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ब्रह्मलीन स्वामी श्री लीलाशाहजी महाराज

परम पूज्य संत श्री आसारामजी बापू के

अमृत-वचन

निरोगता का साधन

अनुक्रम

निरोगता का साधन.. 2

एक मुसलमान लुहार की कथा... 7

ब्रह्मचर्य-पालन के नियम.. 8

मनुष्य-जाति का कट्टर दुश्मनः तम्बाकू.. 10

धूम्रपान है दुर्व्यसन............. 11

बहुत खतरनाक है पान मसाला... 12

स्वास्थ्य पर हो रहा है भयानक कुठाराघात ! 12

चाय-कॉफी के स्थान पर..... 13

ओजस्वी चाय.. 14

वेदांत-वचनामृत. 14

मन को सीख.. 17

यौवन सुरक्षा से राष्ट्र सुरक्षा-विश्व सुरक्षा... 18

नौनिहालों को पूज्य बापूजी का उदबोधन.. 22

पूज्य बापूजी का अभिभावकों व विद्यार्थियों के लिए संदेश.. 23

ब्रह्मचर्यासन.. 24

विद्वानों, चिंतकों और चिकित्सकों की दृष्टि में ब्रह्मचर्य.. 25

प्रातः पानी प्रयोग.. 27

पूज्यश्री के सत्संग में प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयीजी के उदगार...... 28

पुण्योदय पर संत-समागम.. 29

 

 

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(ब्रह्मलीन स्वामी श्री लीलाशाहजी महाराज के अमृतवचन)

निरोगता का साधन

संयम अर्थात् वीर्य की रक्षा। वीर्य की रक्षा को संयम कहते हैं। संयम ही मनुष्य की तंदुरुस्ती व शक्ति की सच्ची नींव है। इससे शरीर सब प्रकार की बीमारियों से बच सकता है। संयम-पालन से आँखों की रोशनी वृद्धावस्था में भी रहती है। इससे पाचनक्रिया एवं यादशक्ति बढ़ती है। ब्रह्मचर्य-संयम मनुष्य के चेहरे को सुन्दर व शरीर को सुदृढ़ बनाने में चमत्कारिक काम करता है। ब्रह्मचर्य-संयम के पालन से दाँत वृद्धावस्था तक मजबूत रहते हैं।

संक्षेप में, वीर्य की रक्षा से मनुष्य का आरोग्य व शक्ति सदा के लिए टिके रहते हैं। मैं मानता हूँ की केवल वीर्य ही शरीर का अनमोल आभूषण है, वीर्य ही शक्ति है, वीर्य ही ताकत है, वीर्य ही सुन्दरता है। शरीर में वीर्य ही प्रधान वस्तु है। वीर्य ही आँखों का तेज है, वीर्य ही ज्ञान, वीर्य ही प्रकाश है। अर्थात् मनुष्य में जो कुछ दिखायी देता है, वह सब वीर्य से ही पैदा होता है। अतः वह प्रधान वस्तु है। वीर्य ही एक ऐसा तत्त्व है, जो शरीर के प्रत्येक अंग का पोषण करके शरीर को सुन्दर व सुदृढ़ बनाता है। वीर्य से ही नेत्रों में तेज उत्पन्न होता है। इससे मनुष्य ईश्वर द्वारा निर्मित जगत की प्रत्येक वस्तु देख सकता है।

वीर्य ही आनन्द-प्रमोद का सागर है। जिस मनुष्य में वीर्य का खजाना है वह दुनिया के सारे आनंद-प्रमोद मना सकता है और सौ वर्ष तक जी सकता है। इसके विपरीत, जो मनुष्य आवश्यकता से अधिक वीर्य खर्च करता है वह अपना ही नाश करता है और जीवन बरबाद करता है। जो लोग इसकी रक्षा करते हैं वे समस्त शारीरिक दुःखों से बच जाते हैं, समस्त बीमारियों से दूर रहते हैं।

जब तक शरीर में वीर्य होता है तब तक शत्रु की ताकत नहीं है कि वह भिड़ सके, रोग दबा नहीं सकता। चोर-डाकू भी ऐसे वीर्यवान से डरते हैं। प्राणी एवं पक्षी उससे दूर भागते हैं। शेर में भी इतनी हिम्मत नहीं कि वीर्यवान व्यक्ति का सामना कर सके।

ब्रह्मचारी सिंह समान हिंसक प्राणी को कान से पकड़ सकते हैं। वीर्य की रक्षा से ही परशुरामजी ने क्षत्रियों का कई बार संहार किया था।

ब्रह्मचर्य-पालन के प्रताप से ही हनुमानजी समुद्र पार करके लंका जा सके और सीता जी का समाचार ला सके। ब्रह्मचर्य के प्रताप से ही भीष्म पितामह अपने अंतिम समय में कई महीनों तक बाणों की शय्या पर सो सके एवं अर्जुन से बाणों के तकिये की माँग कर सके। वीर्य की रक्षा से ही लक्ष्मणजी ने मेघनाद को हराया और ब्रह्मचर्य के प्रताप से ही भारत के मुकुटमणि महर्षि दयानंद सरस्वती ने दुनिया पर विजय प्राप्त की।

इस विषय में कितना लिखें, दुनिया में जितने भी सुधारक, ऋषि-मुनि, महात्मा, योगी व संत हो गये हैं, उन सभी ने ब्रह्मचर्य के प्रताप से ही लोगों के दिल जीत लिये हैं। अतः वीर्य की रक्षा ही जीवन है वीर्य को गँवाना ही मौत है।

परंतु आजकल के नवयुवकों व युवतियों की हालत देखकर अफसोस होता है कि भाग्य से ही कोई विरला युवान ऐसा होगा जो वीर्य रक्षा को ध्यान में रखकर केवल प्रजोत्पत्ति के लिए अपनी पत्नी के साथ समागम करता होगा। इसके विपरीत, आजकल के युवान जवानी के जोश में बल और आरोग्य की परवाह किये बिना विषय-भोगों में बहादुरी मानते हैं। उन्हें मैं नामर्द ही कहूँगा।

जो युवान अपनी वासना के वश में हो जाते हैं, ऐसे युवान दुनिया में जीने के लायक ही नहीं हैं। वे केवल कुछ दिन के मेहमान हैं। ऐसे युवानों के आहार की ओर नजर डालोगे तो पायेंगे कि केक, बिस्कुट, अंडे, आइस्क्रीम, शराब आदि उनके प्रिय व्यंजन होंगे, जो वीर्य को पतला (क्षीण) करके शरीर को मृतक बनानेवाली वस्तुएँ हैं। ऐसी चीजों का उपयोग वे खुशी से करते हैं और अपनी तन्दुरुस्ती की जड़ काटते हैं।

आज से 20-25 वर्ष पहले छोटे-बड़े, युवान-वृद्ध, पुरुष-स्त्रियाँ सभी दूध, दही, मक्खन तथा घी खाना पसंद करते थे परंतु आजकल के युवान एवं युवतियाँ दूध के प्रति अरुचि व्यक्त करते हैं। साथ ही केक, बिस्कुट, चाय-कॉफी या जो तन्दुरुस्ती को बरबाद करने वाली चीजें हैं, उनका ही सेवन करते हैं। यह देखकर विचार आता है कि ऐसे स्त्री-पुरुष समाज की श्रेष्ठ संतान कैसे दे सकेंगे? निरोगी माता-पिता की संतान ही निरोगी पैदा होती है।

मित्रो ! जरा रुको और समझदारीपूर्वक विचार करो कि हमारे स्वास्थ्य तथा बल की रक्षा कैसे होगी? इस दुनिया में जन्म लेकर जिसने ऐश-आराम की जिंदगी गुजारी उसका तो दुनिया में आना ही व्यर्थ है।

मेरा नम्र मत है कि प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है दुनिया में आकर दीर्घायु भोगने के लिए अपने स्वास्थ्य व बल की सुरक्षा का प्रयास करे तथा शरीर को सुदृढ़ व मजबूत रखने के लिए दूध, घी, मक्खन और मलाई युक्त सात्त्विक आहार के सेवन का आग्रह रखे।

स्वास्थ्य की सँभाल व ब्रह्मचर्य के पालन हेतु आँवले का चूर्ण व मिश्री के मिश्रण को पानी में मिलाकर पीने से बहुत लाभ होगा। इस मिश्रण व दूध के सेवन के बीच दो घण्टे का अंतर रखें।

आध्यात्मिक व भौतिक विकास की नींव ब्रह्मचर्य है। अतः परमात्मा को प्रार्थना करें कि वे सदबुद्धि दें व सन्मार्ग की ओर मोड़ें। वीर्य शरीर में फौज के सेनानायक की नाईं कार्य करता है, जबकि दूसरे अवयव सैनिकों की नाईं फर्ज निभाते हैं। जैसे सेनानायक की मृत्यु होने पर सैनिकों की दुर्दशा हो जाती है, वैसे ही वीर्य का नाश होने से शरीर निस्तेज हो जाता है।

शास्त्रों ने शरीर को परमात्मा का घर बताया है। अतः उसे पवित्र रखना प्रत्येक स्त्री-पुरुष का पवित्र कर्तव्य है। ब्रह्मचर्य का पालन वही कर सकता है, जिसका मन इन्द्र्रियों पर नियंत्रण होता है। फिर चाहे वह गृहस्थी हो या त्यागी।

मैं जब अपनी बहनों को देखता हूँ तब मेरा हृदय दुःख-दर्द से आक्रान्त हो जाता है कि कहाँ है हमारी ये प्राचीन माताएँ?

दमयंती, सीता, गार्गी, लीलावती, विद्याधरी,

विद्योत्तमा, मदालसा की शास्त्रों में हैं बातें बड़ी।

ऐसी विदूषी स्त्रियाँ भारत की भूषण हो गयीं,

धर्मव्रत छोड़ा नहीं सदा के लिए अमर हो गयीं।।

कहाँ हैं ऐसी माताएँ जिन्होंने श्रीरामचंद्र जी, लक्ष्मण, भीष्म पितामह और भगवान श्रीकृष्ण जैसे महान व प्रातः स्मरणीय व्यक्तियों को जन्म दिया?

कहाँ है व्यासमुनि, कपिल व पतंजलि जैसे महान ऋषि, जिन्होंने हिमालय की हरी-भरी खाइयों व पर्ण-कुटीरों में बैठकर, कंदमूल खा के वेदांत, तत्त्वज्ञान, योग की पुस्तक व सिद्धान्त लिखकर दुनिया को आश्चर्य में डाल दिया?

आधुनिक नवयुवकों की हालत देखकर अफसोस होता है कि उन्होंने हमारे महापुरुषों के नाम पर कलंक लगाया है। वे इतने आलसी व सुस्त हो गये हैं कि एक-दो मील चलने में भी उन्हें थकान लगती है वे बहुत ही डरपोक व कायर हो गये हैं।

मैं सोचता हूँ कि भारत के वीरों को यह क्या हो गया है? ऐसे डरपोक क्यों हो गये हैं? क्या हिमालय के पहाड़ी वातावरण में पहले जैसा प्रभाव नहीं रहा? क्या भारत की मिट्टी में वह प्रभाव नहीं रहा कि वह उत्तम अन्न पैदा कर सके, स्वादिष्ट-सुन्दर फल-फूल पैदा कर सके? क्या गंगा मैया ने अपने जल में से अमृत खींच लिया है? नहीं, यह सब तो पूर्ववत् ही है। तो फिर किस कारण से हमारी शक्ति व शूरवीरता नष्ट हो गयी है? भीम व अर्जुन जैसी विभूतियाँ हम क्यों पैदा नहीं कर पाते?

