्षीय किशोर
जल्लाद के हाथ
में चमचमाती
हुई तलवार
देखकर जरा-भी
भयभीत न हुआ
वरन् वह अपने
गुरू के दिए
हुए ज्ञान को
याद करने लगाः
“यह
तलवार किसको
मारेगी? मार-मार
इस पंचभौतिक
शरीर को ही
मारेगी और ऐसे
पंचभौतिक
शरीर तो कई
बार मिले और
कई बार मर
गये।..... तो क्या
यह तलवार मुझे
मारेगी? नहीं मैं
तो अमर आत्मा
हूँ....
परमात्मा का
सनातन अंश
हूँ। मुझे यह
कैसे मार सकती
है? ॐ... ॐ.... ॐ
हकीकत
राय गुरु के
इस ज्ञान का
चिंतन कर रहा
था, तभी क्रूर
काजियों ने
जल्लाद को
तलवार चलाने
का आदेश दिया।
जल्लाद ने
तलवार उठाई लेकिन
उस निर्दोष
बालक को देखकर
उसकी
अंतरात्मा
थरथरा उठी।
उसके हाथों से
तलवार गिर
पड़ी और हाथ
काँपने लगे।
काजी
बोलेः “तुझे
नौकरी करनी कि
नहीं? यह तू
क्या कर रहा
है?”
तब हकीकत
राय ने अपने
हाथों से
तलवार उठाई और
जल्लाद के हाथ
में थमा दी।
फिर वह किशोर
हकीकत राय आँखें
बंद करके
परमात्मा का
चिंतन करने
लगाः ‘हे अकाल
पुरूष! मुझे
तेरे चरणों की
प्रीति देना
ताकि मैं तेरे
चरणों में
पहुँच जाऊँ....
फिर से मुझे
वासना का
पुतला बनाकर
इधर-उधर न
भटकना पड़े।
अब तू मुझे
अपनी ही शरण
में रखना... मैं
तेरा हूँ.... तू
मेरा है.... हे
मेरे अकाल पुरुष!’
इतने में
जल्लाद ने
तलवार चलाई और
हकीकत राय का
सिर धड़ से
अलग हो गया।
हकीकत
राय ने 13 वर्ष
की नन्हीं सी
उम्र में धर्म
के लिए अपनी
कुर्बानी दे
दी। उसने शरीर
छोड़ दिया
लेकिन धर्म न
छोड़ा।
गुरु
तेगबहादुर
बोलिया, सुनो
सिखों!
बड़भागिया, धड़
दीजे धरम
छोड़िये....
हकीकत
राय ने अपने
जीवन में यह
चरितार्थ
करके दिखा
दिया।
हकीकत
राय ने तो
धर्म के लिए
बलिवेदी पर
चढ़ गया लेकिन
उसकी
कुर्बानी ने
भारत के
हजारों-लाखों
जवानों में एक
जोश भर दिया
कि ‘धर्म
की खातिर
प्राण देना
पड़े तो देंगे
लेकिन
विधर्मियों
के आगे नहीं
झुकेंगे। भले
ही अपने धर्म
में भूखे
प्यासे मरना
पड़े तो
स्वीकार है
लेकिन पर धर्म
को कभी
स्वीकार नहीं
करेंगे।‘
ऐसे
वीरों के
बलिदान के
फलस्वरूप ही
हमें आजादी
प्राप्त हुई
है और ऐसे
लाखों-लाखों
प्राणों की
आहूति द्वारा
प्राप्त की
गयी इस आजादी
को हम कहीं
व्यसन, फैशन
एवं
चलचित्रों से
प्रभावित
होकर गँवा न
दें! अतः
देशवासियों
को सावधान
रहना होगा।
क्या आप
जानते हैं कि
जिन बाजारु
पेय पदार्थों
को आप बड़े
शौक से पीते
हैं, वे आपके दाँतों
तथा हड्डियों
को गलाने के
साधन हैं ? इन
पेय पदार्थों
का ‘पीएच’
(सान्द्रता)
सामान्यतः 3.4
होता है, जो कि
दाँतों तथा
हड्डियों को
गलाने के लिये
पर्याप्त है।
लगभग 30
वर्ष की आयु
पूरी करने के
बाद हमारे शरीर
में हड्डियों
के निर्माण की
प्रक्रिया
बंद हो जाती
है। इसके
पश्चात्
खाद्य
पदार्थों में
एसिडिटी
(अम्लता) की
मात्रा के
अनुसार
हड्डियाँ घुलनी
प्रारंभ हो
जाती हैं।
यदि
स्वास्थ्य की
दृष्टि से
देखा जाये तो
इन पेय
पदार्थों में
विटामिन अथवा
खनिज तत्त्वों
का नामोनिशान ही
नहीं है।
इनमें शक्कर,
कार्बोलिक
अम्ल तथा अन्य
रसायनों की ही
प्रचुर
मात्रा होती
है। हमारे
शरीर का
सामान्य
तापमान 37
डिग्री
सेल्सियस
होता है जबकि
किसी शीतल पेय
पदार्थ का
तापमान इससे
बहुत कम, यहाँ
तक कि शून्य
डिग्री सेल्सियस
तक भी होता
है। शरीर के
तापमान तथा
पेय पदार्थों
के तापमान के
बीच इतनी अधिक
विषमता
व्यक्ति के
पाचन-तंत्र पर
बहुत बुरा प्रभाव
डालती है।
परिणामस्वरूप
व्यक्ति द्वारा
खाया गया भोजन
अपचा ही रह
जाता है जिससे
गैस व बदबू
उत्पन्न होकर
दाँतों में
फैल जाती है
और अनेक
बीमारियों को
जन्म देती है।
एक प्रयोग
के दौरान एक
टूटे हुए दाँत
को ऐसे ही पेय पदार्थ
की एक बोतल
में डालकर बंद
कर दिया गया।
दस दिन बाद उस
दाँत को
निरीक्षण
हेतु निकालना
था परन्तु वह
दाँत बोतल के
अन्दर था ही
नहीं अर्थात्
वह उसमें घुल
गया था। जरा
सोचिये कि इतने
मजबूत दाँत भी
ऐसे हानिकारक
पेय पदार्थों
के
दुष्प्रभाव
से गल-सड़कर
नष्ट हो जाते
हैं तो फिर उन
कोमल तथा नर्म
आँतों का क्या
हाल होता होगा
जिनमें ये पेय
पदार्थ पाचन-क्रिया
के लिए घंटों
पड़े रहते
हैं।
1.
टेनिन नाम
का जहर 18 % होता है,
जो पेट में
छाले तथा पैदा
करता है।
2.
थिन नामक
जहर 3 % होता है,
जिससे खुश्की
चढ़ती है तथा
यह फेफड़ों और
सिर में
भारीपन पैदा
करता है।
3.
कैफीन
नामक जहर 2.75 % होता
है, जो शरीर
में एसिड
बनाता है तथा
किडनी को
कमजोर करता
है।
4.
वॉलाटाइल
नामक जहर
आँतों के ऊपर
हानिकारक प्रभाव
डालता है।
5.
कार्बोनिक
अम्ल से
एसिडिटी होती
है।
6.
पैमिन से
पाचनशक्ति
कमजोर होती
है।
7.
एरोमोलीक
आँतड़ियों के
ऊपर हानिकारक
प्रभाव डालता
है।
8.
साइनोजन
अनिद्रा तथा
लकवा जैसी
भयंकर बीमारियाँ
पैदा करती है।
9.
ऑक्सेलिक
अम्ल शरीर के
लिए अत्यंत
हानिकारक है।
10. स्टिनॉयल
रक्तविहार
तथा नपुंसकता
पैदा करता है।
इसलिए
चाय अथवा कॉफी
कभी नहीं पीनी
चाहिए और अगर
पीनी ही पड़े
तो
आयुर्वैदिक
चाय पीनी चाहिए।
आज समाज
में आधुनिक
खान-पान
(फास्टफूड) का
बोलबाला
बढ़ता जा रहा
है। व्यस्त
जीवन अथवा
आलस्य के कारण
कितने ही घरों
में फास्टफूड
का उपयोग किया
जाता है। पहले
भी बहुत से
शोधकर्त्ताओं
ने अपने
सर्वेक्षण के
आधार पर
फास्टफूड तथा
ठण्डे पेय,
चॉकलेट आदि को
अखाद्य गिनकर
स्वास्थ्य के
लिए खतरनाक
साबित किया
है।
नई
दिल्ली
स्थित ‘भारतीय
आयुर्विज्ञान
कचहरी’ के
शोधकर्त्ताओं
ने बालकों के स्वास्थ्य
पर फास्टफूड
के कारण पड़ने
वाले प्रतिकूल
प्रभाव पर
सर्वेक्षण
किया। संस्था
के
दंतचिकित्सक
विभाग के
प्रमुख डॉ. हरिप्रकाश
बताते हैं कि
बच्चों के
खान-पान में जिस
प्रकार
फास्टफूड,
चॉकलेट तथा
ठंडे पेय आदि
तेजी से
समाविष्ट
होते जा रहे
हैं इसकी असर बच्चों
के दाँतों पर
पड़ रही है।
भोजन को चबाने
से उनके आँतो
और जबड़ों को
जो कसरत मिलती
थी, वह अब कम
होती जा रही
है। इसका
दुष्परिणाम
यह आया है कि
दाँत
पंक्तिबद्ध
नहीं रहते,
उबड़-खाबड़ तथा
एक-दूसरे के
ऊपर चढ़ जाते
हैं एवं उनके
जबड़े का आकार
भी छोटा होता
जा रहा है।
एक
सर्वेक्षण के
अनुसार लगभग 60
से 80 प्रतिशत
स्कूल के
बच्चे तथा 14 से 18
प्रतिशत
बुजुर्ग दाँत
की तकलीफ के
शिकार हैं.
