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योगयात्रा-3

अखिल भारतीय योग वेदान्त सेवा समिति

अनुक्रम

शिवकृपा से प्राणरक्षा... 3

मंत्र और मंत्रदीक्षा की महिमा... 5

पूज्य बापू के कृपा प्रसाद के परिप्लावित हृदयों के उदगार. 8

राष्ट्रपति की शुभकामनाएँ. 8

'मुझे आत्मसुख प्रदान किया....' 8

महामहिमावान पूज्य श्री... 9

'आज मैं धन्य हुआ.....' 9

अनूठे प्रेरणादाता पूज्यश्री... 10

पूज्य बापू राष्ट्रसुख के संवर्धक.. 10

'पूज्यश्री की प्रेरणा पा रहा हूँ....' 10

'मैं प्रभुशक्ति में अवगाहन करता रहा....' 11

पूज्य बापू मानो श्रीकृष्ण का रूप. 11

श्रीचरणों में प्रेरणा पाते हैं...... 12

पुण्योदय पर संत समागम.. 12

भगवन्नाम का जादू. 13

अशांतजगत में शांति के प्रकाशपुंजः पूज्य श्री... 13

समर्थ व ज्ञानेश्वर के रूपः मेरे गुरूदेव. 14

'जिन्होंने मुझे आस्तिक बनाया....' 15

प्राणायाम से सिद्धियाँ... 24

ध्यान की महिमा... 25

जप-ध्यान से जीवनविकास.. 28

 

 

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शिवकृपा से प्राणरक्षा

साधू संग संसार में, दुर्लभ मनुष्य शरीर

सत्संग सवित तत्व है, त्रिविध ताप की पीर।।|

 

मानव-देह मिलना दुर्लभ है और मिल भी जाय तो आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक ये तीन ताप मनुष्य को तपाते रहते है किंतु मनुष्य-देह में भी पवित्रता हो, सच्चाई हो, शुद्धता हो और साधु-संग मिल जाय तो ये त्रिविध ताप मिट जाते हैं

 

सन १८७९ की बात है । भारत में ब्रिटिश शासन था, उन्हीं दिनों अंग्रेजों ने अफगानिस्तान पर आक्रमण कर दिया । इस युद्ध का संचालन आगर मालवा ब्रिटिश छावनी के लेफ़्टिनेंट कर्नल मार्टिन को सौंपा गया था । कर्नल मार्टिन समय-समय पर युद्ध-क्षेत्र से अपनी पत्नी को कुशलता के समाचार भेजता रहता था । युद्ध लंबा चला और अब तो संदेश आने भी बंद हो गये । लेडी मार्टिन को चिंता सताने लगी कि 'कहीं कुछ अनर्थ न हो गया हो, अफगानी सैनिकों ने मेरे पति को मार न डाला हो । कदाचित पति युद्ध में शहीद हो गये तो मैं जीकर क्या करूँगी ?'-यह सोचकर वह अनेक शंका-कुशंकाओं से घिरी रहती थी । चिन्तातुर बनी वह एक दिन घोड़े पर बैठकर घूमने जा रही थी मार्ग में किसी मंदिर से आती हुई शंख व मंत्र ध्वनि ने उसे आकर्षित किया वह एक पेड़ से अपना घोड़ा बाँधकर मंदिर में गयी । बैजनाथ महादेव के इस मंदिर में शिवपूजन में निमग्न पंडितों से उसने पूछा :"आप लोग क्या कर रहे हैं ?" एक व्रद्ध ब्राह्मण ने कहा : " हम भगवान शिव का पूजन कर रहे हैं ।" लेडी मार्टिन : 'शिवपूजन की क्या महत्ता है ?' ब्राह्मण :'बेटी ! भगवान शिव तो औढरदानी हैं, भोलेनाथ हैं । अपने भक्तों के संकट-निवारण करने में वे तनिक भी देर नहीं करते हैं । भक्त उनके दरबार में जो भी मनोकामना लेकर के आता है, उसे वे शीघ्र पूरी करते हैं, किंतु बेटी ! तुम बहुत चिन्तित और उदास नजर आ रही हो ! क्या बात है ?" लेडी मार्टिन :" मेरे पतिदेव युद्ध में गये हैं और विगत कई दिनों से उनका कोई समाचार नहीं आया है वे युद्ध में फँस गये हैं या मारे गये है, कुछ पता नहीं चल रहा । मैं उनकी ओर से बहुत चिन्तित हूँ |" इतना कहते हुए लेडी मार्टिन की आँखे नम हो गयीं । ब्राह्मण : "तुम चिन्ता मत करो, बेटी ! शिवजी का पूजन करो, उनसे प्रार्थना करो, लघुरूद्री करवाओ । भगवान शिव तुम्हारे पति का रक्षण अवश्य करेंगे । "

 

पंडितों की सलाह पर उसने वहाँ ग्यारह दिन का 'ॐ नमः शिवाय' मंत्र से लघुरूद्री अनुष्ठान प्रारंभ किया तथा प्रतिदिन भगवान शिव से अपने पति की रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगी कि "हे भगवान शिव ! हे बैजनाथ महादेव ! यदि मेरे पति युद्ध से सकुशल लौट आये तो मैं आपका शिखरबंद मंदिर बनवाऊँगी ।" लघुरूद्री की पूर्णाहुति के दिन भागता हुआ एक संदेशवाहक शिवमंदिर में आया और लेडी मार्टिन को एक लिफाफा दिया । उसने घबराते-घबराते वह लिफाफा खोला और पढ़ने लगी ।

 

पत्र में उसके पति ने लिखा था :"हम युद्ध में रत थे और तुम तक संदेश भी भेजते रहे लेकिन आक पठानी सेना ने घेर लिया । ब्रिटिश सेना कट मरती और मैं भी मर जाता । ऐसी विकट परिस्थिति में हम घिर गये थे कि प्राण बचाकर भागना भी अत्याधिक कठिन था ।| इतने में मैंने देखा कि युद्धभूमि में भारत के कोई एक योगी, जिनकी बड़ी लम्बी जटाएँ हैं, हाथ में तीन नोंकवाला एक हथियार (त्रिशूल) इतनी तीव्र गति से घुम रहा था कि पठान सैनिक उन्हें देखकर भागने लगे । उनकी कृपा से घेरे से हमें निकलकर पठानों पर वार करने का मौका मिल गया और हमारी हार की घड़ियाँ अचानक जीत में बदल गयीं यह सब भारत के उन बाघाम्बरधारी एवं तीन नोंकवाला हथियार धारण किये हुए (त्रिशूलधारी) योगी के कारण ही सम्भव हुआ । उनके महातेजस्वी व्यक्तित्व के प्रभाव से देखते-ही-देखते अफगानिस्तान की पठानी सेना भाग खड़ी हुई और वे परम योगी मुझे हिम्मत देते हुए कहने लगे । घबराओं नहीं । मैं भगवान शिव हूँ तथा तुम्हारी पत्नी की पूजा से प्रसन्न होकर तुम्हारी रक्षा करने आया हूँ, उसके सुहाग की रक्षा करने आया हूँ ।"

 

पत्र पढ़ते हुए लेडी मार्टिन की आँखों से अविरत अश्रुधारा बहती जा रही थी, उसका हृदय अहोभाव से भर गया और वह भगवान शिव की प्रतिमा के सम्मुख सिर रखकर प्रार्थना करते-करते रो पड़ी । कुछ सप्ताह बाद उसका पति कर्नल मार्टिन आगर छावनी लौटा । पत्नी ने उसे सारी बातें सुनाते हुए कहा : "आपके संदेश के अभाव में मैं चिन्तित हो उठी थी लेकिन ब्राह्मणों की सलाह से शिवपूजा में लग गयी और आपकी रक्षा के लिए भगवान शिव से प्रार्थना करने लगी । उन दुःखभंजक महादेव ने मेरी प्रार्थना सुनी और आपको सकुशल लौटा दिया ।" अब तो पति-पत्नी दोनों ही नियमित रूप से बैजनाथ महादेव के मंदिर में पूजा-अर्चना करने लगे । अपनी पत्नी की इच्छा पर कर्नल मार्टिन मे सन १८८३ में पंद्रह हजार रूपये देकर बैजनाथ महादेव मंदिर का जीर्णोंद्वार करवाया, जिसका शिलालेख आज भी आगर मालवा के इस मंदिर में लगा है । पूरे भारतभर में अंग्रेजों द्वार निर्मित यह एकमात्र हिन्दू मंदिर है ।

 

यूरोप जाने से पूर्व लेडी मार्टिन ने पड़ितों से कहा : "हम अपने घर में भी भगवान शिव का मंदिर बनायेंगे तथा इन दुःख-निवारक देव की आजीवन पूजा करते रहेंगे ।"

 

भगवान शिव में... भगवान कृष्ण में... माँ अम्बा में... आत्मवेत्ता सदगुरू में.. सत्ता तो एक ही है । आवश्यकता है अटल विश्वास की । एकलव्य ने गुरूमूर्ति में विश्वास कर वह प्राप्त कर लिया जो अर्जुन को कठिन लगा । आरूणि, उपमन्यु, ध्रुव, प्रहलाद आदि अन्य सैकड़ों उदारहण हमारे सामने प्रत्यक्ष हैं । आज भी इस प्रकार का सहयोग हजारों भक्तों को, साधकों को भगवान व आत्मवेत्ता सदगुरूओं के द्वारा निरन्तर प्राप्त होता रहता है । आवश्यकता है तो बस, केवल विश्वास की ।

अनुक्रम

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मंत्र और मंत्रदीक्षा की महिमा

यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि।

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहाः 'यज्ञों में जप यज्ञ मैं हूँ।'

श्रीरामचरित मानस में भी आता है किः

मंत्रजाप मम दृढ़ विश्वासा।

पंचम भजन सो वेद प्रकासा।।

अर्थात् 'मेरे मंत्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास – यह पाँचवीं भक्ति है।'

शास्त्रों में मंत्रजाप की अदभुत महिमा बतायी गई है। सदगुरू प्राप्त मंत्र का नियमपूर्वक जाप करने से साधक अनेक ऊँचाइयों को पा लेता है।

श्रीसदगुरूदेव की कृपा और शिष्य की श्रद्धा, इन दो पवित्र धाराओं के संगम का नाम ही दीक्षा है। गुरू का आत्मदान और शिष्य का आत्मसमर्पण, एक की कृपा और दूसरे की श्रद्धा के अतिरेक से ही यह कार्य संपन्न होता है।

सभी साधकों के लिए मंत्रदीक्षा अत्यंत अनिवार्य है। चाहे कई जन्मों की देर लगे परन्तु जब तक सदगुरू से दीक्षा प्राप्त नहीं होती तब तक सिद्धि का मार्ग अवरूद्ध ही रहता है। बिना दीक्षा के परमात्मप्राप्ति असंभव है।

दीक्षा एक दृष्टि से गुरू की ओर से ज्ञानसंचार अथवा शक्तिपात है तो दूसरी दृष्टि से शिष्य में सुषुप्त ज्ञान और शक्तियों का उदबोधन है।

उससे हृदयस्थ सुषुप्त शक्तियों के जागरण में बड़ी सहायता मिलती है और यही कारण है कि कभी-कभी तो जिनके चित्त में बड़ी भक्ति है, व्याकुलता और सरल विश्वास है, वे भी भगवत्कृपा का उतना अनुभव नहीं कर पाते जितना कि एक शिष्य को सदगुरू से प्राप्त दीक्षा द्वारा होता है।

साधक अपने ढंग से चाहे कितनी भी साधनाएँ करता रहे, तप-अनुष्ठानादि करता रहे किन्तु उसे उतना लाभ नहीं होता जितना सदगुरू के एक शिष्य को अपने गुरू से प्राप्त मंत्रदीक्षा से होता है। मंत्रदीक्षा शक्ति से सिद्धि भी प्राप्त होती है। यदि साधक उन ऋद्धि-सिद्धियों में न फँसे और आगे ही बढ़ता रहे तो एक दिन अपने स्वरूप का साक्षात्कार भी कर लेता है।

सदगुरू जब मंत्रदान करते हैं तो साधक की योग्यता के अनुरूप ही मंत्र देते हैं ताकि साधक शीघ्रता से अध्यात्म-पथ पर आगे बढ़ सके। अन्यथा सबको एक ही प्रकार का मंत्र देने से उनका विकास जल्दी नहीं होता क्योंकि प्रत्येक मनुष्य की योग्यताएँ अलग-अलग होती हैं।

मंत्रजाप करने से साधक संसार के समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है। तुकारामजी महाराज कहते हैं-

"नाम से बढ़कर कोई भी साधन नहीं है। तुम और जो चाहो करो, पर नाम लेते रहो, इसमें भूल न हो, यही मेरा सबसे पुकार-पुकार कर कहना है। अन्य किसी साधन की कोई जरूरत नहीं। बस, निष्ठा के साथ नाम जपते रहो।"

जिसको गुरूमंत्र मिला है और जिसने ठीक ढंग से जप किया है वह कितने भी भयानक श्मशान में से चलकर निकल जाये, भूत प्रेत उसक कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते हैं। प्रायः उन्हीं निगुरे लोगों को भूत-प्रेत सताते हैं, जो प्रदोष काल में भोजन-मैथुन का त्याग नहीं करते और गुरूमंत्र का जाप नहीं करते।

जो साधक निष्ठापूर्वक मंत्रजाप करता है उसे कोई अनिष्ट सता नहीं सकता।

समर्थ रामदास के शिष्य छत्रपति शिवाजी की मुगलों से सदैव टक्कर होती रहती थी। मुगल उनके लिए अनेक षडयंत्र रचते थे कि कैसे भी करके शिवाजी को मार दिया जाये।

एक बार उनमें से एक मुगल सैनिक अपने धर्म के मंत्र-तंत्र के बल से सिपाहियों की नजर बचाकर, विघ्न बाधाओं को चीरकर, शिवाजी जहाँ आराम कर रहे थे उस कमरे  में पहुँच गया। म्यान में से तलवार निकालकर जैसे ही उसने शिवाजी को मारने के लिए हाथ उठाया कि सहसा किसी अदृश्य शक्ति ने उसका हाथ रोक दिया। रोकने वाला उस मुगल को न दिखा किन्तु उसका हाथ अवश्य रुक गया।

मुगल ने कहाः "मैं यहाँ तक तो सबकी नजर बचाकर अपने मंत्र-तंत्र के बल से पहुँच गया, अब मुझे कौन रोक रहा है ?"

जवाब आयाः "तेरे इष्ट ने तुझे यहाँ तक पहुँचा दिया, तेरे इष्ट ने सिपाहियों से तेरी रक्षा की तो शिवाजी का इष्ट भी शिवाजी को बचाने के लिये यहाँ मौजूद है।"

उसके इष्ट से शिवाजी का इष्ट सात्त्विक था इसलिए मुगल के इष्ट ने उसकी सहायता तो की किन्तु सफल न हो सका। शिवाजी का बाल तक बाँका न कर सका।

तुमने अपने मंत्र को जितना सिद्ध किया है उतनी ही तुम्हारी रक्षा होती है।

मंत्रजाप करने से मनुष्य के अनेक पाप-ताप भस्म होने लगते है। उसका हृदय शुद्ध होने लगता है और ऐसा करते-करते एक दिन उसके हृदय में हृदयेश्वर का प्रागट्य भी हो जाता है। मंत्रजाप मनुष्य को अनेक रोगों, विघ्न-बाधाओं, अनिष्टों से ही नहीं बचाता है अपितु मानव जीवन के परम लक्ष्य परमात्मप्राप्ति के पद पर भी प्रतिष्ठित कर देता है। सदगुरू से प्राप्त मंत्र का यदि नियम से एवं निष्ठापूर्वक जाप किया जाये तो मानव में से महेश्वर का प्रागट्य होना असंभव नहीं है।

उपासना में मंत्र की प्रधानता होती है। किसी भी देवता के नाम के आग "" तथा पीछे "नमः" लगा देने से वह उस देवता का मंत्र बन जाता है। इन्ही नाममंत्रों के जप से सिद्धि प्राप्त होती है।

मंत्र दिखने में तो बहुत छोटा होता है लेकिन उसका प्रभाव बहुत बड़ा होता है। हमारे पूर्वज ऋषि-महर्षियों ने मंत्र के बल पर ही इतनी बड़ी ख्याति प्राप्त है।

वर्त्तमान समय में मंत्रों का जप करने वाले सर्प या बिच्छू के काटे हुए स्थान का विष झाड़कर दूर कर देते हैं। स्तोत्रपाठ, मंत्रानुष्ठान आदि से रोगमुक्ति तथा अन्य कार्य साधते हैं लेकिन पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित लोग लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति से पढ़े लिखे लोग मंत्र पर विश्वास नहीं करते। उनका ऐसा मानना है कि मंत्रविद्या अब केवल कथामात्र है। वस्तुतः आजकल मंत्रविद्या के पूर्ण ज्ञाता अनुभवी सत्पुरूष बहुत कम मिलते हैं। यदि कोई हैं तो उन्हें केवल श्रद्धा-भक्तिवाले ही पहचान पाते हैं।

जो ऐसे सत्पुरूषों द्वारा प्रदान किये गये मंत्र पर श्रद्धा रखते हैं वे आनन्द को प्राप्त होकर आज भी चिन्ता, तनाव व रोग से मुक्त बने हुए हैं। शास्त्रों में आता हैः

मंत्रे तीर्थे द्विजे देवे दैवज्ञे भेषजे गुरौ।

यादृशीर्भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी।।

'मंत्र, तीर्थ, ब्राह्मण देवता, ज्योतिषी, औषध तथा गुरू में जिसकी जैसी भावना होती है उसे वैसी ही सिद्धि प्राप्त होती है।"

मंत्र तीन प्रकार के होते हैं- वैदिक, तान्त्रिक और साबरी। इनका अपनी-अपनी पद्धति के अनुसार श्रद्धापूर्वक जप आदि करने से कार्य सिद्ध होता है।

मंत्र के रहस्यों को जानने वाले ब्रह्मनिष्ठ सदगुरू प्राप्त दीक्षा तथा मंत्रमात्र के उपदेश में मुहूर्त आदि की भी आवश्यकता नहीं रहती। वे जब चाहें तब दीक्षा व उपदेश प्रदान कर सकते हैं।

मंत्र जितना छोटा होता है उतना अधिक शक्तिशाली होता है। गुरू में मनुष्य, मंत्र में अक्षर था प्रतिमा में पत्थरबुद्धि रखने वाला नरकगामी होता है, ऐसा शास्त्रों में आता है।

बड़े धनभागी हैं वे लोग जिन्हें किसी मंत्रदृष्टा अनुभवसंपन्न महापुरूष द्वारा प्रदान की गई दीक्षा का लाभ प्राप्त हुआ है ! सचमुच वे महापुरूष तो जीवन ही बदल देते हैं। मंत्रों का रहस्य गहन एवं जटिल होता है। उसे वही समझ पाता है जो गुरू द्वारा प्राप्त मंत्र में अटूट श्रद्धा रख उस साधन-पथ पर चल पड़ता है।

हे मानव ! उठ, जाग और खोज ले किसी ऐसे सदगुरू को। चल पड़ उनके उपदेशानुसार.... और प्राप्त कर ले मंत्रदीक्षा... नियमपूर्वक जप कर.... फिर देख मजा ! सफलता तेरी दासी बनने को तैयार हो जाएगी।

अनुक्रम

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पूज्य बापू के कृपा प्रसाद के परिप्लावित हृदयों के उदगार

राष्ट्रपति की शुभकामनाएँ

मुझे यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई है कि संत श्री आसारामजी आश्रम न्यास जन-जन में शान्ति, अहिंसा और भ्रातृत्व का सन्देश पहुँचाने के लिए देशभर में 'सत्संग' का आयोजन कर रहा है।

इस क्रम में दिल्ली में आयोजित किये जा रहे सत्संग के अवसर पर मैं न्यास को बधाई देता हूँ और उसके सराहनीय प्रयासों की सफलता के लिए अपनी शुभकामनाएँ प्रेषित करता हूँ।

के. आर. नारायणन

राष्ट्रपति

भारत गणतंत्र, नई दिल्ली।

2 अक्तूबर, 1997

अनुक्रम

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'मुझे आत्मसुख प्रदान किया....'

परम श्रद्धेय बापू जी ने मुझे 8 दिन के सूरत प्रवास के समय अपने श्रीचरणों में स्थान देकर जो आत्मसुख प्रदान किया है, वे क्षण भरे मेरे हृदय में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित किये गये हैं।

जिस अलौकिक आनन्द का अनुभव आश्रम के वातावरण में किया ऐसा जीवन में कभी अन्यत्र अनुभव करने को नहीं मिला।

डा. केदारनाथ मोदी, चेयरमैन।

मोदी इन्टरप्राइसेस, मोदीनगर, उत्तरप्रदेश।

अनुक्रम

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महामहिमावान पूज्य श्री

परम पूज्य गुरूदेव की पीयूषवर्षी वाणीयुक्त उपदेशामृतों से प्रभावित होकर मैंने अपने जीने का ढंग बदल दिया। गुरुदेव के श्रीचरणों में रहने से मेरे जीवन से दोष व दुर्गुण ऐसे गायब हो गये जैसे सूर्य के उदय होने से अंधेरा गायब हो जाता है।

दीन दुःखियों के प्रति सहानुभूति, दया, करूणा, क्षमा, सत्य, धैर्य आदि दैवी सम्पदाओं का जीवंत दर्शन मुझे पूज्यश्री के दैनिक जीवन में कई बार हुआ। छोटे  मोटे दैवी चमत्कार तो पूज्यश्री की उपस्थिति में प्रकृति द्वारा सहज ही होते रहते हैं।

पूज्यश्री की अनुभव-सम्पन्नता के आगे ये चमत्कार तो महत्त्वहीन हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, भगवान राम और कृष्ण जिस अनुभव के कारण भगवान रूप में पूजे जाते हैं, उसी अनुभव में पूज्यश्री विराजमान हैं तथा मुझे जैसे अनेकानेक साधक-शिष्यों को उस अनुभव की ओर अग्रसर करवा रहे हैं।

पूज्य गुरूदेव की महान् महिमा का वर्णन शब्दों में करना असंभव है फिर भी इतना अवश्य कहूँगा कि यह राष्ट्र पूज्य श्री जैसे महापुरूषों के मार्गदर्शन में एक दिन अवश्य ही दुनिया का सिरमौर बनेगा।

कौशिक पोपटलाल वाणी

आपरेशन्स रिसर्च एक्जीक्यूटिव, OCM (India) Mills.

अनुक्रम

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'आज मैं धन्य हुआ.....'

आज मैं ऐसे महान् संत श्री आसारामजी के दर्शन कर पाया और उनके श्रीमुख से सत्संग के पावन वचनामृत भी सुन सका। महाराज श्री का सत्साहित्य मुझे किसी मित्र ने दिया था, जिसे पढ़कर मैं बहुत प्रभावित हुआ। मैंने अपने साथी से इस विषय में बात कही और वह मुझे यहाँ तक ले आया। पूज्य स्वामी जी के दिव्य दर्शन एवं अनुभवसम्पन्न वाणी का मुझ पर काफी गहरा प्रभाव पड़ा है। ऐसे संतों की निगाहों से तन प्रभावित होता है और उनके वचनों से मन भी पवित्रता का मार्ग पकड़ लेता है।

मैं आज धन्य हुआ कि मुझे महाराजश्री के प्रत्यक्ष दर्शन हुए।

गुलजारी लाल नन्दा

भूतपूर्व प्रधानमंत्री

अनुक्रम

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अनूठे प्रेरणादाता पूज्यश्री

परम पूज्य संत श्री आसारामजी बापू के दिव्य सत्संग से हमें यह प्रेरणा मिलती है कि समाज के गरीब आदमी, अंतिम आदमी.... दरिद्रनारायण की सेवा को ही हम भगवान की सेवा समझे तथा अपना जीवन इतना अधिक उन्नत विकसित करें, जो देश को गौरवान्वित करे।

पूज्यश्री के श्रीचरणों में मेरी विनती है कि आपने सम्पूर्ण भारत में आध्यात्मिक जागृति का जो अभियान आरंभ किया है उसे संपूर्ण विश्व में फैला दीजिए ताकि विश्व का भी कल्याण हो।

उत्तमभाई पटेल

तत्कालीन केन्द्रिय ग्रामीण विकास मंत्री, भारत शासन-दिल्ली।

अनुक्रम

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पूज्य बापू राष्ट्रसुख के संवर्धक

"पूज्य बापू द्वारा दिया जाने वाला नैतिकता का संदेश देश के कोने-कोने में जितना अधिक प्रसारित होगा, जितना अधिक बढ़ेगा, उतनी ही मात्रा में राष्ट्रसुख का संवर्धन होगा, राष्ट्र की प्रगति होगी। जीवन के हर क्षेत्र में इस प्रकार के संदेश की जरूरत है।"

(श्री लालकृष्ण आडवाणी, उपप्रधानमंत्री एवं केन्द्रीय गृहमंत्री, भारत सरकार।)

अनुक्रम

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'पूज्यश्री की प्रेरणा पा रहा हूँ....'

मैं विगत 16 वर्षों से पूज्य संतश्री आसारामजी बापू के सान्निध्य में आशीर्वाद व प्रेरणा प्राप्त करता रहा हूँ। पूज्यश्री की असीम कृपा से मुझे जिस उपमुख्यमंत्री पद का दायित्व मिला है, मैं वचन देता हूँ कि उसका उचित निर्वाहन करते हुए समाज व प्रदेश की जनता के हित में निष्ठापूर्वक सदुपयोग करूँगा तथा तस्करों व अपराधियों से समाज को बचाने में सदैव तत्पर रहूँगा।

सुभाष यादव

तत्कालीन उपमुख्यमंत्री, मध्यप्रदेश।

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'मैं प्रभुशक्ति में अवगाहन करता रहा....'

कोटा में पूज्य बापू के दर्शन व सत्संग का सुअवसर मिला, जिसमें पूज्यश्री की आध्यात्मिक अनुभूतियों को छूकर प्रवाहित होने वाली अमृतवाणी से मुझे ऐसी परम शांति, आनन्द व ज्ञान मिला कि मैं प्रभारी मुख्यमंत्री होने के बावजूद भी विधानसभा सत्र में भाग लेने जयपुर न जाकर पाँच दिनों तक कोटा में प्रभुभक्ति की सरिता में अवगाहन करता रहा। ऐसा सुअवसर मैं कैसे गँवा सकता था ? धन्य है भारतभूमि तथा इसके अमूल्य रत्न समान प्रकाशित ब्रह्मज्ञानी संत-महापुरूष, जो इस घोर कलियुग में भी अन्तरात्मा-परमात्मा के राज्य में सरलता से प्रवेश करा देते हैं।

ललित किशोर चतुर्वेदी

तत्कालीन प्रभारी मुख्यमंत्री, राजस्थान।

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पूज्य बापू मानो श्रीकृष्ण का रूप

दिनांकः 9 से 13 नवंबर 1994 तक विसनगर (गुजरात) के सत्संग समारोह में निरन्तर पाँच दिनों तक परम पूज्य संत श्री आसारामजी बापू की अमृतवाणी सुनने का सौभाग्य मिला। इतना विशाल जनसमुदाय, जिसमें करीब दस-पन्द्रह हजार बच्चे तथा लाखों बुद्धिजीवी व विद्वद्वर्ग एक साथ तीन-चार घंटे तक शांत व एकाग्र चित्त से पूज्य श्री की पीयूषवर्षी वाणी का रसपान करते रहे, इससे बढ़कर और क्या महान आश्चर्य हो सकता है ?

पूज्य बापू के मुखारविन्द से प्रस्फुटित विस्तृत गीता ज्ञानामृत के श्रवण से ऐसा लगा मानो साक्षात श्रीकृष्ण ही पूज्य बापू  के रूप में पधारे हैं। मेरा पूरा विसनगर क्षेत्र पूज्य बापू के सत्संग से लाभान्वित होका धन्य हो गया है। मैं पूज्य श्री संतश्री का अति आभारी हूँ.... कृतज्ञ हूँ.... जिन्होंने निरन्तर पाँच दिनों तक विसनगर में हरिभक्ति की गंगा प्रवाहित की। पूज्य बापू के श्रीचरणों में मेरा हार्दिक नमन।

भोलाभाई पटेल

तत्कालीन मंत्री, गुजरात

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श्रीचरणों में प्रेरणा पाते हैं......

साँप बाहर होता है तो टेढ़ी मेढ़ी चाल से चलता है लेकिन बाँबी में आता है तो सीधा ह जाता है। ऐसे ही हम प्रतिस्पर्धी पार्टी के लोग पूज्य बापू के श्रीचरणों में सत्संग में सीधे बैठकर प्रेरणा, शांति, ज्ञान व आनन्द प्राप्त करते हैं। ऐसे ज्ञानदाता, अनुभवनिष्ठ पूज्यपाद संत श्री आसारामजी महाराज के श्रीचरणों में कोटि-कोटि प्रणाम.....!

सुन्दरलालपटवा

तत्कालीन मुख्यमंत्री, मध्यप्रदेश

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पुण्योदय पर संत समागम

हम लोगों का परम सोभाग्य है कि हमारे पास पूजनीय संत श्री आसारामजी महाराज ने पधारकर हम पर अनुग्रह किया है। भागदौड़ और शोरगुल में ही हमारा सारा दिन बीतता है। उसमें कभी भाग्यवश ऐसे महान संत का दर्शनलाभ मिल पाता है।"जीवन की दौड़-धूप से क्या मिलता है यह हम सब जानते हैं। फिर भी भौतिकवादी संसार में हम उसे छोड़ नहीं पाते। संत श्री आसारामजी जैसे दिव्य शक्तिसम्पन्न संत पधारें और हमको आध्यात्मिक शांति का पान कराकर जीवन की अंधी दौड़ से छुड़ायें, ऐसे प्रसंग कभी-कभी ही प्राप्त होते हैं। ये पूजनीय संतश्री संसार में रहते हुए भी पूर्णतः विश्वकल्याण के लिए चिन्तन करते हैं, कार्य करते हैं। लोगों को आनंदपूर्वक जीवन व्यतीत करने की कलाएँ और योगसाधना की युक्तियाँ बताते हैं।

आज उनके समक्ष थोड़ी ही देर बैठने से एवं सत्संग सुनने से हमलोग और सब भूल गये हैं तथा भीतर शांति व आनंद का अनुभव कर रहे हैं। ऐसे संतों के दरबार में पहुँचना पुण्योदय का फल है। उन्हे सुनकर हमको लगता है कि प्रतिदिन हमें ऐसे सत्संग के लिए कुछ समय अवश्य निकालना चाहिए। पूज्य बापू जी जैसे महान संत व महापुरुष के सामने मैं अधिक क्या कहूँ? चाहे कुछ भी कहूँ, वह सब सूर्य के सामने चिराग दिखाने जैसा है।" हम लोग अत्य़धिक आभारी है कि आपने हम लोगों को भोपाल में दर्शन देकर कृतार्थ किया।

मनष्य लाख सोच-विचार करे, पर ऐसे महान् संत के दरबार में वही पहुँच सकता है जिनके पुण्यों का उदय हुआ हो, ईश्वर का अनुग्रह हुआ हो।

मेरे पुण्योदय में अभी कुछ कमी रह गई होगी तभी मैं कल के सत्संग में न पहुँच सका। सत्संग में आज की अपनी उपस्थिति को मैं अपना सदभाग्य मानता हूँ।

श्री मोतीलाल वोरा, अखिल भारतीय काँग्रेस कोषाध्यक्ष, पूर्व मुख्यमंत्री (म.प्र.), पूर्व राज्यपाल (उ.प्र.)।

अनुक्रम

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भगवन्नाम का जादू

"संतश्री आसारामजी बापू के यहाँ सबसे अधिक जनता आती है कारण कि इनके पास भगवन्नाम-संकीर्तन का जादू, सरल व्यवहार, प्रेमरसभरी वाणी तथा जीवन के मूल प्रश्नों का उत्तर भी है।"

विरक्तशिरोमणि श्री वामदेवजी महाराज।

"स्वामी आसारामजी के पास भ्रांति तोड़ने की दृष्टि मिलती है।"

युगपुरुष स्वामी श्री परमानंदजी महाराज।

"आसारामजी महाराज ऐसी शक्ति के धनी हैं कि दृष्टिपातमात्र से लाखों लोगों के ज्ञानचक्षु खोलने का मार्ग प्रशस्त करते हैं।"

युगपुरूष स्वामी श्री ब्रह्मानंदगिरीजी महाराज।

 

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अशांतजगत में शांति के प्रकाशपुंजः पूज्य श्री

आज भारतवर्ष और विश्व में मनुष्य को अपनी महिमा में जागृत करने की अत्यन्त आवश्यकता है। चारों ओर अशांति का वातावरण फैला हुआ है। ऐसी विषम परिस्थितियों में भी विश्व को शांति का संदेश देने के लिए आज के युग के महान संत श्री आसारामजी महाराज अविराम गति से सम्पूर्ण विश्व में घूमते हुए विश्वशांति के लिए अपना जीवन अर्पण कर चुके हैं। हमारे शहादा (महा.) परिसर में किसान और खेतमजदूर आदिवासियों ने स्वपरिश्रम से अपनी भूमि और जीवन सँवारने का कार्य सहकार के मध्यम से शुरू किया है। इस कार्य में परम पूज्य बापूजी की अमृतवाणी, आशीर्वाद और पदस्पर्श से समृद्धि की निर्मल गंगा चिरकाल तक बहती रहेगी, ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है।

आज के इस गतिमान जीवन में परम पूज्य श्री आसारामजी बापू मानव जाति को आध्यात्मिक ज्ञान द्वारा, सत्संग के द्वारा एक अच्छे मार्ग पर ले जा रहे हैं। ऐसे इन महान् संत को पुनः एक बार शहादा परिसर की ओर से नम्र वन्दन करता हूँ।

पी.के.अण्णा पाटिल, अध्यक्ष

तत्कालीन महाराष्ट्र राज्य मार्ग परिवहन मंडल, मुंबई।

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समर्थ व ज्ञानेश्वर के रूपः मेरे गुरूदेव

पूज्य गुरूदेव के सान्निध्य में रहते हुए मुझे होने वाले आध्यात्मिक अनुभवों का वर्णन करना अर्थात् अनंतस्वरूप आकाश को अपने नन्हें हाथों से थाम लेने की चेष्टा करने के समान है।

मैं टी.सी.आई. कोटा में नौकरी करता था। उसी दौरान मुझे पूज्यश्री की पीयूषवर्षी वाणी से भरी हुई 'आत्मयोग, साधना मे सफलता और जीते जी मुक्ति, जैसी मानवीय जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए सहायकर अनमोल पुस्तकें पढ़ने को मिलीं। इन छोटी-छोटी लेकिन अमूल्य रत्नों से भरी हुई तीन किताबों ने मेरा जीवन ही बदल डाला। गुरूदेव और गुरूतत्त्व के बारे में मैंने सुना तो बहुत था। संत ज्ञानेश्वर और समर्थ रामदास मेरे प्रिय संत रहे हैं। मैं जब भी कभी उनके जीवन चरित्र पढ़ता, तब बहुत बेचैन होता था कि ऐसे समर्थ सदगुरू मुझे कब मिलेंगे ? लेकिन इस घोर कलियुग में सदगुरू की खोज में जहाँ-जहाँ गया वहाँ निराशा ही हाथ आई। मुझे ऐसे कोई सदगुरू ही नहीं मिले जो मेरे जीवन की दिशा बदल सकें।

पूज्यश्री के सत्साहित्य को पढ़कर एक बार पुनः मेरे मन में आशा की किरणें जाग उठीं और मैं सदगुरू की प्राप्ति के लिए बाँसवाड़ा (राजस्थान) में पूज्य बापू के सत्संग समारोह में पहुँच गया। गुरूदेव के दर्शन मात्र से ही मेरे मन में आनन्द की लहरें उठने लगीं। मैं जान गया कि पूज्यश्री के श्रीचरणों के सिवाय मेरे जीवन का अन्य कोई आश्रयदाता नहीं है।

भीलवाड़ा में मुझे गुरूदेव ने आश्रम में रहकर सेवा-साधना करने की अनुमति प्रदान कर मेरे भाग्योदय पर मानो हस्ताक्षर ही कर दिये।

गुरूदेव ! मेरी प्रार्थना है कि आपश्री के अनुभव में मिलने की मेरी इतनी प्यास जगे जैसे कि चातक पक्षी बरसात की बूँदों के लिए तरसता है। हमें वैसी ही मिट्टी बना दो जैसी कि कुम्हार अपने पैरों तले रौंद-रौंदकर उस मिट्टी से सुन्दर मूर्तियों का निर्माण करता है। वैसा ही सुन्दर मूर्तियों का निर्माण आप हममें से कर सकें।

पूज्य गुरूदेव के सान्निध्य में रहकर मैं अहर्निश आध्यात्मिक उत्थान के मार्ग पर आगे बढ़ता ही जा रहा हूँ। पूज्य गुरूदेव ही मेरे समर्थ रामदास हैं। वे ही मेरे माउली (ज्ञानेश्वर) हैं, यह मैं प्रत्यक्ष जान चुका हूँ। पूज्य संत श्री आसारामजी बापू समर्थ की नाई इस राष्ट्र के लिए अनेक वीर शिवाजी तैयार कर रहे हैं, यह मैं बहुत ही करीब से अनुभव कर चुका हूँ। यह राष्ट्र कभी गुरूदेव के ऋण से उऋण नहीं हो सकेगा।

शैलेश देशपांडे

औरंगाबाद, महाराष्ट्र

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'जिन्होंने मुझे आस्तिक बनाया....'

मैं बहुत नास्तिक प्रकृति का था। ईश्वर या भगवान के प्रति मुझे तनिक भी श्रद्धा नहीं थी क्योंकि मैं विज्ञान का विद्यार्थी था और विज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई धर्म हो ही नहीं सकता, ऐसी मेरी मान्यता थी।

मेरी माता जी पूज्य स्वामी का साहित्य हमेशा पढ़ती रहती थी और मुझसे भी पढ़ने का आग्रह किया करती थी लेकिन मैं साधु-संतों के वचनों पर विश्वास नहीं करता था, इसलिए मैं उले टाल देता था। डिप्लोमा इन इलेक्ट्रोनिक्स की अंतिम वर्ष की परीक्षा देने के बाद घर पर ही छुट्टियों में मैंने माता जी के अत्यधिक आग्रह के कारण संत श्री आसारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित जीते जी मुक्ति पुस्तक पढ़ना आरम्भ किया।

जैसे-जैसे उस पुस्तक का एक-एक पृष्ठ पढ़ता गया, वैसे-वैसे अदृश्य आनंद से अभिभूत होकर मेरी नास्तिकता आस्तिकता में परिवर्तित होने लगी। ईश्वर और धर्म का महत्त्व मुझे समझ में आने लगा। मैं इन महापुरूष के दर्शन के लिए बेचैन होने लगा जिन्होंने जिन्होंने मेरे जीवन में धर्म के प्रति आस्तकिता का बीजारोपण किया। मैंने अनेक प्रयत्न किये लेकिन अनेकानेक समस्याओं के कारण उनके पावन दर्शन करने नहीं जा सका।

एक बार मैंने पढ़ा कि श्री आसारामायण के 108 पाठ करने वालों की सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। मैंने भी श्रीआसारामायण के 108 पाठ किये और गुरूदेव को मन ही मन प्रार्थना की कि मंत्रदीक्षा के मार्ग में आने वाले सभी व्यवधान दूर कर दर्शन देकर अनुगृहीत कीजिएगा।

उस दिन मेरे विश्वास को अत्यधिक बल मिला तथा ईश्वर का अस्तित्व जगत में है, ऐसा आभास होने लगा। श्रीआसारामायण के 108 पाठ पूर्ण होते ही सूरत आश्रम जाकर पूज्य श्री के दर्शन तथा मंत्रदीक्षा प्राप्ति के मेरे सब मार्ग खुल गये।

मंत्रदीक्षा के समय गुरूदेव द्वारा की गई शक्तिपात-वर्षा से प्राप्त अलौकिक आनंद के मधुर क्षणों का अनुभव शब्दों में वर्णित करना मेरे लिए असंभव है।

पूज्यश्री के पावन सान्निध्य में आये हुए मुझे तीन वर्ष से अधिक समय हो चुका है और इस दौरान अनेक दिव्यातिदिव्य अनुभवों के दौर से मैं गुजर चुका हूँ। पूज्य गुरूदेव के सान्निध्य में रहते हुए मैंने अनुभव किया है कि इस कलियुग में पूज्यश्री ही भक्तिदाता, मुक्तिदाता व सर्वसमर्थ संत हैं। पूज्य श्री के महान् गुणों का वर्णन करने को बैठूँ तो कितने ही ग्रन्थ तैयार हो जाय लेकिन यहाँ मैं सिर्फ इतना ही कहूँगा कि पूज्य श्री के सान्निध्य और मार्गदर्शन में जीवन, समाज और राष्ट्र जितना उन्नत हो सकता है, उतना विज्ञान से नहीं। मेरा भ्रमभेद मिटाकर मुझे निजानंद का रसपान करवाने वाले श्री गुरूदेव के श्रीचरणों में मेरे कोटि-कोटि नमन्....

किशोर विश्वनाथ चौधरी

27, चेतना नगर, नासिका (महा.)

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नये भारत की आत्मा के शिल्पी पू. बापू

वाणी का वैभव क्या होता है, उसके शब्द-शब्द में जादू का चमत्कार क्या प्रभाव छोड़ता है और लाख-लाख मनुष्यों का उमड़ता-उफनता सैलाब किस प्रकार आत्मानुशासित होकर किसी लोकोत्तर महामानव श्री बापू के श्रीमुख से निःसृत प्रवचन-गंगा में अवगाहित होकर अपने को किस प्रकार धन्य-धन्य अनुभव करता है.... यह सब देखने-समझने का अपूर्व अवसर मुझे अब तक दो बार प्राप्त हुआ है।

बापू जी श्रीआसारामजी महाराज को सुनना यह एक ऐसा अनुभव है, जो द्वापर में आत्मार्थी अर्जुन को प्राप्त हुआ था या फिर इस घोर कलियुग की त्रासद छाया में जीने वाले हम जैसे सामान्य जनों को प्रभु की अहैतुकी कृपा के रूप में प्राप्त हुआ है, हो रहा है।

बापू चिन्मय भारत के तपोज्जवल ऋषि-परंपरा के ध्वजवाहक हैं। बापू का बहुआयामी तेजोवलय-विभूषित व्यक्तित्व हिमालय के गगनचुम्बी देवदारू वृक्ष-सा दिनानुदिन विराट् होते जा रहा, जिसकी शीतल छाया में आने वाले कल के कई ध्रुव, कई प्रहलाद, कई उद्दालक, कई नचिकेता, कई शिवा और गोविन्द साधनारत हैं, संस्कार ग्रहण कर रहे हैं, दीक्षित हो रहे हैं। बापू लाख-लाख जनों जिनमें पुरूष हैं, नारियाँ हैं, युवान हैं, बालक हैं – के न केवल अनुशासक हैं, न केवल पथ-प्रदर्शक हैं, बल्कि उन सबके मित्र भी हैं, सखा भी हैं, माता-पिता भी हैं। वे सहज सौम्य हैं। महाप्राज्ञ हैं। हंस-मनीषा के धनी हैं। सरल-तरल हैं।

पूज्य श्री बापू के सत्संग में उनकी ओज-प्रसादमयी वाणी का ऐसा सम्मोहन है कि सभी मंत्रमुग्ध, सभी रोमांचित, सभी की आँखों में प्रेमाश्रु, सभी सुध-बुध बिसारे। भक्ति-विह्वल मीरा और महाप्रभु चैतन्य के संस्करण उन असंख्य पुरूषों-महिलाओं, युवानों और बालक-बालिकाओं ने हरि ॐ.... हरि ॐ... के नाद ब्रह्म से धरती और आकाश के अणु-अणु को गुँजित कर दिया। पुराणकालीन भारत का कथा तीर्थ नैमिषारण्य बापू की उपस्थिति में 88 हजार ऋषियों के गुणनफल के साथ जैसे एकबारगी ही मूर्तिमन्त हो उठा हो !

अपने प्रवचनों की गंगा को उद्दाम वेग से प्रवाहमान करने के दरमियान वे हास्य और गुदगुदा देने वाले विनोद की फुलझाड़ियाँ भी छोड़ते जाते हैं जिसके कारण श्रोता कभी एकरसी ऊबाऊपन (Monotony) का शिकार नहीं होता। वे प्रखर वाग्मी हैं। वेदान्त-दर्शन को जन-सामान्य की भाव-भूमि में उतार, उसे नर से नारायण कि विकासयात्रा के लिए बापू जो पाथेय देते हैं, दे रहे हैं, उससे हमारा यह विश्वास मजबूत हो रहा है कि हम उस महानाविक की नौका में सवार हैं, जो हमें सकुशल अपने उस गंतव्य तक पहुँचा देगा जहाँ आत्मा और परमात्मा के बीच की विभाजक रेखा समाप्त हो जाती है.... जहाँ जीव और ब्रह्म के बीच का घट-पर्दा सदा-सदा के लिए दूर हो जाता है।

संत श्री आसारामजी बापू की उपस्थिति और उनकी स्वस्तिक सन्निधि इस निरपेक्ष सत्य की साक्षी है कि गुरू वशिष्ठ, याज्ञवाल्क्य, भारद्वाज, अगस्त्य और बादरायण व्यास अभी अन्तर्धान या तिरोहित नहीं हुए हैं इस धराधाम से। वे आज भी विद्यमान हैं। उन्हें देखने-समझने के लिए चाहिए अनाविल दृष्टि और निर्मल मन।

आज के अशांत और तनावग्रस्त वातावरण में पूज्य बापू का सत्संग-प्रसाद जन-जन तक पहुँचाने का कार्य पवित्र कार्यकर्ताओं और संस्कार को करना चाहिए।

रत्नेश कुसुमाकर

34, पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर – 452001

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विश्वदुर्लभ संतः पूज्य बापू

मैं स्विटजरलैंड में विन्टरटूर शहर की रहने वाली हूँ। वहाँ मेरे पिता का निजी होटल व्यवसाय है। सत्तर लाख अमेरिकी डालरों से निर्मित्त उस होटल का सारा मैनेजमैंट में ही करती थी। होटल वार्टमेन के नाम से हमारा यह होटल विन्टरटूर शहर में शराब व कबाब की पार्टी के लिए अत्यधिक प्रसिद्ध है।

प्रतिदिन रात्रि के तीन बजे तक होटल में डयूटी देने के बाद सुबह के पाँच बजे तक दो घंटा अपने मित्रों के साथ शराब व सिगरेट के नशे में धुत्त होकर डिस्को करते हुए पाश्चात्य शैली में जीवन का भरपूर आनन्द लेना मेरी दिनचर्या थी। यह सब हमारे देश की सभ्यता का हिस्सा बन चुका है इसलिए मेरे माता-पिता को भी इससे कोई एतराज न था।

इस तरह भोग-विलास का जीवन यापन करते हुए एक बार मैं अपने ब्वायफ्रेन्ड रोलेन्ड (जिससे मेरी शादी होने वाली थी) के साथ भारत भ्रमण पर आई। रोलेन्ड का अभिन्न मित्र व स्विटजरलैंड के एक प्रसिद्ध उद्योगपति का लड़का मोरिस उन दिनों संत श्री आसाराम जी आश्रम, अहमदाबाद में साधक के रूप में रहकर साधना कर रहा था। अतः हम सबसे पहले मोरिस से मिलने अहमदाबाद आये। संयोगवश उसी दिन स्वामी जी अपने सत्संग-प्रवचन हेतु स्विटजरलैंड के लिए प्रस्थान कर चुके थे।

मोरिस ने हमें आश्रम-दर्शन करवाया तथा सत्साहित्य भेंट स्वरूप दिया। भारत-भ्रमण कर अपनी दो माह की यात्रा समाप्त करने के बाद हम पुनः नवम्बर 1988 में स्वदेश लौटने से पूर्व मोरिस से मिलने अहमदाबाद आये। तब तक संतश्री भी स्विटजरलैंड से लौटकर सूरत आश्रम पधार चुके थे। मोरिस के आग्रहवश हम बापू के दर्शनों के लिए सूरत पहुँचे, जहाँ पूज्यश्री ने अपने सहज स्वभाव से हमें भी खूब प्रसाद लुटाया। मैंने इन महान योगी को भी भारत का एक साधारण साधु समझकर उस समय इनके विराट स्वरूप को न समझ पाने की जो भूल की थी, आज भी कभी-कभी मुझे उसका पश्चाताप होता है। मैं भला विकारों से युक्त जीवन जीने वाली स्विस युवती भारत के इन महान् संत की विराटता का मूल्यांकन अपनी नजरों से कर भी कैसे पाती ?

हम मोरिस से विदा लेकर अपने देश पहुँच गये। एक दिन अपने व्यवसाय से निवृत्त होकर प्रातः चार बजे मैंने बैठे-बैठे अचानक ही सिर पर हाथ रखकर आँखें मूँदी तो शायद मेरी अन्तरात्मा जागृत होकर मुझसे ही सवाल करने लगी कि यह भोग, विलास और विकारमय जीवन कब तक जीती रहेगी ? एक दिन तो सब कुछ यहीं छोड़कर मरना है। उसके बाद मैं जब भी कभी संत श्री आसारामजी बापू के दर्शन-दृश्य का स्मरण करती अथवा मोरिस द्वारा भेंट दिया गया उनका अंग्रेजी साहित्य पढ़ती तो मुझे एक अजीब से आनन्द का अनुभव होने लगता। ऐसे ही कुछ अनुभव मेरे मित्र रोलेन्ड को भी होने लगे।

हम दोनों, मैं व रोलेन्ड एक वर्ष बाद जनवरी 1990 में भारत आये व अहमदाबाद में पूज्यपाद संत श्री आसारामजी महाराज से उत्तरायण शिविर में मंत्रदीक्षा ली। दीक्षा के समय पूज्य श्री की शक्तिपातवर्षा से हमें जो आनंद व सुख मिला, वह अवर्णनीय है। विकारों से मिलने वाला वह क्षणिक सुख इस शाश्वत व चिरस्थायी, भारतीय संस्कृति के सनातन सुख का क्या मुकाबला कर सकता है ?

उसके बाद से मैं व मेरा हर दूसरे तीसरे महीने भारत में आकर पूज्य गुरूदेव का सान्निध्य व मार्गदर्शन प्राप्त करते रहे। हमारी डिस्को, शराब, मांसाहार व सिगरेट की सारी बुरी आदतें छूट गईं तथा भोगप्रधान देश में भी हम ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करते हुए संयम तथा सदाचार युक्त जीवन-यापन करने लगे। ईसाई धर्म का अनुयायी होते हुए भी मेरा मन बार-बार भारत के ऋषि-मुनियों व शास्त्रों द्वारा वर्णित उस परम पद की प्राप्ति हेतु तड़पने लगा जिसे पाकर जीवन की तमाम साधनाएँ पूरी हो जाती हैं, जिसे प्राप्त करने के बाद ब्रह्माजी का पद भी छोटा लगने लगता है। ऐसे देवदुर्लभ परम पद 'आत्म-साक्षात्कार' में स्थिति पाने की मेरी तड़प बढ़ती गई। मेरा मन अब उस व्यवसाय से विरक्त होने लगा और जनवरी 1991 में मैं स्टूडेन्ट वीजा लेकर अपना करोड़ों का व्यवसाय, माता-पिता व मित्र छोड़कर स्थायी रूप से पूज्य बापू की शरण में आकर अनसूया आश्रम में अन्य बहनों के साथ पूज्य माताजी के सान्निध्य में रहने लगी।

भारत में आज जब कभी कहीं स्वामी जी की निन्दा या विरोध की बातें सुनती हूँ तो मुझे भारत के लोगों की मानसिक दिवालियापन पर तरस आने लगता है। यूरोप खंड में कहीं भी मुझे पूज्य बापू जैसा अन्य कोई संत सुनने को न मिला। स्वामी जी ने कभी भी हमसे धर्मपरिवर्तन के लिए नहीं कहा।

मैं सच कहती हूँ कि यदि स्वामी श्री आसारामजी बापू जैसे एक भी संयमी, सदाचारी, पवित्रात्मा, मुक्तात्मा संत हमारे ईसाई देशों में पैदा हो जाये तो वहाँ के लोग सारी दुनिया पर ईसाइयत का साम्राज्य फैला दें। मैं अपने सदगुरू व इस महान भारत देश का कैसे शुक्रिया अदा करूँ, जिन्होंने मुझे सत्य व परम कल्याण का मार्ग दिखा दिया..... मेरे काम को राम में बदल दिया !

उर्सुला वार्टमेन

होटल वार्टमेन, 8400, विन्टरटूर, स्विटजरलैंड।

(वर्त्तमान में महिला आश्रम में)

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जीवन की दिशा ही बदल दी

मैं स्वामी श्री आसारामजी बापू के सम्पर्क में विगत पाँच वर्षों से आया हूँ। मैंने सर्वप्रथम क्षीर सागर मैदान में पूज्यश्री की अमृतवाणी का लाभ लिया था। तत्पश्चात सिहंस्थ में पूज्य श्री की सेवा का सौभाग्य मिला था।

पूज्यश्री के सम्पर्क में आने के पूर्व मेरा जीवन कुछ अलग ही किस्म का था। एक दादा के रूप में लोग मुझे पहचानते थे लेकिन संतश्री के सत्संग-श्रवण के प्रभाव से मेरे जीवन की दिशा ही बदल गई और मुझमें अनेकानेक सात्त्विक गुणों का उदय होने लगा। जो लोग कभी मुझे एक बुरा व्यक्ति समझते थे, आज वे ही पूज्यश्री कृपा से मुझे अपना भाई व अपने दुःख-दर्द का साथी मानने लगे हैं। सचमुच मुझे उज्जैन की जनता ने बहुत-बहुत प्यार दिया है।

मैं पहले सोचा करता था कि दुनिया के समग्र सुख-साधनों से सम्पन्न बनूँ। ऐसी कोई चीज न हो, जिसका मुझे अभाव महसूस हो। लेकिन आज मुझे सिर्फ यही इच्छा होती है कि केवल स्वामी जी ही मेरे रहें, बाकी सारी दुनिया किसी की भी हो जाय।

मेरा दुर्भाग्य है कि मैं दो बार चाहने पर भी व्यस्ततावश पूज्यश्री से मंत्रदीक्षा न ले सका जिसकी मेरे जीवन में अत्यधिक आवश्यकता है। फिर भी मुझ पर स्वामीजी की कृपा अहर्निश बरस रही है।

मेरी इच्छा है कि मैं पूज्यश्री के निरन्तर सान्निध्य व मार्गदर्शन में समाज के गरीब, पिछड़े व दीन-दुःखी लोगों के विकास की दिशा में सदा प्रयत्नशील बना रहूँ। पूज्य बापू जैसे सत्पुरूषों का हमें निरन्तर सान्निध्य मिलता ही रहे ताकि हम सम्पूर्ण समाज व राष्ट्र की सेवा उनके आशीर्वाद से करते रहें।

पूज्य श्री तीसरी बार उज्जैन पधारकर यहाँ की जनता को आनन्द के सागर में अवहगाहन करवाया। उसे देखकर मुझे अत्यधिक आनन्द हुआ। कल तक मैं संतों के चमत्कारों पर भरोसा नहीं करता था लेकिन बापू जी के प्रत्यक्ष सान्निध्य में देखे चमत्कारों ने मुझे यह अहसास करा दिया कि किसी पर पूज्यश्री की दृष्टि मात्र पड़ जाय, उसके दुःख-दर्द एक झटके में खत्म कर देने का गजब का सामर्थ्य इन अलख के औलिया में है। पूज्यश्री समाज में पधारकर हमारे हितों की बातें हमें बताते हैं यह उनकी बहुत ही महानता है। जब तक समाज रहे, पूज्य बापूजी का ज्ञान हमें मिलता ही रहे। इनके बिना समाज अधूरा है।

बापू मेरे देवता हैं.... आराध्य हैं..... नित्य प्रातः स्मरणीय हैं। उनकी कृपा सदैव मुझ पर बनी रहे..... मेरी यही प्रार्थना है।

प्रेमनारायण यादव,

तत्कालीन उपमहापौर, नगर निगम, उज्जैन (म.प्र.)

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जोगेश्वर की जोगदीक्षा का जादू

मेरी एकलौती बेटी किरण शादी के कुछ ही दिनों बाद तुरन्त ही इस संसार से चली बसी। उसका मिलनसार स्वभाव तथा हमारी ममता दिन रात हमें उसकी याद में रूलाती थी। उस आत्मा के लिए हम दोनों (पति-पत्नी) का चिन्तन व रूदन हमारे जीवन को खोखला किये जा रहा था।

'घायल की गति घायल जाने।' हम दोनों का भी वही हाल था। मेरे दुःखों का अन्त तब हुआ जब मैं पूज्य श्री के पावन चरणों में आया और अपना यह दुख़ड़ा सुनाते-सुनाते मेरी आँखों से गंगा-यमुना बहने लगी। मुझसे भी अधिक दुःखी पुत्री की माँ जानकी थी जो दुबई में आँसू बहा रही थी।

अन्तर्यामी पूज्य बापू ने मुझसे कहाः ''वासु ! मैं तुम्हारे लिए तो नहीं, लेकिन जानकी के लिए अवश्य ही दुबई आऊँगा।" और अपने कमरे में ही पुत्री के गम में शोकग्रस्त रहकर अपनी जिन्दगी के एक-एक दिन को एक-एक बरस के समान गुजारने वाली मेरी धर्मपत्नी जानकी से मिलने पूज्य श्री दुबई में हमारे घर पधारे।

उन जोगेश्वर ने जोग की दीक्षा का ऐसा जादू मारा कि उसके बाद हमारा दर्द मानो चला ही गया। पुत्री का विरह, पुत्री का शोक, पुत्री की आत्मा को बार-बार हमारे घर में ले आता था और वह हमें कई बार समझाती भी थी कि 'मैं मरी नहीं हूँ क्योंकि मैं शरीर नहीं, आत्मा हूँ। मेरा शरीर मरा है, मैं अभी खुश हूँ।' उसकी सान्तवानाएँ उसकी और याद दिलाती थी लेकिन सदगुरू ने परमेश्वर की याद का हमें रास्ते पर हमें साथ लिये जा रहे हं। पग-पग पर मेरी पत्नी जानकी को दुबई में ही साधना-कक्ष में बैठे-बैठे ही अनेकानेक दिव्यातिदिव्य अनुभव हो रहे हैं। भारत के इन साधु का आत्मानुभव..... वह भी मेरी पत्नी को दुबई के साधना-कक्ष में बैठे-बैठे ही आनंदित करना कितनी महान् आश्चर्यजनक घटना है ! कहाँ तो अहमदाबाद आश्रम की शांति कुटिया व कहाँ दुबई में मेरे घर का साधना-कक्ष....! लेकिन संतों के लिए देश-काल की सीमा नहीं होती। और भी अनेकानेक विकट परिस्थितयों से पूज्य श्री की कृपा ने हमें उबारकर हमारा जीवन धन्य बना दे ऐसे प्रसंगो से अनुभूति करवाई है, जिनका वर्णन करना यहाँ सम्भव नहीं है। गुरूदेव तथा समस्त गुरूभाईयों से हाथ जोड़कर मेरी प्रार्थना है कि, भारत का आध्यात्मिक प्रसाद हर कौम तक पहुँचे तथा तप्त मानव के हृदय में शांति का संगीत छिड़े। यही युग की माँग है।

वासुमल श्रोफ

पो.बो. नं. 52, दुबई।

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जीवन विकास में चार चाँद लग गये

हम कई वर्षों से देवीपूजा, कीर्तन, भजन करते रहे लेकिन 'गुरू बिना गत नहीं' वाला हाल था। जब से पूज्य बापू जी के सत्संग का लाभ मिला, अध्यात्म का सार, रहस्य समझ में आने लगा। समय पाकर गुरूप्रसाद स्वरूप गुरूदीक्षा भी मिली और इतना आध्यात्मिक विकास हुआ कि अब ध्यान करना नहीं पड़ता है अपितु ध्यान का अमृत गुरूप्रसाद स्वरूप सदैव साथ रहता है।

परम पूज्य गुरूदेव के सान्निध्य में जाने के बाद जो मिला है उसने जीवन में आनंद-ही-आनंद भर दिया है। विलासी देशों में रहते हुए भी विषयी-विलासी जीवन की तुच्छता तथा मनुष्य जन्म की महत्ता समझ में आती जा रही है।

मुझे व मेरी पत्नी भानुमती को जबसे गुरूमंत्र का प्रभाव तथा शक्तिपात वर्षा का प्रसाद मिला है तबसे जीवन के विकास में चार चाँद लग गये हैं। वे दिन कब आएँगे जब हम भोगी देश का त्याग कर ऐसे योगी की सेवा में सतत रहने का सोभाग्य प्राप्त कर लेंगे ? धनभागी हैं वे लोग जो जीते-जी परमतत्त्व का अनुभव करानेवाले समर्थ सदगुरू की शरण में आ जाते हैं।

मोहन लालवानी

हाँगकाँग।

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मुझे लाखों का प्यारा बनाया

सदगुरू की खोज करते-करते मुझे वर्षों बीत गये। संतों की सेवा तथा सत्संग में वर्षों से जाता रहता था लेकिन दिल को दिलबर से लगा दे ऐसा कोई पीर-फकीर मुझे न मिला।

अचानक मुझे कहीं से परम पूज्य संत श्री आसारामजी बापू की पीयूषवर्षी वाणी की कैसेट तथा सत्साहित्य मिला। तत्पश्चात हृषिकेश में सत्संग मिला जिसने सदगुरू की दीक्षा तक तथा दीक्षा ने मुझे कलकत्ता के लाखों-लाखों सत्संगियों के हृदयों तक पहुँचा दिया।

दीक्षा के बाद मैंने पूज्यश्री के श्रीचरणों में प्रार्थना की थी किः "बापू ! कलकत्तावासी आपका लाभ लें, ऐसी मेरी इच्छा है लेकिन मैं अकेला हूँ।"

उन कृपानाथ ने कृपा बरसाते हुए मस्त अदा से कहाः "तुम एक नहीं, मैं तुम्हारे साथ हूँ. स्वयं को सवा लाख के बराबर मानना।"

.....और सचमुच कलकत्ता में इतना विशाल कार्यक्रम हो गया कि न जाने कितने लाख कलकत्तावासी पूज्यश्री के सत्संग में दिनांकः 7 से 12 फरवरी 1995 के दौरान झूम उठे।

मुझे लाखों दिलों का प्यारा बनाकर प्रभु प्यारा बनाने वाले गुरू को मेरा प्रणाम ! धनभागी हैं वे लोग जो ऐसे गुरू की शरण में आते हैं !

मोतीलाल मोहता

कलकत्ता

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जीवन में सब कुछ मिल गया

पूज्य बापू ने दिनांकः 11 फरवरी 1995 को कलकत्ता स्थित मेरी हावड़ा जूट मिल में पधारकर छः हजार मजदूरों को अपना दर्शन व सत्संग प्रदान कर हम जो उपकार किया है उसे मैं जीवन में कभी-भी विस्मृत नहीं कर सकूँगा। मेरी कई वर्षों से ऐसी कामना थी कि पूज्य बापू के दर्शन-सत्संग का लाभ हमारी मिल के मजदूरों को मिले।

शुभकामनाओं को पूर्ण करने में कलियुग में दृढ़ता भी उतनी ही आवश्यक है। मुझे पता न था कि मेरी दृढ़ता कैसे बढ़ गई ? मैं बस, पूज्यश्री के पीछे लगा ही रहा। कलकत्ता कार्यक्रम की अतिव्यस्तता के कारण पूज्यश्री को समय निकालना भी कठिन था। बापू ने कसौटी की या कोई ऐसी लीला ही कि वे दयालु मेरा गरीब मजदूरों की भलाई का संकल्प देखकर हावड़ा जूट मिल में पधारे तथा श्रमिकों को स्वस्थ, प्रसन्न व सुखी रहने की युक्तियों वाला पावन सत्संग प्रदानकर, हजारों-हजारों को एक साथ हरिनाम की मस्ती में झुमा दिया।

कलकत्ता को तो पहली बार सत्संग मिला लेकिन मेरे मिल के मजदूरों को तो जीवन में सब कुछ मिल गया। गुरूजी उन्हें अपने लगे। पूज्यश्री के आगमन का प्रसाद आज भी वे याद करते हैं।

मैंने संकल्प कर लिया कि सप्ताह में एक दिन के अपने मौन व्रत के दौरान अब सप्ताह में एक दिन एकांत में भी रहूँगा।

ओमप्रकाश मल

प्रबंधक, हावड़ा जूट मिल, कलकत्ता।

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सदगुरू की खोज पूर्ण हुई

शास्त्रों के अध्ययन से मैंने यह जाना था कि आत्म-साक्षात्कारी महापुरूष को ही गुरू बनाना चाहिए। ऐसे सदगुरू की तलाश में मैं भारत के अनेक क्षेत्रों में पाँच वर्ष तक घूमा। अनेक सस्थाओं, आश्रमों, मठ-पीठों में गया लेकिन कहीं भी ऐसी श्रद्धा, ऐसा विश्वास उत्पन्न नहीं हुआ कि मैं किसी को सदगुरू मानूँ।

जनवरी 1992 में मुझे एक मित्र द्वारा पूज्य बापू की ऑडियो कैसेट बहुत पसारा मत करो मिली। सुनकर लगा, जिस पूर्ण संत की खोज में मैं भटक रहा हूँ, शायद वे ही ये हों। इनके दर्शन की मुझमें अदम्य इच्छा जागृत हुई और संयोगवशात् पूज्यश्री ने शिवरात्रि के दिन करोलबाग, दिल्ली के सत्संग में अपने प्रथम दर्शन से मुझे धन्य किया।

सत्संग समाप्ति के पूर्व पूज्यश्री ने मुझे कहाः "मैं तुम्हें वह चीज दिए जा रहा हूँ, जो तुम्हें नित्य आनंद देगी।" और अपने कृपा-प्रसाद से सचमुच इन आत्मानुभूति-सम्पन्न सुहृदय संत ने मुझे वह आनंद दे डाला जिसका नित्य अनुभव मुझे आज भी हो रहा है।

1992 में गुरूपूर्णिमा पर मैं अहमदाबाद आया तो मेरे अंतःकरण से स्वतः ही यह आवाज स्फुरित होने लगी कि 'तुम्हारी सदगुरू की खोज पूर्ण हुई। तुम्हें और अधिक भटकने की आवश्यकता नहीं।' मेरे मन की सारी शंकाएँ विलुप्त हो गईं और उसी समय मैंने निश्चय किया कि मैं अब दीक्षा लेकर ही लौटूँगा।

मंत्रदीक्षा के बाद से जीवन का और अधिक विकास होकर गुरूकृपा से नित्य उस ईश्वरीय आनंद की अनुभूति हो रही है।

जितना ही पूज्यश्री के निकट आने का, उन्हें समझने का अवसर मिल रहा है, उतना ही मन में यह विश्वास दृढ़ होता जा रहा है कि मैंने सदगुरू के रूप में साक्षात् ब्रह्म को पा लिया है। इनकी कृपा से एक-न-एक दिन जीवन के चरम लक्ष्य की प्राप्ति अवश्य होगी।

आई.बी.कर्ण

निदेशक, गृहमंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली।

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गुरूकृपा से जीवन बदला

मेरा जीवन बहुत ही व्यसनी रहा है। प्रतिदिन मैं सो सिगरेट, एक बोतल दारू तथा तम्बाकू के चार पान का सेवन करता था। सिगरेट के धुएँ से मेरा घर व आफिस भरा ही रहता था लेकिन पूज्य बापूजी के सम्पर्क में आने के बाद मैं निर्व्यसनी बन गया तथा मेरे शेयर के व्यवसाय में दिन दुगनी रात चौगुनी वृद्धि होने लगी। नेशनल स्टॉक एक्सचेंज में मुझे गुरूजी की कृपा से मनचाहा स्थान भी मिल गया।

मैंने कभी भगवान का नाम नहीं लिया था लेकिन मंत्रदीक्षा के बाद से मैं नियमित जप करता हूँ। ध्यान में मुझे प्रतिदिन पूज्य बापू के दर्शन होते हैं। मेरा क्रोधी स्वभाव भी बदल चुका है तथा जीवन में निर्भीकता का समावेश हो रहा है। आज साँई की कृपा से हम व्यवसाय में उत्तरोत्तर सफलता के शिखरों की ओर बढ़ रहे हैं।

गुरूदेव की कृपा इतनी बरस रही है कि जिस तरह शबरी के द्वार भगवान राम स्वयं चलकर आये थे उसी तरह मेरे सदगुरू  भगवान साँई श्रीआसारामजी ने मेरा जीवन धन्य कर दिया। मुझे तो बस, यही अनुभव होता है कि सर्वत्र साँई ही साँई हैं, उनके सिवा कुछ नहीं।

रणछोड़ एच. हेमत्या

नेशनल स्टॉक एक्सचेंज, बम्बई।

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मुझे यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि श्रीयोग वेदान्त सेवा समिति, सुमेरपुर द्वारा चार दिवसीय शक्तिपात ध्यान योग शिविर एवं गीता भागवत सत्संग समारोह सुमेरपुर (पाली) में आयोजित किया जा रहा है।

इस तरह के ध्यान योग शिविरों से आत्मचिन्तन के साथ-साथ मन एवं आत्मा को शांति मिलती है। मानव कल्याण के लिए इस तरह के शिविरों के आयोजन का एक महत्त्वपूर्ण स्थान होता है।

बलिराम भगत

तत्कालीन राज्यपाल, राजस्थान,

राजभवन, जयपुर – 302006

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प्राणायाम से सिद्धियाँ

प्राणों के द्वारा ही सम्पूर्ण ब्रह्मांड की सारी क्रियाएँ संचालित होती हैं। प्राणायाम के अभ्यास के द्वारा प्राणों को नियिंत्रित करके योगी विभिन्न सिद्धियाँ प्राप्त करते हैं। सामान्यतया मनुष्य का श्वास नासिका से बारह अंगुल तक चलता है। प्राणायाम के अभ्यास के द्वारा इसे एक अंगुल कम कर देने पर अर्थात् ग्यारह अंगुल कर देने पर उसे निष्कामता की सिद्धि प्राप्त होती है तथा वह षडविकारों से मुक्त हो जाता है।

यदि श्वास की गति दो अंगुल कम हो जाये तो साधक को निर्विषय सुख एवं आनन्द की प्राप्ति होती है। तीन अंगुल गति कम होने पर उसे स्वाभाविक ही कवित्व शक्ति प्राप्त होती है। आजकल के आधुनिक कवि नहीं, अपितु कवि कालिदास जैसी लयबद्ध, छन्दबद्ध कविताएँ उसके हृदय में स्फुरित होती है।

चार अंगुल श्वास की गति कम करने पर उसे वाचाशक्ति प्राप्त होती है। पाँच अंगुल पर दूर दृष्टि तथा छः अंगुल गति नियंत्रित करने पर आकाशगमन की सिद्धि प्राप्त होती है।

यदि साधक प्राणायाम द्वारा श्वास की गति सात अंगुल कम कर ले तो उसे शीघ्र वेग की प्राप्ति होती है। आठ अंगुल कम करने पर उसे अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा आदि अष्ट सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।

श्वासों की गति नौ अंगुल कम करने पर उसे नवनिधि की प्राप्ति होती है। दस अंगुल गति नियंत्रित करने पर दस अवस्थाएँ प्राप्त होती है। यदि साधक ग्यारह अंगुल तक श्वास नियंत्रित कर ले तो उसे छाया निवृत्ति की सिद्धि प्राप्त होती है जिससे उसके शरीर की छाया नहीं दिखाई पड़ती है।

बारह अंगुल श्वास का नियंत्रण कर लेने वाले महायोगी साधक की हंसगति अर्थात् कैवल्य पद की प्राप्ति होती है।

प्राणायाम का अभ्यास करने वाले साधकों के लिए विशेष सावधानी की बात यह है कि वह किसी अनुभवी एवं कुशल सदगुरू के मार्गदर्शन में ही प्राणायाम की साधना करे, अन्यथा इससे लाभ की अपेक्षा मानसिक उन्माद आदि विकार उत्पन्न हो सकते हैं।

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ध्यान की महिमा

नास्ति ध्यानसमं तीर्थम्। नास्ति ध्यानसमं दानम्।।

नास्ति ध्यानसमो यज्ञः। नास्ति ध्यानसमं तपम्।।

तस्मात् ध्यानं समाचरेत्।।

ध्यान के चार भेद बतलाये गये हैं-

पादस्थ, पिंडस्थ, रूपस्थ तथा रूपातीत ध्यान।

श्रीहरि अथवा श्रीसदगुरूदेव के पावन श्रीचरणों का ध्यान पादस्थ ध्यान, शरीरस्थ मूलाधार इत्यादि चक्रों के अधिष्ठाता देवों के अथवा सदगुरूदेव के ध्यान को पिंडस्थ ध्यान, नेत्रों में सूर्यचन्द्र का ध्यान करके हृदय में विराट स्वरूप के ध्यान को रूपस्थ ध्यान तथा सबसे परे रहकर उस एक परमात्मा का ध्यान करना यह रूपातीत ध्यान कहलाता है।

स्वाभाविक रीति से होनेवाला ध्यान ही सर्वश्रेष्ठ ध्यान है। गर्भवती स्त्री को गर्भावस्था के अंतिम दिनों में जिस तरह उठते-बैठते स्वाभाविक रीति से यही ध्यान होता है कि 'मैं गर्भवती हूँ...' उसी तरह साधक का भी स्वाभाविक ध्यान होना चाहिए।

पिंडस्थ ध्यान के अन्तर्गत शरीरस्थ जिन सप्तचक्रों का ध्यान किया जाता है उनसे होने वाले लाभों का यहाँ वर्णन किया जा रहा है।

मूलाधार चक्र

प्रयत्नशील योगसाधक जब किसी महापुरूष का सान्निध्य प्राप्त करता है तथा अपने मूलाधार चक्र का ध्यान उसे लगता है तब उसे अनायास ही क्रमशः सभी सिद्धियों की प्राप्ति होती है। वह योगी देवताओं द्वारा पूजित होता है तथा अणिमादि सिद्धियाँ प्राप्त कर वह त्रिलोक में इच्छापूर्वक विचरण कर सकता है। वह मेधावी योगी महावाक्य का श्रवण करते ही आत्मा में स्थिर होकर सर्वदा क्रीड़ा करता है। मूलाधार चक्र का ध्यान करने वाला साधक दादुरी सिद्धि प्राप्त कर अत्यंन्त तेजस्वी बनता है। उसकी जठराग्नि प्रदीप्त होती है तथा सरलता उसका स्वभाव बन जाता है। वह भूत, भविष्य तथा वर्त्तमान का ज्ञाता, त्रिकालदर्शी हो जाता है तथा सभी वस्तुओं के कारण को जान लेता है। जो शास्त्र कभी सुने न हों, पढ़े न हों, उनके रहस्यों का भी ज्ञान होने से उन पर व्याख्यान करने का सामर्थ्य उसे प्राप्त हो जाता है। मानो ऐसे योगी के मुख में देवी सरस्वती निवास करती है। जप करने मात्र से वह मंत्रसिद्धि प्राप्त करता है। उसे अनुपम संकल्प-सामर्थ्य प्राप्त होता है।

जब योगी मूलाधार चक्र में स्थित स्वयंभु लिंग का ध्यान करता है, उसी क्षण उसके पापों का समूह नष्ट हो जाता है। किसी भी वस्तु की इच्छा करने मात्र से उसे वह प्राप्त हो जाती है। जो मनुष्य आत्मदेव को छोड़कर बाह्य देवों की पूजा करते हैं, वे हाथ में रखे हुए फल को छोड़कर अन्य फलों के लिए इधर-उधर भटकते हैं। अतः सुज्ञ सज्जनों को आलस्य छोड़कर शरीरस्थ शिव का ध्यान करना चाहिए। यह ध्यान परम पूजा है, परम तप है, परम पुरूषार्थ है।

मूलाधार के अभ्यास से छः माह में ही सिद्धि प्राप्त हो जाती है। इससे सुषुम्णा नाड़ी में वायु प्रवेश करती है। ऐसा साधक मनोजय करके परम शांति का अनुभव करता है। उसके दोनों लोक सुधर-सँवर जाते हैं।

स्वाधिष्ठान चक्र

इस चक्र के ध्यान से कामांगना काममोहित होकर उसकी सेवा करती है। जो कभी सुने न हों ऐसे शास्त्रों का रहस्य वह बयान कर सकता है। सर्व रोगों से विमुक्त होकर वह संसार में सुखरूप विचरता है। स्वाधिष्ठान चक्र का ध्यान करने वाला योगी मृत्यु पर विजय प्राप्त करके अमर हो जाता है। अणिमादि सिद्धियाँ प्राप्त कर उसके शरीर में वायु का संचार होता है जो सुषुम्णा नाड़ी में प्रविष्ट होता है। रस की वृद्धि होती है। सहस्रदल पद्म से जिस अमृत का स्राव होता है उसमें भी वृद्धि होती है।

मणिपुर चक्र

इस चक्र का ध्यान करने वाले को सर्वसिद्धिदायी पातालसिद्धि प्राप्त होती है। उसके सब दुःखों की निवृत्ति होकर सकल मनोरथ पूर्ण होते हैं। वह काल को भी जीत लेता है अर्थात् काल को भी टाल सकता है। ऋषि कागभुशंडिजी ने काल की वंचना करके सैंकड़ों युगों की परम्परा देखी थी। चांगदेवजी ने इसी सिद्धि के बल पर 1400 वर्ष का आयुष्य प्राप्त किया था। जिनको आत्मसाक्षात्कार हो गया ऐसे महापुरूष भी चाहें तो इस सिद्धि से दीर्घजीवी हो सकते हैं लेकिन आत्मवेत्ताओं में लम्बे जीवन की चाह होती ही नहीं है। शास्त्रों में ऐसे कई दृष्टान्त पाये जाते हैं।

ऐसे योगसाधक को परकाया-प्रवेश की सिद्धि प्राप्त होती है। यह स्वर्ण बना सकता है। वह देवों के द्रव्य भंडारों को और दिव्य औषधियों तथा भूमिगत गुप्त खजानों को भी देख सकता है।

अनाहत चक्र

इस चक्र का ध्यान करने वाले साधक पर कामातुर स्त्री, अप्सरा आदि मोहित हो जाते हैं। उस साधक को अपूर्व ज्ञान प्राप्त होता है। वह त्रिकालदर्शी होकर दूरदर्शन, दूरश्रवण की शक्ति प्राप्त कर यथेच्छा आकाशगमन करता है। अनाहत चक्र का नित्य निरंतर ध्यान करने से उसे देवता और योगियों के दर्शन होते हैं तथा उसे भूचरी सिद्धि प्राप्त होती है। इस चक्र के ध्यान की महिमा का कोई पूरा बयान नहीं कर सकता। ब्रह्मादि देवता भी उसे गुप्त रखते हैं।

विशुद्धाख्य चक्र

जो योगी इस चक्र का ध्यान करता है उसे चारों वेदों के रहस्य की प्राप्ति होती है। इस चक्र में यदि योगी मन और प्राण स्थिर करके क्रोध करे तो तीनों लोक कम्पायमान होते हैं जैसा विश्वामित्र ने किया था। इसमें कोई संदेह नहीं। इस चक्र में मन जब लय होता है तब योगी के मन और प्राण अन्तस में रमण करने लगते हैं। उस योगी का शरीर वज्र से भी अधिक कठोर हो जाता है।

आज्ञाचक्र

इस चक्र का ध्यान करने से पूर्वजन्म के सकल कर्मों का बन्धन छूट जाता है। यक्ष, राक्षस, गंधर्व, अप्सरा, किन्नर आदि उस ध्यानयुक्त योगी के वश हो जाते हैं। आज्ञाचक्र में ध्यान करते समय जिह्वा ऊर्ध्वमुखी (तालू की ओर) रखनी चाहिए। इससे सर्वपातक नष्ट होते हैं। ऊपर बताये हुए पाँचों चक्रों के ध्यान का फल इस चक्र के ध्यान से ही प्राप्त होता है। वह वासना के बन्धन से मुक्त होता है। इस चक्र का ध्यान करने वाला राजयोग का अधिकारी बनता है।

सहस्रार चक्र

इस सहस्रदल कमल में स्थित ब्रह्मरंध्र का ध्यान करने से योगी को परमगति मोक्ष की प्राप्ति होती है।

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जप-ध्यान से जीवनविकास

जापक चार प्रकार के होते हैं- उत्तम, मध्यम, कनिष्ठ और कनिष्ठतर जापक।

कनिष्ठतर जापक वे होते हैं जिन्होंने जप की महिमा सुन ली और थोड़े दिन मंत्रजाप कर लिया..... कभी दस माला तो कभी पाँच माला... और जप बन्द कर दिया कि 'भाई, अब तो यह अपने बस का नहीं है।'

कनिष्ठ जापक वह होता है कि भाई, अब छः माला पूरी हुई, सात हुई, नौ हुई, दस हुई..... अच्छा हुआ, जप तो हो गया, नियम तो हो गया.... बोझा उतरा।

मध्यम जापक वह है जो जप तो करता ही है, जप के साथ ध्यान भी करता जाता है, जप के अर्थ में तल्लीन होता जाता है। जप करता जाता है और अन्दर कुछ भाव बनते जाते हैं।

उत्तम जापक वह है जिसकी उपस्थिति मात्र से ही औरों के जप चलने लगे। एक उत्तम जापक हो और उसके इर्दगिर्द लाख आदमियों की भीड़ हो और अगर वह कीर्तन कराये तो लाख के लाख आदमी उसके कीर्तन तथा उसके जप के प्रभाव में, भगवान की मस्ती में या भगवान के नाम में झूमने लग जायेंगे। यही उसकी सिद्धाई है। एक तत्त्वसम्पन्न उत्तम जापक महफिल में हो तो महफिल में रंग आ जाता है।

सामूहिक सत्संग का लाभ यह है कि उससे तुमुल ध्वनि उत्पन्न होती है तथा साधारण मन एवं साधारण योग्यतावालों को भी उत्तम जापक की आध्यात्मिक तरंगों का प्रभाव पवित्र कर देता है।

मंत्रजाप करते-करते थोड़ा-थोड़ा बहुत होने वाला ध्यान स्थूल ध्यान या आरंभिक ध्यान कहलाता है। इसकी अपेक्षा चिन्तनमय ध्यान सूक्ष्म ध्यान होता है। परमात्मा का, आत्मा का चिन्तन यह सूक्ष्म ध्यान है। सतत् अभ्यास से जब आगे चलकर चिन्तनमय ध्यान परिपक्व होकर चिन्तनरहित अवस्था में परिणत हो जाता है तो उसमें रसास्वाद, निद्रा, तन्द्रा, चिन्तन आदि नहीं होता। केवल एक..... अखंड.... शांत...चिन्तनरहित ध्यान.....। यही उत्तम भक्ति है, यही ब्रह्मज्ञान होता है।

उस चिन्तनरहित ध्यान की अवस्था में यदि तीन मिनट भी कोई व्यक्ति टिक जाय तो उसे दोबारा गर्भावास नहीं होगा। चिन्तनरहित ध्यान में टिकने से वह सर्वव्यापक ब्रह्म के साथ एक हो जायेगा। ईश्वर और वह, दो नहीं बचेंगे, ब्रह्म और वह दो नहीं रहेंगे, एक हो जायेंगे। फिर वह किसी भी वस्तु, व्यक्ति के चित्त को जान लेगा क्योंकि वह अन्तारात्मस्वरूप में टिकता है।

जो सबका अन्तरात्मा बना बैठा है उसके लिए देशकाल की दूरी नहीं बचती है। जिसकी चिन्तनरहित ध्यान में स्थिति हो गई, उसके आगे रिद्धि-सिद्धि का आकर्षण भी कुछ महत्त्व नहीं रखता है। उसको इन्द्र का राज्य और इन्द्र का वैभव अपने आप में ही दिखता है। ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश के लोक और पद भी उसे अपने आत्मपद में भासता है, ऐसे अवाच्य पद में वह पहुँच जाता है तथा यह मनुष्य जन्म ही वह जन्म है जिसमें अवाच्य पद प्राप्त करने की क्षमताएँ हैं।

आपका यह जीवन कहीं व्यर्थ ही न बीत जाय ! अतः आज से ही दृढ़ पुरूषार्थ का अवलम्बन लेकर कमर कसो और चल पड़ो उस राह पर, जहाँ आत्मतत्त्व की कुंजी पड़ी है। उसे प्राप्त कर लो और दिव्य ज्ञान का खजाना हथिया लो, फिर तो महाराज ! आपके सम्पूर्ण कार्य पूर्ण हो गये......। ॐ आनन्द..... ॐ....ॐ....ॐ.....

ॐ आनंद......ॐ शांति.....

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