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गुरु आराधनावली

अनुक्रम

 

प्रार्थना. 3

आरती. 3

गुरु वंदना. 4

हाथ जोड़ वंदन करूँ. 5

बार बार वंदना. 6

गुरुनाम सहारा मेरा है 7

सदगुरु का नाम ही प्यारा लागे. 7

गुरुदेव दया कर दो मुझ पर 8

अजन्मा है अमर आत्मा... 9

नाम संकीर्तन महिमा.. 11

जीवन की सार्थकता. 12

परम स्नेही संत. 13

संत मिलन को जाइये. 14

गुर्वष्टकम्. 17

हम भारत देश के वासी हैं 19

गुरुवार भजन. 19

दोहे 20

सदगुरु 21

निगुरे नहीं रहना. 22

हे प्रभु ! आनन्ददाता. 23

नानक वाणी.. 24

इस योग्य हम कहाँ हैं 27

हमें गुरुदेव तेरा सहारा. 28

 

 

 


प्रार्थना

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।

गुरुर्साक्षात्परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

ध्यानमूलं गुरोर्मूतिः पूजामूलम गुरो पदम्।

मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा।।

अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।

तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव।

त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देव देव।।

ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं।

द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम्।

एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं

भावातीतं त्रिगुणरहितं सदगुरुं तं नमामि।।

ॐ गुरु ॐ गुरु

ॐॐॐॐॐॐ

अनुक्रम

आरती

ज्योत से ज्योत जगाओ....

ज्योत से ज्योत जगाओ सदगुरु !

ज्योत से ज्योत जगाओ।।

मेरा अन्तर तिमिर मिटाओ सदगुरु !

ज्योत से ज्योत जगाओ।।

हे योगेश्वर ! हे परमेश्वर !

हे ज्ञानेश्वर ! हे सर्वेश्वर !

निज कृपा बरसाओ सदगुरु ! ज्योत से.....

हम बालक तेरे द्वार पे आये,

मंगल दरस दिखाओ सदगुरु ! ज्योत से....

शीश झुकाय करें तेरी आरती,

प्रेम सुधा बरसाओ सदगुरु ! ज्योत से....

साची ज्योत जगे जो हृदय में,

सोऽहं नाद जगाओ सदगुरु ! ज्योत से....

अन्तर में युग युग से सोई,

चितिशक्ति को जगाओ सदगुरु ! ज्योत से....

जीवन में श्रीराम अविनाशी,

चरनन शरन लगाओ सदगुरु ! ज्योत से...

ॐ गुरु ॐ गुरु

ॐॐॐॐॐॐ

अनुक्रम

स्वामी मोहे ना बिसारियो चाहे लाख लोग मिल जायें।

हम सम तुमको बहुत हैं तुम सम हमको नांहीं।।

दीन दयाल की बेनती सुन हो गरीब नवाज।

जो हम पूत कपूत हैं तो हे पिता तेरी लाज।।

ॐ गुरु ॐ गुरु

गुरु वंदना

जय सदगुरु देवन देववरं

निज भक्तन रक्षण देहधरम्।

परदुःखहरं सुखशांतिकरं

निरुपाधि निरामय दिव्य परम्।।1।।

जय काल अबाधित शांति मयं

जनपोषक शोषक तापत्रयम्।

भयभंजन देत परम अभयं

मनरंजन भाविक भावप्रियम्।।2।।

ममतादिक दोष नशावत हैं।

शम आदिक भाव सिखावत हैं।

जग जीवन पाप निवारत हैं।

भवसागर पार उतारत हैं।।3।।

कहुँ धर्म बतावत ध्यान कहीं।

कहुँ भक्ति सिखावत ज्ञान कहीं।

उपदेशत नेम अरु प्रेम तुम्हीं।

करते प्रभु योग अरु क्षेम तुम्हीं।।4।।

मन इन्द्रिय जाही न  जान सके।

नहीं बुद्धि जिसे पहचान सके।

नहीं शब्द जहाँ पर जाय सके।

बिनु सदगुरु कौन लखाय सके।।5।।

नहीं ध्यान न ध्यातृ न ध्येय जहाँ।

नहीं ज्ञातृ न ज्ञान न ज्ञेय जहाँ।

नहीं देश न काल न वस्तु तहाँ।

बिनु सदगुरु को पहुँचाय वहाँ।।6।।

नहीं रूप न लक्षण ही जिसका।

नहीं नाम न धाम कहीं जिसका।

नहीं सत्य असत्य कहाय सके।

गुरुदेव ही ताही जनाय सके।।7।।

गुरु कीन कृपा भव त्रास गई।

मिट भूख गई छुट प्यास गई।

नहीं काम रहा नहीं कर्म रहा।

नहीं मृत्यु रहा नहीं जन्म रहा।।8।।

भग राग गया हट द्वेष गया।

अघ चूर्ण भया अणु पूर्ण भया।

नहीं द्वैत रहा सम एक भया।

भ्रम भेद मिटा मम तोर गया।।9।।

नहीं मैं नहीं तू नहीं अन्य रहा।

गुरु शाश्वत आप अनन्य रहा।

गुरु सेवत ते नर धन्य यहाँ।

तिनको नहीं दुःख यहाँ न वहाँ।।10।।

ॐ गुरु ॐ गुरु

ॐॐॐॐॐॐ

अनुक्रम

 हाथ जोड़ वंदन करूँ

हाथ जोड़ वंदन करूँ, धरूँ चरण पे शीश।

ज्ञान भक्ति मोहे दीजिए, परम पुरुष जगदीश।।1।।

सब कुछ दीना आपने, भेंट धरूँ क्या नाथ।

नमस्कार की भेंट धरुँ, जोड़ूँ मैं दोनों हाथ।।2।।

दुःख रूप संसार ये, जन्म मरण की खान।

आप निकालो दया करो, सदगुरु दीन दयाल।।3।।

प्रेम भक्ति से देना हमें, हे प्रेम अवतार ! हे करुणा अवतार!

तुम हो गगन के चंद्रमा, हम रहें अनुकूल।।4।।

हरि हरि ॐ

ॐ गुरु ॐ गुरु

ॐॐॐॐॐॐ

अनुक्रम

 बार बार वंदना

भक्तों के भगवान को बार बार वंदना....

