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अनुक्रम


 

निवेदन

मानों ना मानों ये हकीकत है। खुशी इन्सान की जरूरत है।।

महीने में अथवा वर्ष में एक-दो दिन आदेश देकर कोई काम मनुष्य के द्वारा करवाया जाये तो उससे मनुष्य का विकास संभव नहीं है। परंतु मनुष्य यदा-कदा अपना विवेक जगाकर उल्लास, आनंद, प्रसन्नता, स्वास्थ्य और स्नेह का गुण विकसित करे तो उसका जीवन विकसित हो सकता है।

 

उल्लास, आनंद, प्रसन्नता बढ़ाने वाले हमारे पर्वों में, पर्वों का पुंज-दीपावली अग्रणी स्थान पर है। भारतीय संस्कृति के ऋषि-मुनियों, संतों की यह दूरदृष्टि रही है, जो ऐसे पर्वों के माध्यम से वे समाज को आत्मिक आनंद, शाश्वत सुख के मार्ग पर ले जाते थे। परम पूज्य संत श्री आसारामजी बापू के इस पर्व के पावन अवसर किये सत्संग प्रवचनों का यह संकलन पुस्तक के रूप में आपके करकमलों तक पहुँचने की सेवा का सुअवसर पाकर समिति धन्यता का अनुभव करती है।

 

श्री योग वेदान्त सेवा समिति

अमदावाद आश्रम।

ऐसी दिवाली मनाते हैं पूज्य बापूजी

संत हृदय तो भाई संत हृदय ही होता है। उसे जानने के लिए हमें भी अपनी वृत्ति को संत-वृत्ति बनाना होता है। आज इस कलयुग में अपनत्व से गरीबों के दुःखों को, कष्टों को समझकर अगर कोई चल रहे हैं तो उनमें परम पूज्य संत श्री आसाराम जी बापू सबसे अग्रणी स्थान पर हैं। पूज्य बापू जी दिवाली के दिनों में घूम-घूम कर जाते हैं उन आदिवासियों के पास, उन गरीब, बेसहारा, निराश्रितों के पास जिनके पास रहने को मकान नहीं, पहनने को वस्त्र नहीं, खाने को रोटी नहीं ! कैसे मना सकते हैं ऐसे लोग दिवाली? लेकिन पूज्य बापू द्वारा आयोजन होता है विशाल भंडारों का, जिसमें ऐसे सभी लोगों को इकट्ठा कर मिठाइयाँ, फल, वस्त्र, बर्तन, दक्षिणा, अन्न आदि का वितरण होता है। साथ-ही-साथ पूज्य बापू उन्हें सुनाते हैं गीता-भागवत-रामायण-उपनिषद का संदेश तथा भारतीय संस्कृति की गरिमा तो वे अपने दुःखों को भूल प्रभुमय हो हरिकीर्तन में नाचने लगते हैं और दीपावली के पावन पर्व पर अपना उल्लास कायम रखते हैं।

 

उल्लासपूर्ण जीवन जीना सिखाती है सनातन संस्कृति

हमारी सनातन संस्कृति में व्रत, त्यौहार और उत्सव अपना विशेष महत्व रखते हैं। सनातन धर्म में पर्व और त्यौहारों का इतना बाहूल्य है कि यहाँ के लोगो में 'सात वार नौ त्यौहार' की कहावत प्रचलित हो गयी। इन पर्वों तथा त्यौहारों के रूप में हमारे ऋषियों ने जीवन को सरस और उल्लासपूर्ण बनाने की सुन्दर व्यवस्था की है। प्रत्येक पर्व और त्यौहार का अपना एक विशेष महत्व है, जो विशेष विचार तथा उद्देश्य को सामने रखकर निश्चित किया गया है।

 

ये पर्व और त्यौहार चाहे किसी भी श्रेणी के हों तथा उनका बाह्य रूप भले भिन्न-भिन्न हो, परन्तु उन्हें स्थापित करने के पीछे हमारे ऋषियों का उद्देश्य था – समाज को भौतिकता से आध्यात्मिकता की ओर लाना।

 

अन्तर्मुख होकर अंतर्यात्रा करना यह भारतीय संस्कृति का प्रमुख सिद्धान्त है। बाहरी वस्तुएँ कैसी भी चमक-दमकवाली या भव्य हों, परन्तु उनसे आत्म कल्याण नहीं हो सकता, क्योंकि वे मनुष्य को परमार्थ से जीवन में अनेक पर्वों और त्यौहारों को जोड़कर हम हमारे उत्तम लक्ष्य की ओर बढ़ते रहें, ऐसी व्यवस्था बनायी है।

 

मनुष्य अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार सदा एक रस में ही रहना पसंद नहीं करता। यदि वर्ष भर वह अपने नियमित कार्यों में ही लगा रहे तो उसके चित्त में उद्विग्नता का भाव उत्पन्न हो जायेगा। इसलिए यह आवश्यक है कि उसे बीच-बीच में ऐसे अवसर भी मिलते रहें, जिनसे वह अपने जीवन में कुछ नवीनता तथा हर्षोल्लास का अनुभव कर सके।

 

जो त्यौहार किसी महापुरुष के अवतार या जयंती के रूप में मनाये जाते हैं, उनके द्वारा समाज को सच्चरित्रता, सेवा, नैतिकता, सदभावना आदि की शिक्षा मिलती है। बिना किसी मार्गदर्शक अथवा प्रकाशस्तंभ के संसार में सफलतापूर्वक यात्रा करना मनुष्य के लिए संभव नहीं है। इसीलिए उन्नति की आकांक्षा करने वाली जातियाँ अपने महान पूर्वजों के चरित्रों को बड़े गौरव के साथ याद करती हैं। जिस व्यक्ति या जाति के जीवन में महापुरुषों का सीधा-अनसीधा ज्ञान प्रकाश नहीं, वह व्यक्ति या जाति अधिक उद्विग्न, जटिल व अशांत पायी जाती है। सनातन धर्म में त्यौहारों को केवल छुट्टी का दिन अथवा महापुरुषों की जयंती ही न समझकर उनसे   समाज की वास्तविक उन्नति तथा चहुँमुखी विकास का उद्देश्य सिद्ध किया गया है।

 

लंबे समय से अनेक थपेड़ों को सहने, अनेक कष्टों से जूझने तथा अनेक परिवर्तनों के बाद भी हमारी संस्कृति आज तक कायम है तो इसके मूल कारणों में इन पर्वों और त्यौहारों का भी बड़ा योगदान रहा है।

 

हमारे तत्त्ववेत्ता पूज्यपाद ऋषियों ने महान उद्देश्यों को लक्ष्य बनाकर अनेक पर्वों तथा त्यौहारों के दिवस नियुक्त किये हैं। इन सबमें लौकिक कार्यों के साथ ही आध्यात्मिक तत्त्वों का समावेश इस प्रकार से कर दिया गया है कि हम उन्हें अपने जीवन में सुगमतापूर्वक उतार सकें। सभी उत्सव समाज को नवजीवन, स्फूर्ति व उत्साह देने वाले हैं। इन उत्सवों का लक्ष्य यही है कि हम अपने महान पूर्वजों के अनुकरणीय तथा उज्जवल सत्कर्मों की परंपरा को कायम रखते हुए जीवन का चहुँमुखी विकास करें।

 

हम सभी का यह कर्तव्य है कि अपने उत्सवों को हर्षोल्लास तथा गौरव के साथ मनायें, परन्तु साथ ही यह भी परम आवश्यक है कि हम उनके वास्तविक उद्देश्यों और स्वरूप को न भूलकर उन्हें जीवन में उतारें।

 

 

ज्ञान की चिंगारी को फूँकते रहना। ज्योत जगाते रहना। प्रकाश बढ़ाते रहना। सूरज की किरण के जरिये सूरज की खबर पा लेना। सदगुरुओं के प्रसाद के सहारे स्वयं सत्य की प्राप्ति तक पहुँच जाना। ऐसी हो मधुर दिवाली आपकी...

 


अनुक्रम

उल्लासपूर्ण जीवन जीना सिखाती है सनातन संस्कृति... 3

पर्वों का पुंजः दीपावली... 6

आत्मज्योति जगाओ... 10

दीपावली पर देता हूँ एक अनूठा आशीर्वाद. 10

दीपावली का तात्त्विक दृष्टिकोण.. 12

लक्ष्मीपूजन का पौराणिक पर्वः दीपावली... 17

माँ लक्ष्मी का निवास कहाँ ?. 21

लक्ष्मीजी की प्राप्ति किसको?. 26

दीपज्योति की महिमा... 28

दीपावली पर लक्ष्मीप्राप्ति की सचोट साधना-विधियाँ... 29

धनतेरस से आरंभ करें. 29

दीपावली से आरंभ करें. 29

दीपोत्सव.. 30

उनकी सदा दीवाली है. 31

दीपावली पूजन का शास्त्रोक्त विधान.. 33

भारतीय संस्कृति की महक.. 35

नूतन वर्ष - संदेश.. 37

नूतन वर्ष की रसीली मिठाई. 41

भाईदूजः भाई-बहन के स्नेह का प्रतीक.. 42

दीपावली सावधानी से मनायें.. 44

अग्नि-प्रकोप के शिकार होने पर क्या करें?. 44

पूज्यश्री का दीपावली संदेश.. 45

विजयदशमी... 47

आत्मविजय पा लो... 47

विजयादशमीः दसों इन्द्रियों पर विजय.. 51

विजयादशमी संदेश.. 53

ज्ञान-दीप.. 55

 

तेल और बाती से बना दीया तो बुझ जाता है लेकिन सदगुरु की कृपा से प्रज्जवलित किया गया आत्म दीपक सदियों तक जगमगाता रहता है और विश्व को आत्म-प्रकाश आलोकित करता है। आपके भीतर भी शाश्वत दीया जगमगाये।

 

पर्वों का पुंजः दीपावली

उत्तरायण, शिवरात्री, होली, रक्षाबंधन, जन्माष्टमी, नवरात्री, दशहरा आदि त्योहारों को मनाते-मनाते आ जाती हैं पर्वों की हारमाला-दीपावली। पर्वों के इस पुंज में 5 दिन मुख्य हैं- धनतेरस, काली चौदस, दीपावली, नूतन वर्ष और भाईदूज। धनतेरस से लेकर भाईदूज तक के ये 5 दिन आनंद उत्सव मनाने के दिन हैं।

 

शरीर को रगड़-रगड़ कर स्नान करना, नये वस्त्र पहनना, मिठाइयाँ खाना, नूतन वर्ष का अभिनंदन देना-लेना। भाईयों के लिए बहनों में प्रेम और बहनों के प्रति भाइयों द्वारा अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करना – ऐसे मनाये जाने वाले 5 दिनों के उत्सवों के नाम है 'दीपावली पर्व।'

 

धनतेरसः धन्वंतरि महाराज खारे-खारे सागर में से औषधियों के द्वारा शारीरिक स्वास्थ्य-संपदा से समृद्ध हो सके, ऐसी स्मृति देता हुआ जो पर्व है, वही है धनतेरस। यह पर्व धन्वंतरि द्वारा प्रणीत आरोग्यता के सिद्धान्तों को अपने जीवन में अपना कर सदैव स्वस्थ और प्रसन्न रहने का संकेत देता है।

 

काली चौदसः धनतेरस के पश्चात आती है 'नरक चतुर्दशी (काली चौदस)'। भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर को क्रूर कर्म करने से रोका। उन्होंने 16 हजार कन्याओं को उस दुष्ट की कैद से छुड़ाकर अपनी शरण दी और नरकासुर को यमपुरी पहुँचाया। नरकासुर प्रतीक है – वासनाओं के समूह और अहंकार का। जैसे, श्रीकृष्ण ने उन कन्याओं को अपनी शरण देकर नरकासुर को यमपुरी पहुँचाया, वैसे ही आप भी अपने चित्त में विद्यमान नरकासुररूपी अहंकार और वासनाओं के समूह को श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित कर दो, ताकि आपका अहं यमपुरी पहुँच जाय और आपकी असंख्य वृत्तियाँ श्री कृष्ण के अधीन हो जायें। ऐसा स्मरण कराता हुआ पर्व है नरक चतुर्दशी।

 

इन दिनों में अंधकार में उजाला किया जाता है। हे मनुष्य ! अपने जीवन में चाहे जितना अंधकार दिखता हो, चाहे जितना नरकासुर अर्थात् वासना और अहं का प्रभाव दिखता हो, आप अपने आत्मकृष्ण को पुकारना। श्रीकृष्ण रुक्मिणी को आगेवानी देकर अर्थात् अपनी ब्रह्मविद्या को आगे करके नरकासुर को ठिकाने लगा देंगे।

 

स्त्रियों में कितनी शक्ति है। नरकासुर के साथ केवल श्रीकृष्ण लड़े हों, ऐसी बात नहीं है। श्रीकृष्ण के साथ रुक्मिणी जी भी थीं। सोलह-सोलह हजार कन्याओं को वश में करने वाले श्रीकृष्ण को एक स्त्री (रुक्मणीजी) ने वश में कर लिया। नारी में कितनी अदभुत शक्ति है इसकी याद दिलाते हैं श्रीकृष्ण।

 

 

दीपावलीः फिर आता है आता है दीपों का त्यौहार – दीपावली। दीपावली की रात्री को सरस्वती जी और लक्ष्मी जी का पूजन किया जाता है। ज्ञानीजन केवल अखूट धन की प्राप्ति को लक्ष्मी नहीं, वित्त मानते हैं। वित्त से आपको बड़े-बड़े बंगले मिल सकते हैं, शानदार महँगी गाड़ियाँ मिल सकती हैं, आपकी लंबी-चौड़ी प्रशंसा हो सकती है परंतु आपके अंदर परमात्मा का रस नहीं आ सकता। इसीलिए दीपावली की रात्री को सरस्वतीजी का भी पूजन किया जाता है, जिससे लक्ष्मी के साथ आपको विद्या भी मिले। यह विद्या भी केवल पेट भरने की विद्या नहीं वरन् वह विद्या जिससे आपके जीवन में मुक्ति के पुष्प महकें। सा विद्या या विमुक्तये। ऐहिक विद्या के साथ-साथ ऐसी मुक्तिप्रदायक विद्या, ब्रह्मविद्या आपके जीवन में आये, इसके लिए सरस्वती जी का पूजन किया जाता है।

 

आपका चित्त आपको बाँधनेवाला न हो, आपका धन आपका धन आपकी आयकर भरने की चिंता को न बढ़ाये, आपका चित्त आपको विषय विकारों में न गिरा दे, इसीलिए दीपावली की रात्रि को लक्ष्मी जी का पूजन किया जाता है। लक्ष्मी आपके जीवन में महालक्ष्मी होकर आये। वासनाओं के वेग को जो बढ़ाये, वह वित्त है और वासनाओं को श्रीहरि के चरणों में पहुँचाए, वह महालक्ष्मी है। नारायण में प्रीति करवाने वाला जो वित्त है, वह है महालक्ष्मी।

 

नूतन वर्षः दीपावली वर्ष का आखिरी दिन है और नूतन वर्ष प्रथम दिन है। यह दिन आपके जीवन की डायरी का पन्ना बदलने का दिन है।

 

दीपावली की रात्री में वर्षभर के कृत्यों का सिंहावलोकन करके आनेवाले नूतन वर्ष के लिए शुभ संकल्प करके सोयें। उस संकल्प को पूर्ण करने के लिए नववर्ष के प्रभात में अपने माता-पिता, गुरुजनों, सज्जनों, साधु-संतों को प्रणाम करके तथा अपने सदगुरु के श्रीचरणों में जाकर नूतन वर्ष के नये प्रकाश, नये उत्साह और नयी प्रेरणा के लिए आशीर्वाद प्राप्त करें। जीवन में नित्य-निरंतर नवीन रस, आत्म रस, आत्मानंद मिलता रहे, ऐसा अवसर जुटाने का दिन है 'नूतन वर्ष।'

 

भाईदूजः उसके बाद आता है भाईदूज का पर्व। दीपावली के पर्व का पाँचनाँ दिन। भाईदूज भाइयों की बहनों के लिए और बहनों की भाइयों के लिए सदभावना बढ़ाने का दिन है।

 

हमारा मन एक कल्पवृक्ष है। मन जहाँ से फुरता है, वह चिदघन चैतन्य सच्चिदानंद परमात्मा सत्यस्वरूप है। हमारे मन के संकल्प आज नहीं तो कल सत्य होंगे ही। किसी की बहन को देखकर यदि मन दुर्भाव आया हो तो भाईदूज के दिन उस बहन को अपनी ही बहन माने और बहन भी पति के सिवाये 'सब पुरुष मेरे भाई हैं' यह भावना विकसित करे और भाई का कल्याण हो – ऐसा संकल्प करे। भाई भी बहन की उन्नति का संकल्प करे। इस प्रकार भाई-बहन के परस्पर प्रेम और उन्नति की भावना को बढ़ाने का अवसर देने वाला पर्व है 'भाईदूज'

 

जिसके जीवन में उत्सव नहीं है, उसके जीवन में विकास भी नहीं है। जिसके जीवन में उत्सव नहीं, उसके जीवन में नवीनता भी नहीं है और वह आत्मा के करीब भी नहीं है।

 

भारतीय संस्कृति के निर्माता ऋषिजन कितनी दूरदृष्टिवाले रहे होंगे ! महीने में अथवा वर्ष में एक-दो दिन आदेश देकर कोई काम मनुष्य के द्वारा करवाया जाये तो उससे मनुष्य का विकास संभव नहीं है। परंतु मनुष्य यदा कदा अपना विवेक जगाकर उल्लास, आनंद, प्रसन्नता, स्वास्थ्य और स्नेह का गुण विकसित करे तो उसका जीवन विकसित हो सकता है। मनुष्य जीवन का विकास करने वाले ऐसे पर्वों का आयोजन करके जिन्होंने हमारे समाज का निर्माण किया है, उन निर्माताओं को मैं सच्चे हृदय से वंदन करता हूँ....