डॉ.
हरिप्रकाश के
बताये अनुसार
बच्चों के भोजन
में ऐसे
पदार्थ तथा फल
होने चाहिए
जिनको वे चबा
सकें। आधुनिक
खान-पान की
बदलती शैली,
फैशन-परस्ती और
बेपरवाही
स्वास्थ्य के
लिए भयसूचक
घंटी है।
हमारे
शास्त्रों ने
भी कहा हैः जैसा अन्न
वैसा मन।
इसलिए
अपवित्र
वस्तुओं से
तथा अपवित्र
वातावरण में
बननेवाले
फास्टफूड आदि
से अपने परिवार
को बचाओ।
सौन्दर्य-प्रसाधन
एक ऐसा नाम है
जिससे प्रत्येक
व्यक्ति
परिचित है।
सौन्दर्य
प्रसाधनों का
प्रयोग करके
अपने को
खूबसूरत तथा
विशेष दिखने
होड़ में आज
सिर्फ नारी ही
नहीं, वरन् पुरूष
भी पीछे नहीं
हैं।
हमें
विभिन्न
प्रकार के
तेल, क्रीम,
शैम्पू एवं
इत्र आदि जो
आकर्षक
डिब्बे एवं
बोतलों में
पैक किये हुए
मिलते हैं,
उनमें
हजारों-हजारों
निरपराध
बेजुबान प्राणियों
की मूक चीखें
छिपी हुई होती
हैं। मनुष्य
की चमड़ी को
खूबसूरत
बनाने के लिए
कई निर्दोष
प्राणियों की
हत्या........ यही
इन प्रसाधनों की
सच्चाई है।
सेंट के
उत्पादन में बिल्ली
के आकार के
बिज्जू नाम के
प्राणी को बेंतों
से पीटा जाता
है। अत्यधिक
मार से उद्विग्न
होकर बिज्जू
की यौन-ग्रंथि
से एक सुगंधित
पदार्थ
स्रावित होता
है। जिसको
धारदार चाकू से
निर्ममतापूर्वक
खरोंच लिया
जाता है जिसमें
अन्य रसायन
मिलाकर
विभिन्न
प्रकार के
इत्र बनाये
जाते हैं।
पुरुषों
की दाढ़ी को
सजाने में जिन
लोशनों का उपयोग
होता है उसकी
संवेदनशीलता
की परीक्षा के
लिए चूहे की
जाति वाले
गिनी पिग हैं,
जिनकी जान ली
जाती है।
लेमूर
जाति के लोरिस
नामक छोटे
बंदर की भी
सुन्दर आँखों
और जिगर को
पीसकर
सौन्दर्य
प्रसाधन बनाये
जाते हैं। इसी
तरह
केस्टोरियम
नाम की गन्ध प्राप्त
करने के लिए
चूहे के आकार
के बीबर नाम के
एक प्राणी को 15-20
दिन तक भूखा
रखकर,
तड़पा-तड़पाकर
तकलीफ देकर
हत्या की जाती
है।
मनुष्य
की
प्राणेन्द्रिय
की परितृप्ति
के लिए बिल्ली
की जाति के
सीवेट नाम के
प्राणी को इतना
क्रोधित किया
जाता है कि
अंत में वह
अपने प्राण
गंवा देता है।
तब उसका पेट
चीरकर एक ग्रंथि
निकालकर,
आकर्षक
डिज़ाईनों
में पैक करके
सौन्दर्य
प्रसाधन की
दुकानों में
रख देते हैं।
अनेक
प्रकार के
रसायनों से
बने हुए
शैम्पू की क्वालिटी
को जाँच करने
के लिए इसे निर्दोष
खरगोश की
सुंदर, कोमल
आंखों में
डाला जाता है।
जिससे उसकी
आँखों से खून
निकलता है और अंत
में वह
तड़प-तड़पकर
प्राण छोड़
देता है।
इसके
अतिरिक्त
काजल, क्रीम,
लिपस्टिक,
पावडर आदि तथा
अन्य
प्रसाधनों
में पशुओं की
चर्बी, अनेक
पैट्रोकैमिकल्स,
कृत्रिम
सुगंध, इथाइल,
जिरनाइन,
अल्कोहल,
फिनाइल,
सिट्रोनेल्स,
हाइड्राक्सीसिट्रोन
आदि उपयोग
किये जाते हैं।
जिनसे
चर्मरोग जैसे
कि एलर्जी,
दाद, सफेद दाग
आदि होने की
आशंका रहती
है।
ये तो
मात्र एक झलक
है, पूरा
अध्याय नहीं
है। पूरा
अध्याय तो ऐसा
है कि आप
कल्पना भी
नहीं कर सकते।
आइसक्रीम
के निर्माण
में जो भी
सामग्रीयाँ प्रयुक्त
की जाती हैं
उनमें एक भी
वस्तु ऐसी नहीं
है जो हमारे
स्वास्थ्य पर
प्रतिकूल
प्रभाव न
डालती हो।
इसमें कच्ची
सामग्री के
तौर पर अधिकांशतः
हवा भरी रहती
है। शेष 30
प्रतिशत बिना
उबला हुआ और
बिना छाना हुआ
पानी, 6 प्रतिशत
पशुओं की
चर्बी तथा 7 से 8
प्रतिशत
शक्कर होती है।
ये सब पदार्थ
हमारे तन-मन
को दूषित करने
वाले शत्रु ही
तो हैं।
इसके
अतिरिक्त
आइसक्रीम में
ऐसे अनेक
रासायनिक
पदार्थ भी
मिलाये जाते
हैं जो किसी
जहर से कम
नहीं होते।
जैसे
पेपरोनिल,
इथाइल एसिटेट,
बुट्राडिहाइड,
एमिल एसिटेट,
नाइट्रेट
आदि। उल्लेखनीय
है कि इनमें
से पेपरोनिल
नामक रसायन
कीड़े मारने
की दवा के रूप
में भी प्रयोग
किया जाता है।
इथाइल एसिटेट
के प्रयोग से
आइसक्रीम में
अनानास जैसा
स्वाद आता है
परन्तु इसके
वाष्प के प्रभाव
से फेफड़े,
गुर्दे एवं
दिल की भयंकर
बीमारियाँ
उत्पन्न होती
हैं। ऐसे ही
शेष रसायनिक
पदार्थों के
भी अलग-अलग
दुष्प्रभाव
पड़ते हैं।
आइसक्रीम
का निर्माण एक
अति शीतल कमरे
में किया जाता
है।
सर्वप्रथम
चर्बी को सख्त
करके रबर की
तरह लचीला
बनाया जाता है
ताकि जब हवा
भरी जाये तो
वह उसमें समा
सके। फिर
चर्बीयुक्त
इस मिश्रण को
आइसक्रीम का
रूप देने के लिए
इसमें ढेर
सारी अन्य
हानिकारक
वस्तुएँ भी मिलाई
जाती हैं।
इनमें एक
प्रकार का
गोंद भी होता
है जो चर्बी
से मिलने पर
आइसक्रीम को
चिपचिपा तथा
धीरे-धीरे
पिघलनेवाला
बनाता है। यह
गोंद जानवरों
के पूँछ, नाक,
थन आदि अंगों
को उबाल कर
बनाया जाता
है।
इस
प्रकार अनेक
अखाद्य
पदार्थों के
मिश्रण को
फेनिल बर्फ
लगाकर एक
दूसरे
शीतकक्ष में
ले जाया जाता
है। वहाँ इसे
अलग-अलग आकार
के आकर्षक
पैकेटों में
भरा जाता है।
एक कमरे
से दूसरे तक
ले जाने की
प्रक्रिया
में कुछ
आइसक्रीम
फर्श पर भी
गिर जाती है।
मजदूरों के
जूतों तले
रौंदे जाने से
कुछ समय बाद
उनमें से
दुर्गन्ध आने
लगती है। अतः
उसे छिपाने के
लिये चाकलेट
आइसक्रीम
तैयार की जाती
है।
क्या
आपका पेट कोई
गटर या
कचरापेटी है,
जिसमें आप ऐसे
पदार्थ डालते
हैं। ज़रा
सोचिए तो?
माउन्ट
ज़िओन यूनि.