बार बार वंदना, हजार वंदना।

मेरे गुरुदेव को बार बार वंदना।।1।।

राधा के श्याम को बार बार वंदना।

शबरी के राम को बार बार वंदना।।2।।

बार बार वंदना, हजार बार वंदना।

मेरे गुरुदेव को बार बार वंदना।।3।।

मीरा जैसी भक्ति हमें देना।

शबरी जैसी प्रीति हमें देना।

सदगुरु अपनी भक्ति हमें देना।।4।।

आपके चरणों में बार बार वंदना।

बार बार वंदना, हजार बार वंदना।।5।।

तुम ही मेरे ब्रह्मा हो तुम ही मेरे विष्णु।

तुम ही शिव-शंकर हो गुरुदेवा।।6।।

आपके चरणों में बार बार वंदना।

मंगलमूर्ति को बार बार वंदना।

बार बार वंदना हजार बार वंदना।।7।।

ॐ गुरु ॐ गुरु

ॐॐॐॐॐॐ

अनुक्रम

 गुरुनाम सहारा मेरा है

गुरुनाम सहारा मेरा है, गुरुनाम सहारा मेरा है।

मेरा और सहारा कोई नहीं...... गुरुमनाम सहारा मेरा है।।

गुरुपूजा सहारा मेरा है... गुरुभक्ति सहारा मेरा है।

गुरुमंत्र सहारा मेरा है... मेरा और सहारा कोई नहीं है।।

हरि ॐ हरि ॐ....

हरिनाम सहारा मेरा है... गुरुकृपा सहारा मेरा है।

भगवान सहारा मेरा है..... मेरा और सहारा कोई नहीं।।

हरि ॐ हरि ॐ

सदगुरु तुम्हारी जय जय हो... गुरुमंत्र तुम्हारी जय जय हो।

गुरुवाणी तुम्हारी जय जय हो.... हरि ॐ हरि ॐ

ॐ गुरु ॐ गुरु

ॐॐॐॐॐॐ

अनुक्रम

 सदगुरु का नाम ही प्यारा लागे

मुझे सदगुरु का नाम ही प्यार ही लागे।

मुझे झूठा ये संसार लागे।।1।।

साँई साँई नाम जपे है जो नर आठों याम।

उसके दुखड़े दूर करेंगे जय जय आसाराम।।2।।

गुरुनाम में सफल जिंदगानी लागे।

मुझे झूठा ही झूठा ये संसार लागे।।3।।

पार्वती जी माता मेरी, पिता भोलेनाथ।

इन दोनों के चरणों में हो बारंबार प्रणाम।।4।।

भोलेनाथ में सफल जिंदगानी लागे।

मुझे झूठा ही झूठा ये संसार लागे।।5।।

सीता सीता नाम जपे हैं, जो नर आठों याम।

उसके दुखड़े दूर करें है, जय जय सीताराम।।6।।

सीताराम में सफल जिंदगानी लागे।

मुझे झूठा ही झूठा ये संसार लागे।।7।।

लक्ष्मीदेवी माता मेरी, पिता आसाराम।

इन दोनों के चरणों में हों बारंबार प्रणाम।।8।।

इनकी पूजा में सफल जिंदगानी लागे।

मुझे झूठा ही झूठा ये संसार लागे।।9।।

ॐ गुरु ॐ गुरु

ॐॐॐॐॐॐ

अनुक्रम

 गुरुदेव दया कर दो मुझ पर

गुरुदेव दया कर दो मुझ पर,

मुझे अपनी शरण में रहने दो।

मुझे ज्ञान के सागर से स्वामी,

अब निर्मल गागर भरने दो।।1।।

तुम्हारी शरण में जो कोई आया,

पार हुआ वो एक ही पल में।

इसी दर पे हम भी आये हैं,

इस दर पे गुजारा करने दो।।2।।

मुझे ज्ञान के...

सर पे छाया घोर अँधेरा,

सूझत नाँही राह कोई।

ये नयन मेरे और ज्योत तेरी,

इन नयनों को भी बहने दो।।3।।

... मुझे ज्ञान के..

चाहे डुबा दो चाहे तैरा दो

मर भी गये तो देंगे दुआएँ।

ये नाव मेरी और हाथ तेरे,

मुझे भवसागर से तरने दो।।4।।

मुझे ज्ञान के ....

ॐ गुरु ॐ गुरु

ॐॐॐॐॐॐ

अनुक्रम

अजन्मा है अमर आत्मा

व्यर्थ चिंतित हो रहे हो,

व्यर्थ डरकर रो रहे हो।

अजन्मा है अमर आत्मा,

भय में जीवन खो रहे हो।।

जो हुआ अच्छा हुआ,

जो हो रहा अच्छा ही है।

होगा जो अच्छा ही होगा...

यह नियम सच्चा ही है।

'गर भुला दो बोझ कल का,

आज तुम क्यों ढो रहे हो?

अजन्मा है...

हुई भूलें-भूलों का फिर,

आज पश्चाताप क्यों?

  कल् क्या होगा? अनिश्चित है,

आज फिर संताप क्यों?

जुट पड़ो कर्त्तव्य में तुम,

बाट किसकी जोह रहे हो?

अजन्मा है...

क्या गया, तुम रो पड़े?

तुम लाये क्या थे, खो दिया?

है हुआ क्या नष्ट तुमसे,

ऐसा क्या था खो दिया?

व्यर्थ ग्लानि से भरा मन,

आँसूओं से धो रहे हो।।

अजन्मा है....

ले के खाली हाथ आये,

जो लिया यहीं से लिया।

जो लिया नसीब से उसको,

जो दिया यहीं का दिया।

जानकर दस्तूर जग का,

क्यों परेशां हो रहे हो?

अजन्मा है...

जो तुम्हारा आज है,

कल वो ही था किसी और का।

होगा परसों जाने किसका,

यह नियम सरकार का।

मग्न ही अपना समझकर,

दुःखों को संजो रहे हो।

अजन्मा है.....

जिसको तुम मृत्यु समझते,

है वही जीवन तुम्हारा।

हो नियम जग का बदलना,

क्या पराया क्या तुम्हारा?

एक क्षण में कंगाल हो,

क्षण भर में धन से मोह रहे हो।।

अजन्म है....

मेरा-तेरा, बड़ा छोटा,

भेद ये मन से हटा दो।

सब तुम्हारे तुम सभी के,

फासले मन से हटा दो।

कितने जन्मों तक करोगे,

पाप कर तुम जो रहे हो।

अजन्मा है....

है किराये का मकान,

ना तुम हो इसके ना तुम्हारा।

पंच तत्त्वों का बना घर,

देह कुछ दिन का सहारा।

इस मकान में हो मुसाफिर,

इस कदर क्यों सो रहे हो?

अजन्मा है..