 

अभी कोई भी ऐसा धर्म नहीं है, जिसमें इतने सारे उत्सव हों, एक साथ इतने सारे लोग ध्यानमग्न हो जाते हों, भाव-समाधिस्थ हो जाते हों, कीर्तन में झूम उठते हों। जैसे, स्तंभ के बगैर पंडाल नहीं रह सकता, वैसे ही उत्सव के बिना धर्म विकसित नहीं हो सकता। जिस धर्म में खूब-खूब अच्छे उत्सव हैं, वह धर्म है सनातन धर्म। सनातन धर्म के बालकों को अपनी सनातन वस्तु प्राप्त हो, उसके लिए उदार चरित्र बनाने का जो काम है वह पर्वों, उत्सवों और सत्संगों के आयोजन द्वारा हो रहा है।

 

पाँच पर्वों के पुंज इस दीपावली महोत्सव को लौकिक रूप से मनाने के साथ-साथ हम उसके आध्यात्मिक महत्त्व को भी समझें, यही लक्ष्य हमारे पूर्वज ऋषि मुनियों का रहा है।

 

इस पर्वपुंज के निमित्त ही सही, अपने ऋषि-मुनियों के, संतों के, सदगुरुओं के दिव्य ज्ञान के आलोक में हम अपना अज्ञानांधकार मिटाने के मार्ग पर शीघ्रता से अग्रसर हों – यही इस दीपमालाओं के पर्व दीपावली का संदेश है।

 

आप सभी को दीपावली हेतु, खूब-खूब बधाइयाँ.... आनंद-ही-आनंद... मंगल-ही-मंगल....

 

 

बाह्य दीये जगमगाये... प्रभु करे कि आत्म-दीया जगाने की भी भूख लायें। इसी भूख में ताकत है कि हम सारे कर्मबंधन मिटायें... आत्मज्योति जगायें... ॐ....ॐ... साहस....ॐ शांति..

 

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आत्मज्योति जगाओ

दीपावली अर्थात् अमावस्या के गहन अंधकार में भी प्रकाश फैलाने का पर्व। यह महापर्व यही प्रेरणा देता है कि अज्ञानरूपी अंधकार में भटकने के बजाय अपने जीवन में ज्ञान का प्रकाश ले आओ...

 

पर्वों के पुंज इस दीपावली के पर्व पर घर में और घर के बाहर तो दीपमालाओं का प्रकाश अवश्य करो, साथ ही साथ अपने हृदय में भी ज्ञान का आलोक कर दो। अंधकारमय जीवन व्यतीत मत करो वरन् उजाले में जियो, प्रकाश में जियो। जो प्रकाशों का प्रकाश है, उस दिव्य प्रकाश का, परमात्म-प्रकाश का चिंतन करो।

 

सूर्य, चन्द्र, अग्नि, दीपक आदि सब प्रकाश है। इन प्रकाशों को देखने के लिए नेत्रज्योति की जरूरत है और नेत्रज्योति ठीक से देखती है कि नहीं, इसको देखने के लिए मनःज्योति की जरूरत है। मनःज्योति यानी मन ठीक है कि बेठीक, इसे देखने के लिए बुद्धि का प्रकाश चाहिए और बुद्धि के निर्णय सही हैं कि गलत, इसे देखने के लिए जरूरत है आत्मज्योति की।

 

इस आत्मज्योति से अन्य सब ज्योतियों को देखा जा सकता है, किंतु ये सब ज्योतियाँ मिलकर भी आत्मज्योति को नहीं देख पातीं। धनभागी हैं वे लोग, जो इस आत्मज्योति को पाये हुए संतों के द्वार पहुँचकर अपनी आत्मज्योति जगाते हैं।

 

ज्योति के इस शुभ पर्व पर हम सब शुभ संकल्प करें कि संतों से, सदगुरु से प्राप्त मार्गदर्शन के अनुसार जीवन जीकर हम भी भीतर के प्रकाश को जगायेंगे.... अज्ञान-अंधकार को मिटाकर ज्ञानालोक फैलायेंगे। दुःख आयेगा तो दुःख के साथ नहीं जुड़ेंगे। सुख आयेगा तो सुख में नहीं बहेंगे। चिंता आयेगी तो उस चिंता में चकनाचूर नहीं होंगे। भय आयेगा तो भयभीत नहीं होंगे वरन् निर्दुःख, निश्चिंत, निर्भय और परम आनंदस्वरूप उस आत्मज्योति से अपने जीवन को भी आनंद से सराबोर कर देंगे। हरि ॐ.... ॐ.... ॐ...

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

अनुक्रम

 

दीपावली पर देता हूँ एक अनूठा आशीर्वाद

सुथरा नाम के एक फकीर थे। वे अपनी स्पष्टवादिता के लिए प्रसिद्ध थे। वे किसी मठ में पधारे।

 

एक बार उस मठ में नवविवाहित वर-वधू प्रणाम करने के लिए आये तो मठाधीश ने कहाः

"जुग-जुग जियो युवराज !"

उसकी पत्नी से भी कहाः "जुग-जुग जियो, बेटी !"

वर के माता-पिता ने प्रणाम किया तो उन्हें भी कहाः "जुग-जुग जियो।"

उन्होंने दक्षिणा वगैरह रखकर प्रसाद लिया। तब मठाधीश ने कहाः

"यहाँ सुथरा नाम के उच्च कोटि के संत पधारे हैं। जाओ, उनके भी दर्शन कर लो।"

वे लोग फकीर सुथरा के पास पहुँचे और वर ने उन्हें प्रणाम किया।

सुथरा फकीरः "बेटा ! तू मर जायेगा।"

कन्या ने प्रणाम किया तब बोलेः "दुल्हन ! तू मर जायेगी।"

माता-पिता के प्रणाम करने पर भी सुथरा फकीर बोलेः "तुम लोग तो जल्दी मरोगे।"

यह सुनकर वर के पिता बोल उठेः "महाराज ! उन मठाधीश ने तो हमें आशीर्वाद दिये हैं कि "जुग-जुग जियो" और आप कहते हैं कि 'जल्दी मर जाओगे।' ऐसा क्यों महाराज?"

सुथरा फकीरः "झूठ बोलने का धंधा हमने उन मठाधीशों और पुजारियों को सौंप दिया है। पटाने और दुकानदारी चलाने का धंधा हमने उनके हवाले कर दिया है। हम तो सच्चा आशीर्वाद देते हैं। दुल्हन से हमने कहाः 'बेटी ! तू मर जायेगी।' इसलिए कहा कि वह सावधान हो जाये और मरने से पहले अमरता की ओर चार कदम बढ़ा ले तो उसका प्रणाम करना सफल हो जायेगा।

 

दूल्हे से भी हमने कहा कि 'बेटा ! तू मर जायेगा' ताकि उसको मौत की याद आये और वह भी अमरता की ओर चल पड़े। तुम दोनों को भी वही आशीर्वाद इसीलिए दिया कि तुम भी नश्वर जगत के मायिक संबंधों से अलग होकर शाश्वत की तरफ चल पड़ो।"

 

सुथरा फकीर ने जो आशीर्वाद दिया था, वही आशीर्वाद इस दीपावली के अवसर पर मैं आपको देता हूँ कि मर जाओगे....'

 

ऐसा आशीर्वाद आपको गुजरात में कहीं नहीं मिलेगा, हिंदुस्तान में भी नहीं मिलेगा और मुझे तो यहाँ तक कहने में संकोच नहीं होता कि पूरी दुनिया में ऐसा आशीर्वाद कहीं नहीं मिलेगा। यह आशीर्वाद इसलिए देता हूँ कि जब मौत आयेगी तो ज्ञान वैराग्य पनपेगा और जहाँ ज्ञान वैराग्य है, वहीं संसार की चीजें तो दासी की नाईं आती हैं, बाबा !

 

मैं तुम्हें धन-धान्य, पुत्र-परिवार बढ़ता रहे, आप सुखी रहें.... ऐसे छोटे-छोटे आशीर्वाद क्या दूँ? मैं तो होलसेल में आशीर्वाद दे देता हूँ ताकि तुम भी अध्यात्म के मार्ग पर चलकर अमरत्व का आस्वाद कर सको।

 

किसी शिष्य  ने अपने गुरु से विनती कीः

"गुरुदेव ! मुझे शादी करनी है, किंतु कुछ जम नहीं रहा है। आप कृपा कीजिये।"

गुरुजी बोलेः "ले यह मंत्र और जब देवता आयें, तब उनसे वरदान माँग लेना लेकिन ऐसा माँगना कि तुझे फिर दुःखी न होना पड़े। तू शादी करे किंतु बेटा न हो तो भी दुःख, बेटा हो और धन-संपत्ति न हो तब भी दुःख और बेटे की शादी नहीं होगी तब भी दुःख, बेटे की सुकन्या न मिली तब भी दुःख। इसलिए मैं ऐसी युक्ति बताता हूँ कि तुझे इनमें से कोई भी दुःख ने सहना पड़े और एक ही वरदान में सब परेशानियाँ मिट जायें।

 

गुरु ने बता दी युक्ति। शिष्य ने मंत्र जपा और देवता प्रसन्न होकर कहने लगेः

"वर माँग।

तब वह बोलाः "हे देव ! मुझे और कुछ नहीं चाहिए, मैं अपनी इन आँखों से अपनी पुत्रवधू को सोने के कलश में छाछ बिलौते हुए देखूँ, केवल इतना ही वरदान दीजिये।"

 

अब छाछ बिलौते हुए पुत्रवधू को देखना है तो शादी तो होगी ही। शादी भी होगी, बेटा भी होगा, बेटे की शादी भी होगी और सोने का कलश होगा तो धन भी आ ही गया। अर्थात् सब बातें एक ही वरदान में आ गयीं। किंतु इससे भी ज्यादा प्रभावशाली यह आशीर्वाद है....

 

दुनिया की सब चीजें कितनी भी मिल जायें, किंतु एक दिन तो छोड़कर जाना ही पड़ेगा। आज मृत्यु को याद किया तो फिर छूटने वाली चीजों में आसक्ति नहीं होगी, ममता नहीं होती और जो कभी छूटने वाला नहीं है, उस अछूट के प्रति, उस शाश्वत के प्रति प्रीति हो जायेगी, तुम अपना शुद्ध-बुद्ध, सच्चिदानंद, परब्रह्म परमात्म-स्वरूप पा लोगे। जहाँ इंद्र का वैभव भी नन्हा लगता है, ऐसे आत्मवैभव को सदा के लिए पा लोगे।

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

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दीपावली का तात्त्विक दृष्टिकोण

तात्त्विक दृष्टि से देखा जाये तो मनुष्यमात्र सुख का आकांक्षी है, क्योंकि उसका मूलस्वरूप सुख ही है। वह सुखस्वरूप आत्मा से ही उत्पन्न हुआ है। जैसे पानी कहीं भी बरसे, सागर की ओर ही जाता है क्योंकि उसका उदगम स्थान सागर है। हर चीज अपने उदगम स्थान की ओर ही आकर्षित होती है। यह स्वाभाविक है, तार्किक सिद्धान्त है।

 

जीव का मूलस्वरूप है सत्, चित्त, और आनंद। सत् की सत्ता से इसका अस्तित्व मौजूद है, चेतन की सत्ता से इसमें ज्ञान मौजूद है और आनंद की सत्ता से इसमें सुख मौजूद है। .... तो जीव निकला है सच्चिदानंद परमात्मा से। जीवात्मा सच्चिदानंद परमात्मा का अविभाज्य अंग है। ये सारे पर्व, उत्सव और कर्म हमारे ज्ञान, सुख और आनंद की वृद्धि के लिए तथा हमारी शाश्वतता की खबर देने के लिए ऋषि-मुनियों ने आयोजित किये हैं।

 

अभी मनौवैज्ञानिक बोलते हैं कि जिस आदमी को लंबा जीवन जीना है, उसको सतत एक जैसा काम नहीं करना चाहिए, कुछ नवीनता चाहिए, परिवर्तन चाहिए। आप अपने घर का सतत एक जैसा काम करते हैं तो ऊब जाते हैं, किंतु जब उस काम को थोड़ी देर के लिए छोड़कर दूसरे काम में हाथ बँटाते हैं और फिर उस पहले काम में हाथ डालते हैं तो ज्यादा उत्साह से कर पाते हैं। बदलाहट आपकी माँग है। कोल्हू के बैल जैसा जीवन जीने से आदमी थक जाता है, ऊब जाता है तो पर्व और उत्सव उसमें बदलाहट लाते हैं।

 

बदलाहट भी 3 प्रकार की होती हैः सात्त्विक, राजसिक और तामसिक। जो साधारण मति के हैं, निगुरे हैं वे मानसिक बदलाहट करके थोड़ा अपने को मस्त बना लेते हैं। 'रोज-रोज क्या एक-जैसा... आज छुट्टी का दिन है, जरा वाइन पियो, क्लब में जाओ। अपने घर में नहीं, किसी होटल में जाकर खाओ-पियो, रहो.....'

 

परदेश में बदलाहट की यह परंपरा चल पड़ी तामसिक बदलाहट जितना हर्ष लाती है, उतना ही शोक भी लाती है। ऋषियों ने पर्वों के द्वारा हमें राजसी-तामसी बदलाहट की अपेक्षा सात्त्विक बदलाहट लाने का अवसर दिया है।

 

रोज एक-जैसा भोजन करने की अपेक्षा उसमें थोड़ी बदलाहट लाना तो ठीक है, लेकिन भोजन में सात्त्विकता होनी चाहिए और स्वयं में दूसरो के साथ मिल-बाँटकर खाने की सदभावना होनी चाहिए। ऐसे ही कपड़ों में बदलाहट भले लाओ, लेकिन परिवार के लिए भी लाओ और गरीब-गुरबों को भी दान करो।

 

त्यागात् शांतिरनंतरम्..... त्याग से तत्काल ही शांति मिलती है। जो धनवान हैं, जिनके पास वस्तुएँ हैं, वे उन वस्तुओं का वितरण करेंगे तो उनका चित्त उन्नत होगा व सच्चिदानंद में प्रविष्ट होगा और जिनके पास धन, वस्तु आदि का अभाव है, वे इच्छा-तृष्णा का त्याग करके प्रभु का चिन्तन कर अपने चित्त को प्रभु के सुख से भर सकते हैं। ...तो सत्-चित्-आनंद से उत्पन्न हुआ यह जीव अपने सत्-चित्त-आनंदस्वरूप को पा ले, इसलिए पर्वों की व्यवस्था है।

 

इनमें दीपावली उत्सवों का एक गुच्छ है।

भोले बाबा कहते हैं-

प्रज्ञा दिवाली प्रिय पूजियेगा.......

 

अर्थात् आपकी बुद्धि में आत्मा का प्रकाश आये, ऐसी तात्विक दिवाली मनाना। ऐहिक दिवाली का उद्देश्य यही है कि हम तात्त्विक दिवाली मनाने में भी लग जायें। दिवाली में बाहर के दीये जरूर जलायें, बाहर की मिठाई जरूर खायें-खिलायें, बाहर के वस्त्र-अलंकार जरूर पहने-पहनाएँ, बाहर का कचरा जरूर निकालें लेकिन भीतर का प्रकाश भी जगमगाएँ, भीतर का कचरा भी निकालें और यह काम प्रज्ञा दिवाली मनाने से ही होगा।

 

दीपावली पर्व में 4 बातें होती हैं- कूड़ा-करकट निकालना, नयी चीज लाना, दीये जगमगाना और मिठाई खाना-खिलाना।

 

दिवाली के दिनों में घर का कूड़ा-करकट निकाल कर उसे साफ-सुथरा करना स्वास्थ्य के लिए हितावह है। ऐसे ही 'मैं देह हूँ... यह संसार सत्य है.... इसका गला दबोचूँ तो सुखी हो जाऊँगा.... इसका छीन-झपट लूँ तो सुखी हो जाऊँगा... इसको पटा लूँ तो सुखी हो जाऊँगा... इस प्रकार का जो हल्की, गंदी मान्यतारूपी कपट हृदय में पड़ा है, उसको निकालें।

 

सत्य समान तप नहीं, झूठ समान नहीं पाप।

जिसके हिरदे सत्य है, उसके हिरदे आप।।

 

वैर, काम, क्रोध, ईर्ष्या-घृणा-द्वेष आदि गंदगी को अपने हृदयरूपी घर से निकालें।

 

शांति, क्षमा, सत्संग, जप, तप, धारणा-ध्यान-समाधि आदि सुंदर चीजें अपने चित्त में धारण करें। दिवाली में लोग नयी चीजें लाते हैं न। कोई चाँदी की पायल लाते हैं तो कोई अँगूठी लाते हैं, कोई कपड़े लाते हैं तो कोई गहने लाते हैं तो कोई नयी गाड़ी लाते हैं। हम भी क्षमा, शांति आदि सदगुण अपने अंदर उभारने का संकल्प करें।

 

इन दिनों प्रकाश किया जाता है। वर्षा ऋतु के कारण बिनजरूरी जीव-जंतु बढ़ जाते हैं, जो मानव के आहार-व्यवहार और जीवन में विघ्न डालते हैं। वर्षा-ऋतु के अंत का भी यही समय है। अतः दीये जलते हैं तो कुछ कीटाणु तेल की बू से नष्ट हो जाते हैं और कई कीट पतंग दीये की लौ में जलकर स्वाहा हो जाते हैं।

 

दिवाली के दिनों में मधुर भोजन किया जाता है, क्योंकि इन दिनों पित्त प्रकोप बढ़ जाता है। पित्त के शमन के लिए मीठे, गरिष्ठ और चिकने पदार्थ हितकर होते हैं।

 

दिवाली पर्व पर मिठाई खाओ-खिलाओ, किन्तु मिठाई खाने में इतने मशगूल न हो जाओ कि रोग का रूप ले ले। दूध की मावे की मिठाइयाँ स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं।

 

यह दिवाली तो वर्ष में एक बार ही आती है और हम उत्साह से बहुत सारा परिश्रम करते हैं तब कहीं जाकर थोड़ा-सा सुख देकर चली जाती हैं, किंतु एक दिवाली ऐसी भी है, जिसे एक बार ठीक से मना लिया तो फिर उस दिवाली का आनंद, सुख और प्रकाश कम नहीं होता।

 

सारे पर्व मनाने का फल यही है कि जीव अपने शिवस्वरूप को पा ले, अपनी आत्मदिवाली में आ जाये।

 

जैसे, गिल्ली-डंडा खेलने वाला व्यक्ति गिल्ली को एक डंडा मारता है तो थोड़ी ऊपर उठती है। दूसरी बार डंडा मारता है तो गिल्ली गगनगामी हो जाती है। ऐसे ही उत्सव-पर्व मनाकर आप अपनी बुद्धिरूपी गिल्ली को ऊपर उठाओ और उसे ब्रह्मज्ञान का ऐसा डंडा मारो कि वह मोह-माया और काम-क्रोध आदि से पार होकर ब्रह्म-परमात्मा तक पहुँच जाये।

 

किसी साधक ने प्रार्थना करते हुए कहा हैः

 

मैंने जितने दीप जलाये, नियति पवन ने सभी बुझाये।

मेरे तन-मन का श्रम हर ले, ऐसा दीपक तुम्हीं जला दो।।

 

अपने जीवन में उजाला हो, दूसरों के जीवन में भी उजाला हो, व्यवहार की पवित्रता का उजाला हो, भावों तथा कर्मों की पवित्रता का उजाला हो और स्नेह व मधुरता की मिठाई हो, राग-द्वेष कचरे आदि को हृदयरूपी घर से निकाल दें और उसमें क्षमा, परोपकार आदि सदगुण भरें– यही दिवाली पर्व का उद्देश्य है।

 

कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा....