ऑफ
केलिफोर्निया
में हुए शोध
के अनुसार
मांसाहार में
जो एसिड होता
है, उसे पचाने
के लिए बेज़
की ज़रूरत
होती है। लीवर
के पास
पर्याप्त
बेज़ न हो तो
वह बेज़ हड्डियों
से लेता है,
क्योंकि हड्डियाँ
बेज़ और
कैल्शियम से
बनी होती हैं।
इसका मतलब
लीवर मांस
पचाने के लिए
पर्याप्त
बेज़ पैदा
नहीं कर सकता
है तो
हड्डियों में
से वह मिलने
लगता है और
अंत में
हड्डियाँ
पिसती जाती हैं.
छोटी भी बनती
जाती हैं और
कमजोर भी होती
जाती हैं।
इसलिए
हड्डियों का
फ्रैकचर भी
अधिक मांस
खाने वालों को
होता है।
इसलिए इस शोध
में शाकाहार
को ही ज़्यादा
महत्त्व दिया गया
है।
मांसाहार
पर किये गये
परीक्षणों के
आधार पर तो
यहाँ तक कहा
है कि
मांसाहार
करना मतलब
भयंकर
बीमारियों को
आमंत्रण देना
है. मांसाहार
से कैंसर,
हृदय रोग,
चर्मरोग,
कुष्टरोग,
पथरी और किडनी
संबंधी ऐसी
अनेक
बीमारियाँ
बिना बुलाये आ
जाती हैं।
डॉ. बेंज
ने अपने अनेक
प्रयोगों के
आधार पर तो यहाँ
तक कहा हैः “
मनुष्य में
क्रोध,
उद्दंडता,
आवेग, अविवेक,
अमानुषता,
अपराधिक
प्रवृत्ति
तथा कामुकता
जैसे दुष्ट
कर्मों को
भड़काने में
मांसाहार का
अत्यंत
महत्त्वपूर्ण
हाथ होता है
क्योंकि मांस
लेने के लिए
जब पशुओं की
हत्या की जाती
है उस समय
उनमें आये हुए
भय, क्रोध,
चिंता, खिन्नता
आदि का प्रभाव
मांसाहार
करने वाले
व्यक्तियों
पर अवश्य
पड़ता है। “
अमेरिका
की स्टेट
यूनि. ऑफ
न्यूयार्क,
बफैलो में
किये हुए अनेक
शोध के
परिणामस्वरूप
वहाँ के
विशेषज्ञों
ने कहा हैः “ अमेरिका
में हर साल 47000 से
भी ज़्यादा
ऐसे बालक जन्म
लेते हैं,
जिनके
माता-पिता के
मांसाहारी होने
के कारण
बालकों को
जन्मजात अनेक
घातक बीमारियाँ
लगी हुई होती
हैं। “
मांसाहार
से होने वाले
घातक
परिणामों के
विषय में
प्रत्येक
धर्मग्रंथ
में बताया गया
है। मांसाहार
का विरोध
आर्यद्रष्टा
ऋषियों ने,
संतों-कथाकारों
ने सत्संग में
भी किया है,
यही विरोध अभी
विज्ञान के
क्षेत्र में
भी हुआ है।
फिर भी, अगर
आपको
मांसाहार
करना हो, अपनी
आने वाली
पीढ़ी को
कैन्सरग्रस्त
करना हो, अपने
को बीमारियों
का शिकार
बनाना हो तो आपकी
इच्छा। अगर
आपको अशांत,
खिन्न, तामसी
होकर जल्दी
मरना हो तो
करो मांसाहार!
नहीं तो आज ही हिम्मत
करके संकल्प
करो और
मांसाहार
छोड़ दो।
चाकलेट
का नाम सुनते
ही बच्चों में
गुदगुदी न हो,
ऐसा हो ही
नहीं सकता।
बच्चों को खुश
करने का
प्रचलित साधन
है चाकलेट।
बच्चों में ही
नहीं, वरन्
किशोरों तथा
युवा वर्ग में
भी चाकलेट ने
अपना विशेष
स्थान बना रखा
है। पिछले कुछ
समय से
टॉफियों तथा
चाकलेटों का निर्माण
करने वाली
अनेक
कंपनियों
द्वारा अपने
उत्पादों में
आपत्तिजनक
अखाद्य पदार्थ
मिलाये जाने
की खबरे सामने
आ रही हैं। कई
कंपनियों के
उत्पादों में
तो हानिकारक
रसायनों के
साथ-साथ गायों
की चर्बी
मिलाने तक की
बात का
रहस्योदघाटन
हुआ है।
गुजरात
के समाचार
पत्र गुजरात
समाचार में प्रकाशित
एक समाचार के
अनुसार
नेस्ले
यू.के.लिमिटेड
द्वारा
निर्मित
किटकेट नामक
चाकलेट में
कोमल बछड़ों
के रेनेट
(मांस) का
उपयोग किया
जाता है। यह
बात किसी से
छिपी नहीं है
कि किटकेट
बच्चों में
खूब लोकप्रिय
है। अधिकतर
शाकाहारी
परिवारों में
भी इसे खाया
जाता है।
नेस्ले
यू.के.लिमिटेड
की
न्यूट्रिशन
आफिसर
श्रीमति वाल
एन्डर्सन ने
अपने एक पत्र
में बतायाः “
किटकेट के
निर्माण में
कोमल बछड़ों
के रेनेट का
उपयोग किया
जाता है। फलतः
किटकेट
शाकाहारियों
के खाने योग्य
नहीं है। “ इस
पत्र को
अन्तर्राष्टीय
पत्रिका यंग
जैन्स में
प्रकाशित
किया गया था।
सावधान रहो,
ऐसी कंपनियों
के कुचक्रों
से! टेलिविज़न
पर अपने
उत्पादों को
शुद्ध दूध से
बनते हुए
दिखाने वाली
नेस्ले
लिमिटेड के इस
उत्पाद में
दूध तो नहीं
परन्तु दूध
पीने वाले
अनेक कोमल
बछड़ों के
मांस की
प्रचुर
मात्रा अवश्य
होती है।
हमारे धन को
अपने देशों
में ले जाने
वाली ऐसी अनेक
विदेशी
कंपनियाँ
हमारे सिद्धान्तों
तथा
परम्पराओं को
तोड़ने में भी
कोई कसर नहीं
छोड़ रही हैं।
व्यापार तथा
उदारीकरण की
आड़ में
भारतवासियों
की भावनाओं के
साथ खिलवाड़
हो रहा है।
हालैण्ड
की एक कंपनी
वैनेमैली
पूरे देश में
धड़ल्ले से
फ्रूटेला
टॉफी बेच रही।
इस टॉफी में
गाय की
हड्डियों का
चूरा मिला
होता है, जो कि
इस टॉफी के
डिब्बे पर स्पष्ट
रूप से अंकित
होता है। इस
टॉफी में
हड्डियों के
चूर्ण के
अलावा डालडा,
गोंद, एसिटिक
एसिड तथा चीनी
का मिश्रण है,
ऐसा डिब्बे पर
फार्मूले
(सूत्र) के रूप
में अंकित है।
फ्रूटेला
टॉफी ब्राजील
में बनाई जा
रही है तथा इस
कंपनी का
मुख्यालय
हालैण्ड के
जुडिआई शहर में
है।
आपत्तिजनक
पदार्थों से
निर्मित यह टॉफी
भारत सहित
संसार के अनेक
अन्य देशों
में भी
धड़ल्ले से
बेची जा रही
है।
चीनी की
अधिक मात्रा
होने के कारण
इन टॉफियों को
खाने से बचपन
में ही दाँतों
का सड़ना
प्रारंभ हो
जाता है तथा
डायबिटीज़
एवं गले की
अन्य
बीमारियों के
पैदा होने की
संभावना रहती
है। हड्डियों
के मिश्रण एवं
एसिटिक एसिड
से कैंसर जैसे
भयानक रोग भी
हो सकते हैं।
सन् 1847 में
अंग्रजों ने
कारतूसों में
गायों की चर्बी
का प्रयोग
करके सनातन
संस्कृति को
खण्डित करने
की साजिश की
थी, परन्तु
मंगल पाण्डेय
जैसे वीरों ने
अपनी जान पर
खेलकर उनकी इस
चाल को असफल
कर दिया। अभी
फिर यह नेस्ले
कंपनी चालें
चल रही है। अभी
मंगल पाण्डेय
जैसे वीरों की
ज़रूरत है। ऐसे
वीरों को आगे
आना चाहिए।
लेखकों, पत्रकारों
को सामने आना
चाहिए।
देशभक्तों को
सामने आना
चाहिए। देश को
खण्ड-खण्ड
करने के मलिन
मुरादेवालों
और हमारी
संस्कृति पर
कुठाराघात
करने वालों के
सबक सिखाना
चाहिए। देव
संस्कृति
भारतीय समाज
की सेवा में
सज्जनों को साहसी
बनना चाहिए।
इस ओर सरकार
का भी ध्यान
खिंचना
चाहिए।
ऐसे
हानिकारक
उत्पादों के
उपभोग को बंद
करके ही हम
अपनी
संस्कृति की
रक्षा कर सकते
हैं। इसलिए
हमारी
संस्कृति को
तोड़नेवाली
ऐसी कंपनियों