उठो ! अपने आपको,

भगवान को अर्पित करो।

अपनी चिंता, शोक और भय,

सब उसे अर्पित करो।

है वो ही उत्तम सहारा,

क्यों सहारा खो रहे हो?

अजन्मा है....

जब करो जो भी करो,

अर्पण करो भगवान को।

सर्व कर दो समर्पण,

त्यागकर अभिमान को।

मुक्ति का आनंद अनुभव,

सर्वथा क्यों खो रहे हो?

अजन्मा है....

ॐ गुरु ॐ गुरु

ॐॐॐॐॐॐ

अनुक्रम

 नाम संकीर्तन महिमा

सर्वधर्मबहिर्भूतः सर्वपापरतस्तथा।

मुच्यते नात्र सन्देहो विष्णुनामानकीर्तनात्।।1।।

सर्वधर्मत्यागी और सर्वपापनिरत मनुष्य भी भगवान विष्णु के नाम का कीर्तन करने से सब पापों से छूट जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं है। (1)

तीर्थानां च परं तीर्थं कृष्णनाम महर्षयः।

तीर्थीं कुर्वन्ति जगतीं गृहीतं कृष्णनाम यैः।।2।।

हे ऋषियो ! समस्त तीर्थों में सर्वोपरि तीर्थ 'कृष्ण' नाम है। जो लोग श्रीकृष्णनाम का उच्चारण करते हैं, वे संपूर्ण जगत को तीर्थ बना देते हैं। (2)

सत्त्वशुद्धिकरं हरिनाम ज्ञानप्रदं स्मृतम्।

मुमुक्षणां मुक्तिप्रदं कामिनां सर्वकामदम्।।3।।

सचमुच, हरि का नाम मन की शुद्धि करने वाला, ज्ञान प्रदान करने वाला, मुमुक्षुओं को मुक्ति देने वाला और इच्छुकों की सर्व मनोकामनाएँ पूर्ण करने वाला है। (3)

सर्वमंगलमागंल्यमायुष्यं व्याधिनाशनम्।

भुक्तिमुक्तिप्रदं दिव्यं वासुदेवस्य कीर्तन्म्।।4।।

'वासुदेव' नाम का दिव्य कीर्तन संपूर्ण मंगलें में भी परम मंगलकारी, आयु की वृद्धि करने वाला, रोगनाशक तथा भोग और मोक्ष प्रदान करन वाला है। (4)

गीतायाः श्लोकपाठेन गोविन्दस्मृतिकीर्तनात्।

साधुदर्शनमात्रेण तीर्थकोटिफलं लभेत्।।5।।

गीता के श्लोक के पाठ से, श्रीकृष्ण के स्मरण और कीर्तन से तथा संत के दर्शनमात्र से करोड़ों तीर्थों का फल प्राप्त होता है। (5)

