परम पूज्य बापू जी का पावन संदेश

बच्चे कच्चे घड़े के समान होते हैं। बाल्यावस्था में ही बच्चे के अंदर भक्ति, ध्यान, संयम के संस्कार पड़ जायें तो वह भौतिक उन्नति के साथ-साथ मानव-जीवन का परम लक्षय ईश्वरप्राप्ति भी शीघ्र ही कर सकता है। बच्चे ने अपना विद्यार्थी-जीवन काल सँभाल लिया तो उसका भावी जीवन भी सँभल जाता है क्योंकि बाल्यकाल के संस्कार ही बच्चे के जीवन की आधारशिला हैँ।

कहाँ तो पूर्वकाल के भक्त प्रह्लाद, बालक ध्रुव, आरूणी, एकलव्य, श्रवण कुमार जैसे परम गुरूभक्त, मातृ-पितृभक्त बालक और कहाँ आज के अनुशासनहीन, उद्दण्ड एवं उच्छृंखल बच्चे! उनकी तुलना आज के नादान बच्चों से कैसे करें?

प्राचीन युग के माता-पिता अपने बच्चों को वेद, उपनिषद एवं गीता के कल्याण कारी श्लोक सिखाकर उन्हें सुसंस्कृत बनाते थे। वहीं आजकल के माता-पिता अपने बच्चों को गंदी एवं विनाशकारी फिल्मों के गीत सिखलाने में बड़ा गर्व महसूस करते हैं। यही कारण है कि प्राचीन युग में श्रवणकुमार जैसे मातृ-पितृभक्त पैदा हुए जो अंत समय तक माता-पिता की सेवा-शुश्रुषा करके अपना जीवन धन्य कर देते हैं और आज की संतानें तो पत्नी आयी कि बस माता-पिता से कह देते हैं कि तुम-तुम्हारे हम हमारे। कई तो ऐसी कुसंतानें निकल जाती हैं कि बेचारे माँ-बाप को ही धक्का देकर घर से बाहर निकाल देती हैं।

प्राचीन काल की गुरूकुल शिक्षा-पद्धति शिक्षा की एक सर्वोत्तम व्यवस्था थी। गुरूकुल में बालक निष्काम सेवापरायण, विद्वान एवं आत्मविद्या-सम्पन्न गुरूओं की निगरानी में रहने के पश्चात् देश व समाज का गौरव बढ़ायें, ऐसे युवक बनकर ही निकलते थे।

दुर्भाग्य से आजकल के विद्यालयों में तो मैकाले-शिक्षा-प्रणाली के द्वारा बालकों को ऐसी दूषित शिक्षा दी जा रही है कि उनमें संयम-सदाचार का नितांत अभाव है। बेचारे बेटे-बेटियाँ इस मैकाले शिक्षा-पद्धति से उद्दण्ड होते जा रहे हैं।

पाश्चात्य सभ्यता का अंधानुकरण करने वाले विद्यार्थियों को आज उचित मार्गदर्शन की बहुत आवश्यकता है और इस आवश्यकता को आप बाल संस्कार केन्द्र के माध्यम से पूरा कर सकते हैं।

आप अपने घर या अड़ोस-पड़ोस में बाल संस्कार केन्द्र खोलें। केन्द्र के माध्यम से आप बच्चों में ऋषि-मुनियों एवं संतों के ज्ञान-प्रसाद को फैलायें, उन्हें शारीरिक एवं मानसिक रूप से सुदृढ़ बनायें, उनको स्मरणशक्ति बढ़ाने, बुद्धि को कुशाग्र एवं तेजस्वी बनाने की युक्तियाँ सिखायें। जप-ध्यान, त्राटक, प्राणायाम आदि बच्चों को सिखायें ताकि उनकी सुषुप्त शक्तियाँ जगें, वे औजस्वी-तेजस्वी बनें और परीक्षा में भी अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हों। माता-पिता का आशीर्वाद प्राप्त करने व सुखी, स्वस्थ और सम्मानित जीवन जीने की कला बच्चों को सिखायें। जिससे वे मातृ-पितृभक्त बनें और बड़े होकर देश व समाज की सेवा कर सकें। एक-एक बालक ईश्वर की अनन्त शकितयों का पुंज है। किसी में बुद्ध छुपा है तो किसी में महावीर, किसी में विवेकानन्द छुपा है तो किसी में प्रधानमन्त्री की योग्यता छुपी है। आवश्यकता है केवल उन्हें सही दिशा देने की।

हम चाहते हैं कि बाल संस्कार केन्द्र में बच्चों को ऐसा तेजस्वी बनायें कि देशवासियों के आँसू पोंछने के काम करें ये लाल और देश को फिर से विश्वगुरू के पद पर पहुँचायें।


प्रस्तावना

बाल संस्कार सेवा से जुड़े सभी साधक भाई-बहनों के सप्रेम हरि ॐ !

आपके हाथों में यह पुस्तक सौंपते हुए हमें अपार हर्ष का अनुभव हो रहा है। आशा है आप भी इसे पाकर कम आनंदित नहीं होंगे क्योंकि इसमें बाल संस्कार केन्द्र कैसे चलायें? - इस विषय में विशेष मार्गदर्शन दिया गया है, साथ ही बच्चों को सिखाने के लिये आपको इसमें हर सप्ताह नई विषय-सामग्री भी मिलेगी। ताकि बच्चों की केन्द्र में नियमित आने की रूचि बढ़े और कम समय में वे अधिकाधिक सीख सकें।

बाल संस्कार केन्द्र के शुभारंभ से लेकर प्रथम 4 माह में क्या सिखाना है - इसका पूरा विवरण इस पुस्तक में दिया गया है। इस पुस्तक की सहायता से नये केन्द्र संचालक आसानी से केन्द्र चला सकेंगे, साथ ही जो साधक पहले से केन्द्र चला रहे हैं वे भी इससे लाभान्वित होंगे, ऐसा हमें पूर्ण विश्ववास है। हम आशा रखते हैं कि इस पुस्तक के अवलोकन के पश्चात आप अपना सुझाव भेजेंगे ताकि हम और बेहतर कर सकें।

- विनीत

श्री योग वेदांत समिति, अमदावाद आश्रम।

 

अनुक्रम

 

परम पूज्य बापू जी का पावन संदेश.. 2

बाल संस्कार केन्द्र की शुरूआत कैसे करें?. 6

पाठयक्रम का उपयोग कैसे करें?. 7

बाल संस्कार केन्द्र संचालन विषय सूचि... 8

सभी सत्रों में लेने योग्य विषय.. 9

भगवान गणपति जी की स्तुति... 9

विद्या की देवी माँ सरस्वती की वन्दना... 9

गुरू-प्रार्थना... 10

ध्यान.. 11

पहला सप्ताह. 12

दूसरा सप्ताह. 19

तीसरा सप्ताह. 23

चौथा सप्ताह. 29

पाँचवाँ सप्ताह. 36

छठा सप्ताह. 41

सातवाँ सप्ताह. 45

आठवाँ सप्ताह. 49

नौवाँ सप्ताह. 50

दसवाँ सप्ताह. 57

ग्यारहवाँ सप्ताह. 59

बारहवाँ सप्ताह. 63

तेरहवाँ सप्ताह. 68

चौदहवाँ सप्ताह. 74

पन्द्रहवाँ सप्ताह. 78

सोलहवाँ सप्ताह. 84

यौगिक प्रयोग.. 90

योगासन.. 95

शशकासन.. 100

प्राणायाम-परिचय.. 104

बुद्धिशक्ति-मेधाशक्तिवर्धक प्रयोग.. 107

प्राणशक्तिवर्धक प्रयोग.. 109

टंक विद्या... 110

सूर्योपासना... 110

मुद्राज्ञान.. 113

कीर्तन.. 116

भजन.. 118

आरती... 123

श्री आसारामायण की कुछ कठिन पंक्तियों के अर्थ.. 124

नाटक.. 126

मैदानी खेल.. 129

देव-मानव हास्य प्रयोग.. 132

बाल संस्कार संबंधी कुछ महत्त्वपूर्ण जानकारी.. 134

बाल संस्कार केन्द्र की द्विमासिक रिपोर्ट. 135

सदगुरु-चरणों में मेरा संकल्प.... 139

समिति सम्मत पत्रक.. 140

आवेदन पत्र. 142

 

 

बाल संस्कार केन्द्र की शुरूआत कैसे करें?

 

 

 

 

 

 

 

 

पूज्यश्री, इष्टदेव आदि के चित्रों के समक्ष धूप-दीप, अगरबत्ती आदि करके वातावरण को सात्विक बनायें एवं फूल-माला आदि से सजावट कर कार्यक्रम की शुरूआत करें।


पाठयक्रम का उपयोग कैसे करें?

1.  प्रति सप्ताह के पाठयक्रम को दो सत्रों में विभाजित किया गया है। प्रथम सत्र गुरूवार एवं द्वितिय सत्र रविवार को चलायें।

नोटः किसी कारणवश यदि इन दिनों में सत्र न चला सकते हों तो अन्य किसी दिन चलायें।

2.  गुरूवार के प्रति सत्र में श्री आसारामायण पाठ (पूरा पाठ अथवा कुछ पृष्ठों का पाठ) अवश्य करायें।

3.  कीर्तन करवाते समय कैसेट चलायें अथवा बच्चों के साथ स्वयं मिलकर गायें। एक ही कीर्तन दो से चार सत्रों तक करायें जिससे बच्चों को कंठस्थ हो जाये।

4.  हर सत्र के कार्यक्रम के सभी विषयों का पहले से ही अच्छी तरह अध्ययन किया करें। खाली समय में उन बातों को अपने बच्चों या मित्रों का बतायें तथा उन पर चर्चा करें, इससे उस सत्र के कार्यक्रम के सभी विषय आपको अच्छी तरह याद हो जायेंगे, जिससे आप बच्चों को अच्छी तरह समझा पायेंगे।

5.  कार्यक्रम में बच्चों को जो-जो बातें सिखानी हैं, उनका एक संक्षिप्त नोट पहले ही बना लें। इससे आपको सभी बातें आसानी से याद रहेंगी तथा कोई विषय छूटने की समस्या भी नहीं रहेगी।

6.  बच्चों को एक नोटबुक बनाने को कहें, जिसमें वे गृहकार्य करेंगे और हर सप्ताह बतायी जानेवाली महत्त्वपूर्ण बातें लिखेंगे।

7.  हर सप्ताह दिये गये गृहकार्य के बारे में अगले सप्ताह बच्चों से पूछें।

8.  प्रति सत्र में सिखाये जाने वाले यौगिक प्रयोगों की विस्तृत जानकारी हेतु पढ़े यौगिक क्रिया पृष्ठ     

9.  निर्धारित समय में सभी विषयों को पूरा करने का प्रयास करें।

सूचनाः यह चार माह का पाठयक्रम है जिसकी शुरूआत वर्ष के किसी भी माह में कर सकते हैं। चार महीनों में आने वाले पर्वों एवं ऋतुओं की जानकारी बालक-बालिकाओँ को देने हेतु आश्रम से प्रकाशित मासिक पत्रिका ऋषि प्रसाद व मासिक समाचार पत्र लोक कल्याण सेतु एवं सत्साहित्य आरोग्यनिधि-भाग 1 व 2 आदि पुस्तकें सहायक होंगी।


बाल संस्कार केन्द्र संचालन विषय सूचि

1.  वार्तालाप।

2.  प्रार्थना, स्तुति आदि।

3.  ध्यान-जप-मौन-त्राटक।

4.  ज्ञानचर्चा।

5.  कथा-प्रसंग, साखी, श्लोक, प्राणवान पंक्तियाँ, संकल्प।

6.  भजन, कीर्तन, बालगीत, देशभक्ति गीत आदि।

7.  दिनचर्या।

8.  स्वास्थ्य-सुरक्षा, ऋतुचर्या व पर्व महिमा।

9.  हँसते-खेलते पायें ज्ञानः ज्ञानवर्धक खेल, मैदानी खेल, ज्ञान के चुटकुले, पहेलयाँ, विडियो सत्संग आदि तथा व्यक्तित्व विकास के प्रयोग (निबंध, प्रतियोगिता, वक्तृत्व स्पर्धा, चित्रकला स्पर्धा आदि।)

10.         यौगिक प्रयोगः व्यायाम, योगासन, प्राणायाम, सूर्यनमस्कार आदि।

11.         मुद्राज्ञान व अन्य यौगिक क्रियाएँ।

12.         श्री आसारामायण पाठ व पूज्यश्री की जीवनलीला पर आधारित कथा-प्रसंग।

13.         प्रश्नोत्तरी।

14.         शशक आसन, आरती व प्रसाद वितरण।

टिप्पणीः बीच-बीच में कूदना, हास्य प्रयोग करवायें और अंत में गृहपाठ झलकियाँ आदि लें।


सभी सत्रों में लेने योग्य विषय

वार्तालापः

प्रत्येक सत्र की शुरूआत वार्तालाप व प्रार्थना स्तुति आदि विषय से करें। वार्तालाप उस दिन सिखायें जाने वाले किसी विषय पर आधारित हो सकते हैं।

प्रार्थना स्तुति आदिः

1)  सर्वप्रथम बच्चों आदि को पद्मासन अथवा सुखासन में बिठायें और कमर सीधी रखने को कहें।

2)  7 या 11 बार हरि का उच्चारण करायें।

3)  दो बार टंक विद्या का प्रयोग करायें।

भूमध्य में तिलक अथवा हाथ की तीसरी उँगली से घर्षण करते हुए गं गणपतये नमः मंत्र का जाप करायें।

फिर बच्चों को हाथ जोड़ने को कहें और मंत्रोच्चारण करवायें।

                                                                    i.      श्री सरस्वत्यै नमः। (ब) श्री गुरूभ्यो नमः।

इसके बाद गणपति वन्दना, सरस्वती वन्दना और गुरू-प्रार्थना करवायें। हर सप्ताह सरस्वती वन्दना और गुरू प्रार्थना की दो-दो पंक्तियाँ कंठस्थ करायें एवं अर्थ भी बतायें।

भगवान गणपति जी की स्तुति

वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटिसमप्रभः।

निर्विघ्नं कुरू मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा।।

कोटि सूर्यों के समान महातेजस्वी, विशालकाय और टेढ़ी सूँडवाले गणपति देव! आप सदा मेरे सब कार्यों में विघ्नों का निवारण करें।

विद्या की देवी माँ सरस्वती की वन्दना

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता

या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।

या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभिर्देवेः सदा वन्दिता

सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाङ्यापहा।।

जो कुंद के फूल, चन्द्रमा, बर्फ और हार के समान श्वेत हैं, जो शुभ्र वस्त्र पहनती हैं, जिनके हाथ उत्तम वीणा से सुशोभित हैं, जो श्वेत कमल के आसन पर बैठती हैं, ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देव जिनकी सदा स्तुति करते हैं और जो सब प्रकार की जड़ता हर लेती हैं, वे भगवती सरस्वती मेरा पालन करें।

शुक्लां ब्रह्मविचारसारपरमामाद्यां जगदव्यापिनीं

वीणापुस्तकधारिणीमभयदां जाङ्यान्धकारापहाम्।

हस्ते स्फाटिकमालिकां च दधतीं पद्मासने संस्थितां

वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्।।

जिनका रूप श्वेत है, जो ब्रह्मविचार का परम तत्त्व हैं, जो सम्पूर्ण संसार में व्याप रही हैं, जो हाथों में वीणा और पुस्तक धारण किये रहती हैं, अभय देती हैं, मूर्खतारूपी अंधकार को दूर करती हैं, हाथ में स्फटिक मणि की माला लिये रहती हैं, कमल के आसन पर विराजमान हैं और बुद्धि देने वाली हैं, उन आद्या परमेश्वरी भगवती सरस्वती की मैं वन्दना करता हूँ।

गुरू-प्रार्थना

गुरूर्बह्मा गुरूर्विष्णुः गुरूर्देवो महेश्वरः।

गुरूर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।।

गुरू ही ब्रह्मा हैं, गुरू ही विष्णु हैं। गुरूदेव ही शिव हैं तथा गुरूदेव ही साक्षात साकार स्वरूप आदिब्रह्म हैं। मैं उन्हीं गुरूदेव को नमस्कार करता हूँ।

ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोः पदम्।

मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपाः।।

ध्यान का आधार गुरू की मूर्ति है, पूजा का आधार गुरू के श्रीचरण हैं, गुरूदेव के श्रीमुख से निकले हुए वचन मंत्र के आधार हैं तथा गुरू की कृपा ही मोक्ष का द्वार है।

अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।

तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

जो सारे ब्रह्माण्ड में, जड़ और चेतन सब में व्याप्त है, उन परम पिता के श्रीचरणों को देखकर मैं उनको नमस्कार करता हूँ।

त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।

त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देव देव।।

तुम ही माता हो, तुम ही पिता हो, तुम ही बन्धु हो, तुम ही सखा हो, तुम ही विद्या हो, तुम ही धन हो। हे देवताओं के देव! सदगुरूदेव! तुम ही मेरे सब कुछ हो।

ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्ति

द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम्।

एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं

भावातीतं त्रिगुणरहितं सदगुरूं तं नमामि।।

जो ब्रह्मानन्दस्वरूप हैं, परम सुख देने वाले हैं, जो केवल ज्ञानस्वरूप हैं, (सुख-दुःख, शीत-उष्ण आदि) द्वंद्वों से रहित हैं, आकाश के समान सूक्ष्म और सर्वव्यापक हैं, तत्त्वमसि आदि महावाक्यों के लक्ष्यार्थ हैं, एक हैं, नित्य हैं, मल रहित हैं, अचल हैं, सर्व बुद्धियों के साक्षी हैं, भावना से परे हैं, सत्त्व, रज और तम तीनों गुणों से रहित हैं - ऐसे सदगुरूदेव को मैं नमस्कार करता हूँ।

किसी भी कार्य को प्रारम्भ करने से पूर्व भगवान गणपति जी, माँ सरस्वतीजी और सदगुरूदेव की प्रार्थना, ध्यान एवं निम्न मंत्रोच्चारण से ईश्वरीय प्रेरणा-सहायता मिलती है, जिससे सफलता प्राप्त होती है।

गं गणपतये नमः। श्री सरस्वत्यै नमः। श्री गुरूभ्यो नमः।

ध्यान

1.  ध्यान के समय यथासंभव पूज्यश्री की ध्यान की कैसेट लगायें।

2.  आज्ञाचक्र पर इष्ट या सदगुरूदेव का ध्यान करायें।

3.  ध्यान सहज में हो, चेहरे पर कोई तनाव न हो।

4.  ध्यान करते हुए मन शांत हो रहा है, ईश्वर में डूब रहा है, प्रभुप्रीति बढ़ रही है, गुरूभक्ति बढ़ रही है, जीवन विकास के पथ पर आगे बढ़ रहा है, योग्यता खिल रही है आदि पंक्तियों का धीरे-धीरे उच्चारण करते हुए बच्चों की रूचि ध्यान के प्रति बढ़ायें।

नोटः जब ध्यान की कैसेट चल रही हो तब मौन रहें।

5.  ध्यान के समय नेत्र अर्धोन्मीलित (आधे खुले, आधे बंद) हों।

6.  कभी-कभी किसी वैदिक मंत्र (  नमो भगवते वासुदेवाय आदि) का धीरे-धीरे उच्चारण करवायें। फिर क्रमशः होठों में, कंठ में, हृदय में मौनपूर्वक जप करते हुए शांत होने को कहें।

7.  ध्यान करते समय बच्चे पद्मासन अथवा सुखासन में बैठें।

8.  कभी-कभी ध्यान के पहले निम्न तरह का शुभ संकल्प करा सकते हैं-

1.  मैं शांतस्वरूप, आनंदस्वरूप, सुखस्वरूप आत्मा हूँ। रोग, शोक, चिंता, भय, दुःख, दर्द तो शरीर को होते हैं, मैं तो प्रेमस्वरूप आत्मा हूँ।

2.  मैं अजर हूँ.... अमर हूँ... मेरा जन्म नहीं.... मेरी मृत्यु नहीं... मैं यह शरीर नहीं.... मैं निर्लिप्त आत्मा हूँ... .... .....

3.  मैं शरीर नहीं हूँ। इन सब कीट-पतंग आदि प्राणियों में मेरा ही आत्मा विलास कर रहा है। उनके रूप में मैं ही विलास कर रहा हूँ।

1.  तिलक प्रयोगः बच्चों से दाहिने हाथ की अनामिका उँगली (छोटी उँगली के पास वाली) द्वारा भ्रूमध्य में हलका सा दबाव देते हुए गं गणपतये नमः। मंत्र का उच्चारण करवायें।

2.  श्वासोच्छ्वास की गिनतीः श्वासों की गति सामान्य रखें और नासाग्र (नाक के अग्रभाग पर) दृष्टि रखें। श्वास अंदर जाये तो बाहर आये (1) गिनती, अंदर जाये विद्या बाहर आये 2, अंदर जाये आनंद बाहर आये 3, ऐसी मानसिक गिनती करें। 20 से 108 तक गिनती करवा सकते हैं। यदि गिनती बीच में भूल जायें तो पुनः शुरू करें।

3.  देव मानव हास्य प्रयोगः

4.  कूदनाः (व्यायाम क्रमांक-1)

5.  प्रश्नोत्तरीः कार्यक्रम के बीच-बीच में अथवा अंत में प्रश्नोत्तरी करें। प्रश्नोत्तरी उस दिन बताये गये विषय पर अथवा पूर्व में सिखाये गये विषय पर आधारित हो।

6.  झलकियाँ: अगले कार्यक्रम के विषय के संदर्भ में बच्चों को संक्षेप में परिचय दें।

7.  शशकासनः कार्यक्रम के अंत में, आरती से पहले बच्चों को शशकासन कि स्थिति में कुछ समय बिठाये रखें।

8.  आरती व प्रसाद वितरण।

पहला सप्ताह

सप्ताह के दोनों सत्रों में सिखाये जाने वाले विषय

1.  यौगिक प्रयोगः

                                                                    i.      व्यायामः कूदना।

                                                               ii.      योगासनः ताड़ासन।

                                                          iii.      प्राणायामः भ्रामरी।

                                                               iv.      मुद्राज्ञानः ज्ञानमुद्रा।

2.  कीर्तनः नारायण कीर्तन

नोटः इनके साथ सभी सत्रों में लेने योग्य आवश्यक विषय भी लें

पहला सत्र

शुभारंभ

बाल संस्कार केन्द्र के शुभारंभ पर किसी बच्चे के माता-पिता अथवा अन्य किसी आमंत्रित व्यक्ति द्वारा दीपक प्रज्वलित करवायें।

 

वार्तालाप

बाल संस्कार केन्द्र का परिचयः केन्द्र में बच्चों के साथ अपनत्व जगायें। बच्चों से उनका नाम पूछें और लक्ष्य पूछें तथा बाल संस्कार केन्द्र की महिमा बतायें, फिर आश्रम-परिचय देते हुए निम्न प्रश्न पूछें-

1.  क्या आप अपनी स्मरणशक्ति में चमत्कारिक परिवर्तन लाना चाहते हैं?

2.  क्या आप अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होना चाहते हैं?

3.  क्या आप अपने मन को प्रसन्न व शरीर को चुस्त, शक्तिशाली और तंदरुस्त बनाना चाहते हैं?

4.  क्या आप हँसते-खेलते ज्ञान प्राप्त कर जीवन में महान बनना चाहते हैं?

 

आपके भीतर अनंत शक्तितयाँ छुपी हुई हैं। यदि आप उनका सदुपयोग करने की कला सीख लें तो अवश्य महान बन सकते हैं। यह कला आपको परम पूज्य संत श्री आसारामजी बापू की कृपा-प्रसादी बाल संस्कार केन्द्र में सीखने को मिलेगी। बाल संस्कार केन्द्र में आपको माता-पिता का आज्ञापालन जैसे उच्च संस्कार, बाल-कथाएँ, देशभक्तों व संत महापूरूषों के दिव्य जीवन चरित्र जानने को मिलेंगे। खेल, कहानी, चुटकुले आदि के द्वारा हँसते-खेलते आपको ज्ञानप्रद बातें सिखायी जायेंगी। एक वर्ष पूरा होने पर आपको प्रमाणपत्र भी दिया जायेगा।

 

तीन देवों की उपासना (भगवान गणपति, मां सरस्वती और सदगुरूदेव का महत्त्वः

1.  भगवान गणपतिः विघ्नहर्ता हैं, कोई भी शुभ कार्य करने से पहले भगवान गणपति की स्तुति करने से उस कार्य में सफलता मिलती है।

 

2.  माँ सरस्वतीः माँ सरस्वती विद्या की देवी हैं। उनकी उपासना करने कुशाग्र बुद्धि की प्राप्ति होती है व पढ़ाई में सफलता मिलती है।

3.   

4.  सदगुरूदेवः सदगुरू के बिना कोई भवसागर से नहीं तर सकता, चाहे वह ब्रह्मा जी और शंकरजी के समान ही क्यों न हो! सदगुरू हमें वह ज्ञान देते हैं, जिससे हम जन्म मरण के दुःखों से सदा के लिए छूट जाते हैं और परम सुख, परम शाँति प्राप्त कर लेते हैं।

·         श्री आसारामायण पाठ (प्रथम कार्यक्रम में पूरा पाठ अवश्य करायें)

 

कथा-प्रसंग आदि द्वारा सदगुणों का विकासः

 

मातृ-पितृ भक्त पुण्डलिक

शास्त्रों में आता है कि जिसने माता-पिता तथा गुरू का आदर कर लिया उसके द्वारा संपूर्ण लोकों का आदर हो गया और जिसने इनका अनादर कर दिया उसके संपूर्ण शुभ कर्म निष्फल हो गये। वे बड़े ही भाग्यशाली हैं, जिन्होंने माता-पिता और गुरू की सेवा के महत्त्व को समझा तथा उनकी सेवा में अपना जीवन सफल किया। ऐसा ही एक भाग्यशाली सपूत था - पुण्डलिक।

पुण्डलिक अपनी युवावस्था में तीर्थयात्रा करने के लिए निकला। यात्रा करते-करते काशी पहुँचा। काशी में भगवान विश्वनाथ के दर्शन करने के बाद उसने लोगों से पूछाः क्या यहाँ कोई पहुँचे हुए महात्मा हैं, जिनके दर्शन करने से हृदय को शांति मिले और ज्ञान प्राप्त हो?

लोगों ने कहाः हाँ हैं। गंगापर कुक्कुर मुनि का आश्रम है। वे पहुँचे हुए आत्मज्ञान संत हैं। वे सदा परोपकार में लगे रहते हैं। वे इतनी उँची कमाई के धनी हैं कि साक्षात माँ गंगा, माँ यमुना और माँ सरस्वती उनके आश्रम में रसोईघर की सेवा के लिए प्रस्तुत हो जाती हैं। पुण्डलिक के मन में कुक्कुर मुनि से मिलने की जिज्ञासा तीव्र हो उठी। पता पूछते-पूछते वह पहुँच गया कुक्कुर मुनि के आश्रम में। मुनि के देखकर पुण्डलिक ने मन ही मन प्रणाम किया और सत्संग वचन सुने। इसके पश्चात पुण्डलिक मौका पाकर एकांत में मुनि से मिलने गया। मुनि ने पूछाः वत्स! तुम कहाँ से आ रहे हो?

पुण्डलिकः मैं पंढरपुर (महाराष्ट्र) से आया हूँ।

तुम्हारे माता-पिता जीवित हैं?

हाँ हैं।

तुम्हारे गुरू हैं?

हाँ, हमारे गुरू ब्रह्मज्ञानी हैं।

कुक्कुर मुनि रूष्ट होकर बोलेः पुण्डलिक! तू बड़ा मूर्ख है। माता-पिता विद्यमान हैं, ब्रह्मज्ञानी गुरू हैं फिर भी तीर्थ करने के लिए भटक रहा है? अरे पुण्डलिक! मैंने जो कथा सुनी थी उससे तो मेरा जीवन बदल गया। मैं तुझे वही कथा सुनाता हूँ। तू ध्यान से सुन।

एक बार भगवान शंकर के यहाँ उनके दोनों पुत्रों में होड़ लगी कि, कौन बड़ा?

निर्णय लेने के लिए दोनों गय़े शिव-पार्वती के पास। शिव-पार्वती ने कहाः जो संपूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा करके पहले पहुँचेगा, उसी का बड़प्पन माना जाएगा।

कार्तिकेय तुरन्त अपने वाहन मयूर पर निकल गये पृथ्वी की परिक्रमा करने। गणपति जी चुपके-से एकांत में चले गये। थोड़ी देर शांत होकर उपाय खोजा तो झट से उन्हें उपाय मिल गया। जो ध्यान करते हैं, शांत बैठते हैं उन्हें अंतर्यामी परमात्मा सत्प्रेरणा देते हैं। अतः किसी कठिनाई के समय घबराना नहीं चाहिए बल्कि भगवान का ध्यान करके थोड़ी देर शांत बैठो तो आपको जल्द ही उस समस्या का समाधान मिल जायेगा।

फिर गणपति जी आये शिव-पार्वती के पास। माता-पिता का हाथ पकड़ कर दोनों को ऊँचे आसन पर बिठाया, पत्र-पुष्प से उनके श्रीचरणों की पूजा की और प्रदक्षिणा करने लगे। एक चक्कर पूरा हुआ तो प्रणाम किया.... दूसरा चक्कर लगाकर प्रणाम किया.... इस प्रकार माता-पिता की सात प्रदक्षिणा कर ली।

शिव-पार्वती ने पूछाः वत्स! ये प्रदक्षिणाएँ क्यों की?

गणपतिजीः सर्वतीर्थमयी माता... सर्वदेवमयो पिता... सारी पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने से जो पुण्य होता है, वही पुण्य माता की प्रदक्षिणा करने से हो जाता है, यह शास्त्रवचन है। पिता का पूजन करने से सब देवताओं का पूजन हो जाता है। पिता देवस्वरूप हैं। अतः आपकी परिक्रमा करके मैंने संपूर्ण पृथ्वी की सात परिक्रमाएँ कर लीं हैं। तब से गणपति जी प्रथम पूज्य हो गये।

शिव-पुराण में आता हैः जो पुत्र माता-पिता की पूजा करके उनकी प्रदक्षिणा करता है, उसे पृथ्वी-परिक्रमाजनित फल सुलभ हो जाता है। जो माता-पिता को घर पर छोड़ कर तीर्थयात्रा के लिए जाता है, वह माता-पिता की हत्या से मिलने वाले पाप का भागी होता है क्योंकि पुत्र के लिए माता-पिता के चरण-सरोज ही महान तीर्थ हैं। अन्य तीर्थ तो दूर जाने पर प्राप्त होते हैं परंतु धर्म का साधनभूत यह तीर्थ तो पास में ही सुलभ है। पुत्र के लिए (माता-पिता) और स्त्री के लिए (पति) सुंदर तीर्थ घर में ही विद्यमान हैं।

(शिव पुराण, रूद्र सं.. कु खं.. - 20)

पुण्डलिक मैंने यह कथा सुनी और अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन किया। यदि मेरे माता-पिता में कभी कोई कमी दिखती थी तो मैं उस कमी को अपने जीवन में नहीं लाता था और अपनी श्रद्धा को भी कम नहीं होने देता था। मेरे माता-पिता प्रसन्न हुए। उनका आशीर्वाद मुझ पर बरसा। फिर मुझ पर मेरे गुरूदेव की कृपा बरसी इसीलिए मेरी ब्रह्मज्ञा में स्थिति हुई और मुझे योग में भी सफलता मिली। माता-पिता की सेवा के कारण मेरा हृदय भक्तिभाव से भरा है। मुझे किसी अन्य इष्टदेव की भक्ति करने की कोई मेहनत नहीं करनी पड़ी।

मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदवो भव।

मंदिर में तो पत्थर की मूर्ति में भगवान की कामना की जाती है जबकि माता-पिता तथा गुरूदेव में तो सचमुच परमात्मदेव हैं, ऐसा मानकर मैंने उनकी प्रसन्नता प्राप्त की। फिर तो मुझे न वर्षों तक तप करना पड़ा, न ही अन्य विधि-विधानों की कोई मेहनत करनी पड़ी। तुझे भी पता है कि यहाँ के रसोईघर में स्वयं गंगा-यमुना-सरस्वती आती हैं। तीर्थ भी ब्रह्मज्ञानी के द्वार पर पावन होने के लिए आते हैं। ऐसा ब्रह्मज्ञान माता-पिता की सेवा और ब्रह्मज्ञानी गुरू की कृपा से मुझे मिला है।

पुण्डलिक तेरे माता-पिता जीवित हैं और तू तीर्थों में भटक रहा है?

पुण्डलिक को अपनी गल्ती का एहसास हुआ। उसने कुक्कुर मुनि को प्रणाम किया और पंढरपुर आकर माता-पिता की सेवा में लग गया।

माता-पिता की सेवा ही उसने प्रभु की सेवा मान ली। माता-पिता के प्रति उसकी सेवानिष्ठा देखकर भगवान नारायण बड़े प्रसन्न हुए और स्वयं उसके समक्ष प्रकट हुए। पुण्डलिक उस समय माता-पिता की सेवा में व्यस्त था। उसने भगवान को बैठने के लिए एक ईंट दी।

अभी भी पंढरपुर में पुण्डलिक की दी हुई ईंट पर भगवान विष्णु खड़े हैं और पुण्डलिक की मातृ-पितृभक्ति की खबर दे रहा है पंढरपुर तीर्थ।

यह भी देखा गया है कि जिन्होंने अपने माता-पिता तथा ब्रह्मज्ञानी गुरू को रिझा लिया है, वे भगवान के तुल्य पूजे जाते हैं। उनको रिझाने के लिए पूरी दुनिया लालायित रहती है। वे मातृ-पितृभक्ति से और गुरूभक्ति से इतने महान हो जाते हैं।

 

 

कार्यक्रम में बाल संस्कार केन्द्र के बच्चों ने भगवान गणेष जी के जीवन पर एक लघु नाटक प्रस्तुत किया। नाटक में दिखाया गया कि किस प्रकार गणेष जी मातृ-पितृभक्ति एवं बुद्धिमत्ता के कारण समस्त देवताओं में प्रथम पूज्य बन गये।

इस नाटक का एक-एक दृश्य मेरे भाँजे के बालमानस में बैठ गया। दूसरे दिन वह सुबह जल्दी उठा तथा मेरी बहन व जीजाजी के साथ में बिठाकर उनकी प्रदक्षिणा करने लगा। उसके माता-पिता उसकी इस क्रिया को देखकर हैरान रह गये। जब उन्होंने अपने पुत्र गणेष से पूछा कि यह क्या कर रहे हो? तब उसने बाल संस्कार केन्द्र में आयोजित नाटक का विवरण सुनाते हुए कहा कि मुझे भी गणेषजी की भाँति बुद्धिमान और महान बनना है। गत एक वर्ष से सुबह माता-पिता की प्रदक्षिणा करके ही अपनी दिनचर्या प्रारंभ करना उसका पक्का नियम बन गया है। यदि बचपन से ही बालकों को अच्छे संस्कार दिये जायें तो वे निश्चय ही भारतीय संस्कृति के उन्नायक एवं रक्षक बन सकते हैं।

- अशोक भट्ट, सांताकृज (पश्चिम) मुंबई।

 

गृहपाठः

बच्चों को प्रतिदिन माता-पिता को प्रणाम करने को कहें और उनके माता-पिता को कैसा लगा इस बारे में बच्चे अगले सप्ताह बतायें। बच्चों को गृहपाठ के लिए एक नोटबुक बनाने को कहें, जिसमें वे हर कार्यक्रम में दिया गया गृहपाठ करेंगे।

दूसरा सत्र

ज्ञानचर्चाः सदगुरू-महिमा-

सदगुरू का अर्थ मात्र शिक्षक या आचार्य नहीं है। शिक्षक तो केवल ऐहिक ज्ञान देते हैं लेकिन सदगुरू तो निजस्वरूप का ज्ञान देते हैं, जिस ज्ञान की प्राप्ति के बाद व्यक्ति सुख-दुःख के प्रभाव से सदा के लिए छूट जाता है और उसे परमानंद की प्राप्ति होती है।

जब भगवान श्रीराम, भगवान श्रीकृष्ण आदि अवतार पृथ्वी पर आये, तब वे मुनि वसिष्ठ जी तथा सांदीपनि ऋषि जैसे संतों की शरण में गये।

राम कृष्ण से कौन बड़ा, तिन्ह ने भी गुरू कीन्ह।

तीन लोक के हैं धनी, गुरू आगे अधीन।।

 

पूज्य बापू जी का जीवन-परिचय

परम पूज्य बापू जी का जन्म सिंध प्रांत के नवाबशाह जिले में सिंधु नदी के तट पर बसे बेराणी नामक गाँव में नगर सेठ श्री थाऊमलजी सिरुमलानी के घर दिनांक 17 अप्रैल 1941 के दिन हुआ। उनकी पूजनीया माता का नाम महँगीबा था। नामकरण संस्कार के दौरान उनका नाम आसुमल रखा गया। आसुमल बचपन से ही ध्यान-भजन में तल्लीन रहते थे। वे लौकिक विद्या में भी बड़े तेजस्वी थे परन्तु उन्होंने लौकिक विद्या से अधिक ध्यान-भजन, साधना और ईश्वरप्राप्ति को ही महत्त्व दिया। वे सदा प्रसन्नमुख रहते थे, इसलिए शिक्षक उन्हें हँसमुखभाई कहकर बुलाते थे। उन्होंने युवावस्था में जंगलों, गुफाओं में कठोर तपस्या की। नैनीताल में उन्हें परम पूज्य संत श्री लीलाशाह जी बापू के दर्शन हुए। स्वामी श्री लीलाशाहजी बापू को सदगुरू मान के आसुमल उनके आश्रम में रहकर सेवा और साधना करने लगे। अंततः सदगुरू की कृपा से उन्हें साक्षात्कार हुआ और वे आसुमल में से संत श्री आसारामजी बापू बने, जिनको सदगुरू के रूप में पाकर आज करोड़ों लोग अपना जीवन धन्य बना रहे हैं।

 

कविताः माँ बाप को भूलना नही

 

खेलः

बच्चों को गोलाकार में बिठायें। अब उनको एक गेद देते हुए बतायें कि बालक अपने बगलवाले को तुरंत गेंद दे दे। मधुर कीर्तन अथवा कीर्तन की कोई अन्य कैसेट चलायें। बच्चों के साथ-साथ ताली बजाकर कीर्तन भी करें। बीच-बीच में कैसेट बंद करें, कैसेट बंद होने पर जिसके हाथ में गेंद होगी वह बच्चा बाहर (आऊट) हो जाएगा। अंत में तीन बच्चों को विजेता घोषित करें।

 

प्रश्नोत्तरीः

इस सत्र में सिखाये गये विषयों पर आधारित प्रश्न पूछें जैसे-

1.  भगवान गणेषजी के बड़े भाई का क्या नाम था?

2.  भगवान गणेषजी ने माता-पिता की कितनी प्रदक्षिणाएँ कीं?

3.  भगवान गणेषजी सभी देवताओं के प्रथम पूजनीय कैसे बने?

4.  हास्य प्रयोग के लाभ बताओ?

5.  कौन सा प्राणायाम करने से स्मरणशक्ति बढ़ती है?

दूसरा सप्ताह

सप्ताह के दोनों सत्रों में सिखाये जाने वाले विषय

 

  1. यौगिक प्रयोगः
    1. व्यायाम क्रमांक - 2

                                                        i.      पैरों की उँगलियों के व्यायाम

                                                   ii.      योगाभ्यासः

1.  ताड़ासन

2.  प्राणायामः भ्रामरी

3.  मुद्राज्ञानः ज्ञानमुद्रा।

  1. कीर्तनः नारायण कीर्तन।
  2. ध्यानः हरि मंत्र का सात अथवा ग्यारह बार उच्चारण के साथ ध्यान।

नोटः इनके साथ सभी सत्रों में लेने योग्य आवश्यक विषय भी लें।

पहला सत्र

ज्ञानचर्चाः

 

शिष्टाचार के नियमः

  1. अपने से बड़ों के आने पर खड़े होकर प्रणाम करके उन्हें मान देना चाहिए। उनके बैठ जाने पर ही स्वयं बैठना चाहिए।

 

  1. भोजन, स्नान, शौच, दातुन आदि स्वयं करते हों तब अथवा जिन्हें प्रणाम करना है, वे ऐसा करते हों तो उस समय उन्हें प्रणाम नहीं करना चाहिए। अपने और उनके इन कार्यों से निवृत्त होने पर ही उन्हें प्रणाम नहीं करना चाहिए।

 

चुटकुलाः

लड़काः पिता जी ! मुझे कालेज जाने के लिए कार ला दो न!

पिता जीः तुम्हारा कालेज तो घर से बहुत नजदीक है। भगवान ने तुम्हें पैर क्यों दिये हैं?

लड़काः एक पैर ब्रेक पर रखने के लिए और दूसरा एक्सेलरेटर दबाने के लिए।

 

सीखः परिस्थितिवश अगर माता-पिता आपकी किसी वस्तु की माँग पूरी न कर सकें तो उस वस्तु के लिए हठ न करें। माता-पिता को कभी उलटकर उत्तर न दें।

 

श्लोक

अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।

चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्।।

 

भावार्थः नित्य बड़ों की सेवा और प्रणाम करने वाले पुरुष की आयु, विद्या, यश और बल - ये चारों बढ़ते हैं।

(मनुसमृतिः 2.121)

बच्चों को यह श्लोक कण्ठस्थ करायें और अर्थ बतायें।

 

कविताः माँ बाप को भूलना नहीं

पहला और दूसरा अंतरा (मुख का निवाला दे अरे! ....... बात यह भूलना नहीं।।) का अर्थ बता कर उन्हें कंठस्थ करायें।

श्री आसारामायण पाठ व पूज्यश्री की जीवनलीला पर आधारित कथा-प्रसंग।

 

आदर्श दिनचर्याः

जीवन विकास और सर्व सफलताओं की कुंजी है एक सही दिन चर्या। सही दिनचर्या द्वारा समय का सदुपयोग करके तन को तंदरुस्त, मन को प्रसन्न एवं बुद्धि को कुशाग्र बनाकर बुद्धि को बुद्धिदाता ईश्वर की ओर लगा सकते हैं।

v     सूर्योदय से पूर्व ब्रह्ममुहूर्त में उठें।

v     शौच, स्नान आदि के बाद ध्यान, प्राणायाम, जप, सदग्रन्थों एवं शास्त्रों का पठन करना चाहिए।

v     सूर्य को अर्घ्य देना, योगासन व व्यायाम करना चाहिए।

v     भोजन के पहले भगवान को प्रार्थना करनी चाहिए। भोजन स्वास्थ्यकारक, सुपाच्य व सात्त्विक करें।

v     अच्छा संग, खेलकूद व अध्ययन (स्कूली पढ़ाई) करनी चाहिए।

v     रात्रि को भोजन के बाद थोड़ा टहलें।

v     सोने से पूर्व सदकगुरूदेव, इष्टदेव का ध्यान करें, सत्संग की पुस्तक पढ़ें अथवा कैसेट सुनें। पूर्व अथवा दक्षिण की सिर रखकर श्वासोच्छ्वास की गिनती करते हुए सीधा (पीठ के बल) सोयें। फिर जैसी आवश्यकता होगी स्वाभाविक करवट ले ली जाएगी।

दूसरा सत्र

कथा-प्रसंग आदि द्वारा सदगुणों का विकासः

प्रेरक-प्रसंगः

साहसी बालक

एक लड़का काशी में हरिश्चन्द्र हाईस्कूल में पढ़ता था। उसका गाँव काशी से आठ मील दूर था। वह रोजाना वहाँ से पैदल चलकर आता, बीच में गंगा नदी बहती है उसे पार करता और विद्यालय पहुँचता।

गंगा को पार कराने के लिए नाववाले उस जमाने में दो पैसे लेते थे। आने जाने के महीने के करीब 2 रूपये, आजकल के हिसाब से पाँच-पचीस रूपये हो जायेंगे। अपने माँ-बाप पर अतिरिक्त बोझा न पड़े इसलिए उसने तैरना सीख लिया। गर्मी हो, बारिश हो कि ठंडी हो वह हर रोज गंगा पार करके स्कूल में जाता।

एक बार पौष मास की ठंडी में वह लड़का सुबह स्कूल पहुँचने के लिए गंगा में कूदा। तैरते-तैरते मझधार में आया। एक नाव में कुछ यात्री नदी पार कर रहे थे। उन्होंने देखा कि छोटा-सा लड़का अभी डूब मरेगा। वे नाव को उसके पास ले गये और हाथ पकड़कर उसे नाव में खींच लिया। लड़के के मुँह पर घबराहट या चिंता का कोई चिह्न नहीं था। सब लोग दंग रह गये कि इतना छोटा और इतना साहसी! वे बोलेः तू अभी डूब मरता तो? ऐसा साहस नहीं करना चाहिए।

तब लड़का बोलाः साहस तो होना ही चाहिए। जीवन में विघ्न-बाधाएँ आयेंगी, उन्हें कुचलने के लिए साहस तो चाहिए ही। अगर अभी से साहस न जुटाया तो जीवन में बड़े-बड़े कार्य कैसे कर पाऊँगा?

प्राणवान पंक्तियाँ - यहाँ पर कहानी रोककर साहस-सदगुण की चर्चा करते हुए बच्चों को निम्न प्राणवान पंक्तियाँ पक्की करवायें-

जहाजों को डूबा दे उसे तूफान कहते हैं।

तूफानों से जो टक्कर ले, उसे इन्सान कहते हैं।।

लोगों ने पूछाः इस समय तैरने क्यों आया? दोपहर को नहाने आता।

लड़का बोलाः मैं नदी में नहाने के लिए नहीं आया हूँ, मैं तो स्कूल जा रहा हूँ।

फिर नाव में बैठकर जाता?