के उत्पादों
के बहिष्कार
का संकल्प लेकर
आज और अभी से
भारतीय
संस्कृति की
रक्षा में हम
सबको
कंधे-से-कंधा
मिलाकर आगे
आना चाहिए।
आजकल
बाजार में
बिकने वाले
अधिकांश
टूथपेस्टों
में फलोराइड
नामक रसायन का
प्रयोग किया जाता
है। यह रसायन
शीशे तथा
आरसेनिक जैसा
विषैला होता
है। इसकी
थोड़ी-सी
मात्रा भी यदि
पेट में पहुँच
जाए तो कैंसर
जैसे रोग पैदा
हो सकते हैं।
अमेरिका
के खाद्य एवं
स्वास्थ्य
विभाग ने फ्लोराइड
का दवाओं में
प्रयोग
प्रतिबंधित
किया है।
फ्लोराइड से
होने वाली
हानियों से
संबंधित कई
मामले अदालत
तक भी पहुँचे
हैं। इसेक्स (इंग्लैण्ड)
के 10 वर्षीय
बालक के
माता-पिता को
कोलगेट
पामोलिव
कंपनी द्वारा
264 डॉलर का
भुगतान किया
गया क्योंकि
उनके पुत्र को
कोलगेट के
प्रयोग से
फ्लोरोसिस
नामक दाँतों
की बीमारी लग
गयी थी।
अमेरिका
के नेशनल
कैंसर
इन्स्टीच्यूट
के प्रमुख
रसायनशास्त्री
द्वारा किये
गये एक शोध के
अनुसार
अमेरिका में
प्रतिवर्ष 10
हजार से भी
ज़्यादा लोग
फ्लोराइड से
उत्पन्न
कैंसर के कारण
मृत्यु को प्राप्त
होते हैं।
टूथपेस्टों
में फ्लोराइड
की उपस्थिति
चिंताजनक है,
क्योंकि यह
मसूड़ों के
अंदर चला जाता
है तथा अनेक
खतरनाक रोग
पैदा करता है।
छोटे बच्चे तो
टूथपेस्ट को
निगल भी लेते
हैं। फलतः
उनके लिए तो
यह अत्यंत घातक
हो जाता है।
टूथपेस्ट
बनाने में
पशुओं की हड्डी
के चूरे का
प्रयोग किया
जाता है।
हमारे
पूर्वज
प्राचीन समय
से ही नीम तथा
बबूल की दातुन
का उपयोग करते
रहे हैं।
दातुन करने से
अपने-आप मुँह
में लार बनती
है जो भोजन को
पचाने में
सहायक है एवं
आरोग्य की
रक्षा करती है।
जहाँ तक
संभव हो, दाँत
साफ करने के
लिए बाजारू टूथब्रशों
तथा
टूथपेस्टों
का उपयोग नहीं
करना चाहिए।
टूथब्रशों के
कड़े,
छोटे-बड़े तथा
नुकीले रोम
दाँतों पर लगे
झिल्लीनुमा
प्राकृतिक
आवरण को नष्ट
कर देते हैं,
जिससे दाँतों
की प्राकृतिक
चमक चली जाती
है और उनमें
कीड़े लगने
लगते हैं।
अधिकतर
टूथपेस्ट भी
दाँतों के लिए
लाभदायक नहीं
होते। कुछ
टूथपेस्टों
में हड्डियों
का पावडर
मिलाये जाने
की बातों का
रहस्योदघाटन
हुआ है। कई
विदेशी
कंपनियाँ तो
धन बटोरने के
लिए न सिर्फ
उपभोक्ताओं
के स्वास्थ्य
के साथ
खिलवाड़ कर
रही हैं वरन्
कानून का भी
उल्लंघन करती
जा रही हैं।
पाञ्चजन्य
नामक समाचार
पत्र में
दिनांक 17
जनवरी 1999 को
प्रकाशित एक
समाचार के
अनुसार
भारतीय खाद्य
एवं दवा
प्राधिकरण ने
हिन्दुस्तान
लीवर,
प्रोक्टर एण्ड
गैम्बल और
कोलगेट
पामोलिव को
नोटिस भेजकर
पूछा कि, “ उन्होंने
अपने
टूथपेस्ट तथा
शैम्पू के
बारे में
चिकित्सा
संबंधी दावे
क्यों किये
जबकि उन्हे तो
सिर्फ
सौन्दर्य-प्रसाधन
संबंधी दावे
करने की ही
अनुमति है। “
इस
प्रकार के
टूथपेस्ट
अथवा टूथब्रश
मँहगे होने के
साथ-साथ
हानिप्रद भी
होते हैं।
इन्हीं
उत्पादों
द्वारा
विदेशी
कंपनियाँ
भारत से अरबों
की सम्पत्ति
को लूटकर अपने
देशों में ले
जा रही हैं।
अतः सुरक्षित
तथा सस्ते
साधनों का ही
उपयोग करना
चाहिए।
भारतीय
जनता की
संस्कृति और
स्वास्थ्य को
हानि
पहुँचाने का
यह एक विराट
षडयंत्र है।
अंडे के
भ्रामक प्रचार
से आज से
दो-तीन दशक
पहले जिन
परिवारों को रास्ते
पर पड़े अण्डे
के खोल के
प्रति भी
ग्लानि का भाव
था, इसके
विपरीत उन
परिवारों में
आज अंडे का
इस्तेमाल
सामान्य बात
हो गयी है।
अंडे
अपने अवगुणों
से हमारे शरीर
के जितने
ज़्यादा
हानिकारक और
विषैले हैं
उन्हें प्रचार
माध्यमों
द्वारा उतना
ही अधिक
फायदेमंद
बताकर इस जहर
को आपका भोजन
बनानो की
साजिश की जा
रही है।
अण्डा
शाकाहारी
नहीं होता
लेकिन क्रूर
व्यावसायिकता
के कारण उसे
शाकाहारी
सिद्ध किया जा
रहा है।
मिशिगन
यूनिवर्सिटी
के वैज्ञानिकों
ने पक्के तौर
पर साबित कर
दिया है कि
दुनिया में
कोई भी अण्डा
चाहे वह सेया
गया हो या
बिना सेया हुआ
हो, निर्जीव
नहीं होता। अफलित
अण्डे की सतह
पर प्राप्त
इलैक्ट्रिक
एक्टिविटी को
पोलीग्राफ पर
अंकित कर
वैज्ञानिकों
ने यह साबित
कर दिया है कि
अफलित अण्डा
भी सजीव होता
है। अण्डा
शाकाहार नहीं,
बल्कि मुर्गी
का दैनिक (रज)
स्राव है।
यह सरासर
गलत व झूठ है
कि अण्डे में
प्रोटीन, खनिज,
विटामिन और
शरीर के लिए
जरूरी सभी
एमिनो एसिडस
भरपूर हैं और
बीमारों के
लिए पचने में
आसान है।
शरीर की
रचना और
स्नायुओं के
निर्माण के लिए
प्रोटीन की
जरूरत होती
है। उसकी
रोजाना आवश्यकता
प्रति
कि.ग्रा. वजन
पर 1 ग्राम
होती है यानि 60
किलोग्राम
वजन वाले
व्यक्ति को
प्रतिदिन 60
ग्राम
प्रोटीन की
जरूरत होती है
जो 100 ग्राम अण्डे
से मात्र 13.3
ग्राम ही
मिलता है।
इसकी तुलना
में प्रति 100
ग्राम सोयाबीन
से 43.2 ग्राम,
मूँगफली से 31.5
ग्राम, मूँग
और उड़द से 24, 24
ग्राम तथा
मसूर से 25.1
ग्राम
प्रोटीन प्राप्त
होता है।
शाकाहार में
अण्डा व
मांसाहार से
कहीं अधिक
प्रोटीन होते
हैं। इस बात
को अनेक
पाश्चात्य
वैज्ञानिकों
ने प्रमाणित
किया है।
केलिफोर्निया
के डियरपार्क
में सेंट
हेलेना
हॉस्पिटल के
लाईफ स्टाइल
एण्ड
न्यूट्रिशन
प्रोग्राम के
निर्देशक डॉ.
जोन ए.
मेक्डूगल का
दावा है कि
शाकाहार में
जरूरत से भी
ज्यादा
प्रोटीन होते
हैं।
1972 में
हार्वर्ड
यूनिवर्सिटी
के ही डॉ. एफ.
स्टेर ने
प्रोटीन के
बारे में
अध्ययन करते
हुए
प्रतिपादित
किया कि
शाकाहारी
मनुष्यों में से
अधिकांश को हर
रोज की जरूरत
से दुगना
प्रोटीन अपने
आहार से मिलता
है। 200 अण्डे
खाने से जितना
विटामिन सी
मिलता है उतना
विटामिन सी एक
नारंगी
(संतरा) खाने
से मिल जाता
है। जितना
प्रोटीन तथा
कैल्शियम
अण्डे में हैं
उसकी अपेक्षा
चने, मूँग, मटर
में ज्यादा
है।
ब्रिटिश
हेल्थ
मिनिस्टर
मिसेज एडवीना
क्यूरी ने
चेतावनी दी कि
अण्डों से मौत
संभावित है
क्योंकि
अण्डों में
सालमोनेला
विष होता है जो
कि स्वास्थ्य
की हानि करता
है। अण्डों से
हार्ट अटैक की
बीमारी होने
की चेतावनी नोबेल
पुरस्कार
विजेता
अमेरिकन डॉ.