मैं मानता हूँ कि हमारे में शक्ति, शौर्य, आरोग्य व बहादुरी सब कुछ विद्यमान है परंतु कुदरत के नियमों पर अमल हम नहीं कर रहे हैं। इसके विपरीत हम कुदरत के नियमों का उल्लंघन कर रहे हैं व प्रतिफल भोग-विलास तथा शरीर के बाह्य दिखावे को सजाने में मग्न रहते हैं और अपने आरोग्य के विषय में जरा भी सोचते नहीं हैं।

संभोग प्रजोत्पत्ति का कार्य है। तो कैसी प्रजा उत्पन्न करोगे? एक कवि ने कहा हैः

जननी जने तो भक्तजन या दाता या शूर।

नहीं तो रहना बाँझ ही, मत गँवाना नर।।

आज के जमाने में संभोग को भोग विलास का एक साधन ही मान लिया गया है। जिन लोगों ने इस पवित्र कार्य को मौज-मजा व भोग-विलास का साधन बना रखा है, वे लोग स्वयं को मनुष्य कहलाने के लायक भी नहीं रहे। संयमी जीवन से ही दुनिया में महापुरुष, महात्मा, योगीजन, संतजन, पैगम्बर व मुनिजन उन्नति के शिखर पर पहुँच सके हैं। भोले-भटके हुए लोगों को उन्होंने अपनी वाणी व प्रवचनों से सत्य का मार्ग दिखाया है। उनकी कृपा व आशीर्वाद से अनेक लोगों के हृदय कुदरती प्रकाश से प्रकाशित हैं।

मनुष्यों को प्राकृतिक कानूनी सिद्धान्तों पर अमल करके, उनका अनुकरण करके समान दृष्टि से अपनी जिंदगी व्यतीत करनी चाहिए। मन सदा पवित्र रखना चाहिए, जिससे दिल भी सदा पवित्र रहे। अंतःकरण को शुद्ध रखकर कार्य में चित्त लगाना चाहिए, जिससे कार्य में सफलता मिले। संभोग के समय भी विचार पवित्र होंगे तो पवित्र विचारोंवाली प्रजा जन्म लेगी और वह हमारे सुख में वृद्धि करेगी।

यदि आप दुनिया में सुख-शांति चाहते हो तो अंतःकरण को पवित्र व शुद्ध रखें। जो मनुष्य वीर्य की रक्षा कर सकेगा वही सुख व आराम का जीवन बिता सकेगा और दुनिया में उन्हीं लोगों का नाम सूर्य के प्रकाश की नाईं चमकेगा।

'महाभारत' का प्रसंग हैः एक बार इन्द्रदेव ने अर्जुन को स्वर्ग में आने के लिए आमंत्रण दिया और अर्जुन ने वह स्वीकार किया। इन्द्रदेव ने अर्जुन का अपने पुत्र के समान अत्यंत सम्मान व खूब प्रेम से सत्कार किया। अर्जुन को आनंद हो ऐसी सब चीजें वहाँ उपस्थित रखीं। उसे रणसंग्राम की समस्त विद्या सिखाकर अत्यधिक कुशल बनाया। थोड़े समय बाद परीक्षा लेने के लिए अथवा उसे प्रसन्न रखने के लिए राजदरबार में स्वर्ग की अप्सराओं को बुलाया गया।

इन्द्रदेव ने सोचा कि अर्जुन उर्वशी को देखकर मस्त हो जायेगा और उसकी माँग करेगा परंतु अर्जुन पर उसका कोई प्रभाव न हुआ। इसके विपरीत उर्वशी अर्जुन की शक्ति, गुणों व सुन्दरता पर मोहित हो गयी।

इन्द्रदेव की अनुमति से उर्वशी रात्रि में अर्जुन के महल में गयी एवं अपने दिल की बात कहने लगीः "हे अर्जुन ! मैं आपको चाहती हूँ। आपके सिवा अन्य किसी पुरुष को मैं नहीं चाहती। केवल आप ही मेरी आँखों के तारे हो। अरे, मेरी सुन्दरता के चन्द्र ! मेरी अभिलाषा पूर्ण करो। मेरा यौवन आपको पाने के लिए तड़प रहा है।"

यदि आजकल के सौन्दर्य के पुजारी नवयुवक अर्जुन की जगह होते तो इस प्रसंग को अच्छा अवसर समझ के फिसलकर उर्वशी के अधीन हो जाते परंतु परमात्मा श्रीकृष्ण के परम भक्त अर्जुन ने उर्वशी से कहाः "माता ! पुत्र के समक्ष ऐसी बातें करना योग्य नहीं है। आपको मुझसे ऐसी आशा रखना व्यर्थ ही है।"

तब उर्वशी अनेक प्रकार के हाव-भाव करके अर्जुन को अपने प्रेम में फँसाने की कोशिश करती है परंतु सच्चा ब्रह्मचारी किसी भी प्रकार चलित नहीं होता, वासना के हवाले नहीं होता। उर्वशी अनेक दलीलें देती है परंतु अर्जुन ने अपने दृढ़ इन्द्रिय-संयम का परिचय देते हुए कहाः

गच्छ मूर्ध्ना प्रपन्नोऽस्मि पादौ ते वरवर्णिनि।

त्वं हि मे मातृवत् पूज्या रक्ष्योऽहं पुत्रवत् त्वया।।

'हे वरवर्णिनी ! मैं तुम्हारे चरणों में शीश झुकाकर तुम्हारी शरण में आया हूँ। तुम वापस चली जाओ। मेरे लिए तुम माता के समान पूजनीया हो और मुझे पुत्र के समान मानकर तुम्हें मेरी रक्षा करनी चाहिए।'

(महाभारतः वनपर्वः 6.47)

अपनी इच्छा पूर्ण न होने से उर्वशी ने क्रोधित होकर अर्जुन को शाप दियाः "जाओ, तुम एक साल के लिए नपुंसक बन जाओगे।" अर्जुन ने अभिशप्त होना मंजूर किया परंतु पाप में डूबे नहीं।

प्यारे नौजवानो ! इसी का नाम है सच्चा ब्रह्मचारी। इस समय मुझे एक दूसरा दृष्टांत भी याद आ रहा हैः

अनुक्रम

 

एक मुसलमान लुहार की कथा

एक मुसाफिर ने रोम देश में एक मुसलमान लुहार को देखा। वह लोहे को तपाकर, लाल करके उसे हाथ में पकड़कर वस्तुएँ बना रहा था, फिर भी उसका हाथ जल नहीं रहा था। यह देखकर मुसाफिर ने पूछाः "भैया ! यह कैसा चमत्कार है कि तुम्हारा हाथ जल नहीं रहा !"

लुहारः "इस फानी (नश्वर) दुनिया में मैं एक स्त्री पर मोहित हो गया था और उसे पाने के लिए सालों तक कोशिश करता रहा परंतु उसमें मुझे असफलता ही मिलती रही। एक दिन ऐसा हुआ कि जिस स्त्री पर मैं मोहित था उसके पति पर कोई मुसीबत आ गयी।"

उसने अपनी पत्नी से कहाः "मुझे रुपयों की अत्यधिक आवश्यकता है। यदि रूपयों का बन्दोबस्त न हो पाया तो मुझे मौत को गले लगाना पड़ेगा। अतः तुम कुछ भी करके, तुम्हारी पवित्रता बेचकर भी मुझे रुपये ला दो।" ऐसी स्थिति में वह स्त्री जिसको मैं पहले से ही चाहता था, मेरे पास आयी। उसे देखकर मैं बहुत ही खुश हो गया। सालों के बाद मेरी इच्छा पूर्ण हुई। मैं उसे एकांत में ले गया। मैंने उससे आने का कारण पूछा तो उसने सारी हकीकत बतायी। उसने कहाः "मेरे पति को रूपयों की बहुत आवश्यकता है। अपनी इज्जत व शील को बेचकर भी मैं उन्हें रूपये देना चाहती हूँ। आप मेरी मदद कर सके तो आपकी बड़ी मेहरबानी।" तब मैंने कहाः "थोड़े रुपये तो क्या, यदि तुम हजार रुपये माँगोगी तो भी मैं देने को तैयार हूँ।"

मैं कामांध हो गया था, मकान के सारे खिड़की दरवाजे बंद किये। कहीं से थोड़ा भी दिखायी दे ऐसी जगह भी बंद कर दी, ताकि हमें कोई देख न ले। फिर मैं उसके पास गया।

उसने कहाः "रुको ! आपने सारे खिड़की दरवाजे, छेद व सुराख बंद किये है, जिससे हमें कोई देख न सके लेकिन मुझे विश्वास है कि कोई हमें अभी भी देख रहा है।"

मैंने पूछाः "अभी भी कौन देख रहा है।"

"ईश्वर ! ईश्वर हमारे प्रत्येक कार्य को देख रहे हैं। आप उनके आगे भी कपड़ा रख दो ताकि आपको पाप का प्रायश्चित न करना पड़े।"

उसके ये शब्द मेरे दिल के आर-पार उतर गये। मेरे पर मानो हजारों घड़े पानी ढुल गया। मुझे कुदरत का भय सताने लगा। मेरी समस्त वासना चूर-चूर हो गयी। मैंने भगवान से माफी माँगी, पाप का प्रायश्चित किया और अपने इस कुकृत्य के लिए बहुत ही पश्चाताप किया। मेरे पापी दिल को मैंने बहुत ही कोसा। परमेश्वर की अनुकंपा मुझ पर हुई। भूतकाल में किये हुए कुकर्मों की माफी मिली, इससे मेरा दिल निर्मल हो गया। जहाँ देखूँ वहाँ प्रत्येक वस्तु में खुदा का ही नूर दिखने लगा। मैंने सारे खिड़की-दरवाजे खोल दिये और रुपये लेकर उस स्त्री के साथ चल पड़ा। वह स्त्री मुझे अपने पति के पास ले गयी। मैंने रूपयों की थैली उसके पास रख दी और सारी हकीकत सुनायी। उस दिन से मुझे प्रत्येक वस्तु में खुदाई नूर दिखने लगा है। तबसे अग्नि, वायु व जल मेरे अधीन हो गये हैं।

सचमुच, भगवान शंकर ने कहा हैः

सिद्धो बिन्दौ महादेवि किं न सिद्धयति भूतले?

'हे पार्वती ! बिंदु अर्थात् वीर्यरक्षण सिद्ध होने के बाद इस पृथ्वी पर ऐसी कौन सी सिद्धि है कि जो सिद्ध न हो सके?'

वृद्धावस्था तथा अनेक छोटी-बड़ी बीमारियाँ ब्रह्मचर्य के पालन से दूर भागती हैं, सौ साल पहले मौत नहीं आती। अस्सी वर्ष की उम्र में भी आप चालीस साल के दिखते हो। शरीर का प्रत्येक हिस्सा स्वस्थ, सुदृढ़ व मजबूत दिखता है – इसमें बिल्कुल अतिशयोक्ति नहीं है। आप भीष्म पितामह की हकीकत पढ़ो। उनकी उम्र 105 साल की थी, फिर भी महाभारत के युद्ध में लड़ रहे थे। वीर अर्जुन और श्रीकृष्ण जैसी महान विभूतियाँ भी उनके साथ युद्ध करने में सकुचाती थीं। हजारों योद्धा उनके बाणों का निशाना बनकर युद्ध में मौत को गले लग गये थे।

आप जानते हो उनकी मृत्यु कैसे हुई? उन्होंने कहा था कि मैं केवल वीरों के साथ ही युद्ध करूँगा और क्षत्रिय धर्म का पालन करूँगा। जिनमें प्रबल शक्ति हो वे आकर सामना करें परंतु मैं स्त्री के साथ युद्ध नहीं करूँगा। परमेश्वर श्रीकृष्ण ने जानबूझकर उनके सामने शिखण्डी को खड़ा कर दिया। भीष्म पितामह ने उसे देखकर पीठ कर ली क्योंकि भीष्मजी शिखण्डी को इस जन्म में भी स्त्री ही मानते थे। अवसर मिलते ही अर्जुन ने बाणों की वर्षा कर दी, इससे पितामह भीष्म घायल होकर धरती पर गिर पड़े। आजकल ऐसे ब्रह्मचारी भाग्य से ही मिलते हैं।

वर्तमान परिस्थितियों में भारतवर्ष को ऐसे ब्रह्मचारियों की विशेष आवश्यकता है। यह है ब्रह्मचर्य की महिमा ! हमें ऐसी महान विभूतियों के जीवन में शिक्षा लेनी चाहिए।

हमारी शारीरिक स्थिति दया के योग्य है। कर्तव्य है कि हम शीघ्र सावधान होकर ब्रह्मचर्य के सिद्धान्तों को अपना लें और परमात्मा की भक्ति के द्वारा प्रतिष्ठामय दिव्य जीवन व्यतीत करें।