 

शरीर से, वाणी से, मन से, इन्द्रियों से जो कुछ भी करें, उस परमात्मा के प्रसाद को उभारने के लिए करें तो फिर 365 दिनों में एक बार आने वाली दिवाली एक ही दिन की दिवाली नहीं रहेगी, आपकी हमारी दिवाली रोज बनी रहेगी।

 

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अनुक्रम

 


लक्ष्मीपूजन का पौराणिक पर्वः दीपावली

अंधकार में प्रकाश का पर्व... जगमगाते दीयों का पर्व.... लक्ष्मीपूजन का पर्व.... मिठाई खाने-खिलाने का पर्व है दीपावली। दीपावली का पर्व कबसे मनाया जाता है? इस विषय में अनेक मत प्रचलित हैं-

 

किसी अंग्रेज ने आज से 900 वर्ष पहले भारत की दिवाली देखकर अपनी यात्रा-संस्मरणों में इसका बड़ा सुन्दर वर्णन किया है तो दिवाली उसके पहले भी होगी।

 

कुछ का कहना है कि गुरु गोविन्दसिंह इस दिन से विजययात्रा पर निकले थे। तबसे सिक्खों ने इस उत्सव को अपना मानकर प्रेम से मनाना शुरू किया।

 

रामतीर्थ के भक्त बोलते हैं कि रामतीर्थ ने जिस दिन संन्यास लिया था, वह दिवाली का दिन हमारे लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसी दिन वे प्रकट हुए थे तथा इसी दिन समाधिस्थ भी हुए थे। अतः हमारे लिए यह दिन अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।

 

महावीर के प्यारे कहते हैं कि 'महावीर ने अंदर का अँधेरा मिटाकर उजाला किया था। उसकी स्मृति में दिवाली के दिन बाहर दीये जलाते हैं। महावीर ने अपने जीवन में तीर्थंकरत्व को पाया था, अतः उनके आत्म उजाले की स्मृति कराने वाला यह त्यौहार हमारे लिए विशेष आदरणीय है।

 

कुछ लोगों का कहना है कि आदिमानव ने जब अँधेरे पर प्रकाश से विजय पायी, तबसे यह उत्सव मनाया रहा है। जबसे अग्नि प्रकटाने के साधनों की खोज हुई, तब से उस खोज की याद में वर्ष में एक दिन दीपकोत्स्व मनाया जा रहा है।

 

भगवान रामचंद्र जी को मानने वाले कहते हैं कि भगवान श्रीराम का राज्याभिषेक इसी अमावस के दिन हुआ था और राज्याभिषेक के उत्सव में दीप जलाये गये थे, घर-बाजार सजाये गये थे, गलियाँ साफ-सुथरी की गयी थीं, मिठाइयाँ बाँटी गयीं थीं, तबसे दिवाली मनायी जा रही है।

 

कुछ लोग बोलते हैं कि भगवान ने राजा बलि से दान में तीन कदम भूमि माँग ली और विराट रूप लेकर तीनों लोक ले लिए तथा सुतल का राज्य बलि को प्रदान किया। सुतल का राज्य जब बलि को मिला और उत्सव हुआ, तबसे दिवाली चली आ रही है।

 

कुछ लोग कहते हैं कि सागर मंथन के समय क्षीरसागर से महालक्ष्मी उत्पन्न हुईं तथा भगवान नारायण और लक्ष्मी जी का विवाह-प्रसंग था, तबसे यह दिवाली मनायी जा रही है।

 

इस प्रकार पौराणिक काल में जो भिन्न-भिन्न प्रथाएँ थीं, वे प्रथाएँ देवताओं के साथ जुड़ गयीं और दिवाली का उत्सव बन गया।

 

यह उत्सव कब से मनाया जा रहा है, इसका कोई ठोस दावा नहीं कर सकता, लेकिन है यह रंग-बिरंगे उत्सवों का गुच्छ..... यह केवल सामाजिक, आर्थिक और नैतिक उत्सव ही नहीं वरन् आत्मप्रकाश की ओर जाने का संकेत करने वाला, आत्मोन्नति कराने वाला उत्सव है।

 

संसार की सभी जातियाँ अपने-अपने उत्सव मनाती हैं। प्रत्येक समाज के अपने उत्सव होते हैं जो अन्य समाजों से भिन्न होते हैं, परंतु हिंदू पर्वों और उत्सवों में कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं, जो किसी अन्य जाति के उत्सवों में नहीं हैं। हम लोग वर्षभर उत्सव मनाते रहते हैं। एक त्यौहार मनाते ही अगला त्यौहार सामने दिखाई देता है। इस प्रकार पूरा वर्ष आनन्द से बीतता है।

 

हिंदू धर्म की मान्यता है कि सब प्राणियों में अपने जैसा आत्मा समझना चाहिए और किसी को अकारण दुःख नहीं देना चाहिए। संभवतः इसी बात को समझने के लिए पितृपक्ष में कौए को भोजन देने की प्रथा है। नाग पंचमी के दिन सर्प को दूध पिलाया जाता है। कुछ अवसरों पर कुत्ते को भोजन दिया जाता है।

 

हर ऋतु में नयी फसल आती है। पहले वह ईश्वर को अर्पण करना, फिर मित्रों और संबंधियों में बाँटकर खाना – यह हिंदू परंपरा है। इसीलिए दिवाली पर खील-बताशे, मकर संक्रांति यानी उत्तरायण पर्व पर तिल गुड़ बाँटे जाते हैं। अकेले कुछ खाना हिंदू परंपरा के विपरीत है। पनीरयुक्त मिठाइयाँ स्वास्थ्य के लिए हानिकर हैं। स्वामी विवेकानंद मिठाई की दुकान को साक्षात् यम की दुकान कहते थे। अतः दिवाली के दिनों में नपी तुली मिठाई खानी चाहिए।

 

एक दरिद्र ब्राह्मण की कथा है। अपनी दरिद्रता दूर करने के लिए उसने भगवान शिव की आराधना की। शिवजी ने कहाः

 

''तू राजा को इस बात के लिए राजी कर ले कि कार्तिक अमावस्या की रात्रि को तेरे नगर में कोई दीये न जलाये। केवल तू ही दीये जलाना की सम्मति ले लेना। उस रात्री को लक्ष्मी विचरण करती आयेंगी और तेरे जगमगाते घर में प्रवेश करेंगी। उस वक्त तू लक्ष्मी जी से तू कहना कि 'मां ! आप चंचला हो। अगर अचल रहकर मेरे कुल में तीन पीढ़ी तक रहना चाहो तो ही आप मेरे घर में प्रवेश करना।' अमावस के अंधेरे में भी जगमगाता उजाला करने का तुम्हारा पुरुषार्थ  देखकर माँ प्रसन्न होंगी और वरदान दे देंगी।"

 

ब्राह्मण ने ऐसा ही किया और राजा को प्रसन्न कर लिया। राजा ने कहाः "इतनी खुशामद करके आप केवल इतनी-सी चीज माँगते हैं? ठीक है, मैं आज्ञा करा दूँगा कि उस दिन कोई दीये न जलाये"

 

राजा ने आज्ञा करवा दी कि अमावस की रात को कोई दीये नहीं जलायेगा। उस दिन ब्राह्मण ने खूब दीये जलाये और माँ लक्ष्मी उसके यहाँ आयीं। ऐसी कथाएँ भी मिलती हैं।

 

कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यही है कि लक्ष्मी उसी के यहाँ रहती है, जिसके यहाँ उजाला होता है। उजाले का आध्यात्मिक अर्थ यह है कि हमारी समझ सही हो। समझ सही होती है तो लक्ष्मी महालक्ष्मी हो जाती है और समझ गलत होती है तो धन मुसीबतें व चिंताएँ ले आता है।

 

एक बार देवराज इन्द्र ने माँ लक्ष्मी से पूछाः

"दिवाली के दिनों में  जो आपकी पूजा करता है उसके यहाँ आप रहती हैं – इस बात के पीछे आपका क्या अभिप्राय है?

 

माँ लक्ष्मी ने कहाः

स्वधर्मानुष्ठानस्तु धैर्यबललिप्तेषु च।

 

हे इन्द्र ! जो अपने धर्म का, अपने कर्तव्य का पालन धैर्य से करते हैं, कभी विचलित नहीं होते और स्वर्गप्राप्ति के लिए साधनों में सादर लगे रहे हैं, उन प्राणियों के भीतर मैं सदा निवास करती हूँ।

 

जिनके हृदय में सरलता, बुद्धिमानी, अहंकार शून्यता, परम सौहार्दता, पवित्रता और करूणा है, जिनमें क्षमा का गुण विकसित है, सत्य, दान जिनका स्वभाव बन जाता है, कोमल वचन और मित्रों से अद्रोह (धोखा न करने) का जिनका वचन है, उनके यहाँ तो मैं बिना बुलाये रहती हूँ।"

 

लक्ष्मीजी के चित्र पर केवल फूल चढ़ा दिये, पत्र-पुष्प चढ़ा दिये, नैवेद्य धर दिया.... इससे ही लक्ष्मी पूजन संपन्न नहीं हो जाता बल्कि पूर्ण लक्ष्मी-पूजन तो वहाँ होता है, जहाँ मूर्खों का सत्कार और विद्वानों का अनादर नही होता, जहाँ से याचक कुछ पाये बिना (खाली हाथ) नहीं लौटता, जहाँ परिवार में स्नेह होता है। वहाँ लक्ष्मीजी 'वित्त' नहीं होतीं, महालक्ष्मी होकर रहती हैं।

 

धन हो और समझ नहीं हो तो वह धन, वह लक्ष्मी वित्त हो जाती है। धन दिखावे के लिए नहीं है वरन् दूसरों का दुःख दूर करने के लिए है। धन धर्म के लिए है और धर्म का फल भी भोग नहीं, योग है। जीवात्मा परमात्मा के साथ योग करे इसलिए धर्म किया जाता है।

 

जहाँ शराब-कबाब होता है, दुर्व्यसन होते हैं, कलह होता है वहाँ की लक्ष्मी 'वित्त' बनकर सताती है, दुःख और चिंता उत्पन्न करती है। जहाँ लक्ष्मी का धर्मयुक्त उपयोग होता है, वहाँ लक्ष्मी महालक्ष्मी होकर नारायण के सुख से सराबोर करती है।

 

केवल धन सुविधाएँ देता है, वासनाएँ उभारता है जबकि धर्मयुक्त धन ईश्वरप्रेम उभारता है। परदेश में धन तो खूब है लेकिन वह वित्त है, महालक्ष्मी नहीं... जबकि भारतीय संस्कृति ने सदैव ज्ञान का आदर किया है और ज्ञान धर्मसहित जो संपत्ति होती है, वही महालक्ष्मी होती है।

 

गोधन गजधन वाजिधन, और रतनधन खान।

जब आवे संतोषधन, सब धन धूरि समान।।

 

आत्मसंतोषरूपी धन सबसे ऊँचा है। उस धन में प्रवेश करा दे ऐसा ऐहिक धन हो, इसीलिए ऐहिक धन को सत्कर्मों का संपुट देकर सुख-शांति, भुक्ति-मुक्ति का माधुर्य पाने के लिए महालक्ष्मी की पूजा अर्चना की जाती है।

 

दीपावली वर्ष का प्रथम दिन, दीनता-हीनता अथवा पाप-ताप में न जाय वरन् शुभ-चिंतन में, सत्कर्मों में प्रसन्नता में बीते, ऐसा प्रयत्न करें।

 

अनुक्रम

 


माँ लक्ष्मी का निवास कहाँ ?

 

युधिष्ठिर ने पितामह भीष्म से पूछाः

"दादाजी ! मनुष्य किन उपायों से दुःखरहित होता है? किन उपायों से जाना जाय कि यह मनुष्य दुःखी होने वाला है और किन उपायों से जाना जाये कि यह मनुष्य सुखी होने वाला है? इसका भविष्य उज्जवल होने वाला है, यह कैसे पता चलेगा और यह भविष्य में पतन की खाई में गिरेगा, यह कैसे पता चलेगा?"

 

इस विषय में एक प्राचीन कथा सुनाते हुए भीष्मजी ने कहाः

एक बार इन्द्र, वरुण आदि विचरण कर रहे थे। वे सूर्य की प्रथम किरण से पहले ही सरिता के तट पर पहुँचे तो देवर्षि नारद भी वहाँ विद्यमान थे। देवर्षि नारद ने सरिता में गोता मारा, स्नान किया और मौनपूर्वक जप करते-करते सूर्य नारायण को अर्घ्य दिया। देवराज इंद्र ने भी ऐसा ही किया।

 

इतने में सूर्य नारायण की कोमल किरणें उभरने लगीं और एक कमल पर देदीप्यमान प्रकाश छा गया। इंद्र और नारदजी ने उस प्रकाशपुंज की ओर गौर से देखा तो माँ लक्ष्मीजी ! दोनों ने माँ लक्ष्मी का अभिवादन किया। फिर पूछाः

 

"माँ ! समुद्र मंथन के बाद आपका प्राकट्य हुआ था।

 

ॐ नमः भाग्यलक्ष्मी य विद् महे।

अष्टलक्ष्मी य धीमहि।

तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात्।

 

ऐसा कहकर आपको लोग पूजते हैं। मातेश्वरी ! आप ही बताइये कि आप किस पर प्रसन्न होती हैं? किसके घर में आप स्थिर रहती हैं और किसके घर से आप विदा हो जाती हैं? आपकी संपदा किसको विमोहित करके संसार में भटकाती है और किसको असली संपदा भगवान नारायण से मिलाती है?

 

माँ लक्ष्मी: "देवर्षि नारद और देवेन्द्र ! तुम दोनों ने लोगों की भलाई के लिए, मानव-समाज के हित के लिए प्रश्न किया है। अतः सुनो।

 

पहले मैं दैत्यों के पास रहती थी क्योंकि वे पुरुषार्थी थे, सत्य बोलते थे, वचन के पक्के थे अर्थात् बोलकर मुकरते नहीं थे। कर्तव्यपालन में दृढ़ थे, एक बार जो विश्वास कर लेते थे, उसमें तत्परता से जुट जाते थे। अतिथि का सत्कार करते थे। निर्दोषों को सताते नहीं थे। सज्जनों का आदर करते थे और दुष्टों से लोहा लेते थे। जबसे उनके सदगुण दुर्गुणों में बदलने लगे, तबसे मैं तुम्हारे पास देवलोक में आने लगी।

 

समझदार लोग उद्योग से मुझे पाते हैं, दान से मेरा विस्तार करते हैं, संयम से मुझे स्थिर बनाते हैं और सत्कर्म में मेरा उपयोग करके शाश्वत हरि को पाने का यत्न करते हैं।

 

जहाँ सूर्योदय से पहले स्नान करने वाले, सत्य बोलने वाले, वचन में दृढ़ रहने वाले, पुरुषार्थी, कर्तव्यपालन में दृढ़ता रखने वाले, अकारण किसी को दंड न देने वाले रहते हैं, जहाँ उद्योग, साहस, धैर्य और बुद्धि का विकास होता है और भगवत्परायणता होती है, वहाँ मैं निवास करती हूँ।

 

देवर्षि ! जो भगवान के नाम का जप करते हैं, स्मरण करते हैं और श्रेष्ठ आचार करते हैं, वहाँ मेरी रूचि बढ़ती है। पूर्वकाल में चाहे कितना भी पापी रहा हो, अधम और पातकी रहा हो परन्तु जो अभी संत और शास्त्रों के अनुसार पुरुषार्थ करता है, मैं उसके जीवन में भाग्यलक्ष्मी, सुखदलक्ष्मी, करुणालक्ष्मी और औदार्यलक्ष्मी के रूप में आ विराजती हूँ।

 

जो सुबह झाडू-बुहारी करके घर को साफ सुथरा रखते हैं, इन्द्रियों को संयम में रखते हैं, भगवान के प्रति श्रद्धा रखते हैं, किसी की निंदा न तो करते हैं न ही सुनते हैं, जरा-जरा बात में क्रोध नहीं करते हैं, जिनका दयालु स्वभाव है और जो विचार वान हैं, उनके वहाँ मैं स्थिर होकर रहती हूँ।

 

जो मुझे स्थिर रखना चाहते हैं, उन्हे रात्रि को घर में झाड़ू-बुहारी नहीं करनी चाहिए।

 

जो सरल है, सुदृढ़ भक्ति वाले हें, परोपकार को नहीं भूलते हैं, मृदुभाषी हैं, विचार सहित विनम्रता का सदगुण जहाँ है, वहाँ मैं निवास करती हँ।

 

जो विश्वासपात्र जीवन जीते हैं, पर्वों के दिन घी और मांगलिक वस्तुओं का दर्शन करते हैं, धर्मचर्चा करते-सुनते हैं, अति संग्रह नहीं करते और अति दरिद्रता में विश्वास नहीं करते, जो हजार-हजार हाथ से लेते हैं और लाख-लाख हाथ से देने को तत्पर रहते हैं, उन पर मैं प्रसन्न रहती हूँ।

 

जो दिन में अकारण नहीं सोते, विषादग्रस्त नहीं होते, भयभीत नहीं होते, रोग से ग्रस्त व्यक्तियों को सांत्वना देते हैं, पीड़ित व्यक्तियों को, थके हारे व्यक्तियों को ढाढ़स बँधाते हैं, ऐसों पर मैं प्रसन्न रहती हूँ।

 

जो दुर्जनों के संग से अपने को बचाते हैं, उनसे न तो द्वेष करते हैं न प्रीति और सज्जनों का संग आदरपूर्वक करते हैं और बार-बार निस्संग नारायण में ध्यानस्थ हो जाते हैं उनके वहाँ मैं बिना बुलाये वास करती हूँ।

 

जिनके पास विवेक है, जो उत्साह से भरे हैं,  जो अहंकार से रहित हैं और आलस्य, प्रमाद जहाँ फटकता नहीं, वहाँ मैं प्रयत्नपूर्वक रहती हूँ।

 

जो अप्रसन्नता के स्वभाव को दूर फेंकते हैं, दोषदृष्टि के स्वभाव से किनारा कर लेते हैं, अविवेक से किनारा कर लेते हैं, असंतोष से अपने को उबार लेते हैं, जो तुच्छ कामनाओं से नहीं गिरते, देवेन्द्र ! उन पर मैं प्रसन्न रहती हूँ।

 

जिसका मन जरा-जरा बात में खिन्न होता है, जो जरा-जरा बात में अपने वचनों से मुकर जाता है, दीर्घसूत्री होता है, आलसी होता है, दगाबाज और पराश्रित होता, राग-द्वेष में पचता रहता है, ईश्वर-गुरु-शास्त्र से विमुख होता है, उससे मैं मुख मोड़ लेती हूँ।"

 

तुलसीदास जी ने भी कहा हैः

जहाँ सुमति तहँ संपति नाना।

जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना।।

 

जहाँ सत्त्वगुण होता है, सुमति होती है, वहाँ संपत्ति आती है और जहाँ कुमति होती है, वहाँ दुःख होता है। जीवन में अगर सत्त्व है तो लक्ष्मीप्राप्ति का मंत्र चाहे जपो, चाहे न भी जपो....