ब्राउन व डॉ.
गोल्डस्टीन
ने दी है
क्योंकि
अण्डों में
कोलेस्ट्राल भी
बहुत पाया
जाता है.
डॉ. पी.सी.
सेन,
स्वास्थ्य
मंत्रालय,
भारत सरकार ने
चेतावनी दी है
कि अण्डों से
कैंसर होता है
क्योंकि
अण्डों में
भोजन तंतु
नहीं पाये जाते
हैं तथा इनमें
डी.डी.टी. विष
पाया जाता है।
जानलेवा
रोगों की जड़
हैः अण्डा।
अण्डे व दूसरे
मांसाहारी
खुराक में
अत्यंत जरूरी
रेशातत्त्व
(फाईबर्स) जरा
भी नहीं होते
हैं। जबकि हरी
साग, सब्जी,
गेहूँ, बाजरा,
मकई, जौ, मूँग,
चना, मटर, तिल,
सोयाबीन,
मूँगफली
वगैरह में ये
काफी मात्रा
में होते हैं।
अमेरिका
के डॉ. राबर्ट
ग्रास की
मान्यता के अनुसार
अण्डे से
टी.बी. और
पेचिश की
बीमारी भी हो जाती
है। इसी तरह
डॉ. जे. एम.
विनकीन्स
कहते हैं कि
अण्डे से
अल्सर होता
है।
मुर्गी
के अण्डों का
उत्पादन बढ़े
इसके लिये उसे
जो हार्मोन्स
दिये जाते हैं
उनमें स्टील
बेस्टेरोल
नामक दवा
महत्त्वपूर्ण
है। इस
दवावाली
मुर्गी के
अण्डे खाने से
स्त्रियों को
स्तन का
कैंसर, हाई
ब्लडप्रैशर,
पीलिया जैसे
रोग होने की
सम्भावना
रहती है। यह दवा
पुरूष के
पौरूषत्व को
एक निश्चित
अंश में नष्ट
करती है।
वैज्ञानिक
ग्रास के
निष्कर्ष के
अनुसार अण्डे
से खुजली जैसे
त्वचा के लाइलाज
रोग और लकवा
भी होने की
संभावना होती
है।
अण्डे के
गुण-अवगुण का
इतना सारा
विवरण पढ़ने के
बाद
बुद्धिमानों
को उचित है कि
अनजानों को इस
विष के सेवन
से बचाने का
प्रयत्न
करें। उन्हें
भ्रामक
प्रचार से
बचायें।
संतुलित शाकाहारी
भोजन लेने
वाले को अण्डा
या अन्य मांसाहारी
आहार लेने की
कोई जरूरत
नहीं है। शाकाहारी
भोजन सस्ता,
पचने में आसान
और आरोग्य की
दृष्टि से
दोषरहित होता
है। कुछ दशक
पहले जब भोजन
में अण्डे का
कोई स्थान
नहीं था तब भी हमारे
बुजुर्ग
तंदरूस्त
रहकर लम्बी
उम्र तक जीते
थे। अतः अण्डे
के उत्पादकों
और भ्रामक प्रचार
की चपेट में न
आकर हमें उक्त
तथ्यों को
ध्यान में
रखकर ही अपनी
इस शाकाहारी
आहार संस्कृति
की रक्षा करनी
होगी।
आहार
शुद्धौ सत्व
शुद्धिः।
1981 में
जामा पत्रिका
में एक खबर
छपी थी। उसमें
कहा गया था कि
शाकाहारी भोजन
60 से 67 प्रतिशत
हृदयरोग को
रोक सकता है।
उसका कारण यह
है कि अण्डे
और दूसरे
मांसाहारी
भोजन में
चर्बी (
कोलेस्ट्राल)
की मात्रा
बहुत ज्यादा
होती है।
केलिफोर्निया
की डॉ. केथरीन
निम्मो ने
अपनी पुस्तक
हाऊ हेल्दीयर
आर एग्ज़ में
भी अण्डे के दुष्प्रभाव
का वर्णन किया
गया है।
वैज्ञानिकों
की इन
रिपोर्टों से
सिद्ध होता है
कि अण्डे के
द्वारा हम जहर
का ही सेवन कर
रहे हैं। अतः
हमको
अपने-आपको
स्वस्थ रखने व
फैल रही
जानलेवा
बीमारीयों से
बचने के लिए
ऐसे आहार से
दूर रहने का
संकल्प करना
चाहिए व
दूसरों को भी
इससे बचाना
चाहिए।
क्या
आपको छिपकली,
तेजाब जैसी
गंदी तथा
जलाने वाली
वस्तुएँ मुँह
में डालनी
अच्छी लगती
हैं? नहीं ना?
क्योंकि
गुटका,
पान-मसाला में
ऐसी वस्तुएँ
डाली जाती
हैं।
अनेक
अनुसंधानों
से पता चला है
कि हमारे देश
में कैंसर से
ग्रस्त
रोगियों की
संख्या का एक
तिहाई भाग
तम्बाकू तथा
गुटखे आदि का
सेवन करने
वाले लोगों का
है। गुटखा खाने
वाले व्यक्ति
की साँसों में
अत्यधिक दुर्गन्ध
आने लगती है
तथा चूने के
कारण मसूढ़ों
के फूलने से
पायरिया तथा
दंतक्षय आदि
रोग उत्पन्न
होते हैं।
इसके सेवन से
हृदय रोग, रक्तचाप,
नेत्ररोग तथा
लकवा, टी.बी
जैसे भयंकर रोग
उत्पन्न हो
जाते हैं।
तम्बाकू
में निकोटिन
नाम का एक अति
विषैला तत्त्व
होता है जो
हृदय, नेत्र
तथा मस्तिष्क
के लिए
अत्यन्त घातक
होता है। इसके
भयानक दुष्प्रभाव
से अचानक
आँखों की
ज्योति भी चली
जाती है।
मस्तिष्क में नशे
के प्रभाव के
कारण तनाव
रहने से
रक्तचाप उच्च
हो जाता है।
व्यसन
हमारे जीवन को
खोखला कर
हमारे शरीर को
बीमारियों का
घर बना देते
हैं। प्रारंभ
में झूठा मजा
दिलाने वाले
ये मादक
पदार्थ
व्यक्ति के
विवेक को हर
लेते हैं तथा
बाद में अपना
गुलाम बना
लेते हैं और
अन्त में
व्यक्ति को
दीन-हीन,
क्षीण करके
मौत की कगार
तक पहुँचा
देते हैं.
जीवन के
उन अंतिम
क्षणों में जब
व्यक्ति को इन
भयानकताओं का
ख्याल आता है
तब बहुत देर
हो चुकी होती
है। इसलिए हे
बालको! गुटका
और पान-मसाले
के मायाजाल
में फँसे बिना
भगवान की इस
अनमोल देन
मनुष्य-जीवन
को परोपकार,
सेवा, संयम,
साधना द्वारा
उन्नत बनाओ।
22 अप्रैल
को आगरा से
प्रकाशित
समाचार पत्र
दैनिक जागरण
में दिनांक 21
अप्रैल 1999 को
वाशिंगटन (अमेरिका)
में घटी एक
घटना
प्रकाशित हुई
थी। इस घटना
के अनुसार
किशोर उम्र के
दो स्कूली
विद्यार्थियों
ने डेनवर
(कॉलरेडो) में
दोपहर को भोजन
की आधी छुट्टी
के समय में
कोलंबाइन हाई
स्कूल की
पुस्तकालय
में घुसकर
अंधाधुंध गोलीबारी
की, जिससे
कम-से-कम 25
विद्यार्थियों
की मृत्यु
हुई, 20 घायल
हुए।
विद्यार्थियों
की हत्या के
बाद गोलीबारी
करने वाले
किशोरों ने
स्वयं को भी
गोलियाँ
मारकर अपने को
भी मौत के घाट
उतार दिया।
हॉलीवुड की
मारा-मारीवाली
फिल्मी ढंग से
हुए इस
अभूतपूर्व
कांड के पीछे
भी चलचित्र ही
(फिल्म) मूल
प्रेरक
तत्त्व है, यह
बहुत ही
शर्मनाक बात
है।
भारतवासियों
को ऐसे सुधरे
हुए राष्ट्र
और आधुनिक
कहलाये जाने
वाले लोगों से
सावधान रहना
चाहिए।
सिनेमा-टेलिविज़न
का दुरूपयोग
बच्चों के लिए
अभिशाप रूप
है। चोरी,
दारू,
भ्रष्टाचार,
हिंसा,
बलात्कार,
निर्लज्जता
जैसे
कुसंस्कारों से
बाल-मस्तिष्क
को बचाना
चाहिए। छोटे
बच्चों की
आँखों की
ऱक्षा करनी
जरूरी है।
इसलिए टेलिविज़न,
विविध चैनलों
का उपयोग
ज्ञानवर्धक
कार्यक्रम,
आध्यात्मिक
उन्नति के लिए
कार्यक्रम, पढ़ाई
के लिए
कार्यक्रम
तथा
प्राकृतिक
सौन्दर्य
दिखाने वाले
कार्यक्रमों
तक ही मर्यादित
करना चाहिए।
एक सर्वे
के अनुसार तीन
वर्ष का बच्चा
जब टी.वी.