ॐ गुरु ॐ गुरु

ॐॐॐॐॐॐ

अनुक्रम

 जीवन की सार्थकता

जिन्ह हरिकथा सुनी नहिं काना।

श्रवन रंध्र अहिभवन समाना।।1।।

नयनन्हि संत दरस नहिं देखा।

लोचन मोरपंख कर लेखा।।2।।

ते सिर कटु तुंबरि समतूला।

जे न नमत हरि गुर पद मूला।।3।।

जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी।

जीवत सव समान तेइ प्रानी।।4।।

जो नहिं करई राम गुन गाना।

जीह सो दादुर जीह समाना।।5।।

कुलिस कठोर निठुर सोई छाती।

सुनि हरिचरित न जो हरषाती।।6।।

सोऽहमस्मि इति बृति अखंडा।

दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा।।7।।

आतम अनुभव सुख सुप्रकासा।

तब भव मूल भेद भ्रम नासा।।8।।

ॐ गुरु ॐ गुरु

ॐॐॐॐॐॐ

अनुक्रम

 परम स्नेही संत

स्वर्ग मृत्यु पाताल में पूर तीन सुख नांहि।

सुख साहिब के भजन में अरु संतन के माँहि।।1।।

संतन ही में पाइये राम मिलन कौ घाट।

सहजै ही खुलि जात है 'सुंदर' हृदय कपाट।।2।।

संत मुक्ति के पोरिया तिनसों करिये प्यार।

कूँचि उनके हाथ है 'सुंदर' खोलहि द्वार।।3।।

'सुंदर' आये संत जन मुक्त करन को जीव।

सब अज्ञान मिटाइ करि करत जीव तै शिव।।4।।

संतन की सेवा किये हरि के सेवा होय।

तातैं 'सुंदर' एक ही मति करि जानै दोय।।5।।

सहजो भज हरिनाम को छाँडि जगत का नेह।

अपना तो कोई है नहीं अपनी सगी न देह।।6।।

पातक उपपातक महा जेते पातक और।

नाम लेत तत्काल सब जरत खरत तेहि ठौर।।7।।

तिमिर गया रवि देखते कुमति गई गुरुज्ञान।

सुमति गई अति लोभ से भक्ति गई अभिमान।।8।।

जैसी प्रीति कुटुंब की तैसी गुरु से होय।

कहैं कबीर ता दास को पला न पकड़ै कोय।।9।।

जो कोय निंदे साधु को संकट आवे सोय।

नरक जाय जनमै मरै मक्ति कबहुँ नहीं होय।।10।।

बहुत पसारा मत करो कर थोड़े की आस।

बहुत पसारा जिन किया तेई गये निराश।।11।।

कपटी मित्र न कीजिये पेट पैठि बुधि लेत।

आगे रह दिखाय के पीछे धक्का देत।।12।।

कोटि करम लागै रहै एक क्रोध की लार।

किया कराया सब गया जब आया अहंकार।।13।।

अपना तो कोई नहीं देखा ठोकि बजाय।

अपना अपना क्या करे मोह भरम लपटाय।।14।।

दीप कूँ झोला पवन है नर कूँ झोला नारि।

ज्ञानी झोला गर्व है कहै कबीर पुकारि।।15।।

दोष पराया देखि करि चले हंसत हंसत।

अपना याद न आवई जा का आदि न अंत।।16।।

लोभ मूल है दुःख को लोभ पाप को बाप।

लोभ फँसे जे मूढ़जन सहैं सदा संताप।।17।।

दरसन को तो साधु हो सुमिरन को गुरुनाम।।18।।

सुख देवे दुःख को हरे करे पाप का का अंत।

कह कबीर वे कब मिलें परम स्नेही संत।।19।।

तीरथ नहाये एक फल संत मिले फल चार।

सदगुरु मिले अनंत फल कहे कबीर विचार।।20।।

आवत साधु न हरखिया जात न दीना रोय।

कहैं कबीर वा दास की मुक्ति कहाँ ते होय।।21।।

साधु मिले साहिब मिले अंतर रही न रेख।

मनसा वाचा कर्मणा साधु साहिब एक।।22।।

कोटि कोटि तीरथ करै कोटि कोटि करू धाम।

जब लग साधु न सेवई तब लग काचा काम।।23।।

अड़सठ तीरथ जो फिरै कोटि यज्ञ व्रत दान।

'सुंदर' दरसन साधु के तुलै नहीं कुछ आन।।24।।

मैं अपराधी जनम का नख सिख भरा विकार

तुम दाता दुःख भंजना मेरी करो सँभार।।25।।

सुरति करो मेरे साईयाँ हम हैं भवजल माँहि।

आप ही बह जाएँगे जो नहीं पकरो बाँहि।।26।।

ॐ गुरु ॐ गुरु

ॐॐॐॐॐॐ

अनुक्रम

 संत मिलन को जाइये

दुर्लभ मानुषो देहो देहीनां क्षणभंगुरः।

तत्रापि दुर्लभं मन्ये वैकुण्ठप्रियदर्शनम्।।1।।

मनुष्य-देह मिलना दुर्लभ है। वह मिल जाय फिर भी क्षणभंगुर है। ऐसी क्षणभंगुर मनुष्य-देह में भी भगवान के प्रिय संतजनों का दर्शन तो उससे भी अधिक दुर्लभ है।(1)

नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न वै।

मदभक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद।।2।।

हे नारद ! कभी मैं वैकुण्ठ में भी नहीं रहता, योगियों के हृदय का भी उल्लंघन कर जाता हूँ, परंतु जहाँ मेरे प्रेमी भक्त मेरे गुणों का गान करते हैं वहाँ मैं अवश्य रहता हूँ। (2)

 

कबीर सोई दिन भला जो दिन साधु मिलाय।

अंक भरै भरि भेंटिये पाप शरीरां जाय।।1।।

कबीर दरशन साधु के बड़े भाग दरशाय।

जो होवै सूली सजा काटै ई टरी जाय।।2।।

दरशन कीजै साधु का दिन में कई कई बार।

आसोजा का मेह ज्यों बहुत करै उपकार।।3।।

कई बार नहीं कर सकै दोय बखत करि लेय।

कबीर साधू दरस ते काल दगा नहीं देय।।4।।

दोय बखत नहीं करि सकै दिन में करु इक बार।

कबीर साधु दरस ते उतरे भौ जल पार।।5।।

दूजै दिन नहीं कर सकै तीजै दिन करू जाय।

कबीर साधू दरस ते मोक्ष मुक्ति फल जाय।।6।।

तीजै चौथे नहीं करै सातैं दिन करु जाय।

या में विलंब न कीजिये कहै कबीर समुझाय।।7।।

सातैं दिन नहीं करि सकै पाख पाख करि लेय।

कहै कबीर सो भक्तजन जनम सुफल करि लेय।।8।।

पाख पाख नहीं करि सकै मास मास करु जाय।

ता में देर न लाइये कहै कबीर समुझाय।।9।।

मात पिता सुत इस्तरी आलस बंधु कानि।

साधु  दरस को जब चलै ये अटकावै खानि।।10।।

इन अटकाया ना रहै साधू दरस को जाय।

कबीर सोई संतजन मोक्ष मुक्ति फल पाय।।11।।

साधु चलत रो दीजिये कीजै अति सनमान।

कहै कबीर कछु भेंट धरूँ अपने बित अनुमान।।12।।

तरुवर सरोवर संतजन चौथा बरसे मेह।

परमारथ के कारणे चारों धरिया देह।।13।।

संत मिलन को जाइये तजी मोह माया अभिमान।

ज्यों ज्यों पग आगे धरे कोटि यज्ञ समान।।14।।

तुलसी इस संसार में भाँति भाँति के लोग।

हिलिये मिलिये प्रेम सों नदी नाव संयोग।।15।।

चल स्वरूप जोबन सुचल चल वैभव चल देह।

चलाचली के वक्त में भलाभली कर लेह।।16।।

सुखी सुखी हम सब कहें सुखमय जानत नाँही।

सुख स्वरूप आतम अमर जो जाने सुख पाँहि।।17।।

सुमिरन ऐसा कीजिये खरे निशाने चोट।

मन ईश्वर में लीन हो हले न जिह्वा होठ।।18।।

दुनिया कहे मैं दुरंगी पल में पलटी जाऊँ।

सुख में जो सोये रहे वा को दुःखी बनाऊँ।।19।।

माला श्वासोच्छ्वास की भगत जगत के बीच।

जो फेरे सो गुरुमुखी न फेरे सो नीच।।20।।

अरब खऱब लों धन मिले उदय अस्त लों राज।

तुलसी हरि के भजन बिन सबे नरक को साज।।21।।

साधु सेव जा घर नहीं सतगुरु पूजा नाँही।

सो घर मरघट जानिये भूत बसै तेहि माँहि।।22।।

निराकार निज रूप है प्रेम प्रीति सों सेव।

जो चाहे आकार को साधू परतछ देव।।23।।

साधू आवत देखि के चरणौ लागौ धाय।

क्या जानौ इस भेष में हरि आपै मिल जाय।।24।।

साधू आवत देख करि हसि हमारी देह।

माथा का ग्रह उतरा नैनन बढ़ा सनेह।।25।।

ॐ गुरु ॐ गुरु

ॐॐॐॐॐॐ

अनुक्रम

श्रीमद् आद्य शंकराचार्यविरचितम्

गुर्वष्टकम्

शरीरं सुरुपं तथा वा कलत्रं

यशश्चारू चित्रं धनं मेरुतुल्यम्।

मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे

ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।1।।

यदि शरीर रुपवान हो, पत्नी भी रूपसी हो और सत्कीर्ति चारों दिशाओं में विस्तरित हो, मेरु पर्वत के तुल्य अपार धन हो, किंतु गुरु के श्रीचरणों में यदि मन आसक्त न हो तो इन सारी उपलब्धियों से क्या लाभ?

कलत्रं धनं पुत्रपौत्रादि सर्वं

गृहं बान्धवाः सर्वमेतद्धि जातम्।

मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे

ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।2।।

सुन्दरी पत्नी, धन, पुत्र-पौत्र, घर एवं स्वजन आदि प्रारब्ध से सर्व सुलभ हो किंतु गुरु के श्रीचरणों में मन की आसक्ति न हो तो इस प्रारब्ध-सुख से क्या लाभ?