 

क्रियासिद्धि वसति सत्त्वे महत्तां नोपकरणे।

 

सफलता साधनों में नहीं होती वरन् सत्त्व में निवास करती है। जिस व्यक्ति में सात्त्विकता होती है, दृढ़ता होती है, पौरूष होता है, पराक्रम आदि सदगुण होते हैं, वही सफलता पाता है।

 

जो सुमति का आदर करता हुआ जीवन जीता है, उसका भविष्य उज्जवल है और जो कुमति का आश्रय लेकर सुखी होने की कोशिश करेगा तो वह यहाँ नहीं अमेरिका भी चला जाय, थोड़े बहुत डॉलर भी कमा ले तो भी दुःखी रहेगा।

 

जो छल-कपट और स्वार्थ का आश्रय लेकर, दूसरों के शोषण का आश्रय लेकर सुखी होना चाहता है, उसके पास वित्त आ सकता है, धन आ सकता है परन्तु लक्ष्मी नहीं आ सकती, महालक्ष्मी नहीं आ सकती। वित्त से बाह्य सुख के साधनों की व्यवस्था हो सकती है, धन से नश्वर भोग के पदार्थ मिल सकते हैं, लक्ष्मी से स्वर्गीय सुख मिल सकता है और महालक्ष्मी से महान परमात्म-प्रसाद की, परमात्म-शांति की प्राप्ति हो सकती है।

 

हम दिवाली मनाते हैं, एक दूसरे के प्रति शुभकामना करते हैं, एक दूसरे के लिए शुभचिंतन करते हैं – यह तो ठीक है, परंतु साथ-ही-साथ सार वस्तु का भी ध्यान रखना चाहिए कि 'एक दिवाली बीती अर्थात् आयुष्य का एक वर्ष कम हो गया।'

 

दिवाली का दिन बीता अर्थात् आयु का एक दिन और बीत गया... आज वर्ष का प्रथम दिन है, यह भी बीत जायेगा... इसी प्रकार आयुष्य बीता जा रहा है..... चाहे  फिर संपत्ति भोगकर आयुष्य नष्ट करो, चाहे कम संपत्ति में आयु नष्ट करो, चाहे गरीबी में करो.... किसी भी कीमत पर आयु को बढ़ाया नहीं जा सकता।

 

सात्त्विक बुद्धिवाला मनुष्य जानता है कि सब कुछ देकर भी आयु बढायी नहीं जा सकती। मान लो, किसी की उम्र 50 वर्ष है। 50 वर्ष खर्च करके जो कुछ मिला है वह सब वापस दे दे तो भी 50 दिन आयु बढ़ने वाली नहीं है। इतना कीमती समय है। समय अमृत है, समय मधु है, समय आत्मा की मधुरता पाने के लिए, भगवद रस पाने के लिए है। जो समय को इधर-उधर बरबाद कर देता है, समझो, उसका भविष्य दुःखदायी है।

 

जो समय का तामसी उपयोग करता है, उसका भविष्य पाशवी योनियों में, अंधकार में जायेगा। जो समय का राजसी उपयोग करता है, उसका भविष्य सुख-सुविधाओं में बीतेगा। जो समय का सात्त्विक उपयोग करता है, उसका भविष्य सात्त्विक सुख वाला होगा। परंतु जो समय का उपयोग परब्रह्म परमात्मा के लिए करता है, वह उसे पाने में भी सफल हो जायेगा।

 

जो लोग जूठे मुँह रहते हैं, मैले-कुचैले कपड़े पहनते हैं, दाँत मैले-कुचैले रखते हैं, दीन-दुःखियों को सताते हैं, माता-पिता की दुआ नहीं लेते, शास्त्र और संतों को नहीं मानते – ऐसे हीन स्वभाव वाले लोगों का भविष्य दुःखदायी है।

 

कलियुग में लोग दूध खुला रख देते हैं, घी को को जूठे हाथ से छूते हैं, जूठा हाथ सिर को लगाते हैं, जूठे मुँह शुभ वस्तुओं का स्पर्श कर लेते हैं, उनके घर का धन-धान्य और लक्ष्मी कम हो जाती है।

 

जो जप-ध्यान-प्राणायाम आदि करते हैं, आय का कुछ हिस्सा दान करते हैं, शास्त्र के ऊँचे लक्ष्य को समझने के लिए महापुरुषों का सत्संग आदरसहित सुनते हैं और सत्संग की कोई बात जँच जाये तो पकड़कर उसके अनुसार अपने को ढालने लगत हैं, समझो, उनका भविष्य मोक्षदायक है। उनके भाग्य में मुक्ति लिखी है, उनके भाग्य में परमात्मा लिखे हैं, उनके भाग्य में परम सुख लिखा है।

 

कोई किसी को सुख-दुःख नहीं देता। मानव अपने भाग्य का आप विधाता है। तुलसीदास जी महाराज ने भी कहा हैः

 

जो काहू को नहिं सुख दुःख कर दाता।

निज कृत करम भोगतहिं भ्राता।।

 

यह समझ आ जाये तो आप दुःखों से बच जाओगे। आपकी समझ बढ़ जाये, आप अपने हल्के स्वभाव पर विजय पा लो तो लक्ष्मी को बुलाना नहीं पड़ेगा वरन् लक्ष्मी आपके घर में स्वयं निवास करेगी। जहाँ नारायण निवास करते हों, वहाँ लक्ष्मी को अलग से बुलाना पड़ता है क्या? जहाँ व्यक्ति जाता है, वहाँ अपनी छाया को बुलाता है क्या? छाया तो उसके साथ ही रहती है। ऐसे ही जहाँ नारायण के लिए प्रीति है, नारायण के निमित्त आपका पवित्र स्वभाव बन गया है वहाँ संपत्ति, लक्ष्मी अपने-आप आती है।

 

भीष्म पितामह युधिष्ठिर से कहते हैं- "युधिष्ठिर ! किस व्यक्ति का भविष्य उज्जवल है, किसका अंधकारमय है? इस विषय में तुमने जो प्रश्न किया उसके संदर्भ में मैंने तुम्हें माँ लक्ष्मी के साथ देवेन्द्र और देवर्षि नारद का संवाद सुनाया। इस संवाद को जो भी सुनेगा, सुनायेगा उस पर लक्ष्मी जी प्रसन्न रहेंगी और उसे नारायण की भक्ति प्राप्ति होगी।

 

वर्ष के प्रथम दिन जो इस प्रकार की गाथा सुनेगा, सुनाएगा उसके जीवन में संतोष, शांति विवेक, भगवद भक्ति, प्रसन्नता और प्रभुस्नेह प्रकट होगा। इस संवाद को सुनने-सुनाने से जीवों का सहज में ही मंगल होगा।"

 

 

जहाँ मूर्खों का सत्कार नहीं, विद्वानों का अनादर नहीं, जहाँ से याचक कुछ पाये बिना लौटते नहीं, जहाँ परिवार में स्नेह होता है, वहीं सुखद महालक्ष्मी का निवास होता है।

 

अनुक्रम

 

लक्ष्मीजी की प्राप्ति किसको?

देवकीनन्दन श्रीकृष्ण के समीप रुक्मणीदेवी ने लक्ष्मी जी से पूछाः त्रिलोकीनाथ भगवान नारायण की प्रियतमे ! तुम इस जगत में किन प्राणियों पर कृपा करके उनके यहाँ रहती हो? कहाँ निवास करती हो और किन-किनका सेवन करती हो? उन सबको मुझे यथार्थरूप से बताओ।

 

रुक्मणीजी के इस प्रकार पूछने पर चंद्रमुखी लक्ष्मीदेवी ने प्रसन्न होकर भगवान गरुड़ध्वज के सामने ही मीठी वाणी में यह वचन कहाः

 

लक्ष्मीजी बोलीं- देवि ! मैं प्रतिदिन ऐसे पुरुष में निवास करती हूँ, जो सौभाग्यशाली, निर्भीक, कार्यकुशल, कर्मपरायण, क्रोधरहित, देवाराधतत्पर, कृतज्ञ, जितेन्द्रिय तथा बढ़े हुए सत्त्वगुण से युक्त हों।

 

जो पुरुष अकर्मण्य, नास्तिक, वर्णसंकर, कृतघ्न, दुराचारी, क्रूर, चोर तथा गुरुजनों के दोष देखनेवाला हो, उसके भीतर मैं निवास नहीं करती हूँ। जिनमें तेज, बल और सत्त्व की मात्रा बहुत थोड़ी हो, जो जहाँ तहाँ हर बात में खिन्न हो उठते हों, जो मन में दूसरा भाव रखते हैं और ऊपर कुछ और ही दिखाते हैं, ऐसे मनुष्यों में मैं निवास नहीं करती हूँ। जिसका अंतःकरण मूढ़ता से आच्छान्न है, ऐसे मनुष्यों में मैं भलीभाँति निवास नहीं करती हूँ।

 

जो स्वभावतः स्वधर्मपरायण, धर्मज्ञ, बड़े-बूढ़ों की सेवा में तत्पर, जितेन्द्रिय, मन को वश में रखने वाले, क्षमाशील और सामर्थ्यशाली हैं, ऐसे पुरुषों में तथा क्षमाशील और जितेन्द्रिय अबलाओं में भी मैं निवास करती हूँ। जो स्त्रियाँ स्वभावतः सत्यवादिनी तथा सरलता से संयुक्त हैं, जो देवताओं और द्विजों की पूजा करने वालीं, उनमें भी मैं निवास करती हूँ।

 

 

जो अपने समय को कभी व्यर्थ नहीं जाने देते, सदा दान और शौचाचार में तत्पर रहते हैं, जिन्हें ब्रह्मचर्य, तपस्या, ज्ञान, गौ और द्विज परम प्रिय हैं, ऐसे पुरुषों में मैं निवास करती हूँ। जो स्त्रियाँ, देवताओं तथा ब्राह्मणों की सेवा में तत्पर, घर के बर्तन-भाँडों को शुद्ध तथा स्वच्छ रखने वाली और गौओं की सेवा तथा धान्य के संग्रह में तत्पर होती हैं, उनमें भी मैं सदा निवास करती हूँ।

 

जो घर के बर्तनों को सुव्यवस्थित रूप से न रखकर इधर-उधर बिखेरे रहती हैं, सोच-समझकर काम नहीं करती हैं, सदा अपने पति के प्रतिकूल ही बोलती हैं, दूसरों के घरों में घूमने फिरने में आसक्त रहती हैं और लज्जा को सर्वथा छोड़ बैठती है, उनको मैं त्याग देती हूँ।

 

जो स्त्री निर्दयतापूर्वक पापाचार में तत्पर रहने वाली, अपवित्र, चटोर, धैर्यहीन, कलहप्रिय, नींद में बेसुध होकर सदा खाट पर पड़ी रहने वाली होती है, ऐसी नारी से मैं सदा दूर ही रहती हूँ।

 

जो स्त्रियाँ सत्यवादिनी और अपनी सौम्य वेश-भूषा के कारण देखने में प्रिय होती हैं, जो सौभाग्यशालिनी, सदगुणवती, पतिव्रता और कल्याणमय आचार-विचार वाली होती हैं तथा जो सदा वस्त्राभूषणों से सुसज्जित रहती हैं, ऐसी स्त्रियों में सदा निवास करती हूँ।

 

जहाँ हँसों की मधुर ध्वनि गूँजती रहती है, क्रौंच पक्षी के कलरव जिनकी शोभा बढ़ाते हैं, जो अपने तटों पर फैले हुए वृक्षों की श्रेणियों से शोभायमान हैं, जिनके किनारे तपस्वी, सिद्ध और ब्राह्मण निवास करते हैं, जिनमें बहुत जल भरा रहता है तथा सिंह और हाथी जिनके जल में अवगाहन करते रहते हैं, ऐसी नदियों में भी मैं सदा निवास करती रहती हूँ।

 

सत्पुरुषों में मेरा नित्य निवास है। जिस घर में लोग अग्नि में आहुति देते हैं, गौ, ब्राह्मण तथा देवताओं की पूजा करते हैं और समय-समय पर जहाँ फूलों से देवताओं को उपहार समर्पित किये जाते हैं, उस घर में मैं नित्य निवास करती हूँ। सदा वेदों के स्वाध्याय में तत्पर रहने वाले ब्राह्मणों, स्वधर्मपरायण क्षत्रियों, कृषि-कर्म में लगे हुए वैश्यों तथा नित्य सेवापरायण शूद्रों के यहाँ भी मैं सदा निवास करती हूँ।

 

मैं मूर्तिमति तथा अनन्यचित्त होकर तो भगवान नारायण में ही संपूर्ण भाव से निवास करती हूँ, क्योंकि उनमें महान धर्म सन्निहित है। उनका ब्राह्मणों के प्रति प्रेम है और उनमें स्वयं सर्वप्रिय होने का गुण भी है।

 

देवी ! मैं नारायण के सिवा अन्यत्र शरीर से नहीं निवास करती हूँ। मैं यहाँ ऐसा नहीं कह सकती कि सर्वत्र इसी रूप में रहती हूँ। जिस पुरुष में भावना द्वारा निवास करती हूँ, वह, धर्म, यश और धन से संपन्न होकर सदा बढ़ता रहता है।

(महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्यायः11)

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दीपज्योति की महिमा

 

शास्त्रों में दीपज्योति की महिमा आती है। दीपज्योति पापनाशक शत्रुओं की वृद्धि को रोकने वाली, आयु, आरोग्य देने वाली है। पूजा में, साधन-भजन में कहीं कमी रह गयी है तो अंत में आरती करने से वह कमी पूरी हो जाती है।

 

दीपो ज्योतिः परं ब्रह्म दीपो ज्योतिर्जनार्दनः।

दीपो हरतु में पापं साध्यदीप नमोऽस्तु ते।।

शुभं करोतु कल्याणं आरोग्यं सुखसम्पदम्।

शत्रुबुद्धिविनाशं च दीपज्योतिर्नमोऽस्तु ते।।

 

यदि घर में दीपक की लौ पूर्व दिशा की ओर है तो आयु की वृद्धि करती है, पश्चिम की ओर है तो दुःख की वृद्धि करती है, उत्तर की ओर है तो स्वास्थ्य और प्रसन्नता बढ़ाती है और दक्षिण की ओर है तो हानि करती हैं।

 

घर में आप दीया जलायें तो वह आपके उत्तर अथवा पूर्व में होना चाहिए। पर भगवत्प्राप्त महापुरुषों के आगे किसी भी दिशा में दीया करते हैं तो सफल ही सफल है। दीपज्योति से पाप-ताप का हरण होता है, शत्रुबुद्धि का शमन होता है और पुण्यमय, सुखमय जीवन की वृद्धि होती है।

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दीपावली पर लक्ष्मीप्राप्ति की सचोट साधना-विधियाँ

धनतेरस से आरंभ करें

 

सामग्रीः दक्षिणावर्ती शंख, केसर, गंगाजल का पात्र, धूप अगरबत्ती, दीपक, लाल वस्त्र।

 

विधिः साधक अपने सामने गुरुदेव व लक्ष्मी जी के फोटो रखे तथा उनके सामने लाल रंग का वस्त्र (रक्त कंद) बिछाकर उस पर दक्षिणावर्ती शंख रख दे। उस पर केसर से सतिया बना ले तथा कुमकुम से तिलक कर दे। बाद में स्फटिक की माला से मंत्र की 7 मालाएँ करे। तीन दिन तक ऐसा करना योग्य है। इतने से ही मंत्र-साधना सिद्ध हो जाती है। मंत्रजप पूरा होने के पश्चात् लाल वस्त्र में शंख को बाँधकर घर में रख दें। कहते हैं – जब तक वह शंख घर में रहेगा, तब तक घर में निरंतर उन्नति होती रहेगी।

 

मंत्रः ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं महालक्ष्मी धनदा लक्ष्मी कुबेराय मम गृह स्थिरो ह्रीं ॐ नमः।

 

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दीपावली से आरंभ करें

 

दीपावली पर लक्ष्मी प्राप्ति के लिए विभिन्न प्रकार की साधनाएँ करते हैं। हम यहाँ अपने पाठकों को लक्ष्मीप्राप्ति की साधना का एक अत्यन्त सरल व मात्र त्रिदिवसीय उपाय बता रहे हैं।

 

दीपावली के दिन से तीन दिन तक अर्थात् भाईदूज तक एक स्वच्छ कमरे में धूप, दीप व अगरबत्ती जलाकर शरीर पर पीले वस्त्र धारण करके, ललाट पर केसर का तिलक कर, स्फटिक मोतियों से बनी माला नित्य प्रातःकाल निम्न मंत्र की दो-दो मालाएँ जपें।

 

ॐ नमः भाग्यलक्ष्मी च विद् महे।

अष्टलक्ष्मी च धीमहि।

तन्नोलक्ष्मी प्रचोदयात्।

 

दीपावली लक्ष्मीजी का जन्मदिवस है। समुद्र मन्थन के दौरान वे क्षीरसागर से प्रकट हुई थीं। अतः घर में लक्ष्मी जी के वास, दरिद्रता के विनाश और आजीविका के उचित निर्वाह हेतु यह साधना करने वाले पर लक्ष्मी जी प्रसन्न होती हैं।

 