देखना शुरू
करता है और उस
घर में केबल
कनैक्शन पर 12-13
चैनल आती हों
तो, हर रोज पाँच
घंटे के हिसाब
से बालक 20 वर्ष
का हो तब तक इसकी
आँखें 33000 हत्या
और 72000 बार
अश्लीलता और
बलात्कार के
दृश्य देख
चुकी होंगी।
यहाँ एक
बात गंभीरता
से विचार करने
की है कि मोहनदास
करमचंद गाँधी
नाम का एक छोटा
सा बालक एक या
दो बार
हरिश्चन्द्र
का नाटक देखकर
सत्यवादी बन
गया और वही
बालक महात्मा
गाँधी के नाम
से आज भी पूजा
जा रहा है।
हरिश्चन्द्र
का नाटक जब
दिमाग पर इतनी
असर करता है
कि उस व्यक्ति
को जिंदगी भर
सत्य और
अहिंसा का पालन
करने वाला बना
दिया, तो जो
बालक 33 हजार
बार हत्या और 72
हजार बार
बलात्कार का
दृश्य देखेगा
तो वह क्या
बनेगा? आप भले
झूठी आशा रखो
कि आपका बच्चा
इन्जीनियर
बनेगा,
वैज्ञानिक
बनेगा, योग्य
सज्जन बनेगा, महापुरूष
बनेगा परन्तु
इतनी बार
बलात्कार और
इतनी हत्याएँ
देखने वाला
क्या खाक
बनेगा? आप ही
दुबारा
विचारें।
1.
कुछ बच्चे
पीठ के बल
सीधे सोते
हैं। अपने
दोनों हाथ
ढीले छोड़कर
या पेट पर रख
लेते हैं। यह
सोने का सबसे
अच्छा और
आदर्श तरीका
है। प्रायः इस
प्रकार सोने
वाले बच्चे
अच्छे
स्वास्थ्य के
स्वामी होते
हैं। न कोई
रोग न कोई
मानसिक चिंता।
इन बच्चों का
विकास अधिकतर
रात्रि में होता
ही है।
2.
कुछ बच्चे
सोते वक्त
अपने दोनों
हाथ उठाकर सिर
पर ऱख लेते
हैं। इस
प्रकार शांति
और आराम प्रदर्शित
करने वाला
बच्चा अपने
वातावरण से संतोष,
शांति चाहता
है। अतः बड़ा
होने पर उसे
किसी
जिम्मेदारी
का काम एकदम न
सौंप दे,
क्योकि ऐसे
बच्चे प्रायः
कमजोर संकल्पशक्तिवाले
होते हैं। उसे
बचपन से ही
अपना काम स्वयं
करने का
अभ्यास
करवायें ताकि
धीरे-धीरे
उसके अंदर
संकल्पशक्ति
और
आत्मविश्वास
पैदा हो जाए।
3.
कुछ बच्चे
पेट के बल
लेटकर अपना
मुँह तकिये पर
इस प्रकार रख
लेते हैं मानो
तकिये को
चुम्बन कर रहे
हों। यह स्नेह
का प्रतीक है।
उनकी यह
चेष्टा बताती
है कि बच्चा
स्नेह का भूखा
है। वह प्यार
चाहता है।
उससे खूब
प्यार करें,
प्यारभरी
बातों से उसका
मन बहलायें।
उसको प्यार की
दौलत मिल गयी
तो उसकी इस
प्रकार सोने
की आदत
अपने-आप दूर
हो जाएगी।
4.
कुछ बच्चे
तकिये से
लिपटकर या
तकिये को सिर
के ऊपर रखकर
सोते हैं। यह
बताता है कि
बच्चे के मस्तिष्क
में कोई गहरा
भय बैठा हुआ
है। बड़े प्यार
से छुपा हुआ
भय जानने और
उसे दूर करने
का शीघ्रातिशीघ्र
प्रयत्न करें
ताकि बच्चे का
उचित विकास
हो। किसी
सदगुरू से
प्रणव का मंत्र
दिलवाकर जाप
करावें ताकि
उसका भावि
जीवन किसी भय
से प्रभावित न
हो।
5.
कुछ बच्चे
करवट लेकर
दोनों पाँव
मोड़कर सोते हैं।
ऐसे बच्चे
अपने बड़ों से
सहानुभूति और
सुरक्षा के
अभिलाषी होते
हैं। स्वस्थ
और शक्तिशाली
बच्चे भी इस
प्रकार सोते
हैं। उन बच्चों
को बड़ों से
अधिक स्नेह और
प्यार मिलना
चाहिए।
6.
कुछ बच्चे
तकिये या
बिस्तर की
चादर में
छुपकर सोते
हैं। यह इस
बात का संकेत
है कि वे
लज्जित हैं।
अपने वातावरण
से प्रसन्न
नहीं हैं। घर
में या बाहर
उनके मित्रों
के साथ ऐसी
बाते हो रहीं
हैं, जिनसे वे
संतुष्ट या
प्रसन्न नहीं
हैं। उनसे ऐसा
कोई शारीरिक
दोष, कुकर्म
या कोई ऐसी छोटी-मोटी
गलती हो गयी
है जिसके कारण
वे मुँह दिखाने
के काबिल नहीं
हैं। उनको उस
ग्लानि से मुक्त
कीजिए। उनको
चारित्र्यवान
और साहसी बनाइये.
7.
कुछ बच्चे
तकिय, चादर और
बिस्तर तक
रौंद डालते
हैं। कैसी भी
ठंडी या गर्मी
हो, वे बड़ी
कठिनाई से
रजाई या चादर
आदि ओढ़ना सहन
करते हैं। वे
एक जगह जमकर
नहीं सोते,
पूरे बिस्तर
पर लोट-पोट
होते हैं।
माता-पिता और
अन्य लोगों पर
अपना हुकुम
चलाने का
प्रयत्न करते
हैं। ऐसे
बच्चे दबाव या
जबरदस्ती कोई
काम नहीं करेंगे।
बहुत ही स्नेह
से, युक्ति से
उनका सुधार
होना चाहिए।
8.
