निर्मोल व समूल रोगनाशक दैवी चिकित्सा

रोगों का नाश करने वाली चिकित्सा तीन प्रकार की होती हैः-

मानवी चिकित्साः

इसमें आहार-विहार व निर्दोष औषधि-द्रव्यों का युक्तिपूर्वक प्रयोग किया जाता है।

राक्षसी चिकित्साः

इसमें शस्त्रकर्म द्वारा शारीरिक अवयवों का छेदन-भेदन कर अथवा प्राणियों की हत्या कर उनसे निर्मित औषधियों से चिकित्सा की जाती है।

दैवी चिकित्साः

इसमें मंत्र, होम-हवन, उपवास, शुभकर्म, प्रायश्चित, तीर्थाटन, ईश्वर व गुरुदेव की आराधना से रोग दूर किये जाते हैं।

इन चिकित्सा पद्धतियों में राक्षसी चिकित्सा हीन व दैवी चिकित्सा सर्वश्रेष्ठ है। दुःसाध्य व्याधियों में जहाँ बहुमूल्य औषधियों व शस्त्रकर्म भी हार जाते है वहाँ दैवी चिकित्सा अपना अदभुत प्रभाव दिखाती है। यह तन के साथ मन की भी शुद्धि व आत्मोन्नति कराने वाली है। आयुर्वेद के श्रेष्ठ आचार्यों ने भी दैवी चिकित्सा का अनुमोदन किया है।

‘चरक संहिता’ के चिकित्सास्थान में ज्वर की चिकित्सा का विस्तृत वर्णन करने के बाद अंत में श्री चरकाचार्य जी ने कहा हैः

विष्णु रं स्तुवन्नामसहस्त्रेण ज्वरान् सर्वनपोहति।

भगवान विष्णु की सहस्रनाम से स्तुति करने से अर्थात विष्णुसहस्रनाम का पाठ करने से सब प्रकार के ज्वर नष्ट हो जाते हैं। पाट रुग्ण स्वयं अथवा उसके कुटुंबी करें।

वाग्भटाचार्यजी ने कुष्ठ रोगों पर अनेक औषधि प्रयोग बताने के पश्चात कहा है कि ‘व्रत, गुरुसेवा तथा शिवजी, कार्तिकेय स्वामी व सूर्य भगवान की आराधना से कुष्ठ रोग दूर हो जाते हैं। अन्य चिकित्सा पद्धतियाँ भी धीरे-धीरे इस दैवी चिकित्सा की ओर आकर्षित होने लगी हैं। अमेरिका में एलोपैथी के विशेषज्ञ डॉ. हर्बट बेन्सन ने एलौपैथी को छोड़कर निर्दोष दैवी चिकित्सा की ओर विदेशीयों का ध्यान आकर्षित किया है जिसका मूल आधार भारतीय मंत्र विज्ञान है।

दैवी चिकित्सा में मंत्र चिकित्सा को अग्रिम स्थान दिया गया है। मंत्र अनादि हैं। इन्हें ऋषियों ने ध्यान की गहराइयों में खोजा है। प्रत्येक मंत्र का शरीर के भिन्न-भिन्न अंगों पर भिन्न प्रभाव पड़ता है। जैसेः-

1.                  ‘ऐं’ बीजमंत्र मस्तिषक को प्रभावित करता है। इससे बुद्धि, धारणाशक्ति व स्मृति का आश्चार्यकारक विकास होता है। इसके विधिवत जप से कोमा में गये हुए रुग्ण भी होश में आ जाते हैं। अनेक रुग्णों ने इसका प्रत्यक्ष अनुभव किया है।

2.                  ‘खं’ बीजमंत्र लीवर, हृदय व मस्तिषक को शक्ति प्रदान करता है। लीवर के रोगों में इस मंत्र की माला करने से अवश्य लाभ मिलता है। ‘हिपेटायटिस-बी’ जैसे असाध्य माने गये रोग भी इस मंत्र के प्रभाव से ठीक होते देखे गये हैं ब्रोन्कायटिस में भी ‘खं’ मंत्र बहुत लाभ पहुँचाता है।

3.                  ‘थं’ मंत्र मासिक धर्म को सुनिश्चित करता है। इससे अनियमित तथा अधिक मासिक स्राव में राहत मिलती है। महिलाएँ इन तकलीफों से छुटकारा पाने के लिए हारमोन्स की जो गोलियाँ लेती हैं, वे होने वाली संतान में विकृति तथा गर्भाशय के अनेक विकार उत्पन्न करती हैं। उनके लिए भगवान का प्रसाद है यह ‘थं’ बीजमंत्र।

4.                  स्वास्थ्यप्राप्ति के लिए सिर पर हाथ रखकर मंत्र का 108 बार उच्चारण करें।

अच्युतानन्त गोविन्द नामोचारणभेषजात्।

नश्यन्ति सकला रोगाः सत्यं सत्यं वदाम्यहम्।।

हे अच्युत! हे अनन्त! हे गोविन्द! इस नामोच्चारणरूप औषध से तमाम रोग नष्ट हो जाते हैं, यह मैं सत्य कहता हूँ...... सत्य कहता हूँ।       (धन्वंतति)(क्रमशः)

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वसंत ऋतु में आहार-विहार

(वसंत ऋतुः 19 फरवरी से 18 अप्रैल)

इस ऋतु में भारी, चिकनाईवाले, खट्टे और मीठे पदार्थ का सेवन बंद कर के पचने में हल्के, रूखे, कड़वे, कसैले, तीखे पदार्थ जैसे लाई, भूने हुए चने, जौ, मूँग, मेथी, करेले, मूली, सहजन, सूरन, ताजी हल्दी, अदरक, काली मिर्च, सोंठ आदि का सेवन करना चाहिए।

चैत्र मास (22 मार्च से 20 अप्रैल) में 15 दिन अलोना (नमक के त्याग) का व्रत रखना खूब स्वास्थ्य-प्रदायक है।

इससे रक्त शुद्ध होकर हृदय, गुर्दे, यकृत (लीवर) व त्वचा के रोगों से रक्षा होती है।

प्रतिवर्ष अलोना व्रत रखने वाले व्यक्ति अन्य लोगों की अपेक्षा स्वस्थ पाये गये हैं।

इस ऋतु में सुबह 2 ग्राम हरड़ चूर्ण शहद में मिलाकर लें। नीम की 15-20 कोंपलें (नीम के कोमल पत्ते) 2-3 काली मिर्च के साथ खूब चबा-चबाकर खायें। नीम के फूलों का 15-20 मि.ली. रस 7 से 15 दिन तक सुबह खाली पेट लें। इससे त्वचा विकारों व मलेरिया से बचाव होगा।

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