आने-जाने के रोज के चार पैसे लगते हैं। मेरे गरीब माँ-बाप पर मुझे बोझ नहीं बनना है। मुझे तो अपने पैरों पर खड़े होना है। मेरा खर्च बढ़ेगा तो मेरे माँ-बाप की चिंता बढ़ेगी, उन्हे घर चलाना मुश्किल हो जाएगा।

वही साहसी लड़का आगे चलकर भारत का प्रधानमंत्री बना।

बच्चों से पूछें कि क्या आप जानते हैं कि वह साहसी बालक कौन था? वे थे - श्री लाल बहादुर शास्त्री।

 

सदगुण चर्चाः

v     साहसः जैसे - लाल बहादुर शास्त्री बचपन से ही साहसी थे तो जीवन में मुश्किलों के सिर पर पैर रखकर आगे बढ़ते गये और अंततः प्रधानमंत्री पद पर पहुँच गये।

v     आत्मनिर्भरताः माता-पिता का व्यर्थ का खर्चा न बढ़ाकर आत्मनिर्भर बनना चाहिए, जैसे लाल बहादुर शास्त्री थे।

v     पुरूषार्थः विद्यार्थी को पुरूषार्थी बनना चाहिए। पुरूषार्थी बालक ही जीवन में महान बनता है।

v     राष्ट्रभक्ति व मातृ-पितृभक्तिः जो व्यक्ति अपने माता-पिता और सदगुरू की सेवा करता है, वही राष्ट्र की सेवा कर सकता है।

v     संकल्पः बच्चों से संकल्प करवायें कि हम भी अपने जीवन में इन सदगुणों को अपनायेंगे। ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ

(ग) भजनः कदम अपने आगे बढ़ाता चला जा

पहला अंतरा बच्चों को याद करायें और उनके साथ-साथ गायें।

 

स्वास्थ्य संजीवनीः

(क)     तुलसी सेवनः जहाँ तुलसी के पौधे अधिक मात्रा में होते हैं वहाँ की हवा शुद्ध और पवित्र होती है। सुबह उठकर अच्छी तरह कुल्ला करके तुलसी के पाँच-सात पत्ते चबा-चबाकर खायें। फिर एक गिलास पानी पियें।

लाभः

1.  स्मरणशक्ति का विकास होता है।

2.  पेट की कृमि की शिकायत नहीं होती।

3.  सर्दी-खाँसी जल्दी नहीं होती ।

 

सावधानीः तुलसी और दूध के सेवन के बीच एक घंटे का अंतर होना चाहिए।

टिप्पणीः रविवार, द्वादशी, पूर्णिमा और अमावस्या को तुलसी दल तोड़ना मना है।

 

अनुभवः परम पूज्य सदगुरूदेव की कृपा से मेरे पुत्र समीर ने फरवरी में 2004 में 12 वीँ कक्षा की बौर्ड की परीक्षा में 91.05 % अंक प्राप्त कर थाने शहर में प्रथम और महाराष्ट्र राज्य की वरीयता सूची में 15वाँ स्थान प्राप्त किया। 10वी कक्षी की बोर्ड की परीक्षा में भी वह थाने शहर में प्रथम  व मुबई विभाग की वरीयता सूची में तृतिय स्थान प्राप्त कर चुका है।

समीर पूज्य गुरूदेव के बताये अनुसार रोज सुबह तुलसी के 5-7 पत्ते चबाकर पानी पीता है, 10 प्राणायाम एवं श्री आसारामायण पाठ करता है। मासिक पत्रिका ऋषि प्रसाद हमारे घर में आती है। यह उसे भी ज़रूर पढ़ता है। सफलता की आकांक्षा रखने वाले सभी विद्यार्थियों को यह पत्रिका अवश्य देनी चाहिए।

- सुलभा तलवेड़कर, थाने (महा.)

 

प्रश्नोत्तरीः

बच्चों से इस सत्र में सिखाये गये विषयों पर आधारित प्रश्न पूछें। जैसे-

1.  लाल बहादुर शास्त्री ने तैरना क्यों सीखा?

2.  जीवन में साहस क्यो चाहिए?

3.  कौन सा आसन करने से लंबाई बढ़ती है?

4.  हास्य-प्रयोग के 2 लाभ बताओ?

 

गृहपाठः  

बच्चे कापी पर सप्ताह के सात दिन लिखें। जिस दिन तुलसी के पत्ते खाने हैं उस के आगे ॐ लिखें और जिस दिन नहीं खाने हैं उसके आगे × का निशान लगायें।

 

तीसरा सप्ताह

सप्ताह के दोनों सत्रों में सिखाये जाने वाले विषय

यौगिक प्रयोगः

  1. व्यायामः क्रमांक नं 2 और 3 (पैरों की उंगलियों के व्यायाम)
  2. योगासनः
    1. पद्मासन
    2. प्राणायामः भ्रामरी
    3. मुद्राज्ञानः अपानवायु मुद्रा।
  3. कीर्तनः नारायण कीर्तन
  4. मंत्रजाप व ध्यानः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय मंत्र के उच्चारण के साथ ध्यान।

 

नोटः इनके साथ सभी सत्रों में लेने योग्य आवश्यक विषय भी लें।

पहला सत्र

ज्ञानचर्चाः

तिलक महिमाः

तिलक भारतीय संस्कृति का प्रतीक है।

 

वैज्ञानिक तथ्यः ललाट पर दोनों भौहों के बीच आज्ञाचक्र (शिवनेत्र) और उसी के पीछे के भाग में दो महत्त्वपूर्ण अंतःस्रावी ग्रंथियाँ स्थित हैं (पीनियल ग्रंथि और पीयूष ग्रन्थि।

तिलक लगाने से दोनों ग्रंथियों का पोषण होता है और विचारशक्ति विकसित होती है। ॐ गं गणपतये नमः मंत्र का जप करके जहाँ चोटी रखते हैं वहाँ दायें हाथ की उंगलियों से स्पर्श करें और संकल्प करें कि हमारे मस्तक का यह हिस्सा विशेष संवेदनशील हो, विकसित हो। इससे ज्ञानतंतु सुविकसित हैं, बुद्धिशक्ति व संयमशक्ति का विकास होता है।

 

अनुभवः राजस्थान के जयपुर जिले में स्थित देवीनगर में गजेन्द्रसिहं खींची नाम का एक लड़का रहता है। वह नियमित रूप से बाल संस्कार केन्द्र में जाता था। केन्द्र में जब उसे तिलक करने से होने वाले लाभों के बारे में पता चला, तबसे वह नियमित रूप से स्कूल में तिलक लगाकर जाने लगा।

पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित उसकी शिक्षिका ने उसे तिलक लगाने से मना किया परंतु जब उस बच्चे ने शिक्षिका को तिलक लगाने के फायदे बताये तब शिक्षिका ने तिलक लगाने की मंजूरी दे दी। तिलक की महिमा जानकर अन्य बच्चे भी तिलक लगाने लगे।

संकल्पः हम भी रोज तिलक करेंगे। बच्चों से यह संकल्प करायें।

 

भजनः कदम अपने आगे बढ़ाता चला जा

 

शिष्टाचार के नियमः

मार्ग में जब गुरूजनों के साथ चलना हो तो उनके आगे या बराबर में न चलें, उनके पीछे चलें।

 

कविताः माँ बाप को भूलना नहीं।

 

दिनचर्याः

ब्राह्ममुहूर्त में जागरण ब्राह्ममुहूर्त में उठने वाले विद्यार्थी की बुद्धि तेजस्वी, शरीर स्वस्थ और मन प्रसन्न रहता है। इसलिए वह पढ़ाई में सदा आगे रहता है।

 

सुबह उठकर सर्वप्रथम लेटे-लेटे गुरूदेव को, इष्टदेव को मानसिक प्रणाम करें। शरीर को दायें-बायें, ऊपर-नीचे खींचे। बैठकर सदगुरूदेव या इष्टदेव का ध्यान करें।

 

1.  करदर्शनः

कराग्रे वसते लक्ष्मीः करमध्ये सरस्वती।

करमूले तु गोविन्दः प्रभाते करदर्शनम्।।

हाथ के अग्रभाग में लक्ष्मी का निवास है, मध्यभाग में विद्यादात्री सरस्वती का निवास है और मूलभाग में भगवान गोविन्द का निवास है। अतः प्रभात में करदर्शन करना चाहिए।

2.  शशकासन

3.  देव-मानव हास्य प्रयोग

4.  भूमिवन्दनः धरती माता को वन्दन करें और निम्न श्लोक बोलें।

समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डिते।

विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे।।

श्री आसारामायण पाठ व पूज्यश्री की जीवनलीला पर आधारित कथा प्रसंग।

गृहपाठः

चित्रकला स्पर्धा - भगवान श्रीगणेष के चित्र अपनी नोटबुक में बनाकर लायें, साथ में मंत्र भी लिख कर लायें।

दूसरा सत्र

कथा प्रसंग आदि द्वारा सदगुणों का विकास

 

बालभक्त ध्रुव

राजा उत्तानपाद की दो रानियाँ थीं - सुरूचि और सुनीति। दोनों रानियों में सुरूचि राजा को ज्यादा प्रिय थी। सुरूचि को उत्तम और सुनीति को ध्रुव नामक पुत्र था।

एक दिन राजा उत्तानपाद सुरूचि के पुत्र उत्तम को गोद में बिठाकर प्यार कर रहे थे। उसी समय ध्रुव ने भी गोद में बैठना चाहा लेकिन राजा ने उसको अपनी गोद में नहीं लिया। ध्रुव की सौतेली माँ सुरूचि ने उसे महाराज की गोद में आने का यत्न करते देख व्यंग्यपूर्ण शब्दों में कहाः बच्चे! तू राजसिंहासन पर बैठने का अधिकारी नहीं है। तू भी राजा का ही बेटा है तो क्या हुआ, तुझको तो मैंने अपनी कोख में धारण नहीं किया। तू अभी नादान है, तुझे पता नहीं है कि तूने किसी दूसरी स्त्री के गर्भ से जन्म लिया है, तभी तो ऐसे दुर्लभ विषय की इच्छा कर रहा है। यदि तुझे राजसिंहासन की इच्छा है तो तपस्या करके परम पुरूष श्री नारायण की आराधना कर और उनकी कृपा से मेरे गर्भ में जन्म ले। सौतेली माता की बात सुनकर ध्रुव बहुत दुःखी हुआ। ध्रुव रोता-रोता अपनी माँ के पास गया। सुनीति को दूसरे लोगों ने बताया कि तुम्हारे बेटे से सुरूचि ने ऐसा-ऐसा कहा है। सुनकर बेचारी वह भी रोने लगी। सौत की बात दिल में तीर की तरह चुभ गयी। फिर भी उसने धैर्य धारण करके ध्रुव को समझायाः बेटा! तूने मुझ अभागिन के गर्भ से जन्म लिया है। सुरूचि ने तेरी सौतेली माँ होने पर भी सच्ची बात ही कही है। अतः यदि राजकुमार उत्तम के समान राजसिंहासन पर बैठना चाहता है तो द्वेषभाव छोड़कर बस, भगवान नारायण के चरणकमलों की आराधना में लग जा। ध्रुव को माँ की सीख अच्छी लगी और तुरंत ही दृढ़निश्चय करके तप करने के लिये वह पिता के नगर से निकल पड़ा।

यह सब समाचार सुनकर और ध्रुव क्या करना चाहता है, इस बात को जानकर नारदजी वहाँ आये। उन्होंने ध्रुव के मस्तक पर अपना पापनाशक करकमल फेरते हुए उसको समझायाः बेटा! अभी तो तू बच्चा है, खेलकूद में ही मस्त रहता है, तेरे लिए मान-सम्मान क्या है? संसार में भलाई-बुराई बहुत है, केवल मोह के कारण ही मनुष्य दुःखी होता है। जो मिलता है उसी में मनुष्य को संतुष्ट रहना चाहिए। सब जगह भगवान की लीला देखो, सब में भगवान का हाथ देखो। अपनी माता के उपदेश से तू योगसाधना द्वारा जिन भगवान की प्राप्ति करने चला है - मेरे विचार से साधारण पुरूषों के लिए उन्हें प्रसन्न करना बहुत ही कठिन है। योगी लोग अनेकों जन्मों तक अनासक्त रहकर समाधियोग द्वारा बड़ी-बड़ी कठोर साधनाएँ करते रहते हैं परन्तु भगवान के मार्ग का पता नहीं पाते। इसलिए तू व्यर्थ का हठ छोड़ दे और घर लौट जा, बड़ा होने पर जब परमार्थ साधन का समय आये, तब उसके लिए प्रयत्न कर लेना। परंतु ध्रुव दृढ़निश्चयी था। उसने कहाः ब्रह्मन! मैं उस पद पर अधिकार करना चाहता हूँ, जो त्रिलोकी में सबसे श्रेष्ठ है तथा जिस पर मेरे बाप-दादे और दूसरे कोई भी आरूढ़ नहीं हो सके हैं। आप मुझे उसी की प्राप्ति का कोई अच्छा सा मार्ग बतलाइये।

ध्रुव की बात सुनकर नारदजी बड़े प्रसन्न हुए और उसे भगवान के ध्यानपूजन की विधि बतायी। इसके बाद नारद जी ने ध्रुव को ॐ नमो भगवते वासुदेवाय मंत्र देकर आशीर्वाद दियाः बेटा! तू श्रद्धा से इस मंत्र का जप करना। भगवान ज़रूर तुझ पर प्रसन्न होंगें। ध्रुव कठोर तपस्या में लग गया। एक पैर पर खड़े होकर, ठंडी-गर्मी, बरसात सब सहन करते-करते नारद जी के द्वारा दिये गये मंत्र का जप करने लगा।

उसकी निर्भयता, दृढ़ता और कठोर तपस्या से भगवान नारायण उसके समक्ष प्रकट हो गये। भगवान ने ध्रुव से कहाः उत्तम व्रत का पालन करने वाले राजकुमार! मैं तेरे हृदय का संकल्प जानता हूँ। यद्यपि उस पद का प्राप्त होना बहुत कठिन है तो भी मैं तुझे वह देता हूँ। जिस तेजोमय अविनाशी लोक को आज तक किसी ने प्राप्त नहीं किया, जिसके चारों ओर ग्रह, नक्षत्र और तारागण ज्योतिचक्र चक्कर काटता रहता है। अवान्तर कल्पपर्यन्त रहने वाले धर्म, अग्नि, कश्यप और शुक्र आदि नक्षत्र एवं सप्तऋषिगण जिसकी प्रदक्षिणा किया करते हैं, वह ध्रुवलोक मैं तुझे देता हूँ। तत्पश्चात ध्रुव ने भगवान की पूजा की। बालक ध्रुव से इस प्रकार पूजित हो भगवान श्री गरूडध्वज उसके देखते-देखते अपने लोक को चले गये।

पाँच वर्ष के ध्रुव को भगवान मिल सकते हैं तो हमें क्यों नहीं मिल सकते? जरूरत है भक्ति में निष्ठा की और दृढ़ विश्वास की। इसलिए बच्चों को हररोज श्रद्धा और निष्ठा पूर्वक प्रेम से भगवन्नाम का जप करना चाहिए।

 

ज्ञानचर्चाः

मंत्रदीक्षा-महिमा व सारस्वत्य मंत्र-महिमाः

सदगुरु से जब दीक्षा ली जाती है तब वे शिष्य को मंत्र के साथ-साथ अपनी शक्ति भी देते हैं, जिससे मंत्र जप करने वाले की शीघ्र उन्नति होती है।

ब्रह्मज्ञानी सदगुरु से सारस्वत्य मंत्र की दीक्षा लेकर जप करने वाले बच्चों के जीवन में एकाग्रता, अनुमानशक्ति, निर्णयशक्ति एवं स्मरणशक्ति चमत्कारिक रूप से बढ़ती है और बुद्धि तेजस्वी बनती है।

पूज्य बापू जी से मंत्रदीक्षित बच्चों के जीवन में होने वाले लाभः

ऐसे बच्चों के जीवन से हताशा, निराशा, चिंता, भय आदि दूर हो जाते हैं, वे उत्साही, आशावादी, निश्चिंत, निडर तथा बुद्धिमान बनते हैं। स्वस्थ एवं प्रसन्नमुख रहते हैं और पढ़ाई-लिखाई में सदा आगे रहते हैं।

अनुभवः सारस्वत्य मंत्र से हुए अदभुत लाभः मैंने 1998 में विद्यार्थी तेजस्वी उत्थान शिविर सोनीपत में परम पूज्य बापूजी से सारस्वत्य मंत्र की दीक्षा ली। दीक्षा के बाद नियमित मंत्रजप करने से मैं इतना कुशाग्र बुद्धिवाला और स्वावलंबी हो गया कि मैंने एक महीने में टयूशन छोड़ दी और स्वयं खूब मेहनत करने लगा। मैं स्कूल में भी पैदल जाने लगा, जिससे स्कूल बस का किराया भी बच गया। मंत्र जप के प्रभाव से मुझे 9वीं. 10वीं, 11वीं की परीक्षाओं में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ।

संकल्पः बच्चों से यह संकल्प करायें। हम भी परमात्मा में दृढ़ विश्वास रखकर निष्ठापूर्वक प्रेम से मंत्रजप करेंगे और ईश्वर के मार्ग पर कदम आगे बढ़ायेंगे।

 

स्वास्थ्य सुरक्षाः अंग्रजी दवाईयों से हानिः

बच्चों को अंग्रजी दवाईयों (एलोपैथी) की हानियाँ बतायें। उन्हें बतायें कि इन दवाईयों के रूप में, शक्तिवर्धक टॉनिकों के रूप में हमें प्राणियों के मांस, रक्त आदि खिलाये जा रहे हैं, जिसके कारण मन मलिन और संकल्पशक्ति कम हो जाती है तथा साधना में बरकत नहीं  आती। साईड इफैक्टस का शिकार हो जाते हैं वह अलग। अंग्रजी दवाईयाँ दीर्घकाल तक गुर्दे, यकृत और आँतों पर हानिकारक असर करती हैं। इन जहरीली दवाइयों के बजाय आयुर्वैदिक औषधियाँ अपनायें।

पहेलीः

जन-जन के रोगों को हरने, वे पृथ्वी पर आये।

बोलो आयुर्वेद के ज्ञान को, कौन धरा पर लाये?

उत्तरः भगवान धनवन्तरी।

चुटकुलाः अधिक खाने से पुत्र बीमार हो गया, तब पिता ने दवाई (टेबलेट) देनी चाही पर पुत्र ने इन्कार कर दिया। पिता ने तरकीब खोजकर लड्डू के बीच में टेबलेट डाल दी। थोड़ी देर बाद पिता ने पूछाः

बेटा! लड्डू कैसा था?

बेटे ने कहाः लड्डू तो बढ़िया था पर गुठली खराब थी, इसलिए मैंने फैंक दी।

 

ऑड़ियो, विडीयो सत्संगः पूज्यश्री के सत्संग की, विद्यार्थी शिविर की ऑडियो या विडियो सी.डी. कैसेट 20-25 मिनट चलायें। तत्पश्चात बच्चों से उस पर आधारित प्रश्न पूछें।

प्रश्नोत्तरीः

सत्र में सिखाये गये विषयों पर आधारित प्रश्न पूछें। जैसे-

1.  पद्मासन से क्या लाभ होता है?

2.  तिलक करने से क्या लाभ होता है?

3.  ध्रुव की माता का नाम क्या था?

4.  नारदजी ने ध्रुव को कौन सा मंत्र दिया?

5.  सारस्वत्य मंत्र जप से क्या लाभ होता है?

6.  अंग्रजी दवाइयाँ क्यों नहीं खानी चाहिए?

7.  अपानवायु मुद्रा से क्या लाभ होता है?

 

गृहपाठः

बच्चों को नित्य माता-पिता को प्रणाम करने को कहें। बच्चे नोटबुक में सप्ताह के सात दिन लिखें। जिस दिन प्रणाम किया, उस दिन के सामने ॐ लिखें और जिस दिन नहीं किया, उस दिन के आगे नहीं (×) का निशान लगायें।

 

चौथा सप्ताह

सप्ताह के दोनों सत्रों में सिखाये जाने वाले विषय

यौगिक प्रयोगः

1.  व्यायामः पूर्व में सिखाये हुए व्यायाम एवं क्रमांक नं 4 (पैरों के पंजों का व्यायाम)

2.  योगासनः पद्मासन

3.  प्राणायामः भ्रामरी, बुद्धि एवं मेधा शक्तिवर्धक

4.  मुद्राज्ञानः अपानवायु मुद्रा

 

कीर्तन एवं ध्यानः ॐॐ प्रभुजी ॐ

नोटः इनके साथ सभी सत्रों में लेने योग्य आवश्यक विषय भी लें।

पहला सत्र

ज्ञानचर्चाः

गुरू-शिष्य परंपराः स्वामी श्री लीलाशाहजी बापू

क्या आप जानते हैं कि स्वामी श्री लीलाशाहजी बापू कौन थे?

वे थे हमारे गुरुदेव परम पूज्य संत श्री आसारामजी बापू के सदगुरु। उनकी कृपा से ही हमारे पूज्य सदगुरुदेव को आत्मसाक्षात्कार हुआ।

गुरु-शिष्य परंपराः परम पूज्य बापू जी अपने साधनाकाल में तीर्थाटन करते हुए और जंगलों गुफाओं में घूमते हुए अंततः नैनीताल पहुँचे। तब उनका नाम आसुमल था। वहाँ उन्हें श्री लीलाशाहजी बापू मिले, उन्हें सदगुरु मानकर आसुमल उनके चरणों में रहकर सेवा साधना करने लगे।

70 दिन तक आसुमल को कठोर तितिक्षाएँ सहनी पड़ीं। वे केवल चार फुट की कोठरी में रहते थे, जिसमें ठीक से आसन भी नहीं कर पाते थे। भोजन में केवल मूँग का पानी अथवा उबले हुए मूँग लेते थे। गुरुदेव के नाम आये हुए पत्र पढ़ते एवं उनके बताये अनुसार उनका जवाब देते। आश्रम के पौधों को पानी पिलाते और आश्रम में आने वाले अतिथियों को भोजन कराते। बर्तन माँजते समय नैनीताल की पथरीली मिट्टी से हाथ में चीरे पड़ जाते थे तो वे हाथ में कपड़ा बाँध कर बर्तन माँजते। उनकी यह दशा देखकर लोगों को उन पर दया आती थी लेकिन यह सब कष्ट सहन करते हुए जब उन पर सदगुरू की कृपा बरसी और उन्होंने गुरुकृपा पचायी तो साधक में से सिद्ध बन गये, आसुमल से आसाराम बन गये और प्राचीनकाल से ही हमारे भारत में चली आ रही गुरु-शिष्य परंपरा में गुरु-शिष्य की एक और महान कड़ी जुड़ गयी।

सीखः सदगुरु की सेवा में चाहे कितने भी कष्ट सहने न पड़ें, वे अंततः कल्याणकारी और सब दुःखों से छुड़ाने वाले होते हैं।

ऐसे दुःख को सहन करने वाला संसार के सब कष्टों से छूट जाता है। इसलिए हमें सदैव सदगुरु की सेवा में तत्पर रहना चाहिए।

संकल्पः ‘गुरुसेवा में चाहे कितने ही कष्ट सहने पड़ें, हम गुरुसेवा में सदैव तत्परतापूर्वक लगे रहेंगे।’ बच्चों से यह संकल्प करवायें।

 

कविताः माँ-बाप को भूलना नहीं

 

दिनचर्याः

(क) शौच-विज्ञानः शौच के समय सिर व कान ढककर जायें। पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके मौनपूर्वक मलमूत्र का त्याग करें। इस समय दाँत भींच कर रखने से दाँत मजबूत होते हैं और लकवे की बीमारी नहीं होती। भोजन के बाद पेशाब करने से भी पथरी होने का डर नहीं रहता।

(ख)     दंतधावनः शौच के बाद नीम या बबूल की ताजी या भीगी हुई दातुन से अथवा आयुर्वैदिक मंजन से दाँत अच्छी तरह साफ करने चाहिए। दाँतों को इस तरह से साफ करें कि उन पर मैल न रहे और मुख से दुर्गन्ध न आये। मंजन कभी तर्जन (अंगूठे के पासवाली उँगली) से न करें क्योंकि तर्जनी उँगली में एक प्रकार का विद्युत-प्रवाह होता है, जो दाँतों को शीघ्र ही कमजोर कर देता है।

इनसे सावधान!

बाजारू टूथपेस्ट से सावधानः बाजार में बिकने वाले अधिकाँश टूथपेस्टों में फ्लोराइड नामक रसायन का प्रयोग किया जाता है। यह रसायन सीसे और आर्सेनिक जैसा विषैला होता है। अमेरिका के ‘नैशनल कैंसर इन्सटीटयूट’ के प्रमुश रसायनशास्त्री द्वारा किये गये एक शोध के अनुसार अमेरिका में प्रतिवर्ष दस हजार से भी ज्यादा लोग फ्लोराइड से उत्पन्न कैंसर के कारण मौत का शिकार होते हैं। टूथपेस्ट बनाने में पशुओं की हड्डियों के चूरे का प्रयोग होता है। इसलिए जहाँ तक संभव हो टूथपेस्टों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। टूथब्रश से दाँतों पर लगे झिल्लीनुमा प्राकृतिक आवरण नष्ट हो जाते हैं, जिससे दाँतों की प्राकृतिक चमक चली जाती है और उनमें कीड़े लगने लगते हैं।

स्वास्थ्य सुरक्षाः दाँतों की सुरक्षा के उपायः 80 से 90 % बालक विशेषकर दाँतों के रोगों से, उनमें भी ज्यादातर बच्चे दंतकृमि से पीड़ित होते हैं। खूब ठंडा पानी पीकर गर्म पानी पिया जाय अथवा ठंडा पदार्थ खाकर गर्म पदार्थ खाया जाय तो दाँत जल्दी गिरते हैं। भोजन करने के बाद दाँत साफ करके कुल्ले करने चाहिए। अन्न के कण दाँतों में फँसे रहें, इसका विशेष ध्यान रखना चाहिए। माह में एकाध बार रात्रि को सोने से पूर्व नमक और सरसों का तेल मिला कर उससे दाँत साफ करने चाहिए। ऐसा करने से वृद्धावस्था में भी दाँत नहीं सड़ेंगे। आइसक्रीम, बिस्कुट, चॉकलेट, ठंडा पानी, फ्रिज के ठंडे और बासी पदार्थ, चाय-काफी आदि के सेवन से बचने से भी दाँतों की सुरक्षा होती है।

 

श्री आसारामायण पाठ व पूज्यश्री की जीवन लीला पर आधारित कथा-प्रसंग

पूज्य बापूजी विद्यार्थी काल में

पूज्य बापू जी के बचपन का नाम आसुमल था। बालक आसुमल अमदावाद में मणिनगर के जयहिन्द हाईस्कूल में पढ़ते थे। उनकी स्मरणशक्ति विलक्षण थी। अपनी विलक्षण स्मरणशक्ति के प्रभाव से ही उन्होंने शिक्षक द्वारा सुनायी गयी एक लंबी कविता को एक ही बार सुनकर तुरंत पूरी-की-पूरी सुना दी तो सभी विद्यार्थी व अध्यापक चकित रह गये

चित्त की एकाग्रता, बुद्धि की तीव्रता, नम्रता, सहनशीलता आदि के कारण आसुमल पूरे विद्यालय में सबके प्रिये बन गये। जब वे पाठशाला जाते तो उनके पिता जाते समय उनकी जेब में पिस्ता, बादाम, काजू, अखरोट भर देते। बालक आसुमल स्वयं तो खाते, अपने मित्रों को भी खिलाते। पढ़ने में भी वे बडे मेधावी थे। प्रतिवर्ष श्रेणी में उत्तीर्ण होते थे, फिर भी इस सामान्य विद्या का आकर्षण उन्हें नहीं रहा। स्कूल के अन्य बच्चे जब खेलकूद रहे होते तो बालक आसुमल किसी वृक्ष के नीचे ईश्वर के ध्यान में तल्लीन हो जाते थे। बाल्यकाल से ही उनका मन लौकिक विद्या में नहीं अपितु ईश्वर की भक्ति में लगता था, इसलिए वे ज्यादा समय ध्यान भजन में ही लगे रहते। धीरे-धीरे उन्हें ध्यान का ऐसा स्वाद लगा कि जैसे मछली पानी के बिना नहीं रह सकती, उसी प्रकार वे भी ध्यान किये बिना नहीं रह पाते थे। इस प्रकार वे ब्रह्मविद्या से सम्पन्न होने लगे। उनका मानना था कि ‘विद्या वही है जो मुक्ति दिलाये।’ आसुमल देर रात तक पिता जी के पैर दबाते, उनकी सेवा से प्रसन्न होकर पिता जी ने आशीर्वाद दिया कि ‘बेटा! इस संसार में सदा तेरा नाम रहेगा और तुम्हारे द्वारा लोगों की मनोकामनाएँ पूर्ण होंगीं।’

फिर बच्चों को नीचे दिया गया श्लोक कण्ठस्थ करायें और बतायें कि जैसे पूज्य बापू जी के जीवन में ये दैवी गुण बचपन से ही थे तो वे कितने महान बन गये, ऐसे ही अगर आप भी इन दैवी गुणों को अपने जीवन में लाओ तो आप भी अवश्य महान बन सकते हैं।

अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।

दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्।।

‘भय का सर्वथा अभाव, अंतःकरण की पूर्ण निर्मलता, तत्त्वज्ञान के लिए ध्यानयोग में निरंतर दृढ़ स्थिति तथा सात्त्विक दान, इन्द्रियों का दमन, भगवान, देवता औ गुरुजनों की पूजा एवं अग्निहोत्र आदि उत्तम कर्मों का आचरण, वेद-शास्त्रों का पठन-पाठन तथा भगवान के नाम और गुणों का संकीर्तन, स्वधर्मपालन के लिए कष्ट सहन व शरीर तथा इन्द्रियों के सहित अंतःकरण की सरलता - ये सब दैवी संपदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं।

(श्रीमद् भगवदगीताः 16.1)

गृहपाठः

बच्चों को कोई भी पाँच सदगुरुओं और उनके शिष्यों के नाम घर से लिख कर लाने के लिए कहें।

दूसरा सत्र

 

कथा-प्रसंग आदि द्वारा सदगुणों का विकास

गुरुभक्त एकलव्य

द्वापर युग की बात है। एकलव्य नाम का भील जाति का एक लड़का था। एक बार वह धनुर्विद्या सीखने के उद्देश्य से कौरवों एवं पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य के पास गया परंतु द्रोणाचार्य ने कहा कि वे राजकुमारों के अलावा और किसी को धनुर्विद्या नहीं सिखा सकते। एकलव्य ने मन-ही-मन द्रोणाचार्य को अपना गुरु मान लिया था। इसलिए उनके मना करने पर भी उसके मन में गुरु के प्रति शिकायत या छिद्रान्वेषण (दोष देखने) की वृत्ति नहीं आयी, न ही गुरु के प्रति उसकी श्रद्धा कम हुई।

वह वहाँ से घर न जाकर सीधे जंगल में चला गया। वहाँ जाकर उसने द्रोणाचार्य की मिट्टी की मूर्ति बनायी। वह हररोज गुरुमूर्ति की पूजा करता, फिर उसकी तरफ एकटक देखते-देखते ध्यान करता और उससे प्रेरणा लेकर धनुर्विद्या सीखने लगा। एकटक देखने से एकाग्रता आती है। एकाग्रता आने से गुरुभक्ति, अपनी सच्चाई और तत्परता के कारण एकलव्य को प्रेरणा मिलने लगी। इस प्रकार अभ्यास करते-करते वह धनुर्विद्या में बहुत आगे बढ़ गया।

(यहाँ पर कहानी रोक कर बच्चों को बतायें कि गुरुमूर्ति, इष्टमूर्ति को एकटक देखकर ध्यान करने से सत्प्रेरणा मिलती है और विद्यार्थी पढ़ाई में तो सफल होता ही है अन्य मुश्किलों को सुलझाने में भी सफल हो जाता है।)

एक बार द्रोणाचार्य धनुर्विद्या के अभ्यास के लिए पांडवों और कौरवों को जंगल में ले गये। उनके साथ एक कुत्ता भी था, वह दौड़ते-दौड़ते आगे निकल गया। जहाँ एकलव्य धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था, वहाँ वह कुत्ता पहुँचा। एकलव्य के विचित्र वेष को देखकर कुत्ता भौंकने लगा।

कुत्ते को चोट न लगे और उसका भौंकना भी बंद हो जाए इस प्रकार उसके मुँह में सात बाण एकलव्य ने भर दिये। जब कुत्ता इस दशा में द्रोणाचार्य के पास पहुँचा तो कुत्ते की यह हालत देखकर अर्जुन को विचार आयाः ‘कुत्ते के मुँह में चोट न लगे इस प्रकार बाण मारने की विद्या तो मैं भी नहीं जानता!’

अर्जुन ने गुरु द्रोणाचार्य से कहाः "गुरूदेव! आपने तो कहा था कि तेरी बराबरी कर सके ऐसा कोई भी धनुर्धारी नहीं होगा परंतु ऐसी विद्या तो मैं भी नहीं जानता।"

द्रोणाचार्य भी विचार में पड़ गये। इस जंगल में ऐसा कुशल धनुर्धर कौन होगा? आगे जाकर देखा तो उन्हे हिरण्यधनु का पुत्र गुरुभक्त एकलव्य दिखायी पड़ा।

द्रोणाचार्य ने पूछाः "बेटा! तुमने यह विद्या कहाँ से सीखी?"

एकलव्य ने कहाः "गुरुदेव! आपकी कृपा से ही सीखी है।"

द्रोणाचार्य तो अर्जुन को वचन दे चुके थे कि उसके जैसा कोई दूसरा धनुर्धर नहीं होगा किंतु एकलव्य तो अर्जुन से भी आगे बढ़ गया। एकलव्य से द्रोणाचार्य ने कहाः "मेरी मूर्ति को सामने रखकर तुमने धनुर्विद्या तो सीखी परंतु गुरुदक्षिणा....?"

एकलव्य ने कहाः "आप जो माँगें।"

द्रोणाचार्य ने कहाः "तुम्हारे दाहिने हाथ का अँगूठा।"

एकलव्य ने एक पल भी विचार किये बिना अपने दाहिने हाथ का अँगूठा काट कर गुरुदेव के चरणों में अर्पित कर दिया।

द्रोणाचार्य ने कहाः "बेटा! अर्जुन भले ही धनुर्विद्या में सबसे आगे रहे क्योंकि मैं उसको वचन दे चुका हूँ परन्तु जब तक सूर्य, चाँद और नक्षत्र रहेंगे, तुम्हारा यशोगान होता रहेगा।"

एकलव्य की गुरुभक्ति और एकाग्रता ने उसे धनुर्विद्या में तो सफलता दिलायी ही, संतों के हृदय में भी उसके लिए आदर प्रकट कर दिया। धन्य है एकलव्य! जिसने गुरु की मूर्ति से प्रेरणा लेकर धनुर्विद्या में सफलता प्राप्त की तथा अदभुत गुरुदक्षिणा देकर साहस, त्याग और समर्पण का आदर्श प्रस्तुत किया।

सीखः एकलव्य की कथा से हमें यह सीख मिलती है कि गुरुभक्ति, श्रद्धा और लगनपूर्वक कोई भी कार्य करने से अवश्य सफलता मिलती है।

सुविचारः मन की एकाग्रता से मनुष्य प्रत्येक कार्य में सफल होता है।

 

सुषुप्त शक्तियाँ जगाने के यौगिक प्रयोगः

त्राटकः बच्चों को त्राटक का महत्त्व और विधि बतायें व करवायें।

महत्त्वः सब तपों में एकाग्रता परम तप है। जीवन को सफल बनाने का यदि कोई मुख्य साधन है तो वह है एकाग्रचित्त होना। एकाग्रता के लिए त्राटक बहुत मदद करता है।

विधिः किसी शांत वातावरण में भूमि पर स्वच्छ, विद्युत का कुचालक आसन अथवा कंबल बिछाकर उस पर सुखासन, पद्मासन अथवा सिद्धासन में कमर सीधी कर के बैठ जायें। जिस वस्तु पर आपको त्राटक करना हो, उसे अपने से एक हाथ दूरी (2 से 3 फुट) पर आँखों की सीध में रखें। अपनी क्षमता के अनुसार जितने समय तक आप बिना पलकें झपकायें उसकी ओर एकटक देख सकें, देखते रहें। नेत्र अर्धोन्मीलित (आधे बंद, आधे खुले) हों, प्रारंभ में आँखों में जलन का एहसास होगा, आँखों से पानी टपकेगा लेकिन घबरायें नहीं। धीरे-धीरे समय बढ़ाकर आधे घंटे तक बैठने का अभ्यास करें तो अधिक लाभ होगा।

लाभः त्राटक करने से एकाग्रता बढ़ती है, बुद्धि का विकास होता है तथा मनुष्य भीतर से निर्भीक हो जाता है। फिर आप जो कुछ भी पढ़ेंगे वह याद रह जायेगा। इष्ट या सदगुरु के चित्र का त्राटक कर सकते हैं। इष्टदेव या गुरुदेव के चित्र पर त्राटक करने से विशेष लाभ होता है।

चुटकुलाः शिक्षक ने कहाः "बच्चो परीक्षा नज़दीक आ रही है। कमर कस के पढ़ाई करो।" यह सुनकर एक लड़का घर गया और रस्सी से कमर कस कर पढ़ने लगा। उसके पिता जी ने पूछाः "यह क्या कर रहे हो?"

लड़के ने कहाः "शिक्षक ने कहा है कि परीक्षा के दिन नज़दीक आ रहे हैं, कमर कस के पढ़ाई करो।"

सीखः किसी भी बात को या कार्य को करने से पहले अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए।

संस्कृति ज्ञानः

सूर्योपासनाः भगवान सूर्य को नियमित अर्घ्य देने से आज्ञाचक्र का विकास होता है। शरीर स्वस्थ और मन प्रसन्न रहता है तथा बुद्धि तेजस्वी बनती है।

विधिः ताँबे का कलश सिर से थोड़ा ऊपर लाकर जल की धारा धीरे-धीरे प्रवाहित करते हुए सूर्य गायत्रीमंत्र का पाठ करें

"आदित्याय विदमहे भास्कराय धीमहि तन्नो भानु प्रचोदयात्।"

प्रश्नोत्तरीः

सत्र में सिखाये गये विषयों पर आधारित प्रश्न पूछें। जैसे -

(1)         एकलव्य के गुरु का नाम क्या था?

(2)         गुरुदक्षिणा में एकलव्य ने क्या दिया?

(3)         परम पूज्य बापू जी के सदगुरु का नाम क्या था?

(4)         त्राटक से क्या लाभ होता है?

(5)         ब्राह्ममुहूर्त में उठने के क्या लाभ हैं?

 

गृहपाठः

चित्रकला स्पर्धा।

विषयः सूर्य को अर्घ्य देते हुए बालक या बालिका का चित्र बनायें। उसी में सूर्य गायत्री मंत्र भी लिखें।

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

पाँचवाँ सप्ताह

सप्ताह के दोनों सत्रों में सिखाये जाने वाले विषय

यौगिक प्रयोगः

1.  व्यायामः पूर्व में सिखाये हुए व्यायाम एवं क्रमांक- 5 (टखनों का व्यायाम)

2.  योगासनः ज्ञानमुद्रा, प्राणमुद्रा।

 

कीर्तनः शक्ति, भक्ति मुक्ति.....

 

नोटः इनके साथ सभी सत्रों में लेने योग्य आवश्यक विषयभी लें।

 

पहला सत्र

ज्ञानचर्चाः

पढ़ाई में मन कैसे लगें?

(क)        पढ़ाई करते समय मुख ईशान कोण (पूर्व-उत्तर के बीच का कोना) में रखें।

(ख)        हाथ-पैर धोकर कुल्ला करके शांत और निश्चिंत होकर पढ़ने बैठें।

(ग)         जीभ को तालू में लगाकर पढ़ने से पढ़ा हुआ जल्दी याद हो जाता है।

(घ)         अध्ययन के बीच-बीच में एवं अंत में शांत हों और पढे़ हुए का मनन करें।

शिष्टाचार के नियमः

 

पुस्तक खुली छोड़कर मत जाओ। अश्लील पुस्तकें न पढ़ कर ज्ञानवर्धक पुस्तकें ही पढ़ें।

 

चुटकुलाः

पिता ने बेटे से कहाः "फेल क्यों हुआ? पढ़ाई नहीं की थी?

बेटे ने कहाः "पिता जी! क्या करता? मेरे पास जो विद्यार्थी बैठा था उसे कुछ भी नहीं आता था, इसलिए मैं भी फेल हो गया।"

सीखः जो बच्चे पढ़ाई में ध्यान नहीं देते, फेल हो जाते हैं और ऊपर से माता-पिता को उल्टा जवाब देते हैं, तर्क देते हैं वे जीवन में कभी महान नहीं बन पाते हैं। जो नित्य सत्संग-श्रवण, शास्त्र व संत सम्मत बातों को अपने जीवन में अपनाकर आगे बढ़ते हैं, वे अवश्य महान बनते हैं। ॐॐॐॐॐ...........

 

दिनचर्याः

स्नान विधिः

1.  ताजा पानी बाल्टी में लेकर पहले सिर पर पानी डालते हुए आगे दिया गया मंत्र बोलें- ॐ ह्रीं गंगायै, ॐ ह्रीं स्वाहा। फिर पूरे शरीर पर पानी डालें ताकि सिर आदि ऊपर के भागों की गर्मी पैरों से निकल जाये।

 

2.  स्नान से पहले मुँह में पानी भरकर आँखों को पानी से भरे पात्र में डुबायें एवं उसी में थोड़ी देर पलकें झपकायें अथवा आँखों पर पानी के छींटे मारें। इससे आँखों की शक्ति बढ़ती है।

 

3.  शरीर को रगड़-रगड़ कर नहायें ताकि रोमकूपों का सारा मैल बाहर निकल जाये और रोमकूप खुल जायें।

 

4.  स्नान के पश्चात् सदैव धुले हुए स्वच्छ वस्त्र ही पहनें।

 

स्नान के प्रकारः समयानुसार तीन प्रकार के होते हैं-

1.  ऋषि स्नान (ब्राह्ममुहूर्त में)

2.  मानव स्नान (सूर्योदय से पूर्व)

3.  दानव स्नान (सूर्योदय के बाद चाय-नाश्ता लेकर 8-9 बजे)

 

भजनः भारत के नौजवानो...... !

इनसे सावधानः टी.वी. - फिल्मों का कुप्रभाव - सिनेमा, टी.वी. का अधिक उपयोग बच्चों के लिए अभिशापरूप है। चोरी, शराब, भ्रष्टाचार, हिंसा, बलात्कार, निर्लज्जता जैसे कुसंस्कारों से बाल-मस्तिषक को बचाना चाहिए। टी.वी. देखने से बच्चों की आँखों की पर भी बुरा असर पड़ता है। इसलिए टी.वी के विविध चैनलों का उपयोग आध्यात्मिक उन्नति के लिए, ज्ञानवर्धक कार्यक्रम, सांस्कृतिक कार्यक्रम तथा शिक्षा से संबंधित कार्यक्रम देखने तक ही मर्यादित करना चाहिए।

एक सर्वे के अनुसार 3 वर्ष का बच्चा जब टी.वी. देखना शुरु करता है और उस घर में केबल कनैक्शन पर 12-13 चैनल आते हों तो हर रोज पाँच घँटे के हिसाब से बालक 20 वर्ष का हो तब तक उसकी आँखें 33000 बार हत्या, 72000 बार अश्लील दृश्य देख चुकी होंगी। मोहनदास करमचंद गाँधी नाम के छोटे बालक ने हरिश्चंद्र नाटक देखकर सत्य बोलने का संकल्प लिया और वही बालक आज महात्मा गाँधी के नाम से पूजा जा रहा है तो जो बालक 33000 बार हत्या और 72000 बार अश्लील दृश्य देखेगा वह क्या बनेगा?