कुछ बच्चे
तकिये या चादर
से अपना पूरा
शरीर ढंककर
सोते हैं।
केवल एक हाथ
बाहर निकालते
हैं। यह इस
बात का प्रतीक
है कि बच्चा
घर के ही किसी व्यक्ति
या मित्र आदि
से सख्त
नाराज़ रहता
है। वह किसी
भीतरी दुविधा
का शिकार है।
ऐसे बच्चों का
गहरा मन चाहता
है कि कोई
उनकी बातें और
शिकायतें
बैठकर सहानुभूति
से सुने, उनकी
चिंताओं का
निराकरण करे।
ऐसे
बच्चों के
गुस्से का भेद
प्यार से
मालूम कर लेना
चाहिए, उनको
समझा-बुझाकर
उनकी रूष्टता दूर
करने का
प्रयत्न करना
चाहिए।
अन्यथा ऐसे बच्चे
आगे चलकर बहुत
भावुक और क्रोधी
हो जाते हैं,
जरा-जरा सी
बात पर भड़क
उठते हैं।
ऐसे
बच्चे
चबा-चबाकर
भोजन करें,
ऐसा ध्यान रखना
चाहिए।
गुस्सा आये तब
हाथ की
मुट्ठियाँ इस
प्रकार भीँच
देनी चाहिए
ताकि नाखूनों
का बल हाथ की
गद्दी पर
पड़े.... ऐसा
अभ्यास
बच्चों में डालना
चाहिए। ॐ शांतिः
शांतिः... का
पावन जप करके
पानी में
दृष्टि डालें
और वह पानी
उन्हें
पिलायें।
बच्चे स्वयं
यह करें तो
अच्छा है,
नहीं तो आप
करें।
संसार के
सभी बच्चे इन
आठ तरीकों से
सोते हैं। हर
तरीका उनकी
मानसिक
स्थिति और
आन्तरिक अवस्था
प्रकट करता
है। माता-पिता
उनकी अवस्था
को पहचान कर यथोचित
उनका समाधान
कर दें तो आगे
चलकर ये ही बच्चे
सफल जीवन बिता
सकते हैं।
विद्यार्थीयों,
माता-पिता-अभिभावकों
व राष्ट्र के
कर्णधारों के
नाम
आत्मीय
जन,
हमारे देश
का भविष्य
हमारी युवा
पीढ़ी पर निर्भर
है किन्तु
उचित
मार्गदर्शन
के अभाव में
वह आज गुमराह
हो रही है।
पाश्चात्य
भोगवादी
सभ्यता के
दुष्प्रभाव
से उसके यौवन
का ह्रास होता
जा रहा है।
दूरदर्शन,
विदेशी चैनल,
चलचित्र,
अश्लील
साहित्य आदि
प्रचार
माध्यमों के
द्वारा
युवक-युवतियों
को गुमराह
किया जा रहा
है। विभिन्न
सामयिकों और
समाचार
पत्रों में भी
तथाकथित
पाश्चात्य
मनोविज्ञान
से प्रभावित
मनोचिकित्सक
और सेक्सोलॉजिस्ट
युवा
छात्र-छात्राओं
को चरित्र,
संयम और
नैतिकता से
भ्रष्ट करने
पर तुले हुए
हैं।
ब्रितानी
औपनिवेशक
संस्कृति की
देन वर्त्तमान
शिक्षा-प्रणाली
में जीवना के
नैतिक मूल्यों
के प्रति
उदासीनता
बरती गयी है।
फलतः आज के
विद्यार्थी
का जीवन
कौमार्यावस्था
से ही विलासी
और असंयमी हो
जाता है।
पाश्चात्य
आचार-व्यवहार
के अंधानुकरण
से युवानों
में जो
फैशनपरस्ती,
अशुद्ध आहार
विहार के सेवन
की प्रवृत्ति,
कुसंग,
अभद्रता,
चलचित्र-प्रेम
आदि बढ़ रहे
हैं उससे
दिनों दिन
उनका पतन होता
जा रहा है। वे
निर्बल और
कामी बनते जा
रहे हैं। उनकी
इस अवदशा को
देखकर ऐसा
लगता है कि वे
ब्रह्मचर्य
की महिमा से
सर्वथा
अनभिज्ञ हैं।
लाखों नहीं,
करोड़ों-करोड़ों
छात्र-छात्राएँ
अज्ञानतावश
अपने तन मन के
मूल
ऊर्जा-स्रोत का
व्यर्थ में
अपक्षय कर
पूरा जीवन
दीनता-हीनता-दुर्बलता
में तबाह कर
देते हैं और
सामाजिक अपयश
के भय से मन ही
मन कष्ट झेलते
रहते हैं। इससे
उनका
शारीरिक-मानसिक
स्वास्थ्य
चौपट हो जाता
है, सामान्य
शारीरिक-मानसिक
विकास भी नहीं
हो पाता। ऐसे
युवान
रक्ताल्पता,
विस्मरण तथा
दुर्बलता से
पीड़ित होते
हैं।
यही वजह
है कि हमारे
देश में
औषधालयों,
चिकत्सालयों,
हजारों
प्रकार की
एलोपैथिक
दवाइयों, इंजैक्शनों
आदि की लगातार
वृद्धि होती
जा रही है।
असंख्य
डॉक्टरों ने
अपनी-अपनी
दुकानें खोल
रखी हैं, फिर
भी रोग एवं
रोगियों की
संख्या बढ़ती
ही जा रही है।
इसका मूल कारण
क्या है?
दुर्व्यसन
तथा अनैतिक,
अप्राकृतिक
एवं अमर्यादित
मैथुन द्वारा
वीर्य की
क्षति ही इसका
मूल कारण है।
इसकी कमी से
रोग-प्रतिकारक
शक्ति घटती
है, जीवन
शक्ति का
ह्रास होता
है।
इस देश
को यदि
जगदगुरू के पद
आसीन होना है,
विश्व-सभ्यता
एवं
विश्व-संस्कृति
का सिरमौर
बनना है, उन्नत
स्थान फिर से
प्राप्त करना
है तो यहाँ की सन्तानों
को चाहिए कि
वे
ब्रह्मचर्य
के महत्त्व को
समझें और सतत्
सावधान रहकर
सख्ती से इसका
पालन करें।
ब्रह्मचर्य
के द्वारा ही
हमारी युवा
पीढ़ी अपने
व्यक्तित्व
का संतुलित एवं
श्रेष्ठतर
विकास कर सकती
है।
ब्रह्मचर्य
के पालन से
बुद्धि
कुशाग्र बनती
है, रोग-प्रतिकारक
शक्ति बढ़ती
है तथा
महान-से-महान
लक्ष्य
निर्धारित
करने एवं उसे
सम्पादित
करने का उत्साह
उभरता है,
संकल्प में
दृढ़ता आती
है, मनोबल
पुष्ट होता
है।
आध्यात्मिक
विकास का मूल
भी
ब्रह्मचर्य
ही है। हमारा
देश औद्योगिक,
तकनीकी और
आर्थिक
क्षेत्र में
चाहे कितना भी
विकास कर ले,
समृद्धि
प्राप्त कर ले
फिर भी यदि
युवाधन की
सुरक्षा न हो
पायी तो यह भी
भौतिक विकास
अंत में
महाविनाश की
ओर ही ले
जाएगा। क्योंकि
संयम, सदाचार
आदि के
परिपालन से ही
कोई भी
सामाजिक
व्यवस्था
सुचारू रूप से
चल सकती है।
अतः भारत का
सर्वांगीण
विकास सच्चरित्र
एवं संयमी
युवाधन पर ही
आधारित है।
अतः
हमारे युवाधन
छात्र-छात्राओं
को ब्रह्मचर्य
में
प्रशिक्षित
करने के लिए
उन्हें यौन-स्वास्थ्य,
आरोग्यशास्त्र,
दीर्घायु-प्राप्ति
के उपाय तथा
कामवासना
नियंत्रित
करने की विधि
का स्पष्ट
ज्ञान प्रदान
करना हम सबका
अनिवार्य
कर्त्तव्य
है। इसकी
अवहेलना
हमारे देश व
समाज के हित
में नहीं है।
यौवन सुरक्षा
से ही सुदृढ़
राष्ट्र का
निर्माण हो
सकता है।
जिन
विद्यार्थियों
को यौवन
सुरक्षा
पुस्तक पढ़ने
से कुछ लाभ
हुआ है उनके
ही कुछ उदगारः
“ आश्रम
द्वारा
प्रकाशित यौवन
सुरक्षा
पुस्तक पढ़ने
से मेरी
दृष्टि
अमीदृष्टि हो
गयी। पहले
परस्त्री को
एवं हमउम्र की
लड़कियों को
देखकर मेरे मन
में वासना और
कुदृष्टि का भाव
पैदा होता था
लेकिन यह पुस्तक
पढ़कर मुझे
जानने को मिला
कि स्त्री एक
वासनापूर्ति
की वस्तु नहीं
है, परन्तु
शुद्ध प्रेम
और शुद्ध
भावपूर्वक
जीवनभर साथ
रहने वाली एक
शक्ति है।
सचमुच इस यौवन
सुरक्षा
पुस्तक को
पढ़कर मेरे
अन्दर की
वासना उपासना में
बदल गयी है। “
-
रवीन्द्र
रतिभाई
मकवाणा
एम.
के. जमोह
हाईस्कूल, भावनगर
(गुज.).
“ यह यौवन
सुरक्षा एक
पुस्तक नहीं
अपितु एक
शिक्षा ग्रंथ
है, जिससे हम
विद्यार्थियों
को संयमी जीवन
जीने की
प्रेरणा
मिलती है। सचमुच,
इस अनमोल
ग्रंथ को
पढ़कर एक
अदभुत
प्रेरणा तथा
उत्साह मिलता
है। मैंने इस
पुस्तक में कई
ऐसी बातें
पढ़ीं जो शायद
ही कोई हम
बालकों को बता
व समझा सके।
ऐसी शिक्षा
मुझे आज तक
किसी दूसरी
पुस्तक से
नहीं मिली।
मैं इस पुस्तक
को जनसाधारण
तक पहुँचाने
वालों को
धन्यवाद देता हूँ
तथा उन
महापुरूष
महामानव को
शत्-शत्
प्रणाम करता
हूँ जिनकी
प्रेरणा तथा
आशीर्वाद से
इस पुस्तक की
रचना हुई। “
-
हरप्रीत सिंह
अवतार सिंह
कक्षा
– 9, राजकीय
हाईस्कूल, सेक्टर
– 25, चण्डीगढ़।
भूलो
सभी को मगर,
माँ-बाप को
भूलना नहीं।
उपकार
अगणित हैं
उनके, इस बात
को भूलना
नहीं।।
पत्थर
पूजे कई
तुम्हारे,
जन्म के खातिर
अरे।
पत्थर
बन माँ-बाप का,
दिल कभी
कुचलना
नहीं।।
मुख
का निवाला दे
अरे, जिनने
तुम्हें बड़ा
किया।
अमृत
पिलाया तुमको
जहर, उनको
उगलना नहीं।।
कितने
लड़ाए लाड़
सब, अरमान भी
पूरे किये।
पूरे
करो अरमान
उनके, बात यह
भूलना नहीं।।
लाखों
कमाते हो भले,
माँ-बाप से
ज्यादा नहीं।
सेवा
बिना सब राख
है, मद में कभी
फूलना नहीं।।
सन्तान
से सेवा चाहो,
सन्तान बन
सेवा करो।
जैसी
करनी वैसी
भरनी, न्याय
यह भूलना
नहीं।।
सोकर
स्वयं गीले
में, सुलाया
तुम्हें सूखी
जगह।
माँ
की अमीमय
आँखों को,
भूलकर कभी भिगोना
नहीं।।
जिसने
बिछाये फूल
थे, हर दम
तुम्हारी
राहों में।
उस
राहबर के राह
के, कंटक कभी
बनना नहीं।।
धन
तो मिल जायेगा
मगर, माँ-बाप
क्या मिल
पायेंगे?