षडंगादिवेदो मुखे शास्त्रविद्या

कवित्वादि गद्यं सुपद्यं करोति।

मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे

ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।3।।

वेद एवं षटवेदांगादि शास्त्र जिन्हें कंठस्थ हों, जिनमें सुन्दर काव्य-निर्माण की प्रतिभा हो, किंतु उसका मन यदि गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न हो तो इन सदगुणों से क्या लाभ?

विदेशेषु मान्यः स्वदेशेषु धन्यः

सदाचारवृत्तेषु मत्तो न चान्यः।

मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे

ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।4।।

जिन्हें विदेशों में समादर मिलता हो, अपने देश में जिनका नित्य जय-जयकार से स्वागत किया जाता हो और जो सदाचार-पालन में भी अनन्य स्थान रखता हो, यदि उसका भी मन गुरु के श्रीचरणों के प्रति अनासक्त हो तो इन सदगुणों से क्या लाभ?

क्षमामण्डले भूपभूपालवृन्दैः

सदा सेवितं यस्य पादारविन्दम्।

मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे

ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।5।।

जिन महानुभाव के चरणकमल पृथ्वीमण्डल के राजा-महाराजाओं से नित्य पूजित रहा करते हों, किंतु उनका मन यदि गुरु के श्री चरणों में आसक्त न हो तो इसे सदभाग्य से क्या लाभ?

यशो मे गतं दिक्षु दानप्रतापात्

जगद्वस्तु सर्वं करे सत्प्रसादात्।

मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे

ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।6।।

दानवृत्ति के प्रताप से जिनकी कीर्ति दिगदिगान्तरों में व्याप्त हो, अति उदार गुरु की सहज कृपादृष्टि से जिन्हें संसार के सारे सुख-ऐश्वर्य हस्तगत हों, किंतु उनका मन यदि गुरु के श्रीचरणों में आसक्तिभाव न रखता हो तो इन सारे ऐश्वर्यों से क्या लाभ?

न भोगे न योगे न वा वाजिराजौ

न कान्तासुखे नैव वित्तेषु चित्तम्।

मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे

ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।7।।

जिनका मन भोग, योग, अश्व, राज्य, धनोपभोग और स्त्रीसुख से कभी विचलित न हुआ हो, फिर भी गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न बन पाया हो तो इस मन की अटलता से क्या लाभ?

अरण्ये न वा स्वस्य गेहे न कार्ये

न देहे मनो वर्तते मे त्वनर्घ्ये।

मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे

ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।8।।

जिनका मन वन या अपने विशाल भवन में, अपने कार्य या शरीर में तथा अमूल्य भंडार में आसक्त न हो, पर गुरु के श्रीचरणों में भी यदि वह मन आसक्त न हो पाये तो उसकी सारी अनासक्तियों का क्या लाभ?

अनर्घ्याणि रत्नादि मुक्तानि सम्यक्

समालिंगिता कामिनी यामिनीषु।

मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे

ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।9।।

अमूल्य मणि-मुक्तादि रत्न उपलब्ध हो, रात्रि में समलिंगिता विलासिनी पत्नी भी प्राप्त हो, फिर भी मन गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न बन पाये तो इन सारे ऐश्वर्य-भोगादि सुखों से क्या लाभ?

गुरोरष्टकं यः पठेत्पुण्यदेही

यतिर्भूपतिर्ब्रह्मचारी च गेही।

लभेत् वांछितार्थ पदं ब्रह्मसंज्ञं

गुरोरुक्तवाक्ये मनो यस्य लग्नम्।।10।।

जो यती, राजा, ब्रह्मचारी एवं गृहस्थ इस गुरु-अष्टक का पठन-पाठन करता है और जिसका मन गुरु के वचन में आसक्त है, वह पुण्यशाली शरीरधारी अपने इच्छितार्थ एवं ब्रह्मपद इन दोनों को सम्प्राप्त कर लेता है यह निश्चित है।

ॐ गुरु ॐ गुरु

ॐॐॐॐॐॐ

अनुक्रम

हम भारत देश के वासी हैं

हम भारत देश के वासी हैं, हम ऋषियों के संताने हैं।

हम जगदगुरु के बालक हैं, हम परम गुरु के बच्चे हैं।।1।।

हम देवभूमि के वासी हैं, हम सोहं नाद जगायेंगे।

हम शिवोहं शिवोहं गायेंगे, हम नयी चेतना लायेंगे।।2।।

हम भारत देश के....

हम संयमी जीवन जियेंगे, हम भारत महान बनायेंगे।

हम प्रभु के गीत गायेंगे, हम दिव्य शक्ति बढ़ायेंगे।।3।।

हम भारत देश के...

हम भारत भर में घूमेंगे, हम गुरु संदेश सुनायेंगे।

हम आत्म-जागृत पायेंगे, हम नयी रोशनी लायेंगे।।4।।

हम भारत देश के....

हम गुरु का ज्ञान पचायेंगे, हम बड़भागी हो जायेंगे।

हम जीवन्मुक्ति पायेंगे, हम गुरु की शान बढ़ायेंगे।।5।।

हम भारत देश के....