इस प्रकार बच्चों को टी.वी. देखने से होने वाली हानियों के बारे में बतायें।

संकल्पः ‘हम टी.वी. पर गल्त कार्यक्रम देखकर अपना समय नष्ट नहीं करेंगे।’ बच्चों से ऐसा संकल्प करवायें।

साखीः

दे ध्यान पूरा कार्य में, मत दूसरे में ध्यान दे।

कर तू नियम से कार्य सब, खाली समय मत जान दे।।

अर्थः अपने कार्य पर पूरा ध्यान दो, बेकार बातों पर ध्यान मत दो। अपने सभी कार्य नियत समय पर करो। अपना कीमती समय फालतू बातों में, गपशप में बर्बाद नहीं करना चाहिए।

श्री आसारामायण पाठ व पूज्यश्री की जीवनलीला पर आधारित कथा-प्रसंग।

गृहपाठः

बच्चे अपने घर के आस पास तुलसी का पौधा लगायें एवं नियमित तुलसी के 5 पत्ते खायें।

दूसरा सत्र

कथा-प्रसंग आदि द्वारा सदगुणों का विकास

स्वामी विवेकानंदजी की एकाग्रता

एक बार स्वामी विवेकानंद मेरठ में ठहरे हुए थे। उनको दर्शनशास्त्र की पुस्तकें पढ़ने का खूब शौक था। इसलिए वे अपने शिष्य अखंडानंद द्वारा पुस्तकालय में से पुस्तकें पढ़ने के लिए मँगवाते थे। केवल एक ही दिन में पुस्तक पढ़कर दूसरे दिन वापस करने के कारण ग्रन्थपाल क्रोधित हो गया। उसने कहा कि रोज-रोज पुस्तकें बदलने में मुझे बहुत तकलीफ होती है। आप ये पुस्तकें पढ़ते हैं कि केवल पन्ने ही बदलते हैं? अखंडानंद ने यह बात स्वामी विवेकानंद जी को बताई तो वे स्वयं पुस्तकालय में गये और ग्रंथपाल से कहाः

ये सब पुस्तकें मैंने मँगवाई थीं, ये सब पुस्तकें मैंने पढ़ीं हैं। आप मुझसे इन पुस्तकों में के कोई भी प्रश्न पूछ सकते हैं। ग्रंथपाल को शंका थी कि पुस्तकें पढ़ने के लिए, समझने के लिए तो समय चाहिए, इसलिए अपनी शंका के समाधान के लिए स्वामी विवेकानंद जी से बहुत सारे प्रश्न पूछे। विवेकानंद जी ने प्रत्येक प्रश्न का जवाब तो ठीक दिया ही, पर ये प्रश्न पुस्तक के कौन से पन्ने पर हैं, वह भी तुरन्त बता दिया। तब विवेकानंदजी की मेधावी स्मरणशक्ति देखकर ग्रंथपाल आश्चर्यचकित हो गया और ऐसी स्मरणशक्ति का रहस्य पूछा।

स्वामी विवेकानंद ने कहाः पढ़ने के लिए ज़रुरी है एकाग्रता और एकाग्रता के लिए ज़रूरी है ध्यान, इन्द्रियों का संयम।

(यहाँ पर कहानी रोककर बच्चों को संयम का अर्थ बतायें। संयम का अर्थ है जितनी आवश्यकता हो उससे ज़्यादा कोई भी चीज़ न करना। जैसे जितना जरूरी हो उतना ही बोलना, जिह्वा का संयम है। जितना जरूरी हो उतना ही सुनना फिल्मी गाने, गालियाँ, किसी की निंदा न सुनना कानों का संयम है। जितना जरूरी हो उतना ही देखना टी.वी. पर अनावश्यक कार्यक्रम, फिल्में न देखना आँखों का संयम है आदि।

यहाँ पर बच्चों से स्मरणशक्ति बढ़ाने में एकाग्रता का महत्त्व और एकाग्रता बढ़ाने के विषय पर चर्चा करें तथा बच्चों को बतायें कि एकाग्र मन से जो कुछ पढ़ा जाता है, वह जल्दी याद रह जाता है। बच्चों को अपनी सुषुप्त शक्तियाँ जाग्रत करने के लिए प्रतिदिन ध्यान और त्राटक का अभ्यास करना चाहिए।)

श्लोकः तपः सु सर्वेषु एकाग्रता परं तपः ।

तमाम प्रकार के धर्मों का अनुष्ठान करने से भी एकाग्रतारूपी धर्म, एकाग्रतारूपी तप बड़ा होता है।

संकल्पः हम भी नियमित ध्यान और त्राटक का अभ्यास करेंगे। कोई भी कार्य एकाग्रतापूर्वक करेंगे।’ बच्चों से संकल्प करवायें।

सुविचारः एकाग्रता व अनासक्ति सफलता की कुंजी है।

 

स्वास्थय-सुरक्षाः

सौंदर्य

खुली हवा में घूमने से, कच्ची हल्दी का सेवन करने से तथा सप्ताह में एक बार 2 से 5 ग्राम त्रिफला चूर्ण को गर्म पानी के साथ लेने से सौंदर्य बढ़ता है।

नींबू का रस एवं छाछ समान मात्रा में मिलाकर चेहरे पर लगाने से धूप के कारण काला हुआ चेहरा निखर उठता है।

मुलतानी मिट्टी से स्नान करने से शारीरिक गर्मी तथा पित्तदोष दूर होते हैं।

प्रातः पानी प्रयोग

सूर्योदय से पूर्व उठकर, कुल्ला करके, मंजन या दातुन करने से पूर्व हररोज रात्रि का रखा हुआ करीब सवा लिटर (चार बड़े गिलास) पानी पियें (बच्चे एक-दो गिलास पानी पीयें)। उसके बाद 45 मिनट तक कुछ भी खाये पिये नहीं। पानी पीने के बाद मुँह धो सकते हैं, दातुन कर सकते हैं। यह प्रयोग करने वाले को नाश्ते या भोजन के दो घण्टे के बाद ही पानी पीना चाहिए।

लाभः प्रातः पानी-प्रयोग करने से हृदय, लीवर, पेट, आँत आदि के रोग तथा सिरदर्द, पथरी, मोटापा, वात-पित्त-कफ आदि अनेक रोग दूर होते हैं। मानसिक दुर्बलता दूर होकर बुद्धि तेजस्वी बनती है। शरीर में कांति एवं स्फूर्ति बढ़ती है।

अनुभवः दिल्ली निवासी सुदर्शन कुमारी के पैर पानी की कमी से जुड़ गये थे, पैरों में दर्द रहता था। अंग्रेजी दवा खाने से उनकी आँखों को बहुत नुकसान हुआ। पानी-प्रयोग करने से उनके पैर ठीक हो गये।

सिरदर्दः सिरदर्द में लौंग का तेल सिर पर लगाने से या लौंग को पीसकर ललाट पर लेप करने से राहत मिलती है।

हँसते-खेलते पायें ज्ञानः

हरिॐ दर्शन खेल जब संचालक ‘हरि’ उच्चारण करे तो बच्चे अपने दोनों हाथों की हथेलियाँ सीधी करें एवं जब संचालक ‘ॐ’ बोले तो हाथों की हथेलियाँ उल्टी करें। जल्दी-जल्दी ‘हरि’, ‘ॐ’ बोलते-बोलते ही संचालक अचानक ‘ॐ’ के बाद फिर ‘ॐ’ बोल दे। जिन बच्चों ने एकाग्रचित्त होकर सुना वे हथेलियाँ उलटी ही रखेंगे और जिन बच्चों ने एकाग्रचित्त होकर नहीं सुना वे हथेलियाँ सीधी कर देंगे। हथेलियाँ सीधी करने वाले सभी बच्चे बाहर (आउट) हो जाएंगे। इस तरह खेल चलता रहेगा और अंत में बचे एक बच्चे को विजेता घोषित करें। लाभः एकाग्रता बढ़ती है।

 

प्राणायाम प्रसंगः

प्राणायाम से जीवनशक्ति, बौद्धिक शक्ति और स्मरणशक्ति का विकास होता है। स्वामी रामतीर्थ प्रातःकाल जल्दी उठकर थोड़े प्राणायाम करते और फिर वातावरण में घूमने जाते। इससे उनमें आत्मविश्वास बढ़ गया।

स्वामी रामतीर्थ बड़े कुशाग्र बुद्धि के विद्यार्थी थे। गणित उनका प्रिय विषय था। जब वे पढ़ते थे, तब उनका नाम तीर्थराम था। एक बार परीक्षा में 13 प्रश्न दिये गये थे, जिनमें से केवल 9 प्रश्न हल करने थे। तीर्थराम ने तेरह-के-तेरह प्रश्न हल कर दिये और नीचे एक टिप्पणी (नोट) लिख दीः ‘तेरह-के-तेरह प्रश्न सही हैं। इनमें से कोई भी 9 प्रश्न जाँच लो।’ इतना दृढ़ था उनका आत्मविश्वास।

 

प्रश्नोत्तरीः

सत्र में सिखाये गये विषयों पर आधारित प्रश्न पूछें। जैसेः

(1)   दे ध्यान...........(बच्चे पूरा बतायें)

(2)   प्राणायाम के लाभ बताओ?

(3)   बुद्धिशक्ति व मेधाशक्तिवर्धक प्रयोग के लाभ बताओ?

(4)   पूज्य बापू जी के बचपन का नाम क्या था?

(5)   एकाग्रता प्राप्त करने के लिए क्या जरूरी है?

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छठा सप्ताह

इस सप्ताह में पिछले पाँच सप्ताहों में बच्चों को बताये गये विषय पुनारावर्तन करायें, जिससे बतायी गयी सामग्री उन्हें पक्की हो जाए।

सप्ताह के दोनों सत्रों में सिखाये जाने वाले विषय

यौगिक प्रयोगः पिछले पाँच सप्ताहों में करवाये गये व्यायाम, आसन, मुद्राएँ आदि बच्चे ही करके दिखायें।

कीर्तनः एक बच्चा आगे आकर पहले करवाये गये कीर्तन में से कोई कीर्तन कराये।

नोटः इनके साथ ‘सभी सत्रों में लेने योग्य आवश्यक विषय’ भी लें।

 

पहला सत्र

सुषुप्त शक्तियों को जगाने के प्रयोगः जप, ध्यान, त्राटक।

इस विषय पर सामूहिक चर्चा करें। इसके लिए बच्चों की संख्या के अनुसार बच्चों और बच्चियों के अलग-अलग दो या तीन या इससे अधिक समूह बनायें। प्रत्येक समूह के सभी सदस्य अपना एक नेता चुनेगा, जो उस समूह का प्रतिनिधित्व करेगा। प्रत्येक समूह के सभी सदस्य दिये गये विषयों (जप, ध्यान, त्राटक) पर अपने विचार अपने समूह के नेता को बतायेंगे और वह उन्हें नोट करके उस पर 4-5 मिनट का वक्तृत्व पेश करेगा। जिस समूह का नेता सबसे अच्छा वक्तृत्व पेश करेगा, उस समूह को विजेता घोषित किया जायेगा।

साखीः पिछले सप्ताहों में कण्ठस्थ करायी गयी साखियों को बच्चे-बच्चियों को सुनाने के लिए प्रेरित करें और सभी बच्चे मिलकर उसका सामूहिक गान करें।

अनुभवः जप, ध्यान या त्राटक करने से किसी बच्चे के जीवन में विशेष परिवर्तन आया हो तो वह आगे आकर अपना अनुभव बताये - ऐसा कहकर बच्चों को अनुभव बताने के लिए प्रेरित करें।

इस सप्ताह स्वयं केन्द्र न चला कर बच्चों को मोका दें। आप केवल बच्चों को केन्द्र चलाने का मार्गदर्शन दें और कार्यक्रम में अनुशासन बना रहे, इसका ध्यान रखें।

 

दिनचर्याः ईश्वर उपासना

टिप्पणीः संचालक दिनचर्या और स्वास्थ्य-सुरक्षा के विषय में बच्चों को बतायें।

सवेरे उठते ही नित्यकर्म के बाद परम पिता परमेश्वर की उपासना से अपने दिन की शुरुआत करें।

 

विद्याएँ तीन प्रकार की होती हैं-

1.  एहिक विद्याः स्कूल और कालेजों मे पढ़ाई जाती है।

2.  योगविद्याः योगनिष्ठ महापुरुषों के सान्निध्य में जाकर योग की कुंजियाँ प्राप्त करके उनका अभ्यास करने से प्राप्त होती है।

3.  आत्मविद्याः आत्मवेत्ता ब्रह्मज्ञानी सदगुरु का सत्संग-सान्निध्य प्राप्त करके उनके उपदेशों के अनुसार अपना जीवन ढालने से प्राप्त होती है। यह विद्या सर्वोपरि विद्या है, जिससे अंतरात्मा-परमात्मा में विश्रांति मिलती है और कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता। योगविद्या एवं आत्मविद्या की उपासना से आत्मबल बढ़ता है, दैवी गुण विकसित होते हैं, स्वभाव संयमी बनता है और बड़ी-बड़ी मुसीबतों के सिर पर पैर रखकर उन्नति के पथ पर आगे बढ़ने की शक्ति प्राप्त होती है।

हमें यह अनमोल जीवन ईश्वर की कृपा से मिला है। अतः हमें रोज के 24 घंटों में से कम-से-कम एक घंटा ईश्वर-उपासना के लिए अवश्य देना चाहिए। प्रातः शौच-स्नानादि से निवृत्त होकर सर्वप्रथम भ्रूमध्य में तिलक करें। तत्पश्चात प्रार्थना, प्राणायाम, जप, ध्यान, सरस्वती-उपासना, त्राटक, शूभ संकल्प, आरती आदि करें।

जिस विद्यार्थी के जीवन में एहिक (स्कूली) विद्या के साथ उपासना भी है, वह सुन्दर सूझबूझवाला, सबसे प्रेमपूर्ण व्यवहार करने वाला, तेजस्वी-ओजस्वी, साहसी और यशस्वी बन जाता है।

वार्तालापः बच्चों को आज की अलग कार्यप्रणाली के बारे में बताते हुए उन्हें केन्द्र चलाने में सहभागी होने के लिए प्रोत्साहित करें।

किसी बच्चे को प्रार्थना करवाने तो किसी को ध्यान, किसी को कहानी सुनाने तो किसी को स्वास्थ्य-सुरक्षा के उपाय, योगासन, प्राणायाम आदि करवाने को कहें। इस बात का ध्यान रखें कि एक बच्चा केवल एक ही विषय बताये, जिससे सभी बच्चों को मौक मिल सके।

श्री आसारामायण पाठः बच्चे मिलकर पाठ करें और कोई बच्चा आगे आकर पूज्य बापू जी का कोई जीवन-प्रसंग बताये।

अनुभवः

दो दिन में ही पानी मिला!

हमारे गाँव में अकाल पड़ा हुआ था। मैंने नासिक आश्रम में पूज्य गुरुदेव से प्रार्थना की और अपने खेत में ‘श्री आसारामायण’ का पाठ किया। उसके बाद बोरिंग का काम आरंभ करवाया।

पानी के लिए बहुत प्रयास करने के बाद भी लोगों को सफलता नहीं मिल रही थी किंतु मेरे यहाँ बोरिंग करवाने के दूसरे ही दिन पानी निकल आया! आठ घंटे तक लगातार मोटर चलने के बाद भी पानी कम नहीं हुआ! ‘श्री आसारामायण’ में आता हैः एक सौ आठ जो पाठ करेंगे, उनके सारे काज सरेंगे। इस पंक्ति की सत्यता का हजारों को अनुभव है, अब हम भी उसमें आ गये।

- रतन बाबूराव पगा, नासिक (महाराष्ट्र)

भजनः भारत के नौजवानो....!

दूसरा सत्र

ज्ञानचर्चाः

परीक्षा में सफलता कैसे पायें? - इस विषय पर बच्चों से चर्चा करें। फिर उन्हें नीचे दिये गये कुछ प्रयोग बतायें-

परीक्षा में सफलता कैसे पायें?

विद्यार्थी को अध्ययन के साथ-साथ जप, ध्यान, आसन एवं प्राणायाम का नियमित अभ्यास करना चाहिए। इससे एकाग्रता तथा बुद्धिशक्ति बढ़ती है।

सूर्य को अर्घ्य देना, तुलसी-सेवन, भ्रामरी प्राणायाम, बुद्धिशक्ति एवं मेधाशक्ति प्रयोग व सारस्वत्य मंत्र का जप - ऐसे बुद्धिशक्ति और स्मरणशक्ति बढ़ाने के प्रयोगों का नियमित अभ्यास करना चाहिए।

प्रसन्नचित्त होकर पढ़े, तनावग्रस्त होकर नहीं।

सुबह ब्रह्ममुहूर्त में उठकर 5-7 मिनट ध्यान करने के पश्चात पढ़ने से पढ़ा हुआ जल्दी याद होता है।

देर रात तक चाय पीते हुए पढ़ने से बुद्धिशक्ति का क्षय होता है।

टी.वी. देखना, व्यर्थ गपशप लगाना इसमें समय न गंवायें।

प्रश्नपत्र मिलने से पूर्व अपने इष्टदेव या गुरुदेव को प्रार्थना करें।

सर्वप्रथम पूरे प्रश्नपत्र को एकाग्रचित्त होकर पढ़ें।

सरल प्रश्नों के उत्तर पहले लिखें।

उत्तर सुन्दर व स्पष्ट अक्षरों में लिखें।

मुख्य बात है कि किसी भी कीमत पर धैर्य न खोयें। निर्भयता बनाये रखें एवं दृढ़ पुरुषार्थ करत रहें।

इन बातों को समझकर इन पर अमल किया जाय तो केवल लौकिक शिक्षा की ही नहीं वरन् जीवन की हर परीक्षा में विद्यार्थी सफल हो जाएगा।

(परीक्षा के दिनों में इस विषय पर बच्चों से चर्चा अवश्य करें।)

कथा-प्रसंग आदि द्वारा सदगुणों का विकासः एक बच्चा कहानी सुनाये।

हँसते-खेलते पायें ज्ञानः गोल-गोल-गोल, ज्ञान के पट खोल।

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सातवाँ सप्ताह

सप्ताह के दोनों सत्रों में सिखाये जानेवाले विषय

यौगिक प्रयोगः

व्यायामः पूर्व में सिखाये हुए व्यायाम एवं क्रमांक - 6 (टखनों का व्यायाम) योगासनः पूर्व में सिखाये हुए सभी आसनों का अभ्यास करायें। सूर्यनमस्कार प्राणायामः भ्रामरी, बुद्धि एवं मेधा शक्तिवर्धक मुद्राज्ञानः पृथ्वीमुद्रा, लिंगमुद्रा।

कीर्तनः शक्ति, भक्ति, मुक्ति.....

नोटः इनके साथ सभी सत्रों में लेने योग्य आवश्यक विषयभी लें।

पहला सत्र

दिनचर्याः

प्रातः कालीन भ्रमण

प्रातः काल के खुले वातावरण में जाकर जीवनशक्ति प्रदायक शुद्ध, तरोताजगी से भरपूर वायु का सेवन करने से स्वास्थ्य लाभ होता है।

प्रातः काल वायुमंडल में ओजोन वायु अधिक मात्रा में होने के काऱण इस समय खुली हवा में टहलने से बुद्धिशक्ति शीघ्रता से विकसित होगी।

सुबह-सुबह ओसयुक्त घास पर नंगे पैर चलना आँखों के लिए विशेष लाभकारी है। अतः प्रातः काल में सैर अवश्य करनी चाहिए।

चुटकुलाः एक बूढ़ा मृत्युशैया पर पड़ा था। वह भगवान का नाम नहीं लेता था। लोगों ने बहुत कोशिश की कि अंतिम समय में तो उसके मुख से भगवान का नाम निकले पर वे सफल न हुए। फिर उन्होंने सोचा कि बूढ़े के सामने उसके जमाई को खड़ा करें, उसका नाम ‘सीताराम’ है। उसका नाम बोलने से भी भगवान के नाम का उच्चारण हो जायेगा। जब सीताराम को उस बूढ़े के सामने खड़ा करके उससे पूछा गया कि ‘यह कौन है?’ तो बूढ़ा व्यक्ति बोलाः ‘यह तो मेरी बेटी का पति है।’

सीखः भगवान का नाम लेना तो भाग्यशाली व्यक्ति का काम है। पाप जोर मारते हैं तो मरते समय भी भगवान का नाम मुख से नहीं निकलता। हम और आप कितने भाग्यशाली हैं कि सदगुरुदेव का सत्संग सुनते हैं, भगवन्नाम का जप कीर्तन करते हैं।

शिष्टाचार के नियमः पढ़ते समय इन बातों का ध्यान रखें-

जब शिक्षक पढ़ा रहे हों तो उनकी बातें ध्यान से सुनें।

जो सहपाठी पढाई में कमजोर हों, उनका मजाक न उड़ायें बल्कि उन्हें यथासंभव सहयोग देकर उनकी कमजोरी दूर करें।

किसी विषय पर मतभेद होने पर आपस में झगड़े नहीं अपितु शिक्षक से उसका निर्णय करवा लेना चाहिए।

भजनः भारत के नौजवानो.....

इनसे सावधानः

चाय-कॉफी से हानिः प्रातः काल खाली पेट चाय पीने से स्वास्थ्य का नाश होता है। चाय-कॉफी में अनेक प्रकार के जहर पाये जाते हैं - केफिन, टेनिन, थीन, सायनोजन, एरोमिक ओईल आदि। इसलिए चाय-कॉफी पीने से पेट में छाले तथा गैसा पैदा होती है। सिर में भारीपन, किडनी की कमजोरी, एसिडिटी, पाचनशक्ति की कमजोरी, अनिद्रा तथा लकवा जैसी भयंकर बीमारियाँ उत्पन्न होती हैं।

अनुभवः

बाल संस्कार केन्द्रमुझसे कभी न छूटे !

पहले मैं जब बाल संस्कार केन्द्र में नहीं जाता था, तब चाय-कॉफी पीता था। केन्द्र में जाने से मुझे पता चला कि चाय-कॉफी से बहुत हानि होती है, तबसे मैंने चाय-कॉफी पीना छोड़ दिया। पहले मैं रोज़ दिन में दो बार चाय पीता था। बिना चाय पिये मेरे सिर में दर्द होता था परंतु जब से मैंने चाय छोड़ी, तब से न सिर में दर्द हुआ और न ही चाय पीने की इच्छा हुई। चाय छोड़ने के बाद मेरी यादशक्ति और आत्मविश्वास बढ़ा, इससे अब मैं उत्साह एवं लगन पूर्वक पढ़ाई में लगा हूँ।

धन्य हैं बापू जी ! जिनकी प्रेरणा से बच्चों का सर्वांगीण उत्थान करने के लिए बाल संस्कार केन्द्र चलाये जा रहे हैं। यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे ‘बाल संस्कार केन्द्र’ में जाने का अवसर मिला, जिसके कारण मेरी बुरी आदतें छूट पायीं और मेरे जीवन में नवचेतना का संचार हुआ। मेरी भगवान से यही प्रार्थना है कि बाल संस्कार केन्द्र मुझसे कभी न छूटे !

- चेतन दौलत, नासिक (महा.)

श्री आसारामायण पाठ व पूज्यश्री की जीवनलीला पर आधारित कथा-प्रसंग।

गृहपाठः चित्रकला स्पर्धा - बच्चे सूर्यनमस्कार की दसों स्थितियों का चित्र एवं विधि लिखकर लायें।

दूसरा सत्र

ज्ञानचर्चाः

गुरु-शिष्य संबंध

संसार में माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी आदि संबंधों की तरह गुरु-शिष्य का संबंध भी एक संबंध ही है परन्तु दूसरे सारे संबंध जीव के बंधन बढ़ानेवाले है जबकि गुरु-शिष्य का संबंध सब बंधनों से मुक्त करता है। इसलिए संसार में यदि कोई सार्थक संबंध है तो वह है गुरु-शिष्य का संबंध। यही एकमात्र ऐसा संबंध है जो दूसरे सब बंधनों से मुक्ति दिलाकर अंत में स्वयं भी हट जाता है। जीव को शिवस्वरूप का अनुभव कराकर मुक्त कर देता है।

हमारे जीवन में गुरु की महत्ताः चौरासी लाख योनियों में मनुष्य-योनि ही ऐसी है, जिसमें सब दुःखों, कष्टों और जन्म-मरण के चक्कर से छूटने का पुरुषार्थ साधा जा सकता है। व्यक्ति चाहे कितना ही जप-तप करे, यम-नियमों का पालन करे परंतु बिना गुरुकृपा के वह जन्म-मरण के चक्कर से नहीं छूट सकता। इसलिए हमारे जीवन में गुरु की नितांत आवश्यकता है।

कथा-प्रसंग आदि द्वारा सदगुणों का विकासः

सर्वप्रथम बच्चों से निम्न पहेली पूछें, फिर मीराबाई की कथा सुनायें।

कृष्ण भक्ति में थी मगन, वह प्रेम दीवानी।

बोलो किसने गाया, मैं गिरधर की दीवानी।।

- मीराबाई

मीराबाई की गुरुभक्ति

मीराबाई की दृढ़ भक्ति को कौन नहीं जानता? एक बार संत रैदासजी चित्तौड़ पधारे थे। रैदासजी रघु चमार के यहाँ जन्मे थे और उस समय जात-पाँत का बड़ा बोलबाला था। वे नगर से दूर चमारों की बस्ती में रहते थे। राजरानी मीरा को पता चला कि संत रैदासजी पधारे हैं परंतु राजरानी के वेश में वह उनके पास जाय कैसे?

अतः मीरा एक साधारण महिला का वेश बनाकर चुपचाप रैदासजी के पास चली जाती, उनका सत्संग सुनती, उनके कीर्तन और ध्यान में मग्न हो जाती।

ऐसा करते-करते मीरा का सत्वगुण दृढ़ हुआ। उसने सोचा ‘ईश्वर के रास्ते जायें और चोरी छिपे जायें, आखिर ऐसा कब तक? फिर मीरा अपने ही वेश में उन चमारों की बस्ती में जाने लगी।

मीरा को चमारों की बस्ती में जाते देखकर पूरे मेवाड़ में कुहराम मच गया कि ‘ऊँची जाति की, ऊँचे कुल की, राजघराने की मीरा नीची जाति के चमारों की बस्ती में जाकर साधुओं के यहाँ बैठती है, मीरा ऐसी है.... मीरा वैसी है....’

ननद उदा ने उसे बहुत समझायाः "भाभी ! लोग क्या बोलेंगे? तुम राजकुल की रानी और गंदी बस्ती में, चमारों की बस्ती में जाती हो, चमड़े का काम करने वाले चमार जाति के एक व्यक्ति को गुरु मानती हो, उसको मत्था टेकती हो, उसके हाथ से प्रसाद लेती हो, उसको एकटक देखते-देखते आँख बंद करके न जाने क्या-क्या सोचती और करती हो, यह ठीक नहीं है। भाभी ! तुम सुधर जाओ।" सास नाराज, ससुर नाराज, देवर नाराज, ननद नाराज, कुटुंबीजन नाराज.... फिर भी मीरा भक्ति में दृढ़ रही।

उदा ने कहाः "मीरा! अब तो मान जा। तुझे मैं समझा रही हूँ, सखियाँ समझा रही हैं, राणा भी कह रहा है, रानी भी कह रही है, सारा परिवार कह रहा है... फिर भी तू क्यों नहीं समझती है? इन संतों के साथ बैठ कर तू कुल की सारी लाज गँवा रही है।"

तब मीरा ने उत्तर दियाः "मैं संतों के पास गयी तो मैंने पीहर का कुल तारा, ससुराल का कुल तारा और ननिहाल का कुल भी तारा है।"

उदा ने मीरा को बहुत समझाया परंतु मीरा की श्रद्धा और भक्ति अडिग ही रही। मीरा कहती ह कि "अब मेरी बात सुन, मीरा की बात अब जगत से छिपी नहीं है। साधु ही मेरे माता-पिता हैं, मेरे स्वजन है, मेरे स्नेही हैं। अब मैं केवल उनकी ही शरण हूँ।

ननद उदा आदि सब समझा-समझाकर थक गये कि ‘मीरा! तेरे कारण हमारी इज्जत गयी........ अब तो हमारी बात मान ले।’ लेकिन मीरा भक्ति में दृढ रही। लोग समझते हैं कि इज्जत गयी किंतु ईश्वर की भक्ति करने पर आज तक किसी की लाज नहीं गयी है। संत नरसिंह मेहता ने कहा है भी हैः ‘मूर्ख लोग समझते हैं कि भजन करने से इज्जत चली जाती है। वास्तव में ऐसा नहीं है।’

मीरा की कितनी बदनामी हुई, उसके लिए कितने षड्यंत्र किये गये परंतु मीरा अडिग रही तो उसका यश बढ़ता गया। आज भी लोग बड़े प्रेम से मीरा को याद करते हैं, उसके भजनों को गाकर-सुनकर अपना हृदय पावन करते हैं।

साखीः

ईशकृपा बिन गुरु नहीं, गुरु बिना नहीं ज्ञान।

ज्ञान बिना आत्मा नहीं, गावहिं वेद पुरान।।

अर्थः ईश्वर की कृपा के बिना सदगुरु नहीं मिलते और सदगुरु के बिना ज्ञान नहीं मिलता। ज्ञान के बिना आत्मा के स्वरूप का पता ही नहीं चलता क्योंकि आत्मा ज्ञानस्वरूप है। यही वेद-पुराण भी गा रहे हैं।

संकल्पः बच्चों से यह संकल्प करवायें कि ‘समय निकालकर संतों का संग करके अपने जीवन का उद्देश्य ईश्वरप्राप्ति सिद्ध करके ही रहेंगे।’

स्वास्थ्य-सुरक्षाः गौदुग्धः देशी गाय की रीढ़ में सूर्यकेतु नामक एक विशेष नाड़ी होती है, जो सूर्यकिरणों से स्वर्ण के सूक्ष्म कण बनाती है। इसलिए गाय के दूध में स्वर्ण-कण पाये जाते हैं। गौदुग्ध में 21 प्रकार के उत्तम कोटि के अमाइनो एसिड्स होते हैं। इसमें स्थित सेरीब्रोसाइड्स मस्तिषक को तरोताजा रखता है। गाय का दूध बुद्धिवर्धक, बलवर्धक, खून बढ़ाने वाला, ओज-शक्ति बढ़ाने वाला है।

संकल्पः ‘स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए हम सदैव गाय का दूध, मक्खन व घी का उपयोग करेंगे और चाय-कॉफी जैसे नशीले पदार्थ से दूर ही रहेंगे तथा दूसरों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित करेंगे।’ बच्चों से यह संकल्प करवायें।

हँसते-खेलते पायें ज्ञानः पहेलियाँ

(1)   काला घोड़ा गोरी सवारी एक के बाद एक की बारी।   -तवा और रोटी।

(2)   ऐसा कौन-सा दिन है, जिस दिन चंद्रमा की किरणें पृथ्वी पर सीधी पड़ती हैं और उस दिन ध्यान-भजन करने से विशेष लाभ होता है।       - पूर्णिमा।

(3)   दिन के सोये, रात को रोये, जितना रोये उतना खोये।  - मोमबत्ती।

खेलः शक्ति... भक्ति.... और मुक्ति....।

इसमें जब संचालक शक्ति बोलेंगे तो बच्चे दोनों हाथ की मुट्ठी बाँधेंगे और शक्ति का प्रदर्शन करेंगे। फिर भक्ति बोलने पर बच्चे नमस्कार की मुद्रा मे हाथ जोड़ेंगे और मुक्ति बोलने पर दोनों हाथ ऊपर करेंगे। इस प्रकार संचालक क्रम से शक्ति, भक्ति, मुक्ति बोलें तो जिन बच्चों ने एकाग्रतापूर्वक नहीं सुना वे बच्चे गलत क्रिया करेंगे और खेल से बाहर (आउट) हो जाएंगे। इस प्रकार अंत में बचे तीन बच्चों को विजेता घोषित करें।

प्रश्नोत्तरीः सत्र में सिखाये गये विषयों पर आधारित प्रश्न पूछें। जैसे-

(क)          ऐसा कौन-सा संबंध है, जो जीव को शिवस्वरूप का अनुभव कराकर मुक्त कर देता है?

(ख)          चाय-कॉफी में कितने प्रकार के जहर पाये जाते हैं?

(ग)           देशी गाय की रीढ़ में कौन-सी विशेष नाड़ी है, जो सूर्यकिरणों से स्वर्ण के सूक्ष्म कण बनाती है?

(घ)           मीराबाई के सदगुरु कौन थे?

गृहपाठः इस सत्र में आपने जो कुछ बच्चों को बताया, उससे संबंधित प्रश्न और उत्तर लिखकर लें आने को कहें।

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आठवाँ सप्ताह

सप्ताह के दोनों सत्रों में सिखाये जाने वाले विषय

यौगिक प्रयोगः अब तक सिखाये गये सभी योगिक प्रयोगों (आसन, प्राणायाम, सूर्यनमस्कार आदि) का अभ्यास करायें तथा जो बच्चे अच्छी तरह से प्रदर्शन करें उनका दसवें सप्ताह में होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रम में ‘यौगिक प्रयोग प्रदर्शन’ हेतु चयन करें।

कीर्तनः शक्ति भक्ति मुक्ति...

नोटः इनके साथ ‘सभी सत्रों में लेने योग्य आवश्यक विषयभी लें।

पहला व दूसरा सत्र

श्री आसारामायण पाठ व पूज्यश्री की जीवनलीला पर आधारित कथा-प्रसंग।

नौवें सप्ताह के दूसरे सत्र में होने वाली लिखित परीक्षा की तैयारी करायें।

दसवें सप्ताह में होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रम का प्रशिक्षण दें।

दसवें सप्ताह के सांस्कृतिक कार्यक्रम का प्रारूप

1.      अभिभावकों का स्वागतः बच्चों द्वारा अभिभावकों का स्वागत करायें और बाल संस्कार केन्द्र का मह्त्त्व बताकर कार्यक्रम का शुभारंभ करें।

2.      नाटकः अब तक बतायी गयी किसी कहानी पर आधारित नाटक का प्रशिक्षण बच्चों को दें।

3.      प्राणायाम एवं योगासन प्रदर्शनः जो बच्चे प्राणायाम एवं आसन करने में कुशल हों, वे बच्चे प्राणायाम एवं आसन करके दिखायें।

4.      श्लोक, साखी आदिः केन्द्र में सिखाये गये श्लोक, साखियाँ, प्राणवान पंक्तियाँ आदि का उच्चारण, गायन एवं अर्थ कुछ बच्चे प्रस्तुत करें।

5.      भजन, बालगीत आदिः कदम अपने आगे बढ़ाता चला जाभजन कुछ बच्चे सामूहिक रूप से प्रस्तुत करें।

6.      बच्चों के अनुभवः बाल संस्कार केन्द्र में आने से जिन बच्चों के जीवन में कुछ विशेष परिवर्तन हुए हैं, वे अपना अनुभव बतायें। इसके लिए संचालक पहले से ही कुछ बच्चों के अनुभव जानकर उनके नाम चुन लें।

7.      स्वास्थ्य सुरक्षाः अब तक स्वास्थ्य सुरक्षा के विषय में केन्द्र में बतायी गयीं बातों को कुछ बच्चे थोड़ा-थोड़ा बतायें।

ध्यान दें- इस आठवें सप्ताह के दूसरे सत्र में भी प्रथम सत्र की तरह लिखित परीक्षा व सांस्कृतिक कार्यक्रम की तैयारी करवायें।

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नौवाँ सप्ताह

सप्ताह के दोनों सत्रों में सिखाये जानेवाले विषय

नोटः सभी सत्रों  में लेने योग्य आवश्यक विषयलें।

पहला सत्र

श्री आसारामायण पाठ व पूज्यश्री की जीवनलीला पर आधारित कथा-प्रसंग।

जीवन-चरित्रः

माँ मँहगीबाजी का स्वावलंबन एवं परदुःखकातरता

माँ मँहगीबाजी पूज्य बापूजी की माता जी थीं। वे स्वावलंबी और दयालु स्वभाव की थीं। वे प्रातः काल सूर्योदय से पूर्व 4-5 बजे उठ जातीं थीं और नित्यकर्म से निवृत्त होकर पहले अपना नियम करतीं। कितना भी कार्य हो पर एक घण्टा तो जप करती ही थीं। यह बात तब की है, जब तक उनके शरीर ने उनका साथ दिया। जब शरीर वृद्धावस्था के कारण थोड़ा अशक्त होने लगा, फिर तो वे दिन भर जप करती रहतीं थीं।

82 वर्ष की अवस्था तक तो अम्मा अपना भोजन स्वयं बनाकर खाया करती थीं। आश्रम के अन्य सेवाकार्य करतीं, रसोईघर की देखरेख करतीं, बगीचे में पानी पिलातीं, सब्जी आदि तोड़कर लातीं, बीमार का हालचाल पूछ आतीं एवं रात्रि में एक-दो बजे आश्रम का चक्कर लगाने निकल पड़तीं। यदि शीतकाल का मौसम होता, कोई ठंड से ठिठुर रहा होता तो चुपचाप उसे कंबल ओढ़ा आतीं। उसे पता भी नहीं चलता और शांति से सो जाता। उसे शांति से सोते देखकर अम्मा का मातृहृदय संतोष की साँस लेता। इसी प्रकार गरीबों में भी ऊनी वस्त्रों एवं कंबलों का वितरण पूजनीया अम्मा करतीं करवातीं।

उनके लिए तो कोई भी पराया न था। चाहे आश्रमवासी बच्चे हों या सड़क पर रहने वाले दरिद्रनारायण, सबके लिए उनके वात्साल्य का झरना सदैव बहता ही रहता था। किसी को कोई कष्ट न हो, दुःख न हो, पीड़ा न हो इसके लिए स्वयं को कष्ट उठाना पड़े तो उन्हें मंजूर था पर दूसरे की पीड़ा, दूसरे का कष्ट उनसे न देखा जाता था।

उनमें स्वावलंबन एवं परदुःखकातरता का अदभुत सम्मिश्रण था। वह भी इस तरह कि उसका कोई अहं  नहीं, कोई गर्व नहीं। ‘सबमें परमात्मा है, अतः किसी को दुःख क्यों पहुँचाना?’ यह सूत्र उनके पूरे जीवन में ओतप्रोत नज़र आता था। व्यवहार तो ठीक, वाणी के द्वारा भी किसी का दिल अम्मा ने दुखाया हो, ऐसा देखने में नहीं आया।

सचमुच, पूजनीया माँ मँहगीबाजी के ये सदगुण आत्मसात् करके प्रत्येक मानव अपने जीवन को दिव्य बना सकता है।

भजनः बच्चों के साथ मिलकर नीचे दिया गया भजन गायें- हे माँ मँहगीबा

 

दसवें सप्ताह के सांस्कृतिक कार्यक्रम की तैयारी।

दूसरा सत्र

लिखित परीक्षा का आयोजन

टिप्पणीः आपकी सुविधा के लिए प्रश्नपत्र का प्रारूप आगे दिया गया है। परीक्षा के लिए इसके आधार पर स्वयं प्रश्नपत्र बना लें। इसमें दो वर्ग हैं।

प्रश्नपत्र अ 8 से 11 वर्ष और प्रश्नपत्र ब 12 से 15 वर्ष के बच्चों के लिए है। परीक्षा पूरी होने पर उत्तरपत्र इकट्ठे कर लें। सभी उत्तरपत्र अगले सप्ताह से पहले चेक कर लें और दोनों वर्गों में क्रमशः प्रथम, द्वितिय तथा तृतिय आने वाले बच्चों व उनके अभिभावकों को सूचित कर दें।


प्रश्नपत्र

प्रश्न संख्याः 40               कुल अंकः 50          उम्रः 8 से 11 वर्ष

समयः 20 मिनट             दिनांकः.........          कुल प्राप्तांक........

नामः..............................................................................................

श्रेणीः.................................... संचालक के हस्ताक्षरः ...........................

टिप्पणीः प्रश्न 1 से 35 प्रति प्रश्न 1 अंक और प्रश्न नं 36, 37, 38, 39, और 40 ये 3-3 अंक के हैं।

सभी वैकल्पिक प्रश्नों के चार विकल्प दिये गये हैं। सही विकल्प सामने दिये गये बॉक्स में भरें।

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1.      सभी कार्यों की निर्विघ्न सफलता के लिए किस देवता की पूजा सबसे पहले की जाती है?

 (अ) इन्द्र (ब) गणेष (स) महादेव (द) पवनदेव।                           

2.      विद्या की देवी हैं?

 

 (अ) माँ लक्ष्मी (ब) माँ दुर्गा (स) माँ सरस्वती (द) माँ काली।    

3.      कौन सा आसन करने से लम्बाई बढ़ती हैं?                              

 

(आ)           वज्रासन (ब) मत्स्यासन (स) मयूरासन (द) ताड़ासन।

4. पूज्य बापू जी के पिता जी का नाम क्या था?                         

 

(अ)      थाऊमल जी (ब) परशुरामजी (स) जेठानंद जी (द) श्री लीलाशाह बापूजी

5.      लाल बहादुरशास्त्री आगे चलकर देश के क्या बने?

 

(इ)   उपप्रधानमंत्री (ब) राष्ट्रपति (स) प्रधानमंत्री (द) उपराष्ट्रपति।

6.      देवर्षि नारद ने ध्रुव को कौन सा मंत्र दिया?

 

(ई)   ॐ नमः शिवाय (ब) ॐ नमो भगवते वासुदेवाय (स) ॐ श्री सरस्वत्यै नमः (द) ॐ गुरु

7.      टंक विद्या का प्रयोग करने से कौन-से लाभ होते हैं?

 

(उ)   मन एकाग्र होता है व चंचलता दूर होती है। (ब) विशुद्धाख्य केन्द्र सक्रिय होता है और थायराइड रोग नष्ट होता है। (स) मणिपुर केन्द्र जागृत होता है। (द) अ, ब दोनों।

 

8.      हाथ के मध्य भाग में कौन निवास करता है?

(ऊ) माँ सरस्वती (ब) गणेष जी (स) भगवनान गोविंद (द) ब्रह्मा जी।

9.      कौन सा स्वर चालू हो तब भोजन करना चाहिए?

 

(ऋ)            दायाँ (ब) बायाँ (स) अ, ब दोनों (द) कोई भी नहीं।

10.  प्रातः पानी प्रयोग करने से क्या होता है?

 

(ऌ) हृदय, लीवर, पेट, आँत आदि के रोग तथा मोटाप दूर होता है। (ब) मानसिक दुर्बलता दूर होती है और बुद्धि तेजस्वी बनती है। (स) आँखों के रोग दूर होते हैं। (द) अ, ब, स तीनों।

11. नायलोन आदि कृत्रिम तंतुओं से बने हुए कपड़े स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं। ऐसे कपड़े पहनने से-

 

(अ) एलर्जी, खुजली, कैंसर आदि रोग होते हैं। (ब) जीवनीशक्ति क्षीण होती है। (स) स्वास्थ्य लाभ होता है। (द) अ, ब दोनों।

12. आजकल बाजार में बिकनेवाले अधिकाँश टूथपेस्टों में ‘फ्लोराइड’ नामक रसायन का प्रयोग किया जाता है, जो

 

(अ) सीसे और आर्सेनिक जैसा विषैला होता है। (ब) कैंसर उत्पन्न करता है। (स) स्वास्थ्य के लिए फायदेमन्द है। (द) अ, ब दोनों।

13. किस दिशा की ओर सिर रखकर सोना चाहिए?

 

(अ) पूर्व अथवा उत्तर दिशा। (ब) दक्षिण अथवा पश्चिम (स) पूर्व अथवा दक्षिण (द) दक्षिण अथवा उत्तर।

14. जिस विद्यार्थी के एहिक (स्कूली) विद्या के साथ उपासना भी है, वह

 

(अ) सुन्दर सूझबूझवाला बन जाता है। (ब) तेजस्वी-ओजस्वी, साहसी और यशस्वी बन जाता है। (स) परीक्षा में हमेशा अच्छे अंकों से पास होता है। (द) अ, ब, स तीनों।

(उपरोक्त प्रश्नों की तरह ही 35 वैकल्पिक प्रश्न बनायें)

नीचे दिये गये प्रश्नों के उत्तर केवल पाँच वाक्यों में दें।

36. बाल संस्कार केन्द्र में आने से आपके जीवन में क्या परिवर्तन हुए?

37. ऋषि-परंपरा के अनुसार माता-पिता को प्रणाम करने के फायदे बताइये।

38. तुलसी सेवन के लाभ बताइये।

39. गौदुग्ध के फायदे बताइये।

40. मानव-जीवन में सदगुरु का क्या महत्त्व है?

(उपरोक्त प्रश्नों के अनुसार 5 लघु उत्तरीय प्रश्न बनायें।)

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प्रश्नपत्र

प्रश्न संख्याः 40               कुल अंकः 50          उम्रः 12 से 15 वर्ष

समयः 20 मिनट             दिनांकः.........          कुल प्राप्तांक........

नामः..............................................................................................

श्रेणीः.................................... संचालक के हस्ताक्षरः ...........................

टिप्पणीः प्रश्न 1 से 35 प्रति प्रश्न 1 अंक और प्रश्न नं 36, 37, 38, 39, और 40 ये 3-3 अंक के हैं।

सभी वैकल्पिक प्रश्नों के चार विकल्प दिये गये हैं। सही विकल्प सामने दिये गये बॉक्स में भरें।

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1. सदगुरु हमें किसका ज्ञान देते हैं?

 

(अ) शरीर का (ब) रोजी-रोटी व्यापार का (स) निजस्वरूप का (द) अ, ब, स तीनों।

2. स्नान करते समय सिर पर पानी डालते हुए कौन-सा मंत्र बोला जाता है?

 

(अ) हरि ॐ (ब) ॐ ह्रीं गंगायै, ॐ ह्री स्वाहा (स) ॐ नमः शिवाय (द) ॐ गुरु।

3. ‘ज्ञान मुद्रा’ में कौन सी उंगली अँगूठे के नीचे रहती है?

 

(अ) अनामिका (ब) मध्यमा (स) तर्जनी (द) कनिष्ठिका

4. पूज्य बापूजी का जन्म चैत्र वद (कृष्णपक्ष) की किस तिथि को हुआ था?

 

(अ) पंचमी (ब) षष्ठी (स) सप्तमी (द) नवमी

5. ‘भ्रामरी प्राणायाम’ करने से स्मरणशक्ति पर क्या असर पड़ता है?

 

(अ) घटती है (ब) बढ़ती है (स) समाप्त हो जाती है (द) कुछ असर नहीं पड़ता

6. हृदयाघात आने पर तुरंत ही कौन-सी मुद्रा की जाये, जिससे हृदयाघात को रोका जा सकता है?

 

(अ) वरुण मुद्रा (ब) ज्ञान मुद्रा (स) अपानवायु मुद्रा (द) प्राण मुद्रा।

7. हाथ के मूल भाग में कौन निवास करते हैं?

 

(अ) भगवान शंकर (ब) भगवान गोविंद (स) माँ सरस्वती (द) ब्रह्मा जी।

8. प्रातः काल वायुमंडल में किस वायु की उपस्थिति अधिक मात्रा में होने के कारण उस समय खुली हवा में टहलने से बुद्धिशक्ति बढ़ाने में तत्काल मदद मिलती है?

 

(अ) हैलोजन (ब) हाइड्रोजन (स) ओजोन (द) नाइट्रोजन

9. अधिकांश टूथपेस्टों में कौन सा रसायन पाया जाता है, जिसके कारण कैंसर होता है?

 

(अ) क्लोराइड (ब) फ्लोरिन (स) फ्लोराइड (द) आयोडाइड

10. पूज्य बापूजी के सदगुरु कौन थे?

 

(अ) परशुराम (ब) श्री लीलाशाह जी बापू (स) घाटवाले बाबा (द) केशवानंद

 

11. स्वामी विवेकानंद की चमत्कारिक स्मरणशक्ति का क्या रहस्य था?

(अ) चंचलता (ब) असंयम (स) एकाग्रता (द) व्यायाम

12. किस मुद्रा में अँगूठे के पासवाली पहली उँगली (तर्जनी) को अँगूठे के मूल में लगाकर अँगूठे के अग्रभाग को बीच की दोनों उँगलियों के अग्रभाम के साथ मिला कर सबसे छोटी उँगली (कनिष्ठिका) को अलग से सीधा रखा जाता है?