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दीपोत्सव

 

हिन्दू पर्वों में एक महत्वपूर्ण है 'दीपावली' जो कि पर्वों का पुंज है। दीपावली प्रकाश को प्रकट करने का त्यौहार है। इसमें दीप प्रकटाने का जो विधान रखा गया है, उसमें भी हमारे दीर्घदृष्टा ऋषियों का सूक्ष्मतम विज्ञान समाहित है।

 

संसार के समस्त दुःखों का कारण है – अपने वास्तविक स्वरूप आत्मा-परमात्मा का अज्ञान। उस अज्ञान को आत्मज्ञान के द्वारा मिटाया जाता है। प्रकाश ज्ञान का प्रतीक है। परब्रह्म परमात्मा प्रकाशरूप में, ज्ञान के रूप में सर्वत्र व्याप्त है। यहाँ पर दीपक प्रकटाने का अर्थ है – अपने जीवन में प्रकाश अर्थात् ज्ञान को प्रकट करके संसारबंधन से मुक्त होने की प्रेरणा देना और प्राप्त करना।

 

भारतीय संस्कृति में दीपक का बड़ा महत्व है, क्योंकि यह हमें ऊर्ध्वगामी होने अर्थात् ऊँचा उठने तथा अंधकार को मिटाकर प्रकाशमय, ज्ञानमय जीवन जीने की प्रेरणा देता है। प्रकाश में सब कुछ स्पष्ट और ज्यों का त्यों दिखाई देता है, जिससे हमें भय नहीं लगता तथा हमारे मनोविकार शांत हो जाते हैं। इसलिए जब कहा जाता है कि दीपक की उपासना करो तो उसका संकेत ज्ञान की उपासना से होता है। वेदों में ज्ञानस्वरूप परमात्मा का प्रकाश के रूप में पूजन किया गया है।

तव त्रिधातु पृथिवी उतद्यौर्वैश्वानर व्रतमग्ने सचन्त।

त्वं भाषा रोदसी अतत्थास्रेण शोचिपा शोशुचानः।।

 

'हे वैश्वानर देव ! यह पृथ्वी, अंतरिक्ष तथा द्युलोक आपका ही अनुशासन मानते हैं। आप प्रकाश द्वारा व्यक्त होकर सर्वत्र व्याप्त हो। आपका तेज ही सर्वत्र उदभासित हो रहा है। हम आपको कभी न भूलें।'

(ऋग्वेदः 7.5.4)

दीपावली के दीये जलाने के साथ हम अपने जीवन में आत्मज्ञान का प्रकाश लायें, यही संदेश हमारे आत्मवेत्ता ऋषियों ने हमें इस पर्व के माध्यम से दिया है।

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उनकी सदा दीवाली है

आप सभी को दीपावली की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ.... । त्रेतायुग में जब श्रीरामचन्द्र जी विजयदशमी के पावनदिन रावण पर विजय पताका फहरायी और लंका का राज्य महाराज विभीषण को देकर अपने वनवास के 14 वर्ष पूरे कर अयोध्या वापस आये थे तब से दीपावली मनायी जा रही है, ऐसी एक मान्यता है। किंतु दीपावली का उद्देश्य क्या होना चाहिए? क्या सिर्फ पटाखे चलाना? क्या सिर्फ मिठाइयाँ बाँटना या होटलों में नाचना-गाना अथवा दावतें करना? नहीं, इसका सच्चा उद्देश्य तो होना चाहिएः

 

असतो मा सद गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय।

 

अर्थात् हे भगवान, हे प्रभु ! हमें असत्य से सत्य की ओर व अंधकार से उजाले की ओर ले चलो।

 

लेकिन नहीं, हमारे जीवन में तो वनवास चल रहा है। कलियुग का प्रभाव चल रहा है। अयोध्या के राजा राम, माता कौशल्या और भरत के प्रिय राम, दशरथ के दुलारे राम तो केवल 14 वर्ष के लिए ही वनवास को जाने हेतु अलग हुए थे, लेकिन हम तो अपने अंतर्यामी राम से न जाने कितने-कितने जन्मों से बिछड़े हुए हैं। उस परम प्यारे से अलग होकर न जाने कितने युग बीत गये हैं। लेकिन बात सिर्फ इतनी सी नहीं है कि हम उससे अलग हुए हैं बल्कि उससे मिलने की अयोध्यावासियों की तरह तड़प भी तो नहीं है। उनकी हमें थोड़ी याद भी तो नहीं आती है। बस, मस्त हैं अपनी अंधी मस्ती में। पता नहीं, कहाँ जाना चाहते हैं? राह नहीं दिख रही है, फिर भी चले जा रहे हैं। हम भी काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि अनेक रावणों, कुंभकरणों व मेघनादों से घिरे हुए हैं और युद्ध कर रहे हैं, लेकिन हम सत्य पर नहीं हैं। इसलिए इन राक्षसों से हार जाते हैं और ऐसा नहीं है  एक हार के बाद दूसरी बार जीत हो। हर बार हार-ही-हार है। हारते ही रहते हैं, मरते ही रहते हैं।

 

यदि हम इस बार की दिवाली को अपनी विशेष दिवाली मनाना चाहते हैं तो हमें प्रार्थना करनी होगीः

 

अज्ञानतिमिरान्धस्य विषयाक्रान्तचेतसः।

ज्ञानप्रभाप्रदानेन प्रसादं कुरु मे प्रभो।।

 

'हे प्रभु ! अज्ञानरूपी अंधकार में अंध बने हुए और विषयों से आक्रान्त चित्तवाले मुझको ज्ञान का प्रकाश देकर कृपा करो।'

 

हमें भी श्रीराम की तरह अपने विषय-विकारों से युद्ध करना होगा और जिन सदगुणों को अपना कर श्रीराम ने रावण जैसे महाबलियों को धराशायी कर दिया, उन सदगुणों को अपना कर, उन्हें विकसित कर इन विकाररूपी राक्षसों को मारकर अपने आत्मा-परमात्मारूपी घर में वापस आना होगा। ईंट-पत्थर के घर में नहीं वरन् अपने असली घर में प्रवेश करना होगा। इसके लिए दृढ़ता से संकल्प करना होगा, ऐसी तड़प जगानी होगी कि 'अब हम ज्यादा समय तक नहीं रह सकते अपने घर से बिछड़कर ! हमारी परमात्मारूपी करुणामयी माँ कौशल्या हमें बुला रही हैं।'

 

किंतु... विकारों पर विजय प्राप्त कराने की शक्ति दिलाने वाले कोई तो चाहिए – वशिष्ठजी जैसे, याज्ञवल्क्य जैसे, लीलाशाह बापू जैसे जिन्हें हमारे घर का पता मालूम हो। जिनसे हम पूछ सकें अपने घर का पता। जो अपने घर में प्रतिष्ठित हो चुके हों ऐसे महापुरुषों की शरण में हमें जाना होगा। ऐसे सदगुरु अगर हमें मिल जायें और उनकी नूरानी नजर हम पर पड़ जाय तो बेड़ा पार हो जायेगा। क्योंकि जन्मों-जन्मों के भटके जीवों के कल्याण के लिए अपने घर का पता पूछने के लिए गुरुदेव के अलावा और कोई परम कल्याणकारी देव नहीं है।

 

ऐसे सदगुरु ही हमारी भटकान को दूर कर हमें असली घर में प्रवेश करा सकते हैं। जिन्होंने गुरुकृपा को पचाया है, उन महापुरुषों ने अपने जीवन को सफल कर लिया है। जो अपने परम पद में स्थित हो गये हैं, उन महापुरुषों के जीवन में फिर सदा ही दिवाली रहती है।

 

जिनकी जीवन नैया प्यारे, सदगुरु ने सँभाली है।

उनके मन की बगिया की, महकी हर सूखी डाली है।।

निगुरों के हैं दिन अंधियारे, उनकी रात उजियारी है।

जो मिटे सदगुरु चरणों में, उनकी बात निराली है।।

जिसने गुरु के प्रेमामृत की, भर-भर के पी प्याली है।

मानव जनम सफल है उनका, उनकी रोज दिवाली है।।

 

हम भी आज संकल्प करें- "श्रीराम का तरह सदगुरु की शरण में जाकर विकाररूपी राक्षसों पर विजय प्राप्त करने की कला सीखेंगे तथा जन्मों और सदियों से चल रहे इस युद्ध और वनवास पर विजय प्राप्त कर हम अपने घर में आयेंगे व भूले हुओं को राह दिखाकर उनके जीवन में भी ज्ञान की ज्योति प्रज्जवलित कराने में सेतु का कार्य करेंगे।

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दीपावली पूजन का शास्त्रोक्त विधान

 

कार्तिक मास में दीप दान का विशेष महत्व है। दीपावली में इसका माहात्म्य विशेष रूप में उजागर होता है। श्रीपुष्करपुराण में आता हैः

 

तुलायां तिलतैलेन सायंकाले समागते।

आकाशदीपं यो दद्यान्मासमेकं हरिं प्रति।

महतीं श्रियमाप्नोति रूपसौभाग्यसम्पदम्।।

 

'जो मनुष्य कार्तिक मास में संध्या के समय भगवान श्री हरि के नाम से तिल के तेल का दीप जलाता है, वह अतुल लक्ष्मी, रूप, सौभाग्य और संपत्ति को प्राप्त करता है।'

 

नारदजी के अनुसार दीपावली के उत्सव को द्वादशी, त्रयोदशी, चतुर्दशी, अमावस्या और प्रतिपदा – इन 5 दिनों तक मनाना चाहिए। इनमें भी प्रत्येक दिन अलग-अलग प्रकार की पूजा का विधान है।

 

कार्तिक मास की द्वादशी को 'गोवत्सद्वादशी' कहते हैं। इस दिन दूध देने वाली गाय को उसके बछड़े सहित स्नान कराकर वस्त्र ओढ़ाना चाहिए, गले में पुष्पमाला पहनाना, सींग मँढ़ाना, चंदन का तिलक करना तथा ताँबे के पात्र में सुगन्ध, अक्षत, पुष्प, तिल और जल का मिश्रण बनाकर निम्न मंत्र से गौ के चरणों का प्रक्षालन करना चाहिए।

 

क्षीरोदार्णवसम्भूते सुरासुरनमस्कृते।

सर्वदेवमये मातर्गृहाणार्घ्यं नमो नमः।।

 

'समुद्र-मंथन के समय क्षीर सागर से उत्पन्न देवताओं तथा दानवों द्वारा नमस्कृत, सर्वदेवस्वरूपिणी माता ! तुम्हें बार-बार नमस्कार है। मेरे द्वारा दिये हुए इस अर्घ्य को स्वीकार करो।'

 

पूजा के बाद गौ को उड़द के बड़े खिला कर यह प्रार्थना करनी चाहिएः

 

सुरभि त्वं जगन्मातर्देवी विष्णुपदे स्थिता।

सर्वदेवमये ग्रासं मया दत्तमिमं ग्रस।।

ततः सर्वमये देवि सर्वदेवैरलङ्कृते।

मातर्ममाभिलाषितं सफलं कुरु नन्दिनी।।

 

'हे जगदम्बे ! हे स्वर्गवासिनी देवी ! हे सर्वदेवमयी ! मेरे द्वारा अर्पित इस ग्रास का भक्षण करो। हे समस्त देवताओं द्वारा अलंकृत माता ! नंदिनी ! मेरा मनोरथ पूर्ण करो।'

 

इसके बाद रात्रि में इष्ट, ब्राह्मण, गौ तथा अपने घर के वृद्धजनों की आरती उतारनी चाहिए। दूसरे दिन कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी को धनतेरस कहते हैं। भगवान धन्वंतरी ने दुःखी जनों के रोगनिवारणार्थ इसी दिन आयुर्वेद का प्राकट्य किया था। इस दिन संध्या के समय घर में बाहर हाथ में जलता हुआ दीप लेकर भगवान यमराज की प्रसन्नता हेतु उन्हें इस मंत्र के साथ दीपदान करना चाहिएः

 

मृत्युना पाशदण्डाभ्यां कालेन श्यामया सह।

त्रयोदश्यां दीपदानात् सूर्यजः प्रीयतां मम।।

 

'त्रयोदशी के इस दीपदान से पाश और दंडधारी मृत्यु तथा काल के अधिष्ठाता देव भगवान यम, देवी श्यामासहित मुझ पर प्रसन्न हों।'

 

कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को नरक चतुर्दशी कहा जाता है। इस दिन चतुर्मुखी दीप का दान करने से नरक भय से मुक्ति मिलती है। एक चार मुख (चार लौ) वाला दीप जलाकर इस मंत्र का उच्चारण करना चाहिएः

 

दत्तो दीपश्चतुर्दश्यां नरकप्रीतये मया।

चतुर्वर्तिसमायुक्तः सर्वपापापनुत्तये।।

 

'आज चतुर्दशी के दिन नरक के अभिमानी देवता की प्रसन्नता के लिए तथा समस्त पापों के विनाश के लिए मैं 4 बत्तियों वाला चौमुखा दीप अर्पित करता हूँ।'

 

अगले दिन कार्तिक अमावस्या को दीपावली का त्यौहार मनाया जाता है। इस दिन प्रातः उठकर स्नानादि करके जप-तप करने से अन्य दिनों की अपेक्षा विशेष लाभ होता है। इस दिन पहले से ही स्वच्छ किये गृह को सजाना चाहिए भगवान नारायण सहित भगवती लक्ष्मी की मूर्ति अथवा चित्र की स्थापना करनी चाहिए।

 

तत्पश्चात धूप-दीप व स्वस्तिवाचन आदि वैदिक मंत्रों के साथ (अथवा भक्तिभाव से आरती  के द्वारा) उनकी पूजा-अर्चना करनी चाहिए। इस रात्री को भगवत लक्ष्मी भक्तों के घर पधारती हैं।

 

पाँचवे दिन कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को 'अन्नकूट दिवस' कहते हैं। इस दिन गौओं को सजाकर, उनकी पूजा करके यह मंत्र कहना चाहिए­­-

 

लक्ष्मीर्या लोकपालानां धेनुरूपेण संस्थिता।

घृतं वहति यज्ञार्थे मम पापं व्यपोहतु।।

 

'धेनुरूप में स्थित जो लोकपालों की साक्षात लक्ष्मी है तथा जो यज्ञ के लिए घी देती है, वह गौमाता मेरे पापों का नाश करे।'

 

रात्रि को गरीबों को यथासंभव अन्नदान करना चाहिए। इस प्रकार 5 दिन का यह दीपोत्सव संपन्न होता है।

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भारतीय संस्कृति की महक

दीपावली हिन्दू समाज में मनाया जाने वाला एक प्रमुख त्यौहार है। दीपावली को मनाने का उद्देश्य भारतीय संस्कृति के उस प्राचीन सत्य का आदर करना है, जिसकी महक से आज भी लाखों लोग अपने जीवन को सुवासित कर रहे हैं। दिवाली का उत्सव पर्वों का पुंज है। भारत में इस उत्सव को मनाने की परंपरा कब से चली, इस विषय में बहुत सारे अनुमान किये जाते हैं। एक अनुमान तो यह है कि आदिमानव ने जब से अग्नि की खोज की है, शायद तभी से यह उत्सव मनाया जा रहा है। जो भी हो, किंतु विभिन्न प्रकार के कथनों और शास्त्रवचनों से तो यही सिद्ध होता है कि भारत में दिवाली का उत्सव प्रतिवर्ष मनाने की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है।

 

यह तो हमारी प्रतिवर्ष मनायी जानेवाली दिवाली है, किंतु इस दिवाली को हम अपने जीवन की विशेष दिवाली बना लें, ऐसा पुरुषार्थ हमें करना चाहिए।

 

भोले बाबा ने कहाः

वर्षों दिवाली करते रहे हो, तो भी अंधेरे में घुप में पड़े हो।

 

वे महापुरुष हमसे कैसी दिवाली मनाने की उम्मीद रखते होंगे? दीपावली का पर्व प्रकाश का पर्व है, किंतु इसका वास्तविक अर्थ यह होता है कि हमें अपने जीवन में छाये हुए अज्ञानरूपी अंधकार को मिटाकर ज्ञानरूपी प्रकाश की ज्योति को प्रज्वलित करना चाहिए। यही बात उपनिषद भी कहते हैं- 'तमसो मा ज्योतिर्गमय।' परंतु इस ओर कभी हमारा ध्यान ही नहीं गया। इसी कारण उन महापुरुषों ने हमें जगाने के यह बात कही होगीः

 

जले दिये बाह्य किया उजेरा, फैला हुआ है हृदय में अंधेरा।

 

जिस प्रकार हम घी तथा तेल के दीये जलाकर रात्रि के अंधकार को मिटाते हैं, उसी प्रकार हम वर्षों से अपने मनःपटल पर पड़ी अज्ञानरूपी काली छाया को सत्कर्म, सुसंस्कार, विवेक तथा ज्ञानरूपी प्रकाश से मिटाकर ऋषियों के स्वप्न को साकार कर दें। जैसे, एक व्यापारी दीपावली के अवसर पर अपने वर्षभर के कारोबार की समीक्षा करता है, ऐसे ही हम भी अपने द्वारा किये गये वर्ष भर के कार्यों का अवलोकन करें।

 

यदि सत्कर्म अधिक किये हों तो अपना उत्साह बढ़ायें और यदि गलतियाँ अधिक हुई हों तो उन्हें भविष्य में न दोहराने का संकल्प कर अपने जीवन को सत्यरूपी ज्योति की ओर अग्रसर करें।

 

दीपावली के पर्व पर हम अपने परिचितों को मिठाई बाँटते हैं, लेकिन इस बार हम महापुरुषों के शांति, प्रेम, परोपकार जैसे पावन संदेशों को जन-जन तक पहुँचा कर पूरे समाज को ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करेंगे, ऐसा संकल्प लें। इस पावन पर्व पर हम अपने घर के कूड़े-करकट को निकालकर उसे विविध प्रकार के रंगों से रँगते हैं। ऐसे ही हम अपने मन में भरे स्वार्थ, अहंकार तथा विषय-विकाररूपी कचरे को निकाल कर उसे संतों के सत्संग, सेवा तथा भक्ति के रंगों से रँग दें।

 

योगांग झाड़ू धर चित्त झाड़ो, विक्षेप कूड़ा सब झाड़ काढ़ो।

अभ्यास पीता फिर फेरियेगा, प्रज्ञा दिवाली प्रिय पूजियेगा।।

 

आज के दिन से हमारे नूतन वर्ष का प्रारंभ भी होता है। इसलिए भी हमें अपने इस नूतन वर्ष में कुछ ऊँची उड़ान भरने का संकल्प करना चाहिए। ऊँची उड़ान भरना बहुत धन प्राप्त करना अथवा बड़ा बनने की अंधी महत्त्वकांक्षा का नाम नहीं है। ऊँची उड़ान का अर्थ है विषय-विकारों, मैं-मैं, तू-तू, स्वार्थता तथा दुष्कर्मों के देश से अपने चित्त को ऊँचा उठाना। यदि ऐसा कर सकें, तो आप ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों के जैसी दिवाली मनाने में सफल हो जायेंगे।

 

हमारे हृदय में अनेक जन्मों से बिछुड़े हुए उस राम का तथा उसके प्रेम का प्राकट्य हो जाये, यही याद दिलाने के लिए हमारे ऋषि-मुनियों ने इस पर्व को शास्त्रों में ऊँचा स्थान दिया है। उन्हें यह उम्मीद भी थी कि बाह्य ज्योत जलाते-जलाते हम अपने आंतर ज्योति को भी जगमगाना सीख जायेंगे, किंतु हम भूल गये। अतः उन महापुरुषों के संकल्प को पूर्ण करने में सहायक बनकर हम अपने जीवन को उन्नत बनाने का संकल्प करें ताकि आने वाला कल तथा आने वाली पीढ़ियाँ हम पर गर्व महसूस करें।

 

भारत के वे ऋषि-मुनि धन्य हैं, जिन्होंने दीपावली – जैसे पर्वों का आयोजन करके मनुष्य को मनुष्य के नजदीक लाने का प्रयास किया है तथा उसकी सुषुप्त शक्तियों को जागृत करने का संदेश दिया है। उन्होंने जीवात्मा को परमात्मा के साथ एकाकार करने में सहायक भिन्न-भिन्न उपायों को खोज निकाला है। उन उपायों की गाँव-गाँव तथा घर-घर तक पहुँचाने का पुरुषार्थ अनेक ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों ने किया है। उन महापुरुषों को आज हमारे कोटि-कोटि प्रणाम हैं।

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नूतन वर्ष - संदेश

रावण पर राम की विजय का अर्थात् काम राम की विजय का और अज्ञानरूपी अंधकार पर ज्ञानरूपी प्रकाश की विजय का संदेश देता है – जगमगाते दीपों का उत्सव 'दीपावली।'

 

भारतीय संस्कृति के इस प्रकाशमय पर्व की आप सभी को खूब-खूब शुभकामनाएँ... आप सभी का जीवन ज्ञानरूपी प्रकाश से जगमगाता रहे... दीपावली और नूतन वर्ष की यही शुभकामनाएँ...