ॐ गुरु ॐ गुरु

ॐॐॐॐॐॐ

अनुक्रम

गुरुवार भजन

आज तो गुरुवार है, सदगुरुजी का वार है।

गुरुभक्ति का पी लो प्याला, पल में बेड़ा पार है।।1।।

गुरुचरणों का ध्यान लगाओ, निर्मल मन हो जायेगा।

तन मन धन गुरु चरण चढ़ाकर, विनती बारंबार है।।2।।

प्रभु को भूल गये औ प्यारे ! माया में लिपटाए हो।

पूर्व पुण्य से नर तन पाया, मिले न बारंबार है।।3।।

गुरुभक्ति से प्रभु मिलेंगे, बिन गुरु गोता खायेगा।

भवसागर में डूबी नैया, सदगुरु तारणहार हैं।।4।।

गुरु आसारामजी ज्ञान के दाता, भक्तों का कल्याण करो।

निर्मोही बलिहार है, अर्जी बारंबार है।।5।।

ॐ गुरु ॐ गुरु

ॐॐॐॐॐॐ

अनुक्रम

दोहे

सदगुरु मेरा शूरमा, करे शब्द की चोट।

मारे गोला प्रेम का, हरे भरम की कोट।।1।।

देखा अपने आपको, मेरा दिल दीवाना हो गया।

ना छेड़ो मुझे यारों, मैं खुद पे मस्ताना हो गया हो।।2।।

चतुराई चूल्हे पड़ी, पूर पड़यो आचार।

तुलसी हरि के भजन बिन चारों वर्ण चमार।।3।।

एक घड़ी आधी घड़ी आधी में पुनि आध।

तुलसी संगत साधु की, हरे कोटि अपराध।।4।।

सत्संग सेवा साधना, सत्पुरुषों का संग।

ये चारों करते तुरंत, मोह निशा का भंग।।5।।

यह तन विष की बेलड़ी, गुरु अमृत की खान।

शिर दीजै सदगुरु मिले, तो भी सस्ता जान।।6।।

कबीरा यह तन जात है, राख सके तो राख।

खाली हाथों वे गये, जिन्हें करोड़ों और लाख।।7।।

सब घट मेरा साँईया, खाली घट ना कोय।

बलिहारी वा घट की, जा घट प्रकट होय।।8।।

कबीरा कुआँ एक है, पनिहारी अनेक।

न्यारे न्यारे बर्तनों में, पानी एक का एक।।9।।

तुलसी जग में यूँ रहो, ज्यों रसना मुख माँही।

खाती घी और तेल नित, तो भी चिकनी नाँही।।10।।

पानी केरा बुलबुला, यह मानव की जात।

देखत ही छुप जात है, ज्यों तारा प्रभात।।11।।

चिंता ऐसी डाकिनी, काटि कलेजा खाय।

वैद्य बिचारा क्या करे, कहाँ तक दवा खिलाय।।12।।

एक भूला दूजा भूला, भूला सब संसार।

बिन भूला एक गोरखा, जिसको गुरु का आधार।।13।।

ॐ गुरु ॐ गुरु

ॐॐॐॐॐॐ

अनुक्रम

सदगुरु

साथी सगे सब स्वार्थ के हैं, स्वार्थ का संसार है।

निःस्वार्थ सदगुरुदेव हैं, सच्चा वही हितकार है।।1।।

ईश्वर कृपा होवे तभी, सदगुरु कृपा जब होय है।

सदगुरु कृपा बिनु ईशु भी, नहीं मैल मन का धोय है।।2।।

निर्जीव सारे शास्त्र सच्चा, मार्ग ही दिखलायँ हैं।

दृढ़ ग्रन्थि चिज्जड़ खोलने की, युक्ति नहीं बतलायँ हैं।।3।।

निस्संग होने के सबब से, ईश भी रुक जाय है।

गुरु गाँठ खोलन रीति तो, गुरुदेव ही बतलाय है।।4।।

गुरुदेव अदभुत रूप हैं, परधाम माहि विराजते।

उपदेश देने सत्य का, इस लोक में आजावते।।5।।

दुर्गम्य का अनुभव कर, भय से परे ले जावते।

परधाम में पहुँचाय कर, स्वराज्य पद दिलवावते।।6।।

छुडवाय कर सब कामना, कर देय हैं निष्कामना।

सब कामनाओं का बता घर, पूर्ण करते कामना।।7।।

मिथ्या विषय सुख से हटा, सुख सिंधु देते हैं बत।

सुख सिंधु जल से पूर्ण, अपना आप देते हैं जता।।8।।

तनु, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि सब सम्बंध छुड़वा देय हैं।

अणु को बृहत करि सूर्य ज्यों, जग माँहि चमका देय है।।9।।

आधार सारे विश्व का, सब हि जो अध्यक्ष है।

सो ही बनाते जीव को, ब्रह्माण्ड जिसका साक्ष्य है।।10।।

इक तुच्छ वस्तु छीन कर, आपत्तियाँ सब मेट कर।

प्याला पिलाकर अमृत का, मर को बनाते हैं अमर।।11।।

सब भाँति से कृतकृत्य कर, परतंत्र को निज तंत्र कर।

अधिपति रहित देते बना, भय से छुटा करते निडर।।12।।

कंचन बनाते देह को, रज, मैल सब हर लेय हैं।

ले काँच कच्चा हाथ से, कौस्तुभमाणी दे देय हैं।।13।।

इस लोक से, परलोक से, सब कर्म से, सब धर्म से।

पर तत्त्व में  पहुँचाय कर, ऊँचा करे हैं सर्व से।।14।।

सदगुरु जिसे मिल जायें, सो ही धन्य है जग मन्य है।

सुर सिद्ध उसको पूजते, ता सम न कोऊ अन्य है।।15।।

अधिकारी हो गुरु देव से, उपदेश  नर पाय है।

भोला ! तरे संसार से, नहिं गर्भ में फिर आय है।।16।।

ॐ गुरु ॐ गुरु

ॐॐॐॐॐॐ

अनुक्रम

निगुरे नहीं रहना

सुन लो चतुर सुजान निगुरे नहीं रहना....

निगुरे का नहीं कहीं ठिकाना चौरासी में आना जाना।

पड़े नरक की खान निगुरे नहीं रहना....

गुरु बिन माला क्या सटकावे मनवा चहुँ दिश फिरता जावे।

यम का बने मेहमान निगुरे नहीं रहना....

सुन लो....

हीरा जैसी सुंदर काया हरि भजन बिन जनम गँवाया।

कैसे हो कल्याण निगुरे नहीं रहना...

सुन लो....

निगुरा होता हिय का अंधा खूब करे संसार का धंधा।

क्यों करता अभिमान निगुरे नहीं रहना....

सुन लो...

ॐ गुरु ॐ गुरु

ॐॐॐॐॐॐ

अनुक्रम

हे प्रभु ! आनन्ददाता

हे प्रभु ! आनन्ददाता ज्ञान हमको दीजिये।

शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिये।।

लीजिए हमको शरण में हम सदाचारी बनें।

ब्रह्मचारी धर्मरक्षक वीर व्रतधारी बनें।।

हे प्रभु....

निंदा किसी की हम किसी से भूलकर भी ना करें।

ईर्ष्या कभी भी हम किसी से भूलकर भी ना करें।।

हे प्रभु....

सत्य बोलें झूठ त्यागें मेल आपस में करें।

दिव्य जीवन हो हमारा यश तेरा गाया करें।।

हे प्रभु....

जाये हमारी आयु हे प्रभु ! लोक के उपकार में।

हाथ डालें हम कभी न भूलकर अपकार में।।

हे प्रभु....

मातृभूमि मातृसेवा हो अधिक प्यारी हमें।

देश की सेवा करें निज देश हितकारी बनें।।

हे प्रभु....