अनुक्रम

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ब्रह्मचर्य-पालन के नियम

(ब्रह्मलीन ब्रह्मनिष्ठ स्वामी श्री लीलाशाहजी महाराज के प्रवचन से)

ऋषियों का कथन है कि ब्रह्मचर्य ब्रह्म-परमात्मा के दर्शन का द्वार है, उसका पालन करना अत्यंत आवश्यक है। इसलिए यहाँ हम ब्रह्मचर्य-पालन के कुछ सरल नियमों एवं उपायों की चर्चा करेंगेः

1.      ब्रह्मचर्य तन से अधिक मन पर आधारित है। इसलिए मन को नियंत्रण में रखो और अपने सामने ऊँचे आदर्श रखो।

2.      आँख और कान मन के मुख्यमंत्री हैं। इसलिए गंदे चित्र व भद्दे दृश्य देखने तथा अभद्र बातें सुनने से सावधानी पूर्वक बचो।

3.      मन को सदैव कुछ-न-कुछ चाहिए। अवकाश में मन प्रायः मलिन हो जाता है। अतः शुभ कर्म करने में तत्पर रहो व भगवन्नाम-जप में लगे रहो।

4.      'जैसा खाये अन्न, वैसा बने मन।' - यह कहावत एकदम सत्य है। गरम मसाले, चटनियाँ, अधिक गरम भोजन तथा मांस, मछली, अंडे, चाय कॉफी, फास्टफूड आदि का सेवन बिल्कुल न करो।

5.      भोजन हल्का व चिकना स्निग्ध हो। रात का खाना सोने से कम-से-कम दो घंटे पहले खाओ।

6.      दूध भी एक प्रकार का भोजन है। भोजन और दूध के बीच में तीन घंटे का अंतर होना चाहिए।

7.      वेश का प्रभाव तन तथा मन दोनों पर पड़ता है। इसलिए सादे, साफ और सूती वस्त्र पहनो। खादी के वस्त्र पहनो तो और भी अच्छा है। सिंथेटिक वस्त्र मत पहनो। खादी, सूती, ऊनी वस्त्रों से जीवनीशक्ति की रक्षा होती है व सिंथेटिक आदि अन्य प्रकार के वस्त्रों से उनका ह्रास होता है।

8.      लँगोटी बाँधना अत्यंत लाभदायक है। सीधे, रीढ़ के सहारे तो कभी न सोओ, हमेशा करवट लेकर ही सोओ। यदि चारपाई पर सोते हो तो वह सख्त होनी चाहिए।

9.      प्रातः जल्दी उठो। प्रभात में कदापि न सोओ। वीर्यपात प्रायः रात के अंतिम प्रहर में होता है।

10.  पान मसाला, गुटखा, सिगरेट, शराब, चरस, अफीम, भाँग आदि सभी मादक (नशीली) चीजें धातु क्षीण करती हैं। इनसे दूर रहो।

11.  लसीली (चिपचिपी) चीजें जैसे – भिंडी, लसौड़े आदि खानी चाहिए। ग्रीष्म ऋतु में ब्राह्मी बूटी का सेवन लाभदायक है। भीगे हुए बेदाने और मिश्री के शरबत के साथ इसबगोल लेना हितकारी है।

12.  कटिस्नान करना चाहिए। ठंडे पानी से भरे पीपे में शरीर का बीच का भाग पेटसहित डालकर तौलिये से पेट को रगड़ना एक आजमायी हुई चिकित्सा है। इस प्रकार 15-20 मिनट बैठना चाहिए। आवश्यकतानुसार सप्ताह में एक-दो बार ऐसा करो।

13.  प्रतिदिन रात को सोने से ठंडा पानी पेट पर डालना बहुत लाभदायक है।

14.  बदहज्मी व कब्ज से अपने को बचाओ।

15.  सेंट, लवेंडर, परफ्यूम आदि से दूर रहो। इन्द्रियों को भड़काने वाली किताबें न पढ़ो, न ही ऐसी फिल्में और नाटक देखो।

16.  विवाहित हो तो भी अलग बिछौने पर सोओ।

17.  हर रोज प्रातः और सायं व्यायाम, आसन और प्राणायाम करने का नियम रखो। अनुक्रम

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मनुष्य-जाति का कट्टर दुश्मनः तम्बाकू

परम पिता परमात्मा की चेतन सृष्टि का सर्वोत्तम प्राणी मनुष्य है क्योंकि उसके पास सत्य-असत्य, हित-अहित और लाभ-हानि को जानने-समझने के लिए विशेषकर बुद्धिरूपी अलौकिक साधन है। मनुष्य बुद्धि के साधन की कसौटी से इस लोक व परलोक के अनुकूल पूँजी जुटा सकता है। बुद्धि की शुद्धि का आधार आहार-शुद्धि है। 'जैसा आहार वैसी डकार।' सत्वगुणी कल्याण-मार्ग का पथिक होता है। रजोगुणी संसार की विविध वासनाओं में आसक्त रहता है परंतु तमोगुणी अधःपतन के मार्ग पर जाता है।

तम्बाकू अर्थात् तमोगुण की खान

आजकल मनुष्य तम्बाकू के पीछे पागल बनकर सर्वनाश के मार्ग पर दौड़ रहा है। मनुष्य जाति को मानो तम्बाकू का संक्रामक रोग लगा है। बीड़ी सिगरेट और चिलम में भरकर तम्बाकू की आग मनुष्य जी भर के फूँक रहे हैं, भगवद् भजन करने के साधनरूप मुख व जीभ को त्रासजनक रूप से दुर्गन्ध से भरे रखते हैं। गला छाती, पेट, जठरा व आँतों को सड़ा देते हैं। खून को कातिल जहर से भर देते हैं। दाँतों पर घिस के दाँत सड़ा देते हैं। चबाकर जीभ, मसूड़े, तालू व कंठ के अमीरस को विषमय कर डालते हैं। आत्मदेव के देहमन्दिर को नष्ट-भ्रष्ट करके बरबादी के पथ पर दौड़ रहे हैं।

अरे मेरे बुद्धिशाली भाइयो ! फूँकने, खाने, चबाने, दाँतों में घिसने, सूँघने आदि के व्यसनों द्वारा इस देश के करोड़ों नहीं अरबों रूपयों का धुआँ करने का पाप क्यों कर रहे हो? पसीने की कमाई को इस प्रकार गँवाकर सर्वनाश को क्यों आमंत्रित कर रहे हो?

शरीर, मन, बुद्धि और प्राण को पवित्र तथा पुष्ट करने वाले शुद्ध, दूध, दही, छाछ, मक्खन और घी तो आज दुर्लभ हो गये हैं। इनकी आपूर्ति में तम्बाकू का कातिल जहर शरीर में डालकर पवित्र मानव देह को क्यों अपवित्र बना रहे हो?

तम्बाकू में निकोटीन नाम का अति कातिल घातक जहर होता है। इससे तम्बाकू के व्यसनी कैंसर व क्षय जैसे जानलेवा रोग के भोग बनकर सदा के लिए 'कैन्सल' हो जाते हैं। आजकल ये रोग अधिक फैल रहे हैं। तम्बाकू के व्यसनी अत्यंत तमोगुणी, उग्र स्वभाव के हो जाने से क्रोधी, चिड़चिड़े व झगडालू बन जाते हैं। दूसरों की भावनाओं का उन्हें लेशमात्र भी ध्यान नहीं रहता।

अरे, मेरे पावन व गरीब देश के वासियो ! महान पूर्वजों द्वारा दिये गये दिव्य, भव्य संस्कारों के वारिसदारो ! चेतो ! चेतो ! तम्बाकू भयानक काला नाग है। तम्बाकू के कातिल नागपाश से बचो। अपने शरीर, मन, बुद्धि, धन, मान, प्रतिष्ठा को बचाओ ! सर्वनाशक तम्बाकू से बचो, अवश्य रखो।अनुक्रम

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धूम्रपान है दुर्व्यसन.............

धूम्रपान है दुर्व्यसन, मुँह में लगती आग।

स्वास्थ्य, सभ्यता, धन घटे, कर दो इसका त्याग।।

बीड़ी-सिगरेट पीने से, दूषित होती वायु।

छाती छननी सी बने, घट जाती है आयु।।

रात-दिन मन पर लदी, तम्बाकू की याद।

अन्न-पान से भी अधिक, करे धन-पैसा बरबाद।।

कभी फफोले भी पड़ें. चिक1 जाता कभी अंग।

छेद पड़ें पोशाक में, आग राख के संग।।

जलती बीड़ी फेंक दीं, लगी कहीं पर आग।

लाखों की संपदा जली, फूटे जम के भाग।।

इधर नाश होने लगा, उधर घटा उत्पन्न।

खेत हजारों फँस गये, मिला न उसमें अन्न।।

तम्बाकू के खेत में, यदि पैदा हो अन्न।

पेट हजारों के भरे, मन भी रहे प्रसन्न।।

करे विधायक कार्य, यदि बीड़ी के मजदूर।

तो झोंपड़ियों से महल, बन जायें भरपूर।।

जीते जी क्यों दे रहे, अपने मुँह में आग।

करो स्व-पर हित के लिए, धूम्रपान का त्याग।।

1.      अचानक होने वाला दर्द

अनुक्रम

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बहुत खतरनाक है पान मसाला

धूम्रपान से भी खतरनाक है पान मसाला या गुटखा। सुपारियों में प्रति सुपारी 10 से 12 घुन (एक प्रकार के कीड़े) लग जाते हैं, तभी वे पान मसालों या गुटखा बनाने में हेतु काम में ली जाती हैं।

इन घुनयुक्त सुपारियों को पीसने से घुन भी इनमें पिस जाते हैं। छिपकलियाँ सुखाकर व पीसकर उनका पाउडर व सुअर के मांस का पाउडर भी उसमें मिलाया जाता है। धातु क्षीण करने वाली सुपारी से युक्त इस कैंसरकारक मिश्रण का नाम रख दिया - 'पान मसाला' या 'गुटखा'। एक बार आदत पड़ जाने पर यह छूटता नहीं। घुन का पाउडर ज्ञानतंतुओं में एक प्रकार की उत्तेजना पैदा करता है। पान मसाला या गुटखा खाने से व्यक्ति न चाहते हुए भी बीमारियों का शिकार हो जाता है और तबाही के कगार पर पहुँच जाता है।

पान मसाले खाने वाले लोग धातु-दौर्बल्य के शिकार हो जाते हैं, जिससे उन्हें बल तेजहीन संतानें होतीं हैं। वे लोग अपने स्वास्थ्य तथा आनेवाली संतान की कितनी हानि करते हैं यह उन बेचारों को पता ही नहीं है।

पान मसाला या गुटखा खाने की आदत को छोड़ने के लिए 100 ग्राम सौंफ, 10 ग्राम अजवाइन और थोड़ा सेंधा नमक लेकर उसमें दो नींबुओं का रस निचोड़ के तवे पर सेंक लें।यह मिश्रण जेब में रखें। जब भी उस घातक पान मसाले की याद सताये, जेब से थोड़ा सा मिश्रण निकालकर मुँह में डालें। इससे सुअर का माँस, छिपकलियों का पाउडर व सुपारियों के साथ पिसे घुन मिश्रित पान मसाला मुँह में डालकर अपना सत्यानाश करने की आदत से आप बच सकते हैं। इससे आपका पाचनतंत्र भी ठीक रहेगा और रक्त की शुद्धि भी होगी। अनुक्रम

 

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चाय-कॉफी ने फैलाया सर्वनाश.....

स्वास्थ्य पर हो रहा है भयानक कुठाराघात !