पल
पल पावन उन
चरण की, चाह
कभी भूलना
नहीं।।
रोज
सुबह उठकर
स्नान कर लो,
रोज सुबह
जल्दी उठकर
नियम कर लो....
रोज
सुबह उठकर
ध्यान कर लो,
रोज सुबह
जल्दी उठकर
व्यायाम कर
लो.....
माता-पिता
को प्रणाम
करो, गुरू जी
की बातों को याद
करो....(2)
भगवदगीता
का पाठ करो,
सत्कर्म करने
का संकल्प करो...
रोज सुबह...(2)
व्यसन
में कोई दम
नहीं, व्यसनों
के काऱण घर में
सुख नहीं, (2)
व्यसन
को घर से दूर
करो,
सुख-शांति का
साम्राज्य
स्थापित करो...
रोज सुबह..
दीन-दुखियों
की सेवा करो,
जितना हो सके
मदद करो। (2)
उनका
हृदय संतुष्ट
होगा, तुमको
प्रभु का दर्शन
होगा.... रोज
सुबह....
(2)
सरस-सरल
हैं गुरूजी
हमारे, अच्छी
बातें सिखवाते
हैं
बाल-संस्कार
केन्द्र
द्वारा...
ऐसे
गुरूजी की
जय-जयकार करो...
जप-तप-ध्यान
की महिमा
समझायें
सेवा
और भक्ति की
महिमा
समझायें, बचपन
से ही हमें
सच्चा ज्ञान
देते,
कीर्तन
द्वारा सबको
झुमाते.. जय हो...
सरस सरल हैं....
एकाग्रता
के प्रयोग
करायें, तन-मन
स्वास्थ्य के
प्रयोग करायें
हँसते-खेलते
ज्ञान हमें
देते, ज्ञान
के साथ खेल
खिलाते..जय
हो..सरस सरल
हैं..
(3)
छोटे
हैं हम बच्चे,
बाल-संस्कार
केन्द्र के,
बोलो
हमारे साथ,
हरि ॐ हरि ॐ हरि ॐ
अक्ल के
हम हैं कच्चे,
तो भी हम हृदय
के सच्चे,
बोलो
हमारे साथ,
हरि ॐ हरि ॐ हरि ॐ...
हम
प्रभु जी के हैं
प्यारे, हम
गुरू जी के
दुलारे,
बोलो
हमारे साथ,
हरि ॐ हरि ॐ हरि ॐ...बोलो
हम
दुःखों से
नहीं डरने
वाले, हम सत्य
की राह पर
चलने वाले
बोलो
हमारे साथ,
हरि ॐ हरि ॐ हरि ॐ...बोलो
हम
होंगे देश के
निर्माता, हम
होंगे देश के
लिए लड़ने
वाले,
बोलो
हमारे साथ,
हरि ॐ हरि ॐ हरि ॐ...बोलो
हम
गुरू जी का
ज्ञान
पचायेंगे, हम
गुरू जी का ज्ञान
फैलायेंग,
बोलो
हमारे साथ,
हरि ॐ हरि ॐ हरि ॐ...बोलो
(4)
हम
भारत देश के
वासी हैं, हम
ऋषियों की
संतान हैं।
हम
जगदगुरू के
बालक हैं, हम
परम गुरू के
बच्चे हैं।।
हम
देवभूमि के
वासी हैं, हम
सोsहं
नाद जगायेंग।
हम
शिवोsहं-शिवोsहं
गायेंगे, हम
नयी चेतना
लायेंगे।।
हम
भारत.......
हम
संयमी जीवन
बितायेंगे, हम
भारत महान
बनायेंगे।
हम
प्रभु के गीत
गायेंगे, हम
दिव्य शक्ति
बढ़ायेंगे।।
हम
भारत.........
हम
भारत भर में
घूमेंगे, हम
गुरू-संदेश
सुनायेंगे।
हम
आत्म-जागृति
पायेंगे, हम
नयी रोशनी
लायेंगे।।
हम
भारत.........
हम
गुरू का ज्ञान
पचायेंगे, हम
बड़भागी हो
जायेंगे।
हम
जीवन्मुक्ति
पायेंगे, हम
गुरू की शान
बढ़ायेंगे।।
हम
भारत.........
हो
जाओ तैयार
हो
जाओ तैयार
साथियो............ हो
जाओ तैयार
देश
हमारा बिक रहा
है विदेशियों
के हाथ।
धर्म
के नाम पर लूट
चली है,
विधर्मोयों
के हाथ। हो
जाओ...
धर्म
की रक्षा करने
को हो जाओ
तैयार,
धर्म
रक्षा में
नहीं लगे तो
जीवन है
बेकार। हो
जाओ...
हम
सबको वे सिखा
रहे हैं
आत्मबल
हथियार,
जप-तप-ध्यान
की महिमा जानो,
हाथ में लो
हथियार। हो
जाओ...
दुर्बल
विचार कुचल
डालो करो उच्च
विचार,
अपनी
संस्कृति
पहचानो, हम
ऋषियों की
संतान। हो
जाओ....
आओ
हम सब मिल कर
गायें हरि हरि ॐ
हरि हरि ॐ साथियों, हरि
हरि ॐ । हो जाओ...
कदम
अपना आगे
बढ़ाता चले
जा। सदा प्रेम
के गीत गाता
चला जा।।
तेरे
मार्ग में
वीर! काँटे
बड़े हैं। लिए
तीर हाथों में
वैरी खड़े
हैं।
बहादुर
सबको मिटाता
चला जा। कदम
अपना आगे बढ़ाता
चला जा।।
तू है
आर्यवंशी
ऋषिकुल का
बालक।
प्रतापी यशस्वी
सदा दीनपालक।
तू
संदेश सुख का
सुनाता चला
जा। कदम अपना
आगे बढ़ाता
चला जा।।
भले आज
तूफान उठकर के
आयें। बला पर
चली आ रही हो
बलाएँ।
युवा
वीर है
दनदनाता चला
जा। कदम अपना
आगे बढ़ाता
चला जा।।
जो
बिछुड़े हुए
हैं उन्हें तू
मिला जा। जो
सोये पड़े हैं
उन्हें तू जगा
जा।
तू आनंद
डंका बजाता
चला जा। कदम
अपना आगे बढ़ाता
चला जा।।
मेरे
साँईं तेरे
बच्चे हम,
तूने सच्चा
सिखाया धरम,
हम
संयमी बनें,
सदाचारी बनें
और
चारित्र्यवान
बनें, मेरे
साँईं...
ये धरम
जो बिखरता
रहा, तेरा
बालक बिगड़ता
रहा
तूने
दीक्षा जो दी,
तूने शिक्षा
जो दी, नया जीवन
उसी से मिला,
है तेरे
प्यार में वो
दम, ये जीवन
खिल जाय ज्यों
पूनम,
हम
संयमी बनें,
सदाचारी बनें,
और
चारित्र्यवान
बनें, मेरे
साँईं...
जब भी
जीवन में
तूफान आये,
तेरा बालक
घबरा जाय,
तू ही
शक्ति देना,
तू ही भक्ति
देना, ताकि
उठकर चले आगे
हम,
है तेरी
करूणा में वो
दम, मिट
जायेंगे हम
सबके गम,
हम
संयमी बनें,
सदाचारी बनें
और
चारित्र्यवान
बनें, मेरे
साँईं...
आनंद
मंगल करूँ
आरती, हरि
गुरू संतानी
सेवा।।
प्रेम
धरीने मारे
मंदिरये
पधारो, सुंदर
सुखड़ां
लेवा..
वहाला...............(2)
जेने
आँगणे
तुलसीनो
क्यारो,
शालिग्रामनी
सेवा......(2)
वहाला....................
अड़सठ
तीरथ संतोना
चरणे,
गंगा-यमुना
रेवा.......(2)
वहाला...................
संत मळे
तो महासुख
पामुं गुरूजी
मळे तो मेवा.....(2)
वहाला...................
कहे
प्रीतम जैने
हरि छे वहाला,
हरिना जन हरि
जेवा....(2)
वहाला...................
*
स्वामी मोहे
ना विसारियो
चाहे लाख लोग
मिल जाय।
हम सम
तुमको बहुत
हैं, तुम सम
हमको नाँही।।
दीनदयाल
को विनती सुनो
गरीब नवाज।
जो हम
पूत कपूत हैं,
तो हैं पिता
तेरी लाज।।
*
ॐ सहनाववतु
सहनौभुनक्तु
सहवीर्यं
करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु
मा
विद्विषावहै।।
ॐ शांतिः
शांतिः शांतिः।।
ॐ पूर्णमदः
पूर्णमिदं
पूर्णात्
पूर्णमुदच्यते
पूर्णस्य
पूर्णमादाय
पूर्णमेवावशिष्यते।
ॐ शांतिः
शांतिः
शांतिः।।