कीजिए हम पर कृपा ऐसी हे परमात्मा !

मोह मद मत्सर रहित होवे हमारी आत्मा।।

हे प्रभु....

प्रेम से हम गुरुजनों  की नित्य ही सेवा करें।

प्रेम से हम दुःखीजनों की नित्य ही सेवा करें।।

हे प्रभु...

ॐ गुरु ॐ गुरु

ॐॐॐॐॐॐ

अनुक्रम

नानक वाणी

गिआन अंजनु गुरि दीआ अगिआन अंधेर बिनासु।।

हरि किरपा ते संत भेटिया नानक मन परगासु।।1।।

हरि सजणु गुरु सेवदा गुर करणी परधानु।।

नानक नामु न वीसरै करमि सचै नीसाणु।।2।।

बलिहारी गुरु आपणे दिलहाड़ी सदवार।।

जिनि माणस ते देवते कीए करत न लागी वार।।3।।

वाहिगुरु नाम जहाज है चढ़े सो उतरे पार।।

जो श्रद्धा कर सेंवदे नानक पार उतार।।4।।

गुर की मूरति मन महि धिआनु गुर कै सबदि मंत्रु भनु मान।।

गुर के चरन रिदै लै धारउ गुरु पारब्रहमु सदा नमसकारउ।।5।।

घटि घटि मैं हरि जू बसै संतन कहिओ पुकारि।।

कहु नानक तिह भजु मना भउ निधि उतरहि पारि।।6।।

भै नासन दुरमति हरन कलि मैं हरि को नाम

निस दिन जो नानक भजै सफल होहि तिह काम।।7।।

जिहबा गुन गोबिंद भजहु करन सुनहु हरि नाम।।

कहु नानक सुन रे मना परहि न जम कै धाम।8।।

जनम जनम भरमत फिरिओ मिटिओ न जम को त्रासु।।

कहु नानक हरि भजु मना निरभै पावहि बासु।।9।।

जतन बहुत सुख के कीए दुःख को कीओ न कोइ।।

कहु नानक सुन रे मना हरि भावै सो होइ।।10।।

जगतु भिखारी फिरतु है सभ को दाता राम।।

कहु नानक मन सिमरु तिन पूरन होवहि काम।।11।।

तीरथ बरत अरु दान करि मन मैं धरै गुमानु।।

नानक निहफल जात तिहि जिउ कुंचर इसनानु।।12।।

जग रचना सब झूठ है जानि लेहु रे मीत।।

कहि नानक थिरु ना रहै जिउ बालू की भीत।।13।।

राम गइओ रावनु गइयो जा कउ बहु परवार।।

कहु नानक थिरु कछु नही सुपने जिउ संसारि।।14।।

चिंता ताकि कीजिये जो अनहोनि होइ।।

इह मारगु संसार को नानक थिरु नही कोइ।।15।।

संग सखा सभ तजि गये कोउ न निबहिओ साथ।।

कहु नानक इह बिपत मैं टेक एक रघुनाथ।।16।।

लालच झूठ बिकार मोह बिआपत मूड़े अंध।।

लागि परे दुरगंध सिउ नानक माइआ बंध।।17।।

तनु मनु धुन अरपउ तिसै प्रभु मिलावै मोहि।।

नानक भ्रम भउ काटीऐ चूकै जम की जोह।।18।।

पति राखी गुरि पारब्रहम तजि परपंच मोह बिकार।।

नानक सोऊ आराधीऐ अंतु न पारावारु।।19।।

आए प्रभ सरनागति किरपा निधि दइहाल।।

एक अखरु हरि मन बसत नानक होत निहाल।।20।।

देनहारु प्रभ छोडि कै लागहि आन सुआइ।।

नानक कहू न सीझई बिनु नावै पति जाइ।।21।।

उसतति करे अनेक जन अंतु न पारावार।।

नानक रचना प्रभि रची बहु बिधि अनिक प्रकार।।22।।

करण करण प्रभु एकु है दूसर नाही कोइ।।

नानक तिसु बलिहारणी जलि थलि मही अलि सोइ।।23।।

संत सरनि जो जनु परै सो जनु उधरनहार।।

संत की निंदा नानका बहुरि बहुरि अवतार।।24।।

सरब कला भरपूर प्रभ बिरथा जाननहार।।

जा कै सिमरनि उधरीऐ नानक तिसु बलिहार।।25।।

रूप न रेख न रंगु किछु त्रिहु गुण ते प्रभ भिंन।।

तिसहि बुझाए नानका जिसु होवै सुप्रसंन।।26।।

सति पुरखु जिनि जानिआ सतिगुरु तिस का नाउ।।

तिस कै संगि सिखु उधरै नानक हरिगुन गाउ।।27।।

फिरत फिरत प्रभ आइआ परिआ तउ सरनाइ।।

नानक की प्रभ बेनती अपनी भगति लाइ।।28।।

गुन गोबिंद गाइओ नहीं जनमु अकारथ कीन।।

कहु नानक हरि भजु मना जिहि बिधि जल को मीन।।29।।

तरनापो इउ ही गइओ लीओ जरा तनु जीति।।

कहु नानक भज हरि मना अउध जातु है बीति।।30।।

धनु दारा संपति सगल जिनि अपुनी करि मानि।।

इन मैं कुछ संगी नही नानक साचि जानि।।31

पतित उधारन भै हरन हरि अनाथ के नाथ।।

कहु नानक तिह जानिऐ सदा बसतु तुम साथ।।32।।

सभ सुख दाता राम है दूसर नाहिन कोइ।।

कहु नानक सुनि रे मना तिह सिमरत गति होइ।।33।।

जिह सिमरत गति पाईऐ तिहि भजु रे तै मीत।।

कहु नानक सुन रे मना अउध घटत है नीत।।34।।

पांच तत को तनु रचिओ जानहु चतुर सुजान।।

जिह ते उपजिओ नानका लीन ताहि मै मान।।35।।

सुख दुखु जिह परसै नही लोभ मोह अभिमानु।।

कहु नानक सुन रे मना सो मूरति भगवान।।36।।

उसतति निंदिआ नाहि जिहि कंचन लोह समानि।।

कहु नानक सुनु रे मना मुकति ताहि तै जानि।।37।।

हरख सोग जा कै नहीं बैरी मीत समान।।

कहु नानक सुनि रे मना मुकति ताहि तै जान।।38।।

जिहि माइआ ममता तजी सभ ते भइओ उदास।।

कहु नानक सुन रे मना तिहि घटि ब्रहम निवासु।।39।।

जो प्रानी ममता तजै लोभ मोह अहंकार।।