 

(अ) वायु मुद्रा (ब) शून्य मुद्रा (स) प्राण मुद्रा (द) अपानवायु मुद्रा।

(उपरोक्त प्रश्नों की तरह ही 35 वैकल्पिक प्रश्न बनायें।)

नीचे दिये गये प्रश्नों के उत्तर केवल 5 वाक्यों में दें।

36. बाल संस्कार केन्द्र में आने से आपको क्या फायदे हुए?

37. बड़े होकर आप समाज एवं देश का नैतिक स्तर ऊँचा उठाने के लिए क्या करेंगे?

38. आप अपनी संस्कृति एवं धर्म के अधिकाधिक प्रचार-प्रसार के लिए क्या करेंगे?

40. मानव-जीवन में सदगुरु का क्या महत्त्व है?

(उपरोक्त प्रश्नो के अनुसार 5 लघु उत्तरीय प्रश्न बनायें।)

नोटः दसवें सप्ताह में आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम के साथ बच्चों के अभिभावकों की एक विशेष बैठक का आयोजन करें। इस हेतु बच्चों द्वारा उन्हें आमंत्रण भेजें। यदि संभव हो तो प्रत्येक बच्चे के माता-पिता से व्यक्तिगत रूप से संपर्क कर उन्हें कार्यक्रम में आने का निमंत्रण दें।

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दसवाँ सप्ताह

सप्ताह के दोनों सत्रों में सिखाये जाने वाले विषय

नोटः सभी सत्रों में लेने योग्य आवश्यक विषयलें।

पहला सत्र

श्री आसारामायण पाठ व पूज्य श्री की जीवनलीला पर आधाऱित कथा-प्रसंग।

कथा-प्रसंगः विश्व का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथः गीता

आध्यात्मिक जगत में अदभुत क्रांतिकारी, महापुरुषों के महापुरुष और गुरुओं के गुरु भगवान श्री कृष्ण की ‘गीता’ मानवमात्र के जीवन को ज्ञान से, आनंद से, समता के सौंदर्य से सजाने में सक्ष्म है।

दुनिया के दो पुस्तकालय प्रसिद्ध हैं। एक तो चेन्नई (मद्रास), दूसरा अमेरिका के शिकागो में है।

रविन्द्रनाथ टैगोर अमेरिका गये तब शिकागो के विश्वप्रसिद्ध पुस्तकालय में भी गये। उन्होंने वहाँ के मुख्य अधिकारी से कहाः "लाखों-लाखों किताबें हैं, शास्त्र हैं, मैं सब नहीं पढ़ पाऊँगा, इतना समय नहीं है। सारी पुस्तकों में, सारे शास्त्रों से आपको जो सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण ग्रंथ लगता हो, मुझे वह बता दो। मैं वह पढ़ना चाहता हूँ।"

मुख्य अधिकारी टैगोर जी को एक अलग, सुंदर, सुहावने खंड में ले गया। बड़े आदर से रखी गयी तमाम पुस्तकों में भी एक अलग ऊँचे स्थान में बड़े कीमती वस्त्र में एक ग्रंथ सुशोभित था। वस्त्र खोला तो टैगोर जी ने देखा कि ग्रंथ की जिल्द पर रत्नजड़ित सजावट थी।

टैगोरजी देखकर दंग रह गये कि ऐसा कौन-सा महान ग्रंथ है! फिर सोचा कि इनका कोई धर्मग्रंथ बाइबिल आदि होगा लेकिन टैगोर जी को ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा। ज्यों ही उस सर्वाधिक आदरपूर्वक रखे गये ग्रंथ को खोला गया तो मुख्य पृष्ठ पर लिखा हुआ था- श्रीमद् भगवद् गीता

अमेरिका में भी इतनी ऊँची समझ के लोग रहते हैं, जिन्होंने ‘गीता’ का माहात्म्य जाना है! कैसा है ‘गीता’ का दिव्य ज्ञान! मानवमात्र का सर्वांगी विकास करने वाला, मरने के बाद किसी की कृपा से स्वर्ग में ले जाने वाली कपोल कल्पित कहानियाँ नहीं अपितु जीते-जी अपने सनातन सुख को पाने की कुँजियाँ प्रदान करने वाला ग्रंथ है ‘श्रीमद् भगवद् गीता’। जिसके आगे स्वर्ग का भोग-सुख भी तुच्छ हो जाता है।

श्लोकः

गीतायाः श्लोकपाठेन गोविन्द स्मृतिकीर्तनात्।

साधुदर्शनमात्रेण तीर्थकोटिफलं लभेत्।।

अर्थः ‘गीता’ के श्लोक के पाठ से, श्री कृष्ण के स्मरण और कीर्तन से तथा संत के दर्शनमात्र से करोड़ों तीर्थों का फल प्राप्त होता है।

संकल्पः बच्चों से संकल्प करवायें की ‘हम भी ‘गीता’ के कम-से-कम एक श्लोक का नित्य पठन अवश्य करेंगे और दूसरों को भी ‘गीता’ की महिमा बतायेंगे।

गृहपाठः बच्चों को इस सप्ताह बताया गया प्रसंग विश्व का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथः गीताकम से कम 5 लोगों को अवश्य बताने का नियम पक्का करवायें ताकि दूसरों को भी ‘गीता’ की महिमा का पता चले। बच्चों को ‘गीता’ के कम-से-कम एक श्लोक का पाठ नित्य करने और उसे कंठस्थ करने को कहें।

साँस्कृतिक कार्यक्रम की तैयारी।

दूसरा सत्र

अभिभावकों की विशेष बैठकः सर्वप्रथम बच्चों के साथ आये हुए अभिभावकों के साथ बैठक करें। बालक के जीवन में शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, नैतिक व आध्यात्मिक विकास कितना आवश्यक है एवं बाल संस्कार केन्द्र में कितना सहज में हो रहा है, इस पर चर्चा करें एवं अभिभावकों के सुझाव भी लें।

कुछ अभिभावकों से कहें कि केन्द्र में आने के बाद उन्होंने अपने बच्चों के जीवन में जो परिवर्तन अनुभव किया है, वह बतायें।

सांस्कृतिक कार्यक्रमः आठवें सप्ताह में दिये गये प्रारूप के अनुसार सांस्कृतिक कार्यक्रम करें।

टिप्पणीः आठवें सप्ताह में दिये गये विषयों के अलावा आप अन्य विषयों पर भी कार्यक्रम कर सकते हैं, जो केन्द्र के नियमों एवं आदर्शों के अनुरूप तथा बच्चों के हित में हो।

पुरस्कार वितरणः पिछले सप्ताह ली गयी परीक्षा में दोनों वर्गों के क्रमशः प्रथम, द्वितिय और तृतिय आने वाले तीन-तीन बच्चों के नाम घोषित करें। उसके बाद पूज्य बापूजी की विद्यार्थीयों से संबंधित कोई ऑडियो कैसेट, सत्साहित्य, नोटबुक आदि पुरस्कार रूप में किसी प्रतिष्ठित या वृद्ध अभिभावक के हाथों उन बच्चों को प्रदान करवायें।

नोटः कार्यक्रम में जो भी अभिभावक आयें, आप उन्हें ‘ऋषि प्रसाद’ की महिमा बता कर सदस्य बनने के लिए प्रेरित करें। (इसके लिए आप पहले से ही अपने पास ‘ऋषि प्रसाद’ पत्रिका एवं रसीद बुक रखें।)

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ग्यारहवाँ सप्ताह

सप्ताह के दोनों सत्रों में सिखाये जाने वाले विषय

यौगिक प्रयोगः

व्यायामः पूर्व में सिखाये हुए सभी व्यायाम योगासनः पादपश्चिमोत्तानासन सूर्यनमस्कार प्राणायामः भ्रामरी, बुद्धि एवं मेधा शक्तिवर्धक, अनुलोम-विलोम मुद्राज्ञानः वायु मुद्रा, शून्य मुद्रा।

कीर्तनः मधुर कीर्तन

भजनः जोड़ के हाथ झुका के मस्तक.....

नोटः इनके साथ सभी सत्रों में लेने योग्य आवश्यक विषयभी लें।

पहला सत्र

इनसे सावधानः

व्यसन का शौक, कुत्ते की मौत !

व्यसन हमारे शरीर को बीमारियों का घर बनाकर उसे खोखला कर देते हैं। अनेक सर्वेक्षणों से यह निष्कर्ष निकला है कि हमारे देश में कैंसर से ग्रस्त रोगियों की संख्या एक तिहाई (1/3) भाग तम्बाकू, बीड़ी, सिगरेट, गुटखे आदि का सेवन करने वाले लोगों का है। डॉक्टरों द्वारा किये गये प्रयोगों से यह सिद्ध हो चुका है कि प्रतिदिन 1 बीड़ी या सिगरेट पीने से 6 मिनट आयु कम होती है अर्थात व्यक्ति अगर दिन में 10 बीड़ी यो सिगरेट पीता है तो उसके जीवन का एक घंटा कम हो जाता है।

तम्बाकू में बहुत से हानिकारक एवं जहरीले रसायन हैं। जिनमें से अत्यंत घातक रसायन ‘निकोटिन’ तम्बाकू खाने अथवा धूम्रपान करने के 20 मिनट के अंदर ही रक्त में मिल जाता है। यह रसायन हृदय तथा मस्तिष्क के लिए अत्यंत घातक है।

गुटखा- घुनयुक्त सुपारियों को पीस कर उसमें छिपकली का पाउडर, सुअर के मांस का पाउडर व तेजाब मिलाकर पानमसाला-गुटखा बनाया जाता है। गुटखा खाने वाले व्यक्ति के मुख से अत्यधिक दुर्गन्ध आने लगती है। चूने के कारण उसके मसूड़े फूलने लगते हैं।

(उपलब्ध हो तो ‘व्यसनमुक्ति’ कैलेण्डर, ‘व्यसनों से सावधान’ वी.सी.डी. बच्चों को दिखायें।)

अनुभवः एक पल में छूट गयी गंदी आदत

मुझे पिछले 4 वर्षों से जर्दा गुटखा खाने की गंदी आदत पड़ गयी थी। इससे छुटकारा पाने की कई बार कोशिश की परंतु हर बार नाकामयाब रहा। एक दिन मैंने दुकान का हिसाब करने के लिए संत श्री आसारामजी आश्रम की स्टॉल से एक रजिस्टर खरीदा। उसमें हम नौजवानों के लिए, जिन्हें जर्दा गुटखा खाने की लत लगी है, पूज्य बापू जी का पावन संदेश छपा हुआ था। साथ ही इन्हें खाने से होने वाले दुष्परिणामों के बारे में भी जानकारियाँ दी गयी थीं। मैंने कई बार उसे पढ़ा।

खुदा कसम! उसी दिन से न जाने कैसे मेरी वह बुरी आदत हमेशा-हमेशा के लिए छूट गयी। मैं आश्चर्य में पड़ गया कि यह कैसा करिश्मा है! जिस आदत से छुटकारा पाने के लिए मैं वर्षों से परेशान था, वह एक ही पल में छूट गयी। अब तो मैंने उस गंदी आदत से ज़िन्दगी भर के लिए तौबा कर ली है।

-       अब्दुल नईम खान, पिपरिया, जि. होशंगाबाद (म.प्र.)

संकल्पः ‘गुटखा, तंबाकू आदि व्यसनों के चंगुल में फँसे बिना भगवान की इस अनमोल देन मनुष्य जीवन को परोपकार, सेवा, संयम, साधना द्वारा उन्नत बनायेंगे। हरि ॐ... हरि ॐ.... बच्चों से ऐसा संकल्प करवायें।

वार्तालापः बच्चों से कुछ भारतीय परंपराओं के नाम पूछें फिर उन्हें कुछ के नाम बतायें। जैसे गुरु-शिष्य, बड़ों को प्रणाम करना, आभूषण पहनना, तिलक लगाना आदि।

दिनचर्याः भोजन-विधिः हाथ, पैल, मुँह धोकर पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके मौनपूर्वक भोजन करें। सात्त्विक, तंदरुस्ती बढ़ाने वाला प्रसन्नता देने वाला भोजन करें। बाजारू चीज़-वस्तुएँ न खायें। ‘श्रीमद् भगवद् गीता’ के 15वें अध्याय का पाठ अवश्य करें। भोजन के समय निम्न श्लोक का उच्चारण करें।

हरिर्दाता हरिर्भोक्ता हरिरन्नं प्रजापतिः।

हरिः सर्वशरीरस्थो भुङ्क्ते भोजयते हरिः।।

अर्थः अन्न परोसनेवाला, भोजन करने वाला एवं अन्न पदार्थ ये सब प्रजा का पालन करने वाले परमेश्वर के रूप हैं। सभी शरीरों में परमेश्वर का निवास है। भोजन करनेवाला व कराने वाला परमेश्वररूप ही हैं।

भोजन कम-से-कम 20-25 मिनट तक खूब चबा-चबाकर करना चाहिए।

श्री आसारामायण पाठ व पूज्यश्री की जीवनलीला पर आधारित कथा-प्रसंग।

विडियो सत्संगः यदि व्यवस्था हो तो ‘चेतना के स्वर’ वी.सी.डी. बच्चों को आधा घंटा दिखायें।

गृहपाठः सूर्यनमस्कार के सभी मंत्र बच्चे पक्का करके आयें।

दूसरा सत्र

सुषुप्त शक्तियाँ जगाने के प्रयोगः

मौन

(क) मौन की महिमाः मौन सर्वोत्तम भूषण है। मौन का अर्थ है अपनी वाक्शक्ति का व्यय न करना। मनुष्य वाणी के संयम से अपनी आंतरिक शक्तियों को विकसित कर सकता है। महात्मा गाँधी हर सोमवार को मौन रखते थे। उस दिन वे अधिक कार्य कर पाते थे।

(ख) मौन के लाभः न बोलने में नौ गुण हैं- 1. किसी की निंदा नहीं होगी। 2. असत्य बोलने से बचेंगे। 3. किसी से वैर नहीं होगा। 4. किसी से क्षमा नहीं माँगनी पड़ेगी। 5. बाद में पछताना नहीं पड़ेगा। 6. समय का दुरुपयोग नहीं होगा। 7. किसी कार्य का बंधन नहीं रहेगा। 8. ज्ञान गुप्त रहेगा। अज्ञान ढँका रहेगा। 9. अंतःकरण की शांति बनी रहेगी।

सीखः कब बोलना, कितना बोलना, कैसे बोलना यह कला सीख लेनी चाहिए।

साखीः

ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोय़।

औरन को शीतल करे, आपहूँ शीतल होय।।

यह साखी बच्चों को कंठस्थ करायें और अर्थ भी बतायें।

संकल्पः ‘हम भी प्रतिदिन कुछ समय मौन अवश्य रखेंगे। हरिॐ.... हरिॐ...’ बच्चों से यह संकल्प करवायें।

चुटकुलाः चार लड़कों  ने कुछ समय मौन रखने का पक्का निश्चय किया। एक बार जब वे घर से बाहर निकले तो उनके मौन का समय शुरू हो गया। रास्ते में चलते-चलते अचानक एक लड़का बोलाः "मैं तो घर की चाबियाँ ही लाना भूल गया।" दूसरा लड़का बोलाः "चाबियाँ तो भूल गया पर तू बोला क्यों?" इस पर तीसरा बोला, "अरे, वह बोला तो बोला लेकिन तू क्यों बोला?" चौथा लड़का बोला, "मैं नहीं बोला, मैं नहीं बोला।"

सीखः मौन रखने पर सावधान रहना चाहिए कि मौन के लिए निर्धारित समय तक हमें कुछ नहीं बोलना है।

कथा-प्रसंग आदि द्वारा सदगुणों का विकास।

मौन की महिमा

‘महाभारत’ का लेखन कार्य चालू था। महर्षि वेदव्यासजी श्लोक बोलते जाते और गणेषजी मौनपूर्वक लिखते जाते। जब ‘महाभारत’ का अंतिम महर्षि वेदव्यास जी के मुख से निःसृत होकर गणेष जी के सुपाठय अक्षरों में भोजपत्र पर अंकित हो गया, तब गणेषजी से महर्षि ने कहाः "विघ्नविनाशक! धन्य है आपकी लेखनी! ‘महाभारत’ का सृजन तो वस्तुतः तो आपने ही किया है परन्तु एक वस्तु तो आपकी लेखनी से भी अधिक विस्मयकारी है और वह है आपका मौन। लंबे समय से आपका-हमारा साथ रहा। इतने समय में मैंने तो 15-20 लाख शब्द बोल दिये परंतु आपके मुख से मैंने एक भी शब्द नहीं सुना।"

तब गणेषजी ने मौन की महिमा बताते हुए कहाः "बादरायणजी! किसी दीपक में अधिक तेल होता है किसी में कम परंतु तेल का अक्षय भंडार किसी भी दीपक में नहीं होता। उसी प्रकार देव, दानव और मानव आदि जितने भी तनधारी हैं, सबकी प्राणशक्ति सीमित है। किसी की कम है, किसी की अधिक परंतु असीम किसी की भी नहीं है। इस प्राणशक्ति का पूर्णतम लाभ वही पा सकता है, जो संयम से इसका उपयोग करता है। संयम ही समस्त सिद्धियों का आधार है ओर सयंम की पहली सीढ़ी है वाक्संयम अर्थात मौन। जो वाणी का संयम नहीं करता, उसकी जिह्वा अनावश्यक शब्द बोलती रहती है और अनावश्यक शब्द प्रायः विग्रह एवं वैमनस्य उत्पन्न करते हैं जो हमारी प्राणशक्ति को सोख लेते हैं।"

वाणी का निर्माण अग्नि के स्थूल भाग, हड्डी के मध्य भाग तथा ओज के सूक्ष्म भाग से होता है। मौन रहने से या मितभाषी होने से इन तीनों की रक्षा होती है। मौन प्राणशक्ति की सुरक्षा करता है, श्रेष्ठ विचारक व दीर्घजीवी बनाता है।

स्वास्थ्य सुरक्षाः 20 मि.ली. अदरक के रस में 1 चम्मच शहद मिला कर दिन में दो-तीन बार लेने से सर्दी में लाभ होता है। नींबू का रस गर्म पानी में मिला कर रात को सोते समय पीने से सर्दी मिटती है। हल्दी-नमक मिश्रित भुनी हुई अजवायन भोजन के पश्चात् मुखवास के रूप में नित्य सेवन करने से सर्दी-खाँसी मिट जाती है।

हँसते-खेलते पायें ज्ञानः इशारे से समझानाः एक चिट्ठी पर केन्द्र की सिखायी गयी कोई आध्यात्मिक बात लिखकर किसी बच्चे को दें तथा बच्चा इशारा करके अन्य बच्चों के समझाने का प्रयास करे। जिस बच्चे को इशारा समझ आ जाये वह खड़ा होकर बतायेगा। यदि गलत बताया तो फिर दूसरे बच्चे की बारी आयेगी।

उदाहरणः एकलव्य की कथा अथवा साखीः मैं बालक तेरा.........(पूरा बतायें।)

प्रश्नोत्तरीः सत्र में सिखाये गये विषयों पर आधारित प्रश्न पूछें। जैसेः

(क) मौन रखने के क्या लाभ होते हैं?

(ख) डॉक्टरों के अनुसार प्रतिदिन 1 बीड़ी या सिगरेट पीने से कितने मिनट आयु कम होती है?

गृहपाठः मौन में गुणों का वर्णन लिखकर लायें। प्रतिदिन कम-से-कम आधा घंटा एक निर्धारित समय पर मौन रखें। सात दिनों का विवरण लिखकर लायें।

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बारहवाँ सप्ताह

सप्ताह के दोनों सत्रों में सिखाये जाने वाले विषय

यौगिक प्रयोग

व्यायामः पूर्व में सिखाये हुए सभी व्यायाम योगासनः पादपश्चिमोत्तानासन सूर्यनमस्कार प्राणायामः भ्रामरी, बुद्धि एवं मेधा शक्तिवर्धक, अनुलोम-विलोम मुद्राज्ञानः वरुणमुद्रा, ज्ञानमुद्रा।

ध्यानः ॐ.... ॐ.... प्रभुजी ॐ....

कीर्तनः मधुर कीर्तन

भजनः जोड़ के हाथ, झुका के मस्तक....

नोटः इनके साथ ‘सभी सत्रों में लेने योग्य आवश्यक विषयभी लें।

पहला सत्र

दिनचर्याः

त्रिकाल संध्याः संध्या के समय किये हुए प्राणायाम, जप और ध्यान से जीवनीशक्ति का विकास होता है। ओज, तेज और बुद्धिशक्ति बढ़ती है। कुंडलिनी शक्ति के जागरण में सहयोग मिलता है। नियमित रूप से त्रिकाल संध्या करनेवाले को कभी रोजी-रोटी की चिंता नहीं करनी पड़ती।

त्रिकाल संध्या का समयः

प्रातः सूर्योदय से दस मिनट पूर्व व दस मिनट बाद तक।

मध्याह्न 12 बजे से 10 मिनट पहले से 10 मिनट बाद तक।

सांयकाल सूर्यास्त से 10 मिनट पहले से 10 मिनट बाद तक।

यदि संध्या का समय बीत जाय तो भी संध्या करनी चाहिए, वह भी हितकारी है। बच्चो! तुम भी अपने जीवन को महान बनाने हेतु अपनी सोयी हुई शक्तियों को जगाओ। प्रतिदिन जप, ध्यान, त्राटक, मौन का अभ्यास करो। त्रिकाल संध्या की अमृतमयी घड़ियों का लाभ लो।

चुटकुलाः एक बार एक आदमी एक डॉक्टर के पास गया। उसने डॉक्टर से कहाः " डॉक्टर साहब! मेरे पेट में बहुत पीड़ा हो रही है।"

डॉक्टरः "कब से?"

"कल से।"

"आपने कल भोजन में क्या खाया था?"

"कल मैंने एक शादी में गाजर का हलवा, गुलाब जामुन और चाट खायी थी।"

"अच्छा याद करो, कुछ और तो नहीं खाया था?"

"हाँ साहब! ऊपर से आईस क्रीम खायी थी।"

"फिर रात को आपने कुछ दवाई या गोली नहीं ली थी?"

"अगर दवाई खाने की जगह पेट में होती तो एक गुलाब जामुन और न खा लेता?"

सीखः जीने के लिए खाओ न कि खाने के लिए जीयो।

इनसे सावधानः फास्टफूड फास्टफूड जैसे पीजा, बर्गर आदि हानिकारक पदार्थ मैदा, यीस्ट आदि से बनते हैं, जो पचने में भारी होते हैं तथा आँतों के रोग पैदा करते हैं। फास्टफूड में चर्बी और कार्बोहाइड्रेटस आवश्यकता से बहुत अधिक होते हैं तथा प्रोटीन नहीं के बराबर होती है। उनमें विटामिन तथा खनिज तत्त्व तो होते ही नहीं हैं। महीन मैदे से बनायी जाने वाली ब्रेड रेशा न होने से आँतों में जम जाती है तथा कब्ज, बदहजमी, गैस, पाचनतंत्र की कमजोरी आदि बीमारियाँ हमें जकड़ लेती हैं।

श्री आसारामायण पाठ व पूज्यश्री की जीवन लीला पर आधारित कथा-प्रसंग।

विडीयो सत्संगः यदि व्यवस्था हो तो ‘चेतना के स्वर’ वी.सी.डी. आधा घंटा बच्चों को दिखायें।

दूसरा सत्र

कथा-प्रसंग द्वारा आदि द्वारा सदगुणों का विकासः

सर्वप्रथम बच्चों को नीचे दिया गया श्लोक कंठस्थ करायें। फिर देशभक्त केशवराव हेडगेवार के कथा प्रसंग का वर्णन करते हुए बच्चों को जीवन में अपने देश व संस्कृति के प्रति लगाव और देशभक्ति की भावना दृढ़ करने की प्रेरणा भी दें।

उद्यमः साहसं बुद्धि शक्तिः पराक्रमः।

षडेते यत्र वर्तन्ते तत्र देवः सहायकृत।।

‘उद्यम, साहस, धीरज, बुद्धि, शक्ति और पराक्रम ये छः गुण जिस व्यक्ति के जीवन में हैं, उसे देवता (परब्रह्म परमात्मा) सहायता करते हैं।’

धर्मनिष्ठ देशभक्त केशवराव हेडगेवार

विद्यालय में बच्चों मिठाई बाँटी जा रही थी। जब एक 11 वर्ष के बालक केशव को मिठाई का टुकड़ा दिया गया तो उसने पूछाः "यह मिठाई किस बात की है?"

कैसा बुद्धिमान रहा होगा वह बालक! स्वाद का लंपट नहीं वरन् विवेकविचार का धनी रहा होगा।

बालक को बताया गयाः "महारानी विक्टोरिया का जन्मदिन है, इसलिए इस खुशी मनायी जा रही है।

बालक ने तुरंत मिठाई के टुकड़े को नाली में फैंक दिया और कहाः "रानी विक्टोरिया अंग्रेजों की रानी है और उन अंग्रेजों ने हमको गुलाम बनाया है। गुलाम बनाने वालों के जन्मदिन की खुशियाँ हम क्यों मनायें? हम तो खुशियाँ तब मनायेंगे जब हमें अपने देश भारत को आजाद करा लेंगे।"

वही साहसी और देशभक्त आगे चलकर महान संस्कतिरक्षक और समाजसेवक डॉ. केशवराव हेडगेवार के रूप में प्रसिद्ध हुआ, जिन्होंने ‘राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ’ की स्थापना की। अपने देश और संस्कृति के प्रति निष्ठा रखने वाला व्यक्ति ही महान बनता है।

आज हम अपनी संस्कृति को भूलकर विदेशी संस्कृति को अपनाने जा रहे हैं। जन्मदिन भारतीय संस्कृति के अनुसार नहीं अपितु पश्चिमी संस्कृति के अनुसार मनाते हैं। नमस्कार करने के बजाय हाथ मिलाते हैं तथा विदेशी सामान को ही ज़्यादा महत्त्व देते हैं, जिससे हमारा देश पतित और गरीब होता जा रहा है। इसलिए हमें अपने सांस्कृतिक रीति-रिवाजों का सम्मान करना चाहिए और जहाँ तक संभव हो स्वदेशी वस्तुओं का ही उपयोग करना चाहिए।

प्राणवान पंक्तियाँ-

मैं छुई मुई का पौधा नहीं, जो छूने से मुरझा जाऊँ।

मैं वो माई का लाल नहीं, जो हौवा से डर जाउँ।।

बच्चों को ये पंक्तियाँ कंठस्थ करवायें और अर्थ भी बतायें।

स्वास्थ्य सुरक्षाः

जलपान विषयक महत्त्वपूर्ण बातें-

भोजन के एक दो घंटे बाद पानी पीना लाभदायक है क्योंकि यह पाचन के दौरान पौष्टिक तत्त्वों को नष्ट नहीं होने देता, जिससे शरीर बलवान बनता है।

खेलकूद, व्यायाम व परिश्रम के कार्य करने से शरीर में पानी की कमी हो जाती है, अतएव परिश्रम करने से पहले तथा परिश्रम करने के उपरांत लगभग आधा घंटा विश्राम करके थोड़ा बहुत पानी अवश्य पीना चाहिए।

जलपान निषेध कब? भोजन के तुरंत बाद (विशेषकर घी, तेल, मक्खन, फल आदि तथा गर्म वस्तुओं अथवा अति ठंडी वस्तुओं को खाने के तत्काल बाद), अति भूख लगने पर, शौचक्रिया के तुरन्त बाद, पेशाब करने के तुरंत बाद या पहले, धूप में तपकर आने के बाद, जब पसीना आ रहा हो तब तथा व्यायाम या खेलकूद के तत्काल बाद पानी नहीं पीना चाहिए, अन्यथा जुकाम आदि कई शिकायतें हो सकती हैं।

ज्ञानचर्चाः

हम जन्मदिन कैसे मना रहे हैं?

हम पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित होकर प्रकाश, आनंद व ज्ञान की ओर ले जाने वाली अपनी सनातन संस्कृति का अनादर करके अपना जन्मदिन अंधकार व अज्ञान की छाया में मना रहे हैं। केक पर मोमबत्तियाँ जलाकर उन्हें फूँककर बुझा देते हैं, प्रकाश के स्थान पर अँधेरा कर देते हैं।

पानी का गिलास होठों से लगाने मात्र से उस पानी में लाखों कीटाणु प्रवेश कर जाते हैं तो फिर मोमबत्तियों के बार-बार फूँकने पर थूक के माध्यम से केक में कितने कीटाणु प्रवेश करते होंगे? अतः हमें पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण का त्याग कर भारतीय संस्कृति के अनुसार ही मनाना चाहिए।

भारतीय संस्कृति के अनुसार जन्मदिन ऐसे मनाओ...

यह शरीर जिसका जन्मदिन मनाना है, पंचभूतों से बना है जिनके अलग-अलग रंग हैं। पृथ्वी का पीला, जल का सफेद, अग्नि का लाल, वायु का हरा व आकाश का नीला।

थोड़े से चावल हल्दी, कुंकुम आदि उपरोक्त पाँच रंग के द्रव्यों से रंग लें। फिर उनसे स्वस्तिक बनायें और जितने वर्ष पूरे हों, मान लो 11, उतने छोटे दीये स्वास्तिक पर रख दें तथा 12 वें वर्ष की शुरूआत के प्रतीक के रूप में एक बड़ा दीया स्वास्तिक के मध्य में रखें।

फिर घर के सदस्यों से सब दीये जलवायें तथा बड़ा दीया कुटुम्ब के श्रेष्ठ, ऊँची सूझवाले, भक्तिभाव वाले व्यक्ति से जलवायें। इसके बाद जिसका जन्मदिन है, उसे सभी उपस्थित लोग शुभकामनाएँ दें। फिर आरती व प्रार्थना करें।

इस प्रकार सात्त्विक ढंग से शुभकामनाएँ देते हुए पवित्रता, दिव्यता व उल्लास सहित प्रकाशमय जन्मदिन मनाना चाहिए। आज के दिन अच्छे कर्म प्रभुचरणों में अर्पण करें एवं बुरे कर्म न दोहराने का शुभ संकल्प लें।

संकल्पः ‘अब हम अपना जन्मदिन भारतीय संस्कृति के अनुसार मनायेंगे और दूसरों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित करेंगे।’ बच्चों से यह संकल्प करवायें।

प्रेरक प्रसंगः

स्वामी विवेकानंद जी का संयम

सर्वप्रथम बच्चों को संयम माने मन, इन्द्रियों व वाणी पर संयम संबंधी जानकारी देते हुए बतायें कि स्वामी विवेकानंद जी किस प्रकार अपने जीवन में संयम के बल से महान बने। उनकी सफलता का रहस्य भी संयम ही था। अतः बच्चों को अपने जीवन में भी संयम लाने की प्रेरणा दें और उनसे स्वामी विवेकानंद जी की तरह जीवन में संयम अपना कर महान बनने का संकल्प करवायें।

प्रसंगः बचपन से अगर जीवन में संयम आ जाये तो शरीर में जो ऊर्जा विद्यमान है, वह बड़ा चमत्कार करती है। 15 साल में संत ज्ञानेश्वर ने ‘ज्ञानेश्वरी गीता’ लिख दी। 9 साल की उम्र में नानक जी ने अपने शिक्षक को अपनी विलक्षण बुद्धि से चकित कर दिया और 16 साल की उम्र में तोरण का किला जीतने वाले शिवाजी को कौन नहीं जानता?

स्वामी विवेकानंदजी के विद्यार्थीकाल की यह घटना है। एक बार वे अपनी छत पर पाठयपुस्तक पढ़ रहे थे। पड़ोस की छत पर कोई लड़की आयी, जरा नखरे वाली थी, बार-बार देखती थी। नरेन्द्र की की नज़र भी उस पर पड़ गयी। दूसरी बार फिर से नज़र गयी ते देखा कि मन में बुरे विचार आ रहे हैं। विवेकी नरेन्द्र मन को सावधान करने लगे कि ‘ऐ मन! फिर से बुरी नज़र से देखा तो तेरी खबर लूँगा।’

उस चंचला की हिलचाल से उनका मन भी उसको देखने को होने लगा तो वे तुरंत रसोईघर में गये और लाल मिर्च लेकर आँखों में झोंक दी तथा मन को कहने लगेः ‘विकारी दृष्टि से देखते-देखते विकारों की खाई में गिरेगा, कहीं का नहीं रहेगा। सारे विकारों की खाई असंयम है।’ ऐसा करने से उनका मन विकारों में गिरने से बच गया और वे कितने महान बन गये! यौवन की सुरक्षा ने उन्हें धर्मधुरंधर पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। वे एक बार पढ़ते तो याद रह जाता।

देश का गौरव बढ़ाने वाले युवक स्वामी विवेकानंद ब्रह्मचर्य-पालन और सदगुरु की कृपा से लाखों करोड़ों के प्रिय एवं पूज्य हुए। यौवन की सुरक्षा से वे प्रभुप्राप्ति की सफल यात्रा कर पाये।

अपने जीवन में निर्विकारिता, प्रसन्नता, आत्मा-परमात्मा में स्थिति कराने वाला ज्ञान और ध्यान होना चाहिए। इसी को बढ़ाओ।

अनुभवः

यौवन सुरक्षापुस्तक नहीं, अपितु एक शिक्षा-ग्रंथ है।

यह "यौवन सुरक्षा" एक पुस्तक नहीं अपितु एक शिक्षा ग्रंथ है जिससे हम विद्यार्थीयों को संयमी जीवन जीने की प्रेरणा मिलती है। सचमुच इस अनमोल ग्रंथ को पढ़कर एक अदभुत प्रेरणा तथा उत्साह मिलता है। मैंने इस पुस्तक में कई ऐसी बातें पढ़ीं जो शायद ही कोई हम बालकों को बता व समझा सके। ऐसी शिक्षा मुझे आज तक किसी दूसरी पुस्तक से नहीं मिली। मैं इस पुस्तक को जनसाधारण तक पहुँचाने वालों को प्रणाम करता हूँ तथा उन महापुरुष-महामानव को शत-शत प्रणाम करता हूँ जिनकी प्रेरणा तथा आशीर्वाद से इस पुस्तक की रचना हुई।

हरप्रीत सिंह अवतार सिंह, कक्षा-9, राजकीय हाई स्कूल चण्डीगढ़।

ॐ अर्यमायै नमः मंत्र का 21 बार जप करायें और रात्रि में शयन के पहले 21 बार जप करके सोने को कहें तथा यौवन-सुरक्षा की महिमा बताकर जीवन में संयमी बनने की प्रेरणा भी दें।

संकल्पः हम भी स्वामी विवेकानंदजी की तरह संयमी बनेंगे।’ बच्चों से यह संकल्प करवायें।

प्रश्नोत्तरीः सत्र में सिखाये गये विषयों पर आधारित प्रश्न पूछें। जैसे-

1.      बालक केशव ने मिठाई क्यों फैंक दी?

2.      त्रिकाल संध्या क्यों करनी चाहिए?

3.      हमारा शरीर कितने भूतों से बना है?

4.      स्वामी विवेकानंद जी महान कैसे बने?

गृहपाठः कक्षा 7 से ऊपर के बच्चों को प्रतिदिन ‘युवाधन सुरक्षा’ पुस्तक के दो पन्ने पढ़ने को कहें व जीवन में संयम लाकर महान बनने की प्रेरणा दें।

तेरहवाँ सप्ताह

सप्ताह के दोनों सत्रों में सिखाये जाने वाले विषय

यौगिक प्रयोगः

व्यायामः क्रमांक 7-9 योगासनः पादपश्चिमोत्तानासन सूर्यनमस्कार प्राणायामः भ्रामरी, बुद्धि एवं मेधाशक्ति वर्धक, प्राणशक्तिवर्धक प्रयोग मुद्राज्ञानः वायुमुद्रा, शून्य मुद्रा।

कीर्तनः मधुर कीर्तन

भजनः जोड़ के हाथ झुका के मस्तक...

नोटः इनके साथ ‘सभी सत्रों में लेने योग्य आवश्यक विषय’ भी लें।

पहला सत्र

अनुभवः बाल संस्कार केन्द्र, बटाला में नियमित आनेवाली नेहा शर्मा अपना अनुभव बताते हुए कहती हैः बटाला में जबसे बाल संस्कार केन्द्र खुला है, तबसे मैं यहाँ पर हर रविवार को नियमित आती हूँ। केन्द्र का समय तो 2 से 4 बजे का है परंतु हम बच्चे यहाँ एक बजे ही पहुँच जाते हैं। मैं पूरे सप्ताह रविवार आने की प्रतीक्षा करती रहती हूँ। पहले कोई भी चीज़ जल्दी मेरी समझ में नहीं आती थी, मुझे कुछ भी शीघ्रता से याद नहीं होता था परंतु अब मुझे अच्छी तरह याद हो जाता है। मैं घर पर नियमित जप-ध्यान करती हूँ और मेरी देखा-देखी मेरी छोटी बहन भी जप-ध्यान करने लगी है। मेरे माता-पिता मुझे पहले जप ध्यान करने को तो कहते थे परंतु बाल संस्कार केन्द्र में आने से ही जप-ध्यान में मेरी रूचि हुई। शुरु-शुरु में जब मैं बाल संस्कार केन्द्र की बातें अपनी सहपाठिनों को बताती थी तो वे मेरा मज़ाक उड़ाती थीं कि ‘तुम्हारी कोई उम्र है राम-राम, हरि-हरि करने की’ परंतु मेरी देखा-देखी वे भी बाल संस्कार केन्द्र में आने लगीं। अब तो उन्हें और मुझे जो आनंद प्राप्त होता है, उसका बयान करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं।

नेहा शर्मा, कक्षा-8, बाल संस्कार केन्द्र, बटाला (पंजाब)

दिनचर्याः माता-पिता एवं गुरुजनों को प्रणामः हमारी भारतीय संस्कृति मं माता-पिता व गुरुजनों को नित्य प्रणाम करने की कथा प्रचलित है।

जब हम अपनी ऋषि-परंपरा के अनुसार अपने हाथों से चौकड़ी (×) का निशान बनाते हुए माता-पिता एवं गुरुजनों को प्रणाम करते हैं तो उनकी ऊँची व शुभ भावनाएँ विद्युत तरँगों के माध्यम से हमारे मस्तिष्क तक पहुँचती हैं। मस्तिष्क उन्हें अपनी ग्रहणशील प्रकृति के अनुसार संस्कारों के रूप में संचित कर लेता है। महापुरुषों की आध्यात्मिक शक्तियाँ समस्त शरीर के नोकवाले अंगों द्वारा अधिक बढ़ती हैं और साधक के गोल अंगों द्वारा तेजी से ग्रहण होती हैं। इसलिए गुरु शिष्य के सिर पर हाथ रखते हैं ताकि हाथ की उँगलियों द्वारा वे आध्यात्मिक शक्तियाँ शिष्य के शरीर में प्रवाहित हो जायें। इसी प्रकार शिष्य जब गुरुचरणों में मस्तक रखता है, तब गुरुचरणों की उँगलियों द्वारा जो आध्यात्मिक शक्तियाँ प्रवाहित होती हैं, उन्हें मस्तक द्वारा अनायास ही ग्रहण करके वह आध्यात्मिक शक्तियों का अधिकारी बन जाता है।

इनसे सावधानः स्पर्शदोष से बचें- हाथ मिलाने से रोगाणुओं का और उनके माध्याम से संक्रामक बीमारियों का आदान प्रदान होता है। हाथ मिलाने से अपने शरीर में संचित शक्ति दूसरे व्यक्ति के शरीर में प्रवेश करती है, इससे जीवन शक्ति का ह्रास होता है। अधिक से अधिक व्यक्तियों से हाथ मिलाने से थकान भी महसूस होती है।

भारतीय परम्पराः नमस्कार- नमस्कार भारतीय संस्कृति की एक सुंदर परंपरा है। जब हम किसी बुजुर्ग, माता-पिता या संतों-महापुरुषों के सामने हाथ जोड़ कर मस्तक झुकाते हैं तो हमारा अहंकार पिघलता है, अंतः करण निर्मल होता है व समर्पण भाव प्रकट होता है।

दोनों हाथों को जोड़ने से जीवनीशक्ति और तेजोवलय का क्षय रोकने वाला एक चक्र बन जाता है। इसलिए हाथ मिलाकर ‘हैलो’ कहने के बजाय हाथ जोड़कर हरिॐ अथवा भगवान को कोई भी नाम लेकर अभिवादन करना चाहिए।

संकल्पः ‘हम आज से किसी से हाथ नहीं मिलायेंगे बल्कि हाथ जोड़कर ‘हरिॐ’ कहेंगे। बच्चों से यह संकल्प करवायें।

श्री आसारामायण पाठ व पूज्यश्री की जीवनलीला पर आधारित कथा-प्रसंग।

विडियो सत्संगः यदि व्यवस्था हो तो ‘चेतना के स्वर’ वी.सी.डी. आधा घंटा बच्चों के दिखायें।

गृहपाठः बच्चों को माता-पिता की सेवा का महत्त्व बताकर माता-पिता की सेवा करने को कहें और सप्ताह के सात दिन के कॉलम नोटबुक में बनाने को कहें। जिस दिन माता-पिता के सेवा की, उस दिन के सामने ॐ लिखें और जिस दिन नहीं की, उस दिन के सामने नहीं (×) का निशान लगायें। सेवा का वर्णन भी लिख कर लायें।

नोटः बच्चों को आने वाले सत्र में आयोजित निबन्ध प्रतियोगित के बारे में बतायें एवं उन्हें तैयारी हेतु विषय दे दें। जैसे बाल्यकाल से प्राप्त अच्छे संस्कारों से महान कैसे बना जा सकता है? जीवन में सदगुरुदेव की दीक्षा का महत्त्व आदि।

दूसरा सत्र

कथा-प्रसंग आदि द्वारा सदगुणों का विकासः

जीवन-विकास का मूल संयम

एक बड़े महापुरुष थे। हजारों-लाखों लोग उनकी पूजा करते थे, जय-जयकार करते थे। लाखों लोग उनके शिष्य थे, करोड़ों लोग उन्हें श्रद्धा-भक्ति से नमन करते थे। उन महापुरुष से किसी व्यक्ति ने पूछाः "राजा-महाराजा, राष्ठ्रपति जैसे लोगों को भी लोग केवल सलामी मारते हैं या हाथ जोड़ लेते हैं किंतु उनकी पूजा नहीं करते, जबकि आपकी लोग पूजा करते हैं। प्रणाम करते हैं तो बड़ी श्रद्धा-भक्ति से। ऐसा नहीं कि केवल हाथ जोड़ दिये। लाखों लोग आपकी फोटो के आगे भोग रखते हैं। आप इतने महान कैसे बने?

दुनिया में मान करने योग्य तो बहुत से लोग हैं, बहुतों को धन्यवाद और प्रशंसा मिलती है लेकिन श्रद्धा-भक्ति से ऐसी पूजा न तो सेठों की होती है, न साहबों की, न प्रेसीडेंट की होती है, न सेना के अफसर की, न राजा की और न महाराजा की। अरे! श्री कृष्ण के साथ रहने वाले लोग भीम, अर्जुन, युधिष्ठर आदि की भी पूजा नहीं होती, जबकि श्री कृष्ण की पूजा करोड़ों लोग करते हैं। भगवान राम को करोड़ों लोग मानते हैं। आपकी पूजा भी भगवान जैसी ही होती है। आप इतने महान कैसे बने?

उन महापुरुष ने जवाब में केवल एक ही शब्द कहा और वह शब्द था ‘संयम’।

तब उस व्यक्ति ने पुनः पूछाः ‘हे गुरुवर! क्या आप बता सकते हैं कि आपके जीवन में संयम का पाठ कब से शुरु हुआ?"

महापुरुष बोलेः "मेरे जीवन में संयम की शुरुआत पाँच वर्ष की आयु से ही शुरु हो गई। मैं पाँच वर्ष का था तब मेरे पिताजी ने मुझसे कहाः

‘बेटा! कल हम तुम गुरुकुल भेजेंगे। गुरुकुल जाते समय तेरी माँ तेरे साथ नहीं होगी, भाई भी साथ नहीं जायेगा और मैं भी साथ नहीं आऊँगा। कल सुबह नौकर तुझे स्नान, नाश्ता करा के, घोड़े पर बिठाकर गुरुकुल ले जाएगा। हम सामने होंगे तो तेरा मोह हम में हो सकता है, इसलिए हम दूसरे के घर में छिप जाएँगे, जिससे तू हमें नहीं देख सकेगा पर हम ऐसी व्यवस्था करेंगे कि हम तुझे देख सकेंगे। हमें देखना है कि तू रोते-रोते जाता है या हमारे कुल के बालक को जिस प्रकार जाना चाहिए वैसे जाता है। घोड़े पर जब जाएगा और गली में मुड़ेगा, तब भी यदि तू पीछे मुड़ कर देखेगा तो हम समझेंगे कि तू हमारे कुल पर कलंक है।’

पीछे मुड़कर देखने से भी मना कर दिया! पाँच वर्ष का बेटा गुरुकुल जाए, जाते वक्त माता-पिता भी सामने न हों और गली में मुड़ते वक्त घर की देखने का भी मना हो! कितना संयम! कितना कड़ा अनुशासन!!!

