वर्षा
ऋतु में
जीव-जन्तुओं,
कीचड़ व
मलिन
पदार्थों से
दूषित हुआ जल
शरद ऋतु
में दिन में
सूर्य की
जीवाणुनाशक
प्रखर किरणों
से निर्विष
हो जाता है
तथा रात्रि
में चंद्रमा
की अमृतमय
किरणों से व अगस्तय
तारे के उदय
होने के
प्रभाव से
शीतल, विमल
एवं पवित्र हो
जाता है । इसे हंसोदक
कहते हैं। हंसोदक
से स्नान अमृत
के समान फल
देने वाला
होता है।
शरद ऋतु में पित्त
प्रकुपित
व वायु शांत
हो जाता है।
जठराग्निः मध्यम
बलयुक्त
होती है।
शारीरिक
बलः मध्यम
होता है ।
सेवनीय आहारः अच्छी
तरह भूख लगने
पर रस में
मधुर, कुछ कड़वे
व कसैले,
शीतल व पित्त
को शांत करने
वाले अन्न-पान
का उचित
मात्रा में
सेवन करना
चाहिए ।
सामान्यतः
सभी के लिए
पुराने चावल,
जौ, मूँग,
गेहूँ, ज्वार, करेला, बथुआ,
परवल, तोरई,
पालक, पका पेठा,
नेनुआ, पोई, कोमल
ककड़ी, खीरा, टिंडा,
बिना बीज के
छोटे बैंगन,
डोडी (जीवंती),
गाजर, शलगम,
नींबू, हरा
धनिया, गन्ना,
फलों में मीठा
अनार,
मीठे बेर, आँवला,
मौंसंबी,
नारियल, सेब,
अमरूद, सीताफल,
सूखे मेवों
में अंजीर,
किशमिश,
मुनक्का, मसालों
में जीरा,
धनिया, इलायची,
अल्प मात्रा
में लौंग,
दालचीनी तथा
दूध, मक्खन व
घी का उपयोग लाभदायी
है ।
अनुकूल
विहारः शरद ऋतु में प्रदोषकाल
में अर्थात
रात्रि के
प्रथम प्रहर
में
(सूर्यास्त के
बाद 3 घंटे तक)
चंद्रमा की शीतल
किरणों का
सेवन करना खूब
लाभदायी
है परन्तु देर
रात तक जागरण
न करें।
अन्यथा पित्त प्रकुपित
हो जाता है।
इस ऋतु
में उत्पन्न
फूलों से बनी
माला का धारण
तथा चंदन का
लेप, मुलतानी
मिट्टी से
स्नान लाभदायी
है।
त्याज्य
आहार-विहारः इन
दिनों में
अधिक उपवास,
अधिक श्रम,
धूप का सेवन,
तेल, क्षार,
दही, खट्टे, तीखे,
नमकीन, उष्ण
पदार्थों का
सेवन, दिन में
शयन एवं पूर्व
दिशा की वायु
का सेवन नहीं
करना चाहिए।
पूर्वी हवा
बंगाल की
खाड़ी से उठने
के कारण नमीयुक्त
होती है।
शरद
ऋतु में घृतपानः पित्त
अग्नि का अधिष्ठान
है अर्थात
शरीर में
अग्नि पित्त
के आश्रय से रहती
है। शरद ऋतु
में प्रकुपित
पित्त में
द्रव अंश अधिक
हो जाने के कारण
अग्नि मंद हो
जाती है। जैसे
उष्ण जल अग्नि
सदृश हो जाने
पर भी अग्नि
को बुझा देता
है, वैसे ही द्रवीभूत
पित्त अग्नि
को मंद कर
देता है। घी
उत्तम अग्नि-प्रदीपक
व श्रेष्ठ पित्तशामक
है (पित्तघ्नं
घृतम्) । अतः
शरद ऋतुजन्य
पित्तप्रकोप
व मंदाग्नि
के लिए सुबह
खाली पेट घी
का सेवन लाभदायी
है। सुबह
सूर्योदय के
बाद 15-20 ग्राम
गुनगुना गौघृत
पीकर ऊपर से
गरम पानी पीयें।
( डेयरी व
बाज़ार का घी
इतना भरोसे का
पात्र नहीं रह
गया है। ) इसके
बाद 1-2 घंटे तक
कुछ न लें।
बाद में भूख
लगने पर दूध
ले सकते हैं।
साधारण घी की
अपेक्षा औषधसिद्ध
घी जैसे शतावरी
घृत, पंचतिक्त
घी आदि विशेष लाभदायी
है ।
रात
को 3 से 5 ग्राम त्रिफला
चूर्ण गुनगुने