कहु नानक आपन तरै अउरन लेत उधार।।40।।

जिउ सुपना अरु पेखना ऐसे जग कउ जानि।।

इन मै कछु साचो नही नानक बिन भगवान।।41।।

निस दिन माइआ कारने प्रानी डोलत नीत।।

कोटन मै नानक कोऊ नाराइन जिह चीत।।42।।

जैसे जल ते बुदबुदा उपजै बिनसै नीत।।

जग रचना तैसे रची कहु नानक सुनु मीत।।43।।

प्रानी कछू न चेतई मदि माइआ कै अंध।।

कहु नानक बिन हरि भजन परत ताहि जम फंध।।44।।

जउ सुख कउ चाहै सदा सरनि राम की लेह।।

कहु नानक सुन रे मना दुरलभ मानुख देह।।45।।

माइआ कारनि धावही मूरख लोग अजान।।

कहु नानक बिनु हरि भजन बिरथा जनमु सिरान।।46।।

जो प्रानी निसि दिनि भजे रूप राम तिह जानु।।

हरि जनि हरि अंतरु नही नानक साची मानु।।47।।

मनु माइआ मै फधि रहिओ बिसरिओ गोबिंद नाम।।

कहु नानक बिनु हरि भजन जीवन कउने काम।।48।।

सुख मै बहु संगी भए दुख मै संगि न कोइ।।

कहु नानक हरि भजु मना अंति सहाई होइ।।49।।

दीन दरद दुख भंजना घटि घटि नाथ अनाथ।।

सरणि तुमारी आइयो नानक के प्रभ साथ।।50।।

काम क्रोध अरु लोभ मोह बिनसु जाइ अहंमेव।।

नानक प्रभ सरणागति करि प्रसादु गुरदेव।।51।।

(सुखमनि साहिब, महला-1.5.9, आसा दी वार व बावन अखरी में से)

ॐ गुरु ॐ गुरु

ॐॐॐॐॐॐ

अनुक्रम

गुरु समीप पुनि करियो बासा, जो अति उत्कट हे जिज्ञासा।

गुरु मूरति को हियमें ध्याना धारै जो चाहे कल्याना।।1।।

मन की जानै सब गुरु, कहाँ छिपावै अंध।

सदगुरु सेवा कीजिए, सब कट जावे फंद।।2।।

निश्चलदासजी (विचार सागर)

वेद उदधि बिन गुरु लखे लागे लौन समान।

बादल गुरु मुख द्वार है अमृत से अधिकान।।

ॐ गुरु ॐ गुरु

ॐॐॐॐॐॐ

अनुक्रम

इस योग्य हम कहाँ हैं

इस योग्य हम कहाँ हैं, गुरुवर तुझे रिझायें।

फिर भी मना रहे हैं, शायद तू मान जाये।।

जब से जनम लिया है, विषयों ने हमको घेरा।

छल और कपट ने डाला, इस भोले मन पे डेरा।

सदबुद्धि को अहम् ने, हरदम रखा दबाये।।

इस योग्य....

निश्चय ही हम पतित हैं, लोभी हैं स्वार्थी हैं।

तेरा ध्यान जब लगायें, माया पुकारती है।

सुख भोगने की इच्छा, कभी तृप्ति हो न पाये।।

इस योग्य....

जग में जहाँ भी देखा, बस एक ही चलन है।

इक दूसरे के सुख में, खुद को बड़ी जलन है।

कर्मों का लेखा जोखा, कोई समझ न पाये।।

इस योग्य...

जब कुछ न कर सके तो, तेरी शरण में आये।

अपराध मानते हैं, झेलेंगे सब सजायें।

बस दरश तू दिखा दे, कुछ और हम न चाहें।।

इस योग्य....

ॐ गुरु ॐ गुरु

ॐॐॐॐॐॐ

अनुक्रम

हमें गुरुदेव तेरा सहारा

हमें गुरुदेव तेरा सहारा न मिलता।

ये जीवन हमारा दुबारा न खिलता।।

साँसों की सरगम मध्यम हुई थी।

जीने की आशा भी धूमिल हुई थी।

तेरे नाम का जो सहारा न मिलता।

ये जीवन हमारा दुबारा न खिलता।।

रिश्तों की चौखट पे ठोकर है खाई।

अपने परायों की समझ भी न आई।

सच्चा जो तेरा रिश्ता न मिलता।

ये जीवन हमारा दुबारा न खिलता।।

किस्मत की मौजों ने कश्ती डुबोयी।

जब सब लुटा तो तेरी याद आई।

अगर मेरी किश्ती को सहारा न मिलता।

ये जीवन हमारा दुबारा न खिलता।।

ॐ गुरु ॐ गुरु

ॐॐॐॐॐॐ

अनुक्रम

ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु।

सह वीर्य करवावहै।

तेजस्वि नावधीतमस्तु। मा विद्विषावहै।

ॐ शांतिः ! शांतिः !! शांतिः !!!

ॐ गुरु ॐ गुरु

ॐॐॐॐॐॐ

अनुक्रम

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।

ॐ शांतिः ! शांतिः !! शांतिः !!!

ॐ गुरु ॐ गुरु

ॐॐॐॐॐॐ

अनुक्रम

केवल जलमय तीर्थ ही तीर्थ नहीं कहलाते और केवल मिट्टी या पत्थर की प्रतिमाएँ ही देवता नहीं होतीं। संत पुरुष ही वास्तव में तीर्थ और देवता हैं, क्योंकि तीर्थ और प्रतिमा का बहुत समय तक सेवन किया जाय, तब वे पवित्र करते हैं परन्तु संत पुरुष तो दर्शनमात्र से ही कृतार्थ कर देते हैं। अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, तारे, पृथ्वी, जल, आकाश, वायु, वाणी और मन के अधिष्ठातृ देवता उपासना करने पर भी पाप का पूरा-पूरा नाश नहीं कर सकते, क्योंकि उनकी उपासना से भेदबुद्धि का नाश नहीं होता, वह और भी बढ़ती है। परंतु यदि घड़ी दो घड़ी भी ज्ञानी महापुरुषों की सेवा की जाय तो वे सारे पाप-ताप मिटा देते हैं, क्योंकि वे भेदबुद्धि के विनाशक हैं। (श्रीमद् भागवत)

ॐ शांतिः ! शांतिः !! शांतिः !!!

ॐ गुरु ॐ गुरु

ॐॐॐॐॐॐ

अनुक्रम