लोगों की मान्यता है कि चाय-कॉफी पीने से शरीर व मस्तिष्क में स्फूर्ति आती है, ऐसे बहाने बनाकर मनुष्य इसके व्यसन में अधिकाधिक गहरे उतरते जा रहे हैं। शरीर, मन, मस्तिष्क तथा पसीने की कमाई गँवा देते हैं और भयंकर रोगों में फँसते जाते हैं, भूख मर जाती है, पाचनशक्ति मंद पड़ जाती है, मस्तिष्क सूखने लगता है और इससे नींद भी हराम हो जाती है। ऐसे तुरंत मिलने वाली कृत्रिम स्फूर्ति को सच्ची स्फूर्ति मानना यह बड़ी भारी भूल है।

चाय-कॉफी के घातक दुष्परिणाम

चाय-कॉफी में पाये जाने वाले केमिकल्स व उनसे होने वाली हानियाँ-

केफिनः ऊर्जा व कार्यक्षमता कम होती है। कैल्शियम, पोटेशियम, सोडियम, मैग्नेशियम आदि खनिजों तथा विटामिन 'बी' का ह्रास होता है। कोलेस्टरोल बढ़ता है। परिणामतः हार्टअटैक हो सकता है। पाचनतंत्र कमजोर होने से कब्ज और बवासीर होती है। रक्तचाप व अम्लता बढ़ती है। नींद कम आती है। सिरदर्द, चिड़चिड़ापन, मानसिक तनाव उत्पन्न होते हैं। गुर्दे और यकृत खराब होते हैं। शुक्राणुओं की संख्या घटने लगती है। वीर्य पतला होकर प्रजननशक्ति कम होती है। यह गर्भस्थ शिशु के आराम में विक्षेप करता है, जो जन्म के बाद उसके विकृत व्यवहार का कारण होता है। अधिक चाय-कॉफी पीनेवाली महिलाओं की गर्भधारण की क्षमता कम होती है। गर्भवती स्त्री अधिक चाय पीती है तो नवजात शिशु को जन्म के बाद नींद नहीं आती। वह उत्तेजित और अशांत रहता है, कभी-कभी ऐसे शिशु जन्म के बाद ठीक तरह से श्वास नहीं ले सकते और मर जाते हैं। संधिवात, जोड़ों का दर्द, गठिया व त्वचाविकार उत्पन्न होते हैं।

टेनिनः अजीर्ण व कब्ज करता है। यकृत को हानि पहुँचाता है। इससे आलस्य व प्रमाद बढ़ता है, चमड़ी रूक्ष बनती है।

थीन से खुश्की चढ़ती है, सिर में भारीपन महसूस होता है।

सायनोजनः अनिद्रा, लकवा जैसी भयंकर बीमारियाँ पैदा करता है।

एरोमिक ओईलः आँतों पर हानिकारक प्रभाव डालता है।

अधिक चाय पीने वाले मधुमेह, चक्कर आना, गले के रोग, रक्त की अशुद्धि, दाँतों के रोग और मसूड़ों की कमजोरी से ग्रस्त हो जाते हैं। इसलिए चाय-कॉफी का सेवन कभी न करें। अनुक्रम

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चाय-कॉफी के स्थान पर.....

जब भी चाय-कॉफी पीने की इच्छा हो तब उसके स्थान पर निम्नलिखित प्रयोग करके उसका सेवन करने से अत्यधिक लाभ होगा एवं सर्दी, जुकाम, खाँसी, श्वास, कफजनित बुखार, निमोनिया आदि रोग कभी नहीं होंगे।

बनपशा, छाया में सुखाये हुए तुलसी के पत्ते, दालचीनी, छोटी इलायची, सौंफ, ब्राह्मी के सूखे पत्ते, छिली हुई यष्ठिमधु – प्रत्येक वस्तु एक-एक तोला (लगभग 12-12 ग्राम)।

इन सबको अलग-अलग पीसकर मिश्रण बनाकर रखें। जब चाय पीने की इच्छा हो तब आधा तोला ( लगभग 6 ग्राम) चूर्ण को एक रतल (450 ग्राम) पानी में उबालें। आधा पानी शेष रहे तब छानकर उसमें दूध, मिश्री मिलाकर पियें। इससे मस्तिष्क में शक्ति, शरीर में स्फूर्ति और भूख बढ़ती है।

पाचनशक्ति व बुद्धि वर्धक, हृदय के लिए हितकारी

ओजस्वी चाय

14 बहूमूल्य औषधियों के संयोग से बनी यह ओजस्वी चाय क्षुधावर्धक, मेध्य व हृदय के लिए बलदायक है। यह मनोबल को बढ़ाती है। मस्तिष्क को तनावमुक्त करती है, जिससे नींद अच्छी आती है। यह यकृत के कार्य को सुधारकर रक्त की शुद्धि करती है।

इसमें निहित घटक द्रव्य व उनके लाभः

सोंठः कफनाशक, आमपाचक, जठराग्निवर्धक। ब्राह्मीः स्मृति, मेधाशक्ति व मनोबल वर्धक। अर्जुनः हृदयबल वर्धक, रक्त शुद्धिकर, अस्थि-पुष्टिकर। दालचीनीः जंतुनाशक, हृदय व यकृत उत्तेजक, ओजवर्धक। तेजपत्रः सुगंध व स्वाद दायक, दीपन, पाचक। शंखपुष्पीः मेध्य, तनावमुक्त करने वाली, निद्राजनक। काली मिर्चः जठराग्निवर्धक, कफघ्न, कृमिनाशक। रक्तचंदनः दाहशामक, नेत्रों के लिए हितकर। नागरमोथः दाहशामक, पित्तशामक, कृमिघ्न, पाचक। इलायचीः त्रिदोषशामक, मुखदुर्गधिहर, हृदय के लिए हितकर। कुलंजनः पाचक, कंठशुद्धिकर, बहूमूत्र में उपयुक्त। जायफलः स्वर व वर्ण सुधारनेवाला, रुचिकर, वृष्य। मुलैठी(यष्टिमधु)- कंठ शुद्धिकर, कफघ्न, स्वरसुधारक। सौंफः उत्तम पाचक, रुचिकर, नेत्रज्योतिवर्धक।

एक-आधा घंटा पहले अथवा रात को पानी में भिगोकर रखी हुई ओजस्वी चाय सुबह उबालें तो उसका और अधिक गुण आयेगा।

(यह ओजस्वी चाय सभी संत श्री आसारामजी आश्रमों व श्री योग वेदान्त समिति के सेवा केन्द्रों पर उपलब्ध है।)

इतना जानने के बाद तो आप अपने स्वास्थ्य व जीवन के शत्रु न बनो भाई ! अनुक्रम

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प्रातःस्मरणीय स्वामी श्री लीलाशाहजी महाराज के

वेदांत-वचनामृत

"आनंद, आनंद और आनंद.... सब आनंद चाहते हैं परंतु भाइयो ! जब तक टोली(दोषों) से बचोगे नहीं तब तक स्वतन्त्र आनंद कि जिसमें दीनता नहीं है, जिसे ब्रह्मानंद, आत्मानंद, अखंडानंद व निजानंद कहा जाता है, उस स्वयं प्रकाशित, ज्योतिस्वरूप, वास्तविक आनंदघन, आत्मस्वरूप, परब्रह्म में स्थिति नहीं हो सकेगी।

मलिन मन जब तक न जीती हुई इन्द्रियों, पाँच विषयों (अपवित्र शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गंध), काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार आदि विकारों तथा ईर्ष्या (जिसे वेद में हृदय-अग्नि कहा गया है), कुसंग, बुरे संकल्प, दुष्कर्म आदि से मुक्त नहीं होगा, तब तक ब्रह्मानंदरस का पान नहीं कर सकेगा। अविद्या, अहंभाव, राग, द्वेष, आसक्ति आदि को टोली समझो। इस टोली से बचो। इस टोली से बचने के बाद जो आनंद प्राप्त होता है, वह आनंद ऐसा है कि

यं लब्धवा चापरं लाभं मन्यते नाचिकं ततः।

अर्थात् वह आनंद प्राप्त होने के बाद अन्य किसी लाभ की कामना नहीं रहती।

(गीताः 6.22)

एक सज्जन ने संदेह व्यक्त कियाः "महाराज ! आपने कथा में कहा था कि अखंडानंद प्रभु परमात्मा हमारे प्राण हैं। वे स्वयं शुद्ध, बुद्ध, आनंद स्वरूप हैं तो फिर निजस्वरू को पाने के लिए काम-क्रोधादि की टोली से बचने की क्या आवश्यकता है?"

स्वामीजीः "आपकी बात यथार्थ है परंतु जब तक हमारा मन स्थिर नहीं होता, इच्छाओं की निवृत्ति, वैराग्य और संतोष नहीं होता, तब तक स्वरूपानंद में स्थिर नहीं हो सकते।

श्री हरदयाल महाराज भी कहते हैं कि योगी हृदय-निवास, भोगी हृदय-उदास।"

जिज्ञासुः "महाराज ! क्या भोगियों के हृदय में भगवान नहीं रहते?"

स्वामीजीः "प्यारे ! आनंदस्वरूप परब्रह्म भोगियों के हृदय में भी रहते हैं परंतु जब तक उनका मन विषय भोगों को पीछे दौड़ता है, तब तक उन्हें नित्यानंद का लाभ नहीं मिल सकता।

'श्रीमद् भगवद् गीता' के छठे अध्याय के 36वे श्लोक में भगवान श्रीकृष्णचंद्रजी ने कहा हैः

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति में मतिः।

वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः।।

'जिसमें मन को वश में नहीं किया है, वह ज्ञानयोग प्राप्त नहीं कर सकता। जिसने मन को वश में किया है तथा जो प्रयत्नशील है वह ज्ञानयोग प्राप्त कर सकता है, ऐसा मेरा मत है।'

भगवान श्रीकृष्ण चंद्र के इन वचनों से सिद्ध होता है कि मन को वश किये बिना परमात्मा की प्राप्तिरूप योग दुर्लभ है। फिर भी कोई ऐसा चाहे कि मन अपनी इच्छानुसार निरंकुश बनकर विषय-भोग में स्वच्छंदता से घूमा करे और भगवदानंद में पूर्णरूप से स्थित हो जाये तो यह उसकी गलती है। दुःखों की निवृत्ति और आनंदमय परमात्मा की प्राप्ति चाहनेवालों को मन को वश में रखना सीखना ही पड़ेगा।

अब कहो कि मन को वश में रखने का उपाय क्या है?

श्रीमद् भगवद् गीता में आता हैः

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।

अर्थात् हे कुंतीनंदन ! अभ्यास और वैराग्य से मन का निग्रह हो सकता है।

'योगदर्शन' में महर्षि पतंजलि लिखते हैं-

अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः।

अर्थात् अभ्यास और वैराग्य से वृत्तियों का निरोध हो सकता है।

जिज्ञासुः "कृपा करके वैराग्य का स्वरूप भी समझायें।"

स्वामीजीः "संक्षेप में समझाता हूँ – जो सांसारिक पदार्थ अविचार से सुन्दर व आनंदमय भासते हैं, उनके विषय में विचार करने से समझ में आता है कि संसार के किसी पदार्थ में सुन्दरता या आनंद नहीं है। ऐसा दृढ़ निश्चय होने के बाद साधक इन सांसारिक विषयों में फँसता नहीं है।"

जिज्ञासुः "महाराज ! तो क्या वैराग्य, संतोष व विषय-इच्छाओं की निवृत्ति से सुख प्राप्त होता है?"

स्वामी जीः "हाँ, देखो निद्रावस्था में इच्छा की निवृत्ति होने से जो आनंद प्राप्त होता है, वह कहाँ से आता है? क्या बाहर से आता है? नहीं, वह आनंद बाहर से नहीं आता। वह अपने-आप मिलता है। यह हर किसी का अनुभव है। सुषुप्ति अवस्था में आनंद कहाँ से प्रकट हुआ? तब मन और इन्द्रियाँ शांत होती हैं, कोई इच्छा नहीं होती।

किसी महापुरुष ने वास्तव में सच ही कहा है कि वैराग्य से आनंद प्राप्त होता है।

अतः वैराग्य धारण करो क्योंकि हम सब आनंद चाहते हैं। प्राणिमात्र को आनंद की भूख है। इसकी प्राप्ति के लिए मनुष्य बड़े-बड़े कष्टों का सामना करता है। दुर्गम व भयावह स्थान में प्रवेश करते वक्त क्यों हिचकिचाता नहीं? उत्साह भंग क्यों नहीं होता? क्यों? केवल आनंद पाने के लिए ही न?