 

दीपावली का दूसरा दिन अर्थात् नूतन वर्ष का प्रथम दिन.. जो वर्ष के प्रथम दिन हर्ष, दैन्य आदि जिस भाव में रहता है, उसका संपूर्ण वर्ष उसी भाव में बीतता है। 'महाभारत' में पितामह भीष्म महाराज युधिष्ठिर से कहते हैं-

 

यो यादृशेन भावेन तिष्ठत्यस्यां युधिष्ठिर।

हर्षदैन्यादिरूपेण तस्य वर्षं प्रयाति वै।।

 

'हे युधिष्ठिर ! आज नूतन वर्ष के प्रथम दिन जो मनुष्य हर्ष में रहता है उसका पूरा वर्ष हर्ष में जाता है और जो शोक में रहता है, उसका पूरा वर्ष शोक में ही व्यतीत होता है।'

 

अतः वर्ष का प्रथम दिन हर्ष में बीते, ऐसा प्रयत्न करें। वर्ष का प्रथम दिन दीनता-हीनता अथवा पाप-ताप में न बीते वरन् शुभ चिंतन में, सत्कर्मों में प्रसन्नता में बीते ऐसा यत्न करें।

 

सर्वश्रेष्ठ तो यह है कि वर्ष का प्रथम दिन परमात्म-चिंतन, परमात्म-ज्ञान और परमात्म-शांति में बीते ताकि पूरा वर्ष वैसा ही बीते। इसलिए दीपावली की रात्रि को वैसा ही चिंतन करते-करते सोना ताकि नूतन वर्ष की सुबह का पहला क्षण भी वैसा ही हो। दूसरा, तीसरा, चौथा... क्षण भी वैसा ही हो। वर्ष का प्रथम दिन इस प्रकार से आरंभ करना कि पूरा वर्ष भगवन्नाम-जप, भगवान के ध्यान, भगवान के चिंतन में बीते....

 

नूतन वर्ष के दिन अपने जीवन में एक ऊँचा दृष्टिबिंदु होना अत्यंत आवश्यक है। जीवन की ऊँचाइयाँ मिलती हैं – दुर्गुणों को हटाने और सदगुणों को बढ़ाने से लेकिन सदगुणों की भी एक सीमा है। सदगुणी स्वर्ग तक जा सकता है, दुर्गुणी नरक तक जा सकता है। मिश्रितवाला मनुष्य-जन्म लेकर सुख-दुःख, पाप-पुण्य की खिचड़ी खाता है।

 

दुर्गुणों से बचने के लिए सदगुण अच्छे हैं, लेकिन मैं सदगुणी हूँ इस बेवकूफी का भी त्याग करना पड़ता है। श्रीकृष्ण सबसे ऊँची बात बताते हैं, सबसे ऊँची निगाह देते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं-

 

प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।

न द्वेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि कांक्षति।।

 

'हे अर्जुन ! जो पुरुष सत्त्वगुण के कार्यरूप प्रकाश को और रजोगुण के कार्यरूप प्रवृत्ति को तथा तमोगुण के कार्यरूप मोह को भी न तो प्रवृत्त होने पर उनसे द्वेष करता है और न निवृत्त होने पर उनकी आकांक्षा करता है (वह पुरुष गुणातीत कहा जाता है)।'

(गीताः 14.22)

 

सत्त्वगुण प्रकाश है, रजोगुण प्रवृत्ति है और तमोगुण मोह है। ज्ञानी उनमें पड़ता भी नहीं और उनसे निकलता भी नहीं, न उनको चाहता है और न ही उनसे भागता है – यह बहुत ऊँचा दृष्टिबिंदु हैं।

 

'हमारे जीवन में इसकी प्रधानता है.... उसकी प्रधानता है...' यह सब लौकिक दृष्टि है। सच्चाई तो यह है कि सबके जीवन में सब दुःखों से निवृत्ति और परमानंद की प्राप्ति की ही प्रधानता है।

 

इसके लिए सुबह नींद में से उठते समय अपने संकल्प में विकल्प न घुसे, ऐसा संकल्प करें। आपने कोई ऊँचा इरादा बनाकर संकल्प किया है तो उस संकल्प में कोई विकल्प न घुसे इसकी सावधानी रखें।

 

संकल्पों की शक्ति 'एटॉमिक पावर (आण्विक शक्ति)' से, भी ज्यादा महत्व रखती है और भारतीय संस्कृति ने इसे अच्छी तरह से महसूस किया है। इसीलिए हमारे ऋषियों ने दीपावली और नूतन वर्ष जैसे पर्वों का आयोजन किया है ताकि मनुष्य आपसी राग-द्वेष भूलकर और परस्पर सौहार्द बढ़ाकर उन्नति के पथ पर अग्रसर होता रहे....

 

राग-द्वेष में मलिन संकल्प होते हैं, जो बंधनकारी होते हैं। राग आकर चित्त में एक रेखा खींच देता है तो द्वेष आकर दूसरी रेखा खींच देता है। इससे चित्त मलिन हो जाता है। इसीलिए परस्पर के राग-द्वेष को मिटाने के लिए 'नूतन वर्षाभिनंदन' की व्यवस्था है।

 

शास्त्रों में आता हैः विदूषाणां किं लक्षणं? पूर्ण विद्वान, पूर्ण बुद्धिमान के लक्षण क्या हैं? अदृढ रागद्वेषः। जिसके चित्त में राग-द्वेष दृढ़ नहीं है, वह विद्वान है।'

 

निम्न व्यक्ति का राग-द्वेष होता है लोहे पर लकीर के समान। मध्यम व्यक्ति का राग-द्वेष होता है धरती पर लकीर के समान। भक्त और जिज्ञासु का राग-द्वेष होता है – बालू पर लकीर के समान और ज्ञानी के बाह्य व्यवहार में हल्का-फुल्का राग-द्वेष दिखता भी है, पर चित्त में देखो तो कुछ नहीं।

 

इस नूतन वर्ष के दिन हम भी यह संकल्प करें कि 'हमारा चित्त किसी बाह्य वस्तु, व्यक्ति अथवा परिस्थिति में न फँसे।' क्योंकि बाह्य जो कुछ भी है, प्रकृति का है। उसमें परिवर्तन अवश्यंभावी है, लेकिन परिवर्तन जिससे प्रतीत होता है, वह परमात्मा एकरस है और अपने से दूर नहीं है। वह पराया नहीं है और उसका हम कभी त्याग नहीं कर सकते हैं।

 

संसार की किसी भी परिस्थिति को हम रख नहीं सकते हैं और अपने आत्मा-परमात्मा का हम त्याग कर नहीं सकते हैं। जिसका त्याग नहीं कर सकते, उसको जानने का इरादा पक्का कर लें और जिसको सदा रख नहीं सकते, उस संसार से अहंता-ममता मिटाने का इरादा पक्का कर लें, बस। अगर इतना कर लिया तो फिर आपके कदम ठीक जगह पर पड़ेंगे। फिर महाराज ! मुझे यह सफलता मिली। ऐसा सफलता का गर्व न होगा बल्कि सारी सफलताएँ तो क्या, ऋद्धि-सिद्धियाँ भी आकर अपने खेल दिखायेंगी तो वे आपको तुच्छ लगेंगी। इस अवस्थावाले के लिए उपनिषद ने कहाः

 

यो एवं ब्रह्मैव जानाति तेषां देवानां बलिंविहति।

 

'जो ब्रह्म को जानता है, उस पर देवता तक कुर्बान हो जाते हैं।'

 

श्री कृष्ण और उनके प्रियपात्र प्रतिदिन प्रातः ऊँचा चिंतन करके ही धरती पर पैर रखते थे, बिस्तर का त्याग करते थे। इस नूतन वर्ष का संदेश यही है कि आपने जो ब्रह्मज्ञान की बातें सुनी हैं, ईश्वरीय अनुभव में सफल होने की जो युक्तियाँ सुनी हैं उन युक्तियों को, उन बातों को प्रातः उठते ही दोहरायें, बाद में बिस्तर का त्याग करें।

 

दूसरी बात, अपने में जो कमियाँ हैं उन्हें जितना हम जानते हैं, उतना और कोई नहीं जानता। हमारी कमियाँ न पड़ोसी जानता है, न कुटुंबी जानता है, न पति जानता है, न पत्नी जानती है। अतः अपनी कमियाँ स्वयं ही निकाली जा सकती हैं। जैसे, पैर में काँटे चुभने पर एक-एक करके उन्हें निकाला जाता है, वैसे ही अपनी गलतियों को चुन-चुनकर निकालना चाहिए। ज्यों-ज्यों आपकी कमियाँ निकलती जायेंगी, त्यों-त्यों आत्मानुभव, आत्मसामर्थ्य का निखार आता जायेगा।

 

तीसरी बात, भूतकाल को भूल जाओ। सोचते हैं- 'हम छोटे थे तो ऐसे थे, वैसे थे....' तुम ऐसे-वैसे नहीं थे भैया ! तुम्हारे शरीर और चित्त ऐसे वैसे थे। तुम तो सदा से एकरस हो। तुम तो वह हो, जैसा नानक जी कहते हैं-

 

आदि सचु जुगादि सचु। है भी सचु नानक होसी भी सचु।।

 

चौथी बात भविष्य की कल्पना मत करो। हम मरने के बाद स्वर्ग में जायेंगे या बिस्त में जायेंगे। इस भ्रांति को निकाल दो वरन् जीते जी ही वह अनुभव पा लो, जिसके आगे स्वर्ग का सुख तो क्या, इंद्र का वैभव भी तुच्छ भासता है।

 

संत महापुरुषों की युक्तियों को अपनाकर ऐसे बन जाओ कि तुम जहाँ कदम रखो वहाँ प्रकाश हो जाये। तुम जहाँ जाओ वहाँ का वातावरण रसमय, ज्ञानमय हो जाय। फिर वर्ष में केवल एक ही दिन दिवाली होगी ऐसी बात नहीं, तुम्हारा हर दिन दिवाली हो जायेगा.. हर सुबह नूतनता की खबरें देगी...

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नूतन वर्ष की रसीली मिठाई

भारत में सर्वोदय आंदोलन के प्रणेता आचार्य विनोबा भावे के बचपन की एक महत्त्वपूर्ण प्रेरक घटना है, जिसका महत्त्व वे बाद में समझ पाये। शैशवावस्था में वे अपनी माताजी के साथ कोंकण (महाराष्ट्र) में रहते थे तथा पिता बड़ौदा (गुजरात) में सरकारी शिक्षक के रूप में कार्यरत थे। त्यौहारों में तथा सरकारी छुट्टियों में उनके पिता परिवार से मिलने कोंकण जरूर जाते थे। घर जाते वक्त वे साथ में बच्चों के लिए विविध प्रकार के मिष्ठान्न भी ले जाते थे।

 

दीपावली का पर्व आया तथा विद्यालयों में छुट्टियाँ पड़ गयीं। विनोबाजी के पिता अपने परिवार से मिलने कोंकण के लिए रवाना हुए। इससे पहले उन्होंने पत्र द्वारा अपने घर आने की सूचना भेज दी थी। अतः माताजी ने बच्चों को ढाढ़स बँधाया कि 'तुम्हारे पिता हर बार की तरह इस बार भी तुम लोगों के लिए मिठाई लायेंगे।'

 

इधर बच्चे तो मिठाई की राह देख रहे थे। अतः पिता जी के पहुँचते ही सबने उन्हें घेर लिया। पिताजी ने जब सामान खोला तब उसमें से एक बड़ा बंडल निकला। बच्चों ने समझा कि यह तो मिठाई का पैकेट होगा। सबके मुँह में पानी आ गया।

 

पिता ने बच्चों की मनःस्थिति भाँप ली। अतः उन्होंने सबसे पहले वही बंडल खोला। लेकिन आश्चर्य ! इस बार मिठाई नहीं बल्कि कुछ किताबें थीं। बच्चे तो इसे देखकर हक्के बक्के रह गये। उनकी आशाओं पर पानी फिर गया। वे समझ नहीं पा रहे थे कि पिताजी मिठाई के स्थान पर ये पुस्तकें क्यों लाये ? इसकी हमें क्या जरूरत है? इससे क्या लाभ होगा? चेहरे पर उदासी छा गयी।

 

उधर माता जी ने नाराज होकर कहाः "मैंने तो बच्चों को आशा बँधाई थी कि आप उनके लिए नये साल की मिठाई लायेंगे। लेकिन इस बार आप मिठाई न लाकर किताबें उठा लाये। ऐसा क्यों?"

 

मास्टर साहब ने बड़े इत्मिनान से समझाते हुए कहा कि "ये साधारण पुस्तकें नहीं बल्कि उच्चकोटि के सत्सास्त्र हैं। इनके पठन-पाठन से हृदय में जो रस और आनंद उभरेगा, उसका मधुर प्रभाव कुछ घंटों के लिए ही नहीं वरन् जीवनपर्यन्त बना रहेगा। मिठाई की मिठास तो बच्चों को मन का गुलाम बना कर उनके स्वास्थ्य के जर्जरीभूत कर देगी। इसके विपरीत सत्शास्त्रों से प्राप्त अमृततुल्य मिठास बच्चों को मन का स्वामी बनाकर उनके जीवन में नवीन क्रांति उत्पन्न कर सकती है। उन्हें मानव से महेश्वर बना सकती है। अतः इन पुस्तकों को ही नववर्ष की सच्ची मिठाई मानो।"

 

विनोबा भावे ने अपने बचपन के इस प्रसंग का स्मरण करते हुए कहाः

'पिताजी की समझायी हुई बात को उस समय तो मैं पूर्णरूपेण समझ नहीं पाया। लेकिन अब पता लगा कि अमृततुल्य सत्शास्त्र ही सच्ची मिठाई है, जो जीवन में ईश्वरप्राप्ति के मार्ग पर दृढ़ता से चलने की प्रेरणा देते हैं।'

 

इस नूतन वर्ष को हम भी सत्शास्त्ररूपी मिठाई का मधुर आस्वाद लेकर मनायें तथा अपने जीवन को ईश्वरप्राप्ति के महान लक्ष्य की ओर अग्रसर करने का संकल्प करें।

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भाईदूजः भाई-बहन के स्नेह का प्रतीक

यमराज, यमुना, तापी और शनि – ये भगवान सूर्य की संताने कही जाती हैं। किसी कारण से यमराज अपनी बहन यमुना से वर्षों दूर रहे। एक बार यमराज के मन में हुआ कि 'बहन यमुना को देखे हुए बहुत वर्ष हो गये हैं।' अतः उन्होंने अपने दूतों को आज्ञा दीः

"जाओ जा कर जाँच करो कि यमुना आजकल कहाँ स्थित है।"

 

यमदूत विचरण करते-करते धरती पर आये तो सही किंतु उन्हें कहीं यमुनाजी का पता नहीं लगा। फिर यमराज स्वयं विचरण करते हुए मथुरा आये और विश्रामघाट पर बने हुए यमुना के महल में पहुँचे।

 

बहुत वर्षों के बाद अपने भाई को पाकर बहन यमुना ने बड़े प्रेम से यमराज का स्वागत-सत्कार किया और यमराज ने भी उसकी सेवा सुश्रुषा के लिए याचना करते हुए कहाः

"बहन ! तू क्या चाहती है? मुझे अपनी प्रिय बहन की सेवा का मौका चाहिए।"

 

दैवी स्वभाववाली परोपकारी आत्मा क्या माँगे? अपने लिए जो माँगता है, वह तो भोगी होता है, विलासी होता है लेकिन जो औरों के लिए माँगता है अथवा भगवत्प्रीति माँगता है, वह तो भगवान का भक्त होता है, परोपकारी आत्मा होता है। भगवान सूर्य दिन-रात परोपकार करते हैं तो सूर्यपुत्री यमुना क्या माँगती?