पानी के साथ
लेने से सुबह
मल के साथ
अतिरिक्त पित्त
का निष्कासन
हो जाता है ।
पित्त
विरेचन हेतु
सुबह 2-3 ग्राम हरड़
चूर्ण में
समभाग मिश्री
मिलाकर लेने
से भी लाभ
होता है ।
भाद्रपद ( 21
अगस्त से 26
सितम्बर ) में कड़वे
पदार्थ जैसे करेला व मेथी की
सब्जी, नीम
तथा गिलोय
की चटनी आदि
का सेवन अवश्य
करना चाहिए। भाद्रपद
में लौकी व
दही का सेवन
निषिद्ध है ।
एक
चम्मच मिश्रीयुक्त
आँवला
चूर्ण (आश्रम
में उपलब्ध)
में 1 चुटकी
तुलसी के बीज मिलाएं।
इसे पानी में
मिला कर पीने
से पित्त का
शमन तो होगा
ही, साथ में
शक्ति, स्फूर्ति
व ताज़गी भी
आएगी। यह
प्रयोग
वार्धक्य
निवृत्ति, पेट
के कई प्रकार
के रोगों की
निवृत्ति व
चेहरे पर लाली
लाने में बड़ा
सुखदायी
साबित हुआ है।
(रविवार के
दिन न लें)
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पद्म
पुराण के एक
प्रसंग में
भगवान शंकर कार्तिकेय
जी से कहते
हैं- बेटा! आँवले
का फल परम
पवित्र है। यह
भगवान श्री
विष्णु के
प्रसन्न करने
वाला एवं शुभ माना
गया है। आँवला
खाने से आयु
बढ़ती है।
इसका रस पीने
से धर्म का
संचय होता है
और रस को शरीर
पर लगाकर
स्नान करने से
दरिद्रता दूर
होकर ऐशवर्य
की प्राप्ति
होती है। स्कन्द! जिस
घर में आँवला
सदा मौजूद
रहता है, वहाँ
दैत्य और
राक्षस नहीं
आते। जो दोनों
पक्षों की एकादशियों
को आँवले
के रस का
प्रयोग कर
स्नान करते
हैं, उनके पाप
नष्ट हो जाते
हैं। षडानन
! आँवले
के रस से अपने
बाल धोने
चाहिए। आँवले
के दर्शन,
स्पर्श तथा नामोच्चारण
से भगवान
विष्णु
संतुष्ट होकर
अनुकूल हो जाते
हैं। अतः अपने
घर में आँवला
अवश्य रखना
चाहिए। जो
भगवान विष्णु
को आँवले
का मुरब्बा
एवं नैवेद्य
अर्पण करता
है, उस पर वे
बहुत संतुष्ट
होते हैं। आँवले
का सेवन करने
वाले
मनुष्यों को
उत्तम गति मिलती
है। प्रत्येक
रविवार,
विशेषतः सप्तमी
को आँवले
का फल त्याग
देना चाहिए। शुक्रवार,
प्रतिपदा,
षष्ठी, नवमी, अमावस्या
और सक्रान्ति
को आँवले
का सेवन नहीं
करना चाहिए।
आयुर्वेद
के अनुसार आँवला
रक्तप्रदर,
बवासीर,
नपुंसकता,
हृदयरोग, मूत्ररोग,
दाह, अजीर्ण,
श्वास रोग,
खाँसी, दस्त,
पीलिया एवं
क्षय जैसे
रोगों में लाभदायी
है। यह रस-रक्तादि
सप्तधातुओं
को पुष्ट करता
है। इसके सेवन
से आयु,
स्मृति, कांति,
बल, वीर्य एवं
आँखों का तेज़
बढ़ता है,
हृदय एवं मस्तिषक
को शक्ति
मिलती है,
बालों की
जड़ें मजबूत
होकर बाल काले
होते हैं।
इससे रक्त
शुद्ध होता है
और रोग
प्रतिकारक
शक्ति बढ़ती
है।
आधुनिक वैज्ञानिकों ने आँवले पर शोध के पश्चात स्वीकार किया है कि आँवले में पाया जाने वाला एंटीआक्सीडैंट एन्जाइम बुढ़ापे को रोकता है। परिपक्व, पुष्ट, ताज़े आँवलों का सेवन करना लाभप्रद है। इनके अभाव में आँवले का चूर्ण, मुरब्बा तथा च्यवनप्राश वर्ष भर उपयोग में लाये जा सकते हैं।