लौकिक और पारलौकिक किसी भी कार्य में यदि एकचित्त से संलग्न रहा जाय तो आनंद की प्राप्ति होगी, सुख मिलेगा परंतु काम में सुख कब मिलता है, इस विषय में अधिकतर लोगों ने अब तक सोचा ही नहीं है।

हमें मिठाई की इच्छा हुई। मिठाई मिली, मिठाई खायी तो हमें सुख का अनुभव हुआ। इस सुख का कारण है मिठाई खाते समय तुम्हारी मिठाई खाने की इच्छा निवृत्त हुई। कुछ समय के लिए भी मिठाई खाने की इच्छा न रही, इससे संतोष उत्पन्न हुआ। इस प्रकार इच्छा-निवृत्ति ही वैराग्य, संतोष व आनंद की प्राप्ति का मूल कारण है।

तुम्हें कोई विषय प्रिय लगता है तो उसको प्राप्त करना चाहते हो। उसे पाने के लिए तुम दुःखी होते हो। उसे पाने के लिए पूरे जी-जान से प्रयत्न करते हो। कुछ समय के लिए तुम्हें वह मिल जाता है तो तुम उसका उपभोग करते हो, इससे तुम्हें वह मिल जाता है तो तुम उसका उपभोग करते हो, इससे तुम्हें सुख व आनंद मिलता है। उपभोग के बाद कुछ समय के लिए मन को संतोष होता है, इच्छा-निवृत्त हो जाती है। इससे भोग से वैराग्य उत्पन्न होता है। अनुक्रम

सिद्धान्त यह फलित होता है कि विषय-भोग में कुछ क्षण के लिए आनंद मिलता है, तब हृदय से संतोष और वैराग्य उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार विचार करने से समझ में आता है कि सुख में व आनंद का वास्तविक साधन वैराग्य एवं संतोष ही है।

वैराग्य के बिना रजोगुणी वृत्ति दबती नहीं है और जब तक रजोगुणी वृत्ति रहती है, तब तक आनंद की स्थिति कैसे टिक सकती है?

आत्मज्ञान व आत्मानंद के लिए सत्त्वगुणी वृत्ति चाहिए।

जो संसार के विषयों से विरक्त नहीं है उसे संतोष नहीं है और इससे वह दुःखी है। जिसका ममत्व दूर नहीं हुआ उसने वास्तविक स्वरूप, ब्रह्मानंद नहीं पाया है परंतु जिसका मन संसार से बिल्कुल निवृत्त हो गया है, जिस महापुरुष के हृदय में सच्चा संतोष और वैराग्य उत्पन्न हुआ है वही ममत्व हटाकर परमात्म-पद को पाता है।

ऐसे ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष सुखस्वरूप, आनंदस्वरूप और साक्षात् सच्चिदानंदघनस्वरूप परब्रह्मही हैं।

यदि एक घण्टे के लिए भी हमारे में सच्चा वैराग्य उत्पन्न हो जाय तो हम अपने भीतर ही उस आनंदस्वरूप को अवश्य पा सकेंगे। उसे परमात्मा कहते हैं।

वह मनुष्य धन्य है कि जो जीवन्मुक्त है, जिसके हृदय में संतोष और वैराग्य हैं क्योंकि वैराग्य ही सुख का मूल व आनंद का जनक है। किसी महापुरुष ने लिखा हैः

वैराग्य बिना राग न छूटे, विषय अति बलवान।

अतः सदैव सत्संग करो-करवाओ तथा शास्त्रों का अध्ययन करो, करवाओ – ये साधन सहायक हैं परंतु पूर्ण आनंद में स्थिति तो तभी होती है जब ऊपर बतायी गयी टोली से सावधान रहें। अनुक्रम

हरि ॐ शांति.... शांति....... शांति........

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मन को सीख

मन बहुत ही चंचल है। मन को वश करना अत्यंत कठिन है परंतु अभ्यास से यह भी सरल हो जाता है। हमें प्रतिदिन अपने कर्मों को याद करना चाहिए तथा अशुभ या पाप कर्मों के लिए पश्चाताप करना चाहिए। मन को समझाना चाहिए कि 'हे मन ! तूने आज तक कितने ही अपराध किये, इन्द्रियों को विकारी बनाया है, बुरे मार्ग पर ले गया, अधःपतन और बरबादी की। आश्चर्य तो यह है कि जीवन के अनमोल वर्ष बीत जाने पर भी अभी तक बुरे काम करने से पीछे नहीं हटता। परमात्मा का डर रख। परमात्मा पर विश्वास रख। परमात्मा हमारे प्रत्येक कार्य को देख रहे हैं।

हे मन ! अगर नहीं समझेगा तो तुझे स्वर्ग में तो क्या, नरक में भी स्थान मिलना मुश्किल हो जायेगा। तेरा तोते जैसा ज्ञान दुःखों के सामने जरा भी टिक नहीं सकता। हे मलिन मन ! तूने मेरी अधोगति की है। तूने मुझे विषयों के क्षणिक सुख में घसीटकर वास्तविक सुख से दूर रख के मेरे बल, बुद्धि और तंदरुस्ती का नाश किया है। तूने मुझसे जो अपराध करवाये हैं, वे अगर लोगों के सामने खोल दिये जायें तो लोग मुझे तिरस्कार व धिक्कार से फटकारेंगे।'

जगत में ऐसे भी लोग हैं, जिनका अपना पतन तो हुआ है, वे दूसरों का भी पतन कराते हैं। इसलिए ऐसे दुष्ट व हरामखोरों का पर्दाफाश करो, दंड दो और समाज का पतन होने से रोको।

मुझे कहना चाहिए कि बुरे कार्य का फल बुरा ही होता है।

'हे मलिन मन ! मैंने तेरे संग से बुरे कर्म व बुरे संकल्प किये तो आज मुझे बुरा कहा जाता है। जिन्हें मेरे दुष्कर्मों का पता है, उनके समक्ष मैं मस्तक कैसे ऊँचा कर सकूँगा? अभी भी समझता नहीं है और मुझे बुरे काम के लिए घसीट रहा है !

हे दयालु परमात्मा ! मुझे धीरज व सदबुद्धि दो। सन्मार्ग बताओ। मेरे मलिन मन ने मेरा नाश किया है। मेरा मनुष्य-जन्म व्यर्थ गया है। मलिन मन शैतान है।'

इस प्रकार मन को सदा समझाते रहोगे तो मन की डोर टूटेगी और मन काबू में आयेगा। सत्य, न्याय और ईमानदारी के मार्ग पर चलोगे तो उद्धार कठिन नहीं है।

मन पर कभी विश्वास न रखो, मन को स्वतंत्रता दोगे तो तुम्हारी नौका खतरे में आ जायेगी। जैसे हाथी को नियंत्रण में रखने के लिए अंकुश की आवश्यकता रहती है, वैसे ही मन को वश में रखने के लिए सदा सत्संग, सत्चिंतन, सत्पठन करो, जीवन में उतारो। समय-सारणी बना कर मन को बाँधो, एक मिनट भी मन को खाली न होने दो। जीवन के प्रत्येक पल को नियमितता की जंजीर से बाँध दो। जो समय बरबाद हो गया हो, उसके लिए हृदयपूर्वक पश्चाताप करो। परम कृपालु परमात्मा बहुत ही दयालु हैं। उनकी शरण में जाओगे तो वे तुम्हारी रक्षा करेंगे।

हम मानव तो हैं परंतु मानवता खो बैठे हैं, निरी पशुता देखने में आती है। सच्चा मानव बनने के लिए जीवन को संयमी बनाओ।

प्रभु सबको सदबुद्धि दें और सच्चा मानव बनायें। अनुक्रम

हरि ॐ शांति.......

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यौवन सुरक्षा से राष्ट्र सुरक्षा-विश्व सुरक्षा

प्रायः सभी धर्मों ने ब्रह्मचर्य का महत्त्व समझा है और उसका पालन करने वालों की प्रशंसा की है परंतु धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भोगवादी समाज का निर्माण होने से विश्व के सभी देशों में धर्म तथा नैतिक मूल्यों का ह्रास हुआ है।

पिछले 100 वर्षों में पाश्चात्य देशों ने विज्ञान की उन्नति से प्रभावित होकर चारित्रिक और नैतिक मूल्यों का त्याग कर दिया है। उसका फल उनको भोगना पड़ रहा है। संयम का अनादर करके मुक्त साहचर्य (Free Sex) की हिमायत करने वाले पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक सिग्मंड फ्रायड के अंधानुकरण से यूरोप और अमेरिका में मानसिक रोगियों की संख्या में भारी वृद्धि हुई है। इसका प्रमाण देते हुए अमेरिका के विद्वान लेखक मार्टिन ग्रोस अपनी पुस्तक The Psychological Society में लिखते हैं-

न्यूयार्क शहर में दस वर्ष तक किये गये एक अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि करीब 80 % व्यस्कों में मानसिक बीमारी का कोई-न-कोई लक्षण दिखायी देता है और 25 %  लोग तो वास्तव में मानसिक बीमारी से ग्रस्त हैं। (संदर्भः Store, Leo, Langer, Thomas S. Et at Mental Health  in Metropolis, The mid town Manhuttan study)

सन् 1977 में अमेरिका के 'प्रेसीडेन्टस् कमीशन ऑन मेन्टल हेल्थ' ने सिद्ध किया है कि हमारे मन की स्वस्थता हम जितना मानते हैं उससे ज्यादा खराब है। 25 %  जितने अमेरिकन भारी भावनात्मक तनाव से पीड़ित हैं। करीब तीन करोड़ बीस लाख अमेरिकियों को मानसिक चिकित्सा की आवश्यकता है।

(संदर्भः Lyons Richard D.)

'नेशनल इन्सटीच्यूट ऑफ मेन्टल हेल्थ' के मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अमेरिका के अस्पतालों में पाँच लाख रोगी सीजोफ्रेनिया नामक मानसिक रोग से पीड़ित हैं और अन्य सत्रह लाख पचास हजार मानसिक पागलपन से ग्रस्त लोग अस्पतालों में प्रवेश नहीं पा सके हैं एवं करीब छः करोड़ अमेरिकियों का असामान्य व्यवहार कुछ अंश में सीजोफ्रेनिया से संबधित है।

(संदर्भः New York Mcgraw Hill, 1962)

वीर्यनाश का दुष्परिणाम कितना भयंकर है? क्या आप अपने जीवन और देश की ऐसी दशा चाहते हो? कभी नहीं.... कभी नहीं.....