पिता ने कहाः ‘फिर जब तुम गुरुकुल में पहुँचोगे और गुरुजी तुम्हारी परीक्षा के लिए तुमसे कहेंगे कि बाहर बैठो तो तुम्हें बाहर बैठना पड़ेगा। गुरुजी जब तक बाहर से अन्दर आने की आज्ञा न दें, तब तक तुम्हें वहाँ रुककर संयम का परिचय देना पड़ेगा। फिर गुरुजी ने तुम्हें प्रवेश दिया, पास किया तो तू हमारे घर का बालक कहलायेगा, अन्यथा तू खानदान का नाम बढ़ाने वाला नहीं, नाम डुबानेवाला साबित होगा। इसलिए कुल पर कलंक मत लगाना वरन् सफलतापूर्वक गुरुकुल में प्रवेश पाना।’

मेरे पिता जी ने मुझे समझाया और मैं गुरुकुल पहुँचा। मेरे नौकर ने आकर गुरुजी से आज्ञा माँगी कि ‘वह बालक गुरुकुल में आना चाहता है।’

गुरुजी बोलेः ‘उसको बाहर बैठा दो।’

थोड़ी देर बाद गुरुजी बाहर आये और बोलेः ‘बेटा! देख, इधर बैठ जा। आँखें बंद कर ले। जब तक मैं नहीं आऊँ और जब तक तू मेरी आवाज़ नहीं सुने, तब तक तुझे आँखें नहीं खोलनी हैं। अपने शरीर पर, मन पर और अपने आप पर तेरा कितना संयम है इसकी कसौटी होगी। अगर अपने-आप पर तेरा संयम होगा तो ही तुझे गुरुकुल में प्रवेश मिल सकेगा। यदि संयम नहीं है तो फिर तू कभी महापुरुष नहीं बन सकता, अच्छा विद्यार्थी भी नहीं बन सकेगा।’

संयम ही जीवन की नीँव है। संयम से ही एकाग्रता आदि गुण विकसित होते हैं। यदि संयम नहीं है तो एकाग्रता नहीं आती, तेजस्विता नहीं आती, याद शक्ति नहीं बढ़ती। अतः जीवन में संयम चाहिए, चाहिए और चाहिए।

कब हँसना और कब एकाग्रचित्त होकर सत्संग सुनना, इसके लिए भी संयम चाहिए। क्या खाना क्या नहीं खाना? क्या करना क्या नहीं करना? किसका संग करना किसका नहीं करना? इसमें भी विवेक चाहिए, संयम चाहिए। संयम ही सफलता का सोपान है। भगवान को पाना है तो भी संयम ज़रूरी है। सिद्धि पानी है तो भी संयम चाहिए और प्रसिद्ध पानी है तो भी संयम चाहिए। संयम तो सबका मूल है। जैसे सब व्यंजनों का मूल पानी है, ऐसे ही जीवन के विकास का मूल संयम है।

गुरुजी तो कहकर चले गये कि ‘जब तक मैं न आऊँ तब तक आँखें न खोलना।’ थोड़ी देर बाद गुरुकुल की ‘रीसेस’ हुई। सब बच्चे आये। मन हुआ कि देखूँ- ‘कौन है?’ फिर याद आया कि संयम! थोड़ी देर बाद पुनः कुछ बच्चों को मेरे पास भेजा गया। वे लोग मेरे आस-पास खेलने लगे, कबड्डी-कबड्डी की आवाज़ भी सुनी। मेरी देखने की बहुत इच्छा हुई परन्तु मुझे याद आया कि संयम!!

मेरे मन की शक्ति के बढ़ाने का पहला प्रयोग हो गया मेरी स्मरणशक्ति बढ़ाने की पहली कुंजी मिल गयी संयम! मेरे जीवन को महान बनाने की प्रथम कृपा गुरुजी द्वारा हुई संयम! ऐसे महान गुरु की कसौटी में उस पाँच वर्ष की छोटी सी वय में उत्तीर्ण होना था। अगर मैं अनुत्तीर्ण हो जाता तो फिर मेरे घर मेरे पिता जी मुझे बहुत छोटी दृष्टि से देखते।

सब बच्चे खेल कर चले गये लेकिन मैंने आँखें नहीं खोलीं। थोड़ी देर के बाद गुड़ और शक्कर की चासनी बना कर मेरे आस-पास उड़ेल दी गई। मेरे घुटने पर, मेरी जाँघ पर भी कुछ बूँदें चासनी की डाल दी गयीं। जी चाहता था कि आँखें खोल कर देखूँ कि अब क्या होता है। फिर गुरुजी की आज्ञा याद आयी, ‘आँखें मत खोलना।’ अपनी आँख पर, अपने मन पर संयम रखा। शरीर पर चींटियाँ चलने लगीं लेकिन याद था कि उत्तीर्ण होने के लिए ‘संयम’ जरूरी है।

तीन घंटे बीत गये, तब गुरुजी आये और बड़े प्रेम से बोलेः ‘पुत्र ! उठो...उठो। तुम इस परीक्षा में उत्तीर्ण रहे। शाबाश है तुम्हें।’

ऐसा कहकर गुरुजी ने स्वयं अपने हाथों से मुझे उठाया। गुरुकुल में प्रवेश मिल गया। गुरु के आश्रम में प्रवेश अर्थात् भगवान के राज्य में प्रवेश मिल गया।

इस प्रकार मुझे महान बनाने में मुख्य भूमिका संयम की ही रही है। यदि बाल्यकाल से ही पिता जी की आज्ञा को न मानकर संयम का पालन न करता तो आज न जाने मैं कहाँ होता? सचमुच, संयम में अदभुत सामर्थ्य है। संयम के बल पर दुनिया के सारे कार्य संभव हैं। जितने भी महापुरुष, संतपुरुष इस दुनिया में हो चुके हैं या हैं, उनकी महानता के मूल में उनका संयम ही है।

वीणा के तार संयत हैं इसी से मधुर स्वर गूँजता है। अगर वीणा के तार ढीले कर दिये जायें तो वे मधुर स्वर नहीं आलापेंगे।

रेल के इंजन में वाष्प संयत है तो हजारों यात्रियों को दूर-सदूर की यात्रा कराने में वह सफल होती है। अगर वाष्प का संयम टूट जाये, वह इधर-उधर बिखर जाए तो रेलगाड़ी दौड़ नहीं सकती।

ऐसे ही हे विद्यार्थी! अपने जीवन में संयम का पाठ याद रख। महान बनने की यही शर्त हैः संयम और सदाचार। हजार बार असफल होने पर भी फिर से पुरुषार्थ कर, अवश्य सफलता मिलेगी। हिम्मत न हार। छोटा-छोटा नियम, छोटा-छोटा संयम का व्रत जीवन में लाते हुए आगे बढ़ और महान हो जा।

प्राणवान पंक्तियाँ-

तुझसे है सारा जग रोशन, ओ भारत के नौजवान !

संयम सदाचार को मत छोड़ना, भले आयें लाखों तूफान।।

बच्चों को यह साखी कंठस्थ करवायें एवं अर्थ भी बतायें।

संकल्पः ‘हम भी अपने जीवन में संयम सदाचार अपनाकर अपना भविष्य उज्जवल बनायेंगे।’ बच्चों से यह संकल्प करवायें।

स्वास्थ्य सुरक्षाः

च्यवनप्राश

च्यवनप्राश के लाभ तथा आश्रम द्वारा निर्मित च्यवनप्राश के बारे में भी बच्चों को जानकारी दें। ‘चरक संहिता’ में महर्षि चरक ने च्यवनप्राश को ‘रसायन’ कहा है। आयुर्वेद में रसायन शब्द का अर्थ हैः यौवन और दीर्घायु प्रदान करने वाला, जिसमें जीवनीय तत्त्व और सप्तधातुओं (रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और वीर्य) को पुष्ट करने वाले तत्त्व भरपूर हों।

लाभः च्यवनप्राश शरीर की पाचन-प्रक्रिया को सुधार शरीर के कोषों का नवीनीकरण करता है। इसके लगातार सेवन से व्यक्ति दीर्घायु, बढ़िया याद्दाश्त, अदभुत प्रतिभाशक्ति, रोगों से मुक्ति, चिरयौवन और बल प्राप्त करता है। ‘संत श्री आसाराम जी औषध निर्माण विभाग’ सात्त्विक व पवित्र वातावरण में च्यवनप्राश बनाता है, जिसमें होते हैं वीर्यवान आँवले, प्रवालपिष्टी, शुद्ध देसी घी, मिश्री और अन्य कुल मिला कर 56 द्रव्य।

च्यवनप्राश शीत ऋतु में ही खाया जाता है, यह बिल्कुल निराधार और भ्रान्त मान्यता है। इसका विधिपूर्वक सेवन वर्ष भर सभी ऋतुओं में किया जा सकता है। इसे स्वस्थ या रोगी, बालक, युवक व वृद्ध सभी ले सकते हैं। इसका प्रयोग विशेषकर पुरानी खाँसी, रोगजनित दुर्बलता, राजयक्षमा (क्षयरोग), फेफड़ों और मूत्राशय के रोगों में किया जाता है। इससे शरीर पुष्ट एवं कांति से युक्त होता है, मेधा तथा स्मृतिशक्ति बढ़ती है।

विशेषः रविवार, शुक्रवार और अष्टमी को आँवला नहीं खाना चाहिए तथा च्यवनप्राश का सेवन भी नहीं करना चाहिए।

जीवनोपयोगी नियमः कोई भी पेय पदार्थ जब चन्द्र (बायाँ) स्वर चालू हो तभी लें। यदि दाहिना स्वर चालू हो तो कोई पेय पदार्थ पीना आवश्यक हो तो दाहिना नथुना बंद करके बायें नथुने से श्वास लेते हुए ही पीयें। दाहिना स्वर चालू हो तब भोजन करना चाहिए। यदि दाहिना स्वर चालू न हो तो भोजन से पहले चालू कर लो।

विधिः बायीं करवट लेट जाने से थोड़ी देर में दाहिना स्वर चालू हो जाता है।

निबंध प्रतियोगिताः सत्र में सिखाये गये विषयों पर आधारित प्रश्न पूछें। जैसे-

1.      जीवन-विकास का मूल क्या है?

2.      च्यवनप्राश से क्या-क्या लाभ होते हैं?

3.      कौन-सा स्वर चालू हो तब कोई पेय पदार्थ लेना चाहिए?

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चौदहवाँ सप्ताह

सप्ताह के दोनों सत्रों में सिखाये जाने वाले विषय

यौगिक प्रयोग व्यायामः क्रमांक 8-10 योगासनः पादपश्चमोत्तानासन, सर्वांगासन, ताड़ासन। सूर्यनमस्कार प्राणायामः भ्रामरी, बुद्धि एवं मेधा शक्तिवर्धक, प्राणशक्तिवर्धक प्रयोग। मुद्राज्ञानः पूर्व में सिखायी हुई सभी मुद्राओं का अभ्यास करायें।

कीर्तनः पूर्व में सिखाये हुए सभी कीर्तन एक-एक करके करायें।

भजनः जोड़ के हाथ झुका के मस्तक....

नोटः इनके साथ ‘सभी सत्रों में लेने योग्य आवश्यक विषयभी लें।

पहला सत्र

ज्ञानचर्चाः भोजन के प्रकारः-

सात्त्विक भोजनः आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख व प्रीति को बढ़ाने वाले, रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहने वाले तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय पदार्थ सात्त्विक भोजन में आते हैं। जैसे- दूध, दही, घी, फल, हरी सब्जियाँ आदि।

राजसी भोजनः कड़वे, खट्टे, नमकीन, बहुत गर्म, तीखे, रूखे, दाहकारक और दुःख, चिंता तथा रोगों को उत्पन्न करने वाले भोज्य पदार्थ राजसी होते हैं।

तामसी भोजनः जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गन्धयुक्त, बासी, उच्छिष्ट और अपवित्र हैं उसे तामसी भोजन कहते हैं।

स्वास्थ्य सुरक्षा के नियमः भोजन में पालक, मेथी, हरी सब्जियाँ, दूध, घी, छाछ, मक्खन, पके हुए फल आदि विशेषरूप से लें। इससे सात्त्विकता बढ़ेगी, उत्साह और प्रसन्नता बनी रहेगी। पेट को साफ रखें। कभी-कभी त्रिफला चूर्ण या संतकृपा चूर्ण पानी के साथ लिया करें। कभी-कभी उपवास करें। उपवास से पाचन शक्ति बढ़ती है, भगवद भजन और आत्मचिंतन में मदद मिलती है ठूँस-ठूँस कर न खायें। क्या खायें, कब खायें, कैसे खायें, कितना खायें इसका विवेक रखना चाहिए।

दिनचर्याः व्यायाम, योगासन एवं खेलकूद का महत्त्वः स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन का निवास होता है। अंग्रजी में कहते हैं A healthy mind resides in a healthy body.

जिसका शरीर स्वस्थ नहीं रहता, उसका मन अधिक विकारग्रस्त होता है। इसलिए रोज प्रातः व्यायाम एवं आसन करना चाहिए।

व्यायामः ‘व्यायाम’ का अर्थ पहलवानों की तरह मांसपेशियाँ बढ़ाना नहीं है। शरीर को योग्य कसरत मिल जाये ताकि उसमें रोग प्रवेश न करें और शरीर तथा मन स्वस्थ रहें इतना ही इसमें हेतु है।

व्यायाम करने से शरीर की सभी मांसपेशियाँ क्रियाशील हो जाती हैं, शरीर के सभी अंगों में रक्त संचरण होता है। व्यायाम करने से मांसपेशियाँ सशक्त बनती हैं। आसन करने से पहले व्यायाम करने से आसन करते समय मांसपेशियों और संधिस्थानों पर ज़्यादा जोर नहीं पड़ता। दंड-बैठक, पुल-अप्स आदि उत्तम व्यायाम हैं। रोज प्रातःकाल 3-4 मिनट दौड़ने और तेजी से टहलने से भी शरीर को अच्छा व्यायाम मिल जाता है।

योगासनः आसन शरीर के समुचित विकास एवं ब्रह्मचर्य-साधना के लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध होते हैं। व्यायाम से भी अधिक उपयोगी आसन है। योगासन शरीर का सहज-स्वाभाविक विकास करते हैं। इनसे शरीर की मांसपेशियों व अस्थियों को ही नहीं बल्कि एक-एक कोशिका, एक-एक उत्तक और एक-एक नस को लाभ मिलता है। साथ ही शरीर के विभिन्न तंत्रों और संस्थानों, जैसे श्वसनतंत्र, पाचन तंत्र, नाड़ी-संस्थान, रक्त-संचरण इत्यादि का भी सामर्थ्य बढ़ता है तथा उनके विकार दूर होते हैं।

योगासन मन मस्तिष्क को भी प्रफुल्लित, आनंदित तथा प्रमाद रहित रखता है। मानसिक एकाग्रता और शांति बढ़ाने में भी सहयोगी होते हैं। रोगों का निवारण कर शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं।

आसन केवल शारीरिक क्रियामात्र नहीं हैं, उनमें आध्यात्मिक प्रगति के बीज छिपे हैं। आसन के द्वारा शरीर की चंचलता (रजोगुण), अस्थिरता और आलस्य-प्रमाद (तमोगुण) दूर होकर शरीर में सत्त्वगुण का प्रकाश होता है तथा दिव्यता आती है। किसी एक आसन को अभ्यास द्वारा सिद्ध कर लेने पर सामर्थ्य बढ़ता है। बच्चों को प्रतिदिन शशकासन, सर्वांगासन, ताड़ासन, पादपश्चिमोत्तानासन अवश्य ही करने चाहिए।

खेलकूदः खेलों के द्वारा बच्चों की मानसिक, बौद्धक शक्तियों का सहज ही विकास होता है। स्फूर्ति, चपलता, अनुशासन, निर्भयता, सहयोग की भावना, साहस, मैत्री आदि सदगुण विकसित होने लगते हैं।

इनसे सावधानः आइसक्रीम से हानि आइसक्रीम के निर्माण में कच्ची सामग्री के तौर पर अधिकांशतः हवा भरी रहती है। साथ ही उसमें 30% बिना उबला और बिना छना पानी, 6% पशुओं की चर्बी तथा 7 से 8% शक्कर होती है। इसके अतिरिक्त आइसक्रीम में रोगजनक जहरीले रासायनिक पदार्थ भी मिलाये जाते हैं जो किसी जहर से कम नहीं होते। जैसे इथाईल एसिटेट के प्रयोग से आइसक्रीम में अनानास जैसा स्वाद आता है परन्तु इसके वाष्प से फेफड़े, गुर्दे और दिल की भयंकर बीमारियाँ उत्पन्न होती हैं।

संकल्पः ‘अब हम यह जहर अपने मुँह में नहीं डालेंगे। स्वास्थ्य के इस घातक शत्रु को अब हम अपने घर नहीं लायेंगे।’ बच्चों से यह संकल्प करवायें।

श्री आसारामायण पाठ व पूज्यश्री की जीवन लीला पर आधारित कथा-प्रसंग।

विडियो सत्संगः यदि व्यवस्था हो तो ‘चेतना के स्वर’ वी.सी.डी. आधा घंटा बच्चों को दिखायें।

गृहपाठः बच्चे भोजन के पश्चात अपनी जूठी थाली साफ करने के लिए किसी दूसरे को न देकर स्वयं साफ करने का नियम लें।

दूसरा सत्र

कथा-प्रसंग आदि द्वारा सदगुणों का विकासः

तिलकजी की सत्यनिष्ठा

‘सत्य की महिमा’ विषय पर चर्चा करते हुए सर्वप्रथम इस विषय में बच्चों की राय लें। तत्पश्चात ‘हमारे जीवन में सत्य की क्या महिमा है?’ इसके बारे में बच्चों को बतायें कि सत्य-आचरण करने वाला निर्भय रहता है, उसका आत्मबल बढ़ता है। जो झूठ बोलता है उसकी बात में कोई दम नहीं होता है और न ही उसकी बात कोई मानता है। सत्य-आचरण करने वाला सदैव सबका प्रिय हो जाता है।

इस प्रकार की चर्चा करते हुए अपने देश की महान विभूति लोकमान्य तिलक जी के बाल्यकाल का निम्न प्रसंग सुनाकर बच्चों को जीवन में सत्य बोलने की आदत डालने की प्रेरणा दें।

एक बार अर्धवार्षिक परीक्षा में तिलकजी ने प्रश्नपत्र के सभी प्रश्नों के जवाब सही लिख डाले। परीक्षाफल घोषित करते समय प्रथम, द्वितिय व तृतिय स्थान प्राप्त करने वाले विद्यार्थीयों को प्रोत्साहन रूप में इनाम दिये जा रहे थे। तिलक जी की कक्षा में उन्होंने ही प्रथम स्थान प्राप्त किया था। अतः इनाम के लिए उनका नाम घोषित किया गया। ज्यों ही अध्यापक ने उन्हें आगे बुलाकर इनाम देने के लिए हाथ बढ़ाया, त्यों ही बालक तिलक रोने लगे।

यह देखकर सभी को बड़ा आश्चर्य हुआ! जब अध्यापक ने तिलक जी से रोने का कारण पूछा तो वे बोलेः "अध्यापक जी! सच बात तो यह है कि सभी प्रश्नों के जवाब मैंने नहीं लिखे हैं। आप सारे प्रश्नों के सही जवाब लिखने पर यह इनाम मुझे दे रहे हैं किंतु एक प्रश्न का जवाब मैंने अपने मित्र से पूछकर लिखा था। अतः इनाम का वास्तविक हकदार मैं नहीं हूँ।"

अध्यापक प्रसन्न होकर तिलक को गले लगा कर बोलेः "बेटा! भले पहले नंबर के लिए इनाम पाने का तुम्हारा हक नहीं बनता किंतु यह इनाम अब तुम्हें तुम्हारी सच्चाई के लिए देता हूँ।

ऐसे सत्यनिष्ठ, न्यायप्रिय और ईमानदार बालक ही आगे चलकर महान कार्य कर पाते हैं।

प्यारे बच्चो! तुम ही भावी भारत के भाग्य विधाता हो। अतः अभी से अपने जीवन में सत्यपालन, ईमानदारी, संयम, सदाचार, न्यायप्रियता आदि गुणों को अपनाकर अपना जीवन महान बनाओ। तुम्हीं में से कोई लोकमान्य तिलक तो कोई सरदार वल्लभभाई पटेल, कोई शिवाजी तो कोई महाराणा प्रताप जैसा बन सकता है। तुम्हीं में से कोई ध्रुव, प्रह्लाद, मीरा, मदालसा का आदर्श पुनः स्थापित कर सकता है।

साखीः

सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।

जाके हिरदे सांच है, ताके हिरदे आप।।

यह साखी बच्चों को कंठस्थ करवायें और अर्थ भी बतायें।

संकल्पः हम भी जीवन में सत्यपालन, ईमानदारी, संयम, सदाचार आदि सदगुणों को अपना कर अपना जीवन महान बनायेंगे। भगवद-कृपा और संत-महापुरुषों के आशीर्वाद हमारे साथ हैं। हरिॐ... हरिॐ... बच्चों से यह संकल्प करवायें।

स्वास्थ्य सुरक्षाः

आभूषण चिकित्सा

बालियाँ या झुमकेः कानों में सोने की बालियाँ अथवा झुमके आदि पहनने से हिस्टीरिया रोग में लाभ मिलता है तथा आँत उतरने अर्थात् हर्निया का रोग नहीं होता।

नथनीः नाक में नथनी धारण करने से नासिका-संबंधी रोग नहीं होते तथा सर्दी-खाँसी में राहत मिलती है।

बिछियाः पैरों की उँगलियों चाँदी की बिछिया पहनने से साइटिक रोग एवं दिमागी-विकार दूर होकर स्मरण शक्ति में वृद्धि होती है।

चुटकुलाः एक शिक्षक ने सभी बच्चों से कहाः "बच्चों सब काम भाईचारे से मिलजुल कर किया करो।"

एक विद्यार्थी ने कहाः "सर! अगर ऐसा है तो आप हमें परीक्षा के दिनों में अलग-अलग क्यों बिठाते हो?"

ज्ञानः हमें बात का सही अर्थ समझना चाहिए और परीक्षा के समय ईमानदारी से पेपर देना चाहिए।

हँसते खेलते पायें ज्ञानः

हरिॐ स्कूटर खेल’ – बच्चों को बतायें कि हमारे जीवन में यदि संकल्प और साधना ये दो बातें आ जायें तो हम सब बापू जी की धाम में पहुँच सकते हैं। कितने बच्चे बापूजी के धाम में जाना चाहते हैं? (सभी बच्चे हाथ ऊपर खड़ा करेंगे।)

संचालकः क्यों न हम सब स्कूटर पर ही जायें बापू जी के धाम। हमारे स्कूटर का नाम है, ‘हरिॐ स्कूटर’। हाथों से एक्सेलरेटर घुमाने की क्रिया करते हुए बच्चों से कहें कि अपने-अपने स्कूटर पकड़ लो और किक मारो। हमारा स्कूटर शुरु होने पर आवाज़ कैसी आयेगी? भ्रुम, भ्रुम...

नहीं, हमारा हरिनाम का स्कूटर है तो उसमें से ‘हरि, हरि..’ आवाज़ निकलती है। चलो, सब साथ में चलते हैं। हरिॐ, हरिॐ... (कभी धीमी, कभी ऊँची आवाज़ में जल्दी-जल्दी बोलना है। अचानक बच्चों से कहें संयम!)

एक बड़ा पत्थर रास्ते के बीच आ गया तो क्या करोगे? यदि ब्रेक नहीं लगाते हो तो टक्कर खाकर गिर जाओगे। क्या करोगे? ब्रेक लगाकर गाड़ी थोड़ी धीमी करो और गाड़ी का मुख मोड़ दो। बगल से अपनी गाड़ी निकाल लो। फिर से गाड़ी सीधे रास्ते पर चलने दो। हमारी ज़िन्दगी में यदि कुसंग या काम, क्रोध, लोभ मोह, अहंकार आदि विकारुपी पत्थर आ जाये तो हमें संयम की ब्रेक का उपयोग करके उन विषय-विकारों से न टकरा कर दूसरा सही रास्ता (सत्संग-सत्शास्त्रों का अध्ययन, भजन, कीर्तन) अपना कर, ज्ञान की बत्ती जला के साधना के एक्सेलरेटर से ईश्वर के रास्ते पर आगे बढ़ना चाहिए तो हमारी गाड़ी की ब्रेक कौन सी होगी? संयम की। एक्सेलरेटर कौन सा होगा? साधना का। बत्ती कौन सी होगी? ज्ञान की।

अब तो हमारी गाड़ी तेज रफ्तार से बापूजी के धाम अवश्य पहुँच जायेगी। तो दबाओ साधना के एक्सेलरेटर (हाथ की क्रिया करें) हरिॐ! हरिॐ! हरिॐ!

गाड़ी बापू जी के धाम पहुँच गयी। ‘हरि हरि बोल’ कहते हुए हाथ ऊपर करके हँसना है।

प्रश्नोत्तरीः विषय से संबंधित प्रश्न पूछें।

गृहपाठः बच्चे प्रतिदिन आसन का अभ्यास करें। सात दिनों में कौन से आसन किये, उनका प्रतिदिन का वर्णन लिखकर लायें।

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पन्द्रहवाँ सप्ताह

सप्ताह के दोनों सत्रों में सिखाये जाने वाले विषय

यौगिक प्रयोगः

व्यायामः क्रमांक 8-11. योगासनः पादपश्चिमोत्तानासन, हलासन, ताड़ासन। सूर्यनमस्कार। प्राणायामः भ्रामरी, बुद्धि एवं मेधा शक्तिवर्धक, प्राणशक्तिवर्धक प्रयोग, अनुलोम-विलोम। मुद्राज्ञानः पूर्व में सिखायी हुई सभी मुद्राओं का अभ्यास करें।

कीर्तनः पूर्व में सिखाये हुए सभी कीर्तन एक-एक करके करें।

 

भजनः आओ श्रोता तुम्हे सुनायें.....

नोटः इनके साथ ‘सभी सत्रों में लेने योग्य आवश्यक विषय’ भी लें।

पहला सत्र

दिनचर्याः अध्ययन

पढ़ने से पूर्व थोड़ा ध्यानस्थ हो जायें, पढ़ने का बाद भी थोड़ी देर शांत हो जायें। यह प्रगति की कुंजी है।

प्रत्येक पाठ ध्यानपूर्वक पढ़ें और पढ़ने के बाद उसका मनन अवश्य करें।

स्कूल में अगले दिन जो पाठ पढ़ाये जाने वाला हो उन्हें पहले ही पढ़कर जायें। ऐसा करने से जब अध्यापक पाठ सिखायेंगे तब आपको तुरन्त समझ आ जायेगा और आप उनके प्रश्नों के उत्तर तुरंत व उत्तम प्रकार से दे पायेंगे। बाद में समय पाकर उनका पठन-मनन करते रहें ताकि वे पाठ पक्के हो जायें और आप परीक्षा के समय आसानी से लिख सकें।

एक समय ऐसा निश्चित करें जिस समय केवल अपना अध्ययन-कार्य (स्कूली पढ़ाई) ही किया जाये। अध्ययन करते समय यथासंभव मौन रखें। इससे पढ़ाई में भी विक्षेप नहीं होगा एवं मौन का भी अभ्यास हो जायेगा।

जो विषय कठिन लगें, उन्हें प्रतिदिन पढ़ें। पढ़ने में मन लगायें। विद्याप्राप्ति के लिए पूरा यत्न करें।

आलस कबहूँ न कीजिये, आलस अरि सम जानि।

आलस से विद्या घटे, बल बुद्धि की हानि।।

इनसे सावधानः शीतल पेयों से हानिः शीतल पेयों का उपयोग आजकल देश में जितने धड़ल्ले से हो रहा है, उससे जनता के स्वास्थ्य को गंभीर क्षति पहुँची है। शीतल पेय (कोल्डड्रिन्कस) वास्तव में एक प्रकार का धीमा जहर है। अमदावाद के ‘कन्ज्यूमर एज्यूकेशन एंड रिसर्च सैंटर’ की प्रयोगशाला में की गयी जांच के अनुसार कोल्डड्रिंक्स में अत्यन्त जहरीले और घातक तत्त्व पाये गये हैं। इनमें डी.डी.टी., लिंडेन व क्लोरपायरिफोस होता है, जिससे कैंसर होता है व रोगप्रतिकारक शक्ति का भी ह्रास होता है। इसके अतिरिक्त इनमें मिथाइल बेंजिन, पोटैशियम सल्फेट, सोडियम बेंजोएट, कार्बनडाईआक्साईड, कैफिन तथा फास्फोरिक अम्ल आदि भी पाये जाते हैं, जो हड्डियों और दाँतों को गला देते हैं।

एक अन्य प्रयोग के दौरान एक टूटे हुए दाँत को ऐसे ही पेय पदार्थ की एक बोतल में डाल कर बंद किया गया। दस दिन बाद उस दाँत को निरिक्षण हेतु बाहर निकालना था परंतु वह दाँत उसमें था ही नहीं अर्थात् वह उसमें घुल गया था। जरा सोचिये कि इतने मजबूत दाँत भी ऐसे हानिकारक पेय पदार्थ दुष्प्रभाव से गलाकर नष्ट हो जाते हैं तो हमारे पेट की नर्म आँतों का क्या हाल होता होगा, जहाँ ये पदार्थ घंटों पड़े रहते हैं।

संकल्पः ‘अब हम यह जहर अपने मुँह में नहीं डालेंगे। स्वास्थ्य के इस घातक शत्रु को अब अपने घर में नहीं लायेंगे।’ बच्चों से यह संकल्प करवायें।

स्वास्थ्य सुरक्षाः

आभूषण चिकित्सा

पायलः पायल पहनने से पीठ, एड़ी एवं घुटनों के दर्द में राहत मिलती है। हिस्टीरिया के दौरे नहीं पड़ते तथा श्वास रोग की संभावना दूर होती है। रक्तशुद्धि होती है तथा मूत्ररोग कि शिकायत नहीं रहती।

अँगूठीः हाथ की सबसे छोटी उँगली में अँगूठी पहनने से छाती के दर्द व घबराहट से रक्षा होती है तथा कफ, दमा, ज्वर आदि के प्रकोपों से बचाव होता है।

श्री आसारामायण पाठ व पूज्यश्री की जीवनलीला पर आधारित कथा-प्रसंग।

विडियो सत्संगः यदि व्यवस्था हो तो ‘चेतना के स्वर’ वी.सी.डी. आधा घंटा बच्चों को दिखायें।

दूसरा सत्र

वार्तालापः बच्चों से पूछें की सुबह उठकर वे सबसे पहले क्या करते हैं? फिर उन्हें बतायें कि सुबह उठकर शशकासन करते हुए भगवान से प्रार्थना करनी चाहिएः ‘हे भगवान33 मैं आपकी शरण में हूँ। आज के दिन मेरी पूरी सँभाल करना। मैं निष्काम सेवा और तुझसे प्रेम करूँ, सदैव प्रसन्न रहूँ।’

फिर दृढ़ भावना करें कि ‘मेरे अंदर नया उत्साह आ रहा है, स्फूर्ति आ रही है। आज मेरे अंदर कल से भी ज़्यादा शक्ति है, प्रभु की प्रीति है। हरिॐ... हरिॐ... हरिॐ...।’

ज्ञानचर्चाः प्रार्थना बच्चों को प्रार्थना की महिमा बतायें कि परमात्मा से सीधा संबंध जोड़ने का एक सरल साधन है प्रार्थना। प्रार्थना से हमें आध्यात्मिक सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, ईश्वर के प्रति विश्वास बढ़ता है, हमारी आत्मश्रद्धा, दैवी शक्तियाँ, शील, गुण अभिवृद्धि को प्राप्त होते हैं। हमारी इच्छाशक्ति सही दिशा में विकसित होने लगती है।

फिर यह प्रसंग बतायें- महात्मा गाँधी हररोज प्रार्थना करके सोते थे। एक रात्रि को सोने पहले वे प्रार्थना करना भूल गये। आधी रात को जब उनकी नीँद खुली तो वे बहुत रोये कि ‘प्रभु! मैं तेरा स्मरण करना भूल गया।’

संकल्पः ‘हम भी रोज सुबह और शाम प्रार्थना अवश्य करेंगे।’ बच्चों से ऐसा संकल्प करवायें।

कथा-प्रसंग आदि द्वारा सदगुणों का विकासः

 

स्वामी श्री लीलाशाहजीबापू के बाल्यकाल का प्रसंग बच्चों को बतायें।

प्रार्थना का प्रभाव

श्री लीलारामजी का जन्म जिस गाँव में हुआ था, वह महराब चांडाई नामक गाँव बहुत छोटा था। उस ज़माने में दुकान में बेचने के लिए सामान टँगेबाग से ताँगे द्वारा लाना पड़ता था। भाई लखुमल वस्तुओं की सूचि एवं पैसे देकर श्री लीलाराम जी को खरीदारी करने के लिए भेजते थे।

एक समय की बात हैः उस वर्ष मारवाड़ एवं थर में बड़ा भारी अकाल पड़ा था। लखुमल ने पैसे देकर श्री लीलारामजी को दुकान के लिए खरीदारी करने को भेजा। श्री लीलारामजी खरीदारी करके माल-सामान की दो बैलगाड़ियाँ भर अपने गाँव लौट रहे थे। गाड़ियों में आटा, दाल, चावल, गुड़, घी आदि था। रास्ते में एक जगह पर गरीब, अकाल-पीड़ित, अनाथ एवं भूखे लोगों ने श्री लीलाराम जी को घेर लिया। दुर्बल एवं भूख से व्याकुल लोग अनाज के लिए गिड़गिड़ाने लगे तो श्री लीलारामजी का हृदय पिघल उठा। वे सोचने लगे, ‘इस माल को मैं भाई की दुकान पर ले जाऊँगा। वहाँ से इसे खरीदकर भी मनुष्य ही खायेंगे न...? ये सब भी तो मनुष्य ही हैं। बाकी बची पैसे के लेन-देन की बात.. तो प्रभु के नाम पर भले ये लोग ही खा लें।’

श्री लीलारामजी ने बैलगाड़ियाँ खड़ी करवायीं और उन क्षुधापीड़ित लोगों से कहाः "यह रहा सब सामान। तुम लोग इसमें से भोजन बनाकर खा लो।

भूख से कुलबुलाते लोगों ने तो तुरंत ही दोनों बैलगाड़ियों को खाली कर दिया। श्री लीलारामजी भय से काँपते, थरथराते गाँव में पहुँचे। खाली बोरों को गोदाम में रख दिया। कुंजियाँ लखुमल के दे दीं। लखुमल ने पूछाः

"माल लाया?"

"हाँ।"

"कहाँ है?"

"गोदाम में।"

"अच्छा बेटा! जा, तू थक गया होगा। सामान का हिसाब कल देख लेंगे।"

दूसरे दिन श्री लीलारामजी दूकान पर गये ही नहीं। उन्हें तो पता था कि गोदाम में क्या माल रखा है। वे घबराये काँपने लगे। उनको काँपते देखकर लखुमल ने कहाः "अरे! तुझे तो बुखार आ गया? आज घर पर ही आराम कर।"

एक दिन... दो दिन... तीन दिन... श्री लीलारामजी बुखार के बहाने दिन बिता रहे हैं और भगवान से प्रार्थना कर रहे हैं- "हे भगवान! अब तो तू ही जान। मैं कुछ नहीं जानता। हे करन-करावनहार स्वामी! तू ही सब कराता है। तूने ही भूखे लोगों को खिलाने की प्रेरणा दी। अब सब तेरे ही हाथ में है, प्रभु! तू मेरी लाज रखना। मैं कुछ नहीं, तू ही सब कुछ है..... "

एक दिन शाम को लखुमल अचानक श्री लीलारामजी के पास आये और बोलेः "लीला....लीला! तू कितना अच्छा माल लेकर आया है।"

श्री लीलारामजी घबराये। काँप उठे कि ‘अच्छा माल.... अच्छा माल.... कहकर अभी मेरा कान पकड़कर मारेंगे।’ वे हाथ जोड़ कर बोलेः

"मेरे से गलती हो गयी।"

"नहीं बेटा! गलती नहीं हुई। मुझे लगता था कि व्यापारी तुझे कहीं ठग न लें। ज़्यादा कीमत पर घटिया माल न पकड़ा दें किंतु सभी चीजें बढ़िया हैं। पैसे तो नहीं खूटे न?"

"नहीं पैसे तो पूरे हो गये और माल भी पूरा हो गया।"

"माल किस तरह से पूरा हो गया?"

श्री लीलारामजी जवाब देने में घबराने लगे तो लखुमल ने कहाः "नहीं बेटा! सब ठीक है। चल तुझे दिखाऊँ।"

ऐसा कहकर लखुमल श्री लीलारामजी का हाथ पकड़कर गोदाम में ले गये। श्री लीलाराम जी ने वहाँ जाकर देखा तो सभी बोरे माल-सामान से भरे हुए मिले! वे भावविभोर हो उठे और गदगद होते हुए उन्होंने परमात्मा को धन्यवाद दियाः ‘प्रभु! तू कितना दयालु है... कितना कृपालु है!’

परोपकारी व्यक्ति का परमात्मा अवश्य मदद करते हैं। निर्दोष भाव से हृदयपूर्वक की गयी प्रार्थना से असंभव कार्य भी संभव हो जाते हैं, बिगड़े काम भी सँवर जाते हैं।

संकल्पः ‘हम नित्य सुबह-शाम प्रार्थना करेंगे।’ यह संकल्प बच्चों से करवायें।

चुटकुलाः एक अनपढ़ व्यक्ति मुकदमे के कागजात लेकर वकील के पास गया। वकील बिना चश्मे के नहीं पढ़ पाता था।

वकील ने नौकर से कहाः "रामू! मेरा पढ़ने वाला चश्मा तो लाना।" रामू दौड़कर चश्मा ले आया और वकील कागजात पढ़ने लगा। अनपढ़ को लगा कि यदि वह भी पढ़ने वाला चश्मा खरीद ले तो वह सब कुछ पढ़ सकेगा। अनपढ़ व्यक्ति एक चश्मे की दुकान पर जाकर बोलाः "मुझे पढ़ने वाला चश्मा दो।"

दुकानदारः "कौन-से नंबर का चश्मा दूँ?"

"पढ़ने वाला चश्मा दो।"

दुकानदार ने उसे अंग्रजी अखबार देकर कई चश्मे बदल-बदलकर दिये लेकिन किसी भी चश्मे से वह पढ़ नहीं पा रहा था। दुकानदार ने पूछाः "अरे! पढ़ना जानता भी है कि नहीं?"

"पढ़ना नहीं जानता इसीलिए तो कहता हूँ, पढ़ने वाला चश्मा दो।"

सीखः यदि पढ़ना चाहते हो तो पढ़ाई सीखनी पढ़ेगी, ऐसे ही जीवन में सफलता प्राप्त करना चाहते हो तो अनुष्ठान, सारस्वत्य मंत्र का जप करना चाहिए, ध्यान करना चाहिए। इससे आपकी योग्यता बढ़ेगी और आपका सर्वांगीन विकास होगा।

ज्ञानचर्चाः

सारस्वत्य मंत्रः यदि विद्यार्था अपने जीवन को ओजस्वी, तेजस्वी, दिव्य और हर क्षेत्र में सफल बनाना चाहें तो सदगुरु से प्राप्त सारस्वत्य मंत्र का अनुष्ठान अवश्य करें। यह अनुष्ठान सात दिन का होता है। इसमें प्रतिदिन 170 माला करने का विधान है। सात दिन तक केवल श्वेत वस्त्र पहनने चाहिए। इन दिनों भोजन भी बिना नमक का करें। चावल की खीर खायें। श्वेत पुष्पों से देवी सरस्वती की पूजा करने के बाद जप करें। देवी को भोग भी खीर का ही लगायें। माँ सरस्वती से शुद्ध, तीक्ष्ण बुद्धि के प्रार्थना करें। भूमि पर चटाई, कम्बल आदि बिछाकर शयन करें एवं यथासंभव मौन रखें। स्फटिक की माला से जप करना ज़्यादा लाभदायक है। स्थान, शयन, पवित्रता से संबंधित अन्य नियम सामान्य मंत्रानुष्ठान जैसे ही हैं।

सारस्वत्य मंत्र के जप व अनुष्ठान का चमत्कार

मैंने पाँच वर्ष पूर्व पूज्यबापूजी से सारस्वत्य मंत्र की दीक्षा ली थी। तभी से मैं प्रतिदिन जप करता था, साथ ही बाल संस्कार केन्द्र में भी जाया करता था। केन्द्र में जाने से मैं अवारा दोस्तों के साथ घूमने, होटल जाने, पिक्चरें देखने इन व्यसनों से बच गया जो प्रायः इस उम्र में होने लगते हैं। इन व्यसनों से बचने का ही प्रभाव है कि मैं अपने भीतर चारित्रिक सौन्दर्य का अनुभव करने लगा हूँ। मंत्रजप करन से धीरे-धीरे मेरी बुद्धिशक्ति और स्मरणशक्ति बढ़ी, जिससे मैं परीक्षा में 70-80% के स्थान पर 90% अंकों से पास होने लगा।

मेरी माता जी मुझसे नवरात्रों में सारस्वत्य मंत्र का अनुष्ठान करातीं और मुझे व मेरे छोटे भाई को पूज्य बापू के ध्यानयोग शिविर में भी ले जाया करती थीं। यह सारस्वत्य मंत्र के जप के अनुष्ठान का ही प्रभाव है कि दसवीं कक्षा में 84.6% अंक प्राप्त कर मैं सहारनपुर जिले में प्रथम स्थान प्राप्त कर पाया। पूज्य बापू के सत्संग से मैंने अपने जीवन का ऊँचा उद्देश्य पाया है कि ‘मुझे राजा जनक की तरह जीवन जीना है।’ बच्चों को जीवन जीने की कला सिखाने वाले पूज्य बापू जी को कोटि-कोटि वंदन।

अपूर्व बजाज, कक्षा 11, रेनबो स्कूल, सहारनपुर।

हँसते खेलते पायें ज्ञानः साखी, श्लोक पहचानोः बच्चों को जो साखियाँ एवं श्लोक सिखाये गये हैं, उन पर आधारित खेल खेलना है। पहले संचालक साखी अथवा श्लोक का एक शब्द बच्चों को बतायें। अब जिस साखी या श्लोक में यह शब्द आता है वही साखी या श्लोक बच्चे पूरा बोलेंगे। जिस बच्चे को वह साखी या श्लोक आता हो, वह हाथ ऊपर कर करे, फिर उसे बोलने का मौका दिया जाये। बाकी सब उसके पीछे दोहरायें।

प्रश्नोत्तरीः सत्र में सिखाये गये विषयों पर आधारित प्रश्न पूछें। जैसे-

अँगूठी पहनने से क्या लाभ होता है?

प्राणशक्तिवर्धक प्राणायाम के लाभ बतायें?

सारस्वत्य मंत्रानुष्ठान में प्रतिदिन कितनी माला करने का विधान है?

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सोलहवाँ सप्ताह

सप्ताह के दोनों सत्रों में सिखाये जाने वाले विषय

यौगिक प्रयोगः

व्यायामः क्रमांक 10-13 योगासनः पादपश्चिमत्तोनासन, ताड़ासन। सूर्यनमस्कार। प्राणायामः भ्रामरी, बुद्धि एवं मेधा शक्तिवर्धक, प्राणशक्तिवर्धक प्रयोग। मुद्राज्ञानः पूर्व में सिखायी हुई सभी मुद्राओं का अभ्यास करें।

कीर्तनः किसी बालक या बालिका को आगे बुला कर पहले कराये हुए कीर्तनों में कोई भी कीर्तन उसके द्वारा करवायें।

भजनः आओ श्रोता तुम्हे सुनायें....

नोटः इनके साथ सभी सत्रों में लेने योग्य आवश्यक विषय भी लें।

पहला सत्र

दिनचर्याः सोने के नियमः

सोने से पहले दातुन से दाँत साफ करें, हाथ पैर धोयें, कुल्ला करें। फिर हाथ पैर अच्छी तरह से पौंछ लें हाथ-पैर गीले रखकर सोने से हानि होती है।

सोने से पूर्व सदगुरुदेव, इष्टदेव का ध्यान करें, सत्संग की कोई पुस्तक पढ़ें अथवा कैसेट सुनें। पूर्व या दक्षिण की ओर सिर रखकर श्वासोच्छ्वास की गिनती करते हुए सीधा (पीठ के बल) सोयें। फिर जैसी आवश्यकता होगी वैसी स्वाभाविक करवट ले ली जायेगी।

दूसरे के बिस्तर, कम्बल, तकिये आदि का प्रयोग न करें।

एक ही बार चादर या कम्बल ओढ़कर दो लोग न सोयें क्योंकि इससे एक दूसरे के श्वासोच्छोवास के निरंतर आदान-प्रदान से रोग उत्पन्न होते हैं।

कमरे की खिड़कियाँ दरवाजे बन्द करके अथवा उसमें अँगीठी या रूम हीटर चलाकर सोना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।

मुँह ढककर सोने से अशुद्ध वायु (कार्बन डाइआक्साइड) फेफड़ों में निरंतर जाती रहती है, जिससे आगे चलकर रोग आ घेरते हैं तथा मनुष्य निष्चय ही अल्पायु होता है।

जीवनोपयोगी नियमः हमेशा सड़क के बायीं ओर चलें। मार्ग में खड़े होकर बात न करें। बात करनी हो तो किनारे पर चले जायें।

चुटकुलाः एक लड़का सड़क के बीचों बीच चल रहा था किसी ने उससे कहाः "अरे सड़क के बीचों बीच क्यो चल रहे हो? सड़क के किनारे चलो।"

लड़के ने कहाः "किनारे चलने में मुझे डर लगता है, कहीं अचानक भूकंप आया और कोई इमारत टूटकर मुझ पर गिर पड़ी तो?"

सीखः हमें भयभीत होकर नहीं जीना चाहिए।

इनसे सावधानः

सौन्दर्य-प्रसाधन

आजकल तो ऐसे कैमिकल और जहरीले पदार्थों से श्रृंगार के प्रसाधन बनाये जाते हैं, जिनसे शरीर में जहरील कण प्रवेश कर जाते हैं और त्वचा की बीमारियाँ होती हैं। लंगूर जाति के लोरीस नामक छोटे बंदर की आँखों और जिगर को पीसकर सौन्दर्य-प्रसाधनों में डाला जाता है। काजल, क्रीम, लिपस्टिक, पाउडर आदि प्रसाधनों में पशुओं की चर्बी, अनेक पेट्रोकैमिकल्स, कृत्रिम सुगंध, इथाइल, अल्कोहल, फिनाइल, सिट्रोलनेल्स, हाइड्रॉक्सीटोन आदि प्रयोग किये जाते हैं। जिनसे चर्मरोग, जैसे एलर्जी, दाद, सफेद दाग आदि होने की आशंका रहती है। इन प्रसाधनों से त्वचा की प्राकृतिक सुंदरता व कोमलता नष्ट हो जाती है। साथ ही बौद्धक और वैचारिक संतुलन भी बिगड़ता है।

संकल्पः ‘हम बाजारू सौन्दर्य-प्रसाधनों की अपेक्षा सौन्दर्यवर्धक घरेलू नुस्खों को ही अपनायेंगे।’ बच्चों से यह संकल्प करवायें।

सौन्दर्यवर्धक घरेलू नुस्खे

चेहरे पर झुर्रियाँ हों तो दो चम्मच ग्लिसरीन में आधा चम्मच गुलाब जल एवं नींबू के रस की कुछ बूँदें मिलाकर रात्रि को चेहरे पर लगायें। सुबह ठण्डे पानी से मुँह धो लें, त्वचा का रंग निखरकर झुर्रियाँ कम हो जायेंगी।

तुलसी के पत्तों को पीस कर लुगदी बना कर चेहरे पर लगाने से मुँहासे के दाग धीरे-धीरे दूर हो जाते हैं।

साबुन की जगह खीरा, ककड़ी और नींबू का रस समान मात्रा में मिलाकर स्नान से पहले चेहरे पर मलें। इससे त्वचा रेशम जैसी कोमल हो जाएगी तथा कांति भी बढ़ेगी।

श्री आसारामायण पाठ व पूज्यश्री की जीवनलीला पर आधारित कथा-प्रसंग।

अनुभवः

पूज्यश्री की कृपा से सफलता

परम पूज्य बापूजी से मुझे सितम्बर 18 में ‘पुष्कर ध्यान योग शिविर’ में सारस्वत्य मंत्र की दीक्षा मिली।

मैं नित्य सुबह जल्दी उठकर स्नानादि करके प्राणायाम, ‘श्री गुरुगीता’ एवं ‘श्री आसारामायण’ का पाठ तथा सारस्वत्य मंत्र का जप करता हूँ। जिसके फलस्वरूप तथा पूज्य गुरुदेव की असीम कृपा से मैंने 10वीं कक्षा में 93.33% अंक प्राप्त कर राजस्थान बोर्ड की वरीयता सूची में 11वाँ स्थान प्राप्त किया है।

नित्य प्राणायाम करने से मेरी एकाग्रता में वृद्धि हुई है व आत्मबल बढ़ा है। मुझे 8वीं कक्षा से स्कूल द्वारा छात्रवृत्ति प्राप्त हो रही है।

चेतन कुमार मौर्य

बालनगर, करतारपुरा, जयपुर (राज.)

विडियो सत्संगः यदि व्यवस्था हो तो ‘चेतना के स्वर’ वी.सी.डी. आधा घंटा बच्चों को दिखायें।

प्रश्नोत्तरीः बच्चों को दिनचर्या में सोने के जो 5 नियम बताये गये हैं, उनमें से बच्चों से प्रश्न पूछें।

दूसरा सत्र

कथा-प्रसंग आदि द्वारा गुणों का विकासः

सर्वप्रथम नीचे दी गयी पहली बच्चों से पूछें। फिर प्रह्लाद की कथा सुनायें।

बोलो किसके प्राण बचाये, परमेश्वर ने नृसिंह रूप धर।

बोलो किसके दुष्ट पिता को, ईश्वर ने मारा देहरी पर।।

भक्त प्रह्लाद।

प्रह्लाद की भक्ति में दृढ़ता

भक्त प्रह्लाद दैत्यराज हिरण्यकशिपु के पुत्र थे। प्रह्लाद बचपन से ही भगवदभक्त थे। वे स्वयं तो कीर्तन भजन करते ही थे, अपने मित्रों को भी करने के लिए प्रेरित करते थे। पाठशाला में अध्ययन के दौरान उन्हें ऐसा करने पर पिता द्वारा दंडित किया गया। तत्पश्चात उन्हें गुरुकुल ले जाकर कड़े अनुशासन में रखा गया। आचार्य उन्हें किसी भी तरह विष्णुभक्ति से विमुख करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने छल कपट का सहारा लिया। वे प्रह्लाद को प्रलोभन देने के साथ दंड का भय भी दिखलाते थे। प्रह्लाद भी अपने गुरुवरों का और माता-पिता का चित्त नहीं दुखाना चाहते थे। अतः वे इस बात की सावधानी बरतने लगे कि मेरी हरिभक्ति के बारे में गुरुओं और माता-पिता को पता न चले इसलिए अब वे गुरुओं की अनुपस्थिति में ही हरि का भजन और ध्यान करने लगे परन्तु कभी-कभी वे अपनी भक्ति की मस्ती को संभाल न पाते और आचार्यों के सामने ही भगवान के ध्यान में तल्लीन हो जाते, कभी जोर-जोर से कीर्तन करने लगते। (यहाँ पर कथा रोक दें। बच्चों में किसी एक बच्चे को आगे आकर सबको कीर्तन करवाने को कहें।)

प्रह्लाद स्वयं तो हरिभक्ति करते ही, साथ ही अपने सहपाठी असुर बालकों को भी भगवदभक्ति की शिक्षा देने लगे। जब वे कीर्तन करते तो उनके सहपाठी भी उनके स्वर में स्वर मिलाकर गाने लगते। आचार्यों को जब इस बात का पता चला तो वे प्रह्लाद पर क्रोधित हुए। उन्होंने पूछा कि "प्रह्लाद! क्या यह सत्य है कि तुम स्वयं हरिभक्ति व हरिकीर्तन करते हो और अपने सहपाठियों को भी हरि भक्ति का उपदेश दे उनसे भी हरिकीर्तन कराते हो?"

प्रह्लादः "गुरुजी! आपने जो कुछ सुना है वह सर्वथा सत्य है। आपका चित्त दुःखी न हो इसलिए हम लोग आपकी अनुपस्थिति में ही सदैव हरि कीर्तन और हरि का ध्यान किया करते हैं।"

आचार्यः "हे दुष्ट राजकुमार! अपने पिता के वचनों की अवहेलना करके क्या तू संसार में जीवित रह सकता है? गुरु की अवज्ञा का पाप क्या तुझे नहीं मालूम?"

प्रह्लाद ने कहाः "आप निश्चय ही मानें कि मैं आज से आपकी आज्ञा पालन इतना तो अवश्य करूगा कि मैं आपके या अपने पिता जी के समक्ष अपनी हरिभक्ति को जानबूझ कर प्रकट करके आप लोगों को क्रुद्ध या दुःखी करने की चेष्टा नहीं करूँगा परन्तु उसे छोड़ना तो असंभव है।"

आचार्यः "बेटा प्रह्लाद! वैष्णव धर्म में सबसे अधिक महत्त्व गुरु का ही माना गया है। जिस शिष्य की रक्षा का भार सदगुरु अपने ऊपर समझते हैं और जो शिष्य सदगुरु को अपना रक्षक, मोक्षप्रदाता समझता है, वे दोनों ही शिष्य अनन्य भक्ति के नियमानुसार मोक्ष को प्राप्त होते हैं। इसलिए हे राजकुमार! तुम हम गुरुओं को ही अपना रक्षक मानो।"

यह सुनकर प्रह्लाद ने बहुत सुन्दर उत्तर दिया। जो बच्चे किसी के बहकावे मे आकर अथवा डाँट-डपट से डरकर भगवदभक्ति और सत्संग छोड़ देते हैं, उन्हें भक्त प्रह्लाद की बात को अंतः करण में उतार लेनी चाहिए।

प्रह्लादः "पूज्य आचार्य! निःसंदेह आपने हमें शास्त्रज्ञान दिया है। आप लोग हमारे विद्यागुरु हैं और पिता के पद से भी अधिक पूज्य हैं किंतु सदगुरु नहीं हैं। वैष्णव धर्म में सदगुरु की आपने जो महिमा कही है उसके अनुसार आप भी सदगुरु-पद को योग्य हो जायें तो मेरे हर्ष का पारावार न रहे। इसी अभिप्राय से तो मैं आप लोगों से बार-बार कहता हूँ कि आप लोग भी हरिभक्त होकर एक बार कहें हरेर्नामैव नामैव मम जीवनम्।

‘हरि नाम ही, हरि नाम ही, हरि नाम ही मेरा जीवन है।’

फिर देखें हम लोग आपको अपना विद्यागुरु ही नहीं, सदगुरु भी मानने लगेंगे और फिर आपकी यह पाठशाला वैष्णवशाला बन संसार के न जाने कितने पतित, पामर प्राणियों की उद्धारशाला बन जायेगी।"

प्रह्लाद के इन शास्त्रसम्मत एवं नीतियुक्त वचनों को सुनकर आचार्य निरूत्तर हो गये और मन-ही-मन बोलेः "इस दृढ़ भगवदभक्त को कोई भक्तिपथ से विमुख नहीं कर सकता।"

प्राणवान पंक्तियाँ-

बाधाएँ कब रोक सकी हैं, आगे बढ़ने वालों को।

विपदाएँ कब रोक सकी हैं, पथ पे चलने वालों को।।

बच्चों को यह साक्षी पक्की करायें और अर्थ भी बतायें।

संकल्पः ‘हम भी भक्त प्रह्लाद की तरह विघ्न-बाधाओं के बीच में भगवदभक्ति के पथ पर अडिग रहेंगे।’ ऐसा संकल्प बच्चों से करवायें।

दिमागी ताकत बढ़ाने के उपायः

एक गाजर और एक पत्तागोभी के लगभग 50-60 ग्राम या 10-12 पत्ते काट कर उसमें हरा धनिया डाल दें। फिर उसमें सेंधा नमक, काली मिर्च का पाउडर और नींबू का रस मिलाकर खूब चबाकर नाश्ते के रूप में खाया करें।

लाभः इससे मस्तिष्क की कमजोरी दूर होती है और स्मरणशक्ति बढ़ती है।

पहला प्रयोगः पढ़ने के बाद भी याद न रहता हो तो सुबह एवं रात्रि को दो-तीन महीने तक 1 से 2 ग्राम ब्राह्मी तथा शंखपुष्पी लेने से लाभ होता है।

दूसरा प्रयोगः दस ग्राम सौंफ को अधकुटी करके 100 ग्राम पानी में उबालें। 25 ग्राम पानी शेष रहने पर उसमें 100 ग्राम दूध, 1 चम्मच शक्कर एवं एक चम्मच घी मिलाकर सुबह-शाम पियें। घी न हो तो एक बादाम पीसकर डालें। इससे दिमागी शक्ति बढ़ती है।

हँसते खेलते पायें ज्ञानः

पहेलियाँ

एक बच्चा एक दुकानदार से 7 किलो शक्कर माँगता है। दुकानदार के पास एक माप 5 किलो का और दूसरा माप 3 किलो का है तो दुकानदार कैसे देगा?

उत्तरः पहले दुकानदार माप से दो बार शक्कर देगा फिर 3 किलो वाले माप से उसमें से 3 किलो शक्कर निकाल लेगा।

बुंदेली धरती का वह था वीर अनोखा लाल।

वह अपनी जनता का प्रिय था, तेजस्वी भूपाल।।

चंपतराय पिता थे उसके, वह स्वराज्य का प्रेमी।

किसके साहस के सम्मुख, मुगलों की ताकत सहमी?

छत्रसाल

वे थे एक तपस्वी राजा जो विदेह कहलाये।

प्रभु विवाह में बोलो किसके घर दशरथजी आये?

राजा जनक।

गृहपाठः बच्चों को कोई भी ज्ञानवर्धक आध्यात्मिक चार्ट (ज्ञान की बातें चित्र सहित) बनाकर लाने को कहें।

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यौगिक प्रयोग

व्यायाम

कूदनाः 1.

इसमें दोनों हाथ ऊपर करके पंजों के बाल कूदना है।

लाभः मन प्रफुल्लित रहता है।

शरीर स्वस्थ रहता है।

72 हजार नाड़ियों में से मुख्य नाड़ी सुषुम्ना का मुख खुल जाता है। जिससे ध्यान भजन में मन लगता है।

प्राथमिक स्थिति

पैरों की उँगलियों के व्यायामः 2.

प्राथमिक स्थितिः बैठकर हाथों को शरीर से थोड़ा पीछे जमीन पर रखें और शरीर को भी थोड़ा पीछे झुका दें। दोनों पैरों को सामने की ओर जमीन पर सीधा फैला दें। दोनों पैरों के बीच थोड़ा अंतर रखें।

 

विधिः 1

विधिः 1. प्राथमिक स्थिति में बैठें, फिर दोनों पैरों की

उंगलियों को सामने की ओर जितना संभव हो मोड़ें,

फिर उसी प्रकार (अपनी ओर) पीछे की ओर मोड़ें।

पंजा और टखना हिलाए बिना

10 बार ऐसा करें।

 

विधिः 2. प्राथमिक स्थिति में बैठें। फिर दोनों पैरों की

उंगलियों को एक-दूसरे से जितना दूर संभव हो तानिये

विधिः 2.

ताकि उनमें तनाव अनुभव होने लगे। अब उंगलियों को

पूर्व स्थिति में लाकर आराम दें। ऐसा धीरे-धीरे 10 बार

करें। यदि उंगलियों को तानने में कठिनाई हो तो इसमें

हाथों की सहायता लें।

लाभः सायटिका रोग में व घुटने के लिए लाभप्रद है।

 

 


पैरों के पंजों के व्यायामः 3.

प्रारम्भिक स्थिति में बैठकर दोनों पैरों के पंजों को

जितना हो सके धीरे-धीरे सामने की ओर तानें, फिर

उनको पीछे की ओर मो़ड़ें। ऐसा 10 बार करें।

विधिः 1.

टखनों के व्यायामः 4.

विधिः 1. प्रारम्भिक स्थिति में बैठें। अब अपने दायें

पैर के पंजे को एड़ी (टखनों) से घड़ी की सुईयों की

दिशा में एवं उसकी विपरीत दिशा में घुमायें। फिर

दूसरे पैर से भी इसी प्रकार करें। इस समय ध्यान

एड़ी पर केन्द्रित रखें और ऐसा अनुभव करें कि

आपके अँगूठे और उंगली के बीच एक पैंसिल रखी

है, उससे आप एक गोल घेरा बना रहे हैं।

विधिः 2.

विधिः 2. प्रारम्भिक स्थिति में बैठें फिर बायें पैर

को घुटनों से मोड़ कर टखने को दाहिने पैर की

जंघा पर रखें और बायां हाथ बायें घुटने पर रखें।

अब दायें हाथ से बायें पैर की उंगलियों को पकड़

कर बायें पैर को टखने से घड़ी के काँटों की दिशा

में एवं विपरीत दिशा में 10 बार गोलाकार घुमायें।

बायें पैर के टखने पर मन को एकाग्र करें। यही

क्रिया दूसरे पैर से भी करें।

घुटनों के व्यायामः 5.

विधिः1. प्रारम्भिक स्थिति में बैठें तथा घुटने पर

विधिः1.

ध्यान केन्द्रित करें। बायें घुटने के नीचे दोनों हाथों

की उंगलियाँ आपस में फँसा कर रखें, फिर बायें

पैर को घुटने से मोड़ कर जंघा को छाती से सटा

लें। सीना तना हुआ रखें। अब घुटने के नीचे के

पैर के हिस्से को घड़ी के काँटों की दिशा में तथा

विपरीत दिशा में 10-10 बार गोलाकार घुमायें।

अब प्रारम्भिक स्थिति में वापिस आ जायें और

दूसरे पैर से भी यही क्रिया करें।

विधिः2.

विधिः2. प्रारम्भिक स्थिति में बैठें तथा कूल्हे

(नितंब) और घुटने पर ध्यान केन्द्रित करें।

दाहिने घुटने के नीचे दोनों हाथों की उंगलियों

को आपस में फँसाकर रखें फिर दायें पैर को

घुटने से मोड़कर छाती से सटा लें, एड़ी कूल्हों

के करीब आ जाये। सीना तानकर रखें। अब

दाहिने पैर को आगे फैलायें और मोड़ें, ऐसा

10 बार करें। पैर को जमीन से स्पर्श न होने

दें। फिर बायें पैर से भी ऐसा ही 10 बार

कीजिए।

विधिः3

विधिः3

विधिः3. सर्वप्रथम पूर्व अथवा पश्चिम दिशा

की ओर मुख करके खड़े रहें। दोनों पैर

अत्यंत पास भी न रखें और अत्यंत दूर भी

न रखें। अब दोनों पैरों के पंजों को उत्तर-दक्षिण

की ओर रखें। हाथ ऊपर आकाश की सीधे रखें

और धीरे-धीरे बैठते जायें। अत्यंत दर्द होता हो

फिर भी नीचे बैठना जितना संभव हो उतना

बैठने का प्रयत्न जरूर करें किंतु एकदम नीचे

न बैठ जायें। फिर धीरे-धीरे खड़े हों। इस प्रकार

सात-आठ बार नीचे बैठने और फिर खड़े होने का

प्रयत्न करें।

लाभः जोड़ों के वात में जिसे अंग्रजी मेंआस्टियो-आर्थराइटिस कहते हैं उसमें यह कसरत लाभदायक है। रेती का सेंक, गरम कपड़े का सेंक, हॉट-वाटर बैग का सेंक इसमें लाभप्रद है।

सावधानीः जोड़ों के दर्द वाले मरीज को कभी भी किसी योग्य वैद्य की सलाह के बिना तेल की मालिश नहीं करनी-करवानी चाहिए क्योंकि यदि जठराग्नि बिगड़ी हुई हो, कच्चा आम शरीर के किसी भाग में जमा हो, ऐसी स्थिति में तेल की मालिश करने से हानि होती है।

हाथों की उंगलियों के व्यायामः 6.

सुखासन में बैठकर दोनों हाथों को कंधे की

सीध में सामने की ओर फैला दें। अब दोनों

हाथों की उंगलियों को यथासंभव तानिये,

फैलाइये, जिससे उनमें इतना तनाव उत्पन्न

हो जाये कि आप आसानी से सह सकें। इसके

बाद हाथों को शिथिल कर सबसे पहले अँगूठों

को अंदर की तरफ मोड़ें, फिर उंगलियों को भी

मोड़कर मुटठी भीँच लीजिए और पुनः हाथों को

शिथिल कर मुटठी खोल कर उंगलियों को

अच्छी तरह फैलायें। ऐसा 10 बार करें।

कलाई के व्यायामः 7.

सुखासन में बैठें। फिर दोनों हाथों को कंधे

की सीध में फैला दें। अब अँगूठे अंदर की

ओर रखते हुए मुटठी बाँधकर कलाई से आगे

के भाग को परस्पर विपरीत दिशा में अंदर

की ओर व बाहर की ओर 10-10 बार

गोलाकार घुमायें। इस बात का ध्यान रखें

कि केवल कलाई में हलचल हो। हाथों में

अनावश्यक हलचल न हो।

कोहनी का व्यायामः 8.

सुखासन में बैठें। फिर दोनों हाथों को सामने

की ओर कंधे की सीध में फैला दें। हथेलियाँ

ऊपर की ओर रहें, अब दोनों हाथों को कोहनी

से मोड़कर उँगलियों से कंधे को स्पर्श करें, फिर

सीधा फैला दें। (इस समय कोहनी छाती की

सीध में और दृष्टि कोहनी पर केन्द्रित रखें)।

ऐसा 10 बार करें। हाथ मोड़ने और फैलाने की

क्रिया आरामपूर्वक करें, अनावश्यक खींचातानी

न करें।

कंधों का व्यायामः 9.

सुखासन या प्रारम्भिक स्थिति में बैठें। अब

दोनों हाथों को कोहनी से मोड़कर कंधों के

समकक्ष इस प्रकार रखें कि उँगलियाँ कंधों को

स्पर्श करें। अब दोनों हाथों की कोहनियों को

आगे की ओर मिलाते हुए परस्पर विपरीत

दिशा में अंदर की ओर व बाहर की ओर

वृत्ताकार घुमायें। दोनों ओर से 10-10 बार

करें।

लाभः यह व्यायाम उनके लिए लाभदायक है,

जो ज्यादा लिखने, टाईपिंग, ड्राईंग आदि का

काम करते हैं। यदि वे कुछ देर तक यह

व्यायाम करें तो उनके हाथों का तनाव व दर्द

दूर हो जाता है।

पैरों के व्यायामः 10.

सर्वप्रथम शवासन में लेट जायें फिर दायें

पैर को ज़मीन से थोड़ा ऊपर उठायें और

घड़ी के काँटे की दिशा में तथा उसकी

विपरीत दिशा में 10-10 बार गोलाकार

घुमायें (घुमाते समय पैर सीधे तने रहें)।

अब दूसरे पैर को भी इसी प्रकार 10-10

बार घुमायें। फिर दोनों पैरों को सटाकर

रखते हुए करें। इस दौरान धड़ और सिर

जमीन से सटे रहें।

लाभः नितंब की मांसपेशियों और कमर के स्नायुओं की मालिश हो जाती है। मोटापा कम होता है।

टिप्पणीः बालिकाओं को व्यायाम क्र. 5, 10 केन्द्र में नहीं करायें। उन्हें केन्द्र में सीख कर घर पर इसका अभ्यास करने को कहें।

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योगासन

योगासन क्या है?

योगासन विभिन्न शारीरिक क्रियाओं और मुद्राओं के माध्यम से तन को स्वस्थ, मन को प्रसन्न एवं सुषुप्त शक्तियों को जागृत करने हेतु हमारे पूज्य ऋषि-मुनियों द्वारा खोजी गयी एक दिव्य प्रणाली है।

बच्चों को आसन की महत्ता समझायें, जिससे वे नियमित आसन करने को प्रेरित हों। उन्हें इस प्रकार संबोधित करें- बच्चो! आपमें असीम योग्यताएँ छुपी हुई हैं। आप अपनी योग्यताओं को विकसित कर जीवन के हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकते हैं। इसके लिए आवश्यक है स्वस्थ व बलवान शरीर, कुशाग्र बुद्धि, उत्तम स्मरणशक्ति, एकाग्रता, स्वभाव में शीलता, विकसित मनोबल एवं आत्मबल। नियमित योगासन एवं प्राणायाम के विधिवत अभ्यास से इन सभी की प्राप्ति में बहुत मदद मिलती है।

योगासन सिखाने से पूर्व निम्न बातें बच्चों को अवश्य बतायें-

स्थानः आसनों का अभ्यास स्वच्छ, हवादार कमरे में करना चाहिए। बाहर खुले वातावरण में भी अभ्यास कर सकते हैं परन्तु आसपास का वातावरण शुद्ध होना चाहिए।

समयः प्रातः काल खाली पेट आसन करना अति उत्तम है। भोजन के छः घंटे बाद व दूध पीने के दो घंटे बाद भी आसन कर सकते हैं।

आवश्यक साधनः गर्म कंबल, चटाई अथवा टाट आदि को बिछाकर ही आसन करवायें। (केन्द्र संचालक आसन करवाने हेतु गर्म कंबल, चटाई अथवा टाट आदि की व्यवस्था करेंगे।)

स्वच्छताः शौच और स्नान से निवृत्त होकर आसन करें तो अच्छा है।

ध्यान दें- श्वास मुँह से न लेकर नाक से ही लेना चाहिए। आसन करते समय शरीर के साथ जबरदस्ती न करें। धैर्यपूर्वक अभ्यास बढ़ाते जायें।

टिप्पणीः 8 वर्ष से कम उम्र वाले बच्चों को कोई भी आसन या प्राणायाम नहीं करना चाहिए। 5 से 8 वर्ष के बच्चों को व्यायाम करा सकते हैं। आसन करवाने के पश्चात बच्चों को आसन की विधि नोटबुक में लिखवा दें।

विशेषः बालिकाओं को सर्वांगासन, चक्रासन और हलासन केन्द्र में नहीं करायें। बालिकाएँ केन्द्र में ये आसन सीख कर घर पर इनका अभ्यास करें।

टिप्पणीः कोई भी आसन करवाने से पहले बच्चों से आसन के बारे में चर्चा करें, उसके लाभ बतायें। आसन की विधि बताते हुए स्वयं करके या किसी बच्चे द्वारा करवा के सभी बच्चों को दिखायें, फिर सभी बच्चों से करवायें।

पद्मासन

सर्वप्रथम बच्चों से प्रश्न करते हुए आसन से होने वाले लाभों की चर्चा करें। जैसे- बच्चों! क्या आप सदैव प्रसन्न रहना चाहते हैं? अपना मनोबल व आत्मबल बढ़ाना चाहते हैं? हाँ तो आप नित्य पद्मासन का अभ्यास कीजिये। फिर बच्चों को इस आसन का परिचय दें।

परिचयः इस आसन में पैरों का आकार पद्म अर्थात कमल जैसा बनने से इसको पद्मासन या कमलासन कहा जाता है।

लाभः इस आसन से मन स्थिर और एकाग्र होता है। पद्मासन के नित्य अभ्यास से स्वभाव में प्रसन्नता बढ़ती है, मुख तेजस्वी बनता है व जीवनशक्ति का विकास होता है। इससे आत्मबल व मनोबल भी खूब बढ़ता है। इस आसन से पेट व पीठ के स्नायु मजबूत बनते हैं व बुद्धि तीव्र होती है।

 

विधिः बिछे हुए आसन पर बैठ जाएँ व पैर खुले

छोड़ दें। श्वास छोड़ते हुए दाहिने पैर को मोड़कर

बायीं जंघा पर ऐसे रखें कि एड़ी नाभि के नीचे

आये। इसी प्रकार बायें पैर को मोड़कर दायीं जंघा

पर रखें। पैरों का क्रम बदल भी सकते हैं। दोनों

हाथ दोनों घुटनों पर ज्ञान मुद्रा में रहें व दोनों

घुटने ज़मीन से लगे रहें। अब गहरा श्वास भीतर

भरें। कुछ समय तक श्वास रोकें, फिर धीरे-धीर

छोड़ें। ध्यान आज्ञाचक्र में हो, आँखें अर्धोन्मीलित

हों अर्थात् आधी खुली, आधी बंद। सिर, गर्दन,

छाती, मेरुदंड आदि पूरा भाग सीधा और तना

हुआ हो।

प्रारम्भिक समयः 5 से 10 मिनट। धीरे-धीरे इसका समय बढ़ा सकते हैं। ध्यान, जप, प्राणायाम आदि करने के लिए यह मुख्य आसन है। इस आसन में बैठकर आज्ञाचक्र पर गुरु अथवा इष्ट का ध्यान करने से बहुत लाभ होता है।

रोगों में लाभः यह आसन मंदाग्नि, पेट के कृमि व मोटापा दूर करने में लाभदाय़क है। इसका नियमित अभ्यास दमा, अनिद्रा, हिस्टीरिया आदि रोगों को दूर करने में सहायक है।

सावधानीः कमजोर घुटनोंवाले, अशक्त या रोगी व्यक्ति जबरदस्ती हठपूर्वक इस आसन में न बैठें।

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सर्वांगासन

सर्वप्रथम बच्चों से प्रश्नोत्तरी द्वारा इस आसन से होने वाले लाभों की चर्चा करें। जैसे बच्चो! क्या आप अपने नेत्रों और मस्तिष्क की शक्ति बढ़ाना चाहते हैं? क्या आप अपनी शक्ति को ऊर्ध्वगामी बनाना चाहते हैं? हाँ तो आप नित्य सर्वांगासन का अभ्यास कीजिये। फिर बच्चों को इस आसन का परिचय दें।

परिचयः इस आसन में समग्र शरीर को ऊपर उठाया जाता है। उस समय शरीर के सभी अंग सक्रिय रहते हैं। इसीलिए इसे सर्वांगासन कहते हैं।

लाभः यह आसन मेधाशक्ति को बढ़ाने वाला व चिरयौवन की प्राप्ति कराने वाला है। विद्यार्थियों को तथा मानसिक, बौद्धिक कार्य करने वाले लोगों को यह आसन अवश्य करना चाहिए। इससे नेत्रों और मस्तिष्क की शक्ति बढ़ती है। इस आसन को करने से ब्रह्मचर्य की रक्षा होती है व स्वप्नदोष जैसे रोगों का नाश होता है। सर्वांगासन के नित्य अभ्यास से जठराग्नि तीव्र होती है, त्वचा लटकती नहीं तथा झुर्रियाँ नहीं पड़तीं।

विधिः बिछे हुए आसन पर लेट जायें। श्वास लेकर

भीतर रोकें व कमर से दोनों पैरों तक का भाग

ऊपर उठायें। दोनों हाथों से कमर को आधार देते

हुए पीठ का भाग भी ऊपर उठायें। अब सामान्य

श्वास-प्रश्वास करें। हाथ की कोहनियाँ भूमि से लगी

रहें व ठोढ़ी छाती के साथ चिपकी रहे। गर्दन और

कंधे के बल पूरा शरीर ऊपर की ओर सीधा खड़ा

कर दें। दृष्टि पैर के दोनों अँगूठों पर हो। गहरा

श्वास लें, फिर श्वास बाहर निकाल दें। श्वास बाहर

रोक कर गुदा व नाभि के स्थान को अंदर सिकोड़

लें व ‘ॐ अर्यमायै नमःमंत्र का मानसिक जप

करें। अब गुदा को पूर्व स्थिति में लायें। फिर से

ऐसा करें, 3 से 5 बार ऐसा करने के बाद गहरा श्वास लें। श्वास भीतर भरते हुए ऐसा भाव करें कि ‘मेरी ऊर्जाशक्ति ऊर्ध्वगामी होकर सहस्रार चक्र में प्रवाहित हो रही है। मेरे जीवन में संयम बढ़ रहा है। फिर श्वास बाहर छोड़ते हुए उपर्युक्त विधि को दोहरायें। ऐसा 5 बार कर सकते हैं। सर्वांगासन की स्थिति में दोनों पैरों को जांघों पर लगाकर पद्मासन किया जा सकता है।

समयः सामान्यतः एक से पाँच मिनट तक यह आसन करें। क्रमशः 15 मिनट तक बढ़ा सकते हैं।

रोगों में लाभः थायराइड नामक अंतः ग्रंथि में रक्त संचार तीव्र गति से होने लगता है, जिससे थायराइड के अल्प विकासवाले रोगी के लाभ होता है।

सावधानीः थायराइड के अति विकास वाले, उच्च रक्तचाप, खूब कमजोर हृदयवाले और अत्यधिक चर्बीवाले लोग यह आसन न करें।

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हलासन

सर्वप्रथम बच्चों से प्रश्नोत्तरी द्वारा इस आसन से होने वाले लाभों की चर्चा करें। जैसे बच्चो ! क्या आप अपने शरीर को फुर्तीला बनाना चाहते हैं? हाँ तो आप नित्य हलासन का अभ्यास कीजिए। फिर बच्चों को इस आसन का परिचय दें।

परिचयः इस आसन में शरीर का आकार हल जैसा बन जाता है, इसलिए इसे हलासन कहते हैं। यह आसन करते समय ध्यान विशुद्धाख्य चक्र में रखें।

लाभः युवावस्था जैसी स्फूर्ति बनाये रखने वाला व पेट की चर्बी कम करने वाला यह अदभुत आसन है। इस आसन के नियमित अभ्यास से शरीर बलवान व तेजस्वी बनता है और रक्त की शुद्धि होती है।

विधिः सीधे लेट जायें, श्वास लेकर भीतर रोकें।

अब दोनों पैरों को एक साथ धीरे-धीरे ऊपर ले

जायें। पैर बिल्कुल सीधे, तने हुए रखकर पीछे

सिर की तरफ झुकायें व पंजे जमीन पर लगायें।

ठोढ़ी छाती से लगी रहे। फिर सामान्य श्वास-

प्रश्वास करें। श्वास लेकर रोकें व धीरे-धीरे मूल

स्थिति में आ जायें।

समयः एक से तीन मिनट।

रोगों में लाभः इस आसन के अभ्यास से लीवर की कमजोरी दूर होती है। मधुमेह अर्थात् डायबिटीज़, दमा, संधिवात, अजीर्ण, कब्ज आदि रोगों में यह अत्यंत लाभदायक है। पीठ, कमर की कमजोरी दूर होती है, सिर एवं गले का दर्द तथा पेट की बीमारियाँ दूर होती हैं।

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वज्रासन

सर्वप्रथम बच्चों से प्रश्नोत्तरी द्वारा इस आसन के होनेवाले लाभों की चर्चा करें। जैसे- बच्चो! क्या आप अपनी स्मरणशक्ति और रोगप्रतिकारक शक्ति बढ़ाना चाहते हैं? हाँ तो आप नित्य वज्रासन का अभ्यास कीजिये। फिर बच्चों को इस आसन का परिचय दें।

परिचयः इस आसन का नियमित अभ्यास करने से शरीर वज्र के समान शक्तिशाली हो जाता है। इसीलिये इसे वज्रासन कहते हैं। यह आसन करते समय ध्यान मूलाधार चक्र में स्थित करें।

लाभः पाचनशक्ति व स्मरणशक्ति में वृद्धि होती है एवं आँखों

की ज्योति तीव्र होती है। रक्त के श्वेतकणों की संख्या में

वृद्धि होती है, जिससे रोगप्रतिकारक शक्ति बढ़ती है।

विधिः दोनों पैरों को घुटनों से मोड़कर दोनों एड़ियों पर बैठ

जायें। पैरों के तलवों के ऊपर नितम्ब रहें व दोनों अँगूठे

परस्पर लगे रहें। कमर और पीठ बिल्कुल सीधी रहे।

दोनों बाजुओं को कोहनियों से मोड़े बिना हाथ घुटनों पर

रख दें। हथेलियाँ नीचे की ओर रहें व दृष्टि सामने स्थिर

कर दें।

विशेषः भोजन करने के बाद इस आसन में बैठने से भोजन

जल्दी पच जाता है।

रोगों में लाभः मानसिक अवसाद (डिप्रेशन) से पीड़ित व्यक्ति अगर इस आसन में प्रतिदिन बैठे तो उसके जीवन में प्रसन्नता व शारीरिक स्फूर्ति आती है।

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शशकासन

सर्वप्रथम बच्चों से प्रश्नोत्तरी द्वारा इस आसन से होने वाले लाभों की चर्चा करें। जैसे- बच्चो! क्या आप अपने जिद्दी और क्रोधी स्वभाव पर नियंत्रण पाना चाहते हैं? अपनी निर्णयशक्ति बढ़ाना चाहते हैं? आज्ञाचक्र का विकास कर आप हर क्षेत्र में सफल होना चाहते हैं? हाँ तो आप नित्य शशकासन का अभ्यास कीजिये। फिर बच्चों को इस आसन का परिचय दें।

लाभः यह आसन कटि प्रदेश की मांसपेशियों के लिए अत्यंत लाभदायक है। इसके अभ्यास से सायटिका की तंत्रिका व एड्रिनल ग्रंथि के कार्य संतुलित होते हैं। आज्ञाचक्र का विकास होता है, निर्णयशक्ति बढ़ती है। जिद्दी व क्रोधी स्वभाव पर भी नियंत्रण होता है।

विधिः प्रकार 1. वज्रासन में बैठ जायें। श्वास लेते हुए

बाजुओं को ऊपर उठायें व हाथों को नमस्कार की

स्थिति में जोड़ दें। श्वास छोड़ते हुए धीरे-धीरे आगे

झुककर मस्तक जमीन पर लगा दें। जोड़े हुए हाथों

को शरीर के सामने जमीन पर रखें व सामान्य

श्वास-प्रश्वास करें। धीरे-धीरे श्वास लेते हुए हाथ, सिर उठाते हुए मूल स्थिति में आ जायें।

प्रकार-2. इसमें कमर के पीछे दाहिनी कलाई

को बायें हाथ से पकड़ लें। अँगूठा अन्दर रखते

हुए दाहिने हाथ की मुटठी बाँध लें। बाकी प्रक्रिया

प्रकार 1 के अनुसार करें।

प्रकार-3. इसमें दोनों हाथों की मुट्ठियाँ जंघामूल

पर पेड़ू से सटाकर रखें। दोनों हाथों की कनिष्ठकाएँ

जांघों पर तथा अँगूठा ऊपर रहे। बाकी प्रक्रिया

प्रकार 1 के अनुसार करें।

नोटः दोनों हाथों को जमीन पर फैलाकर भी यह

आसन कर सकते हैं।

विशेषः ॐ गं गणपतये नमःमंत्र का मानसिक जप व गुरुदेव, इष्टदेव की प्रार्थना-ध्यान करते हुए शरणागति भाव से इस स्थिति में पड़े रहने से भगवान और सदगुरु के चरणों में प्रीति बढ़ती है व जीवन उन्नत होता है। रोज सोने से पहले व सवेरे उठने के तुरंत बाद 5 से 10 मिनट तक ऐसा करें।

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

पादपश्चिमोत्तानासन

सर्वप्रथम बच्चों से प्रश्नोत्तरी द्वारा इस आसन से होने वाले लाभों की चर्चा करें। जैसे- बच्चो! क्या आप अपनी लम्बाई बढ़ाना चाहते हैं? विकारी, क्रोधी स्वभाव पर नियंत्रण पाकर संयमी, धैर्यवान और साहसी बनना चाहते हैं? हाँ तो आप नित्य पादपश्चिमोत्तानासन का अभ्यास कीजिये। फिर बच्चों को आसन का परिचय दें।

परिचयः यह आसन भगवान शिव को अत्यंत प्रिय है। भगवान शिव ने मुक्तकंठ से इस आसन की प्रशंसा करते हुए कहा हैः ‘यह आसन सर्वश्रेष्ठ है।’ इसे करते समय ध्यान मणिपुर चक्र में स्थित हो।

लाभः चिंता एवं उत्तेजना शांत करने के लिए यह आसन उत्तम है। इस आसन से उदर, छाती और मेरुदण्ड की कार्यक्षमता बढ़ती है। संधिस्थान मजबूत बनते हैं और जठराग्नि प्रदीप्त होती है। पेट के कीड़े अनायास ही मर जाते हैं।

विधिः बैठकर दोनों पैरों को सामने लंबा फैला दें।

श्वास भीतर भरते हुए दोनों हाथों को ऊपर की ओर

लंबा करें। श्वास रोके हुए दाहिने हाथ की तर्जनी और

अँगूठे से दाहिने पैर का अँगूठा और बायें हाथ की

तर्जनी और अँगूठे से बायें पैर का अँगूठा पकड़ें। श्वास छोड़ते हुए नीचे झुकें और सिर दोनों घुटनों के मध्य में रखें। ललाट घुटने को स्पर्श करे और घुटने जमीन से लगे रहें। हाथ की दोनों कोहनियाँ घुटनों के पास जमीन से लगी रहें। सामान्य श्वास-प्रश्वास करते हुए इस स्थिति में यथाशक्ति पड़े रहें। धीरे-धीरे श्वास भीतर भरते हुए मूल स्थिति में आ जायें।

समयः प्रारम्भ में आधा मिनट इस आसन को करते हुए धीरे-धीरे 15 मिनट तक बढ़ा सकते हैं।

ध्यान दें- आप अवश्य इस आसन का लाभ लेना। प्रारंभ के चार-पाँच दिन जरा कठिन लगेगा लेकिन थोड़े दिनों के नियमित अभ्यास के पश्चात आप सहजता से यह आसन कर सकेंगे। यह निश्चित ही स्वास्थ्य का साम्राज्य स्थापित कर देगा।

रोगों में लाभः मन को गंदे विचारों से बचाकर संयमित करने हेतु इस आसन का नियमित अभ्यास करना चाहिए। इसके अभ्यास से स्वप्नदोष, वीर्यविकार व रक्तविकार रोग दूर होते हैं।

मंदाग्नि, अजीर्ण, पेट के रोग, सर्दी, खाँसी, कमर का दर्द, हिचकी, अनिद्रा, ज्ञानतंतुओँ की दुर्बलता, नल की सूजन आदि बहुत से रोग इसके अभ्यास से दूर होते हैं। मधुप्रमेह, आंत्रपुच्छ शोथ (अपेन्डिसाइटिस), दमा, बवासीर आदि रोगों में भी यह अति लाभदायक है।

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ताड़ासन

सर्वप्रथम बच्चों से प्रश्नोत्तरी द्वारा इस आसन से होने वाले लाभों की चर्चा करें। जैसे- बच्चो! क्या आप अपनी लम्बाई बढ़ाना चाहते हैं? अपनी ऊर्जाशक्ति को ऊर्ध्वगामी बनाना चाहते हैं? हाँ तो आप नित्य ताड़ासन का अभ्यास कीजिए। फिर बच्चों को इस आसन का परिचय दें।

परिचयः इस आसन में शरीर की स्थिति ताड़ या खजूर के वृक्ष के समान लम्बी होती है, अतः इसे ताड़ासन कहते हैं।

लाभः इस आसन से स्फूर्ति, प्रसन्नता, जागरूकता व नेत्रज्योति में वृद्धि होती है। बच्चे व युवा यदि ताड़ासन और पादपश्चिमोत्तानासन का प्रतिदिन अभ्यास करें तो शऱीर का कद बढ़ाने में मदद मिलती है।

विधिः दोनों पैरों के बीच में 4 से 6 इंच का फासला रखकर सीधे खड़े हो जायें। हाथों को शरीर से सटा कर रखें। एड़ियाँ ऊपर उठाते समय श्वास अंदर भरते हुए दोनों हाथ सिर से ऊपर उठायें। पैरों के पंजों पर खड़े रहकर शरीर को पूरी तरह ऊपर की ओर खींचें। सिर सीधा व दृष्टि आकाश की ओर रहे। हथेलियाँ आमने-सामने हों। श्वास भीतर रोके हुए यथाशक्ति इसी स्थिति में खड़े रहें। श्वास

ताड़ासन

छोड़ते हुए एड़ियाँ जमीन पर वापिस लायें। हाथ

नीचे लाकर मूल स्थिति में आ जायें।

समयः आधा-आधा मिनट तक तीन बार करें।

इसकी समयावधि बढ़ाकर एक साथ एक से तीन

तक भी कर सकते हैं। (एक साथ तीन मिनट

तक करना हो तो यथाशक्ति श्वास रोकें फिर

धीरे-धीरे छोड़ें। पुनः श्वास लेकर रोकें)।

रोगों में लाभः इसके नियमित अभ्यास से

स्वप्नदोष, वीर्यविकार, धातुक्षय जैसी बीमारियों

में लाभ होता है। दमे के रोगियों के लिए यह

आसन बड़ा ही लाभप्रद है।

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शवासन

सर्वप्रथम बच्चों से प्रश्नोत्तरी द्वारा इस आसन से होने वाले लाभों की चर्चा करें। जैसे- बच्चो! क्या आप अपनी मनःशक्ति को बढ़ाना चाहते हैं? हाँ तो आप नित्य शवासन का अभ्यास कीजिए। फिर बच्चों को इस आसन का परिचय दें।

परिचयः इस आसन की पूर्णावस्था में शरीर की स्थिति मृतक व्यक्ति जैसी हो जाती है, अतः इसे शवासन कहते हैं।

लाभः अन्य आसन करने के बाद में जो तनाव होता है, उसको दूर करने के लिए अंत में तीन से पाँच मिनट तक शवासन करना चाहिए। अन्य समय में भी इसे कर सकते हैं। इससे रक्तवाहिनियों में रक्तप्रवाह तीव्र होने से शारीरिक, मानसिक थकान उतर जाती है। इस आसन के द्वारा स्नायु एवं मांसपेशियों का शिथिलीकरण होता है, जिससे उनकी शक्ति बढ़ती है।

विधिः सीधे लेट जायें, दोनों पैरों को एक दूसरे से थोड़ा अलग कर दें व दोनों हाथ भी शरीर से अलग रहें। पूरे शरीर को मृतक

व्यक्ति के शरीर की तरह ढीला छोड़ दें।

सिर सीधा रहे व आँखें बंद। हाथ की

हथेलियाँ आकाश की तरफ खुली रखें।

मानसिक दृष्टि से शरीर को पैर से सिर

तक देखते जायें। बारी-बारी से एक-एक अंग पर मानसिक दृष्टि एकाग्र करते हुए भावना करें कि वह अंग अब आराम पा रहा है। ऐसा करने से मानसिक शक्ति में वृद्धि होती है। ध्यान रहे कि शरीर के किसी भी अंग में कहीं भी तनाव न रहे। शिथिलीकरण की प्रक्रिया में पैर से प्रारंभ कर के सिर तक जायें अथवा सिर से प्रारंभ कर के पैर तक भी जा सकते हैं। जहाँ से आरम्भ किया हो वहीं पुनः पहुँचना चाहिए।

ध्यान दें- शवासन करते समय निद्रित न होकर जाग्रत रहना आवश्यक है। फिर श्वासोच्छ्वास पर ध्यान देना है। शवासन की यह मुख्य प्रक्रिया है। श्वास और उच्छवास दीर्घ व सम रहें।

रोगों में लाभः नाड़ीतंत्र की दुर्बलता दूर होती है। इस आसन को करने से हृदय की तकलीफों व मानसिक रोगों में शीघ्र आराम प्राप्त होता है।

समयः 2-3 आसन के बाद 1 मिनट तक शवासन करना चाहिए। सभी आसनों के अंत में 10 से 15 मिनट तक करें।

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प्राणायाम-परिचय

सर्वप्रथम बच्चों को प्राण और प्राणायाम के बारे में बतायें। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश इन पाँच तत्त्वों से यह शरीर बना है। इसका संचालन वायुतत्त्व से विशेष होता है। वायु की अंतरंग शक्ति (जीवनशक्ति का नाम है प्राण। आयाम अर्थात नियमन। इस प्रकार प्राणायाम का अर्थ है होता है ‘प्राणों का नियमन।’ प्राणायाम केवल श्वास-प्रश्वास की क्रिया नहीं है बल्कि यह प्राणशक्ति को वश में करने की ऋषि निर्दिष्ट एक शास्त्रीय पद्धति है। ‘जाबालोवनिषद’ में प्राणायाम को समस्त रोगों का नाशकर्ता बताया गया है। मनुष्य के फेफड़ों में तीन हजार छोटे-छोटे छिद्र होते हैं। साधारण श्वास लेने वाले मनुष्य के तीन सौ से पाँच सौ से छिद्र काम करते हैं। जिससे शरीर की रोग प्रतिकारक शक्ति कम हो जाती है और हम जल्दी बीमार हो जाते हैं। रोज प्राणायाम करने से ये बंद छिद्र खुल जाते हैं, जिससे कार्य करने की क्षमता बढ़ती है व रोगों से बचाव होता है।

भोजन करने से आधा घंटा पूर्व व भोजन करने के चार घंटे बाद प्राणायाम किये जा सकते हैं।

8 वर्ष से अधिक उम्र वाले बच्चों को ही प्राणायाम करायें, वह भी उनकी शक्ति के अनुसार ही। भ्रामरी प्राणायाम 3 वर्ष से अधिक उम्र वाले बच्चे कर सकते हैं।

कोई भी प्राणायाम करवाने से पहले सर्वप्रथम बच्चों को उस प्राणायाम का परिचय दें। फिर करने की विधि बताते हुए स्वयं करके या किसी बच्चे द्वारा करवा के सभी बच्चों को दिखायें। फिर सभी बच्चों से करवायें।

भ्रामरी प्राणायाम

सर्वप्रथम बच्चों से प्रश्नोत्तरी द्वारा इस प्राणायाम से होने वाले लाभों की चर्चा करें। जैसे - बच्चों! क्या आप अपनी स्मरणशक्ति और बौद्धिक शक्ति बढ़ाना चाहते हैं? हाँ तो आप नित्य भ्रामरी प्राणायाम का अभ्यास कीजिए।

परिचयः विद्यार्थीयों की स्मरणशक्ति तथा बौद्धिक शक्तियों को विकसित करने के लिए यह सर्वसुलभ व बहु-उपयोगी प्राणायाम है। इस प्राणायाम में भ्रमर अर्थात भँवरे की तरह गुंजन करना होता है इसीलिए इसका नाम भ्रामरी प्राणायाम रखा गया है।

भ्रामरी प्राणायाम

लाभः समृतिशक्ति का विकास होता है, ज्ञानतंतुओं को पोषण मिलता है, मस्तिष्क की नाड़ियों का शोधन होता है।

विधिः पद्मासन में सीधे बैठ जायें। खूब गहरा

श्वास लेकर दोनों हाथों की तर्जनी (अँगूठे के पासवाली)

उँगली से अपने दोनों कानों के छिद्र बंद कर लें। कुछ

समय श्वास रोके रखें। श्वास छोड़ते हुए होंठ बंद रखकर

भौंरे (भ्रमर) की तरह ‘ॐ’ का दीर्घ गुंजन करें।

ध्यान दें- आँखें और होंठ बंद रहें। ऊपर व नीचे के दाँतों

के बीच आधे से एक सैंटीमीटर का फासला रहे।

विशेषः इसके नियमित अभ्यास द्वारा अनगिनत विद्यार्थीयों ने अपनी यादशक्ति व बुद्धिशक्ति का विकास किया है। जो विद्यार्थी पहले 60 से 65% अंक प्राप्त करते थे, अब वे 80 से 85% अंक प्राप्त कर रहे हैं। यह प्राणायाम प्रतिदिन पाँच से दस बार करें।

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अनलोम-विलोम प्राणायाम

सर्वप्रथम बच्चों से प्रश्नोत्तरी द्वारा इस प्राणायाम से होने वाले लाभों की चर्चा करें। जैसे बच्चो! क्या आप अपना प्राणबल, मनोबल व आत्मबल विकसित करना चाहते हैं? हाँ तो आप नित्य अनुलोम-विलोम प्राणायाम कीजिये।

परिचयः प्राणबल, मनोबल व आत्मबल विकसित करने का अनुपम खजाना है अनुलोम-विलोम प्राणायाम। यह प्राणायाम करने में सरल एवं सभी के लिए अत्यंत लाभदायक है।

लाभः इस प्राणायाम से श्वास लयबद्ध तथा सूक्ष्म हो जाते हैं और स्वास्थ्य के साथ-साथ आध्यात्मिकता में भी लाभ होता है। प्राणशक्ति का नियमन होता है, जिससे ध्यान-भजन में मन लगता है। मानसिक तनाव दूर होता है। आनंद, उत्साह व निर्भयता की प्राप्ति होती है। एकाग्रता में भी वृद्धि होती है। तन-मन में ताजगी व स्फूर्ति भरने के लिए यह प्राणायाम रामबाण औषधि सिद्ध होता है।

विधिः पद्मासन में बैठकर दोनों नथुनों से पूरा श्वास बाहर निकाल दें। अब दाहिने हाथ की तर्जनी (पहली उँगली) व मध्यमा

अनलोम-विलोम

(बड़ी उँगली) को अंदर की ओर मोड़कर उसके

अँगूठे से दायें नथुने को बंद करके बायें नथुने

से भीतर लंबा श्वास लें। श्वास भीतर लेने की

क्रिया को ‘पूरक’ कहते हैं। दोनों नथुनों को बंद

करके निश्चित समय तक श्वास भीतर ही रोके

रखें। यह हुआ ‘आभ्यांतर कुंभक।’ कुंभक की

अवस्था में ‘ॐ’ अथवा किसी भी भगवन्नाम का जप अत्यंत लाभदायी है। फिर बायें नथुने को दाहिने हाथ की कनिष्ठिका (सबसे छोटी उँगली) व अनामिका (उसके पासवाली उँगली) से बंद करके दायें नथुने से धीरे-धीरे श्वास बाहर छोड़ते हुए पूरा बाहर निकाल दें। श्वास बाहर छोड़ने की क्रिया को ‘रेचक’ कहते हैं। दोनों नथुनों को बंद कर श्वास को बाहर ही सुखपूर्वक रोकें। इसे ‘बाह्या कुंभक’ कहते हैं। अब दायें नथुने से श्वास लें। फिर निश्चित समय तक श्वास भीतर ही रोके रखें। बायें नथुने से श्वास धीरे-धीरे छोड़ें। पूरा श्वास बाहर निकल जाने के बाद उसे बाहर ही रोकें। यह एक प्राणायाम हुआ। इसमें समय का अनुपात इस प्रकार है।

पूरक

आभ्यांतर कुंभक

रेचक

बहिर्कुंभक

1

4

2

2

 

अर्थात् श्वास लेने में यदि 10 सैकेंड लगायें तो 40 सैकेंड श्वास रोक कर रखें। 20 सैकेंड श्वास छोड़ने में लगायें तथा 20 सैकेंड बाहर रोकें। धीरे-धीरे नियमित अभ्यास द्वारा इस स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है।

ध्यान दें- विशेष ध्यान देने की बात है कि मूलबंध (गुदा का संकोचन करना), उड्डीयानबंध (पेट को अंदर की ओर सिकोड़कर ऊपर की ओर खींचना) एवं जालंधरबंध (ठोढ़ी को कंठकूप से लगाना) इस तरह से त्रिबंध करके यह प्राणायाम करने से अधिक लाभदायक सिद्ध होता है।

प्रातःकाल ऐसे 5 से 10 प्राणायाम करने का प्रतिदिन अभ्यास करना चाहिए।

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बुद्धिशक्ति-मेधाशक्तिवर्धक प्रयोग

सर्वप्रथम बच्चों से प्रश्नोत्तरी द्वारा इस प्रयोग से होने वाले लाभों की चर्चा करें। जैसे- बच्चो! क्या आप अपनी बुद्धिशक्ति, धारणाशक्ति और मेधाशक्ति बढ़ाना चाहते हैं? हाँ तो आप नित्य बुद्धिशक्ति मेधाशक्तिवर्धक प्रयोग कीजिये।

परिचयः यह एक उत्तम यौगिक प्रयोग है, जिसका नियमित अभ्यास करने से बच्चे निश्चित ही बुद्धिशक्ति, धारणाशक्ति और मेधाशक्ति के धनी हो सकते हैं।

बुद्धिशक्तिवर्धक प्रयोग

लाभः इसके नियमित अभ्यास से ज्ञानतंतु

पुष्ट होते हैं। चोटी के स्थान के नीचे गाय के खुर

के आकार वाला बुद्धिमंडल है, जिस पर इस प्रयोग

का विशेष प्रभाव पड़ता है और बुद्धि व धारणा शक्ति

का विकास होता है।

विधिः सीधे खड़े हो जायें। दोनों हाथों की मुट्ठियाँ

बंद करके हाथों को शरीर से सटाकर रखें। सिर पीछे

की तरफ ले जायें। दृष्टि आसमान की ओर हो। इस

स्थिति में 25 बार गहरा श्वास लें और छोड़ें। मूल

स्थिति में आ जायें।

मेधाशक्तिवर्धक प्रयोग

लाभः इसके नियमित अभ्यास से मेधाशक्ति बढ़ती है।

विधिः सीधे खड़े हो जायें। दोनों हाथों की मुट्ठियाँ

बंद करके हाथों को शरीर से सटाकर रखें। आँखें बंद

करके सिर नीचे की तरफ इस तरह झुकायें कि ठोढ़ी

कंठकूप से लगे रहे और कंठकूप पर हलका सा दबाव

पड़े। इस स्थिति में 25 बार गहरा श्वास लें और छोड़ें।

मूल स्थिति में आ जायें।

विशेषः श्वास लेते समय ‘ॐ’ मंत्र का मानसिक जप करें

व छोड़ते समय उसकी गिनती करें।

ध्यान दें- यह प्रयोग सुबह खाली पेट करें। दोनों प्रयोग

प्रारम्भ में 15 बार करते हैं। फिर धीरे-धीरे संख्या 25

तक बढ़ा सकते हैं, ऐसा बच्चों को बतायें।

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प्राणशक्तिवर्धक प्रयोग

बच्चों से प्रश्नोत्तरी द्वारा इस प्रयोग से होने वाले लाभों की चर्चा करें। जैसे- बच्चो! क्या आप अपनी प्राणशक्ति को बढ़ाना चाहते हैं? हाँ तो आप नित्य प्राणशक्तिवर्धक प्रयोग कीजिए।

परिचयः इससे प्राणशक्ति का अदभुत विकास होता है। अतः इसे प्राणशक्तिवर्धक प्रयोग कहते हैं।

लाभः इससे हमारी नाभि के नीचे जो स्वाधिष्ठान केन्द्र है, उसे जागृत होने में खूब मदद मिलती है। स्वाधिष्ठान केन्द्र जितना सक्रिय होगा, उतना प्राणशक्ति के साथ-साथ रोग-प्रतिकारक शक्ति एवं मनःशक्ति बढ़ने में मदद मिलेगी।

वैज्ञानिकों ने इस केन्द्र की शक्तियों का वर्णन करते हुए कहा हैः It is the mind of the stomach. यह पेट का मस्तक है।

विधिः धरती पर कंबल अथवा चटाई बिछा कर सीधे लेट जायें, शरीर को ढीला छोड़ दें, जैसे शवासन में करते हैं। दोनों हाथों की उँगलियाँ नाभि के आमने सामने पेट पर रखें। हाथ की कोहनियाँ धरती पर लगी रहें।

जैसे होठों से सीटी बजाते हैं वैसी मुखमुद्रा बनाकर नाक के दोनों नथुनों से खूब गहरा श्वास लें। मुँह बंद रहे। होठों की ऐसी स्थिति बनाने से दोनों नथुनों से समान रूप में श्वास भीतर जाता है

10-15 सैकेंड तक श्वास को रोके रखें। इस स्थिति में पेट को अन्दर बाहर करें, अन्दर ज्यादा बाहर कम। यह भावना करें कि मेरी नाभि के नीचे का स्वाधिष्ठान केन्द्र जागृत हो रहा है।

फिर होठों से सीटी बजाने की मुद्रा में मुँह से धीरे-धीरे श्वास बाहर छोड़ते हुए यह भावना करें कि ‘मेरे शरीर में जो दुर्बल प्राण हैं अथवा रोग के कण हैं उनको मैं बाहर फैंक रहा हूँ।’

इससे हमारी नाभि के नीचे जो स्वाधिष्ठान केन्द्र है उसे जागृत होने में खूब मदद मिलती है।

टिप्पणीः यह प्रयोग 2 से 3 बार करें।

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टंक विद्या

परिचयः आजकल अधिकांश लोगों की यह समस्या है कि ध्यान-भजन में बैठते हैं पर मन नहीं लगता। मन को एकाग्र करने वाला, मन की चंचलता दूर करने वाला एक अनुपम प्रयोग है टंक विद्या।

लाभः प्रतिदिन इसे करने से मन ईश्वर में लगने लगेगा व ध्यान-भजन का प्रभाव कई गुणा बढ़ जाएगा। यह प्रयोग करके जप-ध्यान करोगे तो इड़ा व पिंगला नाड़ी का द्वार खुलेगा, सुषुम्ना नाड़ी जागृत होगी। विशुद्धाख्य केन्द्र भी जागृत होगा। फेफड़ों की शक्ति व रोगप्रतिकारक शक्ति का अदभुत विकास होता है। थायराइड के रोग नष्ट होने लगते हैं।

विधिः पद्मासन अथवा सुखासन में बैठ जायें। हाथों को घुटनों पर ज्ञान मुद्रा में रखें। कमर सीधी रहे। दोनों नथुनों से खूब गहरा श्वास भीतर भरें। कुछ समय तक श्वास सुखपूर्वक भीतर ही रोकें। मुँह बंद रखकर कंठ से ‘ॐ’ की ध्वनि करते हुए कंठकूप पर थोड़ा दबाव पड़े, इस प्रकार श्वास पूरा होने तक सिर को धीरे-धीरे ऊपर-नीचे करें। यही क्रिया दो-तीन बार दोहरायें।

टिप्पणीः सुबह-शाम दोनों समय खाली पेट इसे करें।

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सूर्योपासना

सूर्य बुद्धिशक्ति के स्वामी हैं। प्रातःकाल सूर्य को अर्घ्य देना, 8-10 मिनट तक सूर्यस्नान करना व सूर्यनमस्कार करना ये नीरोगी व स्वस्थ जीवन की सर्वसुलभ कुंजियाँ हैं। हमारे ऋषियों ने मंत्र और व्यायाम को मिलाकर एक ऐसी प्रणाली विकसित की है, जिसमें सूर्योपासना का भी समन्वय है। इसे सूर्यनमस्कार कहते हैं।

सूर्यनमस्कार से शरीर की रक्त-संचरण प्रणाली, श्वसन-प्रणाली, पाचन-प्रणाली आदि पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। नेत्रज्योति में वृद्धि होती।

सूर्यनमस्कार से सौर केन्द्र विकसित होता है। भावनाएँ नियंत्रित होती हैं और आत्मबल बढ़ता है। सूर्यनमस्कार के नियमित अभ्यास से शारीरिक और मानसिक स्फूर्ति के साथ विचारशक्ति व स्मरणशक्ति तीव्र होती है।

प्रातःकाल शौच-स्नानादि से निवृत्त होकर कंबल या टाट (कंतान) का आसन बिछाकर पूर्वाभिमुख खड़े हो जायें। चित्र के अनुसार सिद्धस्थिति में हाथ जोड़कर, आँखें बंद करके, हृदय में भक्तिभाव भरकर भगवान सूर्यनारायण को प्रार्थना करें-

आदिदेव नमस्तुभ्यं प्रसीद मम भास्कर।

दिवाकर नमस्तुभ्यं प्रभाकर नमोsस्तु ते।।

‘हे आदिदेव सूर्यनारायण! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। हे प्रकाश प्रदान करने वाले देव! आप मुझ पर प्रसन्न हों। हे दिवाकर देव! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। हे तेजोमुख देव! आपको मेरा नमस्कार है।’

यह प्रार्थना करने के बाद सूर्य के तेरह मंत्रों में से प्रथम मंत्र ॐ मित्राय नमः। के स्पष्ट उच्चारण के साथ दोनों हाथ जोड़े हुए सिर झुका कर सूर्यदेव को नमस्कार करें। फिर चित्रों में निर्दिष्ट दस स्थितियों का क्रमशः आवर्त्तन करें। यह एक सूर्यनमस्कार हुआ।

सिद्ध स्थितिः

सिद्ध स्थिति

दोनों पैरों की एडियों और अंगूठे

परस्पर लगे हुए,संपूर्ण शरीर तना हुआ,

दृष्टि नासिकाग्र, दोनोंहथेलियाँ

नमस्कार की मुद्रा में,

अंगूठे सीने से लगे हुए।

पहली स्थितिः

पहलीस्थिति

 

नमस्कार की स्थिति में ही दोनों भुजाएँ सिर

के ऊपर, हाथ सीधे, कोहनियाँ तनी हुईं, सिर

और कमर से ऊपर का शरीर पीछे की झुका

हुआ, दृष्टि करमूल में, पैर सीधे, घुटने तने

दूसरी स्थिति

हुए, इस स्थिति में आते हुए श्वास भीतर भरें।

 

दूसरी स्थितिः  हाथ को कोहनियों से न मोड़ते

   हुए सामने से नीचे की ओर झुकें, दोनों हाथ-पैर सीधे, दोनों   घुटनेऔर कोहनियाँतनी हुईं, दोनों हथेलियाँ दोनों पैरों के पास जमीन के पासलगी हुईं,ललाट घुटनों से लगा हुआ, ठोड़ी उरोस्थि से लगी हुई, इस स्थितिमें श्वास को बाहर छोड़ें।

तीसरी स्थिति

तीसरी स्थितिः बायाँ पैर पीछे, उसका पंजा और  घुटना धरतीसे लगा हुआ, दायाँ घुटना मुड़ा हुआ, दोनों हथेलियाँ पूर्ववत्, भुजाएँ सीधी-कोहनियाँ तनी हुईं, कन्धे और मस्तक पीछे खींचेहुए, दृष्टि ऊपर, बाएँ पैर को पीछे ले जाते समय श्वास को भीतर खींचे।

चौथी स्थिति

चौथी स्थितिः दाहिना पैर पीछे लेकर बाएँ पैर के पास, दोनों हाथ

पैर सीधे, एड़ियाँ जमीन से लगी हुईं, दोनों घुटने और कोहनियाँ

तनी हुईं, कमर ऊपर उठी हुई, सिर घुटनों की ओर खींचा हुआ,

ठोड़ी छाती से लगी हुई, कटि और कलाईयाँ इनमें त्रिकोण, दृष्टि

घुटनों की ओर, कमर को ऊपर उठाते समय श्वास को छोड़ें।

पाँचवीं स्थिति

पाँचवीं स्थितिः साष्टांग नमस्कार, ललाट, छाती, दोनों हथेलियाँ, दोनों घुटने, दोनों पैरों के पंजे, ये आठ अंग धरती पर टिके हुए, कमर ऊपर उठाई हुई, कोहनियाँ एक दूसरे की ओर खींची हुईं, चौथी स्थिति में श्वास बाहर ही छोड़ कर रखें।

छठी स्थिति

छठी स्थितिः घुटने और जाँघे धरती से सटी हुईं, हाथ

सीधे, कोहनियाँ तनी हुईं, शरीर कमर से ऊपर उठा हुआ

मस्तक पीछे की ओर झुका हुआ, दृष्टि ऊपर, कमर

हथेलियों की ओर खींची हुई, पैरों के पंजे स्थिर, मेरूदंड

धनुषाकार, शरीर को ऊपर उठाते समय श्वास भीतर लें।

सातवीं स्थिति

सातवीं स्थितिः यह स्थिति चौथी स्थिति की पुनरावृत्ति है।

कमर ऊपर उठाई हुई, दोनों हाथ पैर सीधे, दोनों घुटने

और कोहनियाँ तनी हुईं, दोनों एड़ियाँ धरती पर टिकी हुईं,

मस्तक घुटनों की ओर खींचा हुआ, ठोड़ी उरोस्थि से लगी

हुई, एड़ियाँ, कटि और कलाईयाँ इनमें त्रिकोण, श्वास

को बाहर छोड़ें।

आठवीं स्थिति

आठवीं स्थितिः बायाँ पैर आगे लाकर पैर का पंजा दोनों

हथेलियों के बीच पूर्व स्थान पर, दाहिने पैर का पंजा और

घुटना धरती पर टिका हुआ, दृष्टि ऊपर की ओर, इस स्थिति

में आते समय श्वास भीतर को लें। (तीसरी और आठवीं

स्थिति मे पीछे-आगे जाने वाला पैर प्रत्येक सूर्यनमस्कार

में बदलें।)

नौवीं स्थिति

नौवीं स्थितिः यह स्थिति दूसरी की पुनरावृत्ति है, दाहिना

पैर आगे लाकर बाएँ के पास पूर्व स्थान पर रखें, दोनों

हथेलियाँ दोनों पैरों के पास धरती पर टिकी हुईं, ललाट

घुटनों से लगा हुआ, ठोड़ी उरोस्थि से लगी हुई, दोनों हाथ

पैर सीधे, दोनों घुटने और कोहनियाँ तनी हुईं, इस स्थिति में आते समय श्वास को बाहर छोड़ें।

दसवीं स्थिति

दसवीं स्थितिः प्रारम्भिक सिद्ध स्थिति के अनुसार समपूर्ण

शरीर तना हुआ, दोनों पैरों की एड़ियाँ और अँगूठे परस्पर

लगे हुए, दृष्टि नासिकाग्र, दोनों हथेलियाँ नमस्कार की मुद्रा

में, अँगूठे छाती से लगे हुए, श्वास को भीतर भरें, इस प्रकार

दस स्थितयों में एक सूर्यनमस्कार पूर्ण होता है। (यह दसवीं

स्थिति ही आगामी सूर्यनमस्कार की सिद्ध स्थिति बनती

है।)

तीसरी और आठवीं स्थिति में पीछे-आगे किया जाने वाला पैर प्रत्येक सूर्यनमस्कार में बदलें।

मित्राय नमः। 2. रवये नमः। 3. सूर्याय नमः। 4. भानवे नमः। 5. खगाय नमः। 6. पूष्णे नमः। 7. हिरण्यगर्भाय नमः। 8. मरीचये नमः। 9. आदित्याय नमः। 10. सवित्रे नमः। 11. अर्काय नमः। 12. भास्कराय नमः। 13. श्रीसवितृ-सूर्यनारायणाय नमः।

इस तरह से इन 13 मंत्रों में से एक-एक मंत्र का उच्चारण करके सूर्यनमस्कार की दसों स्थितियों का क्रमबद्ध अनुसरण करते हुए प्रतिदिन 13 सूर्यनमस्कार करना अति उत्तम है।

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

मुद्राज्ञान

 

प्रातः स्नान आदि के बाद आसन बिछा कर हो सके तो पद्मासन में अथवा सुखासन में बैठें। पाँच-दस गहरे साँस लें और धीरे-धीरे छोड़ें। उसके बाद शांतचित्त होकर निम्न मुद्राओं को दोनों हाथों से करें। विशेष परिस्थिति में इन्हें कभी भी कर सकते हैं।

बच्चों से सर्वप्रथम प्रश्नोत्तरी द्वारा इस मुद्रा से होने वाले लाभों की चर्चा करें। जैसे- बच्चो! क्या आप अपनी एकाग्रता व स्मरणशक्ति बढ़ाना चाहते हैं? हाँ तो आप नित्य ज्ञान मुद्रा का अभ्यास कीजिए।

लाभः इस मुद्रा के अभ्यास से ज्ञानतंतुओं को पोषण मिलता है। एकाग्रता व स्मरणशक्ति बढ़ती है। इस मुद्रा में बैठकर ध्यान, प्राणायाम आदि करने से विशेष लाभ होता है। यह विद्यार्थियों के लिए अत्यंत उपयोगी व लाभदायक मुद्रा है। फिर मुद्रा की विधि बताते हुए स्वयं करके सभी बच्चों को दिखायें। तत्पश्चात बच्चों से करवायें।

ज्ञान मुद्रा

ज्ञान मुद्राः तर्जनी अर्थात प्रथम उँगली को अँगूठे के

नुकीले भाग से स्पर्श करायें। शेष तीनों उँगलियाँ

सीधी रहें।

लाभः मानसिक रोग जैसे कि अनिद्रा अथवा अति

निद्रा, कमजोर यादशक्ति, क्रोधी स्वभाव आदि हो तो

यह मुद्रा अत्यंत लाभदायक सिद्ध होगी। यह मुद्रा

करने से पूजा पाठ, ध्यान-भजन में मन लगता है।

 

लिंग मुद्रा

लिंग मुद्राः दोनों हाथों की उँगलियाँ परस्पर

भींचकर अन्दर की ओर रहते हुए अँगूठे को

ऊपर की ओर सीधा खड़ा करें।

लाभः शरीर में ऊष्णता बढ़ती है, खाँसी मिटती

है और कफ का नाश करती है।

शून्य मुद्राः सबसे लम्बी उँगली (मध्यमा) को

शून्य मुद्रा

अंदपर की ओर मोड़कर उसके नख के ऊपर वाले

भाग पर अँगूठे का गद्दीवाला भाग स्पर्श करायें। शेष

तीनों उँगलियाँ सीधी रहें।

लाभः कान का दर्द मिट जाता है। कान में से पस

निकलता हो अथवा बहरापन हो तो यह मुद्रा 4 से 5

मिनट तक करनी चाहिए।

पृथ्वी मुद्रा

पृथ्वी मुद्राः कनिष्ठिका यानि सबसे छोटी उँगली को

अँगूठे के नुकीले भाग से स्पर्श करायें। शेष तीनों

उँगलियाँ सीधी रहें।

लाभः शारीरिक दुर्बलता दूर करने के लिए, ताजगी

व स्फूर्ति के लिए यह मुद्रा अत्यंत लाभदायक है।

इससे तेज बढ़ता है।

सूर्यमुद्रा

सूर्यमुद्राः अनामिका अर्थात सबसे छोटी उँगली के

पास वाली उँगली को मोड़कर उसके नख के ऊपर

वाले भाग को अँगूठे से स्पर्श करायें। शेष तीनों

उँगलियाँ सीधी रहें।

लाभः शरीर में एकत्रित अनावश्यक चर्बी एवं स्थूलता

को दूर करने के लिए यह एक उत्तम मुद्रा है।

वरुण मुद्रा

      वरुण मुद्राः मध्यमा अर्थात सबसे बड़ी

उँगली के मोड़ कर उसके नुकीले भाग को अँगूठे

के नुकीले भाग पर स्पर्श करायें।

शेष तीनों उँगलियाँ सीधी रहें।

लाभः यह मुद्रा करने से जल तत्त्व की कमी के कारण होने

वाले रोग जैसे कि रक्तविकार और उसके फलस्वरूप होने

वाले चर्मरोग व पाण्डुरोग (एनीमिया) आदि दूर होते है।

प्राण मुद्राः कनिष्ठिका, अनामिका और अँगूठे के ऊपरी भाग

प्राण मुद्राः

को परस्पर एक साथ स्पर्श करायें। शेष दो उँगलियाँ

सीधी रहें।

लाभः यह मुद्रा प्राण शक्ति का केंद्र है। इससे शरीर

निरोगी रहता है। आँखों के रोग मिटाने के लिए व चश्मे

का नंबर घटाने के लिए यह मुद्रा अत्यंत लाभदायक है।

वायु मुद्राः तर्जनी अर्थात प्रथम उँगली को मोड़कर

ऊपर से उसके प्रथम पोर पर अँगूठे की गद्दी

वायु मुद्राः

स्पर्श कराओ। शेष तीनों उँगलियाँ सीधी रहें।

लाभः हाथ-पैर के जोड़ों में दर्द, लकवा, पक्षाघात,

हिस्टीरिया आदि रोगों में लाभ होता है। इस मुद्रा

के साथ प्राण मुद्रा करने से शीघ्र लाभ मिलता है।

अपानवायु मुद्राः अँगूठे के पास वाली पहली उँगली

को अँगूठे के मूल में लगाकर अँगूठे के अग्रभाग की

बीच की दोनों उँगलियों के अग्रभाग के साथ मिलाकर

सबसे छोटी उँगली (कनिष्ठिका) को अलग से सीधी

रखें। इस स्थिति को अपानवायु मुद्रा कहते हैं। अगर

अपानवायु मुद्रा

किसी को हृदयघात आये या हृदय में अचानक

पीड़ा होने लगे तब तुरन्त ही यह मुद्रा करने से

हृदयघात को भी रोका जा सकता है।

लाभः हृदयरोगों जैसे कि हृदय की घबराहट,

हृदय की तीव्र या मंद गति, हृदय का धीरे-धीरे

बैठ जाना आदि में थोड़े समय में लाभ होता है।

पेट की गैस, मेद की वृद्धि एवं हृदय तथा पूरे

शरीर की बेचैनी इस मुद्रा के अभ्यास से दूर होती है। आवश्यकतानुसार हर रोज़ 20 से 30 मिनट तक इस मुद्रा का अभ्यास किया जा सकता है।

ॐॐॐॐॐॐॐॐ

 

कीर्तन

शक्ति......... भक्ति.......... मुक्ति.......... !

ॐॐॐ हरि ॐॐॐ.....

शक्ति.... भक्ति.... और मुक्ति !....

ॐॐॐ मेरा बोले रोम रोम,

हरि ॐॐॐ मेरा झूमे रोम रोम।

हरि ॐॐॐ मेरा गूँजे रोम रोम,

हरि ॐॐॐ मेरा नाचे रोम रोम।

शक्ति.... भक्ति... और मुक्ति!....

गुरु ॐॐॐ प्रभु ॐॐॐ....

राम ॐॐॐ, श्याम ॐॐॐ....

शिव ॐॐॐ, अम्बे ॐॐॐ....

शक्ति.... भक्ति.... और मुक्ति!...

हरि ॐॐॐ मेरा बोले रोम रोम,

हरिॐॐॐ मेरा नाचे रोम रोम।

हरि ॐॐॐ मेरा गूँजे रोम रोम,

हरिॐॐॐ मेरा झूमे रोम रोम।

शक्ति... भक्ति... और मुक्ति!....

ॐॐॐॐॐॐॐ

नारायण कीर्तन

श्रीमन्नारायण नारायण नारायण 2

श्रीमन्नारायण भवतारायण 2

श्रीमन्नारायण नारायण नारायण

ब्रह्मा नारायण, विष्णु नारायण

शिव नारायण, नारायण, नारायण।

माता नारायण पिता नारायण,

गुरु नारायण नारायण नारायण।

सूर्य नारायण चंद्र नारायण,

पृथ्वी नारायण नारायण नारायण।

मुझमें नारायण तुझमें नारायण,

सबमें नारायण नारायण नारायण।

श्रीमन्नारायण नारायण नारायण।

सोते नारायण जगते नारायण,

ध्याते नारायण नारायण नारायण।

खाते नारायण पीते नारायण,

कहते नारायण नारायण नारायण।

श्रीमन्नारायण नारायण नारायण

श्रीमन्नारायण भवतारायण

श्रीमन्नारायण नारायण नारायण।

आते नारायण जाते नारायण,

कहते नारायण नारायण नारायण।

लेते नारायण देते नारायण,

कहते नारायण नारायण नारायण।

श्रीमन्नारायण नारायण नारायम।

यहाँ नारायण वहाँ नारायण 2

जहाँ देखूँ वहाँ नारायण नारायण

श्रीमन्नारायण नारायण नारायण 2

श्रीमन्नारायण भवतारायण 2

श्रीमन्नारायण नारायण नारायण।

ॐॐॐॐॐॐॐ

मधुर कीर्तन

हरि ॐ... हरिॐ.... हरिॐ.....

पावन पावन नाम हरि हरिॐ, मंगल मंगल नाम हरि हरि ॐ।

दिलों का दुलारा नाम हरि हरि ॐ, कलि का किनारा नाम हरि हरि ॐ।।

हरि ॐ... हरिॐ.... हरिॐ.....

पावन पावन नाम हरि हरिॐ, मंगल मंगल नाम हरि हरि ॐ।

मुनि मन रंजन भव भय भंजन हरि हरि ॐ,

मोहनिवारक सब सुखकारक हरि हरि ॐ ।

जो कोई गाये भक्ति पाये हरि हरि ॐ,

जो कोई गाये शक्ति पाये हरि हरि ॐ ।

आनंद आनंद नाम हरि हरि ॐ, मधुर मधुर नाम हरि हरि ॐ ।।

हरि ॐ... हरिॐ.... हरिॐ.....

मेवाड़ में मीरा बोले हरि हरि ॐ, बंगाल में गौरांग गाये हरि हरि ॐ।

महाराष्ट्र में नामदेव बोले हरि हरि ॐ, सौराष्ट्र में नरसी गाये हरि हरि ॐ।

पंजाब में नानक बोले हरि हरि ॐ, मंगल मंगल नाम हरि हरि ॐ।।

हरि ॐ... हरिॐ.... हरिॐ.....

जो कोई ध्याये भक्ति पाये हरि हरि ॐ,

जो कोई ध्याये मुक्ति पाये हरि हरि ॐ।

प्रेम से बोलो प्यारा नाम हरि हरि ॐ, दिल से कहो दुलारा नाम हरि हरिॐ।

कलि का किनारा नाम हरि हरि ॐ, नानक का पियारा नाम हरि हरि ॐ।

संतों का सहारा नाम हरि हरि ॐ, भारत भर में गूँजा नाम हरि हरि ॐ।।

हरि ॐ... हरिॐ.... हरिॐ.....

पावन पावन नाम हरि हरिॐ, मंगल मंगल नाम हरि हरि ॐ।

दिलों का दुलारा नाम हरि हरि ॐ, कलि का किनारा नाम हरि हरि ॐ।

पापों का विनाशक नाम हरि हरि ॐ, भारत भर में गूँजा नाम हरि हरि ॐ।।

हरि ॐ... हरिॐ.... हरिॐ.....

ॐॐॐॐॐॐ

भजन

जोड़ के हाथ झुका के मस्तक

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। - 2

हरे कृष्णा हरे कृष्णा, कृष्णा कृष्णा हरे हरे।। - 2

जोड़ के हाथ झुका के मस्तक, माँगे ये वरदान प्रभु।

द्वेष मिटायें प्रेम बढ़ायें, नेक बनें इनसान प्रभु।।

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।

हरे कृष्णा हरे कृष्णा कृष्णा कृष्णा हरे हरे।।

 

भेदभाव सब मिटे हमारा, सबको मन से प्यार करें।

जाये नजर जिस ओर हमारी, तेरा ही दीदार करें।।

पल-पल क्षण-क्षण करें हमेशा, तेरा ही गुणगान प्रभु।

जोड़ के हाथ झुका के मस्तक, माँगे ये वरदान प्रभु।।

 

दुःख में कभी दुःखी ना होवें, सुख में सुख की चाह न हो।

जीवन के इस कठिन सफर में, काँटों की परवाह न हो।।

रोक सकें न पाँव हमारे, विघ्नों के तूफान प्रभु।

जोड़े के हाथ झुका के मस्तक, माँगे ये वरदान प्रभु।।

 

दीन दुःखी और रोगी सबके, दुखड़े निशदिन दूर करें।

पोंछ के आँसू रोते नैना, हँसने पर मजबूर करें।।

गुरुचरणों की सेवा करते, निकले तन से प्राण प्रभु।

जोड़ के हाथ झुका के मस्तक, माँगे ये वरदान प्रभु।।

 

गुरुज्ञान से इस दुनिया का, दूर अँधेरा कर दें हम।

सत्य-प्रेम के मीठे रस से, सबका जीवन भर दें हम।।

वीर धीर बन जीना सीखे, तेरी ये संतान प्रभु।

जोड़ के हाथ झुका के मस्तक, माँगे ये वरदान प्रभु।।

ॐॐॐॐॐॐ

भारत के नौजवानो!

भारत के नौजवानो! भारत को दिव्य बनाना।

तुम्हें प्यार करे जग सारा, तुम ऐसा बन दिखलाना।।

केवल इच्छा न बढ़ाना, संयम जीवन में लाना।

सादा जीवन तुम जीना, पर ताने रहना सीना।।

भारत के नौजवानो!............

जो लिखा है सदग्रन्थों में, जो कुछ भी कहा संतों ने।

उसको जीवन में लाना, वैसा ही बन दिखलाना।।

भारत के नौजवानो!..............

सारे जहाँ से अच्छा, हिंदोस्ताँ हमारा।

हम बुलबुले हैं इसकी, ये गुलसिताँ हमारा।

सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्ताँ हमारा।

तुम पुरुषार्थ तो करना, पर नेक राह पर चलना।

सज्जन का संग ही करना, दुर्जन से बच के रहना।।

भारत के नौजवानो!..............

जीवन अनमोल मिला है, तुम मौके को मत खोना।

यदि भटक गये इस जग में, जन्मों तक पड़ेगा रोना।।

भारत के नौजवानो! भारत को दिव्य बनाना।

भारत को दिव्य बनाना, भारत को दिव्य बनाना।

ॐॐॐॐॐॐ

हे माँ मँहगीबा........

हे माँ मँहगीबा बड़भागी तू जो ऐसो लाल जनायो! 2

ऐसो लाल जनायो, खुद ब्रह्म तेरे घर आयो।। हे माँ मँहगीबा....

जो भूमि का भार उठाये 2

उसे तूने गोद खिलायो, रे माँ ब्रह्म तेरे घर आयो।। हे माँ मँहगीबा....

जो सृष्टि का पालनहारो 2

उसे तूने दूध पिलायो, रे माँ ब्रह्म तेरे घर आयो।। हे माँ मँहगीबा....

योगी जिनको पकड़ न पायें 2

तूने उँगली पकड़ चलायो, रे माँ ब्रह्म तेरे घर आयो।। हे माँ मँहगीबा....

जिसका न कोई नाम रूप है 2

बापू आसाराम कहायो, रे माँ ब्रह्म तेरे घर आयो।। हे माँ मँहगीबा....

श्वास-श्वास में वेद हैं जिनके 2

लीलाशाह गुरु बनायो, रे माँ ब्रह्म तेरे घर आयो।। हे माँ मँहगीबा....

भारत का ये संत दुलारा 2

हम सबका है सदगुरु है प्यारा

तूने पुत्र रूप में पायो, रे माँ ब्रह्म तेरे घर आयो।। हे माँ मँहगीबा....

ॐॐॐॐॐॐॐ

मेरे साँईं तेरे बच्चे हम........

मेरे साँईं तेरे बच्चे हम, तूने सच्चा सिखाया धरम।

हम संयमी बनें, सदाचारी बनें, और चारित्र्यवान बनें।। मेरे साँईं....

ये धरम जो बिखरता रहा, तेरा बालक बिगड़ता रहा।

तूने दीक्षा जो थी, तूने शिक्षा जो दी, नया जीवन उसी से मिला।।

है तेरे प्यार में वो दम, ये जीवन खिल जाये ज्यों पूनम।

हम संयमी बनें, सदाचारी बनें, और चारित्र्यवान बनें।। मेरे साँईं....

जब भी जीवन में तूफान आये, तेरा बालक घबरा जाये।

तू ही शक्ति देना, तू ही भक्ति देना, ताकि उठकर चलें आगे हम।।

है तेरी करुणा में वो दम, मिट जायेंगे हम सबके गम।

हम संयमी बनें, सदाचारी बनें और चारित्र्यवान बनें।। मेरे साँईं....

ॐॐॐॐॐॐ

महिमा लीलाशाह की

आओ श्रोता तुम्हें सुनाऊँ, महिमा लीलाशाह की।

सिंध देश के संत शिरोमणि, बाबा बेपरवाह की।।

जय जय लीलाशाह, जय जय लीलाशाह।। -2

बचपन में ही घर को छोड़ा, गुरुचरण में आन पड़ा।

तन मन धन सब अर्पण करके, ब्रह्मज्ञान में दृढ़ खड़ा। - 2

नदी पलट सागर में आयी, वृ्त्ति अगम अथाह की।। सिंध देश के.....

योग की ज्वाला भड़क उठी, और भोग भरम को भस्म किया।

तन को जीता मन को जीता, जनम मरण को खत्म किया। - 2

नदी पलट सागर में आयी, वृत्ति अगम अथाह की।। सिंध देश के.....

सुख को भरते दुःख को हरते, करते ज्ञान की बात जी।

जग की सेवा लाला नारायण, करते दिन रात जी। - 2

जीवन्मुक्त विचरते हैं ये दिल है शहंशाह की।। सिंध देश के....

ॐॐॐॐॐॐ

माँ-बाप को भूलना नहीं

भूलो सभी को मगर, माँ-बाप को भूलना नहीं।

उपकार अगणित हैं उनके, इस बात को भूलना नहीं।।

पत्थर पूजे कई तुम्हारे, जन्म के खातिर अरे।

पत्थर बन माँ-बाप का, दिल कभी कुचलना नहीं।।

मुख का निवाला दे अरे, जिनने तुम्हें बड़ा किया।

अमृत पिलाया तुमको जहर, उनको उगलना नहीं।।

कितने लड़ाए लाड़ सब, अरमान भी पूरे किये।

पूरे करो अरमान उनके, बात यह भूलना नहीं।।

लाखों कमाते हो भले, माँ-बाप से ज्यादा नहीं।

सेवा बिना सब राख है, मद में कभी फूलना नहीं।।

सन्तान से सेवा चाहो, सन्तान बन सेवा करो।

जैसी करनी वैसी भरनी, न्याय यह भूलना नहीं।।

सोकर स्वयं गीले में, सुलाया तुम्हें सूखी जगह।

माँ की अमीमय आँखों को, भूलकर कभी भिगोना नहीं।।

जिसने बिछाये फूल थे, हर दम तुम्हारी राहों में।

उस राहबर के राह के, कंटक कभी बनना नहीं।।

धन तो मिल जायेगा मगर, माँ-बाप क्या मिल पायेंगे?

पल पल पावन उन चरण की, चाह कभी भूलना नहीं।।

ॐॐॐॐॐॐ

मात पिता गुरु प्रभु चरणों में....

मात पिता गुरु प्रभु चरणों में प्रणव्रत बारम्बार।

हम पर किया बड़ा उपकार, हम पर किया बड़ा उपकार।। टेक।।

माता ने जो कष्ट उठाया, वह ऋण कभी न जाये चुकाया।

अँगुली पकड़कर चलना सिखाया, ममता की दी शीतल छाया।

जिनकी गोदी में पलकर हम, कहलाते होशियार।

हम पर किया....... मात-पिता...........।। टेक।।

पिता ने हमको योग्य बनाया, कमा कमाकर अन्न खिलाया।

पढ़ा लिखा गुणवान बनाया, जीवन पथ पर चलना सिखाया।

जोड़-जोड़ अपनी संपत्ति का, बना दिया हकदार।

हम पर किया....... मात-पिता...........।। टेक।।

तत्त्वज्ञान गुरु ने दरशाया, अंधकार सब दूर हटाया।

हृदय में भक्ति दीप जलाकर, हरिदर्शन का मार्ग बताया।

बिन स्वारथ ही कृपा करें वे, कितने बड़े हैं उदार।

हम पर किया....... मात-पिता...........।। टेक।।

प्रभु किरपा से नर तन पाया, संत मिलन का साज सजाया।

बल, बुद्धि और विद्या देकर, सब जीवों में श्रेष्ठ बनाया।

जो भी इनकी शरण में आता, कर देते उद्धार।

हम पर किया....... मात-पिता...........।। टेक।।

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कदम अपना आगे बढ़ाता चला जा......

कदम अपना आगे बढ़ाता चले जा। सदा प्रेम के गीत गाता चला जा।।

तेरे मार्ग में वीर! काँटे बड़े हैं। लिए तीर हाथों में वैरी खड़े हैं।

बहादुर सबको मिटाता चला जा। कदम अपना आगे बढ़ाता चला जा।।

तू है आर्यवंशी ऋषिकुल का बालक। प्रतापी यशस्वी सदा दीनपालक।

तू संदेश सुख का सुनाता चला जा। कदम अपना आगे बढ़ाता चला जा।।

भले आज तूफान उठकर के आयें। बला पर चली आ रही हो बलाएँ।

युवा वीर है दनदनाता चला जा। कदम अपना आगे बढ़ाता चला जा।।

जो बिछुड़े हुए हैं उन्हें तू मिला जा। जो सोये पड़े हैं उन्हें तू जगा जा।

तू आनंद डंका बजाता चला जा। कदम अपना आगे बढ़ाता चला जा।।

आरती

दीपक जलाने के पश्चात सर्वप्रथम निम्न श्लोक बोलते हुए दीपक को प्रणाम करें, फिर आरती करें।

दीपो ज्योतिः परं ब्रह्म दीपो ज्योतिर्जनार्दनः।

दीपो हरतु मे पापं दीपो ज्योतिर्नमोsस्तु ते।।

‘हे दीपज्योति! तू परब्रह्मस्वरूपा है, विष्णुस्वरूपा है। तू मेरे पापों को हर ले। हे दीप ज्योति! तुझे नमस्कार है।’

ज्योत से ज्योत जगाओ

ज्योत से ज्योत जगाओ सदगुरु! मेरा अन्तर तिमिर मिटाओ सदगुरु!

ज्योत से ज्योत जगाओ।। हे योगेश्वर! हे परमेश्वर! हे ज्ञानेश्वर! हे सर्वेश्वर!

निज किरपा बरसाओ सदगुरु! ज्योत से.......

हम बालक तेरे द्वार पे आये, मंगल दरस दिखाओ सदगुरु! ज्योत से ज्योत...

शीश झुकायें करें तेरी आरती, प्रेमसुधा बरसाओ सदगुरु! ज्योत से ज्योत....

साँची ज्योत जगे जो हृदय में सोsहं नाद जगाओ सदगुरु! ज्योत से ज्योत.....

अन्तर में युग युग से सोई, चितिशक्ति को जगाओ सदगुरु! ज्योत से ज्योत.....

जीवन में श्रीराम अविनाशी, चरनन शरण लगाओ सदगुरु! ज्योत से ज्योत.....

हाथ जोड़ वन्दन करूँ, धरूँ चरण में शीश।

ज्ञान भक्ति मोहे दीजिए, परम पुरुष जगदीश।।

स्वामी मोहे न बिसारियो, चाहे लाख लोग मिल जायें।

हम सम तुमको बहुत हैं, तुम सम हमको नाहीं।।

दीनदयाल को बिनती, सुनहुँ गरीब नवाज।

जो हम सब कपूत हैं, तो हैं पिता तेरी लाज।।

ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्य करवावहे।

तेजस्वि नावधीतमस्तु। मा विद्वषावहै।

ॐ शांतिः ! शांतिः!! शांतिः!!!

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।।

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।

ॐ शांतिः! शांतिः!! शांतिः!!!

तं नमामि हरिं परम्। तं नमामि गुरुं परम्।।

ॐॐॐॐॐॐ

श्री आसारामायण की कुछ कठिन पंक्तियों के अर्थ

संत सेवा औश्रुति श्रवण, मात पिता उपकारी।

धर्म पुरुष जन्मा कोई, पुण्यों का फल भारी।।

भावार्थः आसुमल के माता-पिता संतसेवा, शास्त्र व सत्संग श्रवण करते थे। वे परोपकारी स्वभाव के थे, अतः दीन-दुःखियों की मदद करते थे। इन महान पुण्यों का ही फल था कि उनके घर परम पूज्य संत श्री आसारामजी बापू जैसे धर्म के मूर्तिमान स्वरूप बालक का जन्म हुआ।

पंडित कहा गुरु समर्थ को, रामदास सावधान।

शादी फेरे फिरते हुए, भागे छुड़ाकर जान।।

भावार्थः समर्थ रामदास स्वामी की शादी का समय था। फेरे लेने की तैयारी हो रही थी, तभी पंडित ने ‘सावधान’ शब्द का तीन बार उच्चारण किया, उसे सुनकर समर्थ ने सोचा कि ‘मैं हमेशा सावधान रहता हूँ फिर भी मुझे पंडित सावधान रहने के लिए कह रहे हैं तो इसमें जरूर कोई रहस्य होगा। उन्हे ख्याल आया कि मेरा लक्ष्य तो ईश्वरप्राप्ति का है। मैं क्यों इस सांसारिक बंधन में पड़ूँ? वे उठे और सीधे जंगल की ओर भागे। पंडित और घरवाले देखते ही रह गये।

इसी तरह जब घरवालों ने पूज्यबापू जी को शादी करने के लिए कहा तो वे विवाह को ईश्वरप्राप्ति के मार्ग में बाधा समझकर बिना किसी को बताये घर छोड़कर चले गये।

अनश्वर मैं हूँ मैं जानता, सत चित्त हूँ आनन्द।

स्थिति में जीने लगूँ, होवे परमानन्द।।

भावार्थः मैं जानता हूँ कि मैं अनश्वर तथा सत्, चित्त व आनन्द स्वरूप हूँ। अपने आत्मस्वरूप में स्थित होकर जीने लगूँ तभी परमानंद प्राप्त होगा।

भाव ही कारण ईश है, न स्वर्ण काठ पाषाण।

सत चित्त आनंदरूप है, व्यापक हे भगवान।।

ब्रह्मोशान जनार्दन, सारद सेस गणेश।

निराकार साकार है, है सर्वत्र भवेश।।

भावार्थः भावना के कारण ही ईश्वर है न कि स्वर्ण, काठ या पत्थर की प्रतिमा। अर्थात चाहे प्रतिमा सोने, लकड़ी या पत्थर की हो परंतु उसमें ईश्वर की भावना न हो तो व्यक्ति के लिए वह केवल जड़ प्रतिमा है, न कि ईश्वर।

भगवान सत्-चित्त अर्थात् सत्य, चेतन और आनंद स्वरूप हैं, सर्वव्यापक अर्थात् सभी स्थानों में व्याप्त हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश (महादेव), शारदा (माँ सरस्वती), शेष, गणेष आदि का भी अधिष्ठान (उदगम स्थान) वही निराकार परमात्मा है। ये सभी उसी निराकार परमात्मा की सत्ता से ही साकार रूप धारण करते हैं। वह परमात्मा सर्वत्र व्याप्त है।

आसोज सुद दो दिवस, संवत् बीस इक्कीस।

मध्याह्न ढाई बजे, मिला ईस से ईस।।

भावार्थः संवत 2011 की आस्विन मास की शुक्लपक्ष की द्वितिया के दिन ढाई बजे ईश्वर से ईश्वर का मिलन हुआ अर्थात् गुरु की कृपादृष्टि और संकल्पमात्र से आसुमल (आज बापूजी) अपने निज स्वरूप में जगे।

एक दिन मन उकता गया, किया डीसा से कूच।

आई मौज फकीर की, दिया झौंपड़ा फूँक।।

भावार्थः बात उस समय की है जब पूज्य बापू जी डीसा की कुटीर में साधना करते थे और उस दौरान शाम को नियमित रूप से सत्संग भी करते थे। एक दिन सत्संग समाप्त होने के बाद पूज्यश्री ने सरल हृदय से विनोद में लोगों से पूछाः

"क्यो भाई! संत भी अन्य संसारी लोगों की तरह ही होते हैं न?"

पूज्यश्री के कथन का भावार्थ कोई ठीक-से समझ नहीं पाया। एक उद्दण्ड व्यक्ति ने कहाः

"हाँ, क्या अंतर है? कुछ भी नहीं। दोनों एक ही... एक ही... "

जवाब सुनकर पूज्यश्री कंधे पर से चादर उतार कर मात्र चड्डी (जाँघिया) पहने ही उसी समय अपनी अवधूती मस्ती में वहाँ से चल दिये। संतों-महापुरुषों को किसी व्यक्ति-वस्तु या स्थान का मोह नहीं होता।

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नाटक

मातृ-पितृ-गुरुभक्त पुण्डलिक

पहला दृश्य

सर्वप्रथम कोई बच्चा ‘ॐ गं गणपतये नमःमंत्र का उच्चारण करेगा। तत्पश्चात् निम्न श्लोक का उच्चारण करेगा।

वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटिसमप्रभ।

निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा।।

सूत्रधारः किसी भी शुभ कार्य को शुरु करने से पहले गणेशजी की पूजा की जाती है, जिससे वह कार्य निर्विघ्न सफल हो।

दूसरा दृश्य

सूत्रधारः शास्त्रों में आता है कि जिसने माता-पिता और गुरु का आदर कर लिया उसके द्वारा सम्पूर्ण लोकों का आदर हो गया और जिसने इनका अनादर कर दिया उसके सम्पूर्ण शुभ कर्म निष्फल हो गये। वे बड़े ही भाग्यशाली हैं, जिन्होंने माता-पिता और गुरु की सेवा के महत्त्व को समझा तथा उनकी सेवा में अपना जीवन सफल किया। ऐसे ही एक सौभाग्यशाली सपूत थे पुण्डलिक।

पुण्डलिक अपनी युवावस्था में तीर्थयात्रा करने के लिए निकला। यात्रा करते-करते काशी पहुँचा। काशी में भगवान विश्वनाथ के दर्शन करने के बाद उसने लोगों से पूछाः क्या यहाँ कोई पहुँचे हुए महात्मा हैं, जिनके दर्शन करने से हृदय को शांति मिले और ज्ञान प्राप्त हो?

लोगों ने कहाः हाँ हैं। गंगापर कुक्कुर मुनि का आश्रम है। वे पहुँचे हुए आत्मज्ञान संत हैं। वे सदा परोपकार में लगे रहते हैं। वे इतनी उँची कमाई के धनी हैं कि साक्षात माँ गंगा, माँ यमुना और माँ सरस्वती उनके आश्रम में रसोईघर की सेवा के लिए प्रस्तुत हो जाती हैं। पुण्डलिक के मन में कुक्कुर मुनि से मिलने की जिज्ञासा तीव्र हो उठी। पता पूछते-पूछते वह पहुँच गया कुक्कुर मुनि के आश्रम में। मुनि के देखकर पुण्डलिक ने मन ही मन प्रणाम किया और सत्संग वचन सुने। इसके पश्चात पुण्डलिक मौका पाकर एकांत में मुनि से मिलने गया। मुनि ने पूछाः वत्स! तुम कहाँ से आ रहे हो?

पुण्डलिकः मैं पंढरपुर (महाराष्ट्र) से आया हूँ।

तुम्हारे माता-पिता जीवित हैं?

हाँ हैं।

तुम्हारे गुरू हैं?

हाँ, हमारे गुरू ब्रह्मज्ञानी हैं।

कुक्कुर मुनि रूष्ट होकर बोलेः "पुण्डलिक! तू बड़ा मूर्ख है। माता-पिता विद्यमान हैं, ब्रह्मज्ञानी गुरू हैं फिर भी तीर्थ करने के लिए भटक रहा है? माता-पिता की सेवा ही तीर्थसेवन है।"

पुण्डलिकः "कैसे प्रभु?"

मुनिः "सुनो! शास्त्रों में कहा है - मातृ देवो भव, पितृ देवो भव! अर्थात माता और पिता देवता तुल्य हैं। पुत्र के लिए माता-पिता के चरण ही महान तीर्थ हैं।"

पुण्डलिकः "जी मुनिवर!"

 

अरे पुण्डलिक! मैंने जो कथा सुनी थी उससे तो मेरा जीवन बदल गया। मैं तुझे वही कथा सुनाता हूँ। तू ध्यान से सुन।

एक बार भगवान शंकर के यहाँ उनके दोनों पुत्रों में होड़ लगी कि, कौन बड़ा?

तीसरा दृश्य

(शांत, सुरम्य, पर्वतीय प्रदेश, आस-पास सुंदर मनोरम वातावरण)

कार्तिकः "गणपति! मैं तुमसे बड़ा हूँ।"

गणपतिः "आप भले ही उम्र में बड़े हैं लेकिन गुणों से भी बढ़प्पन होता है।"

सूत्रधारः दोनों में कौन बड़ा है इस बात का निर्णय लेने के लिए दोनों शिव-पार्वती के पास गये। दोनों ने माता-पिता के सामने अपनी बात रखी।

शिव-पार्वती ने कहाः जो संपूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा करके पहले पहुँचेगा, उसी का बड़प्पन माना जाएगा।

कार्तिकेय तुरन्त अपने वाहन मयूर पर निकल गये पृथ्वी की परिक्रमा करने। गणपति जी चुपके-से एकांत में चले गये। थोड़ी देर शांत होकर उपाय खोजा तो झट से उन्हें उपाय मिल गया। जो ध्यान करते हैं, शांत बैठते हैं उन्हें अंतर्यामी परमात्मा सत्प्रेरणा देते हैं। अतः किसी कठिनाई के समय घबराना नहीं चाहिए बल्कि भगवान का ध्यान करके थोड़ी देर शांत बैठो तो आपको जल्द ही उस समस्या का समाधान मिल जायेगा।

फिर गणपति जी आये शिव-पार्वती के पास। माता-पिता का हाथ पकड़ कर दोनों को ऊँचे आसन पर बिठाया, पत्र-पुष्प से उनके श्रीचरणों की पूजा की और प्रदक्षिणा करने लगे। एक चक्कर पूरा हुआ तो प्रणाम किया.... दूसरा चक्कर लगाकर प्रणाम किया.... इस प्रकार माता-पिता की सात प्रदक्षिणा कर ली।

शिव-पार्वती ने पूछाः वत्स! ये प्रदक्षिणाएँ क्यों की?

गणपतिजीः सर्वतीर्थमयी माता... सर्वदेवमयो पिता... सारी पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने से जो पुण्य होता है, वही पुण्य माता की प्रदक्षिणा करने से हो जाता है, यह शास्त्रवचन है। पिता का पूजन करने से सब देवताओं का पूजन हो जाता है। पिता देवस्वरूप हैं। अतः आपकी परिक्रमा करके मैंने संपूर्ण पृथ्वी की सात परिक्रमाएँ कर लीं हैं। तब से गणपति जी प्रथम पूज्य हो गये।

शिव-पुराण में आता हैः जो पुत्र माता-पिता की पूजा करके उनकी प्रदक्षिणा करता है, उसे पृथ्वी-परिक्रमाजनित फल सुलभ हो जाता है। जो माता-पिता को घर पर छोड़ कर तीर्थयात्रा के लिए जाता है, वह माता-पिता की हत्या से मिलने वाले पाप का भागी होता है क्योंकि पुत्र के लिए माता-पिता के चरण-सरोज ही महान तीर्थ हैं। अन्य तीर्थ तो दूर जाने पर प्राप्त होते हैं परंतु धर्म का साधनभूत यह तीर्थ तो पास में ही सुलभ है। पुत्र के लिए (माता-पिता) और स्त्री के लिए (पति) सुंदर तीर्थ घर में ही विद्यमान हैं।

(शिव पुराण, रूद्र सं.. कु खं.. - 20)

 

दृश्य-3

कुक्कुर मुनिः "पुण्डलिक मैंने यह कथा सुनी और अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन किया। यदि मेरे माता-पिता में कभी कोई कमी दिखती थी तो मैं उस कमी को अपने जीवन में नहीं लाता था और अपनी श्रद्धा को भी कम नहीं होने देता था। मेरे माता-पिता प्रसन्न हुए। उनका आशीर्वाद मुझ पर बरसा। फिर मुझ पर मेरे गुरूदेव की कृपा बरसी इसीलिए मेरी ब्रह्मज्ञा में स्थिति हुई और मुझे योग में भी सफलता मिली। माता-पिता की सेवा के कारण मेरा हृदय भक्तिभाव से भरा है। मुझे किसी अन्य इष्टदेव की भक्ति करने की कोई मेहनत नहीं करनी पड़ी।"

मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदवो भव।

मंदिर में तो पत्थर की मूर्ति में भगवान की कामना की जाती है जबकि माता-पिता तथा गुरूदेव में तो सचमुच परमात्मदेव हैं, ऐसा मानकर मैंने उनकी प्रसन्नता प्राप्त की। फिर तो मुझे न वर्षों तक तप करना पड़ा, न ही अन्य विधि-विधानों की कोई मेहनत करनी पड़ी। तुझे भी पता है कि यहाँ के रसोईघर में स्वयं गंगा-यमुना-सरस्वती आती हैं। तीर्थ भी ब्रह्मज्ञानी के द्वार पर पावन होने के लिए आते हैं। ऐसा ब्रह्मज्ञान माता-पिता की सेवा और ब्रह्मज्ञानी गुरू की कृपा से मुझे मिला है।

पुण्डलिक तेरे माता-पिता जीवित हैं और तू तीर्थों में भटक रहा है?

सूत्रधारः पुण्डलिक को अपनी गल्ती का एहसास हुआ। उसने कुक्कुर मुनि को प्रणाम किया और पंढरपुर आकर माता-पिता की सेवा में लग गया।

दृश्य चौथा

सूत्रधारः माता-पिता की सेवा ही उसने प्रभु की सेवा मान ली। माता-पिता के प्रति उसकी सेवानिष्ठा देखकर भगवान नारायण बड़े प्रसन्न हुए और स्वयं उसके समक्ष प्रकट हुए। पुण्डलिक उस समय माता-पिता की सेवा में व्यस्त था। उसने भगवान को बैठने के लिए एक ईंट दी।

(यहाँ पर पुण्डलिक को वृद्ध माता-पिता की सेवा में रत और भगवान नारायण को प्रकट होते हुए दिखायेंगे। फिर पुण्डलिक भगवान नारायण को बैठने के लिए ईंट देते हुए और उसके बाद भगवान नारायण को उस ईंट पर खड़े हुए दिखायेंगे।)

सूत्रधारः अभी भी पंढरपुर में पुण्डलिक की दी हुई ईंट पर भगवान विष्णु खड़े हैं और पुण्डलिक की मातृ-पितृभक्ति की खबर दे रहा है पंढरपुर तीर्थ।

यह भी देखा गया है कि जिन्होंने अपने माता-पिता तथा ब्रह्मज्ञानी गुरू को रिझा लिया है, वे भगवान के तुल्य पूजे जाते हैं। उनको रिझाने के लिए पूरी दुनिया लालायित रहती है। वे मातृ-पितृभक्ति से और गुरूभक्ति से इतने महान हो जाते हैं।

भजनः इसके पश्चात कुछ बच्चे-बच्चियाँ ‘मात-पिता गुरु प्रभु चरणों में....’ इस भजन का सामूहिक गान (अभिनय के साथ) करें।

समाप्त

नोटः इस तरह किसी भी कथा-प्रसंग को लेकर नाटक रचा जा सकता है। सूत्रधार के संवाद पर्दे के पीछे-से बोले जायें। समय-समय पर ऐसे नाटकों का आयोजन कर सकते हैं। वेशभूषा आदि पर कोई विशेष खर्च न हो इसका ध्यान रखें।

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मैदानी खेल

संगठन की शक्ति अनेक से एक

(इस खेल को संचालक अपनी सुविधानुसार जब भी चाहे बच्चों को खिला सकता है।) नोटः बच्चे-बच्चियाँ अलग-अलग खेलें।

परिचयः बच्चो! चार प्रकार के बल होते हैं। बताओ कौन-कौन से? बच्चों को उदाहरण के साथ समझायें कि एक होता है - शरीर बल, जैसे जंगल के सभी जानवरों में हाथी में सबसे अधिक शारीरिक बल होता है। दूसरा होता है- मनोबल। अगर व्यक्ति का मनोबल दृढ होगा तो अच्छे-से-अच्छे शारीरिक बलवालों को भी हरा सकता है। जैसे- एक सिंह दर्जनों हाथियों को अकेले अपने दृढ़ मनोबल से पछाड़ सकता है। हाथी में शारीरिक बल बहुत होता है लेकिन सिंह में मनोबल अधिक होता है जिसके कारण वह जंगल का राजा कहलाता है। इससे भी बड़ा होता है बुद्धिबल। अन्य प्राणियों की अपेक्षा मनुष्य में इसकी अधिकता होती है, जिसके बल पर वह मनोबल वाले सिंह को भी पिंजरे में कैद कर लेता है तो ऐसा बुद्धिबल डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, अफसर के पास योग्यतानुसार खूब विकसित होता है लेकिन अगर कोई बड़ा नेता आये, प्रधानमंत्री आये तो बुद्धिबल वाले भी इनके सम्मान में आदरपूर्वक खड़े हो जाते हैं क्योंकि इनके पास संगठनबल है, जो कि बुद्धिबल से भी बढ़कर है। ऐसे कई नेता और प्रधानमंत्री भी संतों के चरणों में मत्था टेककर अपना भाग्य बनाते हैं क्योंकि उनके पास सर्वोपरि बल होता है परन्तु हमारे व्यवहारिक जीवन में संगठनबल बहुत जरूरी है। जैसे एक पतली सी लकड़ी को आप अकेले टुकड़े-टुकड़े कर सकते हो पर बहुत सारी लकड़ियों को साथ में नहीं तोड़ सकते। इसलिए हमें हमेशा संगठित होकर रहना चाहिए। ताकि पड़ोसी राष्ट्र अथवा अन्य कोई भी हम पर बुरी नजर डालने की हिम्मत न कर सके। हम अगर कुटुम्ब में मिलकर रहेंगे तो कुटुम्ब मजबूत होगा। अड़ोस-पड़ोस से मिलकर रहेंगे तो मोहल्ला बलवान होगा। मोहल्ले आपस में एक दूसरे का हित देखें तो गाँव बलवान होगा। हर गाँव दूसरे गाँव का कष्ट समझे तो राज्य बलवान होगा। अगर राज्य एक दूसरे को मदद करें तो राष्ट्र बलवान होगा और राष्ट्र आपस का वैर भुलाकर सबका मंगल व हित सोचें तो सम्पूर्ण मानव-जाति का कल्याण होगा।

तो बच्चो! मिलकर, संगठित होकर रहने में बहुत शक्ति होती है। हम सब मिलकर साथ रहें तो हम पर कुदृष्टि रखनेवाला हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। आज हम इस खेल के द्वारा संगठन की शक्ति व अनेकता में एकता की सीख लेंगे। जैसे हमारी भाषाएँ अनेक, व्यक्ति अनेक, राज्य अनेक लेकिन राष्ट्र एक, ऐसे ही हमारी पूजा की पद्धतियाँ अनेक, मूर्ति की आकृतियाँ अनेक लेकिन ईश्वर एक-का-एक। (ऐसा बताते हुए ईश्वर के प्रति प्रेमभाव विकसित हो, इसलिए थोड़ा समय ध्यान करायें। फिर बच्चों को केन्द्रस्थल से बाहर मैदान में ले जाकर खिलायें।)

विधिः सभी बच्चे गोलाकार में खड़े हो जायें और गोल चक्कर में एक के पीछे एक दौड़ें। संचालक गोले के पीछे खड़ा रहेगा और निम्न प्रकार की घोषणा करेगा जिससे बच्चों में उमंग व उत्साह आ जाये। आगे दर्शायी जाने वाली घोषणा को संचालक पहले से ही बच्चों को पक्का करा दें। जैसे संचालक बोलेः ‘ॐॐ’ बच्चे बोलें- ‘हरिॐ’। संचालक कहेगा- ‘भारत देश’ बच्चे कहेंगेः ‘महान है।’

संचालक

बच्चे

ॐॐ

हरि ॐ

भारत देश

महान है।

हम ऋषियों की

संतान हैं।

हम बच्चे देश की

शान हैं।

हम जीवन

दिव्य बनायेंगे।

हम नयी

चेतना जगायेंगे।

हम गुरु संदेश

सुनायेंगे।

संगठन में

शक्ति है।

भारत को

विश्वगुरु बनायेंगे।

 

जैसे ही बच्चे भारत को ‘विश्वगुरु बनायेंगे’ बोलेंगे उसके तुरंत बाद संचालक एक संख्या बोलेगा। इसी संख्या के आधार पर बच्चों को आपस में हाथ पकड़ के अपनी टोली बनानी होगी। जैसे संचालक 5 कहता है तो 5-5 बच्चे आपस में हाथ पकड़ के गोलाकार खड़े हो जायेंगे और जो बच्चे किसी टोली में नहीं आ पाये अतिरिक्त हैं, वे बाहर हो जायेंगे, जैसे 24 बच्चे हैं और संचालक ने 5 कहा तो 5-5 बच्चों के 4 ग्रुप बन जायेंगे, शेष रहेंगे 4 बच्चे जो किसी टोली के रूप में न आ पाने के कारण बाहर हो जाएंगे और इस तरह बच्चों की संख्या कम करते जायें, आखिर में दो बच्चे शेष रह जायेंगे।

टिप्पणीः बच्चे टोली बनाकर भागें नहीं वरन् खड़े रहें। संचालक द्वारा हर बार घोषणा दोहराई जाए।

लाभः बच्चों को संगठन का महत्त्व पता चलता है। खेल के अंत में अनेक में एक छुपा है, इसका रहस्य बताकर ईश्वर की सर्वव्यापकता व एकरूपता का वर्णन कर उन्हें समझायें।

गोल-गोल-गोल, ज्ञान के पट खोल

सर्वप्रथम बालक और बालिकाओं के दो समूह बनायें। पहले समूह के सभी बच्चे गोलाकार में खड़े हो जायेंगे। उन सबके बीच में एक बच्चा खड़ा रहेगा जिसकी आँखों पर पट्टी बँधी रहेगी और उसका एक हाथ सामने फैला रहेगा व उस हाथ की पहली उँगली सीधी रहेगी। सभी मिलकर कीर्तन करेंगे, इस दौरान बीचवाला बच्चा उपरोक्त स्थिति में गोल-गोल घूमता रहेगा। बीच-बीच में कीर्तन बंद होगा और बीचवाला लड़का जहाँ होगा वहाँ रुक जायेगा। जिस ओर उसकी उँगली रहेगी उसी सीध में जाकर सामने खड़े बच्चे को छुएगा। वह जिस बच्चे को छु देगा, उससे दूसरा समूह प्रश्न पूछेगा। (प्रश्न केन्द्र में सिखायी गयी प्रवृत्तियों पर आधारित हो) प्रश्न के सही उत्तर के आधार पर उस समूह को 10 अंक मिलेंगे और गलत उत्तर पर 5 अंक कटेंगे। पुनः कीर्तन शुरु होगा। इस प्रकार खेल चलता रहेगा। एक समूह 15-20 मिनट तक खेलेगा। सबसे ज्यादा अंक पाने वाले समूह को विजेता घोषित किया जायेगा।

देव-मानव हास्य प्रयोग

पहले सप्ताह में हास्य प्रयोग के विषय में संक्षेप में बतायें। फिर हर सप्ताह इस विषय में थोड़ा-थोड़ा बतायें व इसके कुछ लाभ बताकर यह प्रयोग करवायें।

हास्य के अनेक शारीरिक व मानसिक लाभ हैं, जिन्हें पूर्णरूप से पाने एवं साथ में आध्यात्मिक लाभ भी प्राप्त करने का सरल, सर्वसुलभ व अत्युत्तम साधन है विश्ववंदनीय संत श्री आसाराम जी बापू द्वारा बताया गया देव-मानव हास्य प्रयोग। यह वर्तमान युग की चिंता, तनाव, अनारोग्य आदि असंख्या समस्याओं से निजात पाने हेतु एक प्रभावशाली, अनुभवसिद्ध प्रयोग के रूप में लोकप्रिय हो रहा है।

इसमें सर्वप्रथम एकाध मिनट तक तेज गति से तालियाँ बजाते हुए भगवन्नाम का तेजी से आवर्तन किया जाता है और भगवदभाव को उभारा जाता है। फिर दोनों हाथों को ऊपर की उठाकर दिल को भगवत्प्रेम से भरते हुए भगवत्समर्पण की मुद्रा में दिल खोलकर हँसा जाता है।

प्रयोग की शुरुआत के दिनों में हँसी न भी आये तो भी भगवान की, अपने इष्ट की किसी लीला को याद करके थोड़ा यत्नपूर्वक हँसें। जैसे- यदि आप भगवान श्री कृष्ण के भक्त हैं तो उनकी माखन चोरी की लीला, गोपी की चोटी और उसके पति की दाढ़ी बाँध देने की लीला का स्मरण करें। कुछ ही समय के अभ्यास से आप देखेंगे कि भगवदभाव, भगवत्प्रेम, भगवत्समर्पण आपको एक ऐसी मधुर, स्वाभाविक हँसी प्रदान करेगा कि आप इस प्रयोग के प्रेमी बन जायेंगे। तत्पश्चात बच्चों को बतायें कि ‘एक हाथ आपका और दूसरा हाथ भगवान का है, भगवान और अपना हाथ मिलाओ तो भगवान के साथ आपकी दोस्ती पक्की हो जायेगी।’ अब बच्चे राम, राम या हरि ॐ अथवा भगवान को कोई भी नाम लेते हुए तेजी से ताली बजायें, फिर दोनों हाथ ऊपर उठाकर जोर से हँसें।

लाभः हास्य प्रयोग करने से फेफड़ों का व्यायाम हो जाता है। शरीर के अनेक रोग और मन के दोष दूर होते हैं। शरीर की 72 हजार नाड़ियों की शुद्धि होती है। जब हम ताली बजाते हुए अहोभाव से ‘हरि ॐ’ कहते हुे हाथों को आकाश की ओर उठाते हैं तो हमारी जीवनीशक्ति बढ़ती है और मानसिक तनाव, खिंचाव, दुःख-शोक सब दूर हो जाते हैं। जब भी जीवन में मानसिक तनाव, खिंचाव, दुःख शोक आये तो उस समय यह प्रयोग करने से हृदय में आनंद और शांति का संचार होने लगता है। इसलिए प्रतिदिन दिन में एक बार हास्य प्रयोग तो अवश्य करना चाहिए।

दिल खोलकर हँसना निरर्थक, दुःखदायक विचारों की श्रृंखला को तोड़ने की उत्तम एवं सर्वसुलभ कुंजी है। हँसमुख एवं प्रसन्न लोगों के पास रोग व दुःख ज्यादा देर नहीं टिक पाते और वे चिंतित मनुष्यों की अपेक्षा अपने सभी कार्यों को अधिक सफलतापूर्वक करते हैं। प्रसन्न व्यक्ति अधिक आयु तक युवा व सुन्दर बना रहता है। आनंदमयी हँसी हमारे हृदय के पट खोल देती है, मन का सारा बोझ क्षणमात्र में मिटाकर उसे फूल सा हलका बना देती है। हँसता हुआ व्यक्ति स्वयं तो लाभ उठाता ही है, साथ ही अपने साथियों को भी लाभ पहुँचाता है। हँसने वाले का साथ सारा संसार देता है और उदास-निराश का कोई नहीं। प्रतिदिन हँसने का थोड़ा अभ्यास करके अपनी आयु को बढ़ाया जा सकता है। किसी की कटु, अपमानजनक या कुत्सित बात पर मायूस होकर दुःखी होने की बजाय उसे हँसी-हँसी में टाला जा सकता है। इसी प्रकार आपसी मनमुटाव भी हँसकर तत्काल मिटाया जा सकता है। हँसना हमारे शरीर के सुरक्षातंत्र की क्रियाशीलता और गुणवत्ता को बढ़ाता है। दिल से खुलकर हँसना जीवन में संघर्षों से जूझने की शक्ति प्रदान करता है। इससे कार्य करने की क्षमता बढ़ती है और माहौल खुशुनमा बना रहता है।

अनुसंधानकर्ताओं  के अनुसार हँसने से हृदय की धमनियाँ ज़्यादा प्रभावी रूप से कार्य करती हैं। इससे हृदय की बीमारियाँ पास नहीं फटक पातीं परन्तु जिन्हें हृदयरोग हो चुका है उन्हें बहुत बल लगाकह नहीं हँसना चाहिए।

हास्य हमारे शरीर में एण्डोर्फिनकी मात्रा बढ़ाता है, जो प्राकृतिक दर्द निवारक है। यह रक्तचाप को नियंत्रित रखता है और तनाव को दूर भगाता है। खुलकर हँसने से व्यग्रता, क्रोध, चिड़चिड़ापन इन सबसे छुटकारा पाया जा सकता है। जब हम हँसते हैं तो पहले की अपेक्षा ज़्यादा साँस अंदर लेते हैं, इससे अधिक मात्रा में ऑक्सीजन फेफड़ों में जाती है और आप स्वयं को तरोताजा महसूस करते हैं। हँसना उन लोगों के लिए और भी अधिक लाभकारी है, जो बैठे रहने का कार्य करते हैं और जो काफी समय बिस्तर व पहियेवाली कुर्सी पर बैठे रहकर बिताते हैं।

हँसने से माँसपेशियों में खिंचाव कम हो जाता है जिससे आराम मिलता है। नियमित हँसने से सिरदर्द, दमा, जोड़ों की सूजन एवं रीढ़ के जोड़ों से संबंधित तकलीफों में कमी पायी जाती है। हँसने से रोगप्रतिकारक शक्ति भी बढ़ती है।

नोटः हर सप्ताह कीर्तन करवाने के पश्चात हास्य प्रयोग करवायें। इसके अतिरिक्त जब आपको लगे कि बच्चे उबान का अनुभव कर रहे हैं या आपको अनुकूल लगे तब भी यह प्रयोग करवा सकते हैं।

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बाल संस्कार संबंधी कुछ महत्त्वपूर्ण जानकारी

संकल्प-पत्र

आपके क्षेत्र में रहने वाले जो साधक बाल संस्कार केन्द्रखोलने के इच्छुक हों, उनसे यह संकल्प-पत्रभरवायें। ‘संकल्प पत्र’ का प्रारूप आगे दिया गया है। आप दिये गये प्रारूप की फोटोकॉपी का भी उपयोग कर सकते हैं।

नियमावली

बाल संस्कार केन्द्र खोलने एवं संचालित करने के लिए निम्नलिखित नियमों का पालन करना अनिवार्य हैः

1.     बाल संस्कार केन्द्र में बालक-बालिकाओं को पूर्णतः निशुल्क प्रवेश दिया जायेगा। केन्द्र की ओर से किसी भी प्रकार की फीस, चंदा आदि एकत्रित नहीं किया जायेगा और न ही केन्द्र के नाम कोई रसीद बुक छपायी जायेगी।

2.     बाल संस्कार केन्द्र का आर्थिक प्रबन्धन स्थानीय श्री योग वेदान्त सेवा समिति स्वयं करेगी। केन्द्र को आर्थिक सहायता प्रदान करने के इच्छुक व्यक्ति स्थानीय सेवा समिति से संपर्क कर सकते हैं। बाल संस्कार केन्द्र चलाने वाले शिक्षक-शिक्षिका अगर यातायात और धन के अभाव के कारण बाल संस्कार केन्द्र चलाने वाले शिक्षक-शिक्षिका अगर यातायात और धन के अभाव के कारण बाल संस्कार केन्द्र नहीं चला पाते हों तो स्थानीय समिति अथवा बालकों के अभिभावक और निकटवर्ती आश्रम आपस में मिल कर सलाह-मशविरा करके उनके मासिक खर्च की सुविधा कर दें।

3.     मुख्यालय के उपरोक्त नियमों के अतिरिक्त समय-समय पर संशोधित व नवनिर्मित अन्य नीति-नियम भी केन्द्र व इससे जुड़ी समितियों के लिए बाध्य होंगे।

4.     बाल संस्कार केन्द्र की अपनी कोई मुहर नहीं होगी। आवश्यकता पड़ने पर स्थानीय समिति के ‘लेटर पैड’ व मुहर का उपयोग किया जा सकता है।

5.     स्थानीय संचालन समिति/केन्द्र संचालक ऐसे कोई कदम नहीं उठायेंगे, जो आश्रम के आदर्शों के विपरीत पड़ते हों अथवा जिनके संबंध में मुख्यालय द्वारा कोई स्पष्ट निर्देश न दिया गया हो। मुख्यालय द्वारा स्पष्ट रूप से निर्देशित नीति-नियमों के अनुसार ही केन्द्र का संचालन किया जाना अनिवार्य है। अगर नियमावली से किसी मुद्दे पर स्पष्ट निर्देश न मिले तो उस विषय में मुख्यालय से स्पष्टीकरण प्राप्त कर लें।

प्रस्तावित केन्द्र संचालक हेतु अनिवार्य योग्यताएँ

(क)             प्रस्तावित केन्द्र संचालक पूज्य गुरुदेव से दीक्षित हो तथा दीक्षा लेने के बाद उसने कम से कम तीन शिविर भरे हों। यदि शिविर न भरे हों तो निकट भविष्य में आयोजित शिविरों का लाभ लें।

(ख)             वह व्यसनमुक्त, चरित्रवान तथा भगवत्प्रीत्यर्थ कार्यों में रूचिवाला हो।

(ग)  वह दिवालिया, कोढ़ी अथवा अन्य किसी असाध्य संक्रामक रोग से पीड़ित न हो।

(घ)  वह स्वेच्छापूर्वक नियमित रूप से कार्यक्रम चलाने की स्थिति में हो।

(ङ)   उसे भारतीय धर्म, दर्शन व संस्कृति का अच्छा ज्ञान होना चाहिए। भारतीय संस्कृति का ज्ञान प्राप्त करने हेतु आश्रम से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘ऋषि प्रसाद’ और समाचार पत्र ‘लोक कल्याण सेतु’ का अवलोकन तथा श्री कृष्ण दर्शन, पर्वों का पुंजः दीपावली, जीवन विकास, युवाधन सुरक्षा आदि पुस्तकों का सुचारू रूप से अध्ययन आवश्यक है।

(च)  उसे संस्कृत भाषा का इतना ज्ञान अवश्य होना चाहिए कि वह ठीक ढंग से संस्कृत श्लोकों का उच्चारण कर सके।

पंजीकरण

बाल संस्कार केन्द्र के शुभारम्भ के पश्चात केन्द्र संचालक शीघ्र ही आवेदन पत्र भरकर अमदावाद मुख्यालय भेजें। ताकि जल्द से जल्द उनके केन्द्र को मुख्यालय द्वारा मान्यता हेतु पंजीकरण क्रमांक (कोड नं.) प्राप्त हो सके। पंजीकरण हेतु आप दिये गये आवेदन-पत्र का उपयोग करें।

नोटः अगर आप एक से अधिक केन्द्र चला रहे हैं तो आवेदन पत्र एक बार ही भेजें। स्वयं आपके द्वारा चलाये जा रहे अन्य केन्दों का विवरण (पता आदि) ‘बाल संस्कार मुख्यालय’ (अमदावाद) भेजें। आपको हर केन्द्र का अलग-अलग पंजीकरण क्रमांक (कोड नं.) प्राप्त होगा। आवेदन पत्र स्पष्ट अक्षरों में भरें।

 

बाल संस्कार केन्द्र की द्विमासिक रिपोर्ट

बाल संस्कार केन्द्र पंजीकृत होने के बाद संचालक हर दो माह बाद केन्द्र की प्रगति रिपोर्ट एक पोस्टकार्ड पर लिखकर अमदावाद मुख्यालय भेजें। जिसमें केन्द्र का कोड नं., संचालक का नाम व पूरा पता, दो माह में संचालित केन्द्र की तारीख एवं प्रति कार्यक्रम में उपस्थित बच्चों की संख्या लिखें। पोस्टकार्ड द्वारा भेजी जाने वाली द्विमासिक रिपोर्ट का प्रारूप नीचे दिया जा रहा है।


 

केन्द्र का कोडः ......................................................................

केन्द्र का नाम व पताः ...........................................................

...........................................................................................

...........................................................................................

 

महीना                                       

वर्ष

कार्यक्रम दिनांक

 

 

 

 

 

 

 

 

कुल

बच्चों की संख्या

 

 

 

 

 

 

 

 

 

महीना

वर्ष

कार्यक्रम दिनांक

 

 

 

 

 

 

 

 

कुल

बच्चों की संख्या

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

अन्य महत्त्वपूर्ण जानकारी

.................................

..................................

...................................

....................................

.....................................

....................................

.......................................

........................................

........................................

........................................

........................................

दिनांक...........हस्ताक्षर............

 

 

To

बाल संस्कार केन्द्रविभाग

अखिल भारतीय श्री योग वेदान्त सेवा समिति,

संत श्री आसाराम जी आश्रम,

संत श्री आसाराम जी बापू आश्रम मार्ग,

अमदावाद (गुजरात)

PIN

3

8

0

0

0

5

 


द्विमासिक रिपोर्ट में अमदावाद मुख्यालय द्वारा प्राप्त कोड नं. लिखना अति आवश्यक है।

नोटः यदि आपके क्षेत्र में ऐसा कोई केन्द्रीय स्थान हो जहाँ सभी बाल संस्कार संचालकों की रिपोर्ट जमा करवाकर एक साथ अमदावाद मुख्यालय भेजी जा सकती हो तो संचालक इस प्रारूप के अनुसार सादे कागज में रिपोर्ट वहाँ जमा करा सकते हैं।

ॐॐॐॐॐॐ

अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें-

बाल संस्कार विभाग

अखिल भारतीय श्री योग वेदान्त सेवा समिति

संत श्री आसाराम जी आश्रम, संत श्री आसारामजी बापू आश्रम मार्ग,

अमदावाद- 380005, फोनः (071) 27505010-11

मुख्यालय से सीधे संपर्क हेतुः 39877749, 66115749.

e-mail: ashramindia@ashram.org  or bskamd@yahoo.com

 


सदगुरु-चरणों में मेरा संकल्प

 

बाल संस्कार केन्द्र

सदगुरु-चरणों में मेरा संकल्प

 

"मैं पूज्य बापूजी के श्रीचरणों में प्रार्थना तथा संकल्प करता/करती हूँ कि कम-से-कम (संख्या लिखें).................... बाल संस्कार केन्द्र स्वयं चलाऊँगा/चलाऊँगी तथा मेरे संपर्क में आने वाले (संख्या लिखें) ................... साधक भाई-बहनों को केन्द्र चलाने हेतु प्रेरित करूँगा/करूँगी। यह संकल्प मैं पूज्य गुरुदेव की कृपा से आगामी (महीना लिखें) .................. माह तक पूरा करूँगा/करूँगी। पूज्य बापूजी के इस दैवी कार्य में सहभागी बनने का मुझे जो सौभाग्य प्राप्त हो रहा है, उसे मैं जिम्मेदारीपूर्वक निभाऊँगा/निभाऊँगी। मुझे अवश्य सफलता मिलेगी। भगवत्कृपा और गुरुकृपा मेरे साथ है। मुझे स्मृति है मेरे गुरुदेवश्री ने अनेक बार बुलंद स्वर में कहा हैः

लक्ष्य न ओझल होने पाये कदम मिलाकर चल।

सफलता तेरे कदम चूमेगी आज नहीं तो कल।।

सूचनाः संकल्प पत्र के इस भाग को अपने नियम-पूजा के स्थान पर रखें तथा प्रतिदिन इसे दोहरायें।

 

नोटः ऊपर का भाग साधक को दें तथा नीचे का भाग बाल संस्कार प्रभारी के पास जमा करें।

कितने केन्द्र स्वयं चलायेंगे?...................................................................................

कितने साधकों को प्रेरित करेंगे?..............................................................................

संकल्प कब तक पूरा करेंगे?...................................................................................

नामः.................................................................................................................

पताः.................................................................................................................

....................................................................................पिन कोड.......................

फोन नं. ...........................................................................................................

शैक्षणिक योग्यताः................................................................................................

दीक्षा कब व कहाँ ली?..........................................................................................

दिनांक............................................................................ हस्ताक्षर.......................

 


संत श्री आसारामजी आश्रम द्वारा निर्देशित निःशुल्क बाल संस्कार

केन्द्रखोलने हेतु

समिति सम्मत पत्रक

प्रति,

प्रभारी श्री, बाल संस्कार केन्द्र विभाग,

श्री अखिल भारतीय योग वेदान्त सेवा समिति,

संत श्री आसारामजी आश्रम, साबरमती,

अमदावाद- 380005

(नोटः कृपया बाल संस्कार केन्द्र संचालन हेतु आश्रम द्वारा प्रकाशित नियमावली का पूर्ण अध्ययन करके ही समिति स्वयं यह आवेदन-पत्र भरे।)

1.     श्री योग वेदान्त समिति,.................... कोड नं. ................. गठन का वर्ष...........

2.     पूरा पताः ..........................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................

3.     आपके क्षेत्र में दीक्षित साधकों की संख्याः.............................................

4.     समिति के प्रमुख सेवाकार्यः...............................................................

5.     केन्द्र का आर्थिक प्रबन्धन किस तरह से करेंगे? आय के स्रोत व अनुमानित खर्च सहित स्पष्ट उल्लेख करें। (इस हेतु अतिरिक्त पन्ने का प्रयोग करें।)

6.     उपरोक्त तथ्यों के अतिरिक्त अन्य कोई जानकारी हो तो उसका भी उल्लेख करें.................................................................................................................................................................................................................................

[नोटः विस्तृत विवरण के लिए अतिरिक्त पन्ने का प्रयोग करें।]

घोषणा व सत्यापन

यह समिति यह घोषणा करती है कि उपरोक्त सभी सूचनाएँ सत्य व प्रमाणिक हैं। समिति यह भी सत्यापित करती है कि प्रस्तावित केन्द्र संचालक/संचालिका का चरित्र और व्यवहार अच्छा है। स्थानीय समाज में आपकी छवि साफ सुथरी है। समिति की दृष्टि में आप बच्चों में सुसंस्कार-सिंचन हेतु एक सुयोग्य पात्र हैं। समिति को विश्वास है कि आप बाल संस्कार केन्द्र को सफलता पूर्वक संचालित कर सकेंगे/सकेंगी। प्रस्तावित केन्द्र संचालक के विवरण-पत्रक में दी गयी सारी सूचनाएँ समिति की जानकारी में सत्य हैं।

पद

पूरा नाम

हस्ताक्षर

दिनांक

 

 

 

 

 

 

 

 

समिति के पदाधिकारी हस्ताक्षर कर सकते हैं।

समिति की मुहर

नोटः अगर आपके क्षेत्र में श्री योग वेदान्त सेवा समिति नहीं है तो आप इस सम्मति पत्रक को बिना भरे भेज दें।

ॐॐॐॐॐॐ


 

आवेदन पत्र

 

(इसे प्रस्तावित केन्द्र संचालक/संचालिका स्वयं भरे।) कोड नं......

 

 

यहाँ अपना फोटो अवश्य लगायें

1.      आवेदक का पूरा नामः.......................................

2.      पिता/पति का नामः..........................................

3.      व्यवसायः.......................................................

4.      वर्तमान पता (स्पष्ट अक्षरों में लिखें)........................................................................................ग्राम/शहर...............................................तहसील/तालुका.................जिला.................................राज्य.............................पिनकोड.............................

5.       फोन नं. (S.T.D. कोड सहित)...................................................

6.      मोबाइल..........................................

7.      ई-मेल............................................

8.      जन्म-तिथि....................................

9.      आयु (वर्ष)....................................

10.  शैक्षणिक विवरणः अंतिम परीक्षा का विवरण लिखें।

कक्षा

वर्ष

विद्यालय/महाविद्यालय

बोर्ड/विश्वविद्यालय

प्रमुख विषय

प्राप्तांक प्रतिशत में

श्रेणी

 

 

 

 

 

 

 

11.  इसके अतिरिक्त यदि आपके पास कोई विशेष योग्यता हो तो उसका उल्लेख करें।............................................................................................

12.  शिक्षा का माध्यम.........................मातृभाषा.......................

13.  आपने पूज्यश्री से दीक्षा कब ली?........................कहाँ?.................

14.  क्या आप पूनम व्रतधारी हैं? (हाँ/नहीं) यदि हाँ तो पूनम कहाँ भरते हैं? आश्रम में/पूज्यश्री के सान्निध्य में............................................................

15.  अब तक कितने शिविर भरे हैं?............... कितने मौन मंदिर किये?.................कितने मंत्रानुष्ठान किये?................................

16.  क्या आप किसी असाध्य संक्रामक रोग से पीड़ित हैं?......................

17.  प्रस्तावित केन्द्र स्थल का विवरण (पूरा पता पिन कोड सहित लिखें।)...............................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................

18.  केन्द्र संचालन का समय और दिनः......................................................

19.  क्या आप शिक्षक हैं? (हाँ/नहीं) अगर हाँ तो विद्यालय का नाम व पता लिखें।.................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................

नोटः अगर आप एक से अधिक केन्द्र चला रहे हैं तो आवेदन पत्र एक ही बार भेजें। स्वयं आपके द्वारा चलाये जा रहे अन्य केन्द्रों का विवरण (पता आदि) हमें भेजें। आपको हर केन्द्र का अलग-अलग पंजीकरण क्रमांक (कोड नं.) प्राप्त होगा।

अगर आपने अन्य साधकों को ‘बाल संस्कार केन्द्र’ खोलने के लिए प्रेरित किया है और उनके केन्द्र भी शुरु हो गये हैं तो उनसे भी आवेदन पत्र भरवाकर अमदावाद मुख्यालय को भिजवायें।

मैंने दिनांक................... को पूज्य बापू जी की कृपा से बाल संस्कार केन्द्र शुरु कर दिया है। पहले कार्यक्रम में .................. (संख्या लिखें) बच्चे उपस्थित थे।

मैं घोषणा करता/करती हूँ कि मेरे द्वारा प्रस्तुत सारे तथ्य सही हैं। यदि उनमें कहीं कोई त्रुटि पायी जाती है तो उसके लिए मैं स्वयं जिम्मेदार हूँ।

 

दिनांकः................................................. हस्ताक्षर.........................

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