 

यमराज चिंतित हो गये कि 'इससे तो यमपुरी का ही दिवाला निकल जायेगा। कोई कितने ही पाप करे और यमुना में गोता मारे तो यमपुरी न आये ! सब स्वर्ग के अधिकारी हो जायेंगे तो अव्यवस्था हो जायेगी।'

 

अपने भाई को चिंतित देखकर यमुना ने कहाः

''भैया ! अगर यह वरदान तुम्हारे लिए देना कठिन है तो आज नववर्ष की द्वितीया है। आज के दिन भाई बहन के यहाँ आये या बहन भाई के यहाँ पहुँचे और जो कोई भाई बहन से स्नेह से मिले, ऐसे भाई को यमपुरी के पाश से मुक्त करने का वचन को तुम दे सकते हो।"

यमराज प्रसन्न हुए और बोलेः "बहन ! ऐसा ही होगा।"

 

पौराणिक दृष्टि से आज भी लोग बहन यमुना और भाई यम के इस शुभ प्रसंग का स्मरण करके आशीर्वाद पाते हैं व यम के पाश से छूटने का संकल्प करते हैं।

 

यह पर्व भाई-बहन के स्नेह का द्योतक है। कोई बहन नहीं चाहती कि उसका भाई दीन-हीन, तुच्छ हो, सामान्य जीवन जीने वाला हो, ज्ञानरहित, प्रभावरहित हो। इस दिन भाई को अपने घर पाकर बहन अत्यन्त प्रसन्न होती है अथवा किसी कारण से भाई नहीं आ पाता तो स्वयं उसके घर चली जाती है।

 

बहन भाई को इस शुभ भाव से तिलक करती है कि 'मेरा भैया त्रिनेत्र बने।' इन दो आँखों से जो नाम-रूपवाला जगत दिखता है, वह इन्द्रियों को आकर्षित करता है, लेकिन ज्ञाननेत्र से जो जगत दिखता है, उससे इस नाम-रूपवाले जगत की पोल खुल जाती है और जगदीश्वर का प्रकाश दिखने लगता है।

 

बहन तिलक करके अपने भाई को प्रेम से भोजन कराती है और बदले में भाई उसको वस्त्र-अलंकार, दक्षिणादि देता है। बहन निश्चिंत होती है कि 'मैं अकेली नहीं हूँ.... मेरे साथ मेरा भैया है।'

 

दिवाली के तीसरे दिन आने वाला भाईदूज का यह पर्व, भाई की बहन के संरक्षण की याद दिलाने वाला और बहन द्वारा भाई के लिए शुभ कामनाएँ करने का पर्व है।

 

इस दिन बहन को चाहिए कि अपने भाई की दीर्घायु के लिए यमराज से अर्चना करे और इन अष्ट चिरंजीवीयों के नामों का स्मरण करेः मार्कण्डेय, बलि, व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य, अश्वत्थामा और परशुराम। 'मेरा भाई चिरंजीवी हो' ऐसी उनसे प्रार्थना करे तथा मार्कण्डेय जी से इस प्रकार प्रार्थना करेः

 

मार्कण्डेय महाभाग सप्तकल्पजीवितः।

चिरंजीवी यथा त्वं तथा मे भ्रातारं कुरुः।।

 

'हे महाभाग मार्कण्डेय ! आप सात कल्पों के अन्त तक जीने वाले चिरंजीवी हैं। जैसे आप चिरंजीवी हैं, वैसे मेरा भाई भी दीर्घायु हो।'

(पद्मपुराण)

 

इस प्रकार भाई के लिए मंगल कामना करने का तथा भाई-बहन के पवित्र स्नेह का पर्व है भाईदूज।

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दीपावली सावधानी से मनायें

थोड़ी सी असावधानी और लापरवाही के कारण मनुष्य कई बार बहुत कुछ खो बैठता है। हमें दीपावली के आगमन पर इस त्यौहार का आनंद, खुशी और उत्साह को बनाये रखने के लिए सावधान रहना चाहिएः

 

पटाखों के साथ खिलवाड़ न करें। उचित दूरी रखकर पटाखे चलाएँ।

जो मिठाइयाँ शुद्धता, पवित्रता से बनी तथा ढकी हुई हो, वे ही खायें। बाजारू हलकी मिठाइयाँ न खायें।

 

इसे भारतीय संस्कृति के अनुसार आदर्शों व सादगी से मनायें। पाश्चात्य जगत के अंधानुकरण में न बहें।

 

पटाखे घर से दूर उचित स्थान पर चलायें।

पटाखे चलाने के बाद अच्छी तरह साबुन से हाथ धोकर ही कुछ खायें।

पटाखों से बच्चों को दूर रखें व उचित दूरी से चलायें।

 

अग्नि-प्रकोप के शिकार होने पर क्या करें?

दीपावली के दिनों में पटाखे, दीये आदि से या अन्य दिनों में अग्नि से शरीर का कोई अंग जल जाये तो जले हुए स्थान पर तुरंत कच्चे आलू का रस लगाना व उसके चिप्स पीड़ित स्थान पर रखना पर्याप्त है। इससे न फोड़ा होगा न मवाद बनेगा न ही मलहम या अन्य औषधियों की आवश्यकता होगी।

 

हे दीपावली के दीप जलाने वालो ! आप स्वयं ज्ञानदीप हो जाओ। नित्यप्रकाश पिया आपका आत्मा जिसने आज तक की दिवालियों को देखा और आगे भी देखेगा, भैया ! उस ईश्वरीय प्रकाश को पा लो और ऐहिक दीपक भी सार्थक कर लो।

 

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पूज्यश्री का दीपावली संदेश

हिम्मत करो। घृणा, द्वेष और निर्बलता के विचारों को अपने चित्त में फटकने मत दो। हमेशा सबके लिए मंगलकारी भावना करो।

 

हे मंगलमूर्ति मानव ! तेरा परम मंगलस्वरूप प्रकट कर। तेरा हर श्वास दिवाली है। जहाँ तेरी निगाह पड़े, वहाँ दिव्य आत्मसुख की मस्ती बनी रहे।

 

दिवाली के शुभ पर्व पर यही शुभ संदेश है कि जब तुम ऊँचे-से-ऊँचे, महान से महान व्यक्ति को और छोटे से छोटे व्यक्ति को निहारो, तब महान में और छोटे में, उन सबकी गहराई में, तुम ही आत्मरूप से बैठे हो ऐसी अनुभूति प्रकट हो। बाह्य भेदभाव और छोटे-मोटे कर्म स्वप्न की नाईं हैं।

 

वैदिक ज्ञान का अमृतपान करने के लिए अपने व्यवहारकाल में दिव्य चिंतन, साधनाकाल में दिव्य अनुभूति और विचार काल में दिव्यातिदिव्य स्वरूप के साथ एकत्व का अनुभव करो।

 

समुद्र-मन्थन के समय जब तक अमृत नहीं मिला, तब तक देवता लोग न तो अमूल्य रत्नों को पाकर संतुष्ट हुए और न ही भयानक जहर से डरे अपितु समुद्र-मंथन में लगे ही रहे। आखिर उन्होंने अमृत पा ही लिया।

 

ऐसे ही मानव ! संसार की छोटी-मोटी विफलताओं में और सुखद परिस्थितियों में नहीं रुकना। विफलता और सफलता इन दोनों के सिर पर पैर रखकर तू अपने आत्मपद पर स्थित रह।

 

शाबाश वीर ! शाबाश ! हिम्मत कर, साहस जुटा। धैर्य और सावधानी से आगे बढ़। तेरे जीवन की हजार-हजार सफलताएँ और विफलताएँ भी तुझे कुछ समझा गयी होंगी। इन सबका सार यही है कि आने-जाने वाली सफलता और विफलता के पार ऐसा कोई तत्त्व है, ऐसी कोई चीज है कि जहाँ न मृत्यु का भय है, न जन्म का बंधन है, न प्रकृति का प्रभाव है और न अपने परमेश्वर स्वरूप से दूरी है। ऐसे शाश्वत, सनातन स्वरूप को अवश्य पा ले, जान ले और जीते जी मुक्त हो जा। दूसरों के लिए भी मुक्ति का मार्ग सरल बनाये जा।

 

हे साधक ! देर सवेर तू यह कर लेगा। इस महान लक्ष्य को बार-बार दोहराता जा कि न प्रलोभनों में फँसेगे, न विघ्नों से डरेंगे। अवश्य आत्मसाक्षात्कार करेंगे।

वह होगा.. होगा... और होगा।

 

तेरे लिए दिवाली का यह दिव्य संदेश पर्याप्त है। इस मार्ग पर कदम रखने वाला अगर धन-धान्य, पुत्र-परिवार और सुख-समृद्धि चाहे तो सहज में ही प्राप्त कर लेता है। अगर विरक्त है तो उसे इनकी कोई आवश्यकता महसूस नहीं होती।

 

वीर्यवान बनो। संयमी और सदाचारी जीवन जियो। दिवाली की दिव्यता अपने दिल में जगाओ।

 

हम तो यह चाहते हैं कि तुम जहाँ कदम रखो, वहाँ का वातावरण भी दिव्य बनने लग जाये। ऐसा अपना दिव्य तत्त्व प्रकटाओ।

 

हे ईश्वर के सनातन अंश ! अपने सनातन स्वरूप को जगाओ। सनातन सुख को पाओ।

ॐ आनंद.... ब्रह्मानंद.... परमानंद.... ईश्वरीय आनंद.... ॐआनंद...

 

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ज्ञान-रश्मि से अज्ञान की कालिमा को नष्ट कर आनंद के महासागर में कूद पड़ो। वह सागर कहीं बाहर नहीं है, आपके दिल में ही है। दुर्बल विचारों, तुच्छ इच्छाओं को कुचल डालो। दुःखद विचारों का दिवाला निकाल कर आत्ममस्ती का दीप जलाओ। खोज लो उन आत्मारामी संतों को जो आपके सच्चे सहायक हैं..... और यह आपके हाथ की बात है।

नन्हें-नन्हें दीपों के प्रकाश से अमावस्या की काली रात जगमगा रही है। छोटे-छोटे गुणों से आपका जीवन-सौरभ भी चहुँ ओर सुरभित होने लगता है। अतः सदगुणों का पोषण करो। और दुर्गुणों का त्याग करने में लगे रहो। आपका जीवन दूसरों के लिए भी प्रेरणास्रोत बन जायेगा।

 

विजयदशमी

आत्मविजय पा लो

अधर्म पर धर्म की, असत्य पर सत्य की तथा दुराचार पर सदाचार की विजय का पर्व है 'विजयदशमी'। इसी दिन श्री राम ने दुष्ट दशानन का वध करके पृथ्वी का भार हलका किया था। इसी दिन माँ दुर्गा ने महिषासुर का वध किया था। इसी दिन रघुराजा ने कुबेर भंडारी पर अपना तीर साधकर स्वर्णमुद्राओं की वर्षा करवायी थी। इसी दिन समर्थ रामदास के प्यारे शिष्य शिवाजी ने युद्ध का आरंभ किया था।

 

इस प्रकार विजयदशमी का यह पर्व विजय का पर्व है, जो आपको भी यही संदेश देता है कि आप भी वास्तविक विजय प्राप्त कर लो। जैसे श्रीराम ने रावण पर, माँ दुर्गा ने महिषासुर पर, शिवाजी ने मुगलों पर विजय प्राप्त की थी, वैसे ही आप भी अपने चित्त में छुपी आसुरी वृत्तियों, धारणाओं पर विजय प्राप्त कर परमात्मा को पा लो तो आपकी वास्तविक विजय हो जायेगी।

 

आप दृढ़ निश्चय से अपनी शक्ति को उस परम परमात्मा को पाने में लगा दो। 'लोग क्या कहेंगे? साधना करने पर प्रभु मिलेंगे कि नहीं? यह काम करुँगा तो होगा कि नहीं?' ...इस प्रकार के संकल्प-विक्लप न करके आज के दिन दृढ़ निश्चय करो कि मेरे अंदर आसुरी वृत्तिरूपी जो रावण है, उस पर विजय पाकर ही रहूँगा।' ॐकार का गुंजन कर इष्टमंत्र का जप-अनुष्ठान बढ़ाते जाओ। इस प्रकार का दृढ़ निश्चय करके आसुरी वृत्तियों को निकालने के लिए कटिबद्ध हो गये तो आपके अंदर परमात्मतत्त्व की ज्ञानशक्ति प्रकट होने लगेगी और यही तो परम विजय है।

 

किसी बाह्य शत्रु को मार डालना यह तो तुच्छ विजय है, युद्ध करके बाह्य वस्तु को प्राप्त कर लेना यह तो सामाजिक श्रेय है लेकिन सच पूछो तो.... किसी के सब बाह्य शत्रु मर जायें और सारी बाह्य वस्तुएँ उसे मिल जायें, फिर भी जब तक उसने अपनी भीतरी आसुरी वृत्तियों पर विजय नहीं पायी, तब तक सदा के लिए वह विजयी नहीं माना जाता। जब वह आसुरी वृत्तियों पर विजय पाकर दैवी संपदा का स्वामी हो जाता है, तभी वास्तव में उसकी विजय मानी जाती है। आप भी 'विजयदशमी' के पर्व पर इसी प्रकार का संकल्प करो।

 

आज हम इतने बहिर्मुख हो गये हैं कि बाह्य सफलताओं को, बाह्य विजय को ही असली विजय मानने लगे हैं। आज तक कई विजयदशमियाँ आयीं और चली गयीं, फिर भी हमें वास्तविक विजय नहीं मिल पायी। धंधे-व्यापार में थोड़ी विजय मिल गयी... राज्य में थोड़ी विजय मिल गयी.... यश में थोड़ी विजय मिल गयी.... और हम उसी में अपनी विजय मानकर रुक गये, किंतु भीतर मौत का भय, प्रतिकूलता का भय, विरोध का भय, बीमारी आदि का भय जारी ही रहता है।

 

यह सच्ची विजय नहीं है। सच्ची विजय तो यह है कि आपको जगत के लोग तो क्या, तैंतीस करोड़ देवता भी मिलकर परास्त न कर सकें – ऐसी विजय को तुम उपलब्ध हो जाओ और वह विजय है आत्मज्ञान की प्राप्ति।

 

लौकिक विजय वहीं होती है जहाँ पुरुषार्थ और चेतना होती है, ऐसे ही आध्यात्मिक विजय भी वहीं होती है जहाँ सूक्ष्म विचार होते हैं, चित्त की शांत दशा होती है और प्रबल पुरुषार्थ होता है।

 

आशावान् च पुरुषार्थी प्रसन्नहृदयः।

 

जो आशावान है, पुरुषार्थी तथा प्रसन्नहृदय है, वही पुरुष विजयी होता है।

जो निराशावादी है, खिन्नचित्त है, आलसी या प्रमादी है, वह विजय के करीब पहुँचकर भी पराजित हो जाता है, लेकिन जो उत्साही होता है, पुरुषार्थी होता है, वह हजार बार असफल होने पर भी कदम आगे रखता है और अंततः विजयी हो जाता है। आप भी परमात्मा से मिलने की आशा को कदापि न छोड़ना, अपना उत्साह, पुरुषार्थ कभी न छोड़ना। आशा, उत्साह और पुरुषार्थ जिसके जीवन में होगा, वह अवश्य ही विजयी होगा।

 

विजयादशमी, नवरात्री के बाद आती है। जिसने पाँच ज्ञानेन्द्रियों (आँख, नाक, कान, रसना और त्वचा) तथा चार अंतः करण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) इन नौ पर विजय पा ली, उसकी विजयादशमी हो कर  ही रहती है। आप भी इसी को विजयादशमी का संदेश व उद्देश्य बनाओ।

 

जो भोगों में भटकता है, जो ऐहिक सुखों में उलझता है उसे भले दो ही बाहु नहीं, बीस बाहु हों, एक ही सिर नहीं, दस सिर हों, सोने की लंका बना सकता हो, स्वर्ग तक सीढ़ियाँ लगाने का बल रखता हो, कितना ही बलवान हो, विद्वान हो फिर भी भीतर से खोखला ही रह जाता है क्योंकि उसे भीतर का रस नहीं मिला। बाहर से भले कोई वल्कल पहना हुआ दिखे, रीछ भालू और बंदरों की तरह सीधा-सादा जीवन यापन करता हुआ दिखे, फिर भी विजय उसी की होती है क्योंकि वह सत्यस्वरूप आत्मसुख में स्थित होता है, इन्द्रियों का दास न रहकर इन्द्रियों का स्वामी बनता है।

 

जो भगवान श्रीरामचन्द्रजी का अनुकरण करते हैं, वे बाहर से सादगीपूर्ण होते हुए भी बड़ी ऊँचाइयों को छू लेते हैं और जो भाईजान रावण जी का अनुसरण करते हैं, वे बलवान और सत्तावान होते हुए भी विनाश को प्राप्त होते हैं। जो श्रीराम का अनुकरण करते हैं, वे आत्मारामी हो जाते हैं, आत्मतृप्त हो जाते हैं, धन्य-धन्य हो जाते हैं, मुक्तात्मा, जितात्मा हो जाते हैं। जो रावण का स्वभाव लेते हैं, काम को पोसते हैं, क्रोध को पोसते हैं, वे अकारण परेशान होते हैं, बेमौत मारे जाते हैं।

 

हजारों प्रतिकूलताओं में भी जो निराश नहीं होता, हजारों विरोधों में भी जो सत्य को नहीं छोड़ता, हजारों मुसीबतों में भी जो पुरुषार्थ को नहीं छोड़ता, वह अवश्य विजयी होता है और आपको विजयी होना ही है। लौकिक युद्ध के मैदान में तो कई विजेता हो सकते हैं लेकिन आपको तो उस युद्ध में विजयी होना है, जिसमें बड़े-बड़े योद्धा भी हार गये। आपको तो ऐसे विजयी होना है जैसे 5 वर्ष की उम्र में ध्रुव, 8 वर्ष की उम्र में रामी रामदास, शुकदेव व परीक्षित विजयी हो गये।

दुःख के प्रसंग में वे हिले नहीं और सुख के प्रसंग से प्रभावित नहीं हुए, यश के प्रसंग में वे हर्षित नहीं हुए और अपयश के प्रसंग में भी वे रुके नहीं, वरन् परमात्मा की मुलाकात के लिए अंतर्यात्रा करते ही रहे। इसलिए लोगों ने ध्रुव, प्रहलाद, शबरी, जनक, जाबल्य को श्रद्धा भरे हृदय से स्नेह किया, सत्कारा, नवाजा है।

 

उन लोगों ने समय की धारा में बहने की अपेक्षा सत्य में अपने पैर टिका दिये, परिस्थितियों की गुलामी में न बहकर परिस्थितियों को, अनुकूलता-प्रतिकूलताओं को खेलमात्र समझकर अपनी आत्मा में स्थिरता पा ली। ऐसे जो भी महापुरुष इस धरती पर हो गये हैं, उनके हाथ में सत्ता भले न रही हो, फिर भी अनेक सत्तावान उनके आगे सिर झुकाते रहे हैं। भले उनके पास धन न रहा हो, लेकिन अनेक धनवान उनसे कृपा-याचना करते रहे हैं। भले उनके पास पहलवानों जैसा बाहुबल न रहा हो, फिर भी बड़े-बड़े पहलवान उनके आगे अपना सिर झुकाकर सौभाग्य प्राप्त करते रहे हैं।

 

जो धर्म पर चलते हैं, नीति पर चलते हैं, हिम्मतवान हैं, उत्साही और पुरुषार्थी हैं, उन्हें परमात्मा का सहयोग मिलता रहता है। जो अनीति और अधर्म का सहारा लेता है, उसका विनाश होकर ही रहता है, फिर भले ही वह सत्तावान और धनवान क्यों न हो? अनीति पर चलने वाले रावण के पास बहुत धन था, सत्ता थी और बड़े-बड़े राक्षसों की विशाल सेना थी, फिर भी धर्म और नीति पर चलने वाले श्रीरामजी ने छोटे-छोटे वानर-भालुओं के सहयोग से ही उस पर विजय पा ली। जब छोटे-छोटे वानर-भालू बड़े-बड़े राक्षसों को मार सकते हैं तो आप कामनारूपी, अहंकाररूपी रावण को क्यों नहीं मार सकते? आप भी अवश्य उसे मार सकते हो, लेकिन शर्त इतनी ही है कि आप में उत्साह और पौरूष हो तथा आप नीति व धर्म पर अडिग रहें।

 

भले आज संसार में दुराचार बढ़ता हुआ नजर आता है, पाप प्रभावशाली दिखता है, फिर भी आप डरना नहीं। पांडवों के पास कुछ न था, केवल उत्साह था किंतु वे सत्य और धर्म के पक्ष में थे तो विजयी हो गये। बंदरों के पास न तो सोने की लंका थी, न खाने के लिए विभिन्न पकवान थे। वे सूखे-सूखे पत्ते और फल-फूल खाकर रहते थे, फिर भी काम-क्रोध के, अहंकाररूपी रावण के अनुगामी नहीं थे, संयम व सदाचाररूपी राम के अनुगामी थे तो बड़े-बड़े राक्षसों को हराने में भी सफल हो गये।

 

विजयादशमी आपको भी यही संदेश देती है कि अधर्म और अनीति चाहे कितनी भी बलवान दिखे, फिर भी रुकना नहीं चाहिए, डरना नहीं चाहिए, निराश नहीं होना चाहिए। संगठित होकर बुद्धि और बलपूर्वक उसका लोहा लेना चाहिए। यदि ऐसा कर सके तो आपकी विजय निश्चित है। आपके शत्रु में बीस भुजाओं जितना बल हो, दस सिर जितनी समझ हो फिर भी यदि आप श्री राम से जुड़ते हो तो आपकी विजय निश्चित है। अपनी पाँच ज्ञानेन्द्रियों तथा चार अंतःकरणों को उस रोम-रोम में रमने वाले श्रीराम-तत्त्व में लीन करके अज्ञान, अहंकार और कामरूपी रावण पर विजय प्राप्त कर लेंगे – यही विजयादशमी पर शुभ संकल्प करो।

 

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विजयादशमीः दसों इन्द्रियों पर विजय

भारतीय सामाजिक परंपरा की दृष्टि से विजयादशमी का दिन, त्रेता युग की वह पावन बेला है जब क्रूर और अभिमानी रावण के अत्याचारों से त्रस्त सर्वसाधारण को राहत की साँस मिली थी। कहा जाता है कि इस दिन मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने आततायी रावण को मारकर वैकुंठ धाम भेज दिया था। यदि देखा जाये तो रामायण और श्रीरामचरितमानस में श्रीराम तथा रावण के बीच के जिस युद्ध का वर्णन आता है, वह युद्ध मात्र उनके जीवन तक ही सीमित नहीं है वरन् उसे हम आज अपने जीवन में भी देख सकते हैं।

 

विजयादशमी अर्थात् दसों इन्द्रियों पर विजय। हमारे इस पाँचभौतिक शरीर में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ है। इन दसों इंद्रियों पर विजय प्राप्त करने वाला महापुरुष दिग्विजयी हो जाता है। रावण के पास विशाल सैन्य बल तथा विचित्र मायावी शक्तियाँ थीं, परंतु श्रीराम के समक्ष उसकी एक भी चाल सफल नहीं हो सकी। कारण कि रावण अपनी इन्द्रियों के वश में था जबकि श्रीराम इन्द्रियविजयी थे।

 

जिनकी इन्द्रियाँ बहिर्मुख होती हैं, उनके पास कितने भी साधन क्यों न हों, उन्हें जीवन में दुःख और पराजय का ही मुँह देखना पड़ता है। रावण का जीवन इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। जहाँ रावण के दसों सिर उसकी दसों इंद्रियों पर विजय प्राप्ति तथा परम शांति में उनकी स्थिति की खबर देता है। जहाँ रावण का भयानक रूप उस पर इंद्रियों के विकृत प्रभाव को दर्शाता है, वहीं श्रीराम का प्रसन्न मुख और शांत स्वभाव उनके इन्द्रियातीत सुख की अनुभूति कराता है।

विजयादशमी का पर्वः

दसों इन्द्रियों पर विजय का पर्व है।

असत्य पर सत्य की विजय का पर्व है।

बहिर्मुखता पर अंतर्मुखता की विजय का पर्व है।

अन्याय पर न्याय की विजय का पर्व है।

दुराचार पर सदाचार की विजय का पर्व है।

तमोगुण पर दैवीगुण की विजय का पर्व है।

दुष्कर्मों पर सत्कर्मों की विजय का पर्व है।

भोग पर योग की विजय का पर्व है।

असुरत्व पर देवत्व की विजय का पर्व है तथा,

जीवत्व पर शिवत्व की विजय का पर्व है।

 

दसों इन्द्रियों में दस सदगुण और दस दुर्गुण होते हैं। यदि हम शास्त्रसम्मत जीवन जीते हैं तो हमारी इंद्रियों के दुर्गुण दूर होते हैं तथा सदगुणों का विकास होता है। यह बात श्रीरामचन्द्रजी के जीवन में स्पष्ट दिखती है। किंतु यदि हम इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने के बजाय भोगवादी प्रवृत्तियों से जुड़कर इन्द्रियों की तृप्ति के लिए उनके पीछे भागते हैं तो अंत में हमारे जीवन का भी वही हाल होता है जो कि रावण का हुआ था। रावण के पास सोने की लंका तथा बड़ी-बड़ी मायावी शक्तियाँ थीं, परंतु वे सारी-की-सारी शक्तियाँ, संपत्ति उसकी इन्द्रियों के सुख को ही पूरा करने में काम आती थीं। किंतु युद्ध के समय वे सभी की सभी व्यर्थ साबित हुईं। यहाँ तक की उसकी नाभि में स्थित अमृत भी उसके काम न आ सका, जिसकी बदौलत वह दिग्विजय प्राप्त करने का सामर्थ्य रखता था।

 

संक्षेप में बहिर्मुख इन्द्रियों को भड़काने वाली प्रवृत्ति भले ही कितनी भी बलवान क्यों न हो, लेकिन दैवी संपदा के समक्ष उसे घुटने टेकने ही पड़ते हैं। क्षमा, शांति, साधना, सेवा, शास्त्रपरायणता, सत्यनिष्ठा, कर्तव्य-परायणता, परोपकार, निष्कामता, सत्संग आदि दसों इंद्रियों के दैवी गुण हैं। इन दैवी गुणों से संपन्न महापुरुषों के द्वारा ही समाज का सच्चा हित हो सकता है। इन्द्रियों का बहिर्मुख होकर विषयों की ओर भागना, यह आसुरी संपदा है। यही रावण और उसकी आसुरी शक्तियाँ हैं। किंतु दसों इंद्रियों का दैवी संपदा से परिपूर्ण होकर ईश्वरीय सुख में तृप्त होना, यही श्रीराम तथा उनकी साधारण सी दिखने वाली परम तेजस्वी वानर सेना है।

 

प्रत्येक मनुष्य के पास ये दोनों शक्तियाँ पायी जाती हैं। जो जैसा संग करता है उसी के अनुरूप उसकी गति होती है। रावण पुलस्त्य ऋषि का वंशज था और चारों वेदों का ज्ञाता था। परंतु बचपन से ही माता तथा नाना के उलाहनों के कारण राक्षसी प्रवृत्तियों में उलझ गया। इसके ठीक विपरीत संतों के संग से श्रीराम अपनी इंद्रियों पर विजय प्राप्त करके आत्मतत्त्व में प्रतिष्ठित हो गये।

 

अपनी दसों इंद्रियों पर विजय प्राप्त करके उन्हें आत्मसुख में डुबो देना ही विजयादशमी का उत्सव मनाना है। जिस प्रकार श्रीरामचन्द्रजी की पूजा की जाती है तथा रावण को दियासिलाई दे दी जाती है (जलाया जाता है), उसी प्रकार अपनी इंद्रियों को दैवी गुणों से संपन्न कर विषय-विकारों को तिलांजलि दे देना ही विजयादशमी का पर्व मनाना है।

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विजयादशमी संदेश

असत्य पर सत्य की, अधर्म पर धर्म की, दुराचार पर सदाचार की, असुरों पर सुरों की जय का पर्व है विजयादशमी। लेकिन सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म, दुराचार-सदाचार, सुर-असुर आखिर हैं क्या? क्यों विजयादशमी का पर्व हम मनाते हैं? इसका आध्यात्मिक अर्थ हमें क्या सिखाता है?

 

विजयादशमी का पर्व हमें सिखाता है कि अपने अंदर छुपे हुए दोषों, काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, राग, द्वेष, परनिंदा, असत्य और अविद्या को मिटाकर इसके बदले संयम, प्रेम, सत्य, नम्रता, क्षमा, धृति, अस्तेय, परदुःखकातरता, विद्या जैसे सदगुणरूपी सदाचारी राम से दुराचारी दशानन को मार भगाना है और हमें भी श्रीराम जैसी आत्म-संयम और आत्म-निष्ठा को लाने का यत्न करना है। ये सदगुण मनुष्य को उसके मोक्षप्राप्ति के लक्ष्य को प्राप्त करने में मील के पत्थर सिद्ध होते हैं। यह पावन पर्व हमें संदेश देता है कि हमें अपने दुर्गुणों को वैसे ही जला देना है, जैसे हम रावण के पुतले को जलाते हैं।

 

जयति रघुवंशतिलकः कौशल्याहृदयनन्दनौ रामः।

दशवदननिधनकारी दाशरथिः पुण्डरीकाक्षः।।

 

'श्री कौशल्या जी के हृदय को आनंदित करने वाले, दशवदन रावण को मारने वाले, रघुवंशतिलक, दशरथकुमार कमलनयन भगवान श्रीराम की जय हो।'

(अध्यात्म रामायणः 7.1.1)

 

मनुष्य जीवन में आचार ही प्रमुख आधार है। आचार और विचार, क्रिया और ज्ञान, दोनों का समन्वय ही मानव को उसके लक्ष्य तक पहुँचा देता है तथा इससे विपरीत होने पर पतन कर देता है। रावण का जीवन जहाँ आचार-विचार, क्रिया और ज्ञान के बेमेल होने की कहानी है, वहीं श्रीराम का जीवन उनके सुंदर समन्वय का आदर्श इतिहास है।

 

श्रीराम और रावण दोनों ही भगवान शंकर के अनन्य भक्त थे। दोनों ही परम कुलीन, बलवान, विद्वान तथा संपन्न थे लेकिन एक का ज्ञान तथा बल दीन-जन रक्षण के लिए था तो दूसरे का दीन-जनपीड़न के लिए। एक सदाचार-संपन्न थे तो दूसरा दुराचार परायण।

 

एक दैवी संपदा के उपासक थे तो दूसरा मनसा-वाचा-कर्मणा आसुरी संपत्ति का परम पोषक। श्रीराम यदि नियतात्मा, महापराक्रमी, तेजस्वी, धैर्यशाली, जितेंद्रिय, धर्मपरायण, सर्वत्र समदृष्टिवाले, सत्यप्रिय, शास्त्रीय मर्यादा के परम रक्षक और सर्वसदगुणसंपन्न थे तो रावण अनियंत्रित-चित्त, उतावला, इंद्रियों का गुलाम, अनार्य कर्मकर्ता, सर्वत्र विषमबुद्धि, शास्त्रीय मर्यादा का विनाशक तथा प्रकांड विद्वान होते हुए भी परम निंदित स्वभाव वाला तथा दुराचारी था। अतः श्रीराम और रावण का युद्ध जहाँ दो विपरीत आचारों का युद्ध है, वहीं श्रीराम की विजय दैवी संपदा की, दैवी आचार की, सदाचार की विजय है और यह कहना आवश्यक है कि श्रीराम का अवतरण इसी की स्थापना के लिए हुआ था। असल में सदाचार की स्थापना ही धर्म की स्थापना है।

 

वैसे तो रावण भी कोई ऐसा वैसा नहीं था। रावण के संबंध में हनुमान जी कहते हैं-

"इस राक्षसराज का रूप कैसा अदभुत है ! धैर्य कैसा अनोखा  है ! कितनी अनुपम शक्ति है और कैसा आश्चर्यजनक तेज है ! इसका संपूर्ण राजोचित लक्षणों से युक्त होना कितने आश्चर्य की बात है ! यदि इसमें अधर्म न होता तो यह प्रबल राक्षसराज रावण इंद्रसहित संपूर्ण देवलोक का संरक्षक हो सकता था। इसके लोकनिन्दित, क्रूरतापूर्ण, निष्ठुर कर्मों के कारण देवताओं और दानवों सहित संपूर्ण लोक इससे भयभीत रहते हैं। यह कुपित होने पर समस्त जगत को एकार्णव में निमग्न कर सकता है। संसार में प्रलय मचा सकता है।"

(वाल्मीकि रामायणः 5.49.17-20)

 

रावण में कई गुण थे लेकिन वह अपनी वासनाओं के कारण नीचे आ गया। उसकी भक्ति स्वार्थी थी, विषय-वासनाओं की पूर्ति के लिए थी। जो दूसरों को दुःखी करके सुखी होना चाहता है, वह स्वयं कभी सुखी नहीं हो सकता। ज्ञान अथवा कोई वस्तु सुपात्र को ही शोभा देती है। दूषित वासना वाले दूसरों को नीचा दिखाने में ही लगे रहते हैं। रावण को अपनी करनी का फल आखिर भुगतना ही पड़ा।

 

हम सबको अब विचार कर ही लेना चाहिए कि हमें अब किसका अनुसरण करना चाहिए? जिनका हमेशा यशोगान होता है उन श्रीराम का या जिसमें इतने गुण होते हुए भी दूषित वासनाओं के कारण आज संसार में हेय दृष्टि से देखा जाता है उस रावण का और हर वर्ष दे दियासिलाई.... अतः जितनी अधिक वासना उतना अधिक दरिद्र, जितनी कम वासना, उतना धनवान और बाधित इच्छा – वह महापुरुष... ज्ञानवान।

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शरीर से पुरुषार्थ और हृदय में उत्साह.... मन में उमंग और बुद्धि में समता.. वैरभाव की विस्मृति और स्नेह की सरिता का प्रवाह... अतीत के अंधकार को अलविदा और नूतन वर्ष के नवप्रभात का सत्कार... नया वर्ष और नयी बात.... नई उमंग और नया उत्साह.... नया साहस और नया उल्लास... माधुर्य और प्रसन्नता बढ़ाने को दिन यानी दीपावली का पर्वपुंज।

 

 

ज्ञान-दीप

दुःख, कष्ट, मुसीबतें पैरों तले कुचलने की चीज हैं। हिम्मत, साहस और हौसला बुलंद.... अमर जगमगाती ज्योत... आत्मा की स्मृति-प्रीति... पावन दीपावली आपके जीवन में प्रेम-प्रकाश लाती रहे !

 

जीवन है संग्राम। जख्म और कष्ट तो होंगे ही। विषमताओं के बीच श्रद्धा, विश्वास, समता, पुरुषार्थ और प्रेम का दीप जगमगाता रहे ! आप हो चिर प्रसन्नता की जगमगाती ज्योतिस्वरूप। इति शुभम्।

 

आप अपने हृदय-मंदिर में प्रभु-प्रेम की ज्योत निरंतर जलने दो ताकि अशुद्ध या अमंगलकारी कोई भी विचार या व्यक्ति तुम्हें परमार्थ के पथ से विचलित न कर सके।

 

शरीर से, वाणी से, मन से, इन्द्रियों से जो कुछ भी करें, उस परमात्मा के प्रसाद को उभारने के लिए करें तो फिर 365 दिनों में आनेवाली दिवाली एक ही दिन की दिवाली नहीं रहेगी वरन् आपकी-हमारी रोज दिवाली बनी रहेगी।

 

लक्ष्मी उसी के यहाँ रहती है, जिसके यहाँ उजाला होता है, जिसके पास सही समझ होती है। समझ सही होती है लक्ष्मी महालक्ष्मी हो जाती है और समझ गलत होती है तो वही धन मुसीबतें और चिंताएँ ले आता है। सेवा-साधना से आपकी धनलक्ष्मी सुखदायी, प्रभुप्रीतिदायी महालक्ष्मी हो।

 

हे प्रिय आत्मन् ! इस मंगलमय नूतन वर्ष के नवप्रभात में सत्य संकल्प करो कि मैं अपने सत्कर्मों से संपूर्ण भूमंडल पर भारतीय संस्कृति व गीता के ज्ञान का दीपक जगमगाता रहूँगा।

 

हे प्रकाशस्वरूप आत्मा ! हे सुखस्वरूप प्रभु के सनातन सपूत ! आपका जीवन हर परिस्थिति में सजगता, सावधानी, प्रसन्नता व प्रकाश से परिपूर्ण हो ! आत्मिक आनंद से जगमगाये जीवन !

 

तुम्हारे हृदय-मंदिर में वैदिक ज्ञान का शाश्वत प्रकाश जगमगाता रहे यही शुभकामना....... ॐ आनंद....

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