16 सितम्बर 1977 के 'दी न्ययार्क टाइम्स' में एक समाचार छपा था, "यू. एस. पेनल कहती है कि 2 करोड़ या उससे अधिक लोगों को मानसिक चिकित्सा की जरूरत है।"

हालाँकि बाद में कार्ल गुस्तेव जुंग, एडलर जैसे मूर्धन्य वैज्ञानिकों ने फ्रायड की पोल खोल दी और मार्टिन ग्रोस जैसे कई विद्वानों ने फ्रायड के प्रभाव से समाज को मुक्त करने का प्रयास किया, फिर भी अमेरिका आज तक इस समस्या से मुक्त नहीं हो सका, अपने चारित्रिक मूल्यों का पुनरुत्थान नहीं कर सका। अनुक्रम

जैसे किसी नदी पर बनाये गये विशाल बाँध को बिना उसकी उपयोगिता को समझे ही कोई तोड़ दे, फिर उससे होने वाले महाविनाश को देखकर वह उसे रोकने के लिए कितना भी प्रयास करे पर वह बाँध फिर से तुरंत बाँध नहीं सकता, वैसे ही धर्म ने जो नैतिक मूल्यों का बाँध सदियों के परिश्रम से बनाया था, उसे धर्मनिरपेक्षता के नाम पर तोड़ देने से पाश्चात्य देशों का जो महाविनाश हुआ उसे रोकने के सब प्रयत्न विफल हुए हैं। नदी का बाँध तो दूसरे वर्ष फिर से बना सकते हैं पर मनुष्य के चित्त पर जो धर्म और नीति के संस्कारों का बाँध था, उसका पुनर्निमाण पाश्चात्य जगत बरसों के बाद भी नहीं कर पाया और अभी तक उस महाविनाश को रोक नहीं पाया।

भोगवादी पाश्चात्य समाज में एक और समस्या का प्रादुर्भाव हुआ है। उसे 'कुँआरी माता' की समस्या कह सकते हैं। 'युनिसेफ रिसर्च सेन्टर, फ्लोरेन्स' के द्वारा इन्नोसिटी रिपोर्ट कार्ड नं. 3 प्रकाशित किया गया। उसके अनुसार विश्व की दो तिहाई सामग्री का उत्पादन करने वाले 28 देशों में हर साल बारह लाख पचास हजार किशोरियाँ (13 से 19 वर्ष की उम्र की) गर्भवती हो जाती हैं। उनमें से पाँच लाख गर्भपात कराती हैं और सात लाख पचास हजार किशोरियाँ कुँआरी माता बन जाती हैं। 12 में से 10 विकसित राष्ट्रों के 66 % से अधिक किशोर-किशोरियाँ यौन जीवन में प्रवेश कर लेते हैं। इन कुँआरी माताओं के कारण वहाँ गरीबी की समस्या पनप रही है। ऐसी किशोरियाँ प्रायः पढ़ाई छोड़ देती हैं। शिक्षा के अभाव से उनको नौकरी नहीं मिलती। फिर उनको मानसिक अवसाद से पीड़ित होकर पराधीन जीवन बिताना पड़ता है। उनके बच्चे भी पिता के न होने से सामाजिक अवहेलना का भोग बनते हैं, शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाते और फिर अपराधी या शराब के अथवा दवाईयों के नशाखोर बन, वे समाज पर बोझ बन जाते हैं। अतः इन 28 में से 15 देशों ने इस समस्या से मुक्त होने के लिए कुछ प्रयास किये हैं। अमेरिका में हर साल प्रत्येक 1000 किशोरियों में से 52.1 किशोरियाँ माँ बन जाती हैं। यानी किसी हाईस्कूल में 1000 किशोरियाँ पढ़ती हैं तो वार्षिक परीक्षा पूरी होने पर उनमें से 52 किशोरियाँ अपने बच्चों के साथ अगली कक्षा में जाती हैं या पढ़ाई छोड़ देती हैं। अमेरिका में हर साल कुल 760185 किशोरियाँ कुँआरी माता बन जाती हैं।

छोटी उम्र में ही जो किशोर-किशोरियाँ यौन जीवन में प्रवेश पा लेते हैं, वे मानसिक अवसाद और भावनात्मक चिंता के शिकार बन जाते हैं। अन्य विद्यार्थियों की अपेक्षा उनमें आत्महत्या का प्रमाण बढ़ जाता है। अमेरिका में हर वर्ष करीब तीस लाख किशोर-किशोरियाँ यौन रोग से संक्रमित होते हैं, उनमें से 25 %  तो 22 वर्ष से छोटी उम्र के होते हैं।

धर्मशास्त्रों में जो निषिद्ध कर्म हैं, जैसे परस्त्रीगमन, व्यभिचार, अविवाहित जीवन में काम भोग – उन निषेधों का उल्लंघन करने पर प्रकृति ने मनुष्य को ऐसे रोग और ऐसी समस्याएँ दे दीं कि उन धर्मनिरपेक्षतावादी नास्तिकों को भी अब उन धार्मिक निषेधों का प्रचार करना पड़ता है। एड्स का प्रभाव रोकने के लिए अब धर्मनिरपेक्ष सरकारों को भी एकपत्नीव्रत या जीवनसाथी से वफादारी आदि का पाठ पढ़ाना पड़ता है। पर धार्मिक आस्था से लोग उन नियमों का जितना पालन करते थे, उतना पालन ये राजनेता नहीं करा सकते और उन बातों को मानने वालों को भी सिर्फ शारीरिक स्वास्थ्य का लाभ मिल सकता है, जबकि धर्म के द्वारा अनुशासित श्रद्धालु को पारलौकिक, आध्यात्मिक लाभ भी मिलते हैं। अनुक्रम

इसका ज्वलंत उदाहरण इस समस्या को सुलझाने के अमेरिकन सरकार के प्रयास से मिलता है। इस समस्या के निवारण के लिए उन्होंने कई प्रयास किये। विद्यार्थियों को यौनशिक्षा देकर, गर्भनिरोधक साधन देकर और कुँआरी माताओं को दी जानेवाली सुविधाएँ बंद करके भी इससे निजात नहीं पा सके। अब पिछले कुछ समय से वे अमेरिकन जनता का और राजनेताओं का यह मानना है कि अविवाहित किशोरों को कामत्याग का, संयम का संदेश ही यौनशिक्षा के रूप में देना चाहिए और इस प्रचार में अमेरिका की सरकार ने 40 करोड़ डॉलर से भी अधिक धन खर्च किया है।

जो बात भारतीय ऋषि-मुनियों को हजारों वर्ष पहले ज्ञात थी कि ब्रह्मचर्याश्रम में विद्यार्थियों को ब्रह्मचर्य की शिक्षा देनी चाहिए वही बात अब अमेरिका के विद्वानों को समझ में आयी है लेकिन कुँआरी माता की समस्या से बरसों तक पीड़ित होने के बाद। भारत में भी जो लोग बच्चों को ब्रह्मचर्य से विपरीत यौन शिक्षा देने का प्रयास कर रहे हैं उनको भी अमेरिका के अनुभव से यह बात सीख लेनी चाहिए कि विद्यार्थियों को केवल ब्रह्मचर्य की शिक्षा ही देनी चाहिए। अमेरिका के 33 % स्कूलों में अब यही सिखाया जाता है। फिर भी इससे पहले 3 %  से भी अधिक लाभ नहीं हुआ क्योंकि वे सिर्फ निषेधात्मक संदेश देते हैं। कामशक्ति को ऊर्ध्वगमन के द्वारा ओजस में परिवर्तित करके आध्यात्मिक अनुभूतियों के द्वारा व्यक्ति का पशु में से देव में परिवर्तन करने की कुंजियाँ तो भारत के महान संतों के ही पास हैं।

वर्तमान युग में जबकि भारत पर भी पाश्चात्य सांस्कृतिक आक्रमण हो रहा है, तब भारत के संतों ने ही 'युवाधन सुरक्षा अभियान' के द्वारा भारत के युवावर्ग की रक्षा की है। इन संतों के कारण ही भारत में पाश्चात्य देशों की कुँआरी माता जैसी समस्या उत्पन्न ही नहीं हुई है।

जो भारतीय संस्कृति के प्रेमी हैं वे इस बात से धन्यता का अनुभव किये बिना नहीं रह सकते कि सनातन धर्म के ऋषि-मुनियों, संत-महात्माओं ने जो नैतिक एवं धार्मिक संस्कारों का सिंचन किया है, उसे पाश्चात्य भोगवादी सभ्यता की आँधी मिटा नहीं सकती। फिर भी इस देश के करोड़ों युवानों को वर्तमान समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में तथा कथित सेस्सोलोजिस्टों तथा फ्रायड के अनुयायियों द्वारा गुमराह किया जा रहा है। अतः यह प्रत्येक संस्कृतिप्रेमी, राष्ट्रप्रेमी का नैतिक कर्तव्य है कि वह 'युवाधन सुरक्षा अभियान' में अपना महत्तम योगदान देकर उन महान ऋषियों और संतों के ऋण का एक अंश तो चुकाने का प्रयत्न करे।

इतना ही नहीं, जो लोग नास्तिक हों या तथा कथित धर्मनिरपेक्षतावादी हों, जो भारतीय संस्कृति से जुड़ी हर परंपरा को साम्प्रदायिक बताकर उसका उपहास करने में और पाश्चात्यों के कैसे भी युक्तिहीन उपदेशों को सच्चा मानने में ही गर्व अनुभव करते हैं, उनको भी अब उनके पाश्चात्य गुरुओं के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करने के लिए उनका अनुसरण करना चाहिए और अविवाहित युवावर्ग को संयम का संदेश पहुँचाने में सहयोग देना चाहिए। "यौवन सुरक्षा" जैसी पुस्तिकाओं का प्रचार करना चाहिए एवं युवावर्ग को गुमराह करने वाले लेख जिन वर्तमान समाचार पत्रों या पत्रिकाओं में छपते हों उनका विरोध करना चाहिए। इसी में राष्ट्र का कल्याण है, मानवता का कल्याण है, विश्व का कल्याण है।

(जो लोग Innocent Report Card No. 3 प्राप्त करना चाहें वे www.unicef-icdc.org में देख सकते हैं।) अनुक्रम

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नौनिहालों को पूज्य बापूजी का उदबोधन

प्रिय विद्यार्थियो !

तुम भारत के भविष्य, विश्व के गौरव और अपने माता-पिता की शान हो। तुम्हारे भीतर बीजरूप में ईश्वर का असीम सामर्थ्य छुपा हुआ है। जिन्होंने भी अपनी सुषुप्त योग्यताओं को जगाया, वे महान हो गये। इतिहास के पन्नों पर उनका नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित हो गया। वे संसार में अपनी अमिट छाप छोड़ गये और मर कर भी अमर हो गये। वास्तव में, इतिहास उन चन्द महापुरुषों और वीरों की ही गाथा है, जिनमें अदम्य साहस, संयम, शौर्य और पराक्रम कूट-कूटकर भरा हुआ था। तुम्हारे भीतर भी ये शक्तियाँ बीजरूप में पड़ी हैं। अपनी इन शक्तियों को तुम जितने अंश में विकसित करोगे, उतने ही महान हो जाओगे।

आज जो भी संत-महात्मा हैं, अच्छे ईमानदार नेता और समाज के अग्रणी हैं, वे पहले तुम्हारे जैसे बालक ही थे परंतु उन्होंने दृढ़ संकल्प, पुरुषार्थ और संयम का अवलंबन लेकर अपने व्यक्तित्व को निखारा और आज लाखों के प्रेरणास्रोत बन गये। महापुरुषों के मार्गदर्शन में चलकर व उनके दिव्य जीवन से प्रेरणा पाकर तुम भी महान हो जाओ।

हे युवानो ! संसार में ऐसी कोई वस्तु या स्थिति नहीं है जो संकल्प-बल और पुरुषार्थ के द्वारा प्राप्त न हो सके। पूर्ण उत्साह और लगन से किया गया पुरुषार्थ कभी व्यर्थ नहीं जाता।

प्यारे भाइयो-बहनो ! तुम जो बनना चाहते हो, उसके लिए आवश्यक सामर्थ्य तुम्हारे भीतर ही विद्यमान है पर वह सुषुप्त अवस्था में पड़ा है। उसे जगाकर तुम सफलता की बुलंदियों को छू सकते हो।

तुम वर्तमान में चाहे कितने भी निम्न श्रेणी के विद्यार्थी क्यों न हो लेकिन इन्द्रिय-संयम, एकाग्रता, पुरुषार्थ और दृढ़ संकल्प के द्वारा आगे चलकर उच्चतम योग्यता प्राप्त कर सकते हो। इतिहास में ऐसे कई दृष्टांत देखने को मिलते हैं।

पाणिनी नाम का बालक पहली कक्षा में वर्षों तक नापास-अनुत्तीर्ण ही होता रहा। कहाँ तो वर्षों तक पहली कक्षा में अनुत्तीर्ण होने वाला बालक, ठान लिया तो अपने दृढ़ संकल्प, पुरुषार्थ, उपासना और योग के अभ्यास से संस्कृत व्याकरण 'अष्टाध्यायी' का विश्वविख्यात रचयिता बन गया।

अपनी उन्नति में बाधक दुर्बलता के विचारों को जड़ से उखाड़ फेंको। उनके मूल पर ही कुठाराघात करो।

अपनी मानसिक शक्तियों को नष्ट करने वाली बुरी आदतों, तम्बाकू-गुटखे के व्यसनों और टी.वी. चैनलों के भड़कीले कार्यक्रमों में समय बिगाड़ना, फिल्में देखना, विडियो गेम्स आदि से आँखें बिगाड़ना – यह अपना पतन आप आमंत्रित करना है। हलके संग का त्याग, सत्शास्त्रों का अध्ययन, सत्संग-श्रवण, ध्यान, सारस्वत्य मंत्र का जप – ये बुद्धिशक्ति के सर्वांगीण विकास के लिए अत्यंत उपयोगी साधन हैं। तुम्हारा भविष्य तुम्हारे ही हाथों में है। तुम्हें महान, तेजस्वी   व श्रेष्ठ विद्यार्थी बनना हो तो अभी से दृढ़ संकल्प करके त्याज्य चीजों को छोड़ो और जीवन-विकास में उपयोगी मूल्यों को अपनाओ। हजार बार फिसल जाने पर भी फिर से हिम्मत करो..... विजय तुम्हारी ही होगी।

कदम अपने आगे बढ़ाता चला जा..... शाबाश वीर ! शाबाश !!

भारत के लाल ! दीनता-हीनता के विचारों को कुचल डालो। करोगे न हिम्मत? चलोगे न सत्पथ पर? होंगे न निहाल? ॐ हिम्मत.... ॐ उद्यम..... ॐ बुद्धिशक्ति...... ॐ पराक्रम.... कदम-कदम पर परमात्मा तुम्हारे साथ हैं..... ॐ..... ॐ..... अनुक्रम

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पूज्य बापूजी का अभिभावकों व विद्यार्थियों के लिए संदेश

भारत को समर्थ राष्ट्र बनाना हो तो नयी पीढ़ी को बचपन से ही ध्यान का अभ्यास कराओ। ध्यान वह कुंजी है जो कुदरत की दी हुई अनंत शक्तियों का खजाना खोल देती है। बच्चों का जीवन पौधे जैसा है, जिसे सदगुणों की खाद से सींचना पड़ता है। विद्यार्थीकाल जीवनरूपी इमारत की नींव है। इस काल में जिस प्रकार के संस्कार उनमें पड़ जाते हैं, उसी प्रकार से उनका जीवन विकसित होता है। इसलिए यह आवश्यक है कि हम बच्चों को भारतीय संस्कृति और योग पर आधारित ऐसी शिक्षा दें जिससे उनका सर्वांगीण विकास हो सके।

आज का विद्यार्थी कल का नागरिक है, देश का भावी कर्णधार है। प्राचीन समय में विद्यार्थी गुरु के सान्निध्य में रहकर न केवल जीविकोपार्जन के लिए विद्याध्ययन करता था, अपितु जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए योग, साधना, संयम, सदाचार, पुरुषार्थ, निर्भयता आदि के संस्कारों एवं सदगुणों को ग्रहण कर देश व समाज के लिए एक आदर्श नागरिक बनता था। इतिहास एवं सत्साहित्य में हमें इसी प्रकार के संस्कारों से युक्त अनेक बालक-बालिकाओं के उदाहरण देखने को मिलते हैं, जिनको आज सारा विश्व अपना आदर्श मानकर नमन करता है।

छोटे-से शिवा को गुरु समर्थ रामदास व माँ जीजाबाई ने देशप्रेम का ऐसा पाठ पढ़ाया कि शिवा में से छत्रपति शिवाजी का उदय हो गया। पुरुषार्थ और साहस के बल पर शेक्सपियर अंग्रेजी साहित्य का सर्वश्रेष्ठ कवि और नाटककार बन गया। चंद्रगुप्त मौर्य अपने गुरु चाणक्य के मार्गदर्शन में सर्वप्रथम भारत को अखंड राष्ट्र के रूप में सुदृढ़ करने में समर्थ हुआ।

जो बचपन से ही ध्यान का अभ्यास करते हैं, उन पर ईश्वर की विशेष कृपा होती है, उनकी बुद्धि एकाग्र होकर भीतरी शक्तियाँ जाग्रत होने लगती हैं। तुम विश्वासपूर्वक इस राह पर कदम बढ़ाओ, मैं सफलता की गारंटी देता हूँ।

तुकारामजी ने स्कूली शिक्षा तो दो-चार क्लास ही पायी लेकिन उनके अभंग (भजन) आज एम.ए. तक पढ़ाये जाते हैं। उनके वचन आज तक लोगों को इसलिए आनंदित करते हैं क्योंकि उन्होंने प्रेमाभक्ति के रस का पान किया था।

संयम और साधना के बिना सच्ची विद्या हासिल हो ही नहीं सकती। इसलिए व्रत-उपवास से आत्मशक्ति बढ़ाने का उद्यम जरूर करना चाहिए। अनुक्रम

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ब्रह्मचर्यासन

साधारणतया योगासन भोजन के बाद नहीं किये जाते परंतु कुछ ऐसे आसन हैं जो भोजन के बाद भी किये जाते हैं। उन्हीं आसनों में से एक है ब्रह्मचर्यासन। यह आसन रात्रि-भोजन के बाद सोने से पहले करने से विशेष लाभ होता है।

ब्रह्मचर्यासन के नियमित अभ्यास से ब्रह्मचर्य-पालन में खूब सहायता मिलती है अर्थात् इसके अभ्यास से अखंड ब्रह्मचर्य की सिद्धि होती है। इसलिए योगियों ने इसका नाम ब्रह्मचर्यासन रखा है।

विधिः जमीन पर घुटनों के बल बैठ जायें। तत्पश्चात् दोनों पैरों को अपनी-अपनी दिशा में इस तरह फैला दें कि नितम्ब और गुदा का भाग जमीन से लगा रहे। हाथों को घुटनों पर रख के शांत चित्त से बैठे रहें।

लाभः इस आसन के अभ्यास से वीर्यवाहिनी नाड़ी का प्रवाह शीघ्र ही ऊर्ध्वगामी हो जाता है और सिवनी नाड़ी की उष्णता कम हो जाती है, जिससे यह आसन स्वप्नदोषादि बीमारियों को दूर करने में परम लाभकारी सिद्ध हुआ है।

जिन व्यक्तियों को बार-बार स्वप्नदोष होता है, उन्हें सोने से पहले पाँच से दस मिनट तक इस आसन का अभ्यास अवश्य करना चाहिए। इससे उपस्थ इन्द्रिय में काफी शक्ति आती है और एकाग्रता में वृद्धि होती है।

प्रश्नः पूज्य बापू जी! सावधानी बरतते हुए भी वीर्यपात, स्वप्नदोष होता हो तो क्या करें?

उत्तरः सावधानी बरतने पर भी वीर्यपात का कष्ट हो तो चिंतिन न हों बल्कि दृढ़ निश्चय से अधिक सावधानी बरतो। भगवत्प्रार्थना करो। 'ॐ अर्यमायै नमः।' मंत्र का जप करो। सर्वांगासन करके योनि को सिकोड़ लो (मूलबन्ध करो) और श्वास को बाहर निकालते हुए पेट को अंदर की ओर खींचो। कुछ समय श्वास को बाहर री रोके रखो और भावना करो कि 'मेरा वीर्य ऊर्ध्वगामी हो रहा है।' इस प्रयोग से ब्रह्मचर्य की रक्षा होगी। चित्र में दिखाये अनुसार ब्रह्मचर्य आसन सोने से पहले 5-10 मिनट करो।

'ॐ माँ !.... ॐ गजानन !..... ॐ शिवजी !.... रक्षा करो।' यह प्रार्थना करें। अवश्य रक्षा होती है।

स्वप्नदोष से बचाव के उपायः 'ॐ अर्यमायै नमः ' मंत्र का सोने से पूर्व 21 बार जप करने से बुरे सपने नहीं आते।

सोने से पहले तर्जनी उँगली से तकिये पर अपनी माता का नाम लिखकर सोने से बहुत लाभ होता है।

आँवले के चूर्ण में चौथाई हिस्सा (25% ) हल्दी चूर्ण मिलाकर रखें। 7 दिन तक सुबह-शाम यह मिश्रण 3-4 ग्राम लेने से चमत्कारिक लाभ होता है। इसके सेवन से 2 घंटे पूर्व व पश्चात दूध न लें। अनुक्रम

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विद्वानों, चिंतकों और चिकित्सकों की दृष्टि में ब्रह्मचर्य

ब्रह्म के लिए चर्या (आचरण) ही ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य अर्थात् सभी इन्द्रियों पर संयम, सभी इन्द्रियों का उचित उपयोग।

संत विनोबा भावे

ब्रह्मचर्य  से ही ब्रह्मस्वरूप के दर्शन होते हैं। हे प्रभो ! निष्कामता प्रदान कर इस दास पर कृपा कीजिए।

महर्षि भारद्वाज

दुःख के मूल को नष्ट करने के लिए ब्रह्मचर्य का पालन आवश्यक है।

महात्मा बुद्ध

दुःख के सर्वथा नाश के लिए ब्रह्मचर्य का आचरण करो। जो लोग ब्रह्मचर्यहीन है, उन्हें पग-पग पर दुःख उठाने पड़ते हैं। यदि एक ही कृत्य से सारे विश्व को वश में करना चाहो तो शुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करो।

भक्त वामन

अचिंत्य और अदभुत पराक्रम, आवश्यक समग्र अनुपम मानसिक व शारीरिक शक्ति, प्रशंसनीय सदगुण तथा दीर्घायुष्य केवल ब्रह्मचर्य के प्रताप से ही प्राप्त किये जा सकते हैं। इसके विपरीत यदि तुम अपने जीवन की ब्रह्मचर्य रूपी नस काट डालोगे तो तुम्हारी शारीरिक-मानसिक शक्तियों की बरबादी होगी और तुम समस्त प्रकार के दुःखों एवं अधोगति के गर्त में गिर पड़ोगे।

प्रो. कृष्णराव

शरीर के रक्षण के लिए ब्रह्मचर्य सर्वाधिक आवश्यक है। जिसने उसका पालन नहीं किया, उसका जीवन धिक्कार के योग्य है।

स्वामी आत्मानंदजी

कहते हैं कि जिस प्रकार पवित्रता से आत्मा को कोई हानि नहीं होती, उसी प्रकार शरीर को ब्रह्मचर्य से कोई क्षति नहीं पहुँचती। इन्द्रिय-संयम सबसे उत्तम आचरण है।

सर जेम्स मैगट

नवयुवकों के लिए ब्रह्मचर्य शारीरिक, मानसिक तथा नैतिक – तीनों दृष्टियों से उनकी रक्षा करता है।

डॉ. पेरियर

विषयसंबंधी सभी उत्तेजक बातों से बचे रहने से विषय-वासना धीरे-धीरे कम हो जाती है।

मनोवैज्ञानिक कोरल

ब्रह्मचारी को कभी ज्ञात नहीं होता कि व्याधिग्रस्त दिन कैसा होता है। उसकी पाचनशक्ति सदैव नियमित होती है। उसकी वृद्धावस्था बाल्यावस्था जैसी ही आनंदमयी होती है।

डॉ. काउ एन. (एम.डी.)

ब्रह्मचर्य जीवन-वृक्ष का पुष्प है और प्रतिभा, पवित्रता, वीरता आदि गुण उसके कतिपय फल हैं।

महात्मा थोरो

ब्रह्मचारी अपना प्रत्येक कार्य निरंतर करता रहता है। उसे प्रायः थकान नहीं लगती। वह कभी चिंतातुर नहीं होता। उसका शरीर सुदृढ़ होता है। उसका मुख तेजस्वी होता है। उसका स्वभाव आनंदी और उत्साही होता है।

डॉ. एक्सन

समाज में सुख-शांति की वृद्धि के लिए स्त्री-पुरुष दोनों को ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करना चाहिए। इससे मानव-जीवन का विकास होता है और समाज की भित्ति बलवान होती है।

महात्मा टॉलस्टॉय

मैं विद्यार्थियों और युवकों से यही कहता हूँ कि वे ब्रह्मचर्य और बल की उपासना करें।बिना शक्ति व बुद्धि के अधिकारों की रक्षा और प्राप्ति नहीं हो सकती। देश की स्वतंत्रता वीरों पर ही निर्भर है।

लोकमान्य बालगंगाधर तिलक

वीर्ययुक्ता ही साधुता है और निर्वीयता ही पाप है, अतः बलवान और वीर्यवान बनने की चेष्टा करनी चाहिए।

स्वामी विवेकानंदजी

वीर्य मनुष्य को अमरत्व प्राप्त कराता है, अतः प्रत्येक स्त्री-पुरुष को ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करना चाहिए।

स्वामी नित्यानंदजी

अनुक्रम

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अनेक रोगों का एक ही उपचार

प्रातः पानी प्रयोग

प्यारे भाइयो और बहनो !

आज के इस दौर में, जहाँ हमारे देशवासी छोटी-सी-छोटी तकलीफ के लिए बड़ी ही हाईपावर की दवा-गोलियों का इस्तेमाल कर अपने शरीर में जहर घोलते जा रहे हैं, वहीं हमारे ऋषि-महर्षियों द्वारा अनुभव कर प्रकाश में लाया गया एक अत्यधिक आसान प्रयोग, जिसे अपनाकर भारतवर्ष के महा योगिराज प्रातः स्मरणीय परम पूज्य संत श्री आसारामजी बापू सदैव स्वस्थ व प्रसन्नचित्त रहते हैं, आपको बतलाने जा रहे हैं।

नयी तथा पुरानी अनेकों प्राणघातक बीमारियाँ दूर करने का एक ही सरल उपाय है – प्रातःकाल में जल-सेवन। प्रतिदिन प्रभात काल में सूर्योदय से पूर्व उठकर, कुल्ला करके, ताँबे के पात्र में रात का रखा हुआ 2 से 4 बड़े गिलास (आधा से सवा लीटर) पानी पी ले। पानी भरकर ताँबे का पात्र हमेशा विद्युत की कुचालक वस्तु (प्लास्टिक, लकड़ी या कम्बल) के ऊपर रखें। खड़े होकर पानी पीने से आगे चलकर पिण्डलियों में दर्द की तकलीफ होती है। अतः किसी गर्म आसन अथवा विद्युत की कुचालक वस्तु पर बैठकर ही पानी पीयें। पानी में चाँदी का एक सिक्का डालकर रखने से पानी और अधिक शक्तिदायक हो जाता है। तदनंतर 45 मिनट तक कुछ खायें-पीयें नहीं। प्रयोग के दौरान नाश्ता या भोजन करने के दो घंटे बाद ही पानी पीयें।

प्रातःकाल नियमित रूप से जल सेवन करने से निम्निलिखित नयी एवं पुरानी बीमारियों में लाभ होता हैः

कब्ज, मधुमेह (डायबिटीज), ब्लडप्रेशर, लकवा (पेरालिसिस), कफ, खाँसी, दमा (ब्रोंकाइटिस), यकृत (लीवर) के रोग, स्त्रियों का अनियमित मासिक स्राव, गर्भाशय का कैंसर, बवासीर (मस्से), कील-मुहाँसे एवं फोड़े-फुंसी, वृद्धत्व व त्वचा पर झुर्रियाँ पड़ना, एनीमिया (रक्त की कमी), मोटापा, क्षयरोग (टी.बी.), कैंसर, पेशाब की समस्त बीमारियाँ (पथरी, धातुस्राव आदि), सूजन, बुखार, एसिडिटी (अम्लपित्त), वात-पित्त-कफ जन्य रोग, सिरदर्द, जोड़ों का दर्द, हृदयरोग व बेहोशी, आँखों की समस्त बीमारियाँ, मेनिंजाइटिस, प्रदररोग, गैस की तकलीफ व कमर से संबंधित रोग, मानसिक दुर्बलता, पेट के रोग आदि।

इस अनुभूत प्रयोग से बहुतों को लाभ हुआ है। आप भी लाभ उठाइये। मंदाग्नि, वायुरोग व जोड़ों के दर्द से पीड़ित रोगी गुनगुने पानी का प्रयोग करें। यदि गर्म न पड़े तो उसमें 1 से 2 काली मिर्च का पाउडर या सोंठ अथवा अजवायन मिला सकते हैं।

चार गिलास पानी एक साथ पीने से स्वास्थ्य पर कोई कुप्रभाव नहीं पड़ता। आरम्भ के दो-चार दिनों तक पेशाब कुछ जल्दी-जल्दी आयेगा लेकिन बाद में पूर्ववत् हो जायेगा। गुर्दों की तकलीफ वाले सवा लीटर पानी न पियें, उन्हें चिकित्सक से सलाह लेकर पानी की मात्रा निर्धारित करनी चाहिए। अनुक्रम

करोगे न सभी? शाबाश ! आप सभी का कल्याण हो। राम-राम !

परम पूज्य संत श्री आसारामजी बापू

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पूज्यश्री के सत्संग में प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयीजी के उदगार......

"पूज्य बापूजी के भक्तिरस में डूबे हुए श्रोता भाई-बहनों! मैं यहाँ पर पूज्य बापूजी का अभिनंदन करने आया हूँ.... उनका आशीर्वचन सुनने आया हूँ.... भाषण देने य बकबक करने नहीं आया हूँ। बकबक तो हम करते रहते हैं। बापू जी का जैसा प्रवचन है, कथा-अमृत है, उस तक पहुँचने के लिए बड़ा परिश्रम करना पड़ता है। मैंने पहले उनके दर्शन पानीपत में किये थे। वहाँ पर रात को पानीपत में पुण्य प्रवचन समाप्त होते ही बापूजी कुटीर में जा रहे थे.. तब उन्होंने मुझे बुलाया। मैं भी उनके दर्शन और आशीर्वाद के लिए लालायित था। संत-महात्माओँ के दर्शन तभी होते हैं, उनका सान्निध्य तभी मिलता है जब कोई पुण्य जागृत होता है।

इस जन्म में मैंने कोई पुण्य किया हो इसका मेरे पास कोई हिसाब तो नहीं है किंतु जरुर यह पूर्व जन्म के पुण्यों का फल है जो बापू जी के दर्शन हुए। उस दिन बापूजी ने जो कहा, वह अभी तक मेरे हृदय-पटल पर अंकित हैं। देशभर की परिक्रमा करते हुए जन-जन के मन में अच्छे संस्कार जगाना, यह एक ऐसा परम राष्ट्रीय कर्तव्य है, जिसने हमारे देश को आज तक जीवित रखा है और इसके बल पर हम उज्जवल भविष्य का सपना देख रहे हैं... उस सपने को साकार करने की शक्ति-भक्ति एकत्र कर रहे हैं।

पूज्य बापूजी सारे देश में भ्रमण करके जागरण का शंखनाद कर रहे हैं, सर्वधर्म-समभाव की शिक्षा दे रहे हैं, संस्कार दे रहे हैं तथा अच्छे और बुरे में भेद करना सिखा रहे हैं।

हमारी जो प्राचीन धरोहर थी और हम जिसे लगभग भूलने का पाप कर बैठे थे, बापू जी हमारी आँखों में ज्ञान का अंजन लगाकर उसको फिर से हमारे सामने रख रहे हैं। बापूजी ने कहा कि ईश्वर की कृपा से कण-कण में व्याप्त एक महान शक्ति के प्रभाव से जो कुछ घटित होता है, उसकी छानबीन और उस पर अनुसंधान करना चाहिए।

पूज्य बापूजी ने कहा कि जीवन के व्यापार में से थोड़ा समय निकाल कर सत्संग में आना चाहिए। पूज्य बापूजी उज्जैन में थे तब मेरी जाने की बहुत इच्छा थी लेकिन कहते हैं न, कि दाने-दाने पर खाने वाले की मोहर होती है, वैसे ही संत-दर्शन के लिए भी कोई मुहूर्त होता है। आज यह मुहूर्त आ गया है। यह मेरा क्षेत्र है। पूज्य बापू जी ने चुनाव जीतने का तरीका भी बता दिया है।

आज देश की दशा ठीक नहीं है। बापू जी का प्रवचन सुनकर बड़ा बल मिला है। हाल में हुए लोकसभा अधिवेशन के कारण थोड़ी-बहुत निराशा हुई थी किन्तु रात को लखनऊ में पुण्य प्रवचन सुनते ही वह निराशा भी आज दूर हो गयी। बापू जी ने मानव जीवन के चरम लक्ष्य मुक्ति-शक्ति की प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ चतुष्टय, भक्ति के लिए समर्पण की भावना तथा ज्ञान, भक्ति और कर्म तीनों का उल्लेख किया है। भक्ति में अहंकार का कोई स्थान नहीं है। ज्ञान अभिमान पैदा करता है। भक्ति में पूर्ण समर्पण होता है। 13 दिन के शासनकाल के बाद मैंने कहाः "मेरा जो कुछ है, तेरा है।" यह तो बापू जी की कृपा है कि श्रोता को वक्ता बना दिया और वक्ता को नीचे से ऊपर चढ़ा दिया। जहाँ तक ऊपर चढ़ाया है वहाँ तक ऊपर बना रहूँ इसकी चिंता भी बापू जी को करनी पड़ेगी।

राजनीति की राह बड़ी रपटीली है। जब नेता गिरता है तो यह नहीं कहता कि मैं गिर गया बल्कि कहता हैः "हर हर गंगे।" बापू जी का प्रवचन सुनकर बड़ा आनंद आया। मैं लोकसभा का सदस्य होने के नाते अपनी ओर से एवं लखनऊ की जनता की ओर से बापू जी के चरणों में विनम्र होकर नमन करना चाहता हूँ।

उनका आशीर्वाद हमें मिलता रहे, उनके आशीर्वाद से प्रेरणा पाकर बल प्राप्त करके हम कर्तव्य के पथ पर निरन्तर चलते हुए परम वैभव को प्राप्त करें, यही प्रभु से प्रार्थना है।" अनुक्रम

श्री अटल बिहारी वाजपेयी, प्रधानमंत्री, भारत सरकार।

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पुण्योदय पर संत-समागम

हम लोगों का परम सौभाग्य है कि हमारे पास परम पूजनीय संत श्री आसारामजी महाराज ने पधार कर हम पर अनुग्रह किया है। भाग-दौड़ और शोरगुल में ही हमारा सारा दिन बीतता है। उसमें कभी भाग्यवश ऐसे महान संत का दर्शनलाभ मिल पाता है। जीवन की दौड़धूप से क्या मिलता है, यह हम सब जानते हैं। फिर भी भौतिकवादी संसार में हम उसे छोड़ नहीं पाते। ऐसे दिव्य शक्तिसम्पन्न संत पधारें और हमको आध्यात्मिक शांति का पान कराकर जीवन की अंधी दौड, से छुड़ावें, ऐसे प्रसंग कभी-कभी ही प्राप्त होते हैं।

ये पूजनीय संतश्री संसार में रहते हुए भी पूर्णतः विश्वकल्याण के लिए चिन्तन करते हैं, कार्य करते हैं। लोगों को आनन्दपूर्वक जीवन व्यतीत करने की कलाएँ और योगसाधना की युक्तियाँ बताते हैं।

आज उनके समक्ष थोड़ी ही देर बैठने से एवं सत्संग सुनने से हम लोग और सब भूल गये हैं तथा भीतर शांति व आनन्द का अनुभव कर रहे हैं। ऐसे संतों के दरबार में पहुँचना पुण्योदय का फल है। उन्हें सुनकर हमको लगता है कि प्रतिदिन हमें ऐसे सत्संग के लिए कुछ समय अवश्य निकालना चाहिए।

पूज्य बापू जैसे महान संत एवं महान पुरुष के सामने मैं अधिक क्या कहूँ? चाहे कुछ भी कहूँ.... वह सब सूर्य के सामने चिराग दिखाने जैसा है। हम लोग अत्यधिक आभारी हैं कि आपने हम लोगों को भोपाल में दर्शन देकर कृतार्थ किया।

मनुष्य लाख सोच-विचार (प्रयत्न) करे पर ऐसे महान संत के दरबार में वही पहुँच सकता है, जिसके पुण्यों का उदय हुआ हो, ईश्वर का अनुग्रह हुआ हो।

मेरे पुण्योदय में अभी कुछ कमी रह गयी होगी, तभी मैं कल के सत्संग में न पहुँच सका। सत्संग में आज की अपनी उपस्थिति को मैं अपना सदभाग्य मानता हूँ।

मोतीलाल वोरा (तत्कालीन मुख्यमंत्री, मध्य प्रदेश)

भूतपूर्व राज्यपाल, उत्तर प्रदेश।

अनुक